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व्याख्या
व्याख्या :
यह गुरुवन्दनसूत्र है । षट् आवश्यक में तीसरा आवश्यक वन्दन है । गुरु को विनम्रभाव से वन्दन करना और सुख-शान्ति पूछना, शिष्य का परम कर्तव्य है । साधक पर गुरु का महान् उपकार होता है, क्योंकि गुरु ही साधना-पथ का निर्देशक होता है । अरिहन्तों के बाद में गुरु ही आध्यात्मिक साम्राज्य के अधिपति हैं । गुरु को वन्दन करना, भगवान् को वन्दन करना है । प्रस्तुत पाठ में गुरुवन्दन की पद्धति का वर्णन है ।
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आज का मानव धर्म - कर्तव्य से शून्य होता जा रहा है । उसके जीवन में स्वच्छन्दता की प्रवृत्ति बढ़ रही है । विनय एवं नम्रता के स्थान में अहंकार जागृत हो रहा है। आज वह पुरानी आदर्श पद्धति कहाँ है, कि गुरु के आते ही खड़ा हो जाना, सामने जाना, आसन अर्पण करना, और कुशलक्षेम पूछना | गुरु का विनय करने से तथा गुरु की सेवा करने से शास्त्र के गम्भीर ज्ञान की प्राप्ति होती है ।
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शिष्य का गुरु के प्रति क्या कर्तव्य है ? गुरु को वन्दन कैसे किया जाता है ? कैसे उनकी सुख-शान्ति पूछी जाती है । यही वर्णन प्रस्तुत पाठ में किया गया है ।
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