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________________ व्याख्या धन्य-धान्य-प्रमाणातिक्रम : सम्पत्ति और अनाज के विषय में जो मर्यादा की गई थी, उसका अंशरूप में उल्लंघन करना। मर्यादा से बाहर धन-धान्य मिले तो, उसे रखना नहीं चाहिए। द्विपद-चतुष्पद-प्रमाणातिक्रम : दास-दाली आदि मनुष्य और गाय, घोड़ा आदि पशु के विषय में जो मर्यादा की गई थी, उसका अंश रूप में उल्लंघन करना। प्रमाण से अधिक रखना। कुप्य-प्रमाणातिक्रम : 'कुप्य' शब्द का अर्थ है-घर की सामग्री, अथवा पात्र (बर्तन) आदि वस्तु । पात्र आदि घर की सामग्री के विषय में जो मर्यादा की गई थी, उसका अशरूप में उल्लंघन करना । प्रमाण से अधिक वस्तुओं का संग्रह करके रखना भी इस व्रत का दूषण है षष्ठ दिशापरिमाण-व्रत मूल : छठें दिसिव्वयं, उड्ढ-दिसाए जहापरिमाणं, अहो-दिसाए जहापरिमाणं, तिरिय-दिसाए जहापरिमाणं । एवं मए जहापरिमाणं कयं, तओ अइरित्तं सेच्छाए कारणं गंतूण पंच आसवासेवणस्स पच्चक्खाणं । जावज्जीवाए, दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवमि, मणसो, यसा, कायसा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002714
Book TitleShravaka Pratikramana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Ritual, & Paryushan
File Size6 MB
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