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श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र
किया जा सकता है । परिग्रह के दो भेद हैं -बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्यपरिग्रह के दो भेद हैं - जड़ और चेतन । जड़ में वस्त्र. पात्र, सोना-चाँदी, सिक्का, मकान एवं खेत आदि का समावेश हो जाता है, और चेतन में मनुष्य पशु, पक्षी एवं बृक्ष आदि समस्त सजीव पदार्थों का ग्रहण हो जाता है।
उक्त व्रत के भी चार दोष हैं-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार । व्रत को तोड़ने का संकल्प अतिक्रम, तोड़ने की तैयारी व्यतिक्रम, व्रत को एकदेश से खण्डित करना अतिचार और सर्वथा भंग करना अनाचार है।
आगे के सभी व्रतों में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार एवं अनाचार का यही क्रम और यही अर्थ समझ लेना चाहिए। अतिचार:
इस पञ्चम-स्थूल परिग्रह-परिमाण-व्रत के श्रमणोपासक को पांच अतिचार जानने योग्य तो हैं, किन्तु आचरण के योग्य नहीं हैं । वे अतिचार इस प्रकार हैं :क्षेत्र-वास्तु-प्रमाणातिक्रम :
खेन आदि की खुली भूमि और घर आदि की ढंकी भूमि के विषय में जो मर्यादा की गई थी, उसका पूर्णतः तो नहीं, पर अंशरूप में उल्लंघन करना । जैसे किसी व्यक्ति के पास पहले चार खेत की मर्यादा थी, फिर चार और मिलने पर बीच की मेड़ को तोड़ कर एक कर लेना ओर चार की संख्या बनाए रखना । इसी प्रकार घर की मर्यादा के सम्बन्ध में भी समझ लेना। हिरण्य-सुवर्ण-प्रमाणातिक्रम :
चाँदी-सोना अथवा चाँदी-सोने की बनी चीजों के विषय में जो मर्यादा की गई थी, उसका अंश रुप में उल्लंघन करना । मर्यादा से बाहर मिली इन वस्तुओं को अपने पास रखना नहीं चाहिए ।
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