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व्याख्या
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अर्थ : प्रस्तुत नौवें सामायके व्रत के पवि अतिपारदोषविशेष
हैं, जो मात्र जानने योग्य है, आचरण करने योग्य नहीं। वे पांच इस प्रकार हैंमन को कुमार्ग में लगाना, वचन को कुमार्ग में लगाना, काय को कुमार्ग में लगाना, सामायिक की ठोक स्मृति न रखना, सामायिक को अव्यवस्थित ढंग से करना, उक्त दोषों के कारण मुझे जो भी दुष्कृत पाप लगा हो, वह सब [आलोचना के द्वारा] मिथ्या=निष्फल होवे ! सामायिकव्रत सम्यकरूप से, काया से, न स्पर्शा हो, न पाला हो, पूर्ण न किया हो, कीर्तन न किया हो, शुद्ध न किया हो, आराधन न किया हो, वीतराग की. आज्ञानुसार पालन न हुआ हो, तो
तत्-सम्बन्धी मेरा सब पाप निष्फल हो । ब्याख्या :
यह समाप्तिसूत्र है । साधक अपनी साधना में सावधानी रखता है, फिर भी उससे भूलों का होना सहन है। पर भूल का संशोधन कर लेना उसका अपना कर्तव्य है ।
प्रस्तुत पाठ में सामायिक व्रत के पाँच अतिचार बताए गए हैं, जिनको जान लेना चाहिए, पर उनका आचरण नहीं करना चाहिए।
. सामायिकव्रत का सम्यक्रुप से ग्रहण चाहिए, सयम्क् रूप से स्पर्शन चाहिए, सम्यक् रूप से पालन चाहिए, तभी उसकी साधना सम्यक् साधना हो सकती हैं ।
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