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व्याख्या
सूक्ष्म रूप से दष्टि = नेत्र के पड़क जाने से; [पूर्वोक्त आगारों यानि छूटों के सिवा अग्नि आदि का उपद्रव होने पर भी जगह बदलने की छूट है, अतः] इत्यादि और भी आगारों से मेरा कायोत्सर्ग अखण्डित तथा अविराधित होवे।।
कायोत्सर्ग कव तक है ?] जब तक अरिहन्त भगवान को प्रकटरूप से नमस्कार करके अर्थात् 'नमो अरिहताणं" पढ़ कर कायोत्सर्ग न पार लू । तब तक एक स्थान पर शरीर से स्थिर हो कर, वचन से मौन रख कर मन से धर्म-ध्यान में एकाग्रता ला कर, अपने आप को पाप-व्यापारों से
बोसराता हूँ = अलग करता हूँ व्याख्या:
यह आगार-सूत्र है । साधक- जीवन में निवृत्ति आवश्यक है,किन्तु उसकी भी एक सीमा है । कायोत्सर्ग में शरीर की क्रियाओं को रोकने का प्रयत्न है, फिर भी शरीर के कुछ व्यापार ऐसे हैं, जो बराबर होते रहते हैं । उनको किसी भी प्रकार से बन्द नहीं किया जा सकता । यदि हठात् बन्द करने का प्रयत्न होता है, तो उसमें लाभ की अपेक्षा हानि की सम्भावना अधिक रहती है ।
अतः कायोत्सर्ग से पहले यदि उन व्यापारों के सम्बन्ध में छूट न रखी जाय, तो फिर कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा का भव होता है । इसी बात को ध्यान में रख कर सूत्रकार ने प्रस्तुत आगार-सूत्र का निर्माण किया है । कायोत्सर्ग से पूर्व ही कुछ छूट रख लेने के कारण प्रतिज्ञा-भङ्ग का दोष नहीं लगता । इसी तथ्य को समझने के लिए आगार-सूत्र है ।
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