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________________ १०४ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र अर्थ: तिविहेणं, न करेमि न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा। एयस्स नवमस्स सामाइव्वयस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समाय रियव्वा । तं जहा–मण-दुप्पणिहाणे, वय-दुप्पणिहाणेकोय-दुप्पणिहाणे, सामायस्स सइ अकरणया सामाइयस्स अणवट्टियस्स करणया । जो मे देवसियो अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । नवम सामायिक व्रत है-सावधयोग से विरत होना। जब तक नियम में रह कर पर्युपासना करूं, तब तक दो करण तीन योग से, (पापकर्म) न करूं, न कराऊँ मन से, वचन से, काय से। इस नवम सामायिक व्रत के श्रमणोपासक को पांच अतिचार जानने के योग्य हैं, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं है। जैसे कि-मन से दुष्प्रणिधान (सावद्यव्यापार का चिन्तन) करना, वचन से सावधव्यापार-सम्बन्धी भाषण करना, काय से सावधव्यापार करना, सामायिक करने की स्मृति न रखना, सामायिक अव्यवस्थित रूप में करना, (समय से पूर्व हो पार लेना आदि, या समय पर न करना आदि)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002714
Book TitleShravaka Pratikramana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Ritual, & Paryushan
File Size6 MB
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