SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याख्या १२७ जीविताशंसा-प्रयोग : _. अधिक दिनों तक जीवित रहने की इच्छा करना। मेरी प्रशंसा हो रही है ; मैं जीवित रहूँ, ताकि सुदीर्घ संथारा के महत्व से मेरी और अधिकाधिक प्रशंसा होती रहे । मरगाशंसा-प्रयोग : शीघ्र मरने की इच्छा करना । भूख-प्यास से अथवा रोग आदि से व्याकुल हो कर यह सोचना, कि मैं कब मरूँगा ? जल्दी ही मर जाऊँ, तो इस झंझट से छुटकारा मिले । काम-भोगाशंसा-प्रयोग : ____काम-भोगों की इच्छा करना । शब्द एवं रूप को काम कहा जाता है और गन्ध, रस तथा स्पर्श को भोग कहा जाता है। काम-भोग की अभिलाषा करना, साधना का दूषण है। आलोचना :४१: इस प्रकार ज्ञान, दर्शन और बारह व्रत, संलेखना सहित चारित्र के ६६ अतिचार सम्बन्धी अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार अनाचार । जानते-अजानते, मन, वचन, काय से सेवन किया हो, कराया हो, करते को भला जाना हो, तो अनन्त सिद्ध केवली भगवान् की साक्षी से तस्स मिच्छा मि दुवकडं । अष्टादश पाप-स्थान प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, रति-अरति, पैशुन्य, पर-परिवाद, माया-मृषावाद, मिथ्यादर्शन-शल्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002714
Book TitleShravaka Pratikramana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Ritual, & Paryushan
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy