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श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र
है-निरपेक्ष और सापेक्ष । दया-शून्य कठोर बन्ध को, गाढ़बन्ध को निरपेक्षबाध कहते हैं यह अतिचार है। इस प्रकार का बन्ध भी श्रावक का धर्म नहीं। दूसरा सापेक्षबन्ध है। प्रयोजन आने पर जो कोमल भाव से बन्ध किया जाता है, उसको सापेक्षवन्ध करते हैं। दास-दासी और पशु आदि को यदि वे उद्दण्डता आदि करते हों, तो उनको सुधारने के लिए जो अन्तर में कोमल-भाव रखते हुए बाहर में मर्यादित कठोर बन्धन किया जाता है, उसको सापेक्षबन्ध कहते हैं। वध :
वधका अर्थ है-ताड़ना, पीटना और मारना । प्राणों का अपहरण किए बिना मनुष्य, पशु एवं पक्षी आदि का जो दण्ड आदि साधनों से ताडन किया जाता है, वह वध है। इसके भी दो भेद हैं -- अर्थ के लिए और अनर्थ के लिए। उसके फिर दो भेद हैं.--सापेक्ष और निरपेक्ष । अपराधी या उद्दण्ड आदि व्यक्ति को दण्ड देने के लिए, कोमल-भाव से सुधारने की भावना से, जो ताड़न किया जाता है, वह अतिचाररूप नहीं होता । अतिचार की सीमा निरपेक्षता में है, सापेक्षता में नहीं छविच्छेद :
छवि (त्वचा) आदि का छेदन करना। इसके भी दो भेद हैं-सापेक्ष और निरपेक्ष । करुणा-रहित हो कर किसी की त्वचा (चमड़ी) आदि का छेदना, काटना, निरपेक्ष छविच्छेदन है । और करुणा रखते हुए किसी रोगी की चीर-फाड़ करना सापेक्ष छविच्छेद कहा जाता है । अतिभार :
किसी मनुष्य अथवा किसी पशु पर शक्ति से अधिक भार लादना, अतिभार नामक अतिचार है। श्रावक को गाड़ी आदि से अपनी आजीविका नहीं चलानी चाहिए। यदि कभी प्रयोजनवशं चलानी ही पड़े तो सापेक्ष और निरपेक्ष का ध्यान अवश्य रखना चाहिए । मनुष्य, पशु आदि पर इतना भार नहीं लादना चाहिए, जिसको उनको अतिपीड़ा हो, और उनके अंग-भंग हो जाने की सम्भावना हो।
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