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श्रावक प्रतिक्रमण,सूत्र
व्यापार का, भोजन,पान का तथा अब्रह्मचर्य का परित्याग करना पौषध व्रत है । पौषध में साधक की दशा प्रायःसाधु जैसी हो जाती है । संसार के प्रपञ्चों से सर्वथा अलग रह कर, एकान्त में स्वाध्याय, ध्यान तथा आत्म,चिन्तन आदि धार्मिक क्रियाएं करते हुए जीवन को पवित्र बनाना इस व्रत का लक्ष्य है । साधक इसमें साधु-जैसी चर्या का पालन करता है । उसका वेष भी प्रायः साधुतुल्य रहता है ।
ध-व्रत :
ग्यारहवाँ पौषध-व्रत है-आहार आदि का त्याग करके एकान्त 'थान में रह कर, धर्म-चर्या का पालन करना । पौषध-व्रत के चार अंग हैं। वे इस प्रकार। आहार-पौषध :
चारों आहारों का त्याग करना । भौजन-पान आदि खाद्य एवं पेय सभी आहार-सम्बन्धी द्रव्यों का त्याग करके आत्म-भाव की साधना में लीन होना। शरीर-संस्कार-पौषध : __ स्नान, उबटन, विलेषन पुष्प, गन्ध,आभूषण, और वस्त्र आदि से शरीर को सजाने का त्याग करना । ब्रह्मचर्य-पौषध :
तीव्र मोहोदय के कारण वेद-जन्य चेष्टारूप मैथुन एवं मैथुन के अंगों का त्याग करना, और आत्म-भाव में रमण करना तथा धर्म का पोषण करना। अव्यापार-पौषध :
समस्त गृहकार्य आदि सावधव्यापार का त्याग करके संवर-भाव की साधना में लीन रहना । सचित्त का संघट्टा भी न करना ।
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