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________________ च्याख्या ११३ ११. ब्रह्मचर्य : __ स्थूल ब्रह्मचर्य- स्वदार-सन्तोषरूप एवं परदार-वर्जनरूप व्रत स्वीकार करते समय जो अमुक दिनों की मर्यादा रखी है, उसका भी यथाशक्ति त्याग करे, या उसमें संकोच करे। १२. दिशा-मर्यादा : दिशापरिमाण-व्रत स्वीकार करते समय गमन एवं अगमन के लिए जो क्षेत्र-मर्यादा की थी, उस क्षेत्र को और अधिक मर्यादित करे, संकोच करे। १३. स्नान श्रावक शरीर-शुद्धि के लिए स्नान करता है । वह स्नान दो प्रकार का है-देशस्नान एवं सर्वस्नान । शरीर के कुछ भाग को धोनाजैसे हाथ धोना, पैर धोना एवं मुह धोना-यह देशस्नान है। शरीर के समस्त भाग को धोना सर्वस्नान है । स्नान की मर्यादा करना, अथवा सर्वथा त्याग कर देना । १४. भक्त: भोजन-पानी के सम्बन्ध में भी मर्यादा करे, कि आज मैं इतने से अधिक म खाऊंगा, न पीऊंगा। उक्त चौदह नियम श्रावक के दैनिक कर्तव्यरूप में हैं। यथा-शक्ति उक्त पदार्थों का त्याग करना, अथवा त्याग न कर सके तो मर्यादा करना। चौदह नियमों का पालन श्रावक अपनी त्यागशक्ति को विकसित करने के लिए ही करता है । वह इन नियमों का पालन कर के धीरे,धीरे भोग से त्याग की ओर बढ़ता है । :३८ : एकादश पौषध-व्रत एक्कारसमं पोसहोववासव्ययं। असण-पाणखाइम-साइम-पच्चक्खाणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002714
Book TitleShravaka Pratikramana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Ritual, & Paryushan
File Size6 MB
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