________________
व्याख्या
अस्थि,चर्म,नख, केश, दांत आदि के लिए या वैर-पूर्ति के लिए मारना संकल्पज प्राणातिपात है । आरम्भ से पैदा होने वाले प्राणातिपात को आरम्भज कहते हैं-जैसे, भूमि खोदने, घर बनाने, व्यापार करने आदि के रूप में । प्रथमव्रत की साधना करने बाला श्रावक, उक्त दोनों हिसाओं में से जान-बूझ कर निरपराध प्राणियों की संकल्पज हिंसा का तो जीवन भर के लिए त्याग कर देता हैं । परन्तु आरम्भज हिंसा को श्रावक पूर्णरूप से नहीं छोड़ सकता । क्योंकि गृहस्थ-जीवन में स्थावर (पृथ्वी, जल, तेजस् वायु और वनस्पतिकाय) की हिसा से पूर्णरूप में बचा नहीं जा सकता । अतः स्थावर-हिंसा की वह अपनी परिस्थिति के अनुसार उचित मर्यादा कर सकता है। अतिचार:
प्रथम अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं। अतिचार व्रत का दूषण है। अतः वह जानने योग्य तो है, पर आचरण करने योग्य नहीं होता। अतः उसका आचरण नहीं करना चाहिए । अतिचार का सेवन करने से गृहीत व्रत दूषित हो जाता है । अहिंसा-अणुव्रत का पालन करने वाले श्रावकों को निम्नलिखित दोषों से बचना चाहिए।
बन्ध:
रज्जु आदि से किसी प्राणी को बाँधना, बन्ध कहलाता है । बन्ध के दो भेद होते हैं-द्विपद-बन्ध और चतुष्पद-बन्ध । दासी आदि का बन्ध, तोता मैना आदि का बन्ध, द्विपद-बन्ध है । गाय, भैस और घोड़ा आदि का बन्ध, चतुष्पदबन्ध है । उक्त बन्ध दो कारणों से होता है - प्रयोजन के लिए, अर्थ के लिए । और बिना प्रयोजन के (अनर्थ के लिए) बिना प्रयोजन के बिना मतलब के श्रावक किसी को बाँधता नहीं है, क्योंकि वह अनाचार हो जाएगा। अर्थ (प्रयोजन) बन्ध के भी दो भेद
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org