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श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र
का विचार लिए बिना पढ़ाया हो, दुष्ट भाव से ग्रहण किया हो। अकाल में स्वाध्याय किया हो, काल में स्वाध्याय न किया हो, अस्वाध्याय में स्वाध्याय किया हो, स्वाध्यायकाल में स्वाध्याय न किया हो। जो मने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किया हो, तो उस
का पाप मेरे लिए मिथ्या हो। व्याख्या :
जैनधर्म में श्रु त (ज्ञान) को भी धर्म कहा है। बिना श्रु त-ज्ञान के चरित्र कैसा ? श्रु त तो साधक के लिए तीसरा नेत्र है, जिसके विना जीव शिव बन ही नहीं सकता । साधक को आगम-चक्षु कहा गया है ।
श्रुत की, आगम की आशातना साधक के लिए अत्यन्त भयावह है। जो श्रुत की अवहेलना करता है, वह साधना की अवहेलना करता है, धर्म की अवहेलना करता है। श्रत के लिए अत्यन्त श्रद्धा रखनी चाहिए। उसके लिए किसी प्रकार की अवहेलना का भाव रखना घातक है।
प्रस्तुत पाठ में कहा गया है, कि--- "मैंने शब्दरूप, अर्थ-रुप एवं उभयरूप-तीनों प्रकार के आगम-ज्ञान के विषय में जो किसी प्रकार का अतिचार किया हो, तो उसकी मैं आलोचना करता हूँ।
प्रस्तुत पाठ में ज्ञान के चौदह अतिचार बताए गए हैं । जैसे-सूत्र को उलट-पलट कर पढ़ना, अन्य सूत्रों का पाठ अन्य-सूत्रों में मिला कर पढ़ना, हीन अथवा अधिक अक्षर पढ़ना, विनयरहित हो कर पढ़ना, उदात्त आदि स्वररहित पढ़ना, पात्र-अपात्र का विचार किए विना
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