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________________ व्याख्या १०३ जानने योग्य तो है, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं है। वे इस प्रकार कन्दर्प : कामवासना प्रवल करने वाले तथा मोह उत्पन्न करने वाले शब्दों को हास्य में या व्यङ्ग में, दूसरे के लिए उपयोग करना । कौत्कुच्य : आंख, नाक, मह, भृकुटि आदि अपने अंगों को विकृत बना कर भाण्ड एवं विदूषक की भाँति चेष्टाएँ करना। मौखर्य : बिना प्रयोजन के अधिक बोलना, अनर्गल बातें करना, व्यर्थ की बकवास करना और किसी की निन्दा-चुगली करना । संयुक्ताधिकरण : कूटने और पीसने आदि के काम में आने वाले घर के साधनों का जैसे-ऊखल, मूसल, चक्की एवं लोढ़ी आदि वस्तुओं का- अधिक तथा निष्प्रयोजन संग्रह करके रखना। उपभोग-परिभोगातिरिक्त : उपभोग-परिभोग-परिमाणवत स्वीकार करते हुए जो पदार्थ मर्यादा में रखे हैं, उनमें अत्यन्त आसक्त रहना, उनका बार-बार उपयोग करना उनका उपयोग स्वाद के लिए करना । जैसे भूख न होने पर भी स्बाद के लिए खाना । शरीर रक्षा के लिए नहीं, मौज-शौक के लिए वस्त्र पह. नना आदि । नवम सामायिक-व्रत नवमं सामाइयवव्यं सावज्ज-जोग-वेरमण रुवं । जावनियमं पज्जुवासामि । दुविहं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002714
Book TitleShravaka Pratikramana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Ritual, & Paryushan
File Size6 MB
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