________________
१५६
श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र
अरिहंत-वन्दन :
रोग-द्वेष महामल्ल घोर घन-घाति कर्म, नष्ट कर पूर्ण सर्वज्ञ-पद पाया है। शान्ति का सुराज्य समोसरण में कैसा सौम्य, सिंहनी ने दुग्ध मृग-शिशु को पिलाया है ।। अज्ञानान्धकार-मग्न विश्व को दयाह्न होके, सत्य-धर्म-ज्योति का प्रकाश दिखलाया है । 'अमर' सभक्ति भाव बार-बार वन्दनार्थ,
अरिहंत, चरणों में मस्तक झुकाया है ।। सिद्ध-वन्दन :
जन्म-जरा-मरण के चक्र से पृथक् भये, पूर्ण शुद्ध चिदानन्द शुद्ध रूप पाया है। मनसा अचिन्त्य तथा वचसा अवाच्य सदा, क्षायक स्वभाव में निजातमा रमाया है । संकल्प-विकल्प-शून्य निरंजन निराकार, माया का प्रपंच जड़-मूल से नशाया है। 'अमर' सभक्ति-भाव. बार-बार वन्दनार्थ, पूज्य सिद्ध-चरणों में मस्तक झुकाया है ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org