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श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र
जो खण्डना की हो, जो विराधना की हो,
उसका, पाप मुझ को मिथ्या हो। व्याख्या :
मनुष्य देव भी है, और राक्षस भी। वह सदाचार के मार्ग पर चले, तो अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है, और यदि वह दुराचार के कुमार्ग पर चले तो अपना पतन भी कर सकता है। मनुष्य के पास तीन शक्तियाँ हैं-मन, वचन और काय । प्रस्तुत पाठ में इन्हीं तीनों शक्तियों से दिन-रात में होनी वाली भूलों का परिमार्जन किया जाता है और भविष्य में अधिक सावधान रहने की सुदृढ़ धारणा बनाई जाती है।
यह प्रतिक्रमण का सामान्य-सूत्र है । इसमें आचार-विचार-सम्बन्धी भूलों का प्रतिक्रमण किया जाता है। उक्त पाठ में कहा गया है, कि
'मैं स्थिरचित्त होकर कायोत्सर्ग करने की इच्छा करता हूँ। मैंने मन, वचन, काय से जो कोई अतिचार किया, सूत्र-विरुद्ध भाषण किया धर्म के प्रतिकूल आचरण किया, न करने योग्य काम लिया, आर्तध्यान एवं रौद्र-ध्यान, किया, मेरे मन में अशुभ विचार पैदा हुए, स्वीकृत नियमों का भंग किया, अयोग्य बस्तु की अभिलाषा की, श्रावकधर्म के विपरीत आचरण किया, ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की साधना में मन, वचन, और काय को स्थिर न रखा, क्रोध, मान, माया एवं लोभ-इन चार कषायों का दमन न किया।
पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत-श्रावक के इन बारह व्रतों की एक देश से खण्डना की हो, सर्व देश से विराधना की हो, उक्त दोषों में से किसी भी दोष का सेवन किया हो, तो वह मेरा दोष दूर हो।"
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