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श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र
अर्थ :
एयस्स छट्ठस्स दिसिब्वयस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियबा, न समायरियब्बा, तंजहा-उड्ढ-दिसिप्पमाणाइक्कमे, अहो-दिसिप्पमाणाइक्कमे, तिरिय-दिसिप्पमाणाइक्कमे, खेत्त-कुड़ी, सइ-अन्तरद्धा । जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
षष्ठ दिशा परिमाण व्रत है-ऊर्ध्व-(ऊँची) दिशा में यथा-परिमाण, अधो (नीची) दिशा में यथापरिमाण, तिर्यग् तिरछी) दिशा में यथापरिमाण। इस प्रकार मैंने जो परिमाण किया है, उसके अति रिक्त अपनी इच्छा से शरीर के द्वारा जा कर पांच आश्रव-सेवन का प्रत्याख्यान (त्याग) करना। जीवनपर्यन्त दो करण तीन योग से, न करून कराऊँ, मन से वचन से, काय से । इस षष्ठ दिशा-परिमाण-व्रत के श्रमणोपासक को पाँच अतिचार जानने के योग्य हैं (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं हैं। जैसे कि- उर्ध्व दिशा के परिमाण का अतिक्रमण करना, अधोदिशा के परिमाण का अतिक्रमण करना, तिर्यदिशा के परिमाण का अति क्रमण करना, क्षेत्र (स्थान) सम्बन्धी स्वीकृति मर्यादा की वृद्धि करना, नियम का स्मरण न रहने से मर्यादा में वृद्धि करना। . जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किए हों, तो उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो।
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