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व्याख्या
पान, वस्त्र आदि पदार्थों के प्रकार एवं संख्या को मर्यादित करने का विधान करता है । यह नवादा एक-दो दिन आदि के रूप में सीमित काल तक अथवा जीवन पर्यन्त के लिये की जा सकती है । जैन साधना का शुद्ध उद्देश्य है :- भोग से त्याग की ओर जाना । यदि एक दम पूर्ण त्याग न हो सके, तो धीरे-धीरे त्याग की ओर गति होती रहनी चाहिए। उपभोग एवं परिभोग के योग्य वस्तुओं की मर्यादा करना श्रावक का आवश्यक धर्म है। क्योंकि जीवन केवल भोग के लिए ही नहीं है, उससे परमार्थ की साधना भी करनी चाहिए। उपभोग-परिभोगपरिमाण-व्रत :
सप्तम उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत है-उपभोग-परिभोग के योग्य वस्तुओं की मर्यादा करना । जो वस्तु एक बार भोगी जा चुकने के बाद फिर न भोगी जा सके-उस पदार्थ को भोगना, काम में लेना-उपभोग हैं । जैसे भोजन, पानी, अंग रचना एवं विलेपन आदि । जो वस्तु एक बार से अधिक बार काम में ली जा सके,--उस वस्तु को काम में लेना-परिभोग कहाता है। जैसे वस्त्र, अलङ्कार आदि । अतिचार :
उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत दो प्रकार का है-भोजन-सम्बन्धी और कर्म-सम्बन्धी । भोजनसम्बन्धी व्रत के पाँच अतिचार हैं, जो श्रमणोपासक को जानने के योग्य तो हैं, किन्तु आचरण के योग्य नहीं हैं। वे इस प्रकार हैंसचित्ताहार:
सचित्त पदार्थ का आहार । जैसे-धान्य, बीज, जल एवं वनस्पति आदि । उक्त वस्तुएँ जो सचित्त-त्याग के रूप में त्याग कर दी गई हैं, उन्हें भूल से खाना । सचित्त-प्रतिबद्धाहार :
वस्तु तो अचित्त है, परन्तु उसको प्रत्याख्यात सचित्त वस्तु से सम्बन्धित कर के खाना, सचित्त प्रतिबद्ध आहार है।
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