Book Title: Sanskrit Praveshika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Tara Book Agency
Catalog link: https://jainqq.org/explore/035322/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत प्रवेशिका डा. सुदर्शन लाल जैन तारा बुक एजेन्सी वाराणसी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका (व्याकरण, अनुवाद और निबन्ध) (हाईस्कूल से एम.ए. तक के छात्रों के लिए उपयोगी प्राचीन और नवीन पद्धतियों का समन्वय विभिन्न विश्वविद्यालयों में पाठ्यग्रन्थ के रूप में स्वीकृत) डॉ. सुदर्शन लाल जैन एम.ए., पी-एच.डी., आचार्य प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, कला संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी तारा बुक एजेन्सी वाराणसी mpyari Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तारा बुक एजेन्सी प्रकार- कलांग प्रकाशकतारा बुक एजेन्सी रथयात्रा-गुरुबाग रोड कमच्छा, वाराणसी जीडाणा ) संशोधित और परिवर्द्धित पंचम संस्करण, 2003 ०प्रकाशक प्राक्कथन शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष् वेद के इन छ: अङ्गों में व्याकरण सबसे प्रधान है। व्याकरण को 'शब्दानुशासन' भी कहा जाता है क्योंकि इसमें शब्द की मीमांसा की जाती है (व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दाः अनेन इति न्याकरणम् ) / शब्दार्थ का यथार्थबोध व्याकरण के बिना संभव नहीं है। अतः कहा है -'हे पुष ! यद्यपि तुम बहुत नहीं पड़ते हो फिर भी व्याकरण पढ़ो जिससे 'स्वजन' ( अपना ) का 'श्वजन'- (कुत्ता) 'सकल' ( सम्पूर्ण .) का 'शकल (टुकड़ा) और 'सकृत्' ( एक बार ) का 'शकृत्' ( मल ) न हो जाए। संस्कृत भाषा के व्याकरण जैसा. गहन, सूत्रात्मक और तर्क-संगत व्याकरण संसार की किसी अन्य भाषा का उपलब्ध नहीं है / संस्कृत. व्याकरण का प्रारम्भिक रूप प्रातिशाख्यों में मिलता है। पश्चात् यास्क ( ई०पू० ८००)-कृत 'निरुक्त' में 'शब्दनिरुक्ति' का विवेचन मिलता है। यास्क ने सर्वप्रथम शब्दों की नाम (संज्ञा, सर्वनाम ) आख्यात (धातु और क्रिया), उपसर्ग और निपात ( च वा आदि) इन चार भागों विभक्त किया है। पाणिनि से पूर्व आपिशलि, काशकृत्स्न, शाकल्प, शाकटायन, इन्द्र आदि कई वैयाकरण हुए थे। पाणिनि प्रस्थान में संस्कृतध्याकरण को मूर्त रूप देने वाले निम्न तीन महान वैयाकरण प्रसिद्ध है। जिन्हें 'मुनित्रय' के नाम से जाना जाता है पाणिनि ( सूत्रकार--ई० पू० 300 से 2400 ई० पू० के मध्य ) सूत्रात्मक शैली में लिखित इनकी अष्टाध्यायी में लगभग 4000 सूत्र हैं जिन्हें आठ अध्यायों में विभक्त किया गया है। प्रत्येक अध्याय में 4 पाद हैं। प्रथम में व्याकरणसम्बन्धी संज्ञायें तया परिभाषायें हैं / द्वितीय में समास तथा कारक हैं। तृतीय में कृत और तिङ् प्रत्यय हैं / चतुर्य और पश्चिम में शब्दों से होने वाले प्रत्यय ( सुप्, स्त्री तद्धित और समासान्त ) हैं / षष्ठ, सप्तम और अष्टम में सन्धि, आदेश और स्वर-प्रक्रिया से सम्बन्धित नियम हैं। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से यह अनुपम ग्रन्थ है। कात्यायन ( वातिककार --300 ई० पू० के करीब )-इन का दूसरा नाम 1. छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽय पठ्यते / ज्योतिषामयनं चक्षुनिरुक्तं श्रोत्रमुच्यते // शिक्षा प्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम् / तस्मात् साङ्गमधीत्यैव ब्राह्मलोके महीयते / / पाणिनीय-शिक्षा, 41-42 / 2. यद्यपि बहु नाधीषे पठ पुत्र तथापि व्याकरणम् / स्वजन: श्वजनो मा भूत् सकल: शकल: सकृच्छकृत् / / मूल्य : 50.00 मुद्रकतारा प्रिंटिंग वर्क्स फणिका रथयात्रा-गुरुबाग रोड, वाराणसी फोन : (0542) 2420291 गणमा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वररुचि' है / इन्होंने अष्टाध्यायी पर लगभग 5000 बार्तिकों की रचना की है। पतञ्जलि ( भाष्यकार-२०० ई० पू० के करीय)-इन्होंने सरल एवं प्रवाहमयी शैली में अष्टाध्यायी पर 'महाभाष्य' लिखा है जो सभी प्रकार की शङ्काओं के निवारण करने के लिए आदर्शभूत है। इनके बाद विविध टीकात्रों और पद्धतियों की परम्परा चली। उस परम्परा में अष्टाध्यायी पर जवादित्य और वामन (870 ई.)-कृत 'काशिका', महाभाष्य पर कैय्यटकृत प्रदीप और प्रदीप पर नागेशकृत 'उद्योत' प्रसिद्ध है। भर्तृहरिकृत (७००ई०) 'वाक्यपदीय' बहुत विश्रुत है। प्रक्रियाक्रम में भट्ठोजिदीक्षित 1630 ई.) ने प्रौढ़ मनोरमा टीका के साथ-"सिद्धान्तकौमुदी' की रचना की / पश्चात् वरदाचार्य ने सिद्धान्तकौमुदी को संक्षिप्त कर लघुसिद्धान्तकौमुदी और मध्यसिद्धान्तकौमुदी की रचना की। इनके अलावा पूज्यपाद देवनन्दिकृत (छठी शता० ) जैनेन्द्रव्याकरण, शाकटायनकृत (8 वीं पता०) शब्द नुशासन, हेमचन्द्र कृत ( 12 वीं शता० ) शब्दानुशासन, बोपदेवकृत मुग्धबोध, अनुभूतिस्वरूपाचार्यात सारस्वत-व्याकरण आदि प्राचीन पद्धति से लिखे गए व्याकरणग्रन्थ हैं। आधुनिक पद्धति से लिखे गए विभिन्न व्याकरण ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं परन्तु जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु इस पुस्तक को लिखा गया है उस उद्देश्य की पूर्ति अब तक प्रकाशित पुस्तकों से नहीं होती। इसके लिखने का उद्देश्य है-'सामान्य जिज्ञासुओं और विशेष जिज्ञासुओं दोनों के लिए एक साथ उपयोगी होना। इसलिए प्रायः प्रत्येक पेज को दो या तीन भागों में विभक्त किया गया है। ऊपर का भाग सामान्य-जिज्ञासुओं के लिए है और शेष दो भाग विशेष, जिज्ञासुओं के लिए / सर्वत्र सरलता और प्रामाणिकता का ध्यान रखा गया है। बाक्य रचना में सन्धि और समास का प्रयोग अल किया गया है। अंग्रेजी शब्दों और चाटों से विषय स्पष्ट किया गया है। सुबोधार्य व्याकरण, अनुवाद और निबन्ध को पृथक पूर्वक लिखा गया है / शुभाशंसा संस्कृत-प्रवेशिका पाश्चात्य व्याकरण पद्धति से लिखी गयी उपयोगी पुस्तक है / संस्कृत वाक्य-विन्यास, पद-विन्यास और वर्ण-विन्यास को सुगम ढंग से समझाने का प्रयत्न किया गया है। मुझे विश्वास है कि यह संस्कृत अध्येताओं के बड़े काम की पुस्तक होगी। कुलपति, काशी विद्यापीठ, वाराणसी डॉ० विद्या निवास मिश्र विद्वान् ग्रंथकार ने अध्यापक के रूप में विद्यार्थियों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए संस्कृत-व्याकरण के दुरूह तत्त्वों का सुबोध प्रतिपादन किया है। संस्कृत-प्रवेशिका का यह चतुर्थ संस्करण इसकी व्यापक उपयोगिता को सप्रमाण करता है। अध्यक्ष, संस्कृत विभाग डॉ. विश्वनाथ भट्राचार्य काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी डॉ. सुदर्शनजैन महोदयविरचिता संस्कृत-प्रवेशिका तावदद्यावधिप्रकाशितेषु व्याकरणानुवादनियन्धग्रन्थेषु प्रवरा कृतिविभाति या खल पक्षाणां कोविदानां च नूनमुपकारिका सेत्स्यतीति बाढ़ प्रत्येति / निदेशक, अनुसन्धान संस्थान डॉ० भगीरथप्रसादत्रिपाठी 'वागीशशास्त्री' सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी मैंने डॉ. जैन की संस्कृत-प्रवेशिका को पढ़ा है। पुस्तक छात्रों के लिए परम उपयोगी है, पठनीय है तथा संग्रहणीय है। प्रोफेसर, संस्कृत विभाग डॉ० सुरेश चन्द्र पाण्डेय इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद डॉ० जैन ने संस्कृत भाषा को सीखने और सिखाने के उद्देश्य मे बहुत ही अच्छी पुस्तक लिखी है। इससे छात्रों और अध्यापकों को बड़ी सुविधा होगी। अध्यक्ष, संस्कृत विभाग डॉ० हरिनारायण दीक्षित कुमायू विश्वविद्यालय, नैनीताल डॉ० जैन अनुभवी विद्वान हैं उनकी यह रचना नि:संदेह बहुत अच्छी है। स्नातक छात्रों के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी प्रमाणित होगी। प्रोफेसर, संस्कृत विभाग डॉ० कृष्णकान्त चतुर्वेदी जबलपुर विश्वविद्यालय, जबलपुर मैंने संस्कृत-प्रवेशिका का भली-भांति अबलोकन किया है। इसमें संस्कृत व्याकरण के सभी अङ्गों का सुबोध शैली में प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत है। अध्यक्ष, संस्कृत विभाग डॉ० सत्यप्रकाश सिंह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ श्रद्धेय गुरुवर्य प्रो० डॉ. वीरेन्द्र कुमार वर्मा तथा सभी शुभाशंसकों ( अगले पृष्ठ पर मुद्रित ) का अत्यधिक आभारी हूँ जिन्होंने अपने बहुमुल्य क्षण मुझे प्रवानपर अनुग्रहीत किया। बहुमूल्य सुझावों के लिए श्री ब्रह्मानन्द चतुर्वेदी तथा डा. श्री नारायण मिश्र का भी विशेष आभारी हूँ। मुद्र कद्वप भी धन्यवादाह हैं। -सुदर्शनलाल जैन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची संस्कृत-व्याकरण सीखने की प्राचीन और नवीन पद्धतियों का समीकरण करने में डॉ. जैन को अद्भुत सफलता मिली है। इस पुस्तक से संस्कृत व्याकरण का अभ्यास करने वालों की संख्या निरन्तर बढ़ेगी। पूर्व अध्यक्ष, संस्कृत विभाग डॉ० रामजी उपाध्याय सागर विश्वविद्यालय, सागर (संपादक, सागरिका) Although the book is an introduction to sanskrit it contains copious notes and is authenticated with original references at the footnotes, I have therefore no doubt to recommend the book for use by University and Institutions. अध्यक्ष, संस्कृत विभाग Dr. S. Bhattacharya का०हि० वि०वि०, वाराणसी (5-1-1974) उत्तरीतुं परीक्षाब्धि संस्कृतं शिक्षितुं तथा / प्रकामं सेव्यतां छात्रैः संस्कृतपा प्रवेशिका / / सुधिया सुहृदा सम्यग् ग्रंथरत्नमकारि यत् / कण्ठे कृत्वा तु तत् प्रेम्णा सर्वे सन्तु सुदर्शनाः / / अध्यक्ष, संस्कृत विभाग ___डॉ. कपिलदेवपाण्डेयः आर्य महिला डिग्री कालेज, वाराणसी संस्कृत-प्रवेशिका संस्कृत व्याकरण और रचना की अद्वितीय पुस्तक है। प्रोफेसर, संस्कृत विभाग डॉ० वाचस्पति उपाध्याय दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली डॉ. जैन द्वारा लिखित मंस्कृत-प्रवेशिका को मैं बी० ए०, एम० ए०, शास्त्री तथा आचार्य कक्षाओं के लिए संस्तुत करता हूँ। प्रोफेसर, संस्कृत विभाग डॉ० राय अश्विनी कुमार मगध विश्वविद्यालय, बोध गया संस्कृत-प्रवेशिका देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। इसमें संस्कृत व्याकरण, अनुवाद और निबन्धों को सुबोध शैली में प्रस्तुत किया गया है। प्राध्यापक, डी. ए. बी. कालेज, कानपुर डॉ. शिवबालक द्विवेदी संस्कृत व्याकरण, अनुबाद और निबन्ध के लिए डॉ० जैन की संस्कृत-प्रवेशिका एक आदर्श पुस्तक है। रीडर, संस्कृत विभाग डॉ० उमेशचन्द्र पाण्डेय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर भीर विषय को सरल ढंग से प्रस्तुत करने में डॉ. जैन सिद्धहस्त हैं। संस्कृत प्रवेशिका, प्राकृत दीपिका, तर्कसंग्रह आदि उसके निदर्शन हैं। अध्यक्ष, सस्त विभाग डॉ. प्रभाकर शास्त्री राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर प्राक्कथन शुभाशंसा भाग:१: व्याकरण ( Grammar ) 1-158 प्रथम अध्याय : वर्णमाला ( Alphabet ) [वर्णमाला (1), स्वरों के प्रकार (1) व्यजनों के प्रकार (3), माहेश्वर सूत्र (6), प्रत्याहारविधि (6), वर्गों के उच्चारणस्थान (9) वर्गों के उच्चारण में प्रयत्न (11), सवर्ण-असवर्ष में अन्तर (14), शब्द और पद में अन्तर (15), अभ्यास (15)] द्वितीय अध्याय : सन्धि (Euphonic Combination of Letters) 16-31 [संयोग और सन्धि में अन्तर (16), स्वर सन्धि (१७)-दीर्घ, गुण, वृद्धि, यण, अयादि, पूर्वरूप, पररूप, प्रकृतिभाव / व्यञ्जन सन्धि (२२)---एजुत्व, ष्टुत्व, जश्त्व, चत्वं, छत्व, अनुस्वार, परसवर्ण, मुडागम, सुगागम / विसर्ग सन्धि (२६)-रुत्व, विसन, सत्व, उत्व, यत्व, र लोप, विसर्ग-लोप / अभ्यास (30), विसर्ग-सन्धि बोधक तालिका (31)] तृतीय अध्याय : कृत्-प्रत्यय ( Primary-Sufixes) 32-47 [वर्तमानकालिक (३३)-शतृ, शानच् / भविष्यत्कालिक ( 35)--- शत, शामच / भूतकालिक (३५)-पत, क्तवतु / पूर्वकालिक (२७)वत्वा, ल्यप् / विधि कृदन्त या कृत्य प्रत्यय (३९)-तव्यत्, तव्य, अनीयर्, यत् आदि ( केलिमर, क्यप्, ण्यद)। निमित्तार्थक (४२)-तुमुन् / कर्तृवाचक (४२)--वुल्, तृच्, णिनि आदि ( खच्, ख, 8, क, कञ्, श्विप्, र, ल्यु, बुञ्, इष्णुच्, आलुच, उ, युच्, षाकन् ) / भाववाचक संज्ञायें ४५)-ल्युट्, पञ्, क्तिन् आदि (अच्, अप्, अङ, न, कि, क्विप, युच, अ, घ, खल )] चतुर्थ अध्याय : तद्धित-प्रत्यय ( Secondary Suffixes) 47-57 [कृत् और तद्धित में अन्तर (47) / अपत्यार्थक (४८)-इज, मण, ढा आदि ( यत्, प्य, यञ्, प, ठक, अञ् ) / अतिशयार्थक (५०)-तरप्, तम, ईयसुन्, इष्ठन् / भावार्थक (५२)--स्व, तल, इमनिच् आदि (ध्यन, य, थक, ढक, अण्)। मत्वर्थीय (५३)-मतुप, इनि आदि (ठन्, विनि)। विभक्त्यर्थक (५४)--तसिलू, बल, ह, अत् / कालाद्यर्थक (५५)-दा, हिल, थाल्, थमु। विभिन्नार्थक (५६)-धा, मात्र, वति, चि, तीय, थुक, मट, नयप, अपच, इट्, छ, कर, अग इन् / अण्' का Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपत्य से भिन्न अर्थों में प्रयोग (57)- समूह, देवता, सम्बन्ध, रक्त, जात, विकार, काल, भाव, कर्म, मामत, प्रोक्त, निवास, अधीत / ] पञ्चम अध्याय : स्त्री-प्रत्यय (Eormation of Feminine Bases)54-62 [ 'आ' वर्ग (५८)-टाप, डाप्, चाप् / 'ई' वर्ग (५९)-डीप्, ही डीन् ) / अन्य (६२)-अङ, ति] षष्ठ अध्याय : अव्यय (Indeclinable Words) 62-63 [ अर्थ, अव्ययों के उपसर्ग, निपात आदि भेद] सप्तम अध्याय : कारक और विभक्ति (Case and Case-ending) 64-82 [परिचय (64), कारक-विभक्ति और उपपद-विभक्ति (65), प्रथमा (65), द्वितीया (67), तृतीया (72), चतुर्थी (74), पञ्चमी (76), षष्ठी (79), सप्तमी (81)] अष्टम अध्याय : समास ( Compound) 83-94 [ परिचय तथा भेद (83), अव्ययीभाव (84), तत्पुरुष (86), कर्मधारय (88), द्विगु (90), द्वन्द्व (91), बहुव्रीहि (92)] नवम अध्याय : शब्दरूप ( Declension) 95-115 नोट- एक समान रूप चलने वाले अन्य शब्दों का फुटनोट में यथावसर संकेत जिससे अनेक काब्दरूपों को बनाया जा सके। [परिचय (95), स्वरान्त पुं० (९५)-राम, (पाद, दन्त, निर्जर), विश्वपा, हरि, पति, (सखि), सुधी, गुरु, कर्तृ, पितृ, गो। स्वरान्त स्त्री० १९८)लता, मति, नदी, श्री, धेनु, वधू, स्वसू / स्वरान्त नपुं० (१००)--ज्ञान, वारि, दधि, मधु, कर्तृ। व्यञ्जनान्त पुं० (१०१)-ऋत्विज, भूभृद, भगवत्, धावत्, सुहृद, राजन्, आत्मन, युवन्, करिन्, पचिन्, तादृश, वितुस् / व्यम्जनान्त स्त्री० (१०४)-याच, अप्, गिर, दिव, आशिस् / व्यञ्जनान्त म. (१०५)---अगद, नामन्, कर्मन्, अहन्, मनस्, धनुष / सर्वनाम. (107)- अस्मद, युष्मद, तद्, भन्द, एतद्, इदम्, अदस, ग्द, किम्, सर्व, (कति, उभ, उभय) / संख्यावाचक (१११)--एक से दशन्, विंशति, त्रिंशत्, (पूरणार्थक, एक से परार्ध तक संख्या )] दशम अध्याय : धातुरूप ( Conjugation of Verbs) 116-154 नोट-धातु कोष के लिए देखें परिशिष्ट 1 [ गणादि परिथ (116), 1. भ्वादि (१२१)-भू, पठ्, गम्, चल्, श्रु, दृश, स्था, वद्, गद, णद्, अत्, या, एए, तुतु, कम, नी, विन, यज / 2. अदादि (१३२)-(दुह, रुद्, स्ना, स्वप्, या, शास्, इण् ), अद्, विद्, शीङ, इङ्, बृज्, अस्, हन् / 3. जुहोत्यादि (१३६)-(हा, धा), हु, भी, दा। 4. दिवादि (१३८)-(भ्रम्, युध्, पा, विद्), दिव, जन्, नश्, नृत् / 5. स्वादि (१४०)-धु, चिज, आप, शक्। 6. तुदादि (१४३)-मुच, क्षिप्, मिल्, लिप्), तुद्, षिच्, लिख्, इष्, मृङ, प्रच्छ / 7. रुधादि (१४७)रुधिर, युजिर, भुज् / 8. तनादि (१५०)-तनु, कू।९ क्रयादि (१५२.डुक्री, पू, ज्ञा, ग्रह / 10. चुरादि (१५५)-चुर, गण, कथ् / ] नोट-व्याकरण-सम्बन्धी अन्य विषयों के लिए देखें परिशिष्ट 3 से 7 / भाग: 2: अनुवाद ( Translation) 159-195 नोट-प्रत्येक पाठ तीन भागों में विभक्ति है-उदाहरण वाक्य, नियम और अभ्यास पाठ 1: सामान्य वर्तमानकाल-लट् लकार का प्रयोग पाठ 2: सामान्य वर्तमानकाल-विभक्तियों का सामान्य प्रयोग 160 पाठ 3 : सामान्य वर्तमानकाल-भवत्, च और वा शब्दों का प्रयोग 161 पाठ 4: सामान्य भूतकाल और भविष्यत्काल-लङ् और खुद का प्रयोग 162 पाठ 5: सर्वनाम, विशेषण, क्रियाविशेषण और अव्यय-तीनों कालों का प्रयोग 163 पाठ 6 : आशा, चाहिए, संभावना और आशीर्वाद-लोद और विधिलिड् 166 पाठ 7 : अपूर्ण वर्तमान भूत-भविष्यत्काल -शत-शानच् प्रत्ययों का प्रयोग 168 पाठ 8: 'जाते हुए', 'सुनते हुए' आदि वाक्य-शत-शामन् प्रत्ययों का प्रयोग 169 पाठ 9: वाच्य-परिवर्तन-कर्तृ-कर्म-भाव वाच्यों का प्रयोग 130 पाठ 10: भूतकालिक वाक्य-क्त-क्तवतु प्रत्ययों का प्रयोग . 172 पाठ 11: पूर्ण वर्तमान-भूत-भविष्यत् काल-क्त-क्तवतु प्रत्ययों का प्रयोग 173 पाठ 12 : पूर्णापूर्ण वर्तमान भूत-भविष्यत्काल-शतृ-शानन् प्रत्ययों का प्रयोग 174 पाठ 13 : कर्तृ-कर्म कारक-प्रबमा-द्वितीया विभक्तियों का प्रयोग 175 पाठ 14 : करण कारक-तृतीया विभक्ति का प्रयोग 176 पाठ 15 : सम्प्रदान कारक-चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग 178 पाठ 16 : अपादान कारक-पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग 180 पाठ 17 : सम्बन्धार्थ-पष्ठी विभक्ति का प्रयोग 181 पाठ 18 : अधिकरण कारक-सप्तमी विभक्ति का प्रयोग 183 पाठ 19: पूर्वकालिक 'कर' या 'करके' वाक्प-वा-ल्यप् प्रत्ययों का प्रयोग 184 पाठ 20 : विध्यर्थक 'चाहिए' आदि वाक्य-तव्यत्-अनीयर-यत् प्रस्पयों का० 185 पाठ 21: तुलनात्मक वाक्य-तरप-तमप् प्रत्ययों का प्रयोग 186 पाठ 22: प्रेरणात्मक वाक्य-णिच् प्रत्यय का प्रयोग पाठ 23 : निमित्तार्थक वाक्य-तुमुन् प्रत्यय का प्रयोग 184 पाठ 24 : हेतुहेतुमद्भावात्मक वाक्य-यदि, चेत् और तहि का प्रयोग 189 पाठ 25 : 'करने वाला' अर्थवाचक शब्द-बुल-तृच प्रत्ययों का प्रयोग पाठ 26 : भाववाचक संज्ञायें-ल्युट्-धम्-क्तिन् प्रत्ययों का प्रयोग 187 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग 1: व्याकरण ( Grammar ) प्रथम अध्याय वर्णमाला (Alphabet) . 4 25 - ささみさ पाठ 27 : सर्वनाम और विशेषण-एक-द्वि-बहुवचन का विशेष प्रयोग 192 पाठ 28 : 'होने पर' अर्थ वाले वाक्य-कृत् प्रत्यय एवं सप्तमी का प्रयोग 194 नोट-अनुबादार्थ अभ्यास संग्रह के लिए देखें परिशिष्ट 8 भाग:३: निबन्ध ( Composition) 196-225 [1. काशी-हिन्दू-विश्वविद्यालयः (196); 2. गङ्गा (198); 3. वाराणसी (198); 4. भगवान बुद्धः (200); 5. महामना मदन-मोहन-मालवीयः (201); 6. महात्मा गांधिः (202); 7. महाकविः कालिदासः (204); 8. सत्सङ्गतिः (206); 9. सदाचारः (207); 10. परोपकारः (201); 11. संस्कृतभाषायाः महत्त्वम् (210); 12. मातृभक्तिः देशभक्तिश्च ( 212); 13. अनुशासनम् ( 214); 14. विद्यार्थिकर्त्तव्यम् (215) 15. आधुनिक विज्ञानम् ( 217); 16. विद्या (220); 17. सत्यम् (221); 18. उद्योगः (222); 19. अहिंसा (223), 20. गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न लिङ्गन च वयः (224)] नोट- अन्य निबन्धों के लिए देखें परिशिष्ट 9 परिशिष्ट (Appendix) 226-286 1. धातुकोष ( भ्वादि 226, अदादि 232, जुहोत्यादि 233, दिवादि 233, स्वादि 234, तुदादि 235, रुधादि 236, तनादि 236, क्रयादि 236, नुरादि 237) 2. वाग्व्यवहार शब्दकोष ( सम्बन्धी वर्ग 239, शरीर वर्ग 240, आभूषण वर्ग 242, वस्त्र वर्ग 242, गृहस्थी की सामग्री 242, पशु-पक्षि आदि 244, खाद्य पदार्च 246) 3. प्रत्ययान्त ( सनाद्यन्त) धातुयें (णिजन्त 249, सन्नन्त 250, यडन्त 251, यङ्लुगन्त 252, नामधातु २५२-क्य, काभ्य, क्यङ्, क्या, क्विपू, णिच् और णिङ् प्रत्ययों का इच्छा, आचार, करोति, उत्साह, खवमन, वेदन, भवति, वर्तन अर्थों में प्रयोग) 4. कर्मवाच्य और भाववाच्य की क्रियायें 254 5. आत्मनेपद और परस्मैपद विधान 6. मूर्द्धन्यीकरण (णत्व-विधान और पत्व-विधान) 256 7. प्रकृति-प्रत्यय, संज्ञाय तथा अनुबन्ध 4. अनुवादार्थ अभ्यास-संग्रह (संस्कृत से हिन्दी 262, हिन्दी से मस्कृत 267) 9. निबन्ध ( पुस्तकालयः 271, दीपावली 272, षड्ऋतवः 273, त्रीणि राष्ट्रियपर्वाणि 277, श्रीकृष्णः 279, श्रीमहावीरः 280, नौका-विहारः 281, वापयान यात्रा 282, सैनिकशिक्षा 283, समाचारपत्रम् 284, पुस्तकस्य आत्मकथा, 986) / स्वर 13 व्यञ्जन 33 अन्य 3 मूल |.संयुक्त / स्पर्श अन्तःस्थ उष्म| जयोगवाह 4 / 4 ह्रस्व दीर्घ दीर्घ कवर्ग चवर्ग 'टवर्ग तवर्ग पवर्ग य श् / विसर्ग : र अर्धविसर्ग (१जिह्वा स् / मूलीय (अ+ए) ऋ औ र द ध , | ह२ उपध्मानीय (अ+ओ) / |-|- | अनुस्वार : (1) स्वर ( Vowels) जो स्वयं प्रकाशित (उच्चारित) होते हैं, अन्य के द्वारा नहीं अर्थात् जिनका उच्चारण करने में अन्य वर्ण की सहायता अपेक्षित नहीं होती है उन्हें स्वर कहते है।' एक अन्य व्याख्या के अनुसार 'जिनकी सहायता से व्यञ्जनों का उच्चारण होता है उन्हें स्वर कहते हैं। स्वरों की गणना 'म / प्रत्याहार (देखें, पृ०८) में होने से इन्हें 'अच्' भी कहा जाता है। स्वरों के विभाजन के कुछ प्रकार निम्नाङ्कित हैं (म) रचना की दृष्टि से स्वरों के दो भेद-(क) मूल स्वर (Root romels)-इनके मिश्रण से संयुक्त स्वर बनते हैं, अतः इन्हें मूल स्वर कहा जाता 1. स्वयंन्ते शब्यन्त इति स्वराः / ऋग्वेद-प्रातिशाख्य, उपट भाष्य 113 'स्वयं राजन्ते नान्येन व्यज्यन्त इति स्वराः' 0 प्रा० 15 पर बै०गा। 2. स्वर्यते शब्धतेऽनेन व्याजनमिति / पा०शि०४ पर पम्मिका टीका / 'स्वर्यते शन्धते व्यञ्जनमेभिः स्वेन राजन्त इति वा / ' याज्ञवल्क्य शिक्षा की शिक्षा वल्ली नाम की विवृत्ति, पृ०७६ / Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [1: वर्णमाला [3 है। इन्हें समानाक्षर (Monoprnongs * उच्चारण में समरूपता) तथा साधारण स्वर (Simple vowels) भी कहा जा सकता है। (ख) संयुक्त स्वर (Vowels of combination)-ये दो स्वरों के मेल से बनते हैं, अतः इन्हें संयुक्तस्वर कहा जाता है। इन्हें ही सन्ध्यक्षर ( Diphthongs) तथा मिश्रस्वर (Mixed vowels) भी कहा जा सकता है। ये सभी दीर्घ स्वर हैं। (ब) उच्चारणकाल की मात्रा ( समय का एक अंश) के भेद से तीन भेद'-- (क) ह्रस्व स्वर ( Short vowels = एक मात्रिक)-जिनका उच्चारण करने में एक मात्रा का समय लगे। (ख) दीर्घ स्वर ( Lorg vowels-द्विमात्रिक)जिनका उच्चारण करने में दो मात्रा का समय लगे। (ग) प्लत स्वर (Prolated vowels-त्रिमात्रिक)-जिनका उच्चारण करने में तीन मात्रा का समय लगे। प्लुत पाब्द का अर्थ है-'गति करना' या 'लम्बा करना' / यह दीर्घ स्वर से भी लम्बा होता है। बाण की तरह दूरगामी होने से इसे प्लुत कहा जाता है। प्लुत स्वर को 3 अङ्क के द्वारा प्रकट किया जाता है। इसका प्रयोग प्रायः पुकारने के अर्थ में होता है। जैसे-हे राम 3 / इन तीनों प्रकार के स्वरों का भेद मुर्गे की बोली में क्रमशः देखा जा सकता है। जैसे--कु (ह्रस्व स्वर), कू ( दीर्घ स्वर ) और कू३ (प्लुत स्वर)। चुटकी बजाने में अगवा पलक गिरने में जितना समय लगता है उसे एक मात्रा कहते हैं। चाष पक्षी की एक बोली में एक मात्रा, कौवे की एक बोली में दो मात्राओं और मयूर की एक बोली में तीन मात्राओं का समय लगता है। व्यञ्जन वर्णों के उच्चारण में आधी मात्रा मानी जाती है। (स) स्वरों के उच्चारण के उतार-चढ़ाव (आरोह-अवरोह) की दृष्टि से सीन भेद -(क) उदात्त (Acute)-जिनका उच्चारण ऊँची ध्वनि से किया 1. कालोज्झस्वदीर्घप्लुतः / अ०१.२.२७. एकमात्रो भवेद्धस्वो द्विमात्रो दीर्घ उज्यते / त्रिमात्रस्तु प्लुतो शेयो व्यजनं चार्धमाषिकम् / / श्रुतबोध, 3 / 2. धारादिवद् दूरगामित्वात्प्तुत इत्युच्यते। ते० प्रा० 1136 पर पै० आ० / 3. चाषस्तु वदते मात्र द्विमात्रां वायसोऽब्रवीत् / शिखी विमानो विज्ञेय एष मात्रापरिग्रहः // ऋ० प्रा० 1250. अंगुलीस्फोटनं यावान् तावान् कालस्तु मात्रिकः / व्यासशिक्षा 2713. निमेषकाला मात्रा स्यात् / शिक्षासंग्रह, पृ० 432. 4. उच्चैरुदात्तः / मीचरनुदात्तः / समाहारः स्वरितः / 10.1.2.26-31, विशेष के लिए देखिए 'ऋग्वेद-प्रालिशायक परिशीलन' स्वर-प्रकरण / स्वर, व्यञ्जन ] 1: व्याकरण जाए वे उदात्त स्वर हैं। सिद्धान्तकौमुदी में कहा है-'तालु आदि स्थानों के अध्वंभाग से उच्चरित होने वाले स्वर उदात्त स्वर हैं। इनका उच्चारण ध्वनि के आरोह ( Rising tone) के साथ होता है। उनके उच्चारण में उपचारणावयव ऊपर की ओर खिंच जाते हैं / (ख) अनुदास (Gravs)-जिनका उच्चारण नीची ध्वनि से किया जाए वे अनुदात्त स्वर हैं। सिद्धान्तकौमुदी में कहा है'तालु आदि स्थानों के अधो-भाग से उच्चरित होने वाले स्वर अनुदात्त स्वर हैं।' इनका उच्चारण ध्वनि के अवरोह ( Falling tone) के साथ होता है। इसमें उच्चारणावयव नीचे की ओर शिथिल हो जाते हैं। (ग) स्वरित (Circumflex)-जिनका उच्चारण मध्यम ध्वनि से किया जाए वे स्वरित स्वर हैं। इनमें उदात्तत्व और और अनुवात्तत्व दोनों धर्म रहते हैं। इनका उच्चारण ध्वनि के आरोह और अबरोह के साथ होता है। अतः उदात्त अंश के उच्चारण में वनि का आरोह होता है और अनुदात्त अंश के उच्चारण में ध्वनि का अवरोह होता / इनका उपयोग वेदों में प्रमुख रूप से होता है। (ड) उच्चारण के समय नासिका के उपयोग और अनुपयोग के आधार पर स्वरों के दो भेद-(क) अनुनासिक-जिनके उच्चारण में नासिका का उपयोग किया जाता है वे स्वर अनुनासिक कहलाते हैं। जैसे-अ, औ, ऐ आदि / (ख) अननुनासिक-जिनके उच्चारण में नासिका का उपयोग नहीं किया जाता है वे स्वर अननुनासिक कहलाते हैं। जैसे-ज, आ आदि। . स्वरों के 10 भेद-हस्त्र दीर्घ प्लुत x उदात्त अनुदात्त स्वरित र असुमासिक अननुनासिक (343-6x2-18) / 'अ इ उ ऋ' इनमें से प्रत्येक के 18 भेद होगें। 'ल' के दीर्घ न होने से 12 भेद (24342%D12) होंगे। 'ए ओ ऐ औ' के ह्रस्व न होने से इनके प्रत्येक के 12 भेव होंगे। (2) व्य ञ्जन (Consonants)-जिनका उच्चारण करने में स्वरों की सहायता अपेक्षित हो अथवा जिनका उच्चारण विना स्वर की सहायता के सम्भव न हो, उन्हें व्यञ्जन कहते हैं। इन्हें सामान्य रूप से 'अ' स्वर के साथ लिखा जाता है। वस्तुत: ये स्वरहीन हैं इसीलिए इनके वास्तविक स्वरूप को प्रकट करने के लिए इनके नीचे एक तिरछी रेखा (.) का प्रयोग किया जाता है। इनका उच्चारण फरने में अर्धमात्रा का समय लगता है। 'हल' प्रत्याहार में इनका समावेश होने से इन्हें 'हल्' भी कहा जाता है / ये सामान्यरूप से तीन प्रकार के हैं१ वही, वृत्ति ताल्वादिषु सभागेषु स्थानेषभागे निष्पनोऽजुदात्तसंज्ञः स्यात् / 2. मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः / अ० 1.1.8... 3. देखिए पृ०२, टि० 1. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [1 : वर्णमाला व्यञ्जन ] १.व्याकरण [5 (क) स्पर्श व्य ञ्जन ( Contact consonants :-इन वर्गों का उच्चारण करते समय मुख के दो उच्चारण-अवयव एक दूसरे का स्पर्श करके वायु को रोकते हैं और बाद में एक दूसरे से अलग होकर वायु को बाहर निकलने देते हैं। इस तरह दो उच्चारण-अवयवों का स्पर्श होने से ये वर्ण स्पर्श कहे जाते हैं। इनकी संख्या 'क' से लेकर 'म' तक 25 है जो क्रमशः कवर्ग, पवर्ग, टवर्ग, तवर्ग और पवर्ग इन पाँच वर्गों में विभक्त हैं।' कवर्गादि को क्रमशः 'चुटु तु पु' के नाम से भी कहा जाता है। इनमें 'उ' का लोप होने से इन्हें उदित् (उत् + इत् ) भी कहा जाता है। (ख) अन्तःस्थ या अर्धस्वर (Semi-vowels)-अन्तःस्थ (अन्तः+स्था+ 'क ) शब्द की कई तरह से ब्याख्या की जाती है-(१) स्वर और व्यञ्जन के मध्यवर्ती होने से ये अन्तःस्थ हैं। ये न तो स्पर्श वर्गों के समान स्पृष्ट हैं और न स्वर वर्गों के समान विद्वत / माहेश्वर सूत्रों में भी इनकी गणना स्वर और व्यञ्जन वर्गों के मध्य में की जाती है। (2) सम्प्रसारण होने पर य र ल व' ये क्रमशः 'इ ऋल उ' में परिवर्तित होते हैं तथा 'यण' सन्धि के होने पर 'इ ऋल उ' ये क्रमशः 'य र ल व' में परिवर्तित होते हैं। अतः स्वर के आधे गुणों से युक्त होने के कारण इन्हें अर्धस्वर ( Semi-vowels) कहा जाता है। (3) वर्णमाला के क्रम में इन्हें स्पर्ण वर्णों और ऊष्म वर्णों के मध्य में माना गया है। अतः इन्हें अन्तःस्थ कहा गया है। इसके अतिरिक्त अन्य व्याख्यायें भी अन्तःस्थ की हैं। 'यण' प्रत्याहार में इनका समावेश होने से इन्हें 'यण' भी कहा जाता है। - (ग) ऊष्म ( Spirants or Sibilants)-'कष्मन्' शब्द का अर्थ है 'गर्म वायु' या 'बाष्प'। इन वर्गों के उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु प्रधानरूप से निकलती है। इन वर्गों के उच्चारण के समय वायुमार्ग सकरा होता है जिससे वायु घर्षण करती हुई शीत्कार ध्वनि के साथ बाहर निकलती है। इसीलिए इन वर्णों को संघर्षी (Fricatives ), सप्रवाह (Continuants) तथा शीत्कार-ध्वनियुक्त ( Hissing sounds) भी कहा जाता है। 'शल्' प्रत्याहार में इनका समावेश होने से इन्हें 'शल्' भी कहा जाता है। . 1. कादयो मावसानाः स्पीः / ल० को०, पृ० 22. '2. कुचुटुतुपु एते उदितः / ल० कौ०, पृ० 24. 3. यहाँ सूत्र में 'ह' वर्ण विशेष-प्रयोजन के लिए प्रयुक्त है / देखिए पृ० 6, टि०२ 4. 'स्पर्शीष्मणामन्तर्मध्ये तिष्ठन्तीति अन्तःस्थाः / उ० भाष्य 116. 5. विशेष के लिए देखिए 'ऋग्वेद प्रातिशाख्य : एक परिशीलन' पृ० 13-14. 6. ऊष्मा वायुस्तत्प्रधानवर्णा ऊष्माणः / उ० भाष्य 1 / 10. नोट..--'कस पछट त य प फ श ष स' (अघोष वर्ण या 'खर' प्रत्याहार के वर्ण। इन्हें 'परुष व्य ञ्जन' (कठोर वर्ण) भी कहा जाता है तथा शेष को 'मृदुव्यञ्जन' (कोमल वर्ण)। (3) अयोगवाह-विसर्ग, अर्धविसर्ग और अनुस्वार को अयोगवाह ( वर्णसमाम्नाय के 14 माहेश्वर सूत्रों में जिनका योग न होने पर भी व्यवहार में वाह-प्रयोग हो) कहते हैं। इनकी गणना स्वर और व्यञ्जन वर्गों में नहीं की जाती है। वस्तुतः ये कुछ व्यञ्जन वर्गों के ही रूपान्तर हैं। जैसे (क) विसर्ग-(वि+मृज् + घ) इसमें बायु को शीघ्रता से बाहर किया जाता है / वह 'स्' अथवा 'र' का रूपान्तर है। जैसे-राम+सु> >र-रामः / (ख) अर्धविसर्ग-जिह्वामूलीय और उपध्मानीय के भेद से यह दो प्रकार का है। 'क' और 'ख' से पूर्ववर्ती अर्धविसर्न के समान ध्वनि ( क, ख) को जिह्वामूलीय ( Sound produced at the root of the tongue - जिह्वा के मूलभाग से उच्चरित होने वाला वर्ण ) कहते हैं। पाणिनि-सम्प्रदाय में इसे कण्ठच माना गया है। 'प' और 'फ' से पूर्ववर्ती अर्ध-विसर्ग के समान ध्वनि (~ प, फ) को उपध्मानीय कहते हैं। उपध्मानीय (उपध्मा +अनीयर ) के उच्चारण में उसी प्रकार का प्रयत्न करना पड़ता है जिस प्रकार फूंक मारकर दीपक के बुझाने में किया जाता है। उपध्मान का अर्थ है 'फूंक मारना' / आजकल इन दोनों का प्रयोग प्रचलन में नहीं रह गया है। इनके स्थान पर अब विसर्ग (:) का ही प्रयोग होता है। (ग) अनुस्वार ( pure nasal)-अनुस्वार (अनु+स्व + ध ) शब्द का अर्थ है 'बह वर्ण जिसका उच्चारण अन्य वर्ण के पश्चात् किया जाता है' ( अनु - पश्चात् = अन्यवर्णानन्तरम्, स्वर्यते - उच्चार्यत इत्यनुस्वारः)। इसे 'अनुगामी ध्वनि' ( After sound ) तया पूर्ववर्ती स्वर के विना न रह सकने के कारण 'पराश्रित ध्वनि' (Dependent sound) भी कहते हैं। ऋ० प्रा० में इसे व्यजन और स्वर दोनों माना है।अनुस्वार स्वर है या व्यञ्जन इस विषय में मतभेद है। वस्तुन: अनुस्वार 'म्' अथवा 'न्' का ही रूपान्तर है। जैसे-सत्यम् वद् सत्यं वद / यवान् + सियासि / आजकल अनुस्वार की गणना स्वरों के बाद की जाती है तथा अनुस्वार के बाद विसर्ग की गणना की जाती है (भं, अ)। इस तरह इन सभी वर्गों का प्रयोग स्वर के बाद ही किया जाता है। 1. ख इति वखाभ्यां पागविसर्गसदृशो जिह्वामूलीयः / ल. कौ० पृ०१२. 2. पफ इति पफाभ्यां प्रागविसर्गसदृश उपध्मानीयः / ल. को०, पृ० 22, 3. 'अनुस्वारो व्यञ्जनं वा स्वरो वा' / ऋ० प्रा० 15. 4. देखिए, ऋग्वेद प्रातिशाप : एक परिशीलन, पृ०५१-५४. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृन-प्रवेशिका [1 : वर्णमाला नोट --क्ष (क् + +अ), त्र ( + र् + अ), ज्ञ (ज् + + अ) ये सभी संयुक्त व्यञ्जन हैं / अतः संस्कृत वर्णमाला में इन्हें नहीं गिनाया जाता है माहेश्वर सूत्र (वर्णसमाम्नाय सूत्र या प्रत्याहार सूत्र): पाणिनि ने संस्कृत-वर्णमाला (वर्ण-समाम्नाय अक्षरसमाम्नायवर्णराशि) का अधोलिखित चौदह सूत्रों में सन्निवेश किया है। महर्षि पाणिनि ने इन सूत्रों को महेश्वर (शिव) की कृपा से प्राप्त किया था। अतः इन्हें 'माहेश्वर मूत्र' भी कहा जाता है। इनका उपयोग आगे बतलाये जाने वाले प्रत्याहारों के बनाने के लिए किया जाता है। अतः इन्हें 'प्रत्याहार सूत्र' भी कहते हैं। इन सूत्रों में जो अंतिम (हलन्त) वर्ण हैं उन्हें 'इव' (लुप्त ) कहा जाता है / अतः उन्हें वर्णमाला के क्रम में नहीं गिना जाता है। यहाँ वर्णों का जो क्रम बतलाया गया है वह प्रत्याहारों की दृष्टि से है / चौदह सूत्र क्रमशः निम्नाङ्कित हैं |1. अइउण् 2. ऋलक् .एओ 4 . ऐऔच। अन्तःस्थ वर्ग के पंचम वर्ण वर्ग के चतुर्थ वर्ण 11. ह्यवरट् 6. लण्| |7. अमङणनम् | 1. झभञ्६. धबधः | वर्ग के तृतीय वर्ण वर्ग के द्वितीय वर्ण वर्ग के प्रथम वर्ण ऊष्म वर्ण | 10. जबगडदश् | 11. खफछठथ | चटतम् 12. कपय् || 13. शषसर 14. हल्/ प्रत्याहार विधि वों के संक्षेप में कथन करने को (प्रत्याहियन्ते संक्षिप्यन्ते वर्णा यत्र स प्रत्याहारः) प्रत्याहार कहते हैं। प्रत्याहार बनाते समय पूर्वोक्त 14 सूत्रों के इत्संज्ञक वर्षों को छोड़कर किसी भी एक वर्ण को लेकर आगे के किसी भी इत्-संज्ञक वर्ण के साथ जोड़ दिया जाता है और तब वह (प्रत्याहार ) दोनों वर्णों (पूर्ववर्ण और इत्-संज्ञक वर्ण ) के बीच में आये हुए सभी वर्गों (इव-संज्ञक वर्णों को छोड़कर) १.संभवत: माहेश्वर व्याकरनि / २.एषामन्त्या इतः / ल० को०१५ 3. इस वर्णमाला में 'ह' वर्ण दो बार (यवरट्, हल्) आया है। इसका कारण है कि 'अट्' और 'शल्' दोनों प्रकार के प्रत्याहारों में 'ह' को लिया जा सके जिससे अhण, अधुक्षत आदि प्रयोग सिद्ध हो सकें। व्यञ्जन वर्गों में जो 'अ' जुड़ा है वह उच्चारणार्थ है (हकारादिष्वकार उच्चारणार्थः / ल. को०, पृ०६)। 'लण्' सूत्र के 'ल' का 'अ' केवल उच्चारणार्थ ही नहीं है (लण्मध्ये स्वित्संज्ञकः / ल. कौ०, पृ.६) अपितु इसका एक विशेष प्रयोजन है जिससे 'र' प्रत्याहार बन सके। (देखें, पृ०६)। प्रत्याहार ] 1: व्याकरण [7 का और स्वयं का (पूर्ववर्ण का) भी बोधक होता है। जैसे -'अइउण्' सूत्र से 'अ' लेकर उसको 'ऐऔच' के इव-संज्ञक '' के साथ जोड़ने पर 'अच्' प्रत्याहार बना। इस तरह इस 'अच्' से 'अ, इ, उ, ऋ, ल, ए, ओ, ऐ, औ' इन सभी वर्गों का बोध होगा। पहाँ एक बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्याहार के मध्यवर्ती इत्-संज्ञक वर्णों को कदापि न जोड़ें। यद्यपि इस प्रक्रिया से अनेक प्रत्याहार बन सकते हैं परन्तु पाणिनि आदि वैयाकरणों ने जिन प्रत्याहारों का प्रयोग किया है, वे निम्न तेतालीस हैक्रमाङ्क प्रत्याहार तद्गत वर्णसमुदाय १.अण्-अ इ उ। 2. अक्--अ इ उ ऋल (मूल स्वर)। 1. आदिरन्त्येन सहेता / अ० 1.1.71.. 2. 'अण्' आदि प्रत्याहारों के प्रयोग अष्टाध्यायी के सूत्रों में क्रमशः द्रष्टव्य है 1. दलोपे पूर्वस्थ दीघ?णः (6.3.111); 2. अकः सवर्णे दीर्घः (6.1101): 3. इको यणचि ( 6.1.77); 4. शश्वोऽटि (8.4.63); 5. अणुदित्सवर्णस्य चाऽप्रत्ययः (1.1.66), 6. पुमः खय्यम्परे (8. 3.6); 7. भो भगो अधो अपूर्वस्य योऽशि (8.3.17); 8. अलॉन्त्यस्य (1.1.52); 6. इको यणचि (6.177), इग्यणः संप्रसारणम् (1.1.45); 10. नादिचि (6.1.104); 11. इणः षः (8.3.36), 12. उागदा सर्वनामस्थानेऽधातोः (7.1.70); 13. एडि पररूपम् ( 6.164.) 14 एवोऽयवायायः (3.1.78); 15. वृद्धिरादैच् (1.1.1); 16 हशि च (6.1.114); 17. हलन्त्यम् (1.3.3) 18. इको यणचि (6.1.77), 16. हलो यमा यमि लोप: (8.4.64); 20. अतो दीर्घा यजि (7.3.101); 21 अनुस्वारस्थ ययि परसवर्णः (8.4.58); 22. यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा ( 8.4.45), 23. नेवशि कृति (7.28); 24 लोपो व्योलि (6.1.66); 25. उरण रपरः (1.1.51); 26. रलो पुषधाद्धलादेः संश्च (1.2.26); 27. मय उनो वो वा (8.3.33); 28. हमो हस्वादचि पुण् नित्यम् (8.3.32); 26. एकाचो बशो भए झषन्तस्य सहयोः (8.2.37); 30. झलां जश् झशि (8.4.53); 31. झयो होऽन्यतरस्याम् (8.4.62); 32. झरो झरि सवर्णे (8.4.65); 33. झलो झलि (8.2.26); 34. एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः (8.2.37), 35, झां जश् झशि (8.4.53); 36. एकागे वशो०(८२.३७); 37. धुमः खग्यम्परे (8.3.6) 38. खरिच (8.4.55 ) 36. नश्छध्यप्रशान् (8.3.7); 40. चयो द्वितीयाः शरि पौष्करसादेरिति वाच्यम् (वार्तिक); 41. अभ्यासे चर्च (8.4.54 ); 42. शरोऽचि (8.4.46), 43. शल इगुपधादनिटः क्सः ( 3.1.45 ) / Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्याहार ] 1: व्याकरण संस्कृत-प्रवेशिका [1: वर्णमाला 3. अच-अ इ उ ए जो ऐ औ ( सभी स्वर वर्ण)। 4. अट्-अ इ उ ऋ ए ओ ऐ ओ ह य वर। 5 अण'.-बउ ऋच ए ओ ऐ औ ह य ब रल (स्वर, ह, अन्तःस्थ)। 6. अम् --आ उ ऋ ए ओ ऐ औ ह य व र ल ब म ण न (स्वर, ह, अन्त.स्व, वर्ग के पंचम वर्ण)। 7. अश्-अ इ उ ऋ ए ओ ऐ औ ह य व र ल ज म ण न भ भ प 4 जब गडद (स्वर, ह, अन्तःस्थ, वर्ग के 5, 4, 3 वर्ण)। 4 अल-अउ छ ए बो ऐ ओ ह य व र ल म ण न भ भ पध जबगह दस फछठ थ च ट त क प श ष स ह (पूर्ण वर्णमाला)। 10. इच--इ उ ऋ ए भो ऐ औ ( 'ब' खोड़कर शेष स्वर ) / 11. इण- उचल ए ओ ऐ औ ह, य व र ल ('अ' रहितस्वर, ह, अन्तःस्थ) 12 उक्-उ ऋतू। 13. एक-एओ। 14. एच-ए ओ ऐ औ ( संयुक्त स्वर)। 15 ऐच-ऐ औ। 16. हर-ह य व रल बम ण न भ भ प ध जब 48 (ह, अन्तःस्थ, . वर्ग के 5, 4, 3 वर्ण)। 17 हल-हय वरल बमण न झ भबढ धजब ग ड द ख फ छठ थ चट त क प श ष स ह (सभी व्यञ्जन वर्ण)। 18. यण्- य व र ल ( अन्तःस्थ)। 19. यम्-य व.र ल ब म ण न ( अन्तःस्थ, वर्ग के 5 वर्ण)। 20. य-य व र ल ज म ण न झभ / 21. यय-य वरल बम ण म झ भ दध जब गर द ख फ छठ पच टत क प (अन्तःस्थ, वर्ग के 5, 4, 3, 2,1 वर्ण)। 1. अणुवित्तवर्णस्य पाऽप्रत्ययः (अ०१1१६६)। केवल इस सूत्र में ही 'अण' से परवर्ती 'ण' लेना है, अन्यत्र नहीं। कहा भी है'परेणैवेण्ग्रहाः सर्वे पूर्वेणैवाण्ग्रहा मताः / ऋतेऽणुदित्सवर्णस्येत्येतदेकं परेण तु // " भाष्य / अर्थ-सर्वत्र 'इण्' से परवर्ती 'ण' लेना चाहिए तथा 'अण' से पूर्ववर्ती 'ण' लेना चाहिए परन्तु 'अणुदित्सवर्णस्य०' में 'अण्' से परवर्ती 'ण' लेना चाहिए। 22. यर य व र लज महणन भ भ प ध जब गडद ख फछठ थ चट त क प श ष स (अन्तःस्थ, वर्ग के 5, 4, 3, 2,1 वर्ण तथा सवस)। 23. वा-वर लबमण न झ भ पधज बग हद। 24 बल-वरलसमण न कभपधज बगह दस फ छ उपच ट त क प श ष स ह ('य' छोड़कर सभी व्य ञ्जन)। 25. र'-(र+अ)-रल। 26 रल -रल मम हुण न क भ प ध जब गड दस फ छठ थ पटत कप श ष स ह (य व छोड़कर सभी व्यञ्जन)। 27. मय- म ण न क भ धडध ज ब ग ड द ख फ छठ य च ट त क प / 28. हम्- ण न। 29 अष्-झ भ प ध ( वर्ग के चतुर्थ वर्ण)। ३०शश्-भ भ प ड प ज ब ग ड द ( वर्ग के 4, 3 वर्ण)। 31. क्षय-भ प द ध ज ब ग ड द ख फछठ थ च ट त क प (वर्ग के 4, 3, 2,1 वर्ण)। 32. झर-म भ प ध ज ब ग 3 दस फ छ ठथ च ट त क प श ष स ( वर्ग के 4, 3, 2, 1, श ष स)। ३३.झल-भाभपहधजब गड दस फछठ थचट तक प श ष स है (वर्ग के 4, 3, 2, 1 ऊष्म)।' 34 भष्--भ प ध (झ से रहित वर्ग के चतुर्थ वर्ण)। ३५..जश्-जब ग ड द ( वर्ग के तृतीय वर्ण)। 36. बश्-बग ड द / 37. खय्-ख फ छठ य च ट त क प ( वर्ग के 2,1 वर्ण)। 38. खर-ख फ छठ थ च ट त क प श ष स / 31. छब्-छठ य च ट त / 40. चय-च ट त क प ( वर्ग के पंचम वर्ण)। 41. चर्-च ट त क प श ष स / 42. शर्-श ष स / 43. शल-श ष स ह ( अल्म वर्ण)। वों के उच्चारणस्थान ( Places of articulation) वर्गों के उच्चारण (Pronunciation of letters) की शुद्धता पर प्राचीन१. देखें पृ० 6, टि०२। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] संस्कृत-प्रवेशिका [1: वर्णमाला उच्चारण, प्रयल ] 1 : व्याकरण . [11 काल से ही महत्त्व बतलाया गया है।' वायु (प्राण वायु) की सहायता से ही वर्गों को उत्पन्न किया जाता है। नासिका से जो वायु फेफड़ों में जाती है वही वाय जब नासिका से न निकालकर मुख से निकाली जाती है तो वह विभिन्न प्रकार की ध्वनियों के उत्पन्न करने के काम में लाई जाती है। अतः फेफड़ों ( Lungs) के अन्दर से बाहर आती हुई वायु को रोककर अथवा उसमें विकृति पैदाकर वर्णों को उत्पन्न किया जाता है। अतः जिस स्थान पर वायु को विकृत करके वर्णविशेष को उत्पन्न किया जाता है उस स्थान विशेष को उस वर्णविशेष का उच्चारण-स्थान कहा जाता है। जैसे-अन्दर से बाहर आती हुई वायु को यदि तालु पर विकृत . किया जाता है तो उससे उत्पन्न होने वाले वर्ण को 'तालव्य' कहा जायेगा और उसका उच्चारणस्थान 'तालु' होगा। इसी प्रकार यदि मूर्धा भाग ( कोमल तालु और कठोर तालु का मध्य भाग) पर विकृत किया जाता है तो उससे उत्पन्न वर्ण को मूर्धन्य कहा जायेगा और उसका उच्चारणस्थान मूर्धा होमा। इस संदर्भ में अधोलिखित वर्गीकरण द्रष्टव्य है-- उच्चारण-स्थान वर्ण वर्ण-जाम कण्ठ (Guttural) कवर्ग, अ, आ, ह. विसर्ग कण्ठष are (Palatal) चवर्ग, इ, ई, य, श् तालव्य मूर्धा (Cerebral) टवर्ग, ऋ, ऋ, र मूर्धन्य दन्त - दन्तमूल (Dental) तवर्ग, ल, ल् स् दन्त्य = दन्त्यमूलीय ओष्ठ (Labial) पवर्ग, उ, ऊ, उपध्मानीय ओष्ठय कण्ठ और तालु (Palato-guttural) ए, ऐ कण्ठय+तालव्य कण्ठ और ओष्ठ (Labio guttural) ओ, औ कण्ठ्य +ओष्ठच दन्त और ओष्ठ (Dento-labial) व दन्त्य+ओष्ठ्य जिह्वामूल (Root of the tongue) क ख जिह्वामूलीय नासिका (Naval) अनुस्वार (-) नासिक्य नोट-वर्गों के पञ्चम वर्ण (इब्ण न म् ) के उच्चारण-स्थान दो-दो हैं। जैसे- ( कण्ठ + नासिका ), ञ् ( तालु + नासिका), " ( मूर्धा+नासिका ), 1. दुष्टः शब्दः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह। स वाग्वयो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् / पा०शि० 52. 2. अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः / इचुयशानां तालु। ऋटुरषाणां मूर्धा / तुलसानां दन्ताः / उपूपध्मानीयानामोष्ठौ / बमङणनाना नासिका च / एदेतोः कण्ठतालु। ओदौतोः कण्ठोष्ठम् / वकारस्य दन्तोष्ठम् / जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम् / नासिकाऽनुस्वारस्य / ल. कौ०, पृ०१७-१८. न ( दन्त + नासिका), म (ओष्ठ+नासिका)। इनका उच्चारण स्थान नासिका भी होने से इन्हें अनुनासिक ( Nasals ) वर्ण भी कहा जाता है। वों के उच्चारण में प्रयत्न ( Mode of pronunciation) वों के उच्चारण करने में उच्चारणावयवों को जो आयास ( व्यापार या चेष्टाविशेष) करना पड़ता है उसे प्रयत्न कहते हैं। वह प्रयत्न दो प्रकार का है-(१)। बाह्य-प्रयत्न और (2) आभ्यन्तर-प्रयत्न / मुख (ओष्ठ से कण्ठ के मध्य का भाग) के बाहर (स्वर यंत्र में)' जो प्रयत्न होता है उसे बाह्यप्रयत्न कहते हैं। इसे ही 'प्रकृति' या 'अनुप्रदान' भी कहा जाता है। बाह्य प्रयत्न में स्वरयन्त्र ( Larynx) ही मुख्यरूप से सक्रिय उच्चारणावयव होता है। जब फेफड़े से वायु श्वास-नलिका के मार्ग से बाहर निकलती है तो वायु में सर्वप्रथम स्वरयन्त्र में कुछ विकार पैदा होता है / इस तरह स्वरयन्त्र ही प्रथम उच्चारणावयव है। यहाँ जो प्रयत्न होता है उसे ही बाह्यप्रयत्न ( Emitted material) कहते हैं। मुख के भीतर ( तालु आदि स्थानों में ) जो प्रयत्न होते हैं उन्हें आभ्यन्तर प्रयत्न कहते हैं। इसे ही 'करण' और 'प्रदान' शब्द से भी कहा गया है। आभ्यन्तर-प्रयत्न की सहायता से ही मुख के उच्चारणावयव 'श्वास' एवं 'नाद' रूप वायु से विभिन्न प्रकार के वर्णों के उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। बाह्य और आभ्यन्तर-प्रयत्न के अर्थ में प्रायः लोगों ने भूल की है / आभ्यन्तर प्रयत्न का उपयोग व्याकरण में सवर्ण-संज्ञा' (देखें पृ. 14) के ज्ञान के लिए किया जाता है और बाह्य प्रयत्न का उपयोग वर्गों के पारस्परिक सादृश्य के खोजने में किया जाता है। इन्हीं प्रयत्नों के कारण वर्ग के पाँच वर्ण एक ही स्थान से उच्चरित होने पर भी आपस में पृथक्-पृथक् है। बाह्य प्रपत्न- यह ग्यारह प्रकार का है-(१) विवार (Expension), (2) संवार (Contraction), (3) श्वास ( Bteath , () नाद (Voice), (5) अघोष ( Usvoiced), (6) सघोष (Voiced), (7) अल्पप्राण (Unaspirate), (5) महाप्राण (Aspirate), (6) उदात्त (Acute), (10) अनुदास (Grava), और (11) स्वरित (Circumflex) / 1. गले में श्वास-नलिका के ऊपरी भाग में स्वर यन्त्र होता है जिसमें पतली झिल्ली के बने दो लचीले पर्दे होते हैं जो स्वरत-त्री ( vocalcho ds) कहे जाते हैं। इनके मध्य के खुले हुए छेद को स्वरयन्त्र-मुख (glottis) कहते हैं। वायु इंसी से होकर भीतर अथवा बाहर जाती है / इन स्वरतन्त्रियों को एक दूसरे के समीप अथवा दूर करके ध्वनियों को उत्पन्न किया जाता है। 2. बाह्यस्त्वेकादशधा-विवारः संवारः श्वासो नादो घोषोऽधोषोऽल्पप्राणो महाप्राण उदातोऽनुदातः स्वरितश्चेति / खरो विवाराः श्वासा अघोषाश्च / हशः सवारा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ] संस्कृत-प्रवेशिका [1 : वर्णमाला प्रयत्न ] 1: व्याकरण [13 अनमोष्मन) स्वरित स्वरतंत्रियों से होकर जब वायु बाहर निकलती है तब स्वरतंत्रियों की प्रमुखरूप से तीन अवस्थायें होती हैं-(१) विवृत-इस स्थिति में स्वरतंत्रियाँ एक दूसरे से दूर रहती हैं जिससे स्वरयंत्र-मुख ( कण्ठद्वार) पूर्ण खुला रहता है। फलतः फेफड़ों से बाहर निकलती हुई वायु का स्वरतंत्रियों के साथ घर्षण नहीं होता है तथा उनमें कम्पन भी नहीं होता है, फलस्वरूप वायु अबाध गति से बाहर निकल जाती है। ऐसी वायु को 'श्वास' कहते हैं। 'श्वास' शब्द 'श्वस्' ( सांस लेना) धातु से बना है। अतः सांस लेने जैसी स्थिति में स्वरतंत्रियों के विद्यमान रहने पर जिन वर्णों का उच्चारण होता है उन्हें 'अघोष' ( unvoiced-गंज से रहित) कहते हैं। इसीलिए 'खर' वर्णों ( वर्गो के 1,2 तथा श ष स वर्णों) को 'विवार' ( स्वर तन्त्रियों का खुला रहना), 'श्वास' ( सांस लेना जैसी स्थिति में स्वतन्त्रयों का रहना) तथा 'अघोष' (घर्षणरहित या गूंजरहित.) कहा गया है। इस तरह अघोष वर्गों की मूल कारण रूप वायु 'श्वास' कही जाती है। अयोगवाह (विसर्ग, अर्धविसर्ग और अनुस्वार ) वर्ण भी श्वास में आते हैं। (2) संवृत--इस स्थिति में स्वरतन्त्रियाँ एक दूसरे के अत्यधिक समीप रहती हैं जिससे स्वरयन्त्रमुख (कण्ठद्वार ) बन्द रहता है। फलतः फेफड़ों से बाहर निकलती हुई वायु का स्वरतन्त्रियों के साथ घर्षण होता है और उनमें कम्पन भी होता है। ऐसी वायु (घर्षण करके निकली हुई गूंज युक्त वायु) को 'नाद' कहा जाता है / 'नाद' शब्द ध्वन्यर्थक 'नद्' धातु से बना है। अतः स्वरयन्त्र से ही ध्वनि करते हुए निकलने के कारण 'सघोष' (गूंजयुक्त) वणों ( 'हश्' वर्णी) की मूल कारण रूप वायु को 'नाद' कहा जाता है। इस तरह 'हश्' वर्गों ( वर्ग के 3, 4, 5 तथा य र ल व वर्णों) को 'संवार' (स्वरतन्त्रियों का बन्द जैसी स्थिति में रहना), 'नाद' (स्वरतस्त्रियों के साथ वायु का घर्षण होने से ध्वनियुक्त होना) तथा 'सघोष' (घर्षणयुक्त या गूंजयुक्त) कहा जाता है। सभी स्वर वर्ण 'सघोष' हैं। (3) वित-संवत (मध्यमस्थिति)-इस स्थिति में स्वरतन्त्रियां न तो एक दूसरे से अधिक दूर होती हैं और न अधिक पास जिससे स्वरयन्त्रमुख आधा विवृत तथा आबा संवृत अर्थात् मध्यमस्थिति वाला होता है / स्वरयन्त्रमुख की इस स्थिति में बाहर निकलनेवाली वायु श्वास और नाद दोनों होती है। 'घ झ, द ध भ ह' (वर्ग के 4 तवा ह) वर्ग इसी स्थिति में उच्चारित होते हैं, परन्तु इनमें 'नाद' होने से इन्हें 'सघोष के ही अन्तर्गन माना जाता है। ___सोमना ( Aspiration) के आधार पर स्पर्शात्मक व्यजनों को दो भागों में विभक्त किया जाता है-अल्पप्राण.( अनूष्मन्-Upaspirate) और महाप्राण नादा घोषाश्च / वर्गाणां प्रथम-तृतीय-पञ्चमा यणाचाल्पप्राणाः / वर्गाणां द्वितीय चतुचौं शलश्च महाप्राणाः / ल० को०, संज्ञा प्रकरण, पृ० 20 (सोष्मन् Aspirate) / अन्दर से बाहर आती हुई वायु (प्राण वायु) के बल का ही नाम प्राण है। अतः जिन व्यजनों के उच्चारण में वायु का आधिक्य न हो उन्हें 'अल्पप्राण' तथा जिन व्यजनों के उच्चारण में वायु का आधिक्य हो उन्हें 'महाप्राण' कहते हैं। वर्गों के प्रथम, तृतीय, पञ्चम वर्ण तथा अन्तःस्थ (यण) वणे अल्पप्राण है। वर्गों के द्वितीय, चतुर्थ तथा ऊष्मवर्ण (शल् ) महाप्राण हैं। वर्णों के द्वितीय और चतुर्थ वर्ण को ऊष्म कहने का कारण है उनमें ऊष्म ध्वनि (ह) का 'पाया जाना / जैसे-ख (kh), घ (gh) / ध्वनि के आरोह एवं अवरोह के आधार पर स्वरों को तीन भागों में विभक्त किया जाता है-उदात्त (ऊँची आवाज में उच्चरित), अनुदात्त (नीची आवाज में उच्चरित) तथा स्वरित ( न ऊँची और न नीची)। व्यञ्जनों में ऐसा विभाजन नहीं होता है। बाह्यप्रयत्न-विवेक तालिका विवार, प्रवास, संवार, नाद, अल्पप्राण / महाप्राण उदात्त, अनुदात्त अघोष घोष (अनुष्मन) (सोष्मन्) कखच छ ग घरजमकगडच खघ छ अआइई टठ त थ जडहण द जजट झ86 उ ऊ ऋ ऋ प फ श ष स धन ब भ म ण त द न थध फ ल एमओ य व र ल ह पब म य म श ष / ऐ औ अ आ इईउ व रेल सह / ऊ ऋ ॠल | ए ओ ऐ औ / (खर एवं (हश् तथा (वर्ग के 1,3 (वर्ग के 2,4 (सभी स्वर)। | अयोगवाह) स्वर) 5 तथा यण) तथा शल)। आभ्यन्तरप्रयल-मुखस्थ उच्चारण-अवयवों के मिलने और न मिलने के वाधार पर आभ्यन्तरप्रयत्न के पांच भेद किए जाते हैं (1) स्पृष्ट ( Contact)-जिह्वाग्र का ताल आदि के साथ अथवा दो ओष्ठों के परस्पर स्पर्श होने पर उच्चरित होने वाले वर्ण स्पृष्ट (स्पर्शसंशक) कहलाते हैं / जैसे-'क' से 'म' तक पांचों वर्गों के वर्ण / अर्थात् इनके उच्चारण में भीतर से बाहर आती हुई प्राणवायु को मुखस्थ दो उच्चारण-अवयव परस्पर 1. आद्यः पञ्चधा-स्पृष्टेषत्स्पृष्टेषद्विवृतविवृतसंवृतभेदात् / तत्र स्पृष्टं प्रयन स्पर्शानाम् / ईषत्स्पृष्टमन्तःस्थानाम् / ईषद्विवृतमूष्मणाम् / विवृतं स्वराणाम् / हस्वस्यावर्णस्य प्रयोगे संवृतम्, प्रक्रियादशायां तु विवृतमेव / ल. को०, पृ०१८-१६। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अन्तर ] 1: व्याकरण [15 14 ] संस्कृत-प्रवेशिका [ 1 : वर्णमाला मिलकर (क्षणिक स्पर्शकर) रोकते हैं पश्चात् शीघ्रता से बाहर जाने देते हैं। (2) ईषत्-स्पृष्ट ( Slight contrct)--इसमें दो उच्चारण-अवयवों (जिह्वान का तालु आदि के साथ या दोनों ओष्ठों) का थोड़ा-सा स्पर्श होता है। अतः इसे 'ईषत्स्पृष्ट' कहा जाता है। इसे ही 'दुःस्पृष्ट' (अपूर्ण-स्पर्श ) भी कहा जाता है। जैसे-अन्तःस्थ वर्ण (यण्)। (3) विवृत (Open )-इसमें दो उच्चारणअवयवों का विलकुल स्पर्श नहीं होता है अर्थात इसमें दोनों उच्चारण-अवयव दूरदूर रहते हैं जिससे दोनों के बीच का मार्ग खुला रहता है और वायु रुकती नहीं है। जैसे-वर वर्ण / (4) ईषद्-विवृत ( Slight opea)-- इसमें दो उच्चारणअवयव कुछ दूरी पर रहते हैं जिससे वायुमार्ग संकरा हो जाता है। जैसे-शष सह (शल्)। (5) संवत ( Close)- इसमें वायु का मार्ग बन्द सा हो जाता है / जैसे-ह्रस्व 'अ' प्रयोग की अवस्था (सिद्धावस्था) में। प्रक्रिया ( रूपनिर्माण ) की अवस्था में 'अ' विवृत होता है।' आभ्यन्तरप्रयत्न-विवेक तालिका स्कृष्ट | ई० स्पृष्ट / पष्ट विवृत (अस्पृष्ट) ई. विवृत | (अर्धस्पृष्ट) कहलाते हैं। जैसे - ख ग घ छ / ये पांवों वर्ण आपस में सवर्ण-संज्ञा वाले हैं क्योंकि इनका उच्चारण-स्वान (कण्ठ) और आभ्यन्त र-प्रयत्न ( स्पृष्ट ) दोनों एक समान है। असवर्ण ( Heterogeneous)-जिन वर्गों के उच्चारण स्थान और आम्वन्तर प्रयत्न ( दोनों अथवा कोई एक) असमान (भिन्न-भिन्न ) होते हैं वे वर्ण परस्पर बिसवर्ण' कहलाते हैं। जैसे-क' और '' / ये दोनों आपस में असवर्ण है क्योंकि इनका बाभ्यन्तर-प्रयत्न ( स्पृष्ट) एक समान होने पर भी उच्चारण-स्थान ( कण्ठ, दन्त ) भिन्न-भिन्न है। विशष-'ऋ' और 'ल' वर्ण में यद्यपि उच्चारण-स्थान का भेद है फिर भी . वातिककार ने इन दोनों को आपस में 'सवर्ण' बतलाया है।' शब्द और पद में अन्तर: शब्द-'सुप् अथवा 'तिह' प्रत्यय' से रहित केवल वर्गों का सार्थक समुदाय 'शब्द' कहलाता है। जैसे-राम ( +आ+म् +अ), भू (भ् + 3) आदि / पद-जिस वर्ण-समुदाय में 'सुप्, अथवा 'ति' प्रत्यय (संस्कृत व्याकरण के अनुसार ) जुड़ा हो उसे 'पद' कहते हैं। अर्थात् वर्ण-समुदायरून 'शब्द' ही जब सुबादि / 'सुप्' अथवा 'तिङ्) प्रत्ययों से युक्त हो जाता है तो वह 'पद' कहलाने लगता है। जिस वर्ण-समुदाय में 'सुप्' प्रत्यय जुड़ा होता है उसे 'सुबन्त-पद' कहते हैं और जिसमें 'ति' प्रत्यय जुड़ा होता है उसे 'सिडन्त-पद'। दोनों प्रकार के पदों के क्रमशः उदाहरण होंगे-रामः (राम + सु) और भवति (भू+ति)। ___नोट-यह हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि संस्कृत-भाषा में जब तक शब्द 'पद' का रूप धारण नहीं कर लेता है तब तक प्रयोग में नहीं आता है। अभ्यास (क) प्रत्याहार लिखिए-अण्, अल्, अट्, इण, हल्, झ, भश्, झर, झल्, जश्, सर, चर्, शर्, शल्, एच्, एङ, हश्, यण, इक, अच, चय। (स) उच्चारण स्थान और प्रयत्न, लिखिए-,, य, अ, ऋ, घ, र, व , ष, ठ, थ, द, छ, भ, ह ज स प रन म / (ग) अन्तर स्पष्ट कीजिए-सवर्ण और असवर्ण में, शब्द और पद में, आभ्यन्तर प्रयत्न और बाह्य प्रयत्न में, सघोष और अघोष में, अल्पप्राण और महाप्राण में / 1. तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् / अ० 1.16. 2. ऋलवर्णयोमिथः सावण्यं वाच्यम् / वातिक, अ० 1.1.6. 3. 'सुप्' और 'तिई' प्रत्ययों का प्रयोग क्रमशः शब्दरूप और धातुरूप में बतलायेंगे। 4. सुप्तिङन्तं पदम् / अ०१.१.१४. 5. अपदं न प्रयुजीत / उ०, लघुशब्देन्दुशेखर, पृ० 172 S अ आ प्रयोगावस्था (परिनिष्ठित, ऋ ॠल त थ द ध न ए ओ ऐ ओ / सिद्धावस्था) प फ ब भ म (स्वर तथा / का ह्रस्व / (पांचों वर्ग) |(यण् ) | अयोगवाही (शल्) 'अ' सवर्ण और असवर्ण में अन्तर : सवर्ण (Homogeneous)-जिन वर्णों के उच्चारण-स्थान और आभ्यन्तरप्रयत्न दोनों एक समान होते हैं वे वर्ण परस्सर 'सवर्ण' ( सवर्ण'-संज्ञा वाले ) 1. प्रक्रियादशा (साधनावस्था) में 'अ' को 'वितृत' मानने का कारण है 'अक: सवणे दीर्ष.' से अ+आ में दीर्घसंज्ञा हो सके। यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो भिन्न-भिन्न आभ्यन्तर प्रयत्न होने से उनमें सवर्णसंज्ञा नहीं होगी। जैसे'दण्ड + आठकम्' में 'अ' का आभ्यन्तर प्रयत्न 'संवृत' है और 'आ' का 'विवृत' / ऐसी स्थिति में 'अकः सवर्णे दीर्घः' से दीर्घ (अ+आ-आ) नहीं हो सकेगा / अतः प्रक्रिया दशा में 'अ' को 'विवृत' माना गया है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय सन्धि (Euphonic Combination of Letters) अर्थ-व्याकरण के नियमानुसार वर्गों के मेल को सन्धि' (संहिता) कहते हैं। इसमें दो स्वरों या दो व्यजनों या स्वर तथा व्यञ्जनों का अत्यन्त सामीप्य होने पर निम्न तीन बातों में से कोई एक अवश्य होती है (क) विकार ( Modification )-दोनों वर्गों के स्थान पर या किसी एक वर्ण के स्थान पर एक तीसरा ही वर्ण हो जाना विकार है / जैसे- रमा+ईशः - रमेशः ( लक्ष्मीपति, विष्णु); सुधी+उपास्यः = सुध्युपास्यः (विद्वानों के द्वारा उपास्य) (ख) लोप ( Elision)-किसी एक वर्ष का वहाँ से हट जाना लोप है। जैसे-नराः + हसन्ति - नरा हसन्ति / (ग) आगम (Augment)-दोनों वर्गों के मध्य में एक नया वर्ण आ जाना। जैसे- वृक्ष + छाया- वृक्षच्छाया, तस्मिन् +अद्रौ-तस्मिन्नद्रौ। पूर्ववर्ती वर्गों को न हटाने से आगम मित्रवत् होता है और लोप पूर्ववर्ती वर्ण को हटाने से शत्रुवत् होता है। संयोग और सन्धि (संहिता) में अन्तर-केवल ( स्वरहीन अव्यवहित.) व्यञ्जन वर्गों का मेल संयोग (conjunction) है / संयोग में वर्ण-विकृति नहीं होती है / जैसे-न+द्र-न्द्र। स्वर और व्धजन दोनों प्रकार के वर्गों का मेल (अत्यन्त सामीप्य) अथवा दो स्वरों या दो व्यजनों का मेल सन्धि (cambination) है।' सन्धि होने पर विकृति या लोप या आगम अवश्य होता है। 1. संहितैकपदे नित्या नित्या धातूपसर्गयोः / नित्या समासे वाक्ये तु सा विवक्षामपेक्षते / / उ०, सि. कौ० (अ० 8.4.18) / अर्थ-एकपद में (पौ+ अक:- पावकः ), धातु-उपसर्ग में (नि+अवसत् - न्यबसत् ) तथा समास में (नीलम् + उत्पलम् -नीलोत्पलम् ) सन्धि नित्य होती है / परन्तु वाक्य में (श्यामः + गच्छति-श्यामो गच्छति, श्यामः गच्छति) सन्धि वनता की इच्छा पर (वैकल्पिक ) है। यद्यपि इस श्लोक में वाक्य में सन्धि करना वैकल्पिक बतलाया गया है परन्तु विद्वान् लोग वाक्य में भी सन्धि आवश्यक मानते हैं / सन्धि न करने पर 'विसन्धि' नामक दोष मानते हैं। न संहितां विवक्षामीत्यसन्धानं पदेषु यत् / तद्विसन्धीति निर्दिष्टं न प्रगृह्यादि हेतुकम् / / काव्यादर्श 3.156. 2. हलोजन्तराः संयोगः / अ० 1.1.7.. 3. परः सन्निकर्षः संहिता / अ० 1.4.106. स्वरसन्धि ] 1: व्याकरण सन्धि के प्रमुख तीन भेद-(१)स्वर-सन्धि( स्वर + स्वर)-दो स्वरों की सन्धि को स्वर-सन्धि (अच्-सन्धि) कहते है। जैसे-मा+ईशः= रमेशः दधि+आनय = दध्यानय / (2) व्यञ्जन-सन्धि ( व्यञ्जन व्यञ्जन अथवा व्यञ्जन + स्वर)-व्यञ्जन की व्यञ्जन वर्ण के साथ अथवा व्यञ्जन की स्वर वर्ण के साथ होने वाली सन्धि को व्यञ्जन-सन्धि ( हल्-सन्धि ) कहते हैं। जैसेहरिस् + शेते - हरिश्शेते; चित् + आनन्दः- चिदानन्दः / / 3) विसर्ग-सन्धि (विसर्ग+यजन अथवा विसर्ग+स्वर)-विसर्ग के साथ व्यजन अथवा स्वर वर्णों की सन्धि को विसर्ग-सन्धि कहते हैं। जैसे-हरि+चरति हरिश्चरति, सः+ अपि: सोऽपि / (क) स्वर (अच् सन्धि ( Euphonic Changes in Vowels) 1. दीर्घ-मन्धि ( समान दो मूल स्वरों की सन्धि): ___ अकः सवर्ण दीर्घः ( अक् + संवर्ण अक् - दीर्घ )-अक् ( अ इ उ ऋ ब). परे समान ( सवर्ण) वर्ण ( अ इ उ ऋल) के होने पर [ दोनों के स्थान में ] दीर्घ एकादेश होता है। अर्थात् दो समान स्वरों के मिलने पर उसी वर्ण का एक दीर्ष स्वर होता है। जैसे-क) अ, आ+ अ, आ-आ>दैत्य + अरिः - दैत्यारिः (दैत्य का शत्रु, विष्णु ), न+अस्ति-नास्ति, तथा + अपि तथापि / (ख) इ. ई+इ, ई-ई> श्री+ ईशः श्रीशः (विष्णु, लक्ष्मीपति), मुनि+इन्द्रः मुनीन्द्रः (श्रेष्ठ मुनि), कवि+इन्द्रः कवीन्द्रः, देवी + इव - देवीव / (ग) उ, ऊ+उ, ऊ3>विष्णु+उदयः-विष्णूदयः, वधू+उत्सवः वधूत्सवः। (घ) ऋ, ऋ+, ऋ ऋ>पितृ+ऋणम् -पितृणम्, होतृ + ऋद्धिः होतृद्धिः ( हवन करने वाले होता की ऋद्धि)। (ङ) 'ऋलवर्णयोमिथः सावयं वाच्यम् (वा०)-ऋ और ल में परस्पर सवर्ण संज्ञा होने से 'होतृ + लकारः = होतकारः' रूप बनेगा। अन्य उदाहरण-विद्या + आलयः - विद्यालयः / सती+ईशः = सतीश: (शिव)। भानु + उदयः = भानूदयः / इति + इव -- इतीव / 1. दीर्घ-सन्धि के अपवाद (पररूप एवं प्रकृतिभाव) (क) शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम् (वा०)-शकन्धु ( शक देश या शक जाति के लोगों का कुआँ ) आदि में पररूप (पूर्व और पर-वर्ष के स्थान पर पररूप) एकादेश होता है। जैसे-तर्क+अन्धुः कन्धुः , प्राक+ अन्धु:शर्कन्धुः (शक देश के राजाओं का कुआँ), कुल अटा-कुलटा (अभिचारिणी स्त्री), मृत>मार्त + अण्टः - मार्तण्डः (मूर्य), सम + अर्थः समर्थः, सार / अङ्गः- सारङ्गः (मृग या मोर / अन्यत्र - पशुभिन्न अर्थ में --'साराङ्गः' - पुष्ट मङ्गों वाला)। (ख) ईदुदेद्विवचनं प्रगाग ( देखिए, पृ.२२)-हरी+ ईशी हरी ईशौ, विष्णू + उमेशी - विष्णू -उमेशौ / Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर-सन्धि ] १.व्याकरण संस्कृत-प्रवेशिका [2: सन्धि 2. गुण-सन्धि ('अ' के साथ असमान मूल स्वरों की सन्धि ) : (क) अदेङ् गुणः-अत् (ह्रस्व 'अ' ) और एड (एओ) की गुणसंज्ञा होती है। गुणसंज्ञा होने पर अगले सूत्र से गुण एकादेश होता है। (ख) आद्गुणः ( अ, आ + इक्-गुण)-प्रात् ( अवर्ण - अ आ) से [ इक् परे ].गुण हो, अर्थात् अ, आ के बाद यदि कोई असवर्ण मूल स्वर ( इक् ) आता है तो दोनों के स्थान पर गुण एकादेश हो जाता है। जैसे-(क) ब, आ+ इ, ईए>उप- इन्द्रः- उपेन्द्रः, रमा+ईशः- रमेशः, देव+ईशः- देवेशः / (ख) ब, मा+उ, ऊ-ओ>गङ्गा+ उदकम् - गङ्गोदकम्, पर+ उपकारः-परोपकारः। - (ग) अ, आ+, अर्*>ब्रह्म + ऋषिः - ब्रह्मर्षिः, महा + ऋषिः- महर्षिः / 1. गुण सन्धि के अपवाद ( वृद्धि-सन्धि )-- (क) अक्षाहिन्यामुपसंख्यानम् (वा.)-'अक्ष' शब्द से 'कहिनी' शब्द परे होने पर पूर्व-पर के स्थान में वृद्धि एकादेश होगा। जैसे--अक्ष + अहिनीअक्षौहिणी ( चतुरङ्गिणी सेना)। (ख) प्रादहोढोढयेषेष्येषु ( वा० -- प्र उपसर्ग से परे ऊह कर दि एष और एष्य हों तो वृद्धि एकादेश / जैसे-. प्र+ऊहः अदः ऊतिः एषः एष्यः-प्रौहः ( उत्कृष्ट तर्क), प्रौढः (बड़ा), प्रौदिः (प्रौढ़ता), प्रेषः (प्रेरणा), प्रेष्यः (सेवक) / प्रेषः और प्रेष्यः में पररूप का बाध है। (ग) ऋते च तृतीयासमासे (वा.)-अवर्ण से ऋन् शब्द के परे तृतीया सगास में वृद्धि एकादेश होगा / जैसे-ख+ ऋतःसुखात: (सुखेन ऋतः - सुख से प्रात)। तृतीया समास न होने पर गुण ही होगा। जैसे-परम+ऋतः-परमतः (परमश्चासौ ऋतः - मुक्त)। (घ) प्रवत्मतरकम्बलवसनार्णवशानामणे (वा.)-प्रमादि से परे ऋण शब्द के होने पर वृद्धि एकादेश / जैसे-4+ऋणम् -प्रार्णम् ( अधिक कर्जा ), वत्सतराणम् (छोटे बछड़े के लिए लिया-हुआ कर्जा), कम्बलार्णम्, ऋणार्णम्, दशार्णम् (देश-विशेष)। (3) स्वादीरेरिणोः (वा.)स्व+ईर, ईरिन्, ईरिणी - स्वरः, स्वैरिन्, स्वैरिणी (व्यभिचारिणी)। (च) उपसर्गादृति बाती (६.१.६१)-अवर्णान्त उपसर्ग से परे ऋकारादि धातु हो तो वृद्धि। जैसे-+ ऋच्छति -प्रार्छति (जाता है), उपान्छति ( समीप में पहुँचता है)। 2. उरण रपरः(१.१.५१)- >अर्, ल>अल् )-शल के स्थान में जो 'अण्' (अ ) होता है बह रपर और लपर ('रल' है पर-बाद में जिसके अर्थात् बर् इर् उर अल् इत् उल् ) होकर ही प्रवृत्त होता है। यहाँ रसर में प्रयुक्त 'र' से 'र' प्रत्याहार (र, ल)लेना है (र और ल में अभेद (घ) अ, आ+ब- अल् >तव सकार:-तवल्कारः (तेरा लकार) ई. वृद्धि-सन्धि ( अ, आ के साथ संयुक्त स्वरों की सन्धि ) : (क) वृशिरादैच-बाकार' और ऐच (ऐ औ) की पद्धिसंशा होती है. पश्चात् 'वृधिरेचि' से एच ( ए ओ ऐ पो) को वृद्धि एकादेश (ऐबी) होता है। (ख) वृद्धिरेचि ( अ, आ+एच् = वृद्धि)-[ अवर्ण से ] एच् पर होने पर वृद्धि होती है, अर्थात् अ, आ के बाद यदि कोई संयुक्त स्वर ( एच् ) आता है तो दोनों के स्थान पर वृद्धि (ऐ, ओ) होती है। जैसे-(क) अ, आ+ए, ऐ> हित+एषिन् - हितैषिन्, देव+ऐश्वर्यम् = देवश्वयम्, पश्च+एते = पश्चैते, मा. एवम् -मैवम् / (स) अ, आ ओ, औ-औ> गङ्गा+ओपः-गङ्गोधः, देव+ औषधम् - देवौषधम्, दर्शन+औत्सुक्यम् = दशनोत्सुक्यम् / 4. यण-सन्धि ( 'इक्' के साथ असमानं स्वरों की सन्धि ): इको यणचि (इ + असमानस्वर-यण)-'अच्' परे रहने पर 'इक' को 'यण' होता है, अर्थात् ह्रस्व अथवा दीयं इ, उ, ऋ, न (इक् ) अपने सदृश अन्तःस्थ वर्णी (यण् - य, व, र, ल् ) में बदल जाते हैं, यदि बाद में कोई असमान स्वर (अ) हो। जैसे-(क) ई+असमानस्वर-4>यदि + अपियद्यपि, नदी+अपि नद्यपि, सुधी+ उपास्यः-सुव्युपास्यः / (ख), + असमान स्वर ->सु+आगतम् -स्वागतम्, अनु+एषणम् - अन्वेषणम्, मधु+ अरिः- मध्वरिः / (ग) ऋ, ऋ+ असमान स्वर->मातृ + इच्छामात्रिच्छा, धातृ+अंशः-धावंश: (ब्रह्मा का अंश), पितृ + औदार्यम्-पित्रीदार्यम्, पितृ + अनुमति:-पित्रनुमतिः, मातृ + आशा-मात्राज्ञा / (घ) + असमान स्वर-ल>ख आकृतिः - लाकृतिः (ब के समान आकृति वाले कृष्ण)। अन्य उदाहरण-दधि + आनय - दध्यानय, प्रति + एकम् - प्रत्येकम्। / भी माना जाता है)। जैसे-(क) अर > कृष्ण + ऋद्धि:-कृष्णदिः, ग्रीष्म+ऋतुः - ग्रीष्मर्तुः। (स) अल् > मम + कारः- ममल्कार, तवल्कारः। (ग) इ>++ति-किरति (देखें-'भूत धातोः' 7.1.100) / (घ) उ>पि + तस् = पिपूर्तः ( देखें-'उदोष्ठयपूर्वस्य' 7.1.102) / 5. मिशेष के लिए देखिए, गुणसन्धि और पररूपसन्धि / .. समपि च' (8.4.47) अच से परे.'यर' को विकल्प से द्वित्व होता है, परन्तु 'यर' के आगे बच्' होने पर नहीं होगा। इस पूत्र से द्वित्वं होने पर भन्य रूप भी बनेंगे-सुखपुपास्यः, मदरूवरिः, धात्वधः। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] , संस्कृत-प्रवेशिका / 2: सन्धि स्वर-सन्धि 1 : व्याकरण [21 5. अयादि-सन्धि ( एप के साथ समान असमान स्वरों की सन्धि) : एचोऽयवायावः ( एच + स्वर- अयादि आदेश)-'एच' ( ए ऐ ओ औ) को क्रमशः अय् आय् अव् आ आदेश होते हैं [ यदि बाद में कोई भी स्वर हो] जैसे-(क)ए+स्वर - अय् > हरे+ए-हरये, शे + अनम् - शयनम्. ने+ अनम् = नयनम् / (ख) ऐ+स्वर-आय> + अक:- नायकः, कस्मै+ ऐश्वर्यम् = कस्मायश्वर्यम् / (ग) ओ+ स्वर-अ> विष्णो + इति = विष्ण१. विशेषः-(क) वान्तोपि प्रत्यये ( 6.1.76 )-ओ औ के बाद यकारादि प्रत्यय हो तो भी अवादि आदेश होंगे। जैसे-गो + यम् - गव्यम् (गो का विकार दूध, दही, घी आदि), नौ + यम् -नाव्यम् (नौका से नरने योग्य जले)। ख) अध्वपरिमाणे च (वा.)-मार्ग के परिमाण अर्थ में गी शब्द के आगे 'यूतिः' शब्द होने पर भी अवादेश होगा। जैसे-गो+यूतिःगन्यूतिः (दो कोस)। (ग) क्षय्य-जय्यी शक्यार्थे (६.१.८१)शक्या होने पर 'क्षे जे के' के 'ए' को अयादेश होता है यदि बाद में यकारादि प्रत्यय हो / जैसे-क्षे+यम् = क्षय्यम् / जय्यम्, क्रय्यम् / / अन्यत्र-क्षेयम्, जेयम्, केयम् / लोपः शाकल्पस्य ( ८३.१६)-अयादि आदेश होने पर 'यू' और 'बु' का विकल्प से लोप होता है, यदि पदान्त 'य' और 'ब' के पहले 'अ आ' हो और बाद में 'अश्' वर्ण / जैसे-हरे+इह-हरयिह, हर इह / विष्णो + इह-. विष्णविह, विष्ण इह / ते+आगताः = तयागताः, त आगता। 'लोपः शाकल्यस्य' से 'यव' का लोप होने के बाद यद्यपि 'हर इह में गुण-सन्धि प्राप्त थी परन्तु पाणिनि-व्याकरण का एक सूत्र है 'पूर्वाऽसिद्धम् (8.2.1) जिसका तात्पर्य है कि इस सूत्र के बाद के सूत्रों द्वारा किए गये कार्य इससे पूर्ववर्ती सूत्रों के प्रति असिद्ध (न किए गये की तरह) है। तात्पर्यार्थ यह है कि अष्टाध्यायी में 8 अध्याय हैं, प्रत्येक अध्याय में 4-4 पाद हैं और प्रत्येक पाद में कई-कई सूत्र हैं। 'पूर्वत्राऽसिद्धम्' आठवें अध्याय के दूसरे पाद का पहला सूत्र है। अर्थात् इससे पहले अष्टाध्यायी के सवा सात 'अध्याय हैं और बाद में त्रिपादी मात्र (आठवें अध्याय के तीन पाद मात्र), 'लोपः शाकल्यस्य' (8.3.16.) यह सूत्र विपादी ( 'पूर्वत्राऽसिद्धम्' के बाद) का है। अतः इससे 'यु व्' का लोप होने पर भी 'आद्गुणः' (6187) सूत्र ( जो कि त्रिपादी से पूर्ववर्ती है ) से गुण-सन्धि नहीं होगी क्योंकि 'य व' का लोप होने पर भी उसे असिद्ध ( अव्यवहित) माना जायेगा और तब 'य व्' के लोप होने से गुण-सन्धि ( हरे+इह -- हरेह ) नहीं होगी। नोट-यह नियम सर्वत्र लागू होता है। विति, विष्ण इति; विष्णो+ए-विष्णवे, भू> भो + अति - भवति / (घ) औ + स्वर - आव पौ+अकः = पावकः, दौ+ उपमिती द्वायुपमिती, देवी+ थागती - देवावागतो, देवा मागतो। 6. पूर्वरूप-सन्धि ( पदान्त 'ए ओ' के साथ 'अ' की सन्धि ) - एड: पदान्तादति ( एक+अ-पूर्वरूप)-अत् (अ) परे होने पर पदान्त "एह' से पूर्वरूप होता है अर्थात् पदान्त 'ए ओ' (एक) के बाद यदि हो तो परवर्ण (अ) पूर्ववर्ण (एनओ) में प्रविष्ट होकर तद्रूप (ए ओ रूप) हो जाता है। इस तरह 'अ' वहाँ नहीं रह जाता / पूर्वरूप को सूचित करने के लिए अवग्रहचिह्न ('' के स्थान पर '5') लगा दिया जाता है। जैसे-(क) ए+ अ-ए> हरे+अव- हरेऽवः संसारे+यस्मिन् , संसारेऽस्मिन्, के+अपिकेऽपि / (ख) ओ+ अओऽ> विष्णो + अव - विष्णोऽव; बालः>बालो+ अत्र - बालोऽत्र, पण्डितो + अवदत् = पण्डितोऽवदत् / नोट--यह सूत्र अयादि-सन्धि का प्रतिषेधक है। 7. पररूप-सन्धि (अकारान्त उपसर्ग+एकारादि या ओकारादि धातु की सन्धि) : एडि पररूपम् (अकारान्त उपसर्ग + एकादि धातु-पररूप)-[अकारान्त उपसर्ग के बाद यदि ] 'ए' अथवा 'ओ' (एक) से प्रारम्भ होने वाली धातु हो तो पररूप'अ' परवर्ण रूप) हो जाता है। जैसे-(क) अ+ए ए>प्र+एजतेप्रेजते ( अधिक काँपता है ), अव+ एजते - अवेजते (काँपता है), प्र+एषयतिप्रेषयति ( भेजता है)। (ख) अ+ओ = ओ>उप+ओषति - उपोषति ( जलाता 1. परन्तु गो + अग्रम् - गोऽप्रम्, गो अग्रम्, गवानम् ये तीन रूप बनेंगे। देखें 'सर्वत्र विभाषा गोः' (6. 1. 122) तथा अवङ् स्फोटायनस्य (1.1.123) / 2. (क) एत्येधत्यूठसु (6. १.८६)-'अ' के बाद एकारादि धातु (इण, एध ) के रहने पर तथा ऊठ सम्बन्धी ऊकार के रहने पर दोनों की वृद्धि होती है। जैसे-उप + एति- उपैति, उप+ एधते- उपधते, अव+एषि-अवषि, प्रष्ठ + ऊहः - प्रष्ठौहः / (ख) एवे चानियोगे (वा.)-'अ' के बाद 'एव' ( अनिश्चय अर्थ वाचक होने पर ) हो तो पररूप होगा। जैसे--क्व+एवगोय। परन्तु निश्चय अर्थ रहने पर वृद्धि-अद्य + एव-अव / (ग) भोमाडोश्च (६.१.१५.)-'ओम्' और 'आङ्' हो तो पररूप-शिवाय + भोगमः शिवायों नमः / शिव + आ + इहि = शिवेहि / (घ ओत्वोष्ठयोः गमासे वा (वा.)-ओतु' और 'ओष्ठ हो तो-स्थल+ओतुः-स्थलोतु, भूलीतुः ( मोटा विडाल ) कण्ठ + ओष्ठम् -कण्ठोष्ठम्, कण्ठौतम / Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [ 2.: सन्धि 1.प्र+ओषति-प्रोषति (अधिक जलाता है), अव+ओषति-अवोषति। नोट-यह सूत्र वृद्धि-सन्धि का प्रतिषेधक है। 8. प्रकृतिमाव- सध्यभाव (प्लुत या प्रगृह्यसंशक के साथ स्वर होने पर)। प्लुतप्रगृह्मा अवि नित्यम् (प्लुतसंज्ञक, प्रगृयसंज्ञक+स्वर प्रकृतिभाव )प्लुतसंज्ञक और प्रगृह्यसंज्ञक वर्ण को प्रकृतिभाव ( यथापूर्व:- सन्ध्यभाव ) होता है। यदि बाद में कोई स्वर वर्ण हो / “लुत-संज्ञा और प्रमा-संज्ञा के विधायक निम्न दो प्रमुख सूत्र हैं (अ), दूराद्धते च (दूर संबोधनान्त स्वर+स्वर-प्लुतसंज्ञा)-दूर स्थित व्यक्ति को जोर से बुलाने पर सम्बोधित पद के अन्तिम स्वर की प्लुत-संशा होती है। जैसे-आगच्छ दृष्ण ३+अत्र गौश्वरति - आगच्छ कृष्ण३ अत्र गोश्चरति (दीर्घ-सन्धि नहीं हुई)। आगच्छ राम३ इह लक्ष्मणः (गुण-सन्धि नहीं हुई। नोट-(१) दीर्घ-सन्धि आदि के प्राप्त होने पर भी प्लुत-संज्ञा होने से कोई सन्धि नहीं हुई। (2) प्लुतसंज्ञक स्वर के बाद तीन का अछु दिया रहता है। (ब) ईदेद्विवचनं प्रगृह्यम् (द्विवचनान्त ई, ऊ, ए+स्वर - प्रगृह्यसंज्ञा)-- ईकारान्त, ऊकारान्त और एकारान्त पद की प्रगृह्य-संशा होती है, यदि वह पद विवचन का हो और उसके बाद कोई स्वर हो।' जैसे-(क) हरी+एतो = हरी एती ( यण-सन्धि नहीं हुई)। (ख) विष्णू + इमी-विष्णू इमौ (ये दो विष्णु / व्यजन-सन्धि ] 1: व्याकरण [ 23 को कभशः 'स्' और 'पवर्ग' होता है। जैसे-रामस् + शेते - रामशेते, सत् + चरित्रम् -सच्चरित्रम्, .याच् + ना याच्या ( मांगना), रामस् +चिनोतिरामपियनोति ( राम धुनता है), सूर्यस् + नः - सूर्यस्यानः, विपद+जालम् - विपज्जालम्, य+नः- यशः। २.टुत्व-सन्धि ('स्' और 'तवर्ग' के साथ 'ए' और 'टवर्ग की सन्धि: ष्टुना ष्टः (स्, तवर्ग+ए, टवर्ग - ष्टुत्व) 'स्' या 'तवर्ग' के बाद में अथवा पहले '' या 'टवर्ग' का कोई भी वर्ण हो तो 'स्' और 'तवर्ग' क्रमशः 'ए' और 'टव' में बदल जाते हैं। जैसे-रामस् + षष्ठः-रामष्षष्ठः (राम छठा है), पेष+ता - पेष्टा (पीसने वाला), अधिक्याता - अधिष्ठाता (स्वामी ), तत् + टीका-सट्ठीका, प्र + ता-प्रष्टा।। 3. जश्त्व-सन्धि ('अघोष' और 'घोष' वर्गों की सन्धि ): झलां जशोऽन्ते (अघोष+घोष - घोष / पदान्त भालु+कोई भी वर्ण / जगत्व)-पदान्त कन्वा (वर्ग के प्रथम वर्ण ) को क्रमश: गजर (वर्ग का तृतीय वर्ण) होता है। जैसे-वाक् + ईशः - वागीशः (वहस्पति), 1. शात् (8.4.44)-'' के बाद 'तवर्ग" हो तो 'इचुत्व' नहीं होगा। जैसे-विश् + नः-विश्नः (गति, भाषण), प्रश् + नः-प्रश्नः / / 2. दृत्व निषेध (क) तो: षि (8. 4. ४३)-'तवर्ग' के बाद '' हो तो। जैसे- + षष्ठः सनषष्ठः ( सज्जन छठा है), मयूरात् षण्मुखः। (ख) न पदान्ताडोरनाम् (8. 4. 42); अनाम्नवतिनगरीणामिति वाच्यम् (वा०)-पदान्त 'टवर्ग' के बाद (नाम, नवति, नगरी शब्दों को छोड़कर) 'स्' या 'तवर्ग" हो तो। जैसे-षट् + सन्तः : षट्सन्तः (छः सज्जन ), षट्ते ( वे छः) अपवाद--षट् + नाम् - षण्णाम् (छः को), षण्णवतिः (66), षण्णगर्यः / 3. (क) यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा (8, 4. 45 )-पदान्त यर+अम् विकल्प से अनुनासिकत्व / पदान्त 'यर' ('ह' छोड़कर शेष व्यञ्जन ) को विकरुप से (.उसी वर्ग का) अनुनासिकत्व होता है, यदि भाद में कोई अनुनासिक वर्ण हो। जैसे-मद+नीतिः-मन्त्रीतिः, मदनीतिः; धिग्+ मूर्खम्-धिमूर्खम्, घिग्मूखम्, जगन्नाथः, जगनाथः एतन्मुरारिः, एतद्मुरारिसन्मार्गः, सद्मार्गः / (ख) प्रत्यये भाषायां नित्यम् (वा.) यदि पदान्त 'यर' के बाद कोई अनुनासिक प्रत्यय मात्र हो तो नित्य अनुनासिकत्व होता है / जैसे-चित् + मयम् - चिन्मयम्; तद्+मात्रम् - तन्मात्रम्; वाक् + मयम् - वाङ्मयम् (शास्त्र), अप् + मयम् - अम्मयम्, भृड+मयम् - मृण्मयम् (मिट्टी का)। यहाँ पूर्वरूप-सन्धि नहीं हुई। अन्य उदाहरण-कवी+ आगच्छतः - कवी आगच्छतः, बालिके अधीयाते ( दो खड़कियाँ पढ़ती है), पाणी आमृशति ( दोनों हाथ पोंछता है)। (ख) व्य जन-सन्धि ( Euphonic Changes in Consonants) 1 श्चुत्व-सन्धि ( 'र' और 'तवर्ग' के साथ 'श्' और 'चवर्ग' की सन्धि ) : स्तोः श्चुना श्चुः (स, तवर्ग + श्, चवर्ग = श्चुत्व )-'स्' या 'तवर्ग' के बाद में अथवा पहले 'श्' या 'चवर्ग' का कोई भी वर्ण हो तो 'स' और 'तवर्ग' 1. निम्न स्थानों पर भी प्रगृह्य-संज्ञा होती है (क) अदसो मात् (१.१.१२)-जब 'अदस्' शब्द का रूप 'मी' या 'मू। में अन्त हो-अमी+ ईशाः-अमी ईशाः; अमू + आस्ताम् - अमू आस्ताम् / (ख) ओत् (१.१.१५)-अहो, अथो, मिथो, उताहो के होने पर-अहो ईशाः, अयो अपि; मिथो आगच्छतः / (ग) निपात एकाजनाइ(१.१.१४)'आह' को छोड़कर एक रबर वाले निपात के होने पर इन्द्रः. उ उमेशः / Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] संस्कृत-प्रवेशिका [2 : सन्धि व्यजन-सन्धि ] 1: व्याकरण [25 अप + घटः = अब्घटः, वाक् + दानम् - वाग्दानम्, जगत् + ईशः - जगदीयाः, षट् + एव-पडेव, चित् + आनन्दः-चिदानन्दः, अच्-+- अन्तः-अजन्तः, सुप् + अन्तःसुबन्तः, दिक्+हस्ती = दिग्हस्ती,दिक् + गजः - दिग्गजः। बोट-१. शेष 'झल्'. वर्गों के उदाहरणों का प्रायः अभाव होने से यहाँ केवल क्च व प् को गिनाया गया है। 2. झलां जशशि (8.4 ५३)-अपदान्त झल् + झा -जश्त्व अपदान्त ( पदमध्य ) घ दध् म् ( वर्ग के चतुर्थ वर्ण) को क्रमशः न् ज् इदम् ( वर्ग का तृतीय वर्ण) होता है, यदि बाद में 'मश्' ( वर्ग के 3, 4) वर्ण हो। जैसे-दुष् + धम् - दुग्धम्; लभ् +धः लब्धः; सिध् +धिः- सिद्धिः / 1. चत्वं-सन्धि (घोष और अघोष वर्गों की सन्धि ): सरि च ( भोष + अघोष - अघोष / झन् + खर् - चत्वं)- ज्द ( वर्ग के तृतीय वर्ण) को क्रममः कन्ट् त प (बर्ग का प्रथम वर्ण ) हाता है, यदि बाद में कोई 'खर' (अघोष ) वर्ण हो।' जैसे-तद् +परः- तारः, षड्+टीका-पट्टीका, विपद+कालः - विपत्कालः, दिग+पालः-दिक्पालः, उद्+स्थानम् उत्थानम् / ' 5 छव-सन्धि ( पदान्त भय् + + अट् के साथ होने वाली सन्धि ) : शश्छोऽटि ( पदान्त झय् + श्+अट् - छत्व )-'' को विकल्प से 'छ' होता है, यदि 'म्' के पूर्व 'मय' (वर्ग के 1-4 वर्ण ) हो और बाद में 'अट्' (स्वर, ह. य ब )' जैसे-जनत् + शान्तिः - जगच्छान्तिः, जगच्यान्तिः, 1. वावसाने (8.4. 56.) यदि बाद में कोई वर्ण न हो तो विकल्प से प्रथम या तृतीय वर्ण होता है / जैसे-रामात्, रामाद, वाक्, बाम् / / 2. उत्पानम् ( उत्थ्यानम् ) और उत्थापकः ( उत्थ्यापकः)-यहाँ 'उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य' (8, 4, 61) सूत्र से 'स्' को पूर्वसवर्ण होने पर 'उद्+ + थानम्' रूप बना। पश्चात् 'झरो झरि सवणे' (8, 4. 65) सूत्र से '' का - बैकल्पिक लोप और 'सरि च' से 'द' को 'द' होने पर 'उत्थानम्' रूप बना। 1. (क) छत्वममीति वाच्यम् (वा.)-पदान्त भय् + + अम् - छत्व / / जैसे-तद्+श्लोकेन- तच्छलोकेन, तच्श्लोकेन / (ख) झयो होऽन्यतरस्याम् (८.४.६२)-'ह' (नाद, घोष, संवार और महाप्राण-प्रयत्न वाला)को विकल्प से पूर्वसवर्ण ( उसी प्रकार के प्रयत्न वाले वर्ग का चतुर्थ वर्ण) होता है, यदि पहले 'झय्' वर्ण हो (झय् + ह - पूर्वसवर्ण ) / जैसे-वाक् + हरिः = वाग्धरिः, वारहरिः, अच् + हलो-अज्झलौ, अज्हली। तद +शिवः- तच्छिवः, तशिवः / / वाक् +शूरः- वाक्यरः, वाक्शूरः / तत् + 'श्रुत्वा-तच्छ त्वा, सम्धुत्वा, / षट् + शेरते •षछेरते, षट्शेरते। 6. अनुस्वार-सन्धि ( पदान्त 'म्' की व्यञ्जन वर्ण के साथ सन्धि ): मोऽनुस्वारः (पदान्त 'म' + व्यञ्जन = अनुस्वार )-पदान्त 'म' को अनुस्वार (-) होता है, यदि बाद में कोई व्यञ्जन वर्ण हो / जैसे-हरिम् + बन्दे-हरि वन्दे। सत्यम्+वद- सत्यं बद। पुस्तकम् + पठति - पुस्तकं पठति / गृहम् + गच्छति - गृहं गच्छति / धर्मम् + चर-धर्म चर। 7. परसवर्ण-सन्धि ( अनुस्वार की 'यम्' वर्ण के साथ सन्धि): (क) अनुस्वारस्य यथि परसवर्णः (अपदान्त अनुस्वार+यम् -परसवर्ण)अनुस्वार को परसवर्ण (आगे आने वाले वर्ण के वर्ग का पञ्चम अक्षर) होता. है, यदि बाद में 'य' (वर्ग के 1-5, य र ल व) हो। जैसे-शां+तःशान्तः, अं+क: -अङ्कः, अं+कित:-अङ्कितः (चिह्नित), के+ठ: कण्ठः, के +पनम् - कम्पनम्, घं+टा-घण्टा, पंचम्मच, कां+त:- कान्तः (सुन्दर)। (ब) वा पदान्तस्य (पदान्त अनुस्वार+यय-विकल्प से परसवर्ण)-पदान्त अनुस्वार को विकल्प से परसवर्ण होता है, यदि बाद में 'पम्' वर्ण हो। जैसे१. 'तद् + शिवः' यहाँ 'स्तोः श्चुना श्चुः' से 'द' को 'ज्', 'खरि च' से 'ज्' को 'च' होगा / पश्चात् 'शरछोऽटि' से 'श्' को 'छ्' होगा। 2. (क) नश्चाऽपदान्तस्य झलि (8. 3. २५)-अपदान्त 'न्' और 'म्' को अनुस्वार होता है, यदि बाद में कोई 'झल' वर्ण ( वर्ग के 1-4, ऊष्म) हो। जैसे~यशान् + सि-यशांसि / (ख) नश्छव्यप्रशान् (8. ३.७)(पदान्त म् + छन् + अम् - अनुनासिकत्व तथा शर)-पदान्त 'न' को अनुनासिकत्व तथा 'शर्' (श् स् ) होता है (प्रशान् शब्द को छोड़कर), यदि बाद में 'छन्' (च् छट् त् थ् ) और उसके बाद 'अम्' हो। जैसे चक्रिन्+जायस्व - चक्रि स्त्रायस्व, चस्त्रिायस्व, कस्मिंघिचत्, करिमश्चित . बुद्धिमाश्चात्रः, बुद्धिमाश्चात्रः, देवान् +तरति-देवास्तरति, देवांस्तरति / परन्तु प्रशान् +तनोति प्रशान्तनोति / अपदान्त-हन + ति-हन्ति / तोलि (8. 4. ६.)-तवर्ग के बाद 'ल' हो तो परसवर्ण ( उच्चारण-स्थान के सास्य से 'तवर्ग' को 'ल') होता है। यदि 'तवर्गीय' अनुनासिक वर्ण (न) होगा तो उसके स्थान पर होने वाला 'ल' भी अनुनासिक (ले) ही होगा (तवर्ग+ल-परसवर्ण = ल्ल.) जैसे-तद् + लयः -- तल्लयः; उत् + लेखः- उल्लेखः, विद्वान् + लिखति -विद्वाल्लिखति; कुशान+लाति -कुशाल्लात्ति। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 ] संस्कृत-प्रवेशिका [2: सन्धि त्वं+करोषि त्वङ्करोषि, स्वं करोषि / नदीं + तरति-नदीन्तरति, नदीं तरति / फलं +चिनोति = फलचिनोति, फलं चिनोति / जलं + पिबति जलम्पिबति, जन पिबति / मधुरं + गायति- मधुरङ्गायति, मधुरं गायति / / 8. मुडागम-सन्धि (पदान्त ङ, ण, न् की स्वर के साथ सन्धि): ' मी ह्रस्वादचि ङमुण नित्यम् (ह्रस्व स्वर+म् + अच्-मुडागम )पदान्त 'इम' (इन् ) के पहले यदि ह्रस्व स्वर हो और बाद में कोई भी स्वर हो तो न्युड़ागम (क्रमशः इग्न ) होता है। जैसे-जानन् + अपिजाननपि, प्रत्यक आत्मा-प्रत्यङहात्मा, सुगण + ईशः - सुगण्णीशः, राजन् + आगल्छ - राजनागच्छ, तस्मिन् +अद्रौ तस्मिन्नद्रौ, धावन् + आगच्छतिधावनागच्छति / 9. तुगागम-सन्धि (ह्रस्व स्वर की 'छ' के साथ सन्धि): छे च ( ह्रस्व स्वर +छ- तुगागम)-ह्रस्व स्वर के बाद यदि 'छ' हो तो ''(तुक) का आगम होता है। जैसे -शिव+छाया - शिवच्छाया, संस्कृत+ धाषा:- संस्कृतच्यात्राः वृक्ष+छाया-वृक्षच्छाया, हरि+छाया-हरिच्छाया। (ग) विसर्ग सन्धि ( Euphonic changes in Visarga) १...रुत्व-विधान ( पदान्त 'स्' और सजुष के 'ए' को रुत्व-विधान ) ससजुषो कः (पदान्त 'स्', सजुष का ''> 1)-पदान्त 'स्' और सजुष के 'ए' को 'र' (') होता है। जैसे-रवि+स् (सु)+एव-रविरेव, भानु+स (सु)+ उदयः-भानुरुदयः, हरि+स् (सु)+गच्छति -हरिगच्छति। राम+स (सु) रामर ( रामः)। सजुष् + मेद्यति सजूपेंद्यति, सजुष् - १>सजुर् - सजुः कवि + स्(सु) +अयम् -कविरयम् / मोट-(१) (पदान्त स् + पूर्णविराम %)-पदान्त 'स्' को 'ह' होने के बाद अगले सूत्र 'खरवसा०' से '' को विसर्ग हो जाता है, यदि बाद में पूर्ण..विराम हो। (2) यदि पदान्त 'स्' के पूर्व 'अ' 'आ' को छोड़कर कोई अन्य स्वर हो और बाद में 'अ' वर्ण हो तो 'र' बना रहता है, अन्यत्र' अन्य-अन्य नियमों से अन्य-अन्य कार्य होंगे। 2 विसर्ग-विधान ( पदान्त 'रु' को विसर्ग-विधान ): खरवसानयोविसर्जनीयः ( पदान्त + खर्, पूर्णविराम-)-पदान्त '" 1. यदि 'छम्' के पहले दीर्घ स्वर होगा तो ङमुडागम ( 'डम्' को द्वित्व ) नहीं होगा। जैसे-देवान् + अत्र-देवानत्र / पदान्ताद्वा (६.१.५६)-पदान्त में यदि दीर्घ स्वर हो तो विकल्प से तुगागम होगा / जैसे-लक्ष्मी + छाया- लक्ष्मीच्छाया, लक्ष्मी छाया / विसर्ग-सन्धि ] 1: व्याकरण [27 (रु)को विसर्ग (:) होता है, यदि बाद में 'खर' (वर्ग के 1,2 श ष स ), अथवा पूर्ण-विराम हो। जैसे-पुनर् + पृच्छति-पुनः पृच्छति / राम + कथयति-रामः कथयति / हरि+सु>>-हरिः / शिवर्>शिवः / 3. मत्व-विधान (विसर्ग को सत्व-विधान ): (क) विसर्जनीयस्य सः (: +खर् = स्)-विसर्ग को 'स्' होता है, यदि बाद में 'खर' वर्ण हो। जैसे-गौः+चरति - गौश्चरति, बालः + चलति१. (क) कुप्वोःक पीच (5. 3. ३७)-विसर्ग के बाद यदि 'क ख पफ' हो तो विसर्ग को 'विसर्ग' अथवा 'अर्ध-विसर्ग' (क ख' के होने पर जिह्वामूलीय और 'प फ' के होने पर उपध्मानीय ) विकल्प से होता है। जैसे-कः+करोति-क: करोति, क-करोति; कः +पठति = कः पठति, क.: पठति / काखनति फलति वा। (ख) पाशकल्पककाम्येविति वाच्यम् (वा.)-बाद में 'पाश', 'कल्प', 'क' और 'काम्य' शब्द हों तोविसर्ग को 'म्' हो। जैसे----यशः + कल्पम् यशस्कल्पम्; यशस्काम्यति; पयस्पाशम्; यशस्कम् / परन्तु 'प्रातः+कल्पम् - प्रातःकल्पम् ही होगा। (ग) इणः षः (8. 3. ३६)यदि 'इण्' (इ, उ) के बाद विसर्ग हो तो 'ष' होता है / जैसे-सपिः+पाशम् - सर्पिष्पाशम, सर्पिष्कल्पम्, सपिच्कम्, सपिष्काम्यति / (घ) नमस्पुरसोर्गत्योः (८.३.४०)-'नमः और 'पुरः' शब्दों के विसर्ग को 'ए' होता है, यदि बाद में करोति', 'कृत्य आदि शब्द हों। जैसे-नमः + करोति-नमस्करोति पुरस्करोति, पुरस्कृत्य / (क) इदुदुपधस्प चाऽप्रत्ययस्य (८.३.४१)-उपधा में 'उ' हो और अप्रत्यय सम्बन्धी विसर्ग हो तो उसे 'ए' होता है / जैसे-दुः+कृतम् - दुष्कृतम्: आविष्कृतम् / प्रत्यय-संबन्धी विसगे हो तो-अग्निः+करोति-अग्निः करोति / (च) तिरसोऽन्यतरस्याम् ( 8. ३.४२)--'तिरः' के बाद 'कवर्ग' हो तो विकल्प से 'स्' होता है। जैसे-तिरस्कर्ता, तिरःकर्ता / (छ) द्विस्त्रिश्चतुरितिकृत्वोऽर्थे। इसुसोः सामर्थ्य (8. 3. ४३-४४)-'द्विः', 'त्रि.', 'चतुः' तथा 'इस् उस्' प्रत्ययान्त शब्दों के विसर्ग को विकल्प से 'ए' होता है। जैसे-द्विष्करोति, द्विः करोति; सर्पिष्करोति, सपिः करोति; धनुष्करोति, धनुःकरोति / (ज) नित्यं समासेऽनुत्तरपदस्थस्य / अतः कृकृमिकस कुम्भपात्रकुशाकर्णीष्वनव्ययस्य / अधःशिरसी पदे। कस्कादिषु च (8. 3. ४५-४८)-कुछ अन्य शब्दों में-पपिष्कुण्डिका, धनुष्कपालम्, अयस्कारः, अयस्कामः, यस्कंसः, अयस्कुम्भः, अयस्पात्रम्, अयस्कुशा (अयः साहिता कुशा) .अयस्कर्णी, स्व:कामः, यशःकरोति, परमयशः कारः, अधस्पदम्, अधःपदम्, शिरस्पदम्, शिरःपदम्, भास्करः / Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 ] संस्कृत-प्रवेशिका [2: सण्धि विसर्ग-सन्धि ] 1: व्याकरण [26 चालचलति / रामः + तिष्ठति - रामस्तिष्ठति / विष्णु: +त्राता-विष्णुस्त्राता। रामः + टङ्कारयति - रामष्टङ्कारयति / - (ख) वा शरि (:+श-:, स्)-विसर्ग को विकल्प से विसर्ग (अथवा 'स्') ही रहता है, यदि बाद में 'शर' हो।' जैसे-कविः + शृणोति-कविः शृणोति, कविश्शृणोति / हरि+शेते-हरिः शेते, हरिश्शेते। रामः +षष्ठः = रामःषष्ठः, रामष्षष्ठः / छात्राः+सन्ति-छात्राः सन्ति, छात्रास्सन्ति / गुणाः +षद् - गुणाःषट्, गुणाषट् / नोट-यह सूत्र विसर्जनीयस्य सः' सूत्र का ही विशेष विधान करता है। 4. उत्व-विधान ( अकारोत्तरवर्ती विसर्ग को उत्व-विधान): (क) अतो रोरप्लतादप्लुते (अ+:+अ-3)-विसर्ग ( सकार-स्थानीय '6'-'2) को 'उ' होता है, यदि उसके पहले और बाद में ह्रस्व (अप्लुत) अकार हो। जैसे-रामः + अस्ति-रामोऽस्ति / शिवः + अच्र्यः-शिवोऽयः / सः + अपि - सोऽपि / कः + अपठत् - कोऽपठत् / . नोट-विसर्ग को 'उ' होने पर 'गुणसन्धि' और 'पूर्वरूपसन्धि' भी होंगी। (ख) हशि च (अ+:+हा -उ)-विसर्ग (सकार-स्थानीय 'क'- ''1) को 'उ' होता है, यदि उसके पहले 'अ' हो और बाद में 'हश् ( वर्ग के 3, 4, 5, ह य च र ल) वर्ण हो। जैसे-देवः + जयति-देवो जयंति / शिवः + वन्धः-शियो वन्यः / बालः + लिसति = बालो लिखति / शिष्यः + हसति -शिष्यो हसति / रामः + गच्छति - रामो गच्छति। नोट-विसर्ग को 'उ' होने पर गुणसन्धि भी होती है। . 5. यत्व-विधान (अम्' से पूर्ववर्ती विसर्ग को यत्व-विधान): भोभागो अघो अपूर्वस्य योऽशि (भो, भगो, अधो, अ, आ++ अश् - य)-विसर्ग , सकार-स्थानीय ''-'") को 'यु' होता है, यदि विसर्ग के पहले भो, भगो, अधो, अ, आ हो और बाद में 'अश्' (वर्ग के 3-5, 1. खपरे शरि वा विसर्गलोपो बक्तव्यः (पा)-विसर्ग के बाद 'शर' हो और उसके बाद 'खर' हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है। जैसे-रामः + स्थाता-रामस्थाता; बाहुः + स्फुरति = बाहुस्फुरति / 2. मौलिक 'र' होने पर 'र' ही रहेगा। जैसे--प्रातर्+अत्र प्रातरत्र / पुनर् + अपृच्छत् - पुनरपृच्छदः पुनर् + अयम् -पुनरयम् / 3. मौलिक 'र' होने पर 'र' ही रहेगा। जैसे-प्रातर् + गच्छ-पातर्गच्छ / पुनर्+वन्धः - पुनर्वन्धः / 4. मौलिक '' होने पर 'र' ही रहेगा। जैसे-प्रातः + आगतः प्रातरागतः स्वर्गतः / ह, य, व, र, ल ) हो / जैसे-देवाः+ इह - देवायिह, देवा इह / अघोः + पाहिअघो याहि / नरः+इच्छति - नरपिच्छति, नर इच्छति / देवाः + गच्छन्ति देवा गच्छन्ति / भो:+देवाः भो देवाः / देवाः+जयन्ति-देवा जयन्ति / छात्राः + आगछन्ति = छात्रायागच्छन्ति, छात्रा आगच्छन्ति / नोट-(१) हलि सर्वेषाम् ( 8.3.22) यदि 'म्' के बाद व्यजन हो तो 'यू' का नित्य लोप हो जाता है यदि स्वर हो तो विकल्प से लोप होता है।' (2) 'य' का लोप होने पर फिर अन्य दीर्घ आदि सन्धियाँ नहीं होंगी। (3) उत्व-विधायक सूत्रों की प्रवृत्ति न होने पर ही यह सूत्र प्रवृत्त होगा 6 'र' लोप व दीर्घ-विधान (विसर्ग-स्थानीय 'र' का लोप व दीर्घ-विधान): (क) रोरि (र+र-पूर्व 'र' का लोप)-'र' (विसर्ग-स्थानीय) का लोप होता है, यदि बाद में भी 'रकार' हो / 'र' का लोप होने पर अगले सूत्र 'ढलोपे०' से दीर्घ होगा। जैसे-पुनर + रमते-पुना रमते / हरिर+राजते-हरी राजते। (ख)ढलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽण: (अ, इ, उ+'दर' लोप-दीर्घ)-'द' या '' का लोप होने पर पूर्ववर्ती 'अण' (अ, इ, उ) को दीर्घ होता है। जैसे-पुनर + रमते - पुना रमते / हरिः>हरिर् + रम्यः = हरी रम्यः / शिशु:>शिशुर् + रोदिति।. = शिशू रोदिति / अन्तरराष्ट्रियः = अन्ताराष्ट्रियः / ७.विसर्ग (सु) लोप-विधान ('एतत्' 'तत्' सम्बन्धी 'सु' का लोप-विधान): एतत्तदोः सुलोपोऽकोरनसमासे हलि (एषः, सः +हल = विसर्ग लोप)-'एषः' ( एतत् ) और 'सः' ( तत् ) के विसर्ग (सु) का लोप होता है, यदि बाद में कोई 1. लोपः शाकल्यस्य (8. 3. १६)-अ, आ+पदान्त य व् + अश् विकल्प से य, व लोप / जैसे-देवा+इह देवायिह, देवा इह / ते+आगताः तयागताः त आगताः / रात्री+आगताः रात्रावागताः, रात्रा आगताः / ती+ईश्वरीताबीश्वरी, ता ईश्वरी। विष्णो+इह-विष्णविह, विष्ण इह / विशेष-देखिए, अयादि-सन्धि / 2. अपवाद-मनस (3)+ रथः = मनोरथः / यहाँ 'रोरि' से 'र' का लोप प्राप्त था और 'हशि च' से 'उत्व' प्राप्त था। ऐसी स्थिति में 'विप्रतिषेधे पर कार्यम्' (1.4.2) से 'र' लोप की प्राप्ति हुई परन्तु 'पूर्वत्रासिद्धम् (देखिए-अयादि, सन्धि ) के नियमानुसार 'हशि च' से 'उ' होकर 'मनोरथः सिद्ध हुआ। 3. (क) 'द' लोप का दृष्टान्त-लिद+: लीढः ( वे दो चाटते हैं)। उद् + = ऊढः / यहाँ 'ढ' का लोप 'ढो ढे लोपः' (8. 3. 13) सूत्र में हुआ है। (ख) अण् ही को दीर्घ होगा; अन्य को नहीं होगा / जैसेतृत् + ढ-दृढः (मारा) / वृद्धः ( उद्यत)। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसर्ग-सन्धि ] व्याकरण अ+अ. 'अ' से 'औं+क,ख,प,फ 'अ' से 'ओ' + पूर्णविराम आ+ हश् 'इ' से 'औ+हश् 'अ' से 'औं' + त, थ, अ, इ, उ+र 'अ' से 'औ'+स, श, ष / एष, स + हल आ+'अ' से 'औ' 'इ' से औ+'अ' से 'औ| अ+'या' से 'औ' च, छ, ट, | / पूर्ववर्ण+परवर्ण स्श् लोप . (अथवा '') ष् ..(रेफ) ., ( अथवा :) , (ओ) उ (ओs) n (+ 'अण्' को दीर्घ) " ( अथवा 'य') 30 ] संस्कृत-प्रवेशिका [2: सन्धि "हल (व्यञ्जन ) हो / जैसे-सः + हसति = स हसति, एषः + तरति = एष तरति / सः + शम्भुःन शम्भुः / सः+लिखति =स लिखति / एषः+विष्णु-एष विष्णुः / नोट-१) 'सः' और 'एषः' में 'क' प्रत्यय जुड़ा हो अथवा 'न' समास हो तो लोप नहीं होगा। जैसे-एषक: +हरिणः = एषको हरिणः, असः (न सः) +शिवः - असः शिवः / (2) 'सः' के बाद हल के अतिरिक्त वर्ण (स्वर) होने पर भी कहीं-कहीं सु (विसर्ग ) का लोप हो जाता है। अभ्यास (क)सन्धि कीजिए-वृक्ष + उपरि, नव + ऊढा, गिरि+ईशः, उमा+ ईशः, महा + ऐश्वर्यम्, सदा+एव, एकस्मिन् + अहनि,अं+चितः। धिग्+ मूखम् / इति + आदिः, प्रति + उपकारः, सखी+अडः, पचति + ओदनम्, वधू+ इच्छा, साधु+ इति, पितृ + ईहितम्, शे+ इतः, गजे+अस्मिन्, पचेते+ इमी, सु + उक्तम्, एषः + अब्रवीत्, गुरु+ अस्ति, बालः + अत्र, नराः + आगच्छन्ति, शम्भुः + राजते, रामः + आगतः, एष, + बालकः, वायुः+चलति, अश्वः + धावति, शत्रून + जयति, मधुरम् + वदति, सम् +ोषः, सत् + शास्त्रम्, पेष् + ता, जगत् + नाथः,सद् + मतिः, उत् + लेखः, विष् + नुः, उत् + उपनम्, वाक् + जालम्, जगत् +बन्धुः, विपद् + शान्तिः, उत् + साहः, तृणं + चरति, अप् + जम् / (ख) पन्धि-विच्छेद कीजिए-तयेति, सूर्योदयः, गड़ो मिः, गणेशः, हितोपदेशः, जन्मोत्सवः, यथेच्छसि, तवौदार्यम्, मतैक्यम्, अद्यैव, जलौषः, एकैकम्, भवनम्, उपति, अत्युत्तमः, इत्याह, देवा गच्छन्ति, देख्यौपम्पम्. पापक्रम्, गुर्वादेशः। अन्वेषणम्, पवित्रः, द्वावैतिहासिकी, हरेऽव, माले इमे, विद्यार्थी कोऽयम् गजो गच्छति, देवायिह. रात्रावागतः, नद्यास्तीरम्, पूणेश्चन्द्रः, दयार्णवः, पृथ्वीश्वर: दिपालः, धनं ददाति, महट्टीका, अजन्तः, दिगम्बरः, तच्च, उच्छवासः, संचयः, मृण्मयम्, सन्मार्गः, तल्लीनः, धीमाल्लिखति, जानन्नपि, चक्रिस्त्राषस्व, षडेव, उच्छिष्टः, सत्कारः, तृणञ्चरति, आकृष्टः, उज्ज्वलः, षड्दर्शनानि, महद्धनम्, सन्मतिः, तन्न। 1. सोऽचि लोपे चेत्सादपूरणम् ( 6. 1. १३४)-'अच्' परे रहते भी 'सः' के विसर्ग (सु) का लोप होता है, यदि वैसा करने से पाद की पूर्ति हो / जैसे सैष दाशरथी रामः, सैष राजा युधिष्ठिरः / सैष कर्णो महादानी, सैष भीमो महाबलः / / नोट-'सैष' (सः + एषः -सैषः ) यहाँ इस सूत्र से विसर्ग का लोप हो जाने से इद्धि-सन्धि होकर 'सैषः' बन गया अन्यथा 'भो भगो०' सूत्र से 'यत्व' करके लोप करने पर वृद्धि-सन्धि न होने से 'स एषः' बनता जिससे पादपूर्ति नहीं होती। विसर्ग पर प्रभाव विसर्ग-सन्धि बोधक तालिका रामः / हरिः / रामः+कथयति रामः कथयनि, राम कथयति वा। रामाः+ सन्ति-रामास्सन्ति, रामाः सन्ति वा। हरिः + गच्छति -हरिगच्छति / हरिहसति / रामः+तिष्ठति-रामस्तिष्ठति / रामश्चलति / रामष्टकारहरिः+अस्ति-हरिरस्ति / हरिरागच्छति / पुनः+ रमते - पुना रमते / हरिः + रम्यः- हरी रम्यः / / रामः + अस्ति * रामोऽस्ति / रामाः + आगच्छन्ति -रामा आगच्छन्ति, रामायागच्छन्ति वा। सः + लिखति - स लिखति / एषः + विष्णुः एष विष्णुः / रामाः + गच्छन्ति रामा गच्छन्ति, बदन्ति हसन्ति वा। रामः+ आगच्छति- राम आगच्छति, इच्छति वा। रामः + गच्छति रामो गच्छति, वदति हसति वा। यति। उदाहरण Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्री . तृतीय अध्याय कृत्-प्रत्यय ( Primary Suffixes ) १.धातुओं से संज्ञा, विशेषण, अव्यय आदि [ प्रातिपदिक ] शब्दों को बनाने के लिए जिन प्रत्ययों को जोड़ा जाता है उन्हें 'कृत्-प्रत्यय'' कहते हैं और उनके जुड़ने पर जो संज्ञादि शब्द बनते हैं उन्हें 'कृदन्त' (कृत् + अन्त ) कहते हैं। 2. कृदन्त शब्द जब संज्ञा अथवा विशेषण होते हैं तो उनके प्रथमा आदि विभक्तियों में रूप चलते हैं, अव्यय होने पर सदा एकरूप रहते हैं। 3. कुछ कृदन्त शब्द कभी-कभी क्रिया का भी काम करते है। जैसे-गम् + क्तगतः, गम् + क्तवतु-गतवान् / ' 1. (अ) 'कुत्' प्रत्ययों को वैयाकरणों ने मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त किया है-(क) कृत्य-प्रत्यय-ये संख्या में सात हैं। तव्यत्, तव्य, अनीयर, केलिमर, यत्, क्यप् और व्यत् / ये कर्मवाच्य और भाववाच्य में ही प्रयुक्त होते हैं-(ख) उणादि प्रत्यय-'ण' प्रत्यय से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय / ये प्रत्यय बहुत अधिक हैं। जैसे-+ उण-कारुः (करोतीति कारः); पृ+ उपच-परुषम, आदि / (ग) शेष कृत्-प्रत्यय-क्त, क्तवतु, मुल् प्रादि / (आ) व्यावहारिक दृष्टि से कृदन्तों के दो प्रकार संभव है--(क) संजासून कृदन्तजो क्रिया का स्वरूप अपने अन्दर रखते हुए भी व्यवहार में संज्ञा शब्द की तरह प्रयुक्त होते हैं। ये भाववाचक, कर्तृवाचक आदि के भेद से कई प्रकार के हैं। (ख) क्रिया-सूचक कृदन्त--जो यद्यपि सुबन्त ही हैं परन्तु विशेष रूप से क्रिया को व्यक्त करते हैं। कभी-कभी कुछ पूर्ण क्रिया के रूप में भी प्रयुक्त होते हैं। ये वर्तमान कालिक, भूतकालिक, भविष्यत् कालिक, विध्यर्थक, निमित्ता थंक, पूर्वकालिक आदि कई प्रकार के हैं। 2. तिङन्त और कृदन्त में अन्तर--यापि 'तिङ्' और कृत्' प्रत्यय धातुओं में ही जुड़ते हैं परन्तु तिङन्त शब्द सदा क्रियारूप ही होते हैं और उनमें अन्य प्रत्यय नहीं जुड़ते हैं जबकि कृदन्त शब्द संज्ञादिरूप होते हैं तथा उनमें बाद में 'सुप्' प्रत्यय जोड़े जाते हैं। ( देखिए सूत्र--धातोः 3. 1.61, कृदतिङ् 3. 1.63) / 3. 'गतः' आदि कृदन्त शब्द यद्यपि क्रिया का भी काम करते हैं परन्तु वास्तव में ये विशेषण ही हैं क्योंकि 'गतः' आदि का जो रूप होता है वह अपने विशेष्य के अनुरूप होता है / जैसे--तः गतः, सा गता। शतृ, शानच् ] 1: व्याकरण [श (4) 'क्' युक्त कृत्-प्रत्यय के जुड़ने पर धातु में 'ऋ इ3' रहते हैं एवं 'क'-लिए कृत-प्रत्यय के जुड़ने पर वे र य ब हो जाते हैं। जैसे-दन + क्त-वृष्टः, दुश् + तुमुन् - द्रष्टुम्, स्वप्+क्त्वा- सुप्त्वा, स्वप् +तुमुन्-स्वप्तुम्, यज्+क्त-इष्ट, यज्+तव्यत् - यष्टव्यम्, वच् + तव्यत् = वक्तव्यम्, वच् + क्त-उक्तः, प्रहगृहीतः, ग्रह+तुमुन् -ग्रहीतुम् / अपवाद-पृच्छन् (प्रच्छ+शत), उपकृत्य वादि। (1) वर्तमानकालिक कृत्-प्रत्यय ( Present Participle )-शतृ, शान वर्तमानकाल में किसी कार्य के लगातार होते रहने के अर्थ में परस्मैपदी धातुओं से शतृ ( अत् ), आत्मनेपदी धातुओं से शानच (आन या मान) और उभयपके धातुओं से दोनों प्रकार के. प्रत्यय होते है / जैसे-T8+ शतृ-पठत् (पढ़ना हुआ) वृष् + शानच् - वर्धमान ( बढ़ता हुआ)। (क) परस्मैपदी धातुओं से 'शतृ' प्रत्ययान्त रूपधातु अर्थ नपुं० पुं० (अ) (अन्) (अन्ती-अती) भू-होना भवत् भवन् भवन्ती पठ-पढ़ना पठत् पठन् पठन्ती पा-पीना पिबत् पिबन् पिबन्ती 1. (क) 'शतृ' और 'शान' प्रत्ययान्त शब्द कर्ता के विशेषण होते हैं। वैसे गच्छन् बालकः / वर्धमानेन बालकेन / पठन्त्याः नार्यः / पठन्ती स्त्री। वर्षमा वनम् / (ख) इनके रूप तीनों लिङ्गों में चलते हैं। जैसे-भत' प्रत्ययान्त शन्नों के रूप पुं० में धावत्', स्त्री० में 'नदी और नपुं० में 'जगत्' की तरह। 'शानच्' प्रत्ययान्त शब्दों के रूप पुं० में 'राम', स्त्री० में 'पता' और नई० में 'ज्ञान' की तरह। (ग) कुछ अन्य वर्तमानकालिक दन्त रूप / जैसेआस्+शानच्-आसीनः। पू+शानन्-पवमानः / यज् + शानन्-यजमानः विद् + शतृ-विदत् / विद + वसु -विद्वस् / (घ) ऊपर के उदाहरण कर्तृवाच्य में हैं। यदि कर्मवाच्य करेंगे तो कर्मवाच्य का प्रत्यय जुड़ेगा और सभी धातुओं में 'शान' प्रत्यय ही जुड़ेगा,शत नहीं। जैसे-प) पठ्धमान ( पठ् + य+शानच् )-जो पढ़ा जा रहा हो। प्रयोग होगा पठ्यमानं पुस्तकम् / पठ्यमानः ग्रन्थः आदि। 2. (क) अदादि, स्वादि, क्वादि, तनादि और जुहोत्यादि में 'अती' होता है / (ख) 1. लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे / अ० 3.2. 124. 2. ईदासः / अ०७.२.८३. 3. पूयजोः शानन् / अ० 3. 2. 128. 4. विदेःशतुर्वसुः / अ. 7.1.3 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृम-प्रवेशिका , [3: कृत्-प्रत्यय क्त, क्तवतु ] 1: व्याकरण [35 स्व-सोना (अदादिगण) स्वपत् स्वपन् स्वपती बृश् - देखना पश्यत् पश्यन् पश्यन्ती अन्य उदाहरण-स्था = ठहरना> तिष्ठत्, तिष्ठन्, तिष्ठन्ती / श्रु सुनना> शृण्वत्, शृण्वन्, शृण्वसी / अस् - होना ( अदादिगण )>सत, सन्, सती। इष् + इच्छा करना (तुदादिगण )>इच्छत, इच्छन्, इच्छती या इच्छन्ती / * गाना> गायत्, गायन, गायन्ती। ना- इंधना> जिप्रत, जिघ्रन्, नियन्ती। अच्छ- पूछना ( तुदादिगण )>पृच्छदः पृच्छन्, पृच्छती या पृच्छन्ती। ... (ख) आत्मनेपदी धातुओं से 'शान' प्रत्ययान्त रूपधातु अर्थ नपुं० पुं० स्त्री० (आनंम्-मानम् ) (आनः-मानः) (आना-माना) बृध -बढ़ना (म्बादि) वर्धमानम् वर्धमानः वर्धमाना ईक्षु - देखना (भ्वादि) ईक्षमाणम् . ईक्षमाणः / ईक्षमाणा शौक - सोना (अदादि), शयानम् शयानः शयाना सेव् = सेवा करना (भ्वादि) सेवमानम् सेवमानः सेवमाना (0) उभयपदी धातुओं से 'शतृ' और 'शान' प्रत्ययान्त रूप-- धातु अर्थ नपु० पुं० (शतृ, शानच् ) (शतृ, शानच् ) (शतृ, शानच् ) नी-ले जाना (भ्वादि) नयत्, नयमानम् नयन्, नयमानः नयन्ती, नवमाना -कहना (अदादि) ब्रुवत, ब्रुवाणम् बृवन, ब्रुवाणः बुबती, पुवाणा दा-देना (जुहोत्यादि) ददत्, ददानम् ददद,' ददानः ददती, ददाना धा रखना (जुहोत्यादि) दधत्, दधानम् दधत्, दधानः दधती, दधाना मा-जान्ला (धादि) जानत्, जानानम् जानन्, जानानः जानती, जानाना करना (तनादि) कुर्वत्, कुर्वाणम् कुर्वन्, कुर्वाणः कुर्पती, कुर्वाणा 'शतृ' और 'शान' प्रत्यय जोड़ते समय स्भरणीय नियम". 1. लट् लकार के प्रथम पुरुष बहुवचन में धातु का जो रूप बनता है समें से 'तिर प्रत्यय हटाकर 'शतृ' अथवा 'शानच्' प्रत्यय जोड़ दिया जाता है। 2. यदि 'शतृ' अथवा 'शान' प्रत्यय जोड़ने के पूर्व धातुरूप में 'अ' हो तो शतृ' प्रत्यय जुड़ने पर उस 'अ' का लोप हो जाता है और 'शान' प्रत्यय जुड़ने अदादिगणीय आकारान्त और तुदादिगणीय धातुओं में विकल्प से 'अती' और अन्ती' दो रूप बनते हैं। जैसे-भाती, भान्ती। लिखती, लिखन्ती / (ग) ...अन्यत्र 'अन्ती' होता है।... 1. द्विरुक्तधातुओं मैं नुम्' नहीं होगा। ( नाभ्यस्ताच्छतुः / अ० 7.1 78,) पर 'आन' के स्थान पर 'मान' हो जाता है।' (2) भविष्यत्-कालिक कृत्-प्रत्यय (Future Participle)-शतृ, शानच वर्तमानकालिक 'शत' और 'शान' प्रत्यय जब लट् लकार के प्रथमपुरुष बहुवचन के धातुरूप में जुड़ते हैं तो उससे भविष्यत्-काल में किसी कार्य के लगातार होते रहने का बोध होता है। जैसे-पठ् पठिष्यत् (पढ़ता हुआ होगा), दृश> द्रक्ष्यत् ( देखता हुआ होगा ), याच् > याचिष्यमाण ( मांगता हुआ होगा), वृध् > वर्धिष्यमाण (बढ़ता हुआ होगा)। भू>भविष्यत्, भविष्यन्, भविष्यन्ती। सह सहिष्यमाणम्, सहिष्यमाणः, सहिष्यमाणा। नो-भविष्यकाल में शतृ और शान के जुड़ने पर उसमें भविष्यत्कालिक प्रत्यय 'स्य' या 'इस्य' भी जुड़ता है, शेष वर्तमानकाल की तरह है। (3) भूतकालिक कृत्-प्रत्यय ( Past Participle)-क्त और क्तवतु' भूतकाल में किसी कार्य की समाप्ति के अर्थ को प्रकट करने के लिए 'क्त' (त) और 'क्तवतु' (तवत् ) प्रत्यय होते हैं। जैसे१. आने मुक (7.2, १२)...अदन्त अङ्ग को मुक् (म) का आगम होता है। अतः भ्यादि में शप् (अ), दिवादि में श्यन् (य), तुदादि में श (अ) और पुरादि में शप (1) जुड़ने से इन गणों की धातुयें अदन्त (अ+अन्त ) होती हैं। अतः इन्हीं मणों की धातुओं में 'म' होगा, अन्यत्र नहीं। 2. (क) इनका प्रयोग विशेषण और क्रिया दोनों रूपों में होता है। जैसे गतस्य गतवतः वा बालकस्य (विशेषण के रूप में)। बालकः गतः गतवान् वा (निया के रूप में)। (ख) इनके रूप तीनों सिङ्गों में चलते हैं। जैसे-'क्त' प्रत्ययान्त शब्दों के रूप पुं० में शम', नपुं० में 'ज्ञान' और स्त्री० में 'लता' की तरह / 'क्तवतु' प्रत्ययान्त शब्दों के रूप पुं० पें 'भगवत', नपुं० में 'जगत्' और स्त्री० में 'नदी' की तरह / (ग) क्तवतु' प्रत्यय कर्तृवाच्य में होता है। अतः क्तवतु' प्रत्यय लगाने पर कर्ता के लिङ्ग, वचन और विभक्ति का उस पर प्रभाव पड़ता है। जैसे-- पठितवन्तः / (घ) 'क्त' प्रत्यय प्रायः कर्मवाच्य और भाववाच्य में होता है। अतः 'क्त' प्रत्यय लगाने पर कर्मवाच्य में कर्म के लिङ्ग आदि का तथा भाववाच्य में भाव (नपुं० एकवचन) का प्रभाव पड़ता है। जैसे--तेन पुस्तकं पठितम् / तेन हसितम् / (0) मत्वर्थक, अकर्मक, श्लिष, शी, स्था, आस्, वस्, जन्, रुह तथा जू धातुओं से 'म' प्रत्यय कर्तृवाच्य में भी होता है। अतः जब 'क्त' प्रत्यय कर्तृवाच्य में 1. ष्टः सदा / अ०३. 3. 14. 2. क्तक्तवतू निष्ठा / अ०१.२.२६. 3. गत्यकर्मकश्लिागीस्यासदसजनम्हनीयंतिभ्यश्च / अ० 3. 4. 72.. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका 3: कृत्-प्रत्यय नपुं० पुं० . स्त्री० धातु अर्थ क्त क्तवतुक्त क्तवतू / क्त क्तवतु. (तम्). (तवत्) (तः) (तवान्) (ता) (तवती) भू% होना> भूतम्, भूतवत् भूतः, भूतवान् भूता, भूतवती गम् - जाना> गतम्, गतवत् गतः, गतवान् गता, गतवती पठ् * पढ़ना> पठितम् पठितवत् पठितः, पठितवान् पठिता, पटिनवती कृ. करना> कृतम्, कृतवत्. . कृतः, कृतवान् कृता, कृतवती सह सहना> सोढन्, सोढवत् सोढः, सोढवान् सोढा, सोढवती धा= रखना> हितम्, हितवत् हितः, हितवान् हिता, हिसवती घ्रा * सूंघना> घ्राणम्, प्राणवत् प्राणः प्राणवान् घ्राणा घ्राणवती प्रातम् / प्रातवत् ध्रातः), घातवान् भ्राता),घातवती खिद् - खिन्नहोना>खिन्नम्, खिन्नवत् खिन्नः, खिन्नवान् खिन्ना, खिन्नयती मुच् - मुक्तहोना >मुक्तम् मुक्तवत् मुक्तः, मुक्तवान् मुक्ता, मुक्तवती पा पान करना>पीतम्, पीतवत्, पीतः, पीतवान् पीता, पीतवती पा - रक्षा करना>पातम्, पातवत् पातः, पातवान् पाता, पातवती जन् -पैदा होना >जातम्, जातवत् जातः, जातवान् जाता, जातवती 'क्त' और 'क्तवतु' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम 1. धातु को 'गुण' तथा 'वृद्धि' नहीं होती। जैसे-ह>हृतः, कथ् > कथितः, बि>विदितः, पूज् > पूजितः, स्मृ>स्मृतः, अच्>अचितः, पत्>पतितः।। 2. व्यन्जनान्त 'सेट्' धातुओं से 'इ' जुड़ता है, अनिट् में नहीं / जैसे-लिख्> लिखितम् / 3. 'कर' से 'ईर' या 'ऊर' होने पर यदि धातु के अन्त में "र' या 'द' हो (धातु और प्रत्यय के मध्य 'ई' न हों) तो प्रत्यय के 'व' को न्', धातु के 'द' को 'न' और 'ऋ' को 'ईर' या 'उर' होता है। जैसे-तृतीर्णः; पृ>पूर्णः; छिद्> छिन्नः / भिभिन्नः, श> शीर्णः, ज>जीर्णः, क>कीर्णः, ग>गीर्णः / 4. 'ब' आदि सम्प्रसारण वाली धातुओं में सम्प्रसारण ( यदि पहला अक्षर 'य. र्, ल्, ' है तो क्रमशः 'इ, ऋ, टु, उ') होता है। जैसे-ब्र(वच् )> उक्तः; वस्> उषितः; यज्> इष्टः; स्वप्>सुप्तः; ग्रह>गृहीतः; प्रच्छ>पृष्टः, वह > ऊढः, वद्> उदितः। होगा तो उस पर कर्ता के लिङ्ग, वचन आदि का प्रभाव पड़ेगा। जैसे--सः गृहं गतः / तेन भूतम् / 1. रदाभ्यां निष्ठातो नः पूर्वस्य च दः / अ०.२.४२. 2. इग्यणः सम्प्रसारणम् / अ०१.१.४५. क्वा, ल्यप् ] . 1. व्याकरण 5. 'मा', 'स्था' के 'आ' को 'इ' तथा 'गा', 'पा', 'हा' के 'आ' को 'ई' होता है / जैसे-परिमितः, स्थितः, गीतः, पीतः, हीनः / 6. यम्, रम्, मम्, गम्, हुन्, मन्, वन् और तनादिगणीय धातुओं के 'म्' और 'न्' का लोप होता है / जैसे-संयतः, रतः, नतः, गतः, हतः, मतः / 7. जन्, सन्, सन् के 'न' को 'आ' होगा / जैसे-जातः, सातः, खातः / 8. उपधा के 'न' का प्रायः लोप होता है। जैसे-बन्ध बद्धः, दण्>दष्टः / ६.पृष्ठ 38 (क्त्वा प्रत्यय) के नियम नं०४-५ भी लगेंगे। जैसे-ल> लब्धः, त्य>त्यक्तः, + सृज>सृष्टः / नोट-(१) 'क्त' प्रत्ययान्त रूपों में 'वत्' जोड देने से 'क्तवतु' प्रत्ययान्त रूप बन जाते हैं / (2) कुछ अन्य 'क्त', 'क्तवतु' प्रत्ययान्त रूप-दा>दत्तः; अस्> भूतः, अद्> जग्धः; पच्>पक्वः; शुष्>शुष्कः; शम् > शान्तः; शी>णयितः, सिच्>सिक्तः; भाब>आहतः, गै>गीतः; *>त्रातः, दुह>दुग्धः; दिव्यू तः, चुर> चोरितः, प्रच्छ - पृष्ठः, इष् - इष्टः, शास्>शिष्टः, शुश्रुतः, स्पृश्>स्पृष्टः, अधि+इ>अधीतः; क्षि>क्षीणः, क्रम् >कान्तः, चि>चितः, बुध् > बुद्धः, वि + धा>विहितः, लिह>लीलः, आ+रभ् >आरब्धः, कम्> कान्तः / (4) पूर्वकालिक क्रिया (Gerund - Indeclinable Participle) यत्वा और ल्यप-कर' या 'करके' अर्थ में क्त्वा (त्वा) और ल्यप् (य) प्रत्यय होते हैं / अर्थात् जब एक कर्ता की एकाधिक क्रियायें होती हैं तो पूर्वकालिक क्रियाबोधक धातुओं में 'त्वा' और 'य' प्रत्यय 'जुड़ते हैं। जैसे-भू + क्त्वा भूत्वा / अनु+भू + ल्यप् - अनुभूय / घा+क्त्वा - हित्वा / वि+धा + ल्यप् - विधाय / धातु बत्वा ल्यप् धातु क्त्वा. त्यप् जि (जीतना) जित्वा विजित्य दा ( देना) दत्वा प्रदाय कृ (करना) कृत्वा अनुकृत्य गम् (जाना) गत्वा आगत्य, आगम्य भ्रम् (घूमना ) भ्रमित्वा विभ्रम्य पा (पीना) पीत्वा निपाय. भ्रान्त्वा) निपीय (वि+परब) इ (जाना) इत्वा उपेत्य ईक्ष (देखना), ईक्षित्वा परीक्ष्य दृश् ( देखना) दृष्ट्वा संदृश्य दह ( जलाना) दग्ध्वा प्रदा लभ् (पाना) लब्ध्वा उपलभ्य बद् ( कहना) उदित्वा अनूद्य नोट-१. ये अव्यय होते हैं / अतः इनके रूप सर्वत्र एक समान चलते हैं। 2. जब धातु के पहले कोई अव्यय या उपसर्ग होता है तब 'ल्यप् प्रत्यय जुड़ता है, अन्यत्र ( उपसर्ग आदि के न होने पर) 'क्त्वा' / 1. समानकर्तृकयोः पूर्वकाले / अ० 3. 4. 21. श्वकालिक निया के अर्थ में णमुल प्रत्ययी रोलाजिसे-भुजभोज भो Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 ] संस्कृत-प्रवेशिका [3: कृत्-प्रत्यय 3. 'नन् समास' होने पर 'ल्यप्' नहीं होगा। जैसे--+ गम् - अगत्वा 'क्त्वा' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम 1. धातु को गुण या वृद्धि नहीं होगी। जैसे-ह>हत्वा, कृ>कृत्वा / 2. 'सेट्' धातुओं से 'इ' जुड़ता है, अनिट् में नहीं। जैसे--प>पठित्वा 3. 'वच्' आदि सम्प्रसारण वाली धातुओं में सम्प्रसारण (य, र, ल, व को क्रमशः इ, ऋ, ल, उ) होता है। जैसे-वच्> उक्त्वा ; यज्>इष्टवा; ग्रह गृहीत्या; स्वप्>सुप्त्वा; वह >ऊढ्या; वप्>उपवा; वस्> उषित्वा। 4. धातु के अंतिम 'च' तथा 'ज्' को 'क; 'द' को 'त'; 'भू को 'ब' और 'ए' को 'द' हो जाता है। जैसे ---भुज>भुक्त्वा; पच्>पक्त्वा; बुध> वुद्ध्वा; त्य >त्ययत्या; छिद् >चित्वा, रुध् > रुवा, लभू> लब्ध्वा / 5. धातु के अंतिम 'कछ' और 'श्' को तथा अज्, सृज्, मृज्, यज्, राग, प्राज् इन धातुओं के 'ज्' को 'ए' हो जाता है। जैसे-प्रच्छ> पृष्ट्या , मृ> . सृष्ट्वा; विश्>विष्ट्या, यज्> इष्ट्वा / 6. '' को ईर' या'कर' होता है। जैसे-तृतीयां', प>पूर्वा / 7 'धा', 'हा' 'भा' और 'स्था' के 'मा' को 'इ'; 'गा' और 'पा' के 'आ' को '' होता है। जैसे-मा>मित्वा; स्था>स्थित्वा; गा>गीवा; पा> पीत्वा, हा>हित्वा, धा-हित्वा / / 8. यम्, रम्, नम्, गम्, हन, मन्, वन और तनादिगणीय धातुओं के 'म' और 'न्' का लोप हो आता है। जैसे-गम् > गत्वा हन् > हत्या / 6. उपधा के 'न' का प्रायः लोप हो जाता है / जैसे-बन्ध > बवा / 1.. जन्, सन् और सन के 'न' को या तो 'आ' होता है या फिर 'इ' का आगम होता है। जैसे--अन् >जात्वा-जनित्वा; सात्वा-सनित्या साला-खनित्वा / नोट 1. प्रायः ये सभी नियम 'क्त', 'क्तवतु' प्रत्यय जोड़ते समय भी लगते हैं। 2. कुछ अन्य 'क्रवा' प्रत्ययान्त रूप-कम्> कगित्वा-कान्त्वा; कम्> क्रगित्वा-कान्त्वा; शम्>शमित्वा-शान्त्वा; अम्>यमित्वा-बान्स्वा; दा>दत्वा, अ>जम्वा, चि>नित्वा, दुह>दुग्ध्वा, सिच्>सिक्त्वा; कह>स्लवा, हेहूवा, गण् > गणयित्वा, अन्य > प्रन्थित्वा, र> रवा-रङ्कस्वा, भ> भक्त्वा-भक्त्या, नश्>नष्ट्वानंष्ट्वा-नशित्वा, भज्>भजित्वा / 'ल्यप् प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम - 1. प्रायः धातु मूल रूप में रहती है। जैसे-आनीय, आलिस्य, प्रदाय / 2. धातु के अन्त में यदि ह्रस्व स्वर ( अ, इ, उ, ऋ) हो तो 'ल्यप्' के पहले 1. रामारोऽनपूर्वे क्त्वो ल्यप। अ० 7. 1. 37 तव्यद, अनीयर ] 1: व्याकरण 'त्' (तुक ) जुड़ जाता है। जैसे-वि+जि>विजित्य, प्र+ह>प्रहत्य। 3. णिजन्त और चुरादिगणीय धातुओं की उपधा में यदि ह्रस्व स्वर हो तो 'ल्यप' के पहले 'अय' जुड़ता है। जैसे प्र+ग>प्रणमय्य, वि+गण>विगणय्य, वि + रच>विरचय्य / 4. गम्, मम्, यम्, रम् धातुओं के 'म्' का विकल्प से तथा हन्, तन्, मन् / धातुओं के 'न्' का नित्य लोप होता है। जैसे-आ+ गम् आगत्य - आगम्य, आ+ हन्>आहत्य, प्र+नम्>प्रणत्य-प्रणम्या, अनु + मन् > अनुमत्य / / नोट -(1) 'कत्वा' प्रत्यय के नियम नं०३ और..६ भी लगते हैं। जैसेप्र+वच्>प्रोच्य, उत् + तू उत्तीर्य / (2) कुछ अन्य 'ल्यप् प्रत्ययान्त रूप>ि आइय, वसू > अध्युष्य, आप > प्राप्य, विद्यारि>विचार्य, प्रहारि> पहार्य, सम् + शी>संशय्य, प्र+दृश >प्रदय (णिजन्त अधि+ इ अधीत्य) (5) विधि-कृदन्त (Potential Participli)-तव्यत्, तव्य, अनीयर, यत्' विधि, चाहिए, योग्यता आदि अर्थों में तभ्यत (तब्य ), तव्य, अनीयर (अनीय ) और यत् (य) प्रत्यय होते हैं। 'तव्यत्' और 'तव्य' प्रत्ययान्त रूपों में कोई अन्तर नहीं होता है। उसका प्रभाव केवल स्वरप्र-क्रिया पर पड़ता है। (क) 'तव्यत्' और 'बनीयर' प्रत्ययान्त रूपधातु नपुं० पुं० (तव्यम्) (अनीयम्) (तव्यः (अनीयः) (तव्या) (अनीया) , भू भवितव्यम्, भवनीयम् - - - पठ् पठितव्यम्, पठनीयम् पठितव्यः, पठनीयः पठितव्या, पठनीयत गम् गन्तव्यम्, गमनीयम् गन्तव्यः, गमनीयः गन्तब्या. गमनीया 1. (क) विधि अर्थ में तब्यत्, तव्य, अनीयर और यत्, के अलावा 'कलिमर' (एलिम), 'क्यप्' (य) और 'ण्यत् (य) ये प्रत्यय भी होते हैं। इन , सभी प्रत्ययों को 'कृत्य-प्रत्यय' कहा जाता है / उदाहरण-पच्+केलिमरपचेलिमम्, भिद्>भिदेलिमम्, स्तु+क्यप् स्तुत्यम्, +ण्यत्-कार्यम् / (ख) कृत्य-प्रत्ययान्त संज्ञाओं के रूप पुं० में 'राम', नपुं० में 'शान' और स्वी.' में 'लता' की तरह चलेंगे। (ग) कभी-कभी इन प्रत्ययान्त शब्दों का प्रयोग विशेषण के रूप में भी होता है। से-कर्तव्यं कर्म, दानीयो विप्रः (दीयतेऽस्मै)। 1. हस्वस्य पिति कृति तुक् / अ० 6.1.71. 2. ल्यपि लघुपूर्वात् / अ०.६.४. 3. तव्यत्तव्यांनीयरः / अचो यत् / अ० 3.1.66.67 4. केलिमर असंख्यानम् (वा.)। एतिस्तुशासवृदृजुषः क्यप् / (103. 16) / मृजेविभाषा / अ० 3.1.113 / ऋहलोण्यत् / अ० 3.1.124 // 5. अकाठमों से केवल नपुंके रूपवनेंगे। स्त्री Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - संस्कृत-प्रवेशिका [3: कृत्-प्रत्यय इस् द्रष्टव्यम, दर्शनीयम् द्रष्टव्यः, दर्शनीयः द्रष्टव्या, दर्शनीया भी नेतव्यम्, नयनीयम् नेतव्यः, नयनीयः नेतन्या, नयनीया वादातव्यम्, दानीयम् दातव्यः, दानीयः / दातव्या, दानीया पुच भोक्तव्यम् भोजनीयम् भोक्तव्यः, भोजनीयः भोक्तव्या, भोजनीया र असव्यम्, अदनीयम् अत्तव्यः, अदनीयः अत्तव्या अदनीया पा पक्तव्यम्, पचनीयम् पक्तव्यः, पचनीयः पक्तव्या, पचनीया कम् कथयितव्यम् कथनीयम् कथगितव्यः, कथनीयः कथयितव्या, कथनीया (घ) ये प्रत्यय कर्मवाच्य और भाववाच्य में ही होते हैं। कर्तृवाच्य में इस अर्थ में विधिलिङ् का प्रयोग होता है। कर्मवाच्य में इनका लिङ्ग आदि कर्म के मनुसार और भाववाच्य में न एकवचन में होता है। जैसे-मया पुस्तक बठितव्यम् / (ङ) कुछ शब्द कर्तृवाच्य में भी होते हैं। जैसे-भव्योऽयं अव्यमनेन वा / भू+ यत्-भव्यः (होनेवाला) / गै+ यत्-गेयः (गाने वाला)। अवच्+अनीयर् -प्रवचनीयः (व्याख्यान करनेवाला), उप + स्था+अनीयर - उपस्थानीयः (निकट खड़ा होने वाला), जन् + यत् - जन्यः ( पैदा करने बाला), आप्लु+प्पत् प्राप्लब्पः (तैरने वाला ), आपत् + ण्यत् आपात्यः / (च) ण्यत् (य) प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम-(१) ऋवर्णान्त तथा हलन्त धातुओं से 'ध्यत्' होता है। जैसे-+ ण्यत् - कार्यम् (नपुं०), कार्यः (पु.), कार्या (स्त्री०)। मृज् + ण्यत् - मार्यः ( पवित्र करने योग्य / 'भृजेवृद्धि' / अ० 7. 2. 114 मूत्र से वृद्धि)। हहार्यम् / स्मृ> स्मार्यम् / प > पाठयम् / (2) धातु के अन्तिम स्वर को वृद्धि / यदि उपधा में अकार हो तो उसकी वृद्धि (आ), अन्य स्वर हो तो प्रायः गुण / मृज् के उपधा के ऋ को भी वृद्धि होगी। जैसे-मृज् >मायः / कृ>कार्यम् / वह> बाह्यम् / हन् > घात्यम् / ह< हार्यम् / धृ>धार्यम् / (3) चकार और जकार को कुत्व (च>रु, ज>) होता है। जैसे-मृज >मायः / भुज> भोग्य भोग करने योग्य)। वच्>वाक्य (पदसमूह)। अपवाद-यज्>याज्य / यज्ञ में देने योग्य, पूज्य ), रुच> रोच्य / याच्>पाच्य / भुज् > भोज्य (खाने योग्य ) / वच्> वाच्य (कहने योग्य) / ऋच्> अर्घ्य / त्य>त्याज्य / (4) उकारान्त एवं ऊकारान्त धातुओं में भी यत्' जुड़ता है यदि. आवश्यकता का अर्थबोध कराना हो। जैसे->श्राव्य (अवश्य सुनने के योग्य ) / पू>पाव्य / (छ: क्यप् प्रत्यय-इण, स्तु, शास्, वृ, दृ और जुष् चातुओं में [ तथा मृज् में विकल्प से ] क्या होता है। जैसे-इण्> इत्यः, स्तु>स्तुत्यः / मृज़>मृज्यः / शास्>शिष्यः / वृ>वृत्यः / आ+> मादृत्यः / जुष्> जुष्यः / तव्यत्, अनीयर, यत् ] 1: व्याकरण [ 41 चुर् चोरयितव्यम्, चोरणीयम् चोरयितव्यः, चोरणीयः चोरयितव्या, पोरणीया चित् चिन्तयितव्यम्, चिन्तनीयम् चिन्तयितेव्यः, चिन्तनीयः चिन्तयितव्या चिन्तनीया एधू . एधितव्यम्, एधनीयम् - - - भ्रम् भ्रमितव्यम्, भ्रमणीयम् भ्रमितव्यः, भ्रमणीयः भ्रमितव्या, भ्रमणीया 'तव्यत्' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम 1. धातु के अन्तिम और उपधा के स्वर (इ, उ, ऋ) को गुण होता है। जैसे-कृ> कर्तव्यम्। हहर्तव्यम्; लिख> लेखितव्यम् रुद>रोदितव्यम्; दुहु> दोग्धव्यम् / 2. धातु के अन्तिम च् ज् > क् में, द> में; भ>ब् में; ध्>द में और म् > में बदल जाते है। जैसे-लम् > लब्धव्यम्। वच्> वक्तव्यम्; युध > योद्धव्यम्, गम्>गन्तव्यम्, नम्>नन्तव्यम् / 3. धातु के अंतिम 'ए', 'ऐ' को 'आ' हो जाता है। जैसे->षातव्यम् / 4. सेट् धातुओं के बीच में 'इ' जुड़ता है। जैसे-भू> भवितव्यम् / 'अनीयर' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम 1. धातु के अन्तिम और उपधा के स्वर को गुण होता है। जैसे-लिख> लेखनीयम्, इ>अयनीयम्, स्तु>स्तवनीयम्, स्मृ>स्मरणीयम् / 2. धातु के अन्तिम 'ए' और 'ऐ' को 'आ' हो जाता है / जैसे-गै>गानीयम्, >त्राणीयम् / (ख) यत् प्रत्ययान्त रूप 'यत्' (य) प्रत्यय प्रायः स्वरान्त धातुओं में तथा पवर्गान्त धातुओं में [ साथ ही उनकी उपधा में 'अ' हो ] जुड़ता है। जैसे-दा+यत् - देयम् (नपुं०), देयः (पुं०), देया (स्त्री०)। गम् >गम्यम् / नम्>नम्यम्, जप्>जप्यम् / शप> शप्यम् / लप्>लप्यम् / लन्>लभ्यम्, रम् रम्यम् / 'यत्' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम .. 1. धातु के अन्तिम 'आ, इ, ई, ओ, औ, ए, ऐ' स्वरों के स्थान पर 'ए' (इ>ए) होता है। जैसे-पा+ यत् - पेयम् / हा>हेयम् / ग्ल> ग्लेयम् (ग्लानि करना चाहिए)। चि>चेयम् ( चयन करना चाहिए)। स्था>स्थेयम् / दा> देयम् / धा>धेयम् / मा> मेयम् / ग>गेपम् / छो>छेयम् / नी> नेयम् / 1. अचो यत् / पोरदुपधात् / अ०३. 1.67-68. 2. ईद्यति (अ०६. 4. ६५)-'यत्' प्रत्यय के पर में होने पर 'आ' को 'इ' होता है, पश्चात् 'इ' को 'ए' गुण होता है। इसी प्रकार ऐ आदि के विषय में भी जानना चाहिए। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वुल्, तृच ] 1H व्याकरण 42] संस्कृत-प्रवेशिका [ 3 : कृत्-प्रत्यय 2. धातु के अन्तिम 'उ ऊ' को गुण एवं अवादेश होता है। जैसे-श्रु> प्रव्यम् / हु> हव्यम् / भू>भव्यम् / सु>सव्यम् / 3. 'लभ' धातु के पूर्व 'आ' अथवा 'उप' उपसर्ग प्रशंसा के अर्थ में जुड़ा होने पर नुम् (न>म् ) का आगम होता है। जैसे-आ+ लभू> आलम्भ्य / उपलभ् > उपसम्भ्य ( उपलम्भ्यः साधुः - साधु प्रशंसनीय है / प्रशंसा अर्थ न होने पर उपलभ्य = 'उलाहना योग्य' होगा)। 4. विशेष प्रयोग (पवर्गभिन्न व्यञ्जनान्त धातुओं में)-जन् >जन्यम् / हन् >वध् >वध्यम् / शक्> शक्यम् / सह सह्यम् / गद्ग द्यम् / म>माम् / घर > चर्यम् / (6) निमित्तार्थक( Gerundial pfinitive )-'तुमुन् / जब कोई क्रिया किसी दूसरी क्रिया के निमित्त से की जाती है तो निमित्तार्थक क्रिया में 'तुमुन्' (तुम् ) प्रत्यय होता है। अर्थात् 'को', 'के लिए' अर्थ में 'तुम्' प्रत्यय होता है। जैसे-भू>भवितुम्, हन् > हन्तुम्, बा>दातुम, दूग्>, द्रष्टुम्, सह >सोढुम, वह > बोदुम्, कृ>कर्तुम, लिख् > लेखितुम्, गम् > गन्तुम्, *>त्रातुम् / 'तुमुन् प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम 'तव्यत्' प्रत्यय जोड़ते समय जो नियम लगते हैं वही यहाँ भी लगते हैं / अतः 'सव्य' के स्थान पर 'तुम्' पद रख देने से 'तुमुन्' प्रत्ययान्त पद बन जाते हैं।' (7) कर्तृवाचक ( Agent of the action)-बुल, तृच और णिनि कर्ता ( करने वाला) अर्थ में खुल (अक), तृच (तृ) और णिनि (इन) प्रत्यय होते हैं। जैसे१. (क) 'तुमुन्' प्रत्ययान्त शब्द अव्यय होते हैं। (ख) तुमुनन्त क्रिया जिस क्रिया के साथ आती है उसकी अपेक्षा तुमुनन्त क्रिया बाद में समाप्त होती. है। जैसे--सः रामं द्रष्टु' याति / (ग) तुमुनन्त क्रिया और मुख्य क्रिया का का एक ही होता है / (घ) तुमुनन्त क्रिया के बाद यदि 'काम' या 'मनस्' (इच्छार्थक) शब्द हों तो 'तुम्' के 'म्' का लोप हो जाता है। जैसे-वक्तुकामः, वक्तुमनाः / / 2. कर्ता अर्थ में और भी कई प्रत्यय होते हैं। जैसे-खच (अ)-प्रियंवदः (प्रियं 1. आडो यि / उपात्प्रशंसायाम् / अ०७.१.६५.६६ / 2. तुगुन्ण्वुलो क्रियायां क्रियार्थायाम् / अ० 3. 3. 10. 3. रागागक केषु तुमुन् / अ० 3. 3. 158. कामगोपि काशिका, 6.1.144. (क) ण्वुल और तृच् प्रत्ययान्त रूप 'बुल' प्रत्ययान्त पद' . 'तृच' प्रत्ययान्त पद' धातु. न पुं० स्त्री० नपुं० पुं० स्त्री० (अकम्) (अकः) (इका) . (तृ) (ता) (श्री) , वदतीति ) , वशंवदः, पतिवरा / खश्' (अ)-स्तनन्धयः (स्तनं धयतीति). जनमेजयः (जन+ए+खश्)। ट' (अ)- दिवाकरः, निशाकरः, भास्करः, कुरुचरः / क' (अ)---गोदः (मां ददातीति), सुखदः, बुधः, प्रियः (प्रीणातीति)। क" (४)-तादृशः (तद् + दृश् + कञ् ), सदृशः / विव' ( लोप)ब्रह्महा (ब्रह्म + हन् + क्विप् ), कर्मकृत्, पक्षच्छित् / ड" (अ)-अजः, द्विजः, सर्वगः, उरगः / ल्यू' (अन)-नन्दनः (नन्द+ ल्यु-नन्धयतीति) जनार्दनः / च' (अक)-निन्दकः, हिंसकः / इष्णुच"(इष्णु)--सहिष्णुः, अलङ्करिष्णुः / आलुच (आलु)-दयालु:, निद्रालुः, श्रद्धालुः / उ-चिकीर्षुः, पिपासुः / युच्" (अन)--चलनः (चलितुं शीलम् यस्य सः ) / षाकन् 15 (क) जल्पाकः, वराकः (a+षाकन् ) / 1. (क) 'वुल' प्रत्ययान्त शब्दों के रूप पुं० में 'राम', स्त्री० में 'लता' और नपुं. में 'शान' की तरह चलेंगे। (ख) 'तृच' प्रत्ययान्त शब्दों के रूप स्त्री० में 'नदी'; पुं० और न० में 'कर्तृ' की तरह चलेंगे। (ग) 'तृच्' प्रत्ययान्त पदों के साथ कर्म में षष्ठी होती है। जैसे-धनस्य हर्ता। (घ) कभी-कभी धुल' का प्रयोग 'तुमुन्' की तरह क्रिया के रूप में भी होता है।18 जैसे-राम दर्शको द्रष्टुं या गच्छति / (क) मृज् धातु से 'तृच्' प्रत्यय करने पर 'माष्ट्र' रूप बनता है / 1. वुल्तृची / अ० 3.1.133. 2. प्रियवशे वदः खच / संज्ञायां भृतृवृजिधारिसहितपिदमः / गमश्च / अ०३ 2.38,46-47. 3. अ० 3.2. 26, 31-32, 35-36, 83. 4 अ०३. 2. 20-22. 5. अ० 3.2. 3-4; 3.1.135-136,.144. 6. त्यदादिषु दृशोऽनालोचने कश्च / अ०३. 2.60. 7. 3. 2.61,78, 86, 177. 8. अ०३.२. 48,67-101. 9. नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः / अ०३. 1. 134. 10. अ० 3. 2. 146. 11. अ०३. 2. 136. 12. अ० 3. 2. 158. 13. सनाशंसभिक्ष उः / अ० 3.2.168. 14. अ० 3. 2. 148, 151 15. जल्पभिक्षकुट्टलुण्टवृङः पाकन् / अ० 3. 2. 155, 16. तुमुन्ण्वुलो क्रियाया क्रियायाम् / अ० 3. 3. 10. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और स्युट, घ, क्तिन् ] 1: व्याकरण [ 45 क्रोशति ),1 वाक्षरावी ( कौवे की तरह शब्द करने वाला)। (छ) अन्य उदाहरण-ग्रह+णिनि-ग्राही (ग्रहण करने वाला), स्था+णिनि - स्थायी (स्थिर रहने वाला), मन्त्री ( सलाह देने वाला), वस्>वासी, निवासी, प्रवासी, अधिवासी, वद्>वादी, प्रतिवादी, लष् > अभिलाषी, राध् > अपराधी, चर्> व्यभिचारी, सृ> संसारी, द्विषु > द्वेषी, रुध् >रोधी, विरोधी, द्रुह >द्रोही, कृ> अधिकारी, गम् > अनुगामी / 44] संस्कृत-प्रवेशिका [3: कृत्-प्रत्यय नायका नायक: कृ> कारकम् कारक: कारिका कत कर्ता की जन्> जनकम् जनकः जनिका जनित जनिता जनित्री दा> दायकम् दायकः दायिका दातृ दाता दात्री प> पाठकम् पाठक: पाठिका पठितृ पठिता पठित्री गम्> गमकम् गमकः गमिका गन्तृ गन्ता गन्त्री भ,अस्> भावकम् भावकः भाविका भवितृ भविता भवित्री 'पवल' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम-(१) धातु के अन्तिम “स्वर (इ, उ, ऋ) को वृद्धि तथा उपधा केंद्र स्वर को गुण होता है। (2) आकारान्त धातु में प्रत्यय के पूर्व 'यू' जुड़ जाता है। जैसे-पा>पायकः, धा>धायकः / 'तच' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम-'तव्यत्' और 'तुमुनु' प्रत्यय में लगने वाले सभी नियम यहाँ भी लगते हैं। अतः 'तुम्' या 'तव्य' के स्थान पर 'तृ' रख देने से 'तृच' प्रत्ययान्त रूप बन जाते हैं। (ख) "णिनि' प्रत्ययान्त रूप जातिवाचक संज्ञाओं (राम आदि) को छोड़कर यदि कोई अन्य सुबन्त (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण) किसी धातु के पूर्व हो और उससे आदत (स्वभाव-ताच्छील्य) का भाव सूचित करना हो तो कर्ता अर्थ में णिनि (इन् ) प्रत्यय होता है। जैसेउष्ण+भुज+णिनि- उष्णभोजिन् > उष्ण भोजी (गरम भोजन करने की आदत वाला - उष्णं भुमते तच्छीलः) / यहाँ 'उष्ण' सुबन्त पद गुणवाचक (जातिवाचक नहीं) है। शीत+भुज-शीतभोजिन् >शीतभोजी। आमिषभोजी, वनवासी, सात्यवादी, हृदयग्राही, शाकाहारी, मांसाहारी, मिथ्यावादी, मित्रद्रोही, मनोहारी। विशेष-(भावत अर्थ न होने पर भी)-(क) सुबन्त उपपद रहते मन् धातु से।" दर्शनीय + मन् - दर्शनीयमानी (सुन्दर समझने वाला दर्शनीयं मन्यते), पण्डितमानी। (स) करण उपपद रहते भूतकाल में 'यज्' धातु से सोम+य - सोमयाजी (जिसने सोम याग किया हो), अग्निष्टोम + यज् - अग्निष्टोमयाजी। (ग) 'हन्' धातु से पूर्व ब्रह्मादि को छोड़कर क्योंकि वहाँ 'क्विप्' होकर ब्रह्महा, बत्रहा आदि बनेंगे....कुमारधाती, शीर्षघाती, पितृव्यपाती, पुत्रघाती / (घ) साधु और ब्रह्मन् शब्द यदि 'क' या 'बद्' धातु के पूर्व में हों। जैसे-साधुकारी, ब्रह्मवादी। (3) व्रत अर्थ में - जलाशायी। (च) उपमान पूर्व में होने पर-उष्ट्रकोशी ( उष्ट्र इव 1. सुष्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये / अ० 3.2.78, 2. मनः / अ० 3.2.82. 3. भूते करणे यजः / अ०३.२८४-८५. 4. कर्मणि हनः / ब्रह्म गरेषु क्वि / अ० 3.2.86-87. गागारिनगंस्थानम् / ब्रह्मणि वदः (वा.)16. व्रते / अ० 32.80. नियम-(१) 'णित' होने से उपधा के अकार को वृद्धि होगी (अत उपधायाः / 7.2.116) / जैसे-ग्रह >ग्राही। दर्शनीयमानी। (2 उपधा के स्वर (इ, उ, ऋ) को गुण अन्तिम।को वृद्धिा-उष्णभोजी, अधिकारी। (3) आकारान्त धातु में 'युक्' (यू) आगम होगा। जैसे-स्था+ युक् +णिनि -स्थायी / (4) इनके रूप पुं० में नकारान्त 'करिन्' की तरह तथा स्त्री० में 'नदी' की तरह बनेंगे। (8) भाववाचक संज्ञायें ( Abstract nouns )-न्युट, घञ् और क्तिन्' भाववाचक ( भाव-क्रिया के स्वरूप के सूचक) शब्द बनाने के लिए ल्युट्, (अन), घञ् (अ) और क्तिन् (ति) प्रत्यय होते हैं।' इनका प्रयोग संज्ञा की तरह होता है। जैसे 1. भाववाचक संज्ञायें बनाने वाले कुछ अन्य प्रत्यय-(क) 'अच' (अ ) यह पचादि और इकारान्त धातुओं से पुं० में होता है। जैसे-पच>पचः ( दीर्घ नहीं होगा), चुर्> चोरः; युध्>योधः; चि> चयः; नी>नयः; जि>जयः / (ल) 'अ' (deg) यह ऋकारान्त और उकारान्त धातुओं में पुं०. में होता है। जैसे-स्तु>स्तवः; भू>भवः; क>करः। (ग) 'अङ्' (अ) यह चिन्त आदि और सोपसर्ग आकारान्त धातुओं से स्त्री० में होता है। जैसे चिन्तु >चिन्ता; कथ्>कथा; पूज्>पूजा; चर्च>चर्चा; प्र+दा>प्रदा। 1. कर्तर्युपमाने / अ० 3.2.76. 2. नन्दिग्रहिपवादिभ्यो ल्युणिन्यचः / अ० 3.1134 3. ल्युट् च / 10 3.3.115; भावे / अ० 3.3.18; स्त्रियाँ क्तिन् / अ० 3.3.64. 4. एरच् / अ० 3.3.56; पचाद्यच् / अ० 3.1.134; भयादीनामुपसंख्यानम् (वा.)। 5. ऋदोरम् / अ० 3.3.57. गृहबुदृनिश्चिगमश्च / अ० 3.3.58., बशिरण्यो रुपसंख्यानम् (वा.)। 6. चिन्तिपूजिकथिकुम्विचर्चश्च / आतश्चोपसगें। अ० 3.3.105-106. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्, तिन् ] 1. व्याकरण [ 47 भोगः रुध् > रोधः, ह>हारः, (प्रहारः, आहारः, विहारः), हस्>हासः, उपहासः, पट् > पाठः, चर् > चारः (आचारः, प्रचारः); वद् > वादः (विवादः, अपवायः), लम् > लाभः, प्र+नम् >प्रणामः, दिश् >देशः ( उपदेशः, प्रदेशः ), आ+ मुद>आमोदः, विस्तारः (विस्तृ +घञ् / फैलाना), वि+>विकारः (किसी रूप में बदलना) (2) धातु का अन्तिम च>क में और ज>ग में बदल जाता है (जोः कु घिण्यतोः / अ० 7.3.52.) / जैसे-शुच>शोकः, रुज् >रोगः, त्या त्यागः, पच् >पाकः, (पकाना), भुज् > भोगः, मृज> मार्गः। (3) कुछ अन्य 'घ' प्रत्ययान्त रूप-चि>कायः, र >रागः, नि+इ>न्यायः, हन् >घातः, वि + लप् > विलाप: ( रोना) 'क्तिन्' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम-कमा प्रत्यय के नियम यहाँ भी लगते हैं। अतः 'त्वा' के स्थान पर "ति' जोड़ देने से क्तिन्' प्रत्ययान्त शब्द बन जाते हैं। जैसे-गम्>गतिः (जाना), स्था>स्थितिः, p>कीर्तिः, सृज् > सृष्टिः, गा>गीतिः, कम> कान्तिः, स्मृ, >रमृतिः, धुध > बुद्धिः, दृग्> दृष्टिः, भ्रम्>भ्रान्तिः, रम् > रतिः, बच्> उक्तिः, मन् > मतिः / संस्कृत-प्रवेशिका [ 3 : कृत्-प्रत्यय धातु ल्युट् अनम् (नपुं०) घन् = अः (पुं०) क्तिन-तिः-(स्त्री०)" भू> भवनम् भावः, प्रभावः भूतिः कृ> करणम् कारः, उपकारः कृतिः यज्> यजनम् यागः इष्टिः भुज्> भोजनम् / भुक्तिः 'ल्युटु' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम-'अनीयर्' प्रत्यय के नियम यहाँ लगते हैं। अतः 'अनीय' के स्थान पर 'अन' जोड़ने से 'ल्युट' प्रत्ययान्त शब्द बन जाते हैं। जैसे-गम् > गमनम्, पठ् > पठनम्, पा > पानम्, रुद्> रोदनम्, गै> गानम्, ध्य>ध्यानम्, लिख्>लेखनम्, दृश् > दर्शनम्, रम् रमनम् ( रमना), करणम्, ग्रहणम्, स्मरणम्, भक्षणम्, शानम् (शा-जानना ) / 'घ' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम-(१) धातु के अन्तिम स्वर (इ, उ, पा) को वृद्धि तथा उपधा के अ, इ, उ, ऋ को गुण / जैसे-- (घ) न (अ)- यज्ञः, प्रश्नः यत्नः / (ङ) कि. (इ)-प्रधिः, जलधिः / (च) क्वि (लोप)-सम्पद, प्रतिपद्, परिषद् / (क) युच्' (अन)-धारणा, वेदना, वन्दना / (ज) अ-चिकीर्षा, पिपासा, बुभुक्षा। (झ) घ" (अ)आकरः, आपणः (ब) खल' (अ)-सुकरः (सुखेन कर्तुं योग्यः ), दुष्करः, दुर्लभः। 1. (क) 'स्युट्' प्रत्ययान्त शब्द नपुं० होते हैं / इनके रूप 'शाम' शब्द की तरह नलेंगे। (ख) करण और अधिकरण अर्थ में भी 'ल्युट्' प्रत्यय होता है। जैसे यानम् (जिससे जाते हैं, सवारी), स्थानम् (जहाँ बैठते हैं)।। (ग) 'पजन्त' शब्द पुं० होते हैं / इनके रूप 'राम' की तरह चलते है। (घ) इन प्रत्ययों के साथ कर्म में अथवा कर्ता में षष्ठी होती है। जैसे भोजनस्य पाकः त्यागो वा / शिशोः शयनम् / (ङ) 'क्तिन्' प्रत्ययान्त शब्द स्त्री होते हैं। इनके रूप 'मति' की तरह चलते हैं। 1. यजयाचयतविच्छाच्छरक्षो न / अ० 3. 3.60. 2. उपसर्ग घोः किः / कर्मण्यधिकरणे च / अ० 3.3.62-63. 3. सम्पदादिभ्यः क्विप् / क्तिनपीष्यते (वा०)। 4. ण्याराधन्थो युच् / अ० 3.3.107; घट्टिवन्दिविदिभ्यश्चेति वाच्यम् (वा०)। 8. अ०३.३.१०२-१०३. 6. अ० 3.3.118-116. 7. ईषदुःसुषु कृच्छार्थेषु खल / अ० 3.3 126. 8. करणाधिकरणयोश्च / अ० 3.3.117. *9. पतॄकर्मणोः कृति / उभयप्राप्ती कर्मणि / अ० 2.3.65-66. चतुर्थ अध्याय तद्धित-प्रत्यय ( Secondary-Suffixes ) 1. प्रातिपदिकों (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि) में जिन प्रत्ययों को जोड़कर पिसी विशेष अर्थ को प्रकट किया जाता है उन्हें 'तद्धित' (तत् + हितगतेभ्यः प्रयोगेभ्यः हिता इति तद्धिता-जो विभिन्न प्रयोगों के काम आवें) प्रत्यय कहते हैं। इनके जुड़ने पर बनने वाले संज्ञादि शब्द ( सुवन्त ) तद्धितान्त कहलाते हैं। 2. तद्धितान्त शब्द प्रातिपदिक से बनकर पुनः प्रातिपदिक रूप ही होते हैं, अतः इनसे अवयवार्थ के अतिरिक्त एक विशिष्ट समुदायार्थ की भी प्रतीती होती है। 3. 'कृत्' और 'तद्धित' में अन्तर --यद्यपि कृत्' और 'तद्धित' प्रत्ययों से मंज्ञादि 'सुबन्त' शब्द ही प्रायः बनते हैं और उनमें 'सुप' आदि विभक्तियाँ जुड़ती हैं, परन्तु 'कर' प्रत्यय केवल धातुओं से और तद्धित' प्रत्यय केवल प्रातिपदिकों से होते हैं। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1: व्याकरण संस्कृत-प्रवेशिका (4: तद्धित-प्रत्यय तद्धित' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम'-(१) तद्धित' प्रत्ययों में जो ण, क्, आदि अनुबन्ध लगाये जाते हैं उनका लोप हो जाता है। अतः ये 'णित', 'कित्' आदि संज्ञा वाले कहलाते हैं। (2) 'मित', 'णित' और 'कित' संशावाले प्रत्ययों के जुड़ने पर प्रातिपदिक के प्रथम स्वर में वृद्धि होती है। जैसे-शिव + अण् - शैवः, वर्षा +ठक (इक)- वार्षिकः / (1) अपत्यार्थक ( Son or descendent of)-इन, अण और ढक' अपत्य ( सन्तान-पुत्र या पुत्री) अर्थ में इन् (1), अण् (अ) और हक् (एय) प्रत्यय होते हैं। इन प्रत्ययों के जुड़ने पर किसी के पुत्र या पुत्री का बोध होताहै। किसी वंश या गोत्र में उत्पन्न पौत्र आदि के लिए भी अपत्य शब्द का प्रयोग होता है। (क निम्न स्थानों में 'इञ्' (इ) प्रत्यय होता है 1. [कुछ शब्दों को छोड़कर प्रायः सभी अकारान्त शब्दों से / जैसे-दशरथ +इ-दाशरथिः (दशरथस्य अपत्यं पुमान् दाशरथिः- दशरथ का पुत्र, राम: दक्ष> दाक्षिः; द्रोण>द्रौणिः ( अश्वत्थामा ); सुमित्रा>सौमित्रिः (लक्ष्मण विदेह>वैदेही (सीता)। 2. बाहु आदि शब्दों से / जैसे-बाहु>वाहविः (बाहोरपत्यं पुमान्); उडुलोच >औडुलोमिः (उडूनि नक्षत्राणीव लोमानि यस्य स उडुलोमः, तस्य अपत्यं पुमान्) / (ख) निम्न स्थानों में 'अण्' (अ) प्रत्यय होता है 1. ऋषि ( मन्त्र-द्रष्टा), अन्धकवंशी (यादव), दृष्णिवंशी ( अहीर ) और कुरुवंशी से। जैसे-वसिष्ठ+अण्-वासिष्ठः ( वसिष्ठस्य अपत्यं पुमान् ) विश्वामिष>वैश्वामित्रः; वसुदेष>वासुदेवः (कृष्ण); अनिरुद्ध>ओनिडर यदु>यादवः; कुरु>कौरव ; पृथा ( कुन्ती)>पार्थः; रघुराधवः; नकुल) नाकुलः; कश्यप>काश्यपः पुरु>पौरवः पाण्डु>पाण्डवः / / 2. 'शिव' आदि शब्दों से-शिव>सवः; गङ्गा>गाङ्गः, विष्णु>वैष्णवः। 3. अश्वपति आदि (शतपति, धनपति, गणपति, राष्ट्रपति, कुलपति, गृहपति, पशुपति, धान्यपति, धन्वपति, सभापति, प्राणपति और क्षेत्रपति ) शब्दों सेअश्वपति> आश्वपतम्; राष्ट्रपति> राष्ट्रपतम्; गृहपति >गाहयतम् / 4. 'मातृ' शब्द से ( यदि उसके पूर्व संख्या, सम् वा भद्र पद हो)-द्विमातृ +अण् = द्वैमातुरः (योर्मातोरपत्यं पुमान् ); षण्मातृ>याण्मातुरः (षषणां मातृणामपत्यं पुमान् शिवजी का ज्येष्ठ पुत्र, कुमार); भद्रमातृ>भाद्रमातुर (भद्रमातुरपत्यं पुमान् - अच्छी माता की सन्तान); संमातृ>सांमातुरः। 5. कन्या शब्द से ( कन्या को 'कनीन' आदेश होगा)-कन्या>कानीर 1. अन्य स्मरणीय नियम-(क) (युवोरनाको / ठस्येकः / अ०७.१.१७.३.५०/ प्रत्यय के यु>अन; बु>अक; ठ>इक में बदल जाते हैं। जैसे-सायं +त् +ट्युल (अन)सायन्तनम्; शिक्षा+बुन -शिक्षकः, अस्ति+ठक (इक)आस्तिकः ( अस्ति परलोकः इत्येवं मतिर्यस्य सः)। (ख) (आयनेयीनीयियः फढखछषां प्रत्ययादीनाम् / अ०३.१२)- प्रत्यय के आदि में स्थित फ>आयन्: >एयः स्>ईन्; छ> ईय् घ>इय् में बदल जाते हैं / जैसे--युष्मद् + छ (ईषु )- युष्मदीयः, अस्माक+खन (ईन् ) आस्माकीनः, वाराणसी+ ढक्% वाराणसेयम्, ग्राम + खञ्-ग्रामीणः, राष्ट्र +घ राष्ट्रियः / 2. अपत्य अर्थ में कुछ अन्य प्रत्यय-(क) यत् (य)-राजन् और श्वशुर शब्दों से। जैसे-राजन + यत् - राजन्यः (राजवंश बाले, क्षत्रिय जाति ), श्वशुर >श्वर्यः (साला)। (ख) ण्य (य)-दिति, अदिति, आदित्य, पति आदि शब्दों से / ' 'णित होने से आदि स्वर में वृद्धि होगी। रूप रामवत् चलेंगे। जैसे—दिति + ण्य - दैत्यः, अदिति >आदित्यः, प्रजापति >प्राजापत्यः / (ग) ब (य)-गर्ग आदि शब्दों से। जैसे-गर्ग >गार्यः, वत्स>वात्स्यः, कुरुकौरव्यः, निषध>नैषध्यः / (घ) घ (इयू) क्षत्र शब्द से / ' जैसे-क्षत्र > क्षत्रियः / (5) ठक् ( इक )-रेवती. 1. तद्धितेष्वचामादेः / किति च / अ०७.२.११७-११८. 2. तस्यापत्यम् / अ०४.१.६२. 3. अपत्यं पौत्रप्रभृति गोत्रम् / अ० 4.1.162.. 4. राजश्वशुराद्यत् / अ०.४.१.१३७, राज्ञोजातावेवेति वाच्यम् ( वा०)। 5. दित्यदित्यादित्यपत्युत्तरपदाण्ण्यः / कुरुनाऽऽदिभ्यो प्यः / 4.1.85, 172. 6. गर्गाऽऽदिभ्यो यज् / अ० 4.1.105. 7. क्षत्राद् घः / अ० 4.1.138. आदि शब्दों से। जैसे-रेवती > रवतिकः / (च) अञ् (अ)-पुत्र >पौत्रः, पञ्चाल>पाञ्चालः / / 1. 'अण्' का अपत्य से अन्य अर्थों में भी प्रयोग होता है। देखें, पृ०५७। 1. रेवत्यादिभ्यष्टक् / अ० 4.1.146. 2. अनुष्यानन्तये विदादिभ्योऽञ् / जनपदशब्दात् क्षत्रियादम् / अ०४.१.१०४,१६८. 3. अत इञ् / अ० 4.1.65. 4. बाह्वादिभ्यश्च / 04.1.61. 5. ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च / अ० 4.1.114 / 6. शिवादिभ्योऽण / अ० 4.1.112 / 7. अश्वपत्यादिभ्यश्च / अ० 4.1.84 / 8. मातुरत्संख्यासंभद्रपूर्वायाः / अ० 4.1.115 / 9. कन्यायाः कनीन च / अ० 4.1.116 / अवेद में कनीन शब्द भी है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.] संस्कृत-प्रवेशिका [4: तद्धित-प्रत्यय ' (कन्यायाः अपत्यं पुमान् व्यासः कर्णश्च / / नोट-प्रायः 'इन्' से अतिरिक्त स्थलों में 'अण्' प्रत्यय होता है। ( निम्न स्थलों में 'ढ' (एय) प्रत्यय होता है 1. स्त्रीलिङ्ग (स्त्री-प्रत्ययान्त ) प्रातिपदिक शब्दों से [ कुछ को छोड़कर ]" जैसे-कुन्ति + ढक्-कौन्तेयाः (युधिष्ठिर आदि / एकवचन में 'कौन्तेयः' होगा)। माद्री माद्रेयौ ( माद्री के पुत्र नकुल और सहदेव / एकवचन में 'माद्रेयः' होगा)। राधा राधेयः ( कर्ण), द्रौपदी>द्रौपदेयः, गङ्गा>गाङ्गेयः, विनता>वैनतेयः (गण्ड़, भगिनी भामिनेयः (भगिन्या अपत्यं पुमान् भानजा), ताडका> ताडकेयः, सरमा सारमेयः, रोहिणी रोहिणेयः / 2 शुभ्र आदि से / जैसे-शौभ्रेयः (शुभ्रस्यापत्यम् पुमान्), अत्रि >आत्रेयः, शकुनि >णाकुनेयः, इतर>ऐतरेयः, मृकण्ड>मार्कण्डेयः, पाण्डु>ण्डवेयः / 3. अन्य उदाहरण-मण्डूक>माण्डूकेयः, प्रवाहण>प्रावाहणेयः प्रवाहणेयः वा, कल्याणी>काल्याणिनेयः, बन्धकी>बान्धकिनेयः, कुलटाकोलटेयः कोलटिनेयः वा, सुभगा>सौभागिनेयः / 'इ' 'अण्' और ढक्' प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम' (1) णित्, कित एवं मित् होने से शब्द के आदि स्वर को वृद्धि (अ>आ। ईऐ उऊ>औ। ऋ आर)। (2) शब्द का अन्तिम स्वर यदि अ, आ, इ, ई हो तो उसका लोप और यदि उ, ऊ, ओ, औ हो तो गुण और अवादेश। (2) तुलनार्थक - अतिशयार्थक ( Degree)-तरप्, तमप, ईयसुन्, इष्ठन् जब दो कि तुलना (Comparative degree ) में किसी एक का उत्कर्ष अथवा अपकर्ष बतलाया जाता है तो विशेषण में 'तरम्' ( तर ) और 'ईयसुन्' ( ईयस् ) प्रत्यय होते हैं / जब दो से अधिक की तुलना ( Superlative degree) की जाती है तो 'तमप्' (तम) और 'इष्ठन्' (इष्ठ ) प्रत्यय होते हैं। सरप और तमप् प्रत्यय सभी विशेषणों में तथा ईयसुन् और इण्ठन् केवल गुणवाची विशेषणों में जुड़ते है। नोट-दो कि तुलना में जिससे विशेषता बतलाई जाती है, उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है / जैसे- गणेशः श्यामात् पटुतरः (अयमनयोरतिशयेन पटुः पटुतरः) 1. 'अण्' और 'क्' प्रत्ययान्त शब्दों के रूप में पुं० में 'राम' और स्त्री० में ('6' जोड़कर ) 'नदी' की तरह चलेंगे। 'इन्' प्रत्ययान्त शब्दों के रूप पुं० में 'हरि' ' और स्त्री० में 'नदी' की तरह चलेंगे। 1. श्रीभ्यो ढक् / अ० 4.1.120 / 2. सुनादिभ्यश्चम० 4.1.123 / 3. अतिशायने तमविष्टनी। द्विवचनविभव्योपपदे तरधीयसुनी / 05.3.55.57. 4. अजादी गुगवचनादेव / अ०१.३.१८. तरप्, तमम् ] 1: व्याकरण [ 51 पटीयान् वा। दो से अधिक की तुलना में पड़ी या सप्तमी विभक्ति होती है। 'जैसे-कवीनां कविषु वा कालिदासः पटुतमः (अयमेषामतिशयेन पटुः) पटिष्ठो वा। (क) 'तरप्' और 'तमप्' प्रत्ययान्त रूप-इनके रूप पुं० में, 'राम', स्त्री० में 'लता' और नपुं० में 'ज्ञान' की तरह चलेंगे। जैसे-पटु+तरप् (तर)-पटुतर> पटुतरः (पु.), पटुतरा ( स्त्री०), पटुतरम् (नपुं०)। पटु + तमप् (तम)पटुतमः (पुं०), पटुतमा ( स्त्री०), पटुतमम् ( गपुं०)। अन्य उदाहरण (क्रमशः) पुं० में-लघु>लघुतरः, लघुतमः / चतुर> चतुरतरः, चतुरतमः / मृदु>मृदुतरः, मृदुतमः / गुरु >गुरुतरः, गुरुतमः / प्रिय> प्रियतरः, प्रियतमः (स्त्री० प्रियतमा)। दृढ>दृढतरः, दृढतमः / कृश>शतरः, कृशतमः / शुक्ल>शुक्लतरः, शुक्ल तमः / बृहद>बृहत्तरः, बृहत्तमः / महव> महत्तरः, महत्तमः / विद्वस् >विद्वत्तरः, विद्वत्तमः / धनवत् > धनवत्तरः, धनवत्तमः / प्राचीन>प्राचीनतरः, प्राचीनतमः / नवीन>नवीनतरः, नवीनतमः / (ख) 'ईयसुन्' और 'इष्ठन्' प्रत्ययान्त रूप-ईयसुन ( ईयस् ) प्रत्ययान्त पशब्दों के रूप पुं० में 'श्रेयस्', स्त्री० में नदी' और नपुं० में 'मनस्' की तरह चलेंगे। इष्ठन् ( इण्ठ ) प्रत्ययान्त शब्दों के रूप पुं० में 'राम'; स्त्री० में 'लता' और नपुं० में 'ज्ञान' की तरह चलेंगे। जैसे-पटु + ईयसुन् (ईयर )-पटीयस्> पटीयान् (पुं०), पटीयसी (स्त्री)। पटु + इष्ठन् ( इष्ठ )-पटिष्ठ> पटिष्ठः (पुं०), पटिष्ठा (स्त्री) पटिष्ठा (नपुं०)। अन्य उदाहरण (क्रमशः) पुं० में-लघु ( लघु )> लघीयान्, लधिष्ठः / गृदु ( प्र )> नदीयान्, अदिष्ठः- गुरु (गर् )>गरीयान्, गरिष्ठः / दृढ (ढ) >दीवान्, इदिष्ठः / कृश (क्रह:>शीवान्, ऋशिष्ठः / उरु ( ब )> परीयान्, वरिष्ठः / प्रशस्य (श्र>धेयान्, श्रेष्ठः / प्रशस्य (ज्य >ज्यायान (यसुन् की '6' को 'आ' हुआ), ज्येष्ठः / युवन् ( कन् )>कनीयान्, कनिष्ठः / गान ( यव् )>पवीयान्, यविष्ठः / प्रिय (प्र)>प्रेयान् ( स्त्री प्रेयसी), प्रेष्ठः / दी (द्रा )>दापीयान्, द्राषिष्ठः / बलिन् (बल् )>वलीयान्, बलिष्ठः / समर ( स्थ)>स्थेयान, स्येष्ठः / वाढ ( साधू )>साधीयान्, साधिष्ठः / स्थूल (प )>पीयान्, स्थविष्ठः / महत (मह)>महीयान्; महिष्ठः / बहु (भू) 1- भुवान् (प्रत्यय के 'ई' का लोप), भूयिष्ठः (प्रत्यय के '' का लोप तथा 'यि' भागम) / वृद्ध (ज्य)>ज्यायान् (ईयसुन् के '6' को 'आ'), ज्येष्ठः / वृक्ष (वर्ष)> मामिान्. वषिष्ठः / दूर (द )>दवीयान्, दविष्ठः / अन्तिक ( नेद् )>नेदीयान्, गादतः / शुद्र (क्षोद )>क्षोदीवान्, शोदिष्ठः / हस्व (हस् )>हसीयान्, मिठ: / क्षिप्र (क्षेप )>क्षेपीयान्, क्षेपिष्ठः / गगुन्' और 'इछउन्' प्रत्यय-जोड़ते समय स्मरणीय नियम Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . संस्कृत-प्रवेशिका [4 : तद्धित-प्रत्यय (1) शब्द के अन्तिम स्वर का लोप होता है। जैसे--- लघु>लघु / (2) शब्द के अन्तिम व्यजन का तथा उसके पूर्ववर्ती स्वर का लोप होता है। जैसे महत >मह / (3) अजन से प्रारम्भ होने वाले 'मृदु' आदि शब्दों की 'ऋ' को 'र' होता है / (4) 'गुरु' को 'गर' आदेश होता है। (5) 'स्थूल, दूर, युवन् ह्रस्व, क्षिप्र, क्षुद्र' इनमें अन्तःस्थितः 'य वर्ल' अंश का लोप होता है तथा तत्पूर्ववर्ती स्वर को गुण / (6) अन्य आदेश उदाहरणों में देखें / / (3) भावार्थक ( Abstract nouns )-त्व, तल, इमनिच भाववाचक संज्ञा (हिन्दी में जिसे 'पन' जोड़कर और अंग्रेजी में 'Ness' जोड़कर प्रकट करते हैं ) बनाने के लिए 'स्व', तल' (ता) और 'इमनिच् . (इमन ) प्रत्यय होते हैं। ' (1) त्व' प्रत्ययान्त शब्द सदा नपुं० होते हैं और उनके 1. भावार्थक कुछ अन्य प्रत्यय-(क) व्यज (य)-गुणयाचक और ब्राह्मण आदि शब्दों से 'व्यम्' प्रत्यय होता है / ये नपुं० ही होते हैं / इसके जुड़ने पर अंतिम 'अ' स्वर का लोप होता है तथा आदि स्वर को वृद्धि होती है। जैसेमधुर ध्यन् (य)-माधुर्यम्, चतुर>चातुर्यम्, शीत > शैत्यम्, क्रूर>क्रौर्यम्, पणित>पाण्डित्यम्, निपुण>नैपुण्यम्, चपल > चापल्यम्, विदग्ध वैदग्ध्यम्, विद्वस् >वैदुष्यम्, शूर> शौर्यम्, सुन्दर सौन्दर्यम्, ब्राह्मण>प्राह्मण्यम्, धीर> धैर्यम्, सुख>सौख्यम्, कवि> काव्यम्, शुक्ल > शौक्ल्यम् / (ख) य-यह सखि शब्द से भाव और कर्म अर्थ में होता है। जैसे-सखि सख्यम् ( सख्युः कर्म भावो वा-मित्र का कार्य और भाव मित्रता)। (ग) थक् (य)भाव और कर्म अर्थ में पति शब्द जिनके अन्त में हो उनसे तथा पुरोहित आदि शब्दों से। जैसे-सेनापति सैनापत्यम्, पुरोहित पौरोहित्यम्, (पुरोहित का काम या भाव)।(घ) ढक (एय)-कपि और ज्ञाति शब्दों से भाव और कर्म अर्थ में कपिकापेयम्, ज्ञाति जातेयम् / (क)अण (अ)-युवन् >यौवनम्, विहायन>हायनम्, स्थविर स्थाविरम्, कुशल> कौशलम्, मुनि >मौनम्, सुहृद् सौहार्दम्, पटु>पाटवम् / 1. देखें, सिद्धान्तकौमुदी 'तद्धितेषु प्रागिवीय' प्रकरण पृ० 366-368. 2. तस्य भावस्त्वतलौ / पृथ्वादिभ्य इमनिज्वा / अ० 5.1.116, 122. विशेष के लिए देखें, सिद्धान्तकौमुदी 'तद्धितेषु भावकर्थािः ' पृ० 344-346. 3. वर्णदृढादिभ्यः व्यञ् च / गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च / 105.1.123124 / 4. सख्युर्यः / अ०५.१.१२६. 6. पत्यन्तपुरोहितादिभ्यो यक् / अ० 5.1.128. 6. पिज्ञात्योर्डक् ।अ०५.१.१२७. 7. हायनान्तयुवादिभ्योऽण् / इगन्ताच्च लघुपूर्वात् / अ० 5.1.130-131.. स्व, तल्, मतुप् ] 1: व्याकरण रूप ज्ञान की तरह बनते हैं। (2) 'तल्' प्रत्ययान्त शब्द सदा स्त्री होते हैं और उनके हा 'लता' की तरह बनते हैं। (3) 'इमनिच्' प्रसयान्त शब्द सदा पुं. होते हैं और उनके रूप 'महिमन्' की तरह बनते हैं। (क) 'स्व' (त्यम्) और 'तल्' (ता) प्रत्ययान्त रूप (क्रमशः)-गुरु> -गुरुत्वम्, गुरुता ( भारीपन या बड़प्पन ) / लघु> लघुत्वम्, लघुता (हल्कापन या 'छोटापन)। शुक्ल > गुक्लत्वम्, शुक्लता। शिशु>शिशुत्वमा शिशुता। मनुष्य > मनुष्यत्वम्, मनुष्यता / दीन>दीनत्वम्, दीनता / जड>जडत्वम्, जडता / मधुर> मधुरत्वम्, मधुरता / हीन>हीनत्वम्, हीनता / महद >महत्त्वम्, महत्ता। मुर्ख> मूर्खत्वम्, मूर्खता / विद्वस् (विद्वत् )>विद्वत्त्वम्, विद्वत्ता। दृढ> दृढत्वम्, दृढता / खिन्न>खिन्नत्वम्, खिन्नता / पटु>पटुत्वम्, पटुता / दुष्ट > दुष्टत्वम्, दुष्टता। (ख) 'इमनिन्' ( इमन्>इमा)प्रत्ययान्त रूप-वर्णवाची (नील, शुक्ल -आदि ), 'दृढ' आदि तथा 'पृथु' आदि शब्दों में इभनिच् प्रत्यय होता है। जैसे- मधुर+इमनि - मधुरिमन् - मधुरिमा ( मधुरस्य भावः) / शुक्ल >शुक्लिमा (शुक्लस्य भावः) / दूढ>ढिमा ( दृढस्य भावः) / पृथुप्रथिमा ( पृथोविःविशालता)। मृ>म्रदिमा ( मृदोर्भावः-मृदुता ) / गुरु गरिमा। महत > महिमा / तनु>तनिमा / काला>कालिमा। रक्त रक्तिमा। लाल > लालिमा / लघु> नचिमा। उष्ण उष्णिमा। शीत> शीतिमा। वक्र >यक्रिमा। बहु> बहिमा / अणु> अणिमा, चण्ड> वण्डिमा / नोट-'इमनिच्' में 'ईयसुन्' और 'इष्ठन्' के नियम 1 से 4 लरेंगे। (4) मत्वर्थीय- अस्त्य र्थक ( Possession)--'मतुप्' और 'इनि'1 किसी वस्तु का स्वामी होना (जिसे हिन्दी में 'बान्' अथवा काला'-युक्त शब्द के द्वारा प्रकट किया जाता है ) अर्थ में 'मतुप्' (मत या यत् ) और 'इनि' (इन् ) प्रत्यय होते हैं। जैसे-बुद्धि + मतुप्- बुद्धिमत् (नपुं०), बुद्धिमान् 1. ग्राम, जन, बन्धु, गज, और सहाय शब्दों से समूह अर्थ में भी 'तल' (ता) प्रत्यय जुड़ता है। जैसे-ग्राम > ग्रामता.(गाँवों का समूह), बन्धुता, जनता, सहायता। 2. मस्वयि कुछ अन्य प्रत्यय-(क) ठन (इक)-अकारान्त और बीहि आदि से दण्ड> दण्डिकः (पुं०), माया>मायिकः, धन>धनिकः, केश> केशिकः, ब्रीहि>नीहिकः। (ख) विनि (विन -माया आदि शब्दों सेमाया>मायाविन्>मायावी (पुं०), मायाविनी (स्त्री०)। यशस्> यशस्वी, मेधा>मेधावी, स्र>स्रग्बी। 1. तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप / अत इनिठनौ / ब्रह्मादिभ्यश्च / अ०५.२.६४, 115-116 तथा लघु-सिद्धान्तकौमुदी 'तद्धितेषु मत्त्वर्थीय' प्रकरण, पृ०६४। 2. वही। 3. अस्मायामेधास्रजो विनिः / अ०.५.२.१२१ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [४:तद्धित-प्रत्यय तसिल, प्रल, दा] 1. व्याकरण [ 55 (0, बुद्धिवाला या बुद्धि से युक्त ), बुद्धिमती ( स्त्री०) / गो + मतुप् = गोमत, गोमान्, गोमती / सुख + इनि-सुखिन् >सुखी (पु.), मुखिनी (स्त्री०)। नोट-मत्वर्थीय का अर्थ दो प्रकार से किया जाता है-(१) तद् अस्य अस्ति (वह इसका है या इसके पास है ) और (2) तद् अस्मिन् अस्ति (वह इसमें है)। जैसे-गोमान् - 'गावः अस्य सन्तीति गोमान्' ( गायें जिसके पास हैं वह पुरुष ) अथवा 'गायः अस्मिन् सन्तीति गोमान् (जहाँ गायें है, वह प्रदेश)। शानी-ज्ञानमस्यास्तीति ज्ञानी-(शानवान् -ज्ञानवाला)। (क) 'मतुप' (मत् या बत् ) प्रत्ययान्त रूप-'मतुप' प्रत्ययान्त शब्दों के रूप पु. में 'भगवत्', स्त्री० में 'मदी' तथा न' में 'जगत्' का सरह बनेंगे। जैसे(क्रमशः तीनों लिङ्गों में) श्री>श्रीमद, श्रीमान् (श्रीरस्यास्तीति), श्रीमती। मति>मतिमत्, मतिमान्, गतिगती। धी>धीमद, धीमान, धीमती। साधु> साधुमत, साधुमान्, साधुमती। वधू>वधूमद, बधूमान् वधूमती / गरुत्>गरुत्मत, गरुत्मान् (मरुत् = पक्ष जिसके हैं अर्थात् पक्षी)। धन >धनवद, धनवान् धनवती। गुणगुणवत्, गुणवान्, गुणवती। यशस् >यशस्वत्, यशस्वान्, यशस्वती / लक्ष्मी> लक्ष्मीवत्, लक्ष्मीवान, लक्ष्मीवती / अर्थ > अर्थवत्, अर्थवान् ( धनवान् ), अर्थवती। शान शानवत्, ज्ञानवान्, ज्ञानवती। बल बलवद, बलवान्, बलवती। क्षमा> क्षमावत्, क्षमावान्, क्षमावती। विद्या विद्यावत्, विद्यावान, विद्यावती / पयस्> पयस्वत्, पयस्वान्, पयस्वती। भास्>भास्वद, भास्वान्, भास्वती। नोट--यदि शब्द के अन्त में या उपधा में 'अ', 'आ' या 'म' हो तो 'मत' को 'वत्' होता है। परन्तु भूमिमान्, यवमान्. कृमिमान् और उर्मिमान में नहीं हुआ। (ख) इनि (इन्) प्रत्ययान्त रूप-अकारान्त और वीहि आदि शब्दों से 'इनि' प्रत्यय होता है। इनके रूप पुं० में 'करिन्' और स्त्री० में 'नदी' की तरह बनेंगे। जैसे-दण्ड> दण्डिन् >दण्डी (पुं०), दण्डिनी (स्त्री०)। सुख>सुखिन >सुखी (पुं०), सुखिनी (स्त्री०)। ज्ञान >शानिन् (शानी), धन >धनिन् (धनी), मावा>मायिन ( माथी ), शिखा शिखिन् (शिखी), धर्म धर्मिन् (धर्मी), दन्त>दन्तिन् ( दन्ती), अर्थ> अधिन् ( अर्थी याचक), विवेक> विवेकिन (विवेकी), उत्साह > उत्साहिन् ( उत्साही), प्रणय > प्रणयिन् (प्रणयी)। (5) विभक्त्यर्थक ---तसिल, बल, ह और अत् पञ्चमी आदि विशक्तियों का अर्थ 'श्रकट करने के लिए कुछ शब्दों से 'तसिल्' आदि प्रत्यय होते हैं। जैसे (क) पञ्चम्यर्थक तमिल्' (तस्)"-'किम्' आदि सर्वनाम शब्दों से तथा 1. वही। 2. देखें, लघुसिद्धान्तकौमुदी 'तद्धितेषु प्राग्दिशीयाः' प्रकरण / 3. पञ्चम्यास्तसिन् / पर्यभिभ्यां च / 'अ० 5.3.7, 6. परि और अभि से 'लसिल्' प्रत्यय पञ्चमी के अर्थ में होता है। जैसे-किम् (क) >कृतः (कस्मात् = किससे), इदम् (इ)>इत: (अस्मात् - इससे ), एतर (अ)>अतः ( एतस्मात् = इससे ), अदस् ( अमु )> अमुतः (अमुष्मात् उससे); यत् >यतः ( यस्मात् -जिससे ), बहु>बहुतः (बहोः बहुतों से), परि>परितः (सब ओर ), सर्व> सर्वतः ( सर्वस्मात् ), उभग > उभयतः, अभि> अभितः (दोनों ओर से)। अन्य उदाहरण-विश्वतः, एकतः, अन्यतः, पूर्वतः ( अग्रतः, दक्षिणतः, उत्तरतः, मत्तः ( मुझसे), त्वत्तः (तुझये), अस्मत्तः (हमसे), युष्मत्तः (तुमसे), इतः / / (ख) सप्तम्यर्थक 'त्रल' () प्रत्यय-'किस्' आदि शब्दों से सप्तमी के अर्थ में बल् (त्र) प्रत्यय होता है। जैसे-किम् (कु)>कुत्र ( कस्मिन्-किसमें, कहाँ ), यत् >यत्र ( यस्मिन् - जिसमें, जहाँ ), तत् >तत्र (तस्मिन् = उसमें, वहाँ), बहु> बहुत्र (बहुषु - बहुतों में), एतद् (अ)> अत्र (एतस्मिन्) / अन्य उदाहरणउभयत्र, एकत्र, सर्वत्र, अन्यत्र, परत्र, अपरत्र / (ग) सप्तम्यर्थक 'ह' और 'अत्' (अ) प्रत्यय -इदम् (इ)+ह-इह (बस्मिन् - इसमें, यहाँ ) / किम् ( क्व) + अत् - क्व ( कुत्र = कहाँ)। - (6) कालाद्यर्थक-दा, हिल, थाल और थमु (क) दा-सतम्यन्त सर्व आदि शब्दों से समय अर्थ में / जैसे- सर्व+दा = सर्वदा ( सर्वस्मिन् काले-सब समय), सर्व (स)+ दा-सदा ( सर्वस्मिन् काले), एक> एकदा (एकस्मिन् काले एक समय), किम् (क) >कदा (किस समय), य>यदा, तत्>तदा, अन्य > अन्यदा। (ख) हिल (हि)-सप्तम्यन्त से काल अर्थ में -'इदम् ( एत)>एतहि ( अस्मिन् काले- इस समय, अब / एतहि के स्थान पर 'अधुना' और 'इदानीम्' का भी प्रयोग होता है) किम् (क)> कहिं ( कदा, कस्मिन् काले), बत् >यहि (यदा, यस्मिन् काले), तद>तहि (तदा ), एतद् (एत् )>एतहि ( एतस्मिन् काले। इदम् से भी यही रूप बनता है)। (ग) थाल (था)-प्रकार अर्थ में। जैसे-तद् (त)>तथा (तेन प्रकारेण- उस प्रकार से ), यत् >यथा (येन प्रकारेण जिस प्रकार से), सर्वथाः उभयथा, अन्यथा / (घ) थमु (थम्)-प्रकार अर्थ में इदम्, एतद् और किम् 1. सप्तम्याखल् / अ०५.३.१०. . 2. इदमो हः / किमोऽत् / क्वाऽति / अ०५.३.११, 12, 7.2.105 / 3. सर्वैकाऽन्यकियत्तदः काले दा। अ० 5.3.15. .4 इदमो हिल् / अनद्यतने हिलन्यतरस्याम् / अ०५.३.१६५.२.२१. 5. अधुना / दानीं च। अ०५.३.१७-१८. 6..प्रकारवचने थाल् / अ०५.३.२३.. 7. इदमस्थमुः / किमश्च / 05.3.24,35 / एतदोऽपि वाच्यः (वा०)। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [4 : तद्धित-प्रत्यय धा, मानव, वति ] 1: व्याकरण [ 57 सब्दों से थमु ( थम्)। जैसे-इदम्, एतद् >इत्थम् ( अनेन एतेन वा प्रकारेण इस प्रकार से ), किम् >कथम् ( केन प्रकारेण ) / (7) विभिन्नार्थक विविध प्रत्यय-धा, मात्रच्,बति, च्चि, तीय आदि / (1) प्रकारार्थक 'धा-संख्यावाची शब्दों से। जैसे-एक >एकधा (एक प्रकार से), विधा, विधा, चतुर्धा, पञ्चधा, शतधा, सहस्रधा, बहुधा (प्रायः, अनेक बार)। (2) प्रमाणार्थक 'मात्रच्' (मात्र)-नाप, तौल आदि अर्थों में। जैसे-मुष्टिनात्रम् (मुट्ठीभर ), हस्तमात्रम्, कटिमात्रम्, जानुमात्रम् / (1) सादृध्यार्थक 'वति' (वत् --क्षत्रियवत् (क्षत्रिय के समान ), ब्राह्मणवत् / (4) अभूततद्भावार्थक 'च्चि' (ई)-किसी वस्तु को रस प्रकार का बना देना या उसका वैसा हो जाना, जैसी वह पूर्व में न हो। जैसे-शुक्ल +यि+करोति - शुक्लीकरोति ( अशुक्ल शुक्लरूपेण संपद्यमानं करोति - जो शुक्ल नहीं है वह उसे शुक्ल बनाता है), कृष्णीकरोति, उत्तरलीकरोति (चञ्चल बनाता है), ब्रह्मीस्वति, अग्नीभवति, मुखरीकरोति, मूकीकरोति / (5) पूरणार्थक 'तीय', 'थुक्' (य), मट् (म)-किसी संख्या को पूरा करने वाला। जैसे-द्वितीयः, तृतीयः, तुर्थः पञ्चमः षष्ठः (विशेष के लिए देखें, पृ. 112 टि.)। (6) संख्या-समूह वाचक तयप्' (तय), 'अयच्' (अय), 'डट्' (अ)-संख्या सम्बन्धी समूह वर्य में-द्वि+अय-द्वयम्, द्वि+तय-द्वितयम् (द्वयम् - दो का समूह), त्रितयम् (त्रयम् ), चतुर+चतुष्टयम् / एकादशन् + डट् एकादशः। (7) प्रवचनार्थक छ। ईय )'-पुस्तक नादि के रचयिता के अर्थ में रचयिता के बाद / जैसेपाणिनि >पाणिनीयम् ( पाणिनिना प्रोक्तम् - पणिनि से प्रवचन किया गया व्याकरण ), पाणिनीया (अष्टाध्यायी), वाल्मीकीयम् (रामायण), कालिदासीयम् / (8) स्वार्षिक 'कन्' (क), अण् (अ)-रया में प्रत्यय होने से अर्थ में .द्धि नहीं होती। जैसे-अश्व + कन् (क) = अश्वकः ( अश्व एव / 'अश्व' से सादृश्य अर्थ में 'कन्' प्रत्यय होने पर भी 'अश्वकः' बनेगा, जिसका अर्थ होगा विश्व इव प्रतिकृतिः' ) / बन्धु + अण् - बान्धवः (बन्धुरेव ), देवता + अण् - देवतः 1. संख्याया विधार्थ धा / अ०५.३.४२. 2. प्रमाणे य० / अ० 5.2.37. 3. तेन तुल्यं क्रिया चेद्वति / तत्र तस्येव / अ०५.१.११५-११६. 4. कृभ्वस्तियोगे संपद्यकर्तरि च्चिः / अ०५. 4. 50. 5. नान्तादसंख्यादेमंट् / षट्-कति कतिपय-चतुरां थुक / द्वेस्तीयः / श्रेः सम्प्रसारणं च। अ०५.२.४६,५१,५४-५५. 6. संख्याया अवयवे तयप् / द्वित्रिभ्यां तयस्याऽयज्वा / तस्य पूरणे डट् / अ०५. 2. 42, 43, 48. 7. तेन प्रोक्तम् / अ०४. 3. 101 8. सर्व प्रातिपदिकेभ्यः स्वाय कन् (बा.)। प्रज्ञादिभ्यश्च / अ०५-४. 36. (देवता एव), प्रज्ञ + अण् = प्राज्ञः (प्रज्ञ एव)।(१) संजातार्थक 'इतन्' (इत् )-'इसके हो गये हैं। (बस्य संजातम् )- जो पहले नहीं थे वे अब इसके हो गये हैं। जैसे-तारका + इतच - तारकितम् (तारकित नभः - तरकाः संजाता अस्य-तारे इसके हो गये हैं अर्थात् जिसमें तारे निकल आये हैं ऐसा आकाशतारों से युक्त आकाश ), पण्डा+इतन् - पण्डितः ( पण्डा सदसदविवेकिनी बुद्धिः संजाला अस्य-जिसकी अच्छे-खराब को जानने की बुद्धि हो गई है-सदसदविवेक से युक्त)। पुष्णितः, रोमाञ्चितः, कुसुमितः, अङ्कुरितः, दुःखितः (दुखितम्, दुःखिता), पिपासा पिपासितः, क्षुधा>शुधितः / (6) 'अण' का अपत्य से भिन्न अर्थों में प्रयोग (क) समूहार्थ --काकानां समूहः - काकम् / (ख) देवतार्थ-विष्णुः देवता अस्य -वैष्णवः / (ग) सम्बन्धार्थ -देवस्य अयम् - देवः / (घ) रक्तार्थ -कषायेण रक्तं वस्त्रं काषायम् / (ङ) जातार्थ -मिथिलाया जाताः मैथिलः / (च) विकारार्थ'-गोधूमस्य विकारः गोधूमः; हैमः / (छ) कालार्थ'-पुष्य+ अण् - पौषः ( पोपी पूर्णमासी अस्मिन् इति ); चैत्रः (चित्रया युक्तः मासः)। (ज) भाव कर्म अर्थ -भुनेर्भावः कर्म वा मौनम्, शुर्भावः कर्म वा शौचम् ( स्वच्छता ) / (झ) आगतार्थ1-विदर्भादागतः वैदर्भः / (ज) प्रोक्तार्थ11मनु> मानवः, ऋषि> आर्षः (ऋषि-प्रणीत)। (ट) निवासार्थ -मुघ्नो निवासोऽस्य स्रौघ्नः / (8) अधीतार्थ18-व्याकरणम् अधीते वेद वा वैयाकरणः / 1. तदस्य संजातं तारकादिभ्य इतच् / अ५. 2. 36. 2. तस्य समूहः / म०४. 2. 37 / 3. सास्य देवता / अ०४.२.२४ / 4. तस्येदम् / अ०४. 3. 120 / 5. तेन रक्तं रागात् / अ०४. 2.1 / 6. तत्र जातः / अ० 4. 3. 25 / 7. तस्य विकारः / अ०४. 3. 134 / 8. नक्षत्रेण युक्तः कालः / अ० 4.2. 3; सास्मिन् पौर्णमासीति / अ०४.१.२१॥ 9. इगन्नाच्च लघुपूर्वात् / अ०५.१.१३१1 10. तत आगतः / अ० 4.3.74 / 11. तेन प्रोक्तम् / अ० 4. 3. 101 / 12. सोऽस्य निवासः / अ०४.३..5६। 13. तदधीते तद्वेद / अ०४. 2. 56 / Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 ] संस्कृत-प्रवेशिका टाप, की ] [5: स्त्री-प्रत्यय 1: व्याकरण पञ्चम अध्याय स्त्री-प्रत्यय ( Formation of feminine bases) पुल्लिङ्ग संज्ञाओं से स्त्रीलिङ्ग की संज्ञायें बनाने के लिए जिन प्रत्ययों को जोड़ा जाता है उन्हें स्त्री-प्रत्यय कहते हैं। ये आठ प्रकार के हैं जिन्हें दीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है (1) 'बा' वर्ग (टाप, डाप और चाप् / इनका 'आ' शेष रहता है)। (2) 'ई' वर्ग ( डीप्, की और डीन् / इनका 'ई' शेष रहता है ) / (3) अन्य (अङ्- ऊ और ति)। (1) 'आ' वर्ग (टाप, डाप और चाप् ) (क) टाप-प्रायः ह्रस्व अकारान्त शब्दों के बाद 'टाप्' (आ) प्रत्यय होता है। जैसे--अज + टाप् - अजा (बकरी), अश्व > अश्वा (घोड़ी), चटक >चटका (चिड़िया), बाल >बाला, वत्स>वत्सा, पुष्प>पुष्पा, कोकिल > कोकिला, क्षत्रिय क्षत्रिया, शूद्र> सूद्रा (शूद्र जाति / शूद्र + ङीष् - शूद्री शूद्र-पत्नी / महद शब्द के साथ डीए-महाशूद्री), साधक > साधिका, अध्यापक > अध्यापिका, मूषक>मूषिका, पुत्रक >पुत्रिका, अचला, कृष्णा, अनुकूला, कारक > कारिका (करने वाली), सरला, पाचिका, ज्येष्ठा, मध्यमा, कनिष्ठा, निपुणा, बालिका, गायिका, वैश्या, वृद्धवृद्धा, शङ्क>शङ्का, अश्वपालिका, कृपणा, दीमा, प्रथम> प्रथमा, द्वितीया, सर्व>सर्वा, गोपालक > गोपालिका,सुजघना, शूर्पणखा, गौरमुखा, कृष्णमुखा, सुकेशा, अकेशा आदि / नोट-शब्द के अन्त में 'अक' हो तो उसे 'इक' हो जाता है। परन्तु यदि 'अक' का 'क' किसी प्रत्यय का न होकर मूल शब्द का होगा तो उसे 'इक' नहीं होगा। जैसे---एडक>एडका (भेड़), नौ+क+टाप-नौका, बहुपरिव्राजक > बहुपरिव्राजका (बहुव्रीहि समास होने से 'सुप्' विभक्ति का लोप हुआ है, अतः यहाँ भी 'इक' नहीं हुआ)। (ख ) डाप् (आ)-मन्नन्त में तथा अन्नन्त बहुव्रीहि समास वाले शब्दों में-सीमन् > सीमा, दामन्दामा, बहुयज्वन् > बहुयज्वा ( परन्तु बहुराजन् में 'डी' होने से 'बहुराज्ञी' होगा)। ' (म) चाप (आ)-देवता जाति की स्त्री रूप अर्थ में सूर्य शब्द से तथा 1. जापतष्टा' अ० 4.1.4 / पालकान्तान्न / शूद्रा चामहत्पूर्वा जाति (वा०). मगरमात् कास्गवस्थाऽत प्रदाप्पसुपः / अ०७. 3. 44. Iोपी / सभाध्यामन्यतरस्याम् / अ० 4.1.11-16. 'यडन्त' शब्द से / जैसे---सूर्य>सूर्या (-सूर्यस्य स्त्री देवता - सूर्य की देवता स्त्र / देवता अर्थ न होने पर 'डी' होकर 'सूरी' बनेगा जिसका अर्थ होगा- 'सूर्यस्य स्त्री मानुषी 'कुन्ती'), करीषगन्धि>कारीषगन्ध्या। (2) 'ई' वर्ग ( ङोप् , ङीष् और डीन् ) (क) डीप् (ई)-(१) ऋकारान्त और नकारान्त शब्दों में। जैसेकर्तृ'>की, दातृ>दाी, ह>हीं, जनयित्री, शिक्षयित्री, दण्डिन् पण्डिनी, कामिन् > कामिनी, मनोहारिणी, गुणिनी, तपस्विनी, प्रवन् > शुनी, राजन् > राशी / (2) उगित् ( उक् + इ = उ, ऋ का जहाँ लोप हुआ हो) प्रत्ययान्त शब्दों में। जैसे--भवत् (भू+शतृ)>अवन्ती, पचन्ती, पठन्ती, दीव्यन्ती (खेलती हुई), श्रेयस् (प्रपास्य + ईयसुन्)>श्रेयसी, ( कल्याणकारिणी), पटीयसी, लघीयसी, क्रीडन्ती, क्रीणती (खरीदती हुई), तुदती, तुदन्ती, ददती, भवती (आप), भवन्ती ( होती हुई), बुद्धि+मतुप् = बुद्धिमत् > बुद्धिमती, श्रीमती। (3) अकारान्त टित् (ट् + इ ) तथा ढ, अण, अञ्, द्वयसच्, दन, मात्र, तथप्, ठक, ठन्, कञ्, क्वरप्, नञ्, स्नञ् ईकक्, स्युन्, यञ् प्रत्ययान्त, तरुण और सलुन् शब्दों में (यह 'टाप' का अपवाद है)। जैसे-फुरुचर (घर धातु से 'द' प्रत्यय होकर कुरुचर बना है। अतः यह टित् शब्द है )>कुरुचरी (कुरु देश में घूमने वाली स्त्री), मद्रचरी, नदट्>नद>नदी, देवदेव>देवी, सुपर्णी + हक सौपर्णेय + कीप् - सौपर्णेयी (सुपर्णी की कन्या, गरुड़ की बहिन), वैनतेयी, कुम्भकार ( 'अण' प्रत्यय ) > कुम्भकारी, ऐन्द्र (इन्द्र + अण् ) >ऐन्द्री (इन्द्र जिसका देवता है), औत्स ( उत्स+अ ) > औत्सी ( उत्सस्य इयम् / उत्स -झरना अथवा ऋषिविशेष सम्बन्धिनी), ऊरुद्वयस (ऊरु + द्वयसच )> ऊरुद्वयसी (जंघा प्रमाण जलबाली तलैया), ऊरुदधन > अन्दनी, ऊरुमात्र> ऊष्मात्री, पञ्चतय (पश्चन् + तयप्)> पञ्चतयी (पाच अवयवों वाली), दशती, आक्षिक (अक्ष+ठक) > आक्षिकी (अक्षर्दीव्यति - पासों से खेलने वाली), प्रास्थिक (प्रस्थ+ठञ् )>प्रास्थिकी (एक प्रस्थ से खरीदी गई ),, लावणिक - लावणिकी (नमक बेचने वाली), यादृश ( यत्+दृश + का)>यादशी (जैसी ), तादृश >तादृशी, इस्वर (इण्+वरप् )> इत्वरी (व्यभिचारिणी), नश्वर > नश्वरी स्त्रण (स्त्री+नज )>स्त्रैणी (स्त्री-सम्बन्धी), पौंस्न (पुरुष + स्नन् / 1. सूर्य देवतायां चाप् वाच्यः (वा.)।प्रहश्चाप् / अ० 4. 1.74. / 2. ऋन्नेभ्यो डीप / अ०४.१.५. 3. उगितश्च / अ० 4. 1. 6. 4. टिड्ढाणद्वयसज्दध्नमात्रचतयपत्क्टकक्वरपः / नबस्नजीकवख्युस्तरुणत. लुनानामुपसंख्यानम् / (वा.)। श्च / अ० 4.1.15-16.. . Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डीष ] 1: व्याकरण [61 . संस्कृत-प्रवेशिका [ 5 : स्त्री-प्रत्यय 60 ] पौंस्नी (पुरुष-सम्बन्धी ), शाक्तीक ( शक्ति + ईक) >शाक्तीकी ('शक्ति' नामक अस्त्र बाली स्त्री), आपकरण (आढय++रुयुन्)>आढचरणी (अनाढ्यनिर्धन को धनवान बनाने वाली स्त्री), सभगंकरिणी, तरुण>तरुणी (युवती ), ललुन>तलुनी (युवती), गाय (गर्ग + य )>गार्गी (गर्ग गोत्र की स्त्री), वात्सी। (4) अकारान्त 'विगु' समास-संज्ञक में। जैसे--त्रिलोक>त्रिलोकी (तीन लोकों का समुदाय ), पञ्चमूली, सप्तशती। परन्तु 'त्रिफला' में 'टप' हुआ क्योंकि यह अजादिगण में है। (5) प्रथम वयस् ( अवस्था) का बोध होने पर अकारान्त शब्दों में। जैसे-कुमार>कुमारी, किशोर>किशोरी, वधूट> वधूटी, तरुण>तरणी ( युक्ती)। चरम अवस्था का बोध होने पर टाप् होगा। जैसे-वृद्धवृद्धा, स्थविर>स्थविरा।(१) वर्णवाची शब्दों (यदि अनुदात्तान्त और 'त' उपधा में हो। तकार को नकार भी होगा) में विकल्प से। जैसेरोहित >रोहिणी (लाल रङ्ग बाली), हरित>हरिणी, श्येत >श्येनी। 'टाप्' होने पर क्रमशः रोहिता, हरिता और श्येता होगा / (7) अन्य उदाहरण-सपत्नी, बीरपत्नी, मानुष>मानुषी, मनु>मानवी, मनायी। (ख) ङ (ई)-(१) अकारान्त 'षिद' और गौरादि गण के शब्दों में। जैसे-नर्तक (तृत् +बुन )>नर्तकी, खनकी, पथिकी, रजकी / गौरागि गण के शब्दों में-गौर> गौरी, मत्स्य> मत्सी (मछली), मनुष्य > मनुषी (मनुष्य जाति की स्त्री), हरिण>हरिणी, आमलक>आमलकी, शिखण्डी, अननुह। नहीं हैं। गोपालक से गोपालिका होगा / शूद्री (शूद्र की स्त्री), सूर्य >सूरी ('सूर्या'देवता) / (4) जातिवाचक अकारान्त शब्दों में (यदि नित्य स्त्रीलिङ्ग न हो और उपधा में यकार न हो) 'यहाँ जाति से जातिवाचक संज्ञा, ब्राह्मण आदि जाति, अपत्य-प्रत्ययान्त तथा शाखा के पड़ने वाले' ये चारों अर्थ समझना चाहिए। जैसे-तटतटी ( यह नित्य स्त्रीलिङ्ग नहीं है तथा उपधा में 'य' भी नहीं है ), वृषल >वृषली (वृषली-शूद्र जाति की स्त्री), कठ> कठी ( 'कठ' शाखा को पढ़ने चाली), उपगु+अण् + डी - औपगवी (उपगु की सन्तान स्त्री जाति / यह 'डीप्' का अपवाद है)। अन्य उदाहरण-कुक्कुटी, ब्राह्मणी ( इसमें 'हीन्' भी होगा। 'क्षत्रिय' में ही नहीं होगा, अपितु 'टाप' होकर 'क्षभिया' बनेगा क्योंकि दमकी उपधा में 'य' है, परन्तु ह्यो, गवयी, मुकयी, मत्सी, मनुषी में निषेध नहीं 1) / अन्य उदाहरण-सिंही, हंसी, व्याघ्री, गर्दभी, मारी। (5) मनुष्य जातिवाचक इकारान्त शब्दों में। जैसे-दक्ष>दाक्षि>दाक्षी (दक्ष की सन्तान जी), कुन्ती। उकारान्त शब्द होने पर 'ऊ' होगा। जैसे--पुर>कुरू: (कुरु जाति की स्त्री), ब्रह्मानन्धः / (6) इन्द्र, वरुण, भव, शर्व, रुद्र, मृड, हिम, यव, यवन, मातुल और आचार्य शब्दों में ( 'आनुक' - आन् का भी अगम / इन्द्र आदि छह, मातुल तथा आचार्य में पुंयोग अर्थ में ही डीए और आनुक् ) "जैसे-इन्द्र>इन्द्राणी, (इन्द्र की स्त्री), वरुणानी ( वरुण की स्त्री), कमानी, शर्वाणी, रुद्राणी, मृडानी (शिवजी की स्त्री। भव आदि शिवजी ना ), हिमानी ( अधिक बरफ), अरण्यानी ( महद् अरण्य ), यवानी 14 गुरु जी = अन्न), यवनानी ( यवनों की लिपि), मातुलानी ( मामा की 10-मामी। आनुक न होने पर 'मातुली' बनेगा), उपाध्यायी (उपाध्याय - की स्त्री / 'आनुक' न होने पर उपाध्यायानी), आचार्यांनी (आचार्य की Must णत्व' का निषेध है। यदि स्त्री आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होगी तो 'टाप्' Mभाभार्या होगा। इसी प्रकार स्वयं अध्यापन कार्य करने पर उपाध्याया और मा), अयं>अर्याणी (वैश्य कुल की स्त्री। अर्थी और अर्या रूप .00), त्रियाणी (क्षत्रिया और क्षत्रियी रूप भी बनेंगे)। (7) अन्य PM- प्रीत < वस्त्रक्रीती ( वस्त्र में खरीदी गई ), चन्द्रमुख> चन्द्रमुखी 1001+ गगान मुख वाली। चन्द्रमुखा भी होगा), अतिकेशी, ( केशों का बाली। 'अतिकेशा' भी होगा), पाणिगृहीत >पाणिगृहीती ना होने पर 'पाणिगृहीता' वह स्त्री जिसका हाथ पकड़ा गया U01011 (नासिका), सुगात्री ( सुगात्रा), सुकण्ठी ( सुकण्ठा ) / mai योपधात् / अ० 4.3.61 / 2. इतो मतुष्यजातेः / अ० 4.1.65 / प्रभूटहिमारण्य-यवयवनमातुलाचार्याणामानुक् / अ० 4.1.46 / कन्दली, मङ्गली, बृहद >बृहती, महती, उभयी, मण्डली, मतामह>मातामही। (पित्' भी है). पितामही। (2) उकारान्त गुणवाचक तथा बहु आदि गण / शब्दों में विकल्प से / जैसे-मृदु>मृद्वी ( कोमला), पटु> पट्वी, गुरु गुगल बहु>बह्वी, शकट>शकटी, रात्रि>रात्री / अन्यत्र मृदुः, पटुः, बहुः, मका रात्रिः होगा। (3) जहाँ पति-पत्नी भाव रूप सम्बन्ध के कारण पुरुषवाचक समा स्त्री का बोध हो।' जैसे-गोपगोपी ( गोपस्य स्त्री। गाय का पालन माण चाला गोप हुआ और उसकी स्त्री 'गोपी'। 'गोपी' को गोपालन करना मानाया 1. द्विगोः / अ०४.१.२१. 2. वयसि प्रथमे / अ० 3. 1. 20. 3. वर्णादनुदात्तात्तोपधात्तो नः / अ०४. 1.36. 4. 'अनुदात्तान्त' न होने से कृष्ण>टाप् = कृष्णा, कपिला होगा। अग्य होगा-'सारङ्ग>सारङ्गी,शबली। ('अन्यतो जीष / अ० 4.1.40.), 5. षिद्गौराविभ्यान / अ० 4.1.41 / 6. बोतो गुणवचनात् / महाविया अ०४.१.४.1 7.गोगावापायाम् / अ०४.१.४ | " Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [6: अव्यय (ग) डौन् ।ई)-(१) शाङ्गरव आदि शब्दों में। जैसे-शाङ्गरव> शायरवी (शृङ्गर की स्त्री सन्तान), ब्राह्मण ब्राह्मणी (ब्राह्मण जाति की स्त्री) / (2) न और नर शब्द में। जैसे-नु, नर नारी। (0) अन्य ( 'ऊ' और 'ति' ) (क) ऊ (ऊ)-उकारान्त मनुष्य जातिवाचक शब्दों में (परन्तु उपधा में यकार न हो)। जैसे-कुरु कुरूः (कुरु जाति की स्त्री), ब्रह्मबन्धः / (2) पङगु और श्वसुर शब्दों में / ' जैसे-पगुपङ्ग, श्वसुर वधूः (सास)। (3) जिसका पूर्वपद उपमानवाची हो (संहितादि और अनौपम्यवाची में भी) और उत्तरपद 'कर' हो। जैसे-करभोरु>करभोरू: ( करभी इव करू यस्याः सा-हाथ के मणिबन्ध से कानी अगुली तक के निचले कोमल भाग को करंभ कहते हैं), संहितोरू: (जिसके ऊरु मिले हुए हों,), वामोरू (जिसके ऊरु सुन्दर हों)। (ख) 'ति'.-'युवन्' शब्द में। जैसे-युवन् >युवतिः (युवावस्थावाली स्त्री)। उपसर्ग, अव्यय ] 1: व्याकरण उल्टा ), अप (दूर), सम् ( सुष्ठु), अनु (पीछे, साथ), अव (दूर, नीचे ), निस् (बिना, बाहर); निर (बिना), दुस ( कठिन),'दुर (राब), वि (अलग, उल्टा, विशेष ), आङ् (तक), नि (नीचे, भीतर), अधि (कपर), अपि (समीप), अति ( अतिक्रमण, अधिक), सु (सुन्दर), उत् ( ऊपर), अभि (ओर ), प्रति ( ओर, उल्टा), परि (चारों ओर ) और उप ( समीप ) / (ख) क्रिया-विशेषण (Adverbs)-ये क्रिया की विशेषता बतलाते हैं। इनमें कुछ स्थान, परिमाण आदि के भी वाचक हैं। जैसे-उपवः, नीचः, बिना। (ग) पादपूरक (चादि निपात---Particles )-इनका प्रायः पादपूर्ति में प्रयोग किया जाता है। (ये कभी-कभी विशेषता की भी सूचना करते है)। जैसे-नु, तु, वै, हि, किल, खलु, चित्, चन, स्वित् आदि / / (घ) समुच्चय-बोधक (Conjunctions)-ये कई प्रकार के हैं। / जैसे(१)संयोजक (Copulative)-अथ, च, किंच आदि / (२)वियोजक ( Disjunctive)-वा, अथवा आदि। (3) विरोध-सूचक (सोपाधिक या शर्त-सूचक = Conditional )-किन्तु, किंवा, यदि, चेत्, यद्यपि आदि / (4) कारण-सूचक (Causal )-हि, तेन आदि / (5) प्रश्न-सूचक (Interrogative)-आहो, आहोस्वित, आदि। (6) स्वीकारात्मक-अपकिम्, आम् आदि / (7) समय-सूचक ( Time)-पदा, तदा, यावत् आदि (1) प्रकीर्ण (Miscellaneous)--अथ (प्रारम्भ-सूचक), इति ( अन्त-सूचक) आदि / (क) मनोविकार-सूचक ( विस्मयादि-बोधक-Interjections )-इनसे आश्चर्य, सुख, दुःख, घृणा, आदर, अनादर, सम्बोधन आदि का बोध होता है। जैसे-धिक, बत, हन्त, हा, अंग, अरे आदि / (2) रूढ व यौगिक शब्दों की दृष्टि से अव्ययों के विभाजन काद्वितीय प्रकार अव्यय षष्ठ अध्याय अव्यय ( Indeclinable words) जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता उन्हें अव्यय (न+व्यय) कहते हैं। ये सभी लिङ्गों, सभी वचनों और सभी विभक्तियों में सदा एकरूप रहते हैं। पद्यपि पाणिनि-व्याकरण के अनुसार इनमें सभी विभक्तियाँ होती हैं परन्तु उनका लोप हो जाता है। अव्यय कई प्रकार के होते हैं। जैसे (1) विषय की दृष्टि से अव्ययों के विभाजन का प्रथम प्रकार: (क) उपसर्ग (Perpositions)-ये धातु अथवा धातु मे बने शब्दों के पहले जोड़े जाते हैं। ये धात्वर्थ में प्रायः कुछ न कुछ परिर्वतन कर देते हैं या वैशिष्टय पैदा करते हैं। ये संख्या में 22 हैं। जैसे- (अधिक), परा (पीछे, 1. शाङ्गरवाद्यत्रो छीन् / 4.1.73 / 2. नृनरयोवृद्धिश्च / (बा०) / 3. ऊकुतः / अ० 4.1.66 4. पङ्गोश्च / अ० 41.68 / श्वसुरस्योकाराकारलोपन (वा०)। 5. उत्तरपदादौपम्ये। संहितशफलक्षणवामादेव / अ० 4.1.66-70 / 6 यूनस्तिः / अ०४.१.७७। 7. सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिः / ___ वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्ययेति तदव्ययम् ॥ल. कौ०, पृ०३६५.(प्रणवोपनिषद् 2.) 8. अध्ययादाप्सुपः / ब०२. 4. 82.1. स्वरादिनिपातमव्ययम् / अ० 1.1.37. पादिः प्रादिः स्वरादिश्च तद्धितस्य वदादयः / गमरमाणगुहल्यप्कदन्तस्य भवन्त्यव्ययसंज्ञकाः // 10भाव बामो कवि कश्रितमनुवर्तते ।तमेव विशिनष्टयन्य उपसर्गगतिस्त्रिधा / / ग मावली बनावमा प्रतीवले / प्रहाराहारलंहारविहारपरिहारवत् / / अव्युत्पन्न ( रूढ) . व्युत्पन्न ( यौगिक) स्वरादिगणं पठित निपात-संज्ञक कृदन्त तद्धितान्त (स्वर, अन्तर्, प्रातर, (पठितुम्,आगम्य, I अव्ययीभाव समास (उपगङ्गम, आसमुद्रम्, . चादि प्रादि (च, वा,ह बादि) (प्र.परा आदि) विभक्तिबोधक कालबोधक प्रकारबोधक प्रकीर्ण (कुत्तः, कुत्र आदि) (यदा, इदानीम् आदि) (यथा, कथम्) (एकशः, आदि) - Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमा विभक्ति] 1 / व्याकरण सप्तम अध्याय कारक और विभक्ति ( Cases and Case endings) जो क्रिया का साधक होता है वह कारक कहलाता है (क्रिया-जनकत्वं हि कारकत्वम् / येन विना क्रियानिर्वाहो न भवति तत् कारकम् ) / कारक छह है' (1) कत्त-कारक-क्रिया का प्रधान सम्पादक अर्थात् जो क्रिया के करने में स्वतन्त्र हो और धात्वर्थ व्यापार का आश्रय हो। (2) कर्म-कारकक्रिया के फल का आश्रय ( कर्म ) अर्थात् क्रिया के द्वारा कर्त्ता जिसे विशेषरूप से प्राप्त करना चाहे। (3) करण-कारक-क्रिया के सम्पादन में प्रमुख सहायक (साधकतम)। (4) सम्प्रदान कारक-क्रिया का उद्देश्य अर्थात् जिसके लिए क्रिया की जाए या कुछ दिया जाए। (5) अपादान-कारक-क्रिया का विश्लेष अर्थात् जिससे कोई वस्तु अलग हो। (6) अधिकरण-कारक-क्रिया का आधार अर्थात् कर्ता और कर्म में रहने वाली क्रिया जिस स्थान पर हो। कारकों का विभक्तियों से सम्बन्ध-कारकों का विभक्तियों से सम्बन्ध है क्योंकि "विभक्ति' शब्द का अर्थ है-जिसके द्वारा संख्या और कारक का बोध हो ( संपाकरकबोधयित्री विभक्तिः)। विभक्तिपोशात हैं-प्रथमा, द्वितीया, तृतीया चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी और सप्तमी। जैसे- देवदत्त का पुत्र गाँव से आकर वाराणसी में ब्राह्मणों के लिए अपने दोनों हाथों से धन देता है - देवदत्तस्प पुत्रः ग्रामादागत्य वाराणस्या ब्राह्मणेभ्यः स्वकराभ्यां धनं ददाति / यहाँ 'पुत्रः' में प्रथमा, 'धनम्' में द्वितीया, 'कराभ्याम्' में तृतीया, 'ब्राह्मणेभ्यः' में चतुर्थी, 'ग्रामात' में पञ्चमी, 'देवदत्तस्य' में षष्ठी और वाराणस्वाम्' में सप्तमी विभक्ति है। नतिअनुमा सामान्यतः कर्ती में तृतीया, कर्म में द्वितीया, करण में तृतीया, सम्प्रदान में चतुर्थी, अपादान में पञ्चमी और अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है। षष्ठी' विभक्ति को कारक-विभक्ति नहीं माना जाता है क्योंकि उसका क्रिया से सम्बन्ध नहीं है। कर्ता, कर्म और करण का क्रिया से सीधा सम्बन्ध है तथा शेष का का मादि के द्वारा परम्परया / कृदन्त क्रिया का प्रयोग होने पर कर्ता या कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। व्यवहार में प्रथमा विभक्ति कर्तृवाच्य के कर्ता में और कर्मवाच्य के कर्म में होती है। वस्तुतः प्रथमा विभक्ति कर्तृकारक में न होकर प्राति-- पदिकार्थ में होती है क्योंकि कर्तृवाच्य में कर्ता तो क्रिया के द्वारा ही उक्त हो जाता। है फिर प्रथमा विभक्ति के द्वारा कर्तृकारक के पुनः कथन का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है। यही स्थिति कर्मवाच्य में कर्म की भी है। अतः पाणिनि ने कहीं। भी कर्तृकारक में प्रथमा का उल्लेख नहीं किया है। दोनों में अन्तर-बाह्य जगत में जो क्रिया होती है उसे निष्पन्न करने / 1. शर्मा मार्ग घ करणं सम्प्रदान तथैव च / पापानाधिकारणे इत्याहुः कारकाणि षट् / / समासचक्र, पृ० 13. मार विधीयते न्यादितव्यादितदिताः। समासो वा भवेद यत्र स उन: प्रभमा ततः वाले पदार्थ कारक कहे जाते हैं। विभक्तियां भिन्न-भिन्न कारकों को प्रकट करती हैं और उनका सम्बन्ध बाह्य जगत् के पदार्थों से न होकर शब्दरूपों से है। द्वितीयादि विभक्तियां कारकों के अतिरिक्त उपपदों के साथ भी प्रयुक्त होती हैं। अतः उन्हें दो भागों में विभक्त किया जा सकता है : (1) कारक-विभक्ति-क्रिया को उद्देश्य करके प्रयुक्त होने वाली विभक्ति को कारक-विभक्ति कहते हैं (क्रियामुद्दिश्य विधीयमाना विभक्तिः कारकविभक्तिः)। (2) उपपद-विभक्ति--अव्यय आदि पदों को उद्देश्य करके प्रयुक्त होने वाली विभक्ति को उपपद-विभक्ति कहते हैं (पदमुद्दिश्य विधीयमाना विभक्तिः उपपदविभक्तिः ) / जहाँ कारक-विभक्ति और उपपद-विभक्ति दोनों की एक साथ प्राप्ति होती है वहाँ कारक-विभक्ति प्रधान होती है (उपपदविभक्तः कारकविभक्तिबलीयसी)। जैसे—(क) 'मुनित्रयं नमस्कृत्य' (मुनित्रय को नमस्कार करके; यहाँ 'मुनित्रय' में 'नमः' अव्यय पद के योग से चतुर्थी विभक्ति की और नमस्करणरूप प्रिया का कर्म होने से द्वितीया विभक्ति की प्राप्ति होती है परन्तु कारक-विभक्ति के प्रधान होने से 'मुनित्रय' में द्वितीया हई। (ख) 'नमस्करोति देवान्' (देवताओं को नमस्कार करता है)। विभक्तियों के प्रयोग-सम्बन्धी प्रमुख नियम इस प्रकार हैं प्रथमा विभक्ति ( First case-ending) 1. प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा-प्रातिपदिकार्थ में, लिङ्गमात्र [ के आधिक्य ] में, परिमाणमात्र में और वचनमात्र में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे (क) प्रातिपदिकार्थमात्र में प्रथमा- शब्द का उच्चारण करने पर जिस अर्थ की नियत-प्रतीति हो उसे प्रातिपदिक ( Base or crude form) का अर्थ कहते है(नियतोपस्थितिकः प्रातिपदिकार्थ); अर्थात् जब किसी शब्द से उसके अर्थमात्र ना ज्ञान कराना अभीष्ट हो तो वहां प्रातिपदिकार्थमात्र में प्रथमा विभक्ति होती / संस्कृत वैयाकरणों के अनुसार किसी शब्द में जब तक 'सुप' वा 'तिह' प्रत्यय गोड़ा जाये तब तक वह अर्थहीन सा होता है। अतः जब किसी शब्द के केवल म का बोध कराना हो तो उसे प्रथमा विभक्ति के द्वारा प्रकट करते हैं / अव्ययों में vीसी कारण प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया जाता है / जैसे-उच्चः ( ऊँचा), जानः (नीचा), श्रीः (लक्ष्मी), कृष्णः (वासुदेव), ज्ञानम्, पुस्तकम्, रामायणम्, कामप्रकाशः, वृक्षः। पचपि प्रातिपदिक से जाति एवं व्यक्ति के अतिरिक्त लिङ्ग, संख्या और कारक .जीबोध होता है परन्तु यहाँ प्रातिपदिक से लिङ्ग, संख्या आदि का ग्रहण Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत प्रवेशिका [७:कारक और विभक्ति नहीं करना है क्योंकि, 1. शब्द सुनते ही नियम से सर्वत्र लिङ्ग, संख्या आदि की एक जैसी प्रतीति नहीं होती है; 2. सूत्र में लिङ्ग और संख्या ( वचन ) का प्रातिपदिक से पृथक् उल्लेख किया गया है। अतः प्रातिपादिकमात्र के वे ही शब्द उदाहरण हो सकते हैं जो उच्चरित होने पर सर्वत्र एक जैसी प्रतीति कराते हैं। ऐसे शब्द या तो अलिङ्ग (अव्यय) होते हैं या नियत लिङ्ग वाले / जिन शब्दों का लिङ्ग विशेष्य के अनुसार बदलता रहता है ऐसे अनियत लिङ्ग वाले शब्द (तटः, तटी, तटम् ) लिङ्गमात्राधिक्य के उदाहरण होंगे क्योंकि वहाँ शब्दार्थ (प्रातिपदिकार्य) के अतिरिक्त उनके लिङ्ग का भी विशेषरूप से ज्ञान होता है। (ख) लिङ्गमात्राधिक्य में प्रथमा--जब अनियत लिङ्ग वाले शब्दों से प्रातिपदिकार्य के अतिरिक्त लिङ्ग का भी ज्ञान कराना अभीष्ट होता है तब वहाँ लिङ्गमात्राधिक्य में प्रथमा होती है। जैसे-तटः (किनारा), तटी, तटम् / कृष्णः (काला), कृष्णा, कृष्णम् / यद्यपि सूत्र से लिङ्ग मात्र का बोध होता है परन्तु वृत्ति से आधिक्य अर्थ लिया गया है, क्योंकि जाति और व्यक्ति के साथ ही लिङ्ग की प्रतीति होती है, केवल लिङ्ग की नहीं / अतः यहाँ लिङ्गमात्राधिक्य कहा गया है। (ग) परिमाणमात्र में प्रथमा--जब परिमाणवाचक शब्दों से परिमाणसामान्य का बोध कराना अभीष्ट होता है तब वहाँ परिमाणमात्र में प्रथमा होती है। जैसे-द्रोणो व्रीहिः (द्रोणरूप परिमाण से नपा हुआ धान्य द्रोण एक बटखरा है, करीब 64 किलो या 256 किलो); प्रस्थो व्रीहिः (प्रस्प आधा सेर); आढर्क चूर्णम् (एक ढक परिमाण चूर्ण; चार आठक का एक द्रोण होता है। यहाँ यद्यपि प्रातिपदिकार्थ में प्रथमा हो सकती थी परन्तु परिमाणमात्र में इन उदाहरणों को प्रस्तुत करने का कारण है वैयाकरणों का अन्वय-विषयक शाध्यबोध का सिद्धान्त / ' (प) बचनमात्र में प्रथमा--संख्या को वचन कहते हैं / अतः जब संख्यावाचक शब्दों से संख्या सामान्य का बोध कराना अभीष्ट होता है तब वहाँ बचनमात्र में प्रथमा होती है। जैसे-एक: (एक),दो (दो), बहवः (बहुत)। 1. वैयाकरण प्रातिपदिकार्थ का प्रातिपदिकार्थ (नामार्थ का नामार्थ) के साथ अभेदान्वय मानते हैं / अब यदि 'द्रोणो व्रीहिः' में प्रातिपदिकार्थ में प्रथमा होती है तो द्रोण परिमाण का व्रीहि द्रव्य के साथ अभेदान्वय होने लगेगा और तब 'द्रोणो व्रीहि': का अर्थ होगा 'द्रोणरूप बीहि' जो अभीष्ट नहीं है। यहाँ अभीष्ट है 'द्रोणरूप परिमाण से परिच्छिन्नतीला हुआ बीहि'। इस तरह यहाँ परिमाण और द्रव्य अमित नहीं हैं अपितु उनमें परिच्छेद्य-परिछेदकभाव सम्बन्ध है जो परिमाणमात्र में प्रथमा करने पर ही हो सकता है। 2. एक, हि आदि संख्यावाचक शब्दों से एकल, द्वित्व आदि संख्या के प्रातिपरिमाणे से ही उक्त होने के कारण यहाँ संख्या अर्थ की बोधक प्रथमा विभक्ति द्वितीया विभक्ति] 1 : व्याकरण [67 2. सम्बोधने च--सम्बोधन में भी प्रथमा विभक्ति होती है। 'सम्बोधन' (शाब्दिक अर्थ-अच्छी तरह समझना) का अर्थ है वक्ता का श्रोता को अपनी बात सुनने के लिए अपनी ओर आकृष्ट करना / जैसे-हे राम! हे कृष्ण ! यद्यपि सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति का रूप कहीं-कही कुछ बदल जाता है परन्तु नियमतः वही प्रथमा विभक्ति ही मानी जाती है। शब्दरूपों में स्पष्टता के लिये सम्बोधन के रूप प्रथमा से पृथक् दिखलाये गये हैं। factor fauft (Second case-ending ) 3. कर्तुरीप्सिततमं कर्म-कर्ता का ईप्सिततम (सर्वाधिक अभीष्ट ) कर्म कहलाता है। अर्थात् कर्ता अपनी क्रिया के द्वारा जिसे विशेषरूप से प्राप्त करना चाहता है उसकी कर्मसंज्ञा होती है।' कर्मसंज्ञा होने पर अगले सत्र 'कर्मणि द्वितीया' से उस कर्म कारक में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे—(क) देवदत्तः पयसा मोदनं भुक्त (देवदत्त दूध से भात खाता है)। यहाँ के को यद्यपि 'मोदन' और 'पयस्' दोनों अभीष्ट हैं परन्तु अभीष्टतम केवल 'मोदन' है। अतः उसी में कर्मअप्राप्त है। ऐसी स्थिति में संख्या अर्थ में जो प्रथमा विभक्ति की गयी है उसका कारण है वैयाकरणों का अभेदान्वय का सिद्धान्त ( इहोक्तार्थत्वाद्विभक्तरप्राप्ती . वचनम् ) / 1. तथायुक्तं चानीप्सितम् [तथा (इप्सिततमव) + युक्तम् (क्रिया से युक्त)+ च (अवधारण)+ अनीसितम् (उपेक्ष्य या द्वेष्य)]-तथा युक्त (जिस प्रकार ईप्सित-तम कर्म क्रिया के साथ युक्त रहता है उसी प्रकार यदि कोई) भनीप्सित भी [क्रिया के साथ क्रियाजन्य फलयुक्त हो तो उसे भी कर्मसंज्ञा हो] अर्थात् कर्ता को अनीप्सित होते हुए भी जो पदार्थ अभी की तरह क्रिया से सम्बद्ध रहते हैं उनकी भी कर्मसंज्ञा होती है। यहाँ इतना विशेष है कि ईप्सिततम तथा अनीप्सित कर्म का कर्ता एक ही हो तथा दोनों का प्रयोग एक काल में हो। यदि अनीप्सित का अन्य क्रिया से योग होगा तो वह क्रिया से पूर्व ही समाप्त होने वाली होगी। जैसे-'ओदनं भुजानो विषं मुड्कते' (भात खाते हुए विष खाता है) / यहाँ कर्ता को 'रोदन' ईप्सिततम है और 'विष' अनीप्सिततम (द्वेष्य) परन्तु मोदन की ही तरह विष भी भोजन-क्रिया से अनिवार्यरूप से सम्बद्ध है। अतः विष की भी कर्मसंज्ञा हुई। इसी तरह 'ग्राम गच्छन् तृणं स्पृशति' (गांव को जाता हुमा तृण को छूता है); यहाँ कर्ता को गमन क्रिया के द्वारा ग्राम ईप्सिततम है / अतः ईप्सिततम ग्राम की तरह अनीप्सित (उपेक्ष्य) 'तृण' की भी कर्मसंज्ञा हुई। यहाँ प्रधान क्रिया (गमन क्रिया) से पूर्व समाप्त होने वाली 'स्पर्श क्रिया' से तृण का योग उसी तरह है जिस तरह गमन के द्वारा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीया विभक्ति] 1. व्याकरण 6 ] संस्कृत-प्रवेशिका [7 : कारक और विभक्ति संज्ञा होने से द्वितीया विभक्ति हुई है। यदि कर्ता को 'पयस्' भी अभीष्टतम होगा तो उसमें भी द्वितीया होने पर वाक्य होगा-'देवदत्तः ओदनं पयश्व गृह्णाति' (देववत्त भात और दूध लेता है)। (ख) 'माषेषु अश्वं बध्नाति' (उड़द के खेत में घोड़े को बांधता है)। यहाँ का बांधने की क्रिया के द्वारा अश्व को वशवर्ती करना चाहता है। अतः कर्ता को बन्धन-व्यापार द्वारा अश्व ही अभीष्ट है, न कि 'माष' / 'माष' तो कर्मसंज्ञक अश्व के लिए अभीष्ट है। अतएव 'अश्व' की ही कर्मसंज्ञा होगी। 4. कर्मणि द्वितीया-[अनुक्त] कर्भ में द्वितीया विभक्ति होती है / कर्तृवाच्य में कर्म 'अनुक्त' होता है, अतः वहाँ कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसेहरि भजति (हरि को भजता है। यहाँ का भक्त को ईप्सिततम हरि है, अतएव हरि की कर्मसंशा हुई तथा कर्तृवाच्य की क्रिया का प्रयोग होने से 'हरि'गत कर्म 'अनुक्त' है); प्रामं गच्छति (गांव को जाता है। पुस्तकं पठति (पुस्तक पढ़ता है)। कर्मवाच्य में कर्म 'उक्त' होता है। अतः वहाँ प्रातिपदिकार्थ से प्रथमा होती है। जैसे--देवदत्तेन हरिः सेव्यते ( देवदत्त के द्वारा हरि की उपासना की जाती है)। 5. अकथितं च-अकथित (न कथयितुम् इष्टः- अपादान आदि विशेषरूप से अविवक्षित कारक) भी [ कर्मसंज्ञक होता है ]; अर्थात् कुछ पदार्थ ऐसे होते है जो द्विकर्मक धातुओं के कर्मों के साथ नियतरूप से सम्बन्धित होते हैं, परिणामस्वरूप वे कर्म के अतिरिक्त अपादान आदि कारकों के अर्थ को भी प्रकट करते है। ऐसे 'अकथित कर्म' (गौण कर्म) की कर्म संज्ञा होती है, यदि वक्ता उसे अपादान आदि के रूप में न कहना चाहे / अपादान आदि की विवक्षा होने पर कर्मसंशा न होकर अपादानादि कारक ही होंगे। अतएव द्विकर्मक धातुओं का प्रयोग होने पर गौण कर्म (अकथित या अविवक्षित कर्म) की कर्म संज्ञा होती है, यदि गौणकर्म में अपादान आदि की विवक्षा ( वक्तुमिच्छा) न हो। जैसे-गां दोग्धि पयः (गाय से दूध दुहता है)। यहाँ पयस्' मुख्य कर्म है क्योंकि कर्ता (ग्वाला) को अभीष्टतम 'पयस्' है। 'गी' अपादान कारक है। द्विकर्मक 'दुह' धातु का प्रयोग होने से और 'गो' में अपादान कारक की अविवक्षा होने से मुख्य कर्म 'पयस्' से विशेष सम्बन्ध रेखने वाली 'गो' अकथित कर्म है / अतः 'गाम्' में द्वितीया विभक्ति हुई है। अपादान की विवक्षा होने पर 'गोदोंगिध पयः' होगा। द्विकर्मक पातुओं के अपादानादि कारकों की विवक्षा और अविवक्षा में अन्य प्रयोगः हिन्दी अर्थ अविवक्षा में विवक्षा में 1. बलि से पृथ्वी मांगता है-बलिं याचते वसुधा - बलेः पाचते वसुधाम / 2. चावलों से भात पकाता है-तण्डुलान् ओदनं पचति- तण्डुलः मोदनं पचति / 3. गर्गों से सौ रुपया दण्ड लेता है-गगोन् शतं दग्डयति-गर्गेभ्यः शतं दण्डयति / 4. व्रज में गाय को रोकता है--ब्रजम् अवरुणद्धि गाम् % व्रजे अवरुणद्धि गाम् / 5. लड़के से मार्ग पूछता है-माणवकं पन्थानं पृच्छति-माणवकात् पन्धान। 6. वृक्ष से फलों को चुनता है-वृक्षम् अवचिनोति फलानि = वृक्षादवचिनोति फलानि / 7. लड़के के लिए धर्म का माणवर्क धर्म बूते = माणवकाय धर्म बूते उपदेश देता है- शास्ति वा शास्ति वा। 5. देवदत्त से सौ रुपये जीतता है- शतं जयति देवदत्तम् = शतं जयति देवदत्तात् / 6. अमृत के लिये समुद्र को पुर्धा क्षीरनिधि सुधार्य क्षीरनिधि मथता है- मध्नाति मध्नाति / 10. देवदत्त से सौ रुपये चुराता है-देवदत्तं शतं मुष्णाति - देवदत्तात् शतं मुष्णाति / 11. गाँव में बकरी को ले जाता है प्रामम् अजां नयति = ग्रामे मा० / या खींचता है- हरति कर्षति वा 12. बलि से पृथिवी मांगता है-बलि भिक्षते वसुधाम् - बलेः भिक्षते वसुधाम् / 13. लड़के को धर्म कहता है-माणवक धर्म भाषते - माणवकाय धर्म। अभिधत्ते वक्ति वा 8. बू (कहना), 9. शास् (शासन करना), 10. जि (जीतना), 11. मथ् (मथना), 12. मुष् (चुराना), 13. नी (ले जाना), १४.ह (हरना), 15. कृष् (खींचना) और 16. वह (ले जाना)। इन 14 धातुओं के अतिरिक्त वे धातुयें भी द्विकर्मक हैं जो इनके समान अर्थ वाली हैं। जैसे-भिश् ( मांगना), भाष् (कहना) आदि / 1. अंग्रेजी में कर्ता के आधार पर क्रिया, कर्म आदि का निश्चय किया जाता है, जबकि संस्कृत में क्रिया के आधार पर ही कर्ता, कर्म आदि का निर्णय किया जाता है / अतः संस्कृत में जिस अर्थ में 'तिप्' आदि प्रत्ययों का प्रयोग होता है वही 'उक्त' कहलाता है, शेष अनुक्त'। कर्तृवाच्य में 'कर्ता', कर्मवाच्य में 'कर्म' और भाववाच्यू में 'भाव' तिहादि प्रत्ययों से उक्त होते हैं, अन्य अनुक्त / कर्जा आदि निर, कृतादिनमौर म मास से उत्तुगत-नि तानसभादेशीभानार '2. द्विकर्मक धातुयें (मुख्य और गौण कर्म वाली धातुयें) इस प्रकार है दुह्याच्पच्दण्डविप्रच्छिचित्रूशासुजिमथ्मुषाम् / मर्मयुक् स्यादकथितं तथा स्यान्नीकृष्वहाम् / / मे ह (दुहना), 2. याच् (माँगना), 3. पच (पकाना), 4. दण्ड् (दण्ड मेगा), 5.5 ( रोकना), 6. प्रच्छ् (पूछना), 7. चि (चुनना), Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [71 70] संस्कृत-प्रवेशिका [7 : कारक और विभक्ति 6. गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थ-शब्द-कर्माकर्मकाणामणि का स णी--मनार्थक (गम्, इण् मादि), ज्ञानार्थक (ज्ञा, बुध, विद आदि), भक्षणार्थक ( = प्रत्यवसानार्थक---भक्ष, भुज् आदि), शब्दकर्मक (पट, वच्, उच्चर आदि) तथा अकर्मक' (उत्तिष्ठ, बास् आदि) धातुओं का साधारण-अवस्था (अणि 3D अणिजन्त अवस्था) का कर्ता प्रेरक-अवस्था (णि = णिजन्त अवस्था) में कर्मसंज्ञक हो जाता है / जैसे शत्रूनगमयत स्वर्ग, वेदार्थ स्वानवेदयत् / आशयच्चामृतं देवान् , बेदमध्यापय विधिम् // आसयत् सलिले पृथ्वी, यः स मे श्रीहरिर्गतिः। अर्थ-जिन्होंने शत्रुओं को स्वर्ग भेजा, आत्मीय जनों को वेद का अर्थ समझाया, देवताओं को अमृत पिलाया, ब्रह्मा को वेद पढ़ाया और पृथिवी को जल पर बैठाया वे हरि ही मेरी गति (आश्रयदाता) है। जहाँ उपर्युक्त नियम लागू नहीं होगा वहाँ अणिजन्तावस्था के कर्ता में णिजन्तावस्था में तृतीया होगी। जैसे-पाचकः ओदन पचति प्रभुः पाचकेन ओदनं पाचयति। णिजन्तरूप बनाने के लिए मूल घातु में णिच् ( अय) प्रत्यय जोड़ा जाता है तथा उसके रूप चुरादिगणीय वातुओं के समान चलते है। 7. अधिशीस्थासां कर्म-अधि' उपसर्गपूर्वक शी (शीङ्-शयन करना ), स्था (ठहरना) और आस् (बैठना) धातुओं का (आधार ) कर्मसंज्ञक होता है। जैसे-भूपतिः सिंहासनम् अध्यास्ते ( राजा सिंहासन पर बैठा है); अधिशेते अधितिष्ठति अध्यास्ते वा बैकुण्ठं हरिः (हरि वैकुण्ठ में शयन करते हैं अथवा रहते है अथवा हैं)। अन्यत्र सप्तमी होगी-सिंहासने शेते तिष्ठति भास्ते था। प. उपान्वध्याल्वसः-उप, अनु, अधि तथा आ (आइ) उपसर्गपूर्वक 'वस्" (रहना) धातु [ के आधार ] की कर्म संशा होती है। जैसे-उपवमति अनुवसति अधिवसति आवसति वा बैकुण्ठं हरिः (हरि बैकुण्ठ में वास करते है)। जब 'उप' 1. अधोलिखित पद्यान्तर्गत अर्थवाली धातुयें अकर्मक होती हैंलज्जा-सत्ता-स्थिति-जागरणं, बुद्धि-क्षय-भय-जीवित-मरणम् / शयनं क्रीडा-रुचि-दीप्त्यर्थ, धातुगणं तमकर्मकमाहुः // 2. उक्त पत्र में आये हुए णिजन्त-वाक्यों के अणिजन्त-वाक्य क्रमशः इस प्रकार होंगे-शत्रवः स्वर्गमगच्छन् / स्वे वेदार्थमविदुः / देवा अमृतमाश्नन् / विधि: वेदमध्यंत / पृथ्वी सलिले भास्ते / द्वितीया विभक्ति] 1: व्याकरण आदि उपसर्ग नहीं होंगे अथवा 'वस्' धातु का अर्थ 'रहना' नहीं होगा तो उसके आधार में सप्तमी होगी। जैसे-हरिः वैकुण्ठे वसति निवसति वा (हरि बैकुण्ठ में निवास करते हैं ); रामः बने उपवसति (राम बन में उपवास करते हैं)। 6. उभसर्वतसोः कार्या धिगुपर्यादिषु त्रिषु / द्वितीयानेडितान्तेषु ततोऽन्यत्रापि दृश्यते / / (बार्तिक) उभयतः, सर्वतः ('उभ' तथा 'सर्व' शब्द के साथ 'तस्' - तसिल प्रत्यय जोड़ने से क्रमशः उभयतः तथा सर्वतः पद बने हैं-'उभसर्वयोस्तसौ उभसर्वतसो तदन्तयोर्योग) और षिक् [शब्द ] के योग में आनंडितान्त 'उपरि' आणि तीन (उपरि, अषः और अधि-ये तीनों सामीप्य अर्थ में द्विरुक्त-आडित होते हैं। अतः उपर्युपरि, अधोऽधः और अध्यधि) के योग में [ इनका जिससे संयोग हो उसमें ] द्वितीया होती है। इसके अतिरिक्त अन्य स्थलों (अभितः, परितः आदि) में भी द्वितीया देखने में आती है। जैसे-उभयतः कृष्ण गोपाः ( कृष्ण के दोनों ओर ग्वाले हैं); सर्वतः कृष्णम् (कृष्ण के सभी ओर); धिक् कृष्णाभक्तम् (कृष्ण के अनुपासक की धिक्कार है); उपर्युपरि लोकं हरिः (लोक के समीप उपरिभाग में हरि है अर्थात् हरि लोक के ठीक ऊपर हैं); अघोऽधो लोकं पातालः (लोक के समीप अधोभाग में पाताल है); अध्यधि लोकम् (लोक के समीप में)। 'धि के साथ कभी-कभी प्रथमा और सम्बोधन का भी प्रयोग होता है। जैसे--धिगियं दरिद्रता ( इस दरिद्रता को धिक्कार है); धिङ्मूढ!। 10. अभितःपरिवःसमया-निकषा-हा-प्रतियोगेऽपि (वातिक)-अमित: (अभि + तसिलदोनों ओर), परितः (परि + तसिल - चारों ओर), सगया (समीप या मध्यभाग), निकषा ( समीप), हा (खेद) और प्रति (भोर) के योग में [ इनका जिससे संयोग हो उसमें ] भी द्वितीया विभक्ति होती है। जैसेअभितः कृष्णम् (कृष्ण के दोनों और); परितः कृष्णम् (कृष्ण के चारों ओर); पाम समया (गाँव के पास या मध्यभाग में); निकषा लङ्का (लका के समीप ):. हा कृष्णाभक्तम् (कृष्ण के अभक्त के विषय में खेद है); मन्दौत्सुक्योऽस्मि नगरगगनं प्रति ( नगर जाने के प्रति उत्कण्ठा मन्द है); मातुः हृदयं कन्यां प्रति स्निग्धं भवति (माता का हृदय कन्या के प्रति कोमल होता है); बुभुक्षितं न प्रतिभाति किचिव (भूखे को कुछ अच्छा नहीं लगता है); समया तं स्थिता राधा (उसके पारा राधा थी)। 11. अन्तराऽन्तरेण युक्ते-अन्तरा (बीच में ) और अन्तरेण (विना) |मव्ययों ] के योग में [इनका जिसके साथ सम्बन्ध हो उसमें द्वितीया होती है। ग अन्तरा त्वां मां हरिः ( तुम्हारे और मेरे बीच में हरि हैं); अन्तरेण हरित Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] संस्कृत-प्रवेशिका [7: कारक और विभक्ति सुखम् (हरि के विना सुख नहीं); त्वामन्तरेण कोऽन्यः प्रतिकतुं समर्थः ( तुम्हारे विना दूसरा कौन बदला लेने में समर्थ है)। 12. कालाधवनोरत्यन्तसंयोगे--अत्यन्त-संयोग (निरन्तरता अविच्छिन्नता) , होने पर कालवाचक और मार्ग (अध्व) वाचक [ शब्दों ] में [द्वितीया होती है। जैसे-मासमधीते (निरन्तर महीने भर पढ़ता है); क्रोशं कुटिला मदी (एक कोस तक नदी टेढ़ी है); क्रोशं गिरिः (एक कोस लम्बा पहाड़ है); क्रोशमधीते (कोस भर चलते हुए पढ़ता है); मासं कल्याणी ( महीना भर कल्याणी है)। अत्यन्त संयोग न होने पर द्वितीया नहीं होगी-मासस्य द्विरधीते (महीने में दो बार पढ़ता है); क्रोशस्य एकदेशे पर्वतः (कोस के एक भाग में पर्वत है)। विशेष के लिए देखिए-- 'अपवर्ग तृतीया'। aatar farafii (Third case-ending ) 13. साधकतमं करणम्-[कर्ता को क्रिया की सिद्धि में ] साधकतम( सबसे अधिक सहायक या उपकारक ) करण कारक कहलाता है। करण कारक में अग्रिम सूत्र 'कर्तृकरणयोस्तृतीया' से तृतीया विभक्ति होती है। जैसे -कुठारेण काष्ठ छिनत्ति (कुठार से लकड़ी काटता है। यहाँ काष्ठ-छेदन क्रिया में कुठार सर्वाधिक सहायक है; अतः कुठार में तृतीया विभक्ति हुई)। 14. कर्तृकरणयोस्तृतीयो-[ अनुक्त ] कर्ता ( कर्मवाच्य और भाववाच्य का कर्ता) तथा करण में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे--रामेण बाणेन हतो बाली (राम के द्वारा बाण से बाली मारा गया; यहाँ 'हन्' धातु से कर्मवाच्य में 'क्त' प्रत्यय जोड़ने पर 'हतः' बना है। कर्मवाच्य में 'क्त' होने से यहां 'क्त' से कर्म 'उक्त' है, तथा कर्ता और करण अनुक्त हैं); मया गम्यते (मरे द्वारा जाया जाता है; यहाँ भाववाच्य की क्रिया का प्रयोग है। अतः कर्ता अनुक्त है); अहं जलेन मुखं अक्षालयामि (मैं जल से मुख धोता हूँ; इस कर्तृवाच्य के प्रयोग में क्रिया से कर्ता 'उक्त' है परन्तु करण अनुक्त' है)। 15. अपवर्ग तृतीया-अपवर्ग (फलप्राप्ति या कार्यसिद्धि) में तृतीया होती है। यह 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' का विशेष विधान है। अर्थात कालवाचक और मार्गवाचक शब्दों में तृतीया होती है यदि वहाँ अत्यन्तसंयोग के साथ फलप्राप्ति भी हो। जैसे-अह्रा क्रोशेन वा पुस्तकम् अधीतवान् ( एक दिन में या एक कोस में पुस्तक पढ़ ली; अर्थात् पूरे दिन भर अथवा पूरे एक कोस चलते-चलते पुस्तक को, पढ़ लिया तथा पढ़ने का फल जो ज्ञान है वह भी प्राप्त कर लिया ); पञ्चभिः दिन। नीरोगो जातः (पांच दिनों में नीरोग हो गया ); मासेन योजनेन वा व्याकरणम तृतीया विभक्ति ] 1: व्याकरण धीतम् (एक महीने में या एक योजन में व्याकरण पढ़ ली); अहा क्रोशेन वा कथा समाप्तवान् (एक दिन में या एक कोस में कथा पूरी पढ़ ली)। फलप्राप्ति न होने पर द्वितीया ही होगी-'मासमधीतो नायातः' ( महीने भर पड़ा. परन्तु ज्ञान प्राप्त नहीं हुभा ) / 16. सहयुक्तेऽप्रधाने--सह (सह, साकं, समं, सार्धम् आदि सहार्थक शब्दों) का योग होने पर अप्रधान (जो प्रधान = कर्ता का साथ देता है) में तृतीया होती है। जैसे-पुत्रेण सह आगतः पिता (पुत्र के साथ पिता जी आए; यहाँ पिता प्रधान कर्ता है और पुत्र अप्रधान कर्ता क्योंकि पिता का ही क्रिया के साथ मुख्य सम्बन्ध है); पित्रा सह आगतः पुत्रः (पिता के साथ पुत्र आया; इस वाक्य में पुत्र प्रधान का है और पिता अप्रधान); गुरुणा साकं साध समं सह वा छात्रा: गच्छन्ति ( गुरु के साथ छात्र जाते हैं)। 17. पृथग्विनानानाभिस्तृतीयाऽन्यतरस्याम्-पृथक् ( अलग ), विना और नाना ( विना) इन शब्दों के योग से तृतीया विकल्प (= अन्यतर-द्वितीया और पञ्चमी ) से होती है। जैसे-रामेण रामात् रामं वा बिना दशरथो नाजीवत (राम के बिना दशरथ नहीं जिये); उर्मिला चतुर्दशवर्षाणि लक्ष्मणं लक्ष्मणेन लक्ष्मणाद वा पृथक् निवसति स्म (उर्मिला चौदह वर्षों तक लक्ष्मण से अलग रही); नाना नारी निष्फला लोकयात्रा (नारी के बिना संसारयात्रा निष्फल है); प्रकृतेः पृथक् (प्रकृति से भिन्न ),वियां बिना सुखं नास्ति / 18. येनाङ्गविकार:--जिससे अङ्गी' ('अवयवधर्म का समुदाय में आरोप होता है' इस नियम से सूत्र में अङ्ग शब्द अङ्गीवाचक है / 'अङ्गानि अस्य सन्ति' = इसके अङ्ग हैं। इस अर्थ में अङ्ग शब्द से मत्वर्थीय 'अच्' प्रत्यय हुआ है) का विकार द्योतित हो, उससे तृतीया हो; अर्थात् जिस अङ्ग के विकृत होने से अङ्गी का विकार लक्षित होता है. उस विकृत अङ्गवाचक शब्द से तृतीया होती है। जैसे—अक्षणा काणः ( एक आँख से काना ); कर्णन बधिरः ( कान से बहिरा); उदरेण तुन्दिलः (पेट से तोंदू): पृष्ठेन कूब्जः (पीठ से कूबड़ा); पादेन खजः (पैर से लंगड़ा); शिरसा खल्वाटः (शिर से गंजा)। जहाँ अङ्गी में विकार न मालूम पड़े बही नृतीया नहीं होगी-अक्षि काणम् अस्य ( इसकी आँख कानी है)। 16. इत्थंभूत लक्षणे-इत्थंभूतलक्षण ( अयं प्रकारः इत्थं, तं भूतः = प्राप्तः इत्थंशुतः, तस्य लक्षणे = इत्यंभूतलक्षणे / इत्थं का अर्थ है-अयं प्रकारः 'यह प्रकार'; अर्थात् इसका सामान्य अर्थ है-विशेषण / भूतः 'भू + क्त' का अर्थ है-'प्राप्त'। लक्षण का अर्थ है-'ज्ञापित') में तृतीया होती है; अर्थात् जब किसी चिह्नविशेष रो किसी वस्तुविशेष की पहचान होती है तो वहाँ उस चिह्नविशेष में तृतीया होती Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [7 : कारक और विभक्ति है। जैसे-जटाभिस्तापसः (जटाओं से तपस्वी ज्ञात होता है। यहाँ 'तापसत्व' तापस का प्रकार विशेषण है और तापस का ज्ञापक है 'जटा'); दण्डेन सन्यासी (दण्ड से सन्यासी लगता है)। 20. हेतौ-हेतु ( हेत्वयं = कारण अर्थ ) में [ हेतुवाचक शब्दों से तृतीया होती है। जैसे-दण्डेन घटः ( दण्डहेतुक घट = दण्ड घट का हेतु है); पुण्येन दृष्टो हरिः (पुण्य के कारण हरि के दर्शन हुए): धनं परिश्रमेण भवति (धम परिश्रम से प्राप्त होता ); बुद्धिः विद्यया वर्धते (बुद्धि विद्या से बढ़ती है)। विशेष के लिए 'षष्ठी हेतुप्रयोगे' द्रष्टव्य है। चतुर्थी विभक्ति ( Fourth case-ending) 21. कर्मणा यमभिप्रेति स सम्प्रदानम्-[ दान क्रिया के ] कर्म के द्वारा [कर्ता] जिसको अभिप्रेत ( सन्तुष्ट या सम्बन्धित ) करता है वह सम्प्रदान (सम्यक् प्रदीयते अस्मै तत् सम्प्रदानम् - जिसको पूरी तरह से दिया जाता है ऐसे देय द्रव्य का उद्देश्य सम्प्रदान ) कहा जाता है। सम्प्रदानसंशा होने पर अग्रिम मूत्र 'चतुर्थी सम्प्रदाने से उसमें चतुर्णी विभक्ति होती है। जैसे--विप्राय गो पदाति (ब्राह्मण को दान में गाय देता है। यहाँ का गोदान कर्म के द्वारा ब्राह्मण को सन्तुष्ट करना चाहता है)। ____ यदि सपा दान अर्थ नहीं होगा तो 'षष्ठी शेषे' सूत्र से षष्ठी विभक्ति होगी- रजकस्य वस्त्रं ददाति' (धोबी को धोने के लिए कपड़ा देता है)। 22. चतुर्थी सम्प्रदाने-सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसेबालकाय पुस्तकं ददाति ( लड़के को पुस्तक दान में देता है)। 23. रुच्यर्थानां प्रीयमाण:-रच्यर्थकों (प्रीति अर्थ वाली रुच् , स्वद् आदि धातुओं) के योग में] प्रीयमाण (प्रसन्न होने वाला) सम्प्रदान हो। जैसे-हरये रोचते भक्तिः (हरि को भक्ति अच्छी लगती है); मह्यम् अध्ययनं रोचते ( मुझे अध्ययन अच्छा लगता है); बालकाय मोदकाः रोचन्ते ( बालक को लड्डू अच्छे लगते हैं)। 24. धाररुत्तमर्णः-धारि (णिजन्त'' = कर्ज लेना या उधार लेना) धातु के योग में उत्तमर्ण (ऋण देने वाला साहूकार) सम्प्रदान होता है। जैसे-श्यामः यज्ञदत्ताय शतं धारयति ( श्याम ने यशदत्त से सौ रुपया उधार लिया है); त्वं मां सहस्रं धारयसि ( तुम मेरे सौ रुपये के ऋणी हो); भक्ताय धारयति वं हरिः (हरि भक्त के लिए मोक्ष के ऋणी हैं)। 25. क्रुधदुहेासूयार्थानां यं प्रति कोपः-धु (कोध करना), दुह (द्रोह मार करना), यं. (ईया करना) तथा असूब (बाह करना या ऐव चतुर्थी विभक्ति ] 1 : व्याकरण [75 निकालना) के अर्थ वाली धातुओं के योग में जिसके प्रति क्रोधादि किया जाता है, वह सम्प्रदान होता है। जैसे-हरये ऋध्यति ब्रह्मति ईष्यति असूयति वा (हरि के ऊपर क्रोध करता है, द्रोह करता है अथवा असूया करता है); खलाः सज्जनेभ्यः असूयन्ति ( दुष्ट सज्जनों से असूया करते हैं ) / विशेष---जब कुध और दह धातुयें सोपसर्ग होती है तब वहाँ कर्मसंज्ञा होती है-गुरुं खलः छात्रः संऋष्यति ( गुरु के प्रति दृष्ट छात्र क्रोध करता है); क्रूरमभिकुष्यति अधिग्रुह्यति वा (तर के प्रति क्रोध य. द्रोह करता है)। 26. तादध्ये चतर्थी वाच्या (वार्तिक)-तादर्थ्य (तस्मै कार्याय इदं तदर्थम् , तदर्थस्य भावः तादयम् = तदर्थ + ष्यम् ) में चतुर्थी जानना चाहिए; अर्थात जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य किया जाता है उस प्रयोजन में चतुर्थी होती है। जैसे-मुक्तये हरि भजति (भूक्ति के लिए हरि को भजता है); शिशुः मोदकाय रोदिति (बालक लड्डू के लिए रोता है); काव्यं यशसे ( काव्य यश के लिए); विद्या विवादाय धनं मदाय (विद्या विवाद के लिए और धन मद के लिए ) / 27. क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः-क्रियार्था-क्रिया (क्रिया अर्थः फलं यस्याः सा क्रिया सा क्रिया क्रियाक्रिया' अर्थात् जिस क्रिया का फल कोई क्रिया हो उस क्रिया को 'क्रियार्थाक्रिया' कहते हैं) जिसका उपपद (पदस्य समीपम् उपपदम् पद के समीप में जो रहता है उसे उपपद कहते है / यद्यपि क्रिया उपपद नहीं हो सकती है तथापि वाचक शब्द के द्वारा उसमें उपपदत्व माना गया है), है ऐसे स्थानी (पदनिवुस अधिकारी 'स्थानी' कहलाता है, तदनुसार अप्रयुज्यमान 'तुमुन्' प्रत्ययान्त पद की प्रकृतिभूत धातु ) के कर्म में चतुर्थी होती है, अर्थात् यदि 'तुमुन् प्रत्ययान्त धातु का प्रयोग परोक्ष रहे तो उसके कर्म में चतुर्थी होती है / जैसे-फलेभ्यो याति (= फलानि आनेतुं याति =फल लाने के लिए जाता है। यहाँ 'याति' किया 'क्रिया-क्रिया' या 'क्रिया फलक-क्रिया है क्योंकि 'गमन' क्रिया का प्रयोजन है 'फलों को लाना'। यह 'याति' क्रिया अप्रयुज्यमान 'आहतुम्' 'मा+ह + तुमुन्' पद के लिए उपपद है / अतएव स्थानी 'ह' धातु के कर्म 'फल' में द्वितीया न होकर चतुर्थी हुई); बनाय गाम् अमुञ्चत् ( वनं गन्तुं गाम् अमुञ्चत बन जाने के लिए गाय को छोड़ा); नमस्कुर्मो मृसिंहाय (=सिंहम् अनुकूलयितुं नमस्कुर्मः नृसिंह भगवान् को अनुकूल करने के लिए नमस्कार करते हैं ) / 28. तुमर्थाच भाववचनात्–'तुमुन्' अर्थवाची भाव-प्रत्ययान्त शब्दों से भी चतुर्थी होती है। अर्थात् 'तुमुन्' प्रत्यय के अर्थ को प्रकट करने के लिए उसी धातु (जिससे 'तुमुन्' प्रत्यय करना हो ) से बनी हुई भाववाचक संज्ञाओं में चतुर्षी होती है। जैसे—यागाय ( यज् + घञ्न्यागः ) याति (यष्टुं 'यज् + तुमुन्' याति यज्ञ क्रिया इय क्रियार्था, क्रिया क्रिया उथपदं यस्य सातत्य क्रियाषिपदस्य। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [7 : कारक और विभक्ति करने के लिए जाता है); दानाय ( दातुम् ) धनमबर्जयति ( दान देने के लिए धन कमाता है); पठनाय (पठितुम् ) इच्छति ( पढ़ने की इच्छा रखता है)। 26. नमास्वस्तिस्वाहास्वधालवषड्योगाच-नमः ( नमस्कार ), स्वस्ति ( मंगल, कल्याण ), स्वाहा ( देवता को दाम), स्वधा (पितरों को वाम ), अलम् ( समर्थ, पर्याप्त ) और वषट् ( हवि का दान ) के योग से [ जिसे नमस्कार आदि किया जाए, उसमें ] चतुर्थी होती है। जैसे-हरये नमः ( हरि को नमस्कार); प्रजाभ्यः स्वस्ति (प्रजाओं का मंगल ); अग्नये स्वाहा (अग्नि देवता को दान); पितृभ्यः स्वधा (पितरों को दान ) दैत्येम्यो हरिरलम् ( दैत्यों के लिए हरि पर्याप्त हैं); इन्द्राय वषट् ( इन्द्र के लिए हवि का दान)। 'अलम्' यदि निषेध अर्थ में प्रयुक्त होगा तो तृतीया विभक्ति होगी-'अलं महीपाल तव श्रमेण (हे राजन् ! आप व्यर्थ श्रम न करें)। ___ 'उपपदविभक्तेः कारकविभक्तिबलीयसी' इस पूर्वोक्त नियम से 'मुनित्रयं नमस्कृत्य' में द्वितीया विभक्ति हुई है। पश्चमी विभक्ति ( Fifth case-ending ) 30. ध्रुवमपायेऽपादानम्-अपाय ( अप + अय् + घअपाय 3 विश्लेष या विभाग) होने पर ध्रुव ( अवधिभूत) अपादानसंज्ञक होता है। अर्थात् जिससे विभाग होता है वह (घुव) अपादान होता है। अपादान संज्ञा होने पर अग्रिम सूत्र 'अपादाने पञ्चमी' से पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे--वृक्षात् पत्रं पतति (वृक्ष से पत्र गिरता है। यहाँ 'वृक्ष' अवधिभूत है और उससे पत्र विभक्त हो रहा है; धावतोऽश्वात् पतति ( दौड़ते हुए घोड़े से गिरता है)। 11. अपादाने पञ्चमी-अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसेसः प्रासादात् अपतत् (वह महल से गिरा); ग्रामावायति सः (बह गांव से आता है)। 32. जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम् (वा.)-जुगुप्सा (घृणा), विराम (विरति) तथा प्रमाद (असावधानी) अर्थ वाली धातुओं का भी [ अपादान संज्ञा के रूप में ] परिगणन करना चाहिए; अर्थात् इन धातुओं के अर्थ वाली धातुओं के योग में जिससे जुगुप्सा आदि की जाये उसकी अपादान संज्ञा होती है। इसमें बुद्धि परिकल्पित विभाग का विधान किया गया है। जैसेपापाज्जुगुप्सते विरमति वा (पाप से घृणा करता है या विरक्त होता है); धर्माप्रमाद्यति (धर्म से प्रमाद करता है); स्वाधिकारात्प्रमत्तः (अपने अधिकार से प्रमत्त); सत्यान्न प्रमदितव्यम् (सत्य से प्रमाद नहीं करना चाहिए); स्वाध्यायान्मा प्रमदः ( स्वाध्याय से प्रमाद मत करो)। पञ्चमी विभक्ति] 1: व्याकरण [77 33. भीत्रार्थानां भयहेतुः-भयार्थक और प्राणार्थक धातुओं ('भी' तथा '' धातु के अर्थ वाली धातुओं) का योग होने पर भय का कारण अपादान होता है। वस्तुतः यहाँ बुद्धिकल्पित विभाग ही है। जैसे–चौराद् बिभेति (चोर से डरता है); लोकापवादाद भयम् (लोकनिन्दा से भय ); मार्जाराद् दुग्धं त्रातुमिच्छति (बिल्ली से दूध की रक्षा करना चाहता है); मां नरकपासात् रक्ष (नरक में गिरने से मेरी रक्षा करो)। भय-हेतु के न होने पर अपादान संज्ञा नहीं होगीअरण्ये बिभेति ( जंगल में डरता है; यहाँ जंगल से भय नहीं है अपितु जंगली जीवों से भय है जो इस वाक्य में नहीं है)। 4. बारणार्थानामीप्सितः-वारणार्थक (वारण प्रवृत्ति को रोकना) धातुओं के [प्रयोग होने पर ] ईप्सित की अपादान संशा होती है। अर्थात् जिससे किसी को वारण करना अभिलषित हो उसमें पञ्चमी होती है। जैसे—यवेभ्यो गां वारयति (जौ से गाय को रोकता है); पापानिवारयति मित्रम् ( मित्र को पाप से दूर करता है); अग्नेः बालकान् वारयति (आग से बालक को दूर करता है)। 35 अन्तधौं येनादर्शनमिच्छति-गोपन (= अन्तधि 'अन्तर् +या+कि'= व्यवधान) होने पर जिससे अदर्शन की इच्छा करता है वह अपादान होता है; अर्थात् जब कोई किसी से अपने को छिपाना चाहता है तो जिससे छिपाना चाहता है वह अपादानसंज्ञक होता है। जैसे--मातुनिलीयते कृष्णः (कृष्ण माता से छिपता है); अन्तर्धत्स्व रघुव्याघात् राक्षसेश्वर ! (हे राक्षसराज रावण ! तुम रघुरूपी व्याघ्र से अपने को छिपाओ)। 36. आख्यातोपयोगे-उपयोग ( उपयुज्यते फलाय इति उपयोगः जो निश्चित फल के लिए प्रयुक्त हो; परन्तु यहाँ यह शब्द नियमपूर्वक विद्याग्रहण में रूट है) में आख्याता (आ समन्ताद ख्याति वक्ति इति आख्याता गुरु, उपाध्याय) अपादानसंज्ञक होता है; अर्थात् जिससे नियमपूर्वक विद्या सीखी जाती है वह गुरु अपादान होता है। जैसे-उपाध्यायाद् अधीते ( उपाध्याय से पढ़ता है); अध्यापकात् संस्कृतं पठति (शिक्षक से संस्कृत पढ़ता है)। नियमपूर्वक विद्या न सीखने पर षष्ठी होगी--'नटस्य गाथां शृणोति' (नट की गाथा सुनता है)। 37. जनिकतेः प्रकृतिः-उत्पत्ति के कर्ता (जनेः उत्पत्त्याः कर्ता जानकर्ता तस्य जनिकर्तुः% जायमानस्य- उत्पत्ति का कर्ता वही होता है जो उत्पन्न होता है) की प्रकृति (हेतु) अपादान होती है; अर्थात् 'जनि' (पैदा होना) धातु के कर्ता का मूल कारण अपादान होता है / जैसे—ब्रह्मणः प्रजाः प्रजायन्ते (ब्रह्मा से प्रजायें उत्पन्न होती हैं ); गोमयात् वृश्चिको जायते ( गोबर से बिच्छू पैदा होता है ); Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78] संस्कृत-प्रवेशिका [7 : कारक और विभक्ति 'पात्रापात्रविवेकोऽस्ति घेनुपन्न गयोर्यथा / तृणात्संजायते क्षीरं क्षीरात्संजायते विषम्'। (गाय और सर्प में पात्र और अपात्र का विवेक है। अत: गाय में घास से दूध पैदा होता है और सर्प में दूध से विष पैदा होता है)। 15. भुवः प्रभवः-भू (भवन-प्रथम प्रकाश या आविर्भाव) [ के कर्ता ] का प्रभव (प्रथम प्रकाशन स्थल ) अपादानसंज्ञक होता है; अर्थात् प्रभव (प्रभू धातु ) के योग में प्रथम प्रकाशन स्थल ( आविर्भाव स्थल ) अपादान होता है। यहाँ 'प्रथम प्रकाशन' का अर्थ उत्पत्ति नहीं है। पूर्वसूत्रस्थ 'जनि' का अर्थ है'अभूतप्रादुर्भाव' और 'प्रभव' का अर्थ है-'अन्य स्थल से सिद्ध वस्तु का प्रथम उपलम्भ (ज्ञान या प्रकाशन)। जैसे-हिमवतो गङ्गा प्रभवति (हिमालय से गङ्गा आविर्भूत होती है। यहाँ गङ्गा का उत्पत्तिस्थान हिमालय नहीं है अपितु गजा का उत्पत्तिस्थान विष्णु का चरण है, पश्चात् ब्रह्मा के कमण्डलु में, अनन्तर शिव की जटा में, पुनः हिमालय में उसका प्रकाशन होता है); धर्मादर्थः प्रभवति (धर्म से अर्थ होता है); लोभात् क्रोधः प्रभवति ( लोभ से क्रोध होता है)। 36. पन्चमी विभक्ते-विभक्त (विभाग होने पर भेदाश्रय) में पञ्चमी होती है / यह सूत्र आगे आने वाले 'यतश्च निर्धारणम्' सूत्र का विशेष विधान करता है; अर्थात जब सर्वथा भित्र दो वस्तुओं में परस्पर (तारतम्य के आधार से ) पार्थक्य (विभाजन) बतलाया जाता है तो जिससे भेद बतलाया जाता है उसमें पञ्चमी होती है। जैसे-माथुराः पाटलिपुत्रकेभ्यः आढयतराः (मथुरा के लोग पटना के लोगों की अपेक्षा धनी अधिक हैं); धनात् विद्या गरीयसी (धन से विद्या प्रशस्य है); देवदत्तात् यज्ञदत्तः सुन्दरतरः ( देवदत्त से यज्ञदत्त सुन्दर है); मौनात् सत्यं विशिष्यते (मौन से सत्य प्रशस्य है); वरात् परं नास्ति (ईश्वर से बढ़कर कुछ नहीं है)। 40. अन्यारादितरतेदिकशब्दाब्यूत्तरपदाजाहियुक्ते-अन्य( भिन्न), भारात् (दूर या निकट), इतर (भिन्न), ऋते (विना), दिग्वापक शब्द (पूर्व, दक्षिण आदि), अचूत्तरपद (समास के अन्त में प्रयुक्त 'अञ्च' पातु से निष्पन्न दिग्याचक शब्दप्राक्, प्रत्यक् , उदक आदि), 'आच्' प्रत्यान्त दिग्वाचक शब्द ( दक्षिणा, उत्तरा आदि) तथा 'आहि' प्रत्ययान्त दिग्वाचक शब्द (दक्षिणाहि, उत्तराहि आदि)इनके योग में पन्चमी होती है। यहाँ 'इतर' शब्द का पृथक् ग्रहण अन्यार्थक भिन्न, पर, अपर आदि समस्त शब्दों के ग्रहण के लिये है। 'अञ्चूतरपद' वस्तुतः दिक् शब्द ही है। जैसे - अन्यो भिन्न इतरो वा कृष्णात (कृष्ण से भिन्न); आराद बनात, (वन से निकट या तूर); ऋते कृष्णाव, (कृष्ण के विना); ज्ञानात् ऋते न सुखम् (ज्ञान के / विना सुख मही): प्राक् प्रत्यग्दा प्रामात् (गांव के पूर्व या पश्चिम की ओर); षष्ठी विभक्ति ] 1: व्याकरण [76 त्रात् पूर्वः फाल्गुनः (चैत्र से पहले फाल्गुन है); दक्षिणा दक्षिणाहि वा प्रामा (गाँव से दक्षिण या दक्षिणी दिशा की ओर); दक्षिणाहि ग्रामात् (गांव से दक्षिण); उत्तरा समुद्रात ( समुद्र से उत्तर की ओर)। ... 41. दूरान्ति कार्थेभ्यो द्वितीया च-दूरार्थक और अन्तिकार्षक ( समीपार्थक) शब्दों से द्वितीया [तृतीया और पञ्चमी ] भी हो। यहां चकार से तृतीया और पञ्चमो का ग्रहण होता है तथा सप्तम्यधिकरणे च' सूत्र में प्रयुक्त 'च' से प्रकरण-प्राप्त दूर और अस्तिक अर्थ वाले शब्दों से सप्तमी भी होती है। जैसे-दरं दूरेण दुरात् दूरे वा ग्रामस्य ग्रामद्वा (गाँव से दूर); अन्तिकम् अन्तिकेन अन्तिकाद अन्तिके वा निकटं निकटेन निकटात् निकटे वा वनस्य बनाद्वा ( बन के समीप); 'दूरादावसथान्मूत्र दूरात्पादावसेचनम् / दूराच्च भाव्यं दस्युभ्यो दूराच्च कुपिताद् गुरोः' / (म० भा०) निवास स्थान से दूर में पेशाब करना चाहिए तथा पैर घोना चाहिए। चोरों से तथा कुपित गुरु से दूरी पर रहना चाहिए। षष्ठी विभक्ति (Sixth case-ending) 42. षष्ठी शेषे-शेष ( कारक और प्रातिपदिकार्थ से भिन्न स्व-स्वामिभाव आदि सम्बन्धविशेषों) में षष्ठी विभक्ति होती है; अर्थात् जो काम अन्य विभक्तियों से नहीं होता है उसमें षष्ठी विभक्ति होती है / षष्ठी विभक्ति कारक-विभक्ति नहीं है। इसमें वाक्य के एक शब्द का दूसरे शब्द के साथ सम्बन्ध बतलाया जाता है। ये सम्बन्धविशेष कई प्रकार के होते है / जैसे-स्वामी और नौकर का (स्व-स्वामिभाव), पिता और पुत्र का (जन्य-जनकभाव), मिट्टी और पड़ा का (कार्य-कारणभाव) सम्बन्ध / इन्हीं सम्बन्धविशेषों को बतलाने के लिए षष्ठी का प्रयोग होता है। सम्बन्ध यद्यपि द्विष्ठ (दो में रहने वाला होता है परन्तु षष्ठी विभक्ति सम्बन्धी पदार्थों में जो विशेषण (भेदक) होता है उसी में होती है। जैसे-राज्ञः पुरुषः ( राजा का आदमी); बालकस्य पिता (बालक का पिता); मृत्तिकायाः घटः (मिट्टी का घड़ा); रामस्य पुस्तकम् ( राम की पुस्तक); तस्य चित्तम् ( उसका अन्तःकरण); स्खलनं मनुष्याणां धर्मः (गलती करना मनुष्य का धर्म है); यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा (जिसकी स्वयं बुद्धि नहीं है)। 43. षष्ठी हेतुप्रयोगे हेतु [शब्द ] का प्रयोग होने पर [ तथा हेतुत्व के चोतित होने पर हेतुवाचक शब्द में ] षष्ठी हो; अर्थात् हेतु के (कारण या प्रयोजन) अर्थ होने पर यदि हेतु' शब्द का भी प्रयोग हा हो तो हेतु वाचक शब्द में षष्ठी होती है। यह 'हेतो' सूत्र का अपवाद है / जैसे--अन्नस्य हेतोर्वसति ( अन्न की प्राप्ति के प्रयोजन से रहता है); अध्ययनस्य हेतोः वाराणस्यां तिष्ठति (अध्ययन के प्रयोजन से वाराणसी में रहता है), अम्पस्य है.तो दातुमिच्चन / Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठी, सप्तमी विभक्ति 80] 1. व्याकरण तुल्य संस्कृत-प्रवेशिका [7 : कारक और विभक्ति हेतु' शब्द का प्रयोग न होने पर 'हतो' सूत्र से तृतीया होगी-'अध्ययनेन वसति'। निमित्तार्थक शब्द के साथ यदि सर्वनाम का भी प्रयोग हो तो प्रायः सभी विभक्तियों का प्रयोग होता है-को हेतुः, कं हेतुम्, केन हेतुना, कस्मै हेतवे, कस्मात् हेतोः, कस्य हेतोः, कस्मिन् हेती (किस हेतु से)। इसी प्रकार--- किं निमित्तम, कि प्रयोजनम् (कौन सा प्रयोजन); ज्ञानेन निमित्तेन, ज्ञानाय निमित्ताय, ज्ञानात् निमितात, ज्ञानस्य निमित्तस्य, ज्ञाने निमित्ते हरिः सेव्यः (शान के लिए हरि सेव्य हैं)। असर्वनाम का प्रयोग होने पर प्रथमा और द्वितीया नहीं होती हैं / 44. कर्तृकर्मणोः कृति-'कृत्' (तच, घ, युट्, क्तिन्, ण्वुल आदि कृत् ) [प्रत्ययान्त शब्दों के योग] में कर्ता और कर्म में षष्ठी होती है। सामान्य नियमानुसार 'अनुक्त' कर्ता में तृतीया, अनुक्त कर्म में द्वितीया तथा उक्त कर्ता एवं कर्म में प्रथमा होती हैं। यह इस नियम का अपवाद है। अर्थात् कृत् प्रत्ययान्त (गतिः भोजनम् आदि) पदों का प्रयोग होने पर उनके कर्ता और कर्म में षष्ठी होती है (तिडन्त के कर्ता और कर्म में नहीं)। जैसे--कृष्णस्य कृतिः (क+क्तिन् कृष्णकर्तृक कृति-कृष्ण की कृति); वेदस्य अध्येता (अधि+ ईङ् + तृच् वेद का अध्ययनकर्ता) / यहाँ प्रथम वाक्य में 'कृति' का कर्ता 'कृष्ण' तथा द्वितीय वाक्य में 'अध्येता' का कर्म 'वेद' षष्ठी विभक्ति में है। अन्य उदाहरण-जगतः कर्ता (कृ + तृच्) कृष्णः (जगत् का कर्ता कृष्ण है); बालकानां रोदनम् (रुद + ल्युट् बालकों का रोना ); विषस्य भोजनम् (भुज् + ल्युट्, विष का भोजन ); राक्षसानो पातः (हन् + पञ्; राक्षसों का विनाश); राज्यस्य प्राप्तिः (प्राप् + क्तिन्: राज्य की प्राप्ति); पुस्तकस्य पाठकः (पठ् + ण्वुल; पुस्तक का पाठक); या सृष्टिः स्रष्टुराधा (सृज + क्तिन्; जो ब्रह्मा की प्रथम सृष्टि है)। 45. उभयप्राप्ती कर्मणि-[एक ही कृत के योग में ] उभयप्राप्ति (कर्ता और कर्म दोनों की उपस्थिति) होने पर कर्म में षष्ठी हो [कर्ता में नहीं] / जैसेआश्चर्यो गवां दोहः (दुह + धम्) अगोपेन (अगोपकर्तृक गोकर्मक जो दोहन वह अद्भुत है - आश्चर्य है, अगोप से गायों का दुहा जाना); ग्रन्थानां पाठः अशिक्षितेन (अशिक्षित ने ग्रन्थों का पाठ किया)। यदि कर्ता और कर्म भिन्न-भिन्न 'कृत्' से सम्बन्धित होंगे तो इस सूत्र की गति नहीं होगी। जैसे-ओदनस्य पाकः ब्राह्मणानां च प्रादुर्भावः ( अन्न का पाक और ब्राह्मणों का प्रादुर्भाव) / 46. तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्याम्-'तुला' और 'उपमा' को छोड़कर तुल्यार्थक (तुल्य, सदृश, सम आदि) शब्दों से तृतीया विकल्प (विकल्पाभाव। में षष्ठी) से होती है / तुला और उपमा के साथ षष्ठी ही होती है, तृतीया नहीं। जैसे -कृष्णस्य उपमा तुला वा नास्ति ( कृष्ण की तुलना नहीं है); कृष्णस्य कृष्णेन / 1.निमिजपाययौ सर्वात प्रामदर्शनम्।प्रामगृहणार असर्वनाम्ना दिली जस्त:/ वा तुल्यः सदृशः समो वा ( कृष्ण के सदृग); नायं मया भम वा पराक्रम विमति (यह मेरे बराबर पराक्रम नहीं रखता)। 47. षष्ठी चानादरे-अनादर [ के अतिशय ] मैं [ सप्तमी के साथ ] षष्ठी भी हो [ यदि भावलक्षण हो]। इस सूत्र में 'यस्य च भावेन भावलक्षणम्' सूत्र की अनुवृत्ति है तथा चकार से सप्तमी की अनुवृत्ति है। इस प्रकार इस सूत्र का अर्थ हुमा 'जिसके भाव ( क्रिया) से अनादर (तिरस्कारातिशय) विषयक भावान्तर (क्रियान्तर ) लक्षित हो उससे षष्ठी तथा सप्तमी हो। अनादर का अर्थ म होने पर सप्तमी ही होगी, षष्ठी नहीं / जैसे-रुदति पुत्र स्वतः वा पुत्रस्य प्रावामीत् (रोते हुए पुत्र का तिरस्कार करके वह सन्यासी हो गया; यहाँ 'रुदतः' किया शब्द से 'प्राबजीत' रूप क्रियान्तर तथा बच्चों की परवाह न करके उनका अत्यधिक तिरस्कार भी लक्षित हो रहा है); निवारयत्यपि पितरि निवारयतोऽपि पितुः देवदत्तः अध्यपनं परित्यक्तवान् (पिता के रोकने पर भी देवदत्त ने पढ़ना छोड़ दिया)। सप्तमी विभक्ति (Seventh case-ending) 48. आधारोऽधिकरणम्-[कर्ता या कर्म से सम्बन्धित क्रिया का आधार अधिकरण होता है / अधिकरण तीन प्रकार का होता है (क) औपश्लेषिक आधार ( Location of contact )-जिसके साथ आधेय का संयोग (भौतिक या शारीरिक सम्बन्ध हो। जैसे-कटे आस्ते (पटाईपर बैठा है); स्थाल्यां पचति (बटलोई में पकाता है)। (ख) बैषयिक आधार (Location of object)-जिसके साथ आधेय का बौद्धिक सम्बन्ध हो / जैसेमोक्षे इच्छाऽस्ति (मोक्ष में इच्छा है); प्रातःकाले पठति (सुबह पढ़ता है)। (ग) अभिव्यापक आवार-(Location of pervasion)-जिसके साथ भाषेय का व्याप्य-व्यापक (आधार के सभी अवयवों को व्याप्त करके आधेय वस्तु का रहना) सम्बन्ध हो। जैसे-सिलेषु तलम् [ तिलों में तेल है ]; सर्वस्मिन्नास्मास्ति [ सब में आत्मा है]। 46. सप्तम्यधिकरणे च-अधिकरण में सप्तमी होती है [सूत्र में प्रयुक्त 'च' का अर्थ ४१वें सूत्र में स्पष्ट किया गया है। जैसे-पृथिव्या क्रीडति ( जमीन पर खेलता है); भानौ तापः ( सूर्य में गर्मी है); पुष्पे गन्धः (फूल में गन्ध है)। 50. निमित्ताकर्मयोगे [बा०]-कर्मयोग ( कर्म-सम्बन्ध ) में निमित्त [ फल ] से सप्तमी होती है; अर्थात् जिस फल की प्राप्ति के लिए कोई क्रिया की जाती है, वह फल यदि उस क्रिया के कर्म से सम्बद्ध (समवेत) हो तो उस फल / (निमित्त) में सप्तमी होती है। जैसे-चर्मणि द्वीपिनं हन्ति (चमड़े के लिए हाथी Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय समास (Compound) 52] संस्कृत-प्रवेशिका [7 : कारक और विभक्ति को मारता है। यहाँ कलभूत चर्म हनन क्रिया के कर्म (हाथी) के साथ सम्बद्ध है। अतः चर्म में सप्तमी हुई है); दन्तयोः हन्ति कुञ्जरम् (दांत के लिए कुञ्जर हाथी को माता है); केशेषु चमरी हन्ति (बालों के लिए चमरी मृग को मारता है)। 51. यस्य च भावेन भावलक्षणम् (यस्य च क्रियया क्रियालक्षणम् )-- जिसके भाव (क्रिया) से भाव का लक्षण (क्रियान्तर का द्योतन) हो उससे सप्तमी हो / यहाँ 'भाव' का अर्थ है-'क्रिया' / भाव शब्द के दो बार प्रयोग होने से परवर्ती भाव का अर्थ है-द्वितीय क्रिया (क्रियान्तर)। फलतः इस सूत्र का अर्थ होगा-'जिसकी क्रिया से दूसरी क्रिया का पता चलता है उससे (प्रथम क्रिया वाले से).सप्तमी हो।' इस प्रकार के वाक्यों में एक कार्य (क्रिया) के होने पर दूसरे कार्य (क्रिया) का होना प्रकट होता है तथा पहले होने वाले कार्य में 'शत', 'शान' अथवा क्त, क्तवतु आदि प्रत्ययों से निष्पन्न शब्द का क्रिया के रूप में प्रयोग किया जाता है। पहले प्रारम्भ होने वाली क्रिया यदि कर्तृवाच्य में होती है तो 'शतृ' आदि क्रिया के साथ कर्ता में और यदि कर्मवाच्य में होती है तो 'शतृ' आदि क्रिया के साथ कर्म में सप्तमी होती है / जैसे-मया कार्य कृते सः आगतः (मेरे द्वारा कार्य किये जाने पर वह आया); गोषु दुह्यमानासु बालकाः गृहमगच्छन् (गायों के दुहे जाते समय बालक पर गये); रामे वनं गते दशरथः मृतः ( राम के बन जाने पर दशरथ मृत्यु को प्राप्त हो गये) ब्राह्मणेषु अधीयानेषु सः गतः (ब्राह्मणों के अध्ययन करते समय पह गया);सूर्य अशा गते गोया यरभगच्यन् / 52. यतश्च निर्धारणम्-जिससे ( जिस समुदाय से ) निर्धारण (एक देश का पृथक्करण) हो उससे ( समुदाय से) षष्ठी तथा सप्तमी हो; अर्थात् जब किसी समुदाय ( वर्ग) से किसी विशेषता (जाति, गुण, क्रिया आदि) के कारण निर्धारण (पृथक्करण ) किया जाता है तो समुदायवाचक शब्द में सप्तमी तथा षष्ठी होती है। जैसे-गोषु गवां वा कृष्णा बहुक्षीरा (गायों में काली गाय बहुत दूध देती है) छात्रेषु छात्राणां वा मैत्रः पटुः (छात्रों में मंत्र चतुर है); गच्छत्सु गग्छता वा धावन् शीघ्रः (चलने वालों में दौड़ने वाला शीघ्र होता है); कविषु कवीनां वा कालिदासः श्रेष्ठः (कवियों में कालिदास श्रेष्ठ है ) / जब दो में से किसी एक का निर्धारण किया जाता है तो जिससे निर्धारण किया जाता है उसमें 'पञ्चमी विभक्ते' से पञ्चमी होती है-धनात विद्या गरीयसी (धन से विद्या गुरुतर है)। समास ( सम् + अस् + घ) शब्द का अर्थ है-'संक्षेप' (अनेक सुबन्तों का एक पद बन जाना); अर्थात जब दो या दो से अधिक शब्दों (सुबन्तों) को आपस में इस प्रकार से जोड़ दिया जाता है कि शब्द का आकार छोटा होने पर भी उसके अर्थ में परिवर्तन नहीं होता है, तो उसे समास कहते हैं। समास शब्द की व्युत्पत्ति है-'समसनम् एकपदीभवनं (संक्षेपः) समासः' अथवा 'समस्यते एकत्र क्रियते अनेक सुबन्तम् इति समासः'। समास होने पर प्रायः पूर्ववर्ती शब्दों की विभक्तियों को हटा (लोप) दिया जाता है। यद्यपि पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्रयुक्त पस्मैपदम्, आत्मनेपदम्, भयङ्करः, युधिष्ठिरः, सरसिजम्, वागर्थाविव आदि कुछ अलुक् समास प्रसिद्ध हैं जिनमें पूर्वपद की विभक्तियों का लोप नहीं हुआ है परन्तु एक पद बनना रूप समास का प्रयोजन यहाँ वर्तमान है / समास के प्रयोजन (फल) है-(१) एक पद बन जाना, (2) विभक्ति का लोप और (3) एक पद बनने से एक उदात्त स्वर होना / व्याकरण के नियमानुसार एक पद में एक ही उदात्त स्वर माना जाता है। अतः विभक्ति का लोप न होने पर भी एक पद बनना रूप फल समास का रहता ही है। जब समस्त पद के शब्दों को अलग-अलग करके (विभक्ति के साथ ) दर्शाया जाता है तो उसे 'विग्रह' कहते हैं। जैसे-राज्ञः पुरुषः-राजपुरुषः। यहाँ 'राजपुरुषः' समस्त पद है और 'राज्ञः पुरुषः' उसका विग्रह / समास में आये हुये शब्दों की प्रधानता और अप्रधानता के आधार पर समास के प्रमुख चार प्रकार माने गये हैं-(१) अव्ययीभाव (प्रायः पूर्व-पदार्थ - अव्यय प्रधान ), (2) तत्पुरुष (प्रायः उत्तर पदार्थ प्रधान), (3) द्वन्द्र (प्राय: भय पदार्थ प्रधान ) और (4) बहबीहि (प्रायः अन्य पदार्थ प्रधान)।' जब (1) लक्षण में प्रायः पद देने का कारण है कि तत् तत् समासों के प्रकरण में मात ऐसे भी समस्त पद आये हुए हैं जिनमें उक्त लक्षण (पूर्व पदार्थ प्रधान अध्ययीआय है, आदि लक्षण) घटित नहीं होता है परन्तु उनके उस समास के प्रकरण में होने मही वह समास माना जाता है। अतः प्रत्येक के लक्षण में प्रायः पद दिया गया ।जैसे-(क)'उन्मत्ता गङ्गा यत्र सः% उन्मत्तगतो नाम देशः' (जहाँ गङ्गा उन्मत्त ..मा उन्मत्तगत नामक देश है)। यह पद अव्ययीभाव के प्रकरण में है परन्तु यहाँ Hacepon Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4] संस्कृत-प्रवेशिका [8 : समास 'कर्मधारय' और 'द्विगु' को तत्पुरुष से पृथक् बतलाया जाता है तो समास के छ: भेद माने जाते हैं समास अव्ययीभाव(१) तत्पुरुष द्वन्द्व (5) बहुव्रीहि (6) व्यधिकरण तत्पुरुष (2) समानाधिकरण तत्पुरुष (प्रथमा तत्पुरुष) (द्वितीयादि तत्पुरुष या सामान्य तत्पुरुष) कर्मधारय (6) द्विगु (4) (सामान्य प्रथमा तत्पुरुष या विशेषण-विशेष्य- (संख्या पूर्व प्रथमा . भाव तत्पुरुष) तत्पुरुष) अव्ययीभाव समास (Adverbial or Indeclinable Compound) अव्ययीभाव शब्द का अर्थ--जो अव्यय नहीं था उसका अव्यय बन जाना। इस समास में प्रथम पद 'अव्यय' होता है और दूसरा पद 'संज्ञा' / इसमें प्रायः पूर्व पदार्थ का(अव्यय का) प्राधान्य होता है अतएव समास होने पर समस्त पद अव्यय हो जाता है और तब उसका रूप नहीं बदलता अंतिम पद का आकार मपुंसकलिङ्ग के देश रूप अन्य-पदार्थ का प्राधान्य है / (ख) 'पञ्चानां तन्त्राणां समाहारः' (पाँच तन्त्रों का समाहार) इस समाहार अर्थ वाले तत्पुरुष में समाहार अन्य पद का अर्थ है, उत्तरपद का नहीं। (ग) 'द्वित्राः' (दो या तीन ) यह उभय-पदार्थ प्रधान होने पर भी बहुव्रीहि है। (घ) संज्ञा च परिभाषा -संज्ञापरिभाषम् (संशा और परिभाषा का समूह) इस समाहार द्वन्द्व में समाहार अर्थ के अन्य पदार्थ होने पर भी द्वन्द्र कहलाता है। 1. अधोलिखित द्वयर्थक सूक्ति में छहों समासों के नाम गिनाये गये हैं द्वन्द्वोऽस्मि हिगुरहं गृहे च मे सततभव्ययीभावः / तत्पुरुष कर्मधारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः / / अर्थः-कोई पुरुष किसी से काम करने के लिए कह रहा है-हे पुरुष ! मैं द्वन्द्व (पति-पत्नी)हूँ। द्विगु (दो गायों अथवा बैलों वाला)हूँ। मेरे घर में सदा अव्ययीभाव (खर्च नहीं के बराबर) है। तुम वह काम (कर्म) करो जिससे मैं बहुव्रीहि (बहुत धान्य वाला) हो जाऊँ। अध्ययीभाव] 1. व्याकरण [85 एकवचन जैसा होता है। जैसे-हरी इति = अधिहरि (हरि में; यहाँ पूर्व पद 'अधि' का अर्थ 'मैं' प्रधान है), गङ्गायाः समीपम्-उपगङ्गम् (गङ्गा के समीप ); कामम् अनतिक्रम्यभ्यथाकामम् (इच्छानुसार)। अव्ययीभाव समास बनाते समय स्मरणीय नियम--- (1) यदि संज्ञा शब्द का अन्तिम वर्ण दीर्घ होता है तो उसे 'ह्रस्व कर दिया जाता है।ऐ, ए, ई> भो, ओ,ऊ>उ | आ> ]-गङ्गायाः समीपे = उपगङ्गम् ( उप + गङ्गा); नद्याः समीपे - उपनदि (उप + नदी); कवाः समीपे - उपवधु ( उप + वधू); गोः समीपे-उपगु (उप+ गो); मायः समीपे- उपनु (उप +नी)। (2) अनन्त ( अनु में मात होने वाली) और स्त्री० संज्ञाओं का'' नित्य हटा दिया जाता है परन्तु अनन्त नपुं० संज्ञाओं का'न' विकल्प से हटाया जाता है। जैसे-राज्ञः समीपेचपराजम् (उप+राजन् ); सीम्नः समीपेशउपसीमम् ( उप + सीमन् ); चर्मणः समीपे - उपचर्मम् उपचर्म वा (उप + 'धर्मन्)। (3) यदि अव्ययीभाव समास के अन्त में झम् (वर्ग का 1, 2, 3, 4) वर्ण आता है तो विकल्प से समासान्त 'अ' (टच् ) प्रत्यय जुड़ता है। जैसे-सरितः समीपे = उपसरितम् (उप+ सरित् +अ) उपसरित वा / उपसमिधम् उपसमित् वा ( समिधा के समीप)। (4) शरद्, विपाश्, बनस्, मनस्, उपानह, बनदुह, दिव, हिमवत, दिश, दृश्, विश्, चेतस्, चतुर, तद्, यद्, कियत् और जरस् इनमें 'अ' (टच्) अवश्य जुड़ता है। जैसे-रायाः समीपम् = उपजरसम् (बुढ़ापे के निकट ); उपशरयम् (शरदः समीपम् = शरद के समीप ); अधिर्मनसम्; उपदिशम् / (5) नदी, पौर्णमासी, आग्रहायणी और गिरि शब्द के अन्त में आने पर विकल्प से 'अ' (टच्) प्रत्यय जुड़ता है / जैसे-उपगिरम् उपगिरि वा; उपनदम् उपनदि वा। अव्ययीभाव समास प्रायः निम्न 16 अर्थों में होता है 1. विभक्ति ( सप्तमी)-अधिहरि (अधि हरौ इति= हरि के विषय में); मध्यात्मम् (आत्मनि अधि- आत्मा के विषय में); अधिगोपम् / 2. समीपउपगङ्गम् (गङ्गायाः समीपम् = गङ्गा के पास); उपराजम् (राज्ञः समीपम् 3D राजा के पास); उपकृष्णम् / 3. समृद्धि सुमद्रम् (मद्राणां समृद्धिःम्मद देश की समृद्धि)। 4. व्यद्धि (विनाश, दरिद्रता)-दुर्यवनम् (पवनानां प्यूद्धिः- यवनों का विनाश ) / 5. अभाव-निमक्षिकम् (मक्षिकाणाम् अभावः- मक्खिकों का भभाव); निर्जनम् / 6. अत्यय (नाश, समाप्ति)-अतिहिमम् (हिमस्य अत्ययः Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पुरुष ] 1. व्याकरण संस्कृत-प्रवेशिका [8 : समास -जाड़े की समाप्ति)। 7. असम्प्रति ( अनौचित्य) अतिनिद्रम् (निद्रा सम्प्रति न युज्यते - निद्रा के अनुपयुक्त काल में)1.शब्दप्रादुभोव (शब्द का प्रकाश)इति हरि (हरिशब्दस्य प्रकाशमहरि शब्द का उच्चारण)। 9. पश्चात् -अनुविष्णु (विष्णोः पश्चातृ-विष्णु के पीछे); अनुरथम् / 10. यथाभाव ( योग्यता, बीमा, अनतिक्रम) अनुरूपम् (रूपस्य योग्यम्-रूप के योग्य ); प्रत्यर्थम् (अर्घम् अर्थम् प्रतिब्धति अर्थ ); यथाशक्ति (शक्तिमनतिक्रम्यशक्ति के अनुसार); प्रतिगृहम् ययाकामम् / 11. आनुपूर्य (क्रम)-अनुज्येष्ठम् (ज्येष्ठस्य आनुपूणज्येष्ठ के क्रम से)। 12. योगपद्य (एक साथ)-सचक्रम्' (चक्रेण युगपत्न्च क्र के एकदम साथ)। 13. सादृश्य-सहरि (हरेः सादृश्यम् -हरि के सदृश); सस खि (सदृणः सपा-सबि के सदृश)। 14. सम्पत्ति-सक्षत्रम् (क्षत्राणां सम्पत्तिः= क्षत्रियों की सम्पत्ति)। 15. साकन्य (सम्पूर्णता)-सतृणम् (तृणमपि अपरित्यज्य - सब कुछ)। 16. अन्त (तक)-साग्नि (अग्निग्रन्थपर्यन्तम् - अग्निकाण्ड पर्यन्त ); आसमुद्रम् / तत्पुरुष समास (1) तत्पुरुष समास में उत्तरपद की प्रधानता होती है। इसमें पूर्वपद विशेषण का कार्य करता है और उत्तरपद विशेष्य का / (2) इस समास में लिङ्ग और वचन उत्तरपद के अनुसार होते हैं / जैसे-देवस्य मन्दिरम् = देवमन्दिरम् ( भगवान का मंदिर)। (3) तत्पुरुष शब्द का दो प्रकार से विग्रह किया जाता है-(१) तस्य पुरुषः= तत्पुरुषः (व्यधिकरण); (2) सः पुरुषः= तत्पुरुषः (समानाधिकरण)। अतः तत्पुरुष समास के अधिकरण (विभक्ति) की अपेक्षा दो प्रमुख भेद हैं(क) व्यधिकरण तत्पुरुष-जिसके दोनों पद विभिन्न विभक्तियों वाले हों अर्थात् पूर्वपद में द्वितीयादि विभक्तियां और उत्तरपद में प्रथमा विभक्ति हो (ब) समानाधिकरण तत्पुरुष--जिसके दोनों पद समान विभक्ति (प्रथमा विभक्ति) वाले हों। (4) व्यधिकरण तत्पुरुष 'तत्पुरुष' के नाम से और समानाधिकरण तत्पुरुष 'कर्मधारण' के नाम से प्रसिद्ध है। कर्मधारण समास में जब पूर्वपद संख्या वाची होता है तो उसे ही 'द्विगु समास के नाम से जाना जाता है। तत्पुरुष (व्यधिकरण तत्पुरुष%Determinative Compound) इसमें पूर्वपद द्वितीया, तृतीया आदि विभक्तियों वाला होता है और उत्तरपद प्रथमा विभक्ति वाला होता है। पूर्वपद की विभक्ति के भेद से यह 6 प्रकार का है 1. अध्ययीभाव समास में काल से भिन्न अर्थ में 'स' को 'सह' हो जाता है / जैसेसह+पासचक्र, सह + हरिम्सहरि; सह+अग्नि साग्निः सह + तृणम् -सतृणम् / 1. द्वितीया तत्पुरुष (द्वितीयान्त + प्रथमान्त)-कृष्णं धितः- कृष्णथितः (कृष्ण के सहारे); आशाम् अतीतः= आशाऽतीतः (आशा से अधिक); शोक पतितः= शोकपतितः (शोक में डूबा हुआ ); सुखं प्राप्तः - सुखप्राप्तः अथवा प्राप्तसुखः (सुख-को प्राप्त हुआ; प्राप्त और आपन्न शब्दों का पहले भी प्रयोग हो सकता है); शरणं प्राप्तः = शरणप्राप्तः अथवा प्राप्तशरणः (शरण में आया हुआ); दुःखम् अतीतः- दुःखातीतः (दुःख के पार गया हुआ); कूपं पतित-कूपपतितः (कुए में गिरा हुआ); ग्रामं गतः= ग्रामगतः (गाँव को गया हुआ) कूपम् अत्यस्तः-कूपाऽत्यस्तः (कुए में फेंका हुआ)। 2. तृतीया तत्पुरुष (तृतीयान्त + प्रथमान्त)-शङ्कलया खण्डः = शलाखण्डः (सरौता से किया हुआ टुकड़ा); हरिणा त्रातः% हरित्रातः (हरि से रक्षा किया हा); नखैः भिन्नः = नवभिन्नः (नखों से फाड़ा हुआ); आचारेण कुशलः = आचारकुशलः (आचार से कुशल); कुट्टनेन श्लक्ष्णम् % कूद्रनश्लक्षणम् (कटने से चिकना); वाचा युद्धम् = वाग्युद्धम् (वाणी से युद्ध); मासेन पूर्वः- मासपूर्वः (एक माह पूर्व); वाचा कलहः वाक्कलहः (वाणी से कलह); मात्रा सदृशः = मातृसदृशः (माता के समान)। 3. चतर्थी तत्पुरुष (चतुप्यन्त + प्रथमान्त )--गोभ्यो रक्षितम् = गोरक्षितम् (गौओं के लिए रखा हुआ); धनाय लोभः = धनलोभः (धन के लिए लोभ); यूपाय दारु % यूपदारु (यज्ञ-स्तम्भ के लिए लकड़ी); कुम्भाय मृत्तिका कुम्भमृत्तिका (घड़े के लिए मिट्टी); भूतेभ्यो बलिःभूतबलिः (भूतों के लिए उपहार); छात्राय हितम् = छात्रहितम्, (छात्र के लिए हितकर); द्विजाय अयम् = द्विजार्थः सूपः (ब्राह्मण के लिए दाल; अर्थ शब्द के साथ नित्य समास होगा और समस्तपद का लिङ्ग तथा विग्रह में 'इदम्' के रूप का प्रयोग विशेष्य के अनुसार होगा); द्विजाय इदम् = द्विजार्थ पयः (ब्राह्मण के लिए दूध); द्विजाय इयम् = द्विजार्था यवागूः (ब्राह्मण के लिए लप्सी)। 4. पञ्चमी तत्पुरुष (पञ्चम्यन्त + प्रथमान्त)-चौराद् भयम् - चौरभयम् (चोर से डर ); सिंहात् भीतः = सिंहभीतः (सिंह से भय ); सद् भीतिः = सर्पभीतिः (सर्प से भय ); अयशसः भीः = अयशोभीः (निन्दा से डर); स्तोकात्मुक्तः - स्तोकाग्मुक्तः, (थोड़े से मुक्त; स्तोकादि से परे पञ्चमी का लोप नहीं होता ); दूरात् मागतः- दूरादागतः (दूर से आया हुभा); वृक्षात् पतितः वृक्षपतितः (वृक्षा से गिरा हुमा); मार्गाद भ्रष्टः- मार्गभ्रष्टः (मार्ग से पतित)। 5. षष्ठी तत्पुरुष (षष्ठयन्त+प्रथमान्त )-राज्ञः पुरुषः = राजपुरुषः (राजा' का आदमी); देवस्य मन्दिरम् - देवमन्दिरम् ( देवता का मन्दिर); लम्मा Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [8 : समास कर्मधारय ] 1 : व्याकरण [86 पति: लक्ष्मीपतिः (लक्ष्मी का स्वामी); जगतः स्रष्टा जगत्वष्टा ( जगत् की सष्टि करने वाला); विष्णोः पूर्मविष्णुपुरम् (विष्णु की नगरी; 'पुर' से समासान्त 'अ'); सख्युः पन्थाः भविपथः (मित्र का मार्ग; 'पथिन्' से समासान्त 'अ')। 6. सप्तमी सत्पुरुष (सप्तम्यन्त + प्रथमान्त)-कर्मणि कुशलः कर्मकुशलः (काम करने में प्रवीण); सभायां पण्डितः सभापण्डितः (सभा में विद्वान्); क्रीडायां पपलक्रीडापलः (खेलने में पञ्चल); अक्षेषु शौण्ड:-अक्षशोण्डः (पासे खेलने में चतुर); आतपे शुष्कः-आतपशुष्कः (धूप में सूखा)। कर्मधारय (समानाधिकरण तत्पुरुष = Appositional Compound ) समानाधिकरण तत्पुरुष समास को कर्मधारय समास कहते हैं। इसमें दोनों पद प्रथमा विभक्ति में होते है। अतः इसे प्रथमा तत्पुरुष भी कहा जा सकता है। द्वितीयादि विभक्तियों के साथ होने वाले तत्पुरुष समास में दो पदों के मध्य में कोई कारक का सम्बन्ध (क्रिया का प्रध्य के साथ सम्बन्ध / जैसे-चौराद् भयमन्चौरभयम् ) या दो द्रव्यों का सम्बन्ध (जैसे--राज्ञः पुरुषाम्राजपुरुषः) होता है परन्तु कर्मधारय (प्रथमा तत्पुरुष) में ऐसा सम्बन्ध नहीं होता है, अपितु दोनों पर एक ही वस्तु को कहते हैं (जैसे--कृष्णः सर्पः - Yष्णसर्पः); अतएष कर्मधारय समास की क्रिया समास के दोनों पदों को धारण कर सकती है। जैसे--कृष्णसर्पः अपसर्पति' इस वाक्य में सर्प जब संचलन किया करता है तब कृष्णस्य भी उसके साथ रहता है; परन्तु 'राशः पुरुषः अपसपंति' में राजा पुरुष के साथ नहीं रहता है। मतएव प्रथमा तत्पुरुष (समानाधिकरण तत्पुरुष) को कर्मधारय के नाम से पृथक बतलाया जाता है। कर्मधारय समास प्रायः तीन परिस्थितियों में होता है (क) प्रथम पद वितीय पद का विशेषण हो और द्वितीय पद विशेष्य संज्ञा पद / (ब) दोनों पद संज्ञा हों। (ग) दोनों पद विशेषण हों जो समय पड़ने पर संयुक्त होकर किसी तीसरे पद के विशेषण हों। कर्मधारय समास के प्रमुख तीन प्रकार - (1) विशेषणपूर्वपद कर्मधारय, (2) उपमित कर्मधारय ( इसके दो प्रकार हैं-उपमानपूर्वपद और उपमानोत्तरपद ) और (3.) विशेषणोभयपद कर्मधारय / (क)विशेषणपूर्वपद कर्मधारय-(विशेषण + विशेष्य)-इसमें पूर्वपद विशेपण और उत्तरपद विशेष्य होता है (विशेषणं विशेष्येण बहुलम् ) / दोनों पदों मैंसमान विभक्ति तथा प्रायः समान लिङ्ग और वचन होते हैं / जैसे-नीलम् उत्पलम् - नीलोत्पलम् (नीला कमल); कृष्णःसर्पः = मुष्णसर्पः (काला साप); दीर्घ नयनम् - दीर्घनयनम् (विशाल नेत्र); पीतम् अम्बरम् = पीताम्बरम् (पीला कपड़ा); पीतः पटः-पीतपटः (पीला कपड़ा; इसका बहुव्रीहि समास भी हो सकता है। जैसे-पीतः पटः यस्य सः = पीतपटः = पीले कपड़े वाला); महान् राजा अथवा महान् च असो राजा च महाराजः (बड़ा राजा; यहाँ 'राजन् में समासान्त अ = 'टच्' प्रत्यय जुड़ने तथा महत् को आकार अन्तादेश होने से 'महाराजः' होगा। इसी प्रकार-परमश्च असी राजा च = परमराजः = श्रेष्ठ राजा; महत् यशः- महायशः; महती नदी - महानदी; महावीर; महायुद्धम्; महाभारतम्)। (ख) उपमित समास-इसमें उपमेय-उपमान-भाव प्रकट होता है। इसके दो प्रकार हैं (1) उपमान पूर्वपद ‘कर्मधारय (उपमानानि सामान्यवचन: - उपमान + साधारण धर्म)-इसमें पूर्वपद उपमान (जिससे उपमा दी जाती है) होता है और उत्तरपद साधारणधर्म (उपमेय और उपमान में रहने वाला साधारण गुण)। जैसे-समुद्र इव गम्भीरः = समुद्रगम्भीरः (समुद्र के समान गम्भीर; यहाँ समुद्र उपमान है और 'गाम्भीर्य' सामान्य गुण); पन इव श्यामः घनश्यामः (मेघ के समान काले वर्ण वाला); मृग इव चपला = मृगचपला (हिरण के समान चञ्चल); विद्युदिव पचला = विधुच्चञ्चला (बिजली के समान पञ्चल); चन्द्र इव आलादक:- चन्द्रालादकः (चन्द्रमा के समान आझादक)। (2) उपमानोत्तरपद कर्मधारय (उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे - उपमेय+ उपमान)-इसमें पूर्वपद उपमेय (जिसकी उपमा दी जाती है) होता है और उत्तरपद उपमान / इसमें सामान्य धर्म का प्रयोग नहीं रहता है। जैसे-पुरुषो व्याघ्र इव = पुरुषव्याघ्रः (पुरुष ध्यान के समान है); मुखं कमलम् एवम मुखकमलम् (मुख कमल के समान है); मरः सिंह व नरसिंहः ( मनुष्य मिह सदृश है)। 'पुरुषव्याघ्रः आदि का अन्य प्रकार से भी विग्रह होता है / जैसे-पुरुष एवं व्याघ्रः - पुरुषव्याघ्रः (पुरुष ही व्याघ्र है); मुखम् एव कमलम् % मुखकमल ( मुख ही कमल है)। यहाँ उपमेय और उपमान में तादात्म्य (अभेद) होने से रूपक 'कर्मधारय' होगा। विशेष-उपमान पूर्वपद के विग्रह में 'इव' शब्द दोनों पदों के मध्य में और उपमानोत्तरपद के विग्रह में दोनों पदों के बाद में आता है। (ग) विशेषणोभयपद कर्मधारय (विशेषण + विशेषण)-दो समानाधिकरण विशेषणों के समास को विशेषणोभयपद कर्मधारय समास कहते हैं (विग्रह में 'च' Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वन्द.] 1. व्याकरण [61 संस्कृत-प्रवेशिका [8: समास रहने पर भी यह द्वन्द्व नहीं है क्योंकि द्वन्द्व समास केवल संज्ञा-पदों में होता है। अतः इससे अन्तर है)। जैसे-कृष्णश्च श्वेतश्च % कृष्णश्वेतः (काला. और सफेद - अश्व); स्नातश्च अनुलिप्तश्च % स्नातानुलिप्तः (स्नान और अनुलेप किया हुआ मनुष्य); चरञ्च अचरञ्च % चराचरम् (स्थावर और जङ्गमम् जगत् ); कृतञ्च अकृतञ्च = कृताकृतम् ( किया हुआ और नहीं किया हुआ कर्न)। द्विगु समास ( Numeral Compound) जब कर्मधारय समास में पूर्वपद संख्या तथा उत्तरपद संज्ञा हो तो वहाँ द्विगु समास होता है यदि वहाँ तद्धितार्थ (तद्धित प्रत्यय का अर्थ ) अथवा समाहार (समूह) का बोध हो (संख्यापूर्वी द्विगुः / तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च)।' यह समास तीन परिस्थितियों में होता है --1. या तो उसके अनन्तर कोई तद्धित प्रत्यय लगता हो या (2) वह किसी अन्य शब्द के साथ समास में आया हो या (3) किसी समूह का बोधक हो / जैसे (क) तद्धितार्थ में-पण्णा मातुणाम् अपत्यं पुमान् - पाण्मातुरः (= कातिकेयः -पष् + मातृ+'अ' तद्धित प्रत्यय); द्वयोः मात्रोः अपत्यं पुमान् = द्वैमातुरः (गणेशः); द्वाभ्यां गोभ्यां क्रीतः = द्विगुः (दो गायों से खरीदा गया); पञ्चभिः गोभिः क्रीतः = पञ्चगुः। (ब) शब्दान्तर के साथ समास में ( उत्तरपद द्विगु)-इसमें दो समास होते हैं। जैसे—पच गावः धनं यस्य सः पञ्चगवधनः (द्विगुगर्भ बहुव्रीहि / यहाँ 'पञ्चगव' में द्विगु समास है, परन्तु यह तभी संभव हुआ है जब यह 'धन' के साथ पुनः समस्त हुआ है। यदि 'धन' के साथ पुनः समास में न आता तो 'पञ्चगव' में द्विगु नहीं होता ); द्वे अह्नि जातस्य = द्वयजातः (द्विगुगर्भ तत्पुरुष)। (ग) समाहार में समाहार अर्थ में समस्त पद नपुंसकलिङ्ग एकवचन में रहता है। जैसे-पञ्चानां पात्राणां समाहारः = पञ्चपात्रम्; त्रयाणां भुवनानां समाहार विभुवनम; चतुर्णा युगानां समाहार:-चतुर्युगम् पञ्चानां गवां समाहारापच गवम् (पाँच गायों का समुदाय); त्रिसृणां रात्रीणां समाहारः विरात्रम् (तीन रातों का समुदाय; संख्षा शब्द के पहले रहने पर समास में रात्रि शब्द नपुंसकलिङ्ग हो जाता है); त्रयाणां लोकानां समाहारः- त्रिलोकी (तीन लोकों का समुदाय; पात्र, भुवन आदि को छोड़कर वट, लोक, मूल आदि अकारान्त शब्दों के साथ समस्तपद ईकारान्त = स्त्रीलिङ्ग होता है); पञ्चानां मलानां समाहारः-पञ्चमूली; शतानाम् अब्दानां समाहारः = शताब्दी; पञ्चवटी; अष्टाध्यायी; सप्तशती। द्वन्द्व समास (Copulative Compound) जब दो या दो से अधिक संज्ञायें 'च' शब्द से जुड़ी होती हैं तो उनमें द्वन्द्व समास होता है / इसमें सभी संज्ञा पदों का अथवा उनके समूह का प्राधान्य होता है (चार्थे द्वन्द्वः / प्रायेणोभयपदार्थप्रधानो द्वन्द्वः) / विग्रह करने पर प्रत्येक पद के साथ 'च' का प्रयोग होता है / इसके प्रमुख 3 प्रकार हैं-(१) इतरेतरयोग द्वन्द्व, (2) समाहार द्वन्द्व और (3) एकशेष द्वन्द्व / (1) इतरेतरयोग द्वन्दू-जहाँ एक पद दूसरे पद से इस प्रकार जुहा हो कि दोनों एक दूसरे से अलग-अलग प्रधान भाव रक्खें / जैसे-रामच लक्ष्मणश्च-रामलक्ष्मणी (राम और लक्ष्मण); रामश्च भरतन लक्ष्मणश्च शत्रुध्नचरामभरतलक्ष्मणशत्रुनाः; कन्दच मूलच फलञ्च - कन्दमूलफलानि; कुक्कुटा मयूरी च%D कुक्कुटमयूर्यो (मुर्गा और मोरनी); दधि च पयश्व दधिपयसी (दही और दूध ); वाच मनन वाङ्मनसे ('मनस्' में समासान्त 'अ' जुड़ने से वह अंकारान्त नपुसंकलिज बन गया है। अतः वाङ्मनसे रूप बना); गङ्गायमुने; युधिष्ठिरभीमी; इन्द्राग्नी। नियम-(१) जब दो पदों में समास होगा तो समासान्त पद द्विवचन में होगा और जब तीन या उससे अधिक पदों में समास होगा तो बहुवचन में होगा / जैसेशिवकेशवी, हरिहरगुरवः / (2) बाद वाले पद का जो लिङ्ग रहता है वही समस्तपद का लिङ्ग रहता है। जैसे—कन्दमूलफलानि, कुक्कुटमयूर्यो। (3) ऋकारान्त (विद्या या योनि सम्बन्ध वाचक) पदों के रहने पर अन्तिम पद के ठीक पूर्ववर्ती 'ऋ' को 'आ' हो जाता है। जैसे-माता च पिता च = मातापितरी (मातृ + पितृ); होता च पोता च उद्गाता च% होतृपोतोद्गातारः। (2) समाहारद्वन्द्व-जहाँ परस्पर जुड़ी हुई संज्ञाओं में समूह (समाहार या इकट्ठपन) का भाव प्रमुख हो / अतः इसमें समस्त पद सर्वदा नपुंसकलिङ्ग एकवचन में रहता है। जैसे—पाणी च पादौ च पाणिपादम् (हाथ और पैर / यहाँ दोनों के समूह का भाव ज्ञात हो रहा है ); आहारश्च निद्रा च भयञ्च = आहारनिद्राभयम्, धनूंषि च शराश्च = धनुःशरम् (धनुष और बाण)। निम्न अवस्थाओं में समाहार द्वन्द्व समास होता है(क) प्राणि, वाद्य तथा सेना के अङ्गवाचक शब्दों में हस्तौ च पादौ - हस्तपादम ( हाथ और पैर); मेरी च पटहश्च = भेरीपटहम् (भेरी और 1. केवल संख्यावाची शब्द के पूर्ववर्ती होने पर विगु' नहीं होता है / जैसे-सप्त, ऋषयः = सप्तर्षयः (आकाशस्थ सात तारे)। यहाँ कर्मधारय समास है क्योंकि यहाँ न तो तद्धितार्थ है और न समाहार। किन्हीं सात ऋषियों के लिए इसका। प्रयोग नहीं है अपितु खास संशा का बोधक है / Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - बहुदीहि ] 1. व्याकरण 62] संस्कृत-प्रवेशिका [8 : समास पीताम्बरः (कृष्ण)। यहाँ भी 'पीत' शब्द 'अम्बर' का विशेषण है और फिर दोनों मिलकर 'करुण' के विशेषण हैं। अत: बहुव्रीहि को अन्य पदार्थ प्रधान कहा जाता नगाड़ा); दन्तान ओष्ठौ च = दन्तोष्ठम् (दांत और ओष्ठ ): रथिकाश्व अश्वारोहान = रथिकाश्वारोहम् ( रथिक और घुड़सवार); मार्दङ्गिकच वैणविकश्न = मार्दङ्गिकर्वणविकम् (मृदङ्ग बजाने वाला और वंशी बजाने वाला); पाणिपादम्; धनुःशरम् ) / (ख) जिनका जन्मसिद्ध वैर हो-मूषकच मार्जारश्च = मूषसामाजरिम् (चूहा और बिल्ली); सर्पश्च नकुलश्च = सर्पनकुलम् ( सांप और नेवला)। (ग) भिन्न-भिन्न लिङ्ग वाले नदी, देश और नगर वाचक शब्दों में-गङ्गा च शोणनगङ्गाशोणम् / (गङ्गा और शोण नदी); मथुरा च पाटलिपुत्रश्च-मथुरापाटलिपुत्रम् (मथुरा और पटना ) / (घ) क्षुद्र जीवों के नाम में-यूका च लिक्षा च-यूकालिक्षम् (जुएँ और लीखें)। (क) परस्पर विरुद्ध पदार्थों में (विकल्प से)-शीतञ्च उष्णव-शीतोष्णम् सीतोष्णे वा (ठंडा और गरम); सुखं च दुःखच सुखदुःखम् सुखदुःखे वा (सुख और दुख)। (3) एकशेष द्वन्द्व-जब दो या अधिक पदों में से एक शेष रहे, अन्य का लोप हो जाये तो एकशेष द्वन्द्व समास होता है। इसमें लुप्त पद का बोध समस्तपद में प्रयुक्त संख्या से होता है / यदि समस्त होने वाले शब्द पुं० और स्त्री० दोनों प्रकार के होते हैं तो स्त्रीलिङ्ग वाले शब्द का लोप कर दिया जाता है / जैसे-माता च पिता च - पितरौ ('मातापितरौ' तथा 'मातरपितरौं' ये दो रूप भी बनते हैं); पुत्रश्न दुहिता च-पुत्रो (पुत्र और लड़की); भ्राता च स्वसा च% भातरी (भाई और बहिन); हंसी च हंसश्च = हंसी; श्वश्रूश्च श्वशुरश्न = श्वशुरौ (सास और श्वसुर; 'वधूश्वशुरो' भी होगा); सीता च सीता च = सीते; फलश फलश्च फलञ्च = फलानि / बहुव्रीहि समास (Attributive Compound) 2. बहुव्रीहि समास का विग्रह ( पदच्छेद ) करते समय यत्' शब्द के किसी न किसी रूप का प्रयोग किया जाता है जिससे समास में आये हुए पदों का सम्बन्ध किसी अन्य पद के साथ ज्ञात होता है। 3. पूरा समस्त पर चूंकि विशेषण होता है अतः वह अपने विशेष्य के लिङ्ग, वचन आदि के अनुसार रक्खा जाता है। 4. समानाधिकरण (समान विभक्तिक) और भ्यधिकरण (असमान विभक्तिक) के भेद से बहवीहि समास दो प्रकार का है (क) समानाधिकरण बहुव्रीहि समास (प्रथमान्त + प्रथमान्त)-इसमें समस्त होने वाले पदों की विभक्ति (अधिकरण) एक जैसी (प्रथमा) होती है। विग्रह में प्रयुक्त 'य' शब्द की द्वितीयादि विभक्ति के भेद से इसके 6 भेद किए जाते हैं १.द्वितीयानिष्ठ समानाधिकरण बहुव्रीहि-प्राप्तम् उदकं यं सम्प्राप्तोदकः (ग्रामः- ऐसा गाँव जहाँ पानी पहुँच चुका हो) प्राप्तं धनं यं सः- प्राप्तधनः (नरः); आरुढो वानरो यं सः - आरुतवानरः (वृक्षः)। 2. तृतीयानिष्ठ समानाधिकरण बहुव्रीहि-जितानि इन्द्रियाणि येन सः = जितेन्द्रियः (पुरुषः जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है); दत्तं चित्तं येन सः मदत्तचित्तः (नरः); कृतं कार्य येन सः = कृतकार्यः (नरः); ऊः रयः ये . साऊरथः (अनड्वान् = बैल)। चतुर्थीनिष्ठ समानाधिकरण बहतीही-दत्तं धनं यस्मै सः- दत्तधनः (ब्राह्मणः); उपहृतः पशुः यस्मै सः = उपहृतपशुः (मद्रः = जिसके लिए बलि के प्रयोजन से पशु लाया गया हो)। 1. जिसमें अन्य पदार्थ की प्रधानता होती है उसे बहुव्रीहि समास कहते हैं (अनेकमन्यपदार्थे ); अर्थात् जब समास में आये हुए सभी पद किसी अन्य पदार्थ के विशेषण के रूप में कार्य करते हैं तो वहाँ बहुव्रीहि समास होता है। बहुव्रीहि शब्द का यौगिक अर्थ है-बहुः बीहिः (धान्यम्) यस्य अस्ति सम्बनीहिः (जिसके पास बहुत धाग्य हो, वह व्यक्ति विशेष) / यहाँ 'बहु' शब्द 'व्रीहि' का विशेषण है और फिर दोनों मिलकर किसी तीसरे व्यक्ति के विशेषण हैं। पीतम् अम्बरं यस्य सः%3D 1. एक ही समास अर्थभेद होने पर प्रकरण के अनुसार बहुव्रीहि और तत्पुरुष दोनों हो सकता है। जैसे-पीतम् अम्बरं यस्य तत् = पीताम्बरम् (पीले वस्त्र वाली पुस्तक आदि); पीतम् अम्बरम् मीताम्बरम् (पीला कपड़ा); लोकस्य नाथः = लोकनाथः (राजा); लोकाः (प्रजाः) नाथाः यस्य सः = लोकनाथः (भिखारी)। 'लोकनाथ' शब्द कैसे राजा और भिखारी का वाचक है इस सम्बन्ध में भिखारी की उक्ति है 'अहश्च त्वच राजेन्द्र ! लोकनाथाबुभावपि / बहुव्रीहिरहं राजन् षष्ठी तत्पुरुषो भवान् / / ' Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] संस्कृत-प्रवेशिका. [8: समास बहुवचन 4. पञ्चमीनिष्ठ समानाधिकरण बहुत्रोहि-उद्धृतम् ओदनं यस्याः सा : उद्धृतौवना (स्थाली = ऐसी बटलोई जिससे भात निकाल लिया गया हो); निर्गतं धनं यस्मात् सः = निधनः (नरः); पतितं पत्रं यस्मात् सः- पतितपत्रः (वृक्षः)। 5. षष्ठीनिष्ठ समानाधिकरण बहुव्रीहि-पीतम् अम्बर (पीतानि अम्बराणि , वा) यस्य सः- पीताम्बरः (हरिः); लम्बी कौँ यस्य सः = लम्बकर्णः (गर्दभः); महत् यशः यस्य सः = महायशः महायशस्कः वा; पूढं उरो यस्य सः म्यूढोरस्कः (चौड़ी छाती वाली); रूपवती भार्या यस्य सः रूपवद्भार्यः (नर.); ईश्वरः कर्ता यस्य सः ईश्वरकर्तृकः ( संसारः); महत् धनं यस्य सः = महाधना, कृष्णः सखा यस्य सः कृष्णसखः / 6. सप्तमीनिष्ठ समानाधिकरण बहुव्रीहि-वीराः पुरुषाः यस्मिन् सः = बीरपुरुषः वीरपुरुषक: वा (ऐसा गाँव जिसमें वीर मनुष्य हों); बहवः दण्डिनः यस्या सा = बहुदण्डिका ( ऐसी नगरी जहाँ बहुत दण्डधारी हों)। (ख) व्यधिकरण बहुव्रीहि (प्रथमान्त + षष्ठचन्त या सप्तम्यन्त)-इसमें समस्त होने वाले पदों की विभक्तियाँ (अधिकरण) भिन्न-भिन्न होती है। अर्थात् एक पद प्रथमा में होता है और दूसरा षष्ठी या सप्तमी में होता है / जैसे-चक्र पाणौ यस्य सः = चक्रपाणिः (विष्णुः चक्र है हाथ में जिसके); चन्द्रः शेखरे यस्य सः चन्द्रशेखरः (शिवः); दण्डः पाणौ यस्य सः दण्डपाणिः (हाथ में दण्ड है जिसके); पुस्तक हस्ते यस्य सम्पुस्तकहस्तः (छात्रः); चन्द्रस्य कान्तिः इव कान्तिः यस्य सः चन्द्रकान्तिः (चन्द्रमा की कान्ति के समान कान्ति है जिसकी); व्याघ्रस्य इव पादौ यस्य सः व्याघ्रपात् (व्याध के समान पर हैं जिसके) पद्म नाभी यस्य सः पद्मनाभः (विष्णुः कमल है नाभि में जिसके)। अम् नवम अध्याय शब्दरूप (Declension) संस्कृत में संज्ञादि शब्दों (प्रातिपदिकों) का प्रयोग तभी होता है जब उनमें सु, औ, जस् आदि 'सुप' प्रत्ययों को जोड़ दिया जाता है। तीन वचन और सात विभक्तिपो होने से इनकी संख्या 21 (347) है। इन सुप् प्रत्ययों के जुड़ने से जो 'पद' (शब्दरूप) बनते हैं. उन्हें सुबन्त (सुप् + अन्त ) कहते हैं। ये प्रत्यय निम्न 'प्रकार हैं:विभक्ति एकवचन द्विवचन प्रथमा जस् (मः) द्वितीया औट (औ) शस् (अः) तृतीया टा (आ) भ्याम् भिस् (भिः) चतुर्थी भ्याम् भ्यस् (भ्यः) पञ्चमी इसि (अ.) भ्याम् भ्यस् (भ्यः) षष्ठी इस् (अः) ओस् (ओः) आम् सप्तमी ति (इ) ओस् (ओः) सुप् (सु) विशेष-१. 'सम्बोधन' में प्रथमा विभक्ति के ही प्रत्यय जुड़ते हैं। 2. व्यञ्जनान्त संज्ञा शब्दों में ये सभी प्रत्यय प्रायः इसी रूप में जुड़ते हैं, अन्यत्र कुछ परिवर्तित होकर जुड़ते हैं। स्वरान्त ( अजन्त ) पुं० संज्ञा शब्द (1) अकारान्त 'राम" (राम); (2) आकारान्त विश्वपा (संसार का रक्षक) रामः रामौ रामाः प्र० विश्वपाः विश्वपो विश्वपा 1. निम्न शब्दों के भी रूप राम की तरह चलेंगे(क) नर (मनुष्य), बाल (चालक), उपहार (भेट), वृक (भेड़िया), पुत्र, शिष्य, आचार्य, रथ, गज (हाथी); कर (हाथ ), सज्जन, दुर्जन, नृप (राजा), भक्त, अश्व (घोड़ा), मयूर (मोर), प्रश्न, धर्म, लोक (संसार), अनल (अग्नि), अनिल (हवा), सुर (देवता), सूर्य, चन्द्र, सर्प, मूषक (चूहा), हस्त (हाथ), बालक, मेष, दास, वृक्ष, विवाह, विनोद, संशय, कूप (कुआँ ), रजक (धोवी ), आम्र (आम का पेड़ ), घर (घड़ा), कलश (घड़ा), मातुल (मामा), वानर ( बन्दर ), पिक ( कोयल), खल (दुष्ट), जनक (पिता), क्रोश (कोस), प्राश (विद्वान् ), वंश (कुल), मनुष्य आदि / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66] संस्कृत-प्रवेशिका [6: शब्दरूप अजन्त पुं०] १:व्याकरण [17 रामम् रामी रामान् द्वि० विश्वपाम विश्वपौ विश्वपः रामेण रामाभ्याम् रामः तृ. विश्वपा विश्वपाम्पाम् विश्वपाभिः रामाय रामाभ्याम् रामेभ्यः च विश्वपे विश्वपाभ्याम् विश्वपाभ्यः रामात् रामाभ्याम् रामेभ्यः पं० विश्वपः विश्वपामाम विश्वपाप: रामस्य रामयोः रामाणाम् प० विश्वपः विश्वपोः विश्वपाम् रामै रामयोः रामेषु स० विश्वपि विश्वपोः विश्वपासु हे राम! हे रामौ! हे रामाः! सं० हे विश्वपाः ! हे विश्वौ! हे विश्वपाः! (3) इकारन्त 'हरि" (विष्णु, बन्दर); (४)इकारान्त पति" (स्वामी, दूल्हा); हरिः हरी हरयः प्र. पतिः पती पतयः हरिम् हरी हरीन् द्वि० पतिम् पती पतीन् / (ख) तादृश (सा), मादृश (मेरे जैसा), भवादृश (आप जैसा), यादृश (जैसा ), त्वादृश (तुम्हारे जैसा), एतादृश (ऐसा) [ये शब अकारान्त और शकारान्त दोनों होते हैं / शकारान्त होने पर देखें रूप क्रमा३२]। (ग) पाद (पैर), दन्त ( दांत) [इनको शस् से सुप तक क्रमशः 'पद' और 'दत्' आदेश होते हैं जिससे वहाँ विकल्प से दो दो रूप बनेंगे-पदः, पादान्; दतः, दन्तान् / (घ) निर्जर ( देव ) [ अजादि विभक्तियों में 'जर' को 'जरस्' आदेश होने से वहाँ विकल्प से दो-दो रूप बनेंगे-निर्जरसः, निर्जरस्य ] / 2. इसी प्रकार अन्य आकारान्त पुं० शब्द-गोपा (ग्वाला), सोमपा (सोमरस पीने वाला), धूम्रपा (धुआँ या सिगरेट आदि पीने वाला), बलदा (बल प्रदान करने वाला), शङ्खमा (शंख बजाने वाला) आदि / [065 का फूटनोट] 1. इसी प्रकार अन्य इकारान्त पुं० शब्द-मुनि, कवि, ऋषि, यति (संयमी), विधि (ब्रह्मा, भाग्य), निधि (खजाना), गिरि (पर्वत), कपि (बन्दर), जलधि (समुद्र), रवि (सूर्य), विरचि (ब्रह्मा), अग्नि, अरि (शत्रु), असि (तलवार), अतिथि, रश्मि (किरण), समाधि, वह्नि (आग), उदधि (समुद्र), पाणि (हाथ ), मरीचि (किरण), व्याधि (रोग), आधि (रोग), सारथि (गाडीवान्), अद्रि (पर्वत), मणि, भूपति (राजा), गृहपति (घर का स्वामी), नरपति (राजा), सुरपति (देवेन्द्र), लोकपति, गजपति, वृहस्पति, अधिपति, पृथिवीपति (राजा) आदि / २.(क) 'पति' शब्द जब समास के अन्त में आता है तो 'हरि' की तरह रूप पलेंगे और जब अकेला होता है तो तृतीया से सप्तमी के एकवचन में अन्सर होता है। 'पति शब्द का स्त्रीलिङ्ग 'पत्नी' होता है जिसके रूप नदी की तरह चलेंगे। हरिणा हास्याम् हरिभिः तृ. पत्या पतिभ्याम् पतिभिः हरये हरिभ्याम् हरिभ्यः प० पत्ये पतिभ्याम् पतिभ्यः . हरेः . हरिभ्याम् हरिभ्यः 60 पत्युः पतिभ्याम् पतिभ्यः हरेः . हयोंः हरीणाम् प. पत्युः पत्योः पतीनाम् हरौ योः हरिषु स० पत्यो . पत्योः पतिषु हे हरे! हे हरी! हे हरयः ! सं० हे पते ! हे पती! हे पतयः ! (5) ईकारान्त 'सुधी (विद्वान्): (6) उकारान्त 'गुरु (शिक्षक); सुधीः सुधियो सुधियः प्र. गुरुः गुरू गुरव सुधियम् सुषियौ सुधियः द्वि० गुरुम् गुरू गुरुन् सुधिया सुधीभ्याम् मुधीभिः तृ गुरुणा गुरुभ्याम् गुरुभिः सुधिये सुधीभ्याम् सुधीभ्यः च गुरवे गुरुभ्याम् गुरुम्बा सुधियः सुधीभ्याम् सुधीभ्यः प. गुरोः गुरुभ्याम् गुरुभ्यः सुधियः सुषियोः सुधियाम् प० गुरोः गुर्वोः गुरूणाम् सुधियि सुधियोः सुधीषु ! स. गुरौ गुर्वोः गुरुष हे सुधीः! हे सुधियो ! हे सुधियः सं० हे गुरो! हे गुरू! हे गुरवः ! (7) ऋकारान्त 'कल (करने वाला); (6) ऋकारान्त 'पितृ"(पिता): कर्ता कर्तारौ कर्तारः प्र. पिता पितरौ पितरः (ख) 'सखि' (मित्र ) शब्द के रूप-सखा सखायौ सखायः / सखायम् सखायौ सखीन् / शेष 'पति' की तरह बनेंगे। 'सखि' शब्द का स्त्रीलिङ्ग 'सखी' होता है और उसके रूप 'नदी' की तरह बनेंगे। 1. इसी प्रकार-शुद्धधी, परभधी, सुश्री आदि / 2. इसी प्रकार-साधु ( सज्जन ), भानु (सूर्य), ऋतु, शिशु, रिपु (शत्रु ), शत्र, विधु ( चन्द्रमा), पशु, प्रभु ( समर्थ), विष्णु, वायु, कृशानु (आगे), कर (जंघा), पांशु (लि), हेतु (कारण), मृत्यु, बाहु, मन्यु (क्रोध), असु (प्राण ), सूनु (पुत्र), इक्ष (गन्ना), बन्धु ( कुटुम्बी), इषु (तीर), तरु (पेड़), सेतु (पुल), वेणु (बांस), जन्तु, शम्भु आदि / 3. इसी प्रकार-(क) दातृ (दाता), धातु ( रचयिता), नेतृ (नेता), योद्ध (योद्धा), जेतृ (विजेता), गोप्त ( रक्षक), वक्तृ (वक्ता ), भर्तृ (पति), होतृ (हवन करने वाला ), श्रोतृ (श्रोता), द्रष्ट्र ( द्रष्टा ), सवितृ (सूर्य), गन्तृ (जाने वाला), पोत (पोता), रक्षित ( रक्षक ) आदि / (ख) 'कर्तृ' शब्द के स्त्रीलिङ्ग के द्वितीया बहुवचन में 'कत':' रूप बनेगा, शेष पु० की तरह। 4. इसी प्रकार क) भ्रातृ (भाई), जामात (जामाता), देव (देवर), न Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [69 &] संस्कृत-प्रवेशिका [6: शब्दरूप कर्तारम् कर्तारी कर्तृन् द्वि. पितरम् पितरौ पितृन् कळ कर्तृभ्माम् कर्तृभिः तृ. पित्रा पितृभ्याम् पितृभिः कत्र कर्तृभ्यः . पित्रे " पितृभ्यः कर्तुः " पं० पितुः " " कोंः कर्तृणाम् प० , पित्रोः पितृणाम् कर्तरि . कर्तृषु सं० पितरि " पितृषु हे कर्तः ! हे कर्तारौ ! हे कर्तारः ! सं० हे पितः ! हे पितरौ ! हे पितरः ! (6) ओकारान्त 'गो' (बैल / 'गाय' और 'वाणी' अर्थ में स्त्रीलिङ्ग); प्र. गौः गावोगावः 50 गोः गोभ्याम् गोभ्यः द्वि० गाम्" गाः गवो गवाम् तृ० गवा गोभ्याम् गोभिः स. गवि गोषु / म. गवे गोभ्यः सं हे गौः! हे गायौ ! हे गावः ! . स्वरान्त (अजन्त ) स्त्रीलिङ्गः संज्ञा शब्द (10) आकारान्त 'लता'२ (बल): (11) इकारान्त 'मति" (बुद्धि): लता लते लताः प्र. मतिः मती मतयः लताम् " द्वि० मतिम मतीः लतया लताभ्याम् लताभिः तृ० मत्या मतिभ्याम् मतिभिः / लताय " लताभ्यः च मत्य, मतये , मतिभ्यः (मनुष्य / इसके षष्ठी बहुवचन में दो कप बनेंगे-नृणाम् नृणाम्)। (ख) 'मातृ' (माता) स्त्रीलिङ्ग के द्वितीया बहुवचन में 'मातृ' बनता है, शेष 'पितृ' की तरह बनेंगे / 1. इसी प्रकार बोकारान्त स्त्रीलिङ्ग 'यो' (आकाश) के भी रूप बनेंगे। 2. इसी प्रकार-रमा (लक्ष्मी), सीता, माला, कन्या, विद्या, गङ्गा, बाला (स्त्री), कथा,. छायालज्जा, चिन्ता, शङ्का, तृष्णा, भाशा, कान्ता (स्त्री), भार्या (पत्नी), अजा (बकरी), अबला, दुर्गा, शोभा, परीक्षा, आशा, सन्ध्या, भिक्षा, वार्ता (खबर), जरा (बुढ़ापा), मक्षिका (मक्खी), ग्रीवा (गर्दन), ललना (स्त्री), कला, राधा, नासिका, निशा (रात्रि), बडवा (घोड़ी), सुमित्रा, घरा (पृथ्वी), सुधा (अमृत), प्रार्थना, दया, करुणा, क्षमा, अम्बा (माता। सम्बोधन में-हे अम्ब! होगा).आदि / / ___3. इसी प्रकार -बुद्धि, मूर्ति, स्तुति, भक्ति, शुद्धि, जाति, रुचि, रीति, कीर्ति वृष्टि, दृष्टि, शक्ति, स्मृति, शान्ति, नीति, धूलि, पंक्ति, गति, श्रुति (वेद), धृति (धैर्य), कान्ति, सृष्टि, भूमि, आकृति, प्रीति, हानि, उन्नति, कृति, प्रकृति, विपत्ति, गीति, भूति (ऐश्वर्य), रात्रि आदि / अजन्त पुं०, स्त्री०] 1. व्याकरण लतायाः लताभ्याम् लताभ्यः पं. मत्याः, मतेः मतिभ्याम् मतिभ्यः " . लतयोः लतानाम् .. . मत्योः मतीनाम् लतायाम् " लतासु स० मत्याम्, मती " . मतिषु हे लते ! हे लते ! हे लताः! सं० हे मते! हे मती! हे मतयः ! (12) ईकारान्त 'नदी" (नदी), (13) ईकारान्त 'श्री' (लक्ष्मी) नदी नद्यो नद्यः प्र.श्रीः श्रियो श्रियः नदीम् " नदीः वि श्रियम् " मद्या नदीभ्याम् नदीभिः 40 थिया श्रीभ्याम् श्रीभिः नद्य नदीभ्यः च० भिय, श्रिये // श्रीभ्यः नद्याः " " पं० श्रियाः, श्रियः // - नद्योः नदीनाम् ष. " " श्रियोः धीणाम्, त्रियाम् नद्याम् नदीषु स० श्रियाम्, श्रियि". श्रीषु हे नदि ! हे नद्यौ! हे नद्यः ! सं० हे श्रीः! हे श्रियो ! हे श्रियः ! (14) उकारान्त 'धेनु" (गाय): (15) अकारान्त 'वधू" (बहू ): धेनुः धेन धेनवः प्र वधूः बध्वी ध्वः घेनुम् " घेनः द्वि० बधूम् वधूः धेन्वा धेनुभ्याम् धेनुभिः तृ० वा वधूभ्याम् वधूभिः घेन्च, धेनवे " धेनुभ्यः . बध्व वधूभ्यः 1. इसी प्रकार-नारी (स्त्री), कुमारी, गौरी, जननी, दासी, पत्नी, नगरी, पृथ्वी, मैत्री, पुत्री, राजी, काली, सखी, वाणी, धात्री (धाय), वल्ली (बेल), वापी (बावड़ी), वीची (लहर), महिषी (पटरानी), जानकी, सावित्री, पार्वती, नटी, कमलिनी, नलिनी, अटवी (जंगल), कौमुदी (चाँदनी), देवी, त्रिलोकी, बिदुषी, भगिनी (बहिन ), द्रौपदी, पंचवटी, कादम्बरी, गायत्री, पहिणी, युवती आदि। 2. इसी प्रकार-भी ( भय ), धी (बुद्धि), ह्री ( लज्जा), सुश्री आदि / 3. इसी प्रकार-रेणु (धूलि----पु. भी है), तनु (शरीर), रज्जु ( रस्सी), नु (ठुड्डी--पु० भी है ) आदि / 4. इसी-प्रकार-चमू (सेना), श्वश्नू (सास), कर्कन्धू (बैर), चम्यू (गद्य-पद्यमय काव्य ), यवागू (लप्सी), जम्बू (जामुन ) आदि। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजन्त नपुं०, हलन्त पुं०] 1: व्याकरण [.101 (19) इकारान्त 'दधि" (दही): (20) उकारान्त 'भक्षु (शहद); दधि दधिनी दधीनि प्र. मधु मधुनी मधूनि 10.] संस्कृत-प्रवेशिका [6: शब्दरूप धेन्वाः,धेनोः धेनुभ्याम् धेनुभ्यः. पं० वध्वाः वधूभ्याम् वधूभ्यः " . धेन्वोः धेनूनाम् प० वोः बधूनाम् धेन्वाम्, धेनौ , धेनुष स. वध्वाम् वधूषु हे धेनो! हे धेनू ! हे धेनवः! सं० हे वधु ! हे वध्वौ ! हे वध्वः ! (16) ऋकारान्त स्वस्' (बहिन ) प्र० स्वसा स्वसारी स्वसारः विशेष-ऋकारान्त स्त्री के रूप पुके दि० स्वसारम् " स्वसः समान ही चलते हैं, द्वितीया बहुवचन में शेष पुं० 'कहूं' की तरह। 'ऋन्' की जगह '' होता है / दुहित . (लड़की), यातृ ( देवरानी), ननान्दृ (नगद) के रूप 'मातृ' की तरह हैं। ( देखें-फुटनोट 'पितृ' शब्द) स्वरान्त ( अजन्त ) नपुंसकलिङ्ग संज्ञा शब्द (17) अकारान्त 'ज्ञान" (ज्ञान) (१८)इकारान्त 'पारि" (जल): शानम् ज्ञाने ज्ञानानि प्र. वारि वारिणी वारीणि * ज्ञानम् शाने ज्ञानानि द्वि० ज्ञानेन 'शानाभ्याम् शानः तृ. वारिणा वारिभ्याम् वारिभिः ज्ञानाय ज्ञानेभ्यः . वारिणे " वारिम्पः - पं० वारिणः // ज्ञानस्य ज्ञानयोः ज्ञानानाम् प० " बारिणोः वारीणाम् शाने ज्ञानेषु स. वारिणि बारिषु हे ज्ञान ! हे ज्ञाने! हे ज्ञानानि ! सं० हे वारि, हे वारे ! हे वारिणी!हे वारीणि! दप्ना दधिभ्याम् दधिभिः तृ० मधुना मधुभ्याम् मधुभिः दघ्ने दधिभ्यः . मधुने - मधुभ्यः' दनः . . पं० मधुनः . - दनोः दनाम् प० " मधुनोः मधूनाम् दनि, दधनि दधिषु स. मधुनि " मधुषु / हे दषि, हे दधे ! हे दधिनी ! हे दधीनि! सं हे मधु, हे मधो ! हे मधुनी ! हे मधूनि! (21) ऋकारान्त 'क' (करने वाला): प्र. कर्तृ कर्तृणी कणि पं० कर्तृणः, कर्तुः कर्तृभ्याम् कर्तृभ्यः द्वि० " " " 0 " कर्तृणोः, कोंः कतृणाम् तृ कर्तृणा,कर्म कर्तृभ्याम् कर्तृभिः स. कर्तृणि, कर्तरि " " कर्तृषु च० कर्तृणे, कः // कर्तृभ्यः सं० हे कर्तृ, हे कर्तः ! हे कर्तृणी! हे कतृणि ! व्यखानान्त ( हलन्त ) पुंलिङ्ग संज्ञा शब्द (22) जकारान्त 'ऋत्विज्"(यज्ञ कर्ता): (23) सकारान्त 'भूभृत्" (राजा, पहा): ऋत्विक् ऋत्विजो ऋत्विजः प्र. भूभृत् भूभूती भूभृतः . 1. देखिये-पृ० 100 फुटनोट नं० 2 / 2. इसी प्रकार-अम्बु (जल), अलाबु (लौकी), अश्रु, जानु (घुटना), तालु, पु, दारु (लकड़ी), वसु (धन), वस्तु, श्मश्रु (मूंछ), जतु (लाख), बहु (बहुत), मृदु, कटु, लघु, पटु [ विशेषण वाचक उकारान्त शब्दों के चतुर्थी से सप्तमी के एकवचन में तथा षष्ठी और सप्तमी के द्विवचन में उकारान्त पुं० की तरह भी रूप बनने से विकल्प से दो-दो रूप बनेंगे ] आदि। 3. इसी प्रकार-धातृ ( रक्षक), नेतृ (नेता) आदि / 4. इसी प्रकार वणिज् (बनिया ), भूभुज् ( राजा), भिषज् (वैद्य ), हुतभुज् (अग्नि) आदि पुं० शब्दों तथा लज् (माला), कर्ज (बल), रुज् (रोग) आदि अकारान्त स्त्री० शब्दों के भी रूप 'ऋत्विज्' की तरह चलेंगे। 5. इसी प्रकार-(क) महीभूत ( राजा, पर्वत), पापकर (पापी), विपश्चित (विद्वान् ), तनूमपात (अग्नि), हरित (हरा), कर्मकृत् (कर्म करने वाला), पाणभूत (चन्द्रमा ), दिनकृत (सूर्य), मरुत् (वायु), दुष्कृत (पाप) परभूत 1. इसी प्रकार फल, पुस्तक, जल,, मित्र, शरीर, धन, वस्त्र, वन, नेत्र, भूषण, नगर, यन्त्र, अरण्य ( जंगल), गगन (आकाश), तृण (पास), सुख, दुःख, मुख, पुष्प, पाप, भय, गृह, अन्न, औषध, छत्र (छतरी), आम्र ( आम का फल ), लवण (नमक), गव, पद्य, रूप, युद्ध, कुसुम (फूल), नक्षत्र, कार्य, भाग्य, काव्य, सौन्वर्य, कलत्र (स्त्री), पत्र (पत्ता या कागज), बीज, पर्ण (पत्ता), कमल, अन्समारण, अब्ज (कमल), अन्न (मेघ), अमृत, आसन, उद्यान, ध्यान, कुटुम्ब, गीत, साहित्य, व्याकरण, स्वास्थ्य, सोपान, वचन आदि / 2. दधि (दही), अस्थि (हड्डी), अक्षि (ख), और सक्यि (जांघ) को छोड़कर शेष सभी इकारान्त नपुंसक लिङ्ग के रूप वारि के समान चलते हैं। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हलन्त पुं०] 1. व्याकरण सुहृदा सुहृद्भ्याम् सुहृद्भिः तृ. राज्ञा सुहृदे " मुहम्यः च. राशे [103 राजभ्याम् राजभिः राजयः " 102] संस्कृत-प्रवेशिका [6: शब्दरूप ऋत्विजम् ऋत्विजौ ऋत्विज द्वि० भूभतम् भूभूती भूभृतः ऋत्विजा ऋत्विग्भ्याम् ऋरिवग्भिः तृ भूभृता भूभृद्भ्याम् भूभृद्धिः ऋत्विजे " ऋत्विग्भ्यः च० भूभृते ऋत्विजः . . पं० भूभूतः " ____" ऋत्विजोः ऋत्विज्ञाम् " भूभृतो. भूभृताम् ऋत्विजि ऋत्विक्ष स० भूभृति " भूभृत्सु हे ऋत्विक् ! हे ऋत्विो ! हे ऋत्विजः ! सं० हे भूभृत् ! हे भूभृतौ! हे भूभृतः ! (24) तकारान्त 'भगवत्" (भगवान् ): (25) सकारान्त ('शत् प्रत्ययान्त) 'धावत् (दौड़ता हुआ): भगवान भगवन्ती भगवन्तः प्र. धावन् धावन्तो धावन्तः भगवन्तम् " भगवतः द्वि. धावन्तम् " धावतः हे भगवन् / हे भगवन्ती! हे भगवन्तः ! सं० हे धावन् ! हे धावन्तो ! हे धावन्तः! विशेष-दोनों के रूप शेष विभक्तियों में 'भूभृत' की तरह चलेंगे। (२६)दकारान्त 'सुदू" (मित्र): (27) नकारान्त (अनन्त) 'राजन' (राजा): सुहत-द् सुहृदी सुहृदः प्र. राजा राजानी राजानः सुहृदम् द्वि० राजानम् .. राज्ञः (कोयल), विश्वचित् (संसार-विषयी, यज्ञ विशेष) आदि / (ख) सरित (नदी), शुत् (छींक ), पृत (सेना), योषित् (स्त्री), विद्युत् (बिजली), तडित (बिजली), बादि तकारान्त स्त्री० शब्दों के भी रूप 'भूभत्' के समान चलेंगे। 1. इसी प्रकार--(क) धीमत् ( बुद्धिमान् ), बुद्धिमत् , श्रीमत् (भाग्यवान् ), आयुष्मत् (दीर्घायु), विद्यावत्, मलवद, धनुष्मद (धनुर्धारी), धनबत्, गुणवत्, रूपवत्, लज्जावत् (लज्जावान्), गतवत् (गया हुआ), उक्तवत् ( कथित ), जितवत् (विजित ), यावत् (जितना ), एतावत् (इतना ), कियत् (कितना), इयत् (इतना), भवत् (आप) भादि 'भतुप' (मत् या वत्) और क्तवतु ( तयत्) प्रत्ययान्त शब्द / (ख) महत् ( महान महान्तौ महान्तः / महान्तम् महान्ती महतः)। - 2. इसी प्रकार-(क) भवत् (होता हुआ), कुर्वत् (करने वाला), पठन (पढ़ने वाला, पढ़ता हुआ) आदि 'शतृ और 'स्यतृ' प्रत्ययान्त शब्द / (ख) ददत् (पुं० ददत् ददती ददतः / यवतम् ददतौ वदतः / स्त्री० ददत् ददती वदन्ति, ददति / ) 3. इसी प्रकार-(क) ब्रह्मविद (ब्रह्मज्ञ), तमोनुद् (अन्धकार हटाने वाला, सूर्य), वेदविद् (वेद का ज्ञाता), धर्म विद्, उद्भिद् (तरु, लता), निरापद् (आपद्-शून्य ), .. गोत्रभिद (इन्द्र), सभासद्, नचल्छि (नाखून काटने वाला), मर्मभिद् (रहस्य " सुहृदोः सुहृदाम्ब 0 // राशोः राज्ञाम सुहृदि " सुहृत्सु स० राशि,राजनि - राजसु हे सुहृत-द हे सुहृदौ! हे सुहृदः ! सं० हे राजन् ! हे राजानौ !हे राजानः! (28) अनन्त 'आत्मन्" (अपना, आत्मा): (29) अनन्त 'युवन्' (युवक) . आत्मा आत्मानौ आत्मानः प्र० युवा युवानौ युवानः आत्मानम् " आत्मनः द्वि० युवानम् " यूनः '. आत्मना यात्मम्याम् आत्मभिः तृ -यूना युवभ्याम् युवभिः / आत्मने " भात्मभ्यः 0 यूने .. 'युवम्बः आत्मनः // " पं. वून आत्मनोः आत्मनाम् प० - यूनोः यूनाम् आत्मनि आत्मसु स० यूनि , युवसु हे आत्मन् ! हे आत्मानौ ! हे आत्मानः ! सं० हे युवन् ! हे युवानी ! हे युवानः ! (30) इन्नन्त 'करिन् (हाथी): (31) इन्नन्त 'पथिन्' (पथ): करी करिणौ करिणः प्र. पन्थाः पन्थानौ पन्थानः करिणम् " " द्वि पन्थानम् " पथः करिणा करिभ्याम् करिभिः त. पथा पथिभ्याम् पथिभिः भेदन करनेवाला) आदि पुं० शब्द (ख) शरद् (पतझड़ ऋतु), आपद् (आपत्ति), विपद् (विपत्ति ), सम्पद् (धन), संसद् (सभा), परिषद् (सभा), दृशद् (पत्थर ), ककुद (चोटी), प्रतिपद (पड़वा तिथि.), मृद (मिट्टी), संविद (शान ), उपनिषद् (वेदान्त) बादि दकारान्त स्त्री० शब्दों के भी रूप 'सहद' की तरह चलेंगे। 1. इसी प्रकार-अश्मन् (पत्थर), यज्वन ( यागकर्ता ), ब्रह्मन् (विधाता), द्विजन्मन् (ब्राह्मण), अध्वन् (मार्ग) आदि / 2. इसी प्रकार-हस्तिन् (हाथी), गुणिन् (गुणी), मन्छिन् (मन्त्री), शशिन् (चन्द्रमा), अङ्गिन (सींग वाला), पक्षिन (पक्षी), बनिन् (धनी), वाजिन् (पोड़ा), तपस्विन्, अलिन् (बलवान् ), सुखिन् (सुखी), एकाकिन (अकेला), सत्यवादिन, स्वामिन् मानिन् , शरीरिन, देहिन, प्राणिन, सहवासिन्, सग्विन् (मालाधारी), मनस्विन्', यशस्विन् , मेधाविन् , मालिन (माली), शानिन्।' मनोहारिन्, अधिन् ( याचक ), वाजिन (गोड़ा), आत्मघातिन, सामिन (प्रेमी), Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचे - 104] संस्कृत-प्रवेशिका [6: शब्दरूप करिणे करिभ्याम् करिभ्यः च० पथे पथिभ्याम् पथिभ्यः करिणः // पं० पथः " " " करिणोः करिणाम् प० पथोः पथाम् करिणि क रिष स. पथि " पथिषु हे करिन् ! हे करिणी ! हे करिणः ! सं० हे पन्थाः ! हे पन्थानी ! हे पन्थानः ! (32) शकारान्त 'ताहश्" (वैसा) (33) सकारान्त 'विद्वस् (विद्वान्): तादृक्- तादृशी तादृशः प्र. विद्वान् विद्वांसी विद्वांसः तादृशम् - वि० विद्वांसम् " विदुषः तादृशा तादृरभ्याम् . तादृग्भिः तृ' विदुषा - विद्वद्भ्याम् विद्वद्भिः तादृशे . तादृग्भ्यः च. विदुषे विभ्यः तादृशः . . पं० विदुषः , " तादृशोः तादृशाम् प० " विदुषोः विदुषाम् ताशि " तादृल स० विदुषि , विद्वत्सु हे तादृक्-ा ! हे तादृशो! हे तादृशः ! सं० हे विद्वन् ! हे विद्वांसौ ! हे विद्वांसः ! व्यश्चनान्त (हलन्त ) स्त्रीलिङ्ग संझा शब्द (34) चकारान्त 'वाचू" (35) 'अप' (जल) (36) रकारान्त 'गिर (वाणी): (नित्य बहुवचनान्त): वाक्-ग् वाचो वाचः प्र० आपः प्र० मीः गिरौ गिरः कुटुम्बिन्, कुशलिन् ( सुखी), केशरिन् (सिंह), यिन् (खरीदने वाला), गृहिन् (गृहस्थ ), चक्रवर्तिन् (सम्राट् ), तपस्विन्, दूरदशिन्, देषिन्, रोगिन्, वाग्मिन् (शीघ्र बोलने वाला), वादिन (वादी), विटपिन् (वृक्ष), वैरिन् (शत्रु), शाखिन् (वृक्ष), शिखिन् (मयूर), साक्षिन् (साक्षी) आदि / 1. इसी प्रकार (क) मादृश् (मरे समान), भवादश (आपके समान), त्वादश बादि पुं० शब्द / (ख) 'दिश, दृग (नेत्र) आदि शकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों के भी रूप इसी प्रकार बनेंगे। 2. "विद्वस्' का स्त्री० 'विदुषी होता है और उसके रूप 'नदी' की तरह बनी। 3. प्रायः इसके रूप ध्यानान्त पुं० संज्ञा शब्दों के तुल्य होते हैं। 4. इसी प्रकार-(क) त्वच् (चमड़ा, छाल), रुच् (चमक), शुच् (शोक), ऋच् (बदमन्त्र) आदि स्त्रीलिङ्ग शब्द। (ख) जलमुच (मेघ), वारिमुच (मेष), पयोमुत्र (मेघ), सत्यवान् (सत्यवादी) आदि चकारान्त पुं० शब्दों के भी रूप वाच की तरह चलेंगे। 5. इसी प्रकार-पुर (नगर) और धुर (धुरी) स्त्री० शब्दों के रूप बनेंगे। हलन्त स्त्री०, नपुं०] १:व्याकरण [105 वाचम् वाची वाचः द्वि. अपः वि. गिरम् गिरी गिरः वाचा वाग्भ्याम् वाग्भिः तृ० अद्भिः तु० गिरा गीभ्याम् गीभिः " वाग्भ्यः 10 अद्भ्यः प० गिरे गीभ्यः वाचा " " पं० पं.गिरः " " वाचो वाचाम् प० अपाम् प०॥ गिरोः गिराम् बाचि - बार स० अप्सु स० गिरि - गीर्ष हे वाक्-ग ! हे वाचो ! हे वाचः! सं० हे आपः ! सं० हे गीः ! हे गिरी ! हे गिरः! (37) वकारान्त 'दिव' (आकाश, स्वर्ग): (38) सकारान्त 'आशिस्" (आशीर्वाद): द्यौः दिवो दिवः प्र. आशीः आशिषौ बाशिषः दिवम् द्वि० आशिषम् " " दिवा युभ्याम् धुभिः तृ. आशिषा माशीाम् आशीभि दिवे " युभ्यः 0 आशिषे . बाशीभ्यः दिवः " " पं० आशिषः " " " दिवोः दिवाम् प० आशिषोः भाशिषाम् दिवि षु स० आशिषि बाशीषु, माशीःषु हे द्यौः ! हे दिवी ! हे दिवः! सं. हे आशीः ! हे आशिषौ ! हे माशिषः! व्यञ्जनान्त ( हलन्त ) नपुंसकलिङ्ग संज्ञा शब्द (39) तकारान्त 'जगत् (विश्व): (40) नकारान्त 'नामन् (नाम): जगत् जगती जगन्ति प्र०, द्वि० नाम नाम्नी, नामनी नामानि जगता जगद्भ्याम् जगद्भिः तृ नाम्ना नामभ्याम् नामभिः जगते जगद्भ्याम् जगद्भ्यः च. नाम्ने " नामभ्यः जगतः // // पं. नाम्नः . (वाणी) 1. इसी प्रकार-स्त्रीलिङ्ग अचिस् (लो) शब्द के भी रूप भनेंगे परन्तु 'आशिस्' के रूपों में जहाँ दीर्घ 'ई' है वहाँ 'अचिस्' के रूपों में ह्रस्व '' ही रहेगा। २.तृतीया से लेकर आगे के सभी रूप 'भूभृत्' के तुल्य हैं। 3. इसी प्रकार-प्रेमन् (प्रेम), दामन् (नक् , रस्सी), व्योमन् (आकाश), सामन् (सामवेद का मन्त्र ), धामन् (चमक, मकान), लोमन् (रोम), वेमन् (कर्षा) आदि। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [6: शब्दरूप जगतः जगतोः जगताम् प० नाम्नः नाम्नोः नाम्नाम् जगति " जगत्सु स० नाम्नि, नामनि , नामसु है जगत् 1 हे जगती! हे जगन्ति ! सं० हे नाम,नामन् ! हे नाम्नी, हे नामानि ! नामनी! (41) नकारान्त 'कर्मन्" (कर्म): (42) नकारान्त 'अहन्' (दिन): कर्म कर्मणी कर्माणि प्र०, द्वि० अहः अह्नी, अहनी अहानि कर्मणा, कर्मभ्याम् कर्मभिः तृ० अह्ना अहोभ्याम् अहोभिः कर्मणे कर्मभ्यः च. " अहोभ्यः कर्मणः पं० अल " कर्मणोः कर्मणाम् .. अहोः अलाम् कर्मणि कर्मसु स० अह्नि, अहनि " अहासु, अहस्सु * हे कर्म,कर्मन् / हे कर्मणी ! हे कर्माणि ! सं० हे अहः ! हे अह्री, हे अहनी ! हे अहानि ! - (43) सकारान्त 'मनसू (मन): (44) सकारान्त 'धनुस्" (धनुष): मनः मनसी मनांसि प्र०, द्वि० धनुः धनुषी धषि 1. इसी प्रकार-चर्मन् (चमड़ा), छमन (छल, वेष), जन्मन् (जन्म), वर्मन् ( कवच ), वर्मन् ( मार्ग ), शमन् (सुख), वेश्मन् (घर), ब्रह्मन् (ब्रह्म), जन्मन् (जन्म), पर्वन् (जोड़), मर्मन् (मर्मस्थान), भस्मन् (राख), नर्मन् (हंसी मजाक, परिहास), पर्वन् (त्योहार, गांठ), लक्ष्मन् (चिह्न, दाग), सद्मन् (महल) आदि भन्' भागान्त ('अन्' का 'अ' म्-संयुक्त या र-संयुक्त वर्ण में मिलित रहता है) नपुं० शब्दों के रूप बनेंगे। २.असर्वनामस्थान हलादि विभक्तियों में 'महन्' को अहः (न>र) हो जाता है। 3. इसी प्रकार-पयस् (जल, दूध), अम्भस् (जल), नभस् (आकाश), आगस् (दोष, पाप), तपस् (तप), यशस् (यश), रजस् (धूलि ), तमस् (अन्धकार), अवस् (रक्षा), वक्षस्, उरस् ( वक्षस्थल), चेतस् (चित्त), वासस् / (वस्त्र ), शिरस् (मस्तक), एनस् (पाप), वर्चस् (तेज), तेजस् (तेज, प्रकाश ), वयस् (आयु), वचस् (वचन), तरस् (वेग), अयस् (लोहा), सरस् (सालाब), औकस् (घर), ओजस् (प्रकाश), छन्दस् (छन्द), रक्षस् (राक्षस), रहस् (रहस्य) रोषस (नदी का तट, बाँध), प्रेयस् (प्रिय), सदस् (सभा, संसद) आदि 'अस्' भागान्त नपुं० शब्दों के रूप बनेंगे। 4. इसी प्रकार-आयुस् (आयु), वपुस् (शरीर), चक्षुस् (आँख) ज्योतिस् (प्रकाश), हविस् (हरि), सर्पिस् (पी). यजुस् (यजुर्वेद ) धादि। हलन्त नपुं०, सर्वनाम] 1: व्याकरण मनसा मनोभ्याम् मनोभिः तृ धनुषा धनुभ्याम् धनुभिः मनसे " मनोभ्यः च. धनुषे धनुाम् धनुर्यः मनसः पं० धनुषः धनुाम् धनुर्यः मनसोः मनसाम्ब 0 धनुषः धनुषोः धनुषाम् मनसि " मनःसु-स्सु स० धनुषि " धनुःषु, धनुष्षु है मनः ! हे मनसी! हे मनांसि ! सं० हे धनुः ! हे धनुषी ! हे धषि ! सर्वनाम शब्द ( Pronouns) (पुरुष वाचक सर्वनाम = Personal Pronouns) (45) 'अस्मदु' (मैं=First Person) : (46) युष्मद् (तुम-Second Person) : अहम् आवाम् वयम् प्र० त्वम् युवाम् यूयम् माम् [मा]., [नौ] अस्मान[नः] वि० स्वाम[त्वा] " [वां] युष्मान् [व] मया ___आवाभ्याम् अस्माभिः तृ त्वया युवाभ्याम् युष्माभिः मह्यम् [म], [नौ] अस्मभ्यम्[नः] च तुभ्यम्[ते]" [व] युष्मभ्यम [वः] मव " अस्मत्त्व त युष्मत मम मि] आवयोः [नौ] अस्माकम् [नः] प० तव [ते] युवयोः [वा] युष्माकम् [व] मयि अस्मासु स त्वयि " युष्मासु विशेष-'अस्मद्' और 'युष्मद्' शब्द के रूप तीनों लिङ्गों में एक समान होते हैं। (47) 'तद्' (वह = He=Third Person) पुं० (48) 'तदु' (वह = She) स्त्री. सातौ ते प्र० सा ते ताः तम् तान् वि० तामा तेन ताभ्याम् तै तृ० तया ताभ्याम् ताभिः तस्मै " तेभ्यः च तस्यै " ताभ्यः तस्मात् पं० तस्याः तस्य तयोः तेषाम् . 0 " तयोः तासाम् तस्मिन् " तेषु स९ तस्याम् // तासु (46) 'तद्' (वह = It ) नपुं०-- तद्, तत् ते तानि प्र०, द्वि० शेष पुं० की तरह / 'उस्' भामाम्त नपुं० शब्दों के रूप बनेंगे / इन शब्दों को कहीं-कहीं 'षकारान्त' भी लिखा जाता है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनाम] 1: व्याकरण [106 108] संस्कृत-प्रवेशिका [ शब्दरूप (50) 'भवत' (आप-You=) पुं० (51) 'भवत्' (आप) स्त्री भवान् भवन्ती अवन्तः प्र. भवती भवत्यौ भवत्यः भवन्तम्भ वतः द्वि० भवतीम् // भवंतीः भवता भवद्भ्याम् भवद्भिः तु भवत्या भवतीभ्याम् भवतीभिः भवते . भवद्भ्यः च भवत्यं भवतीभ्यः भवतः पं. भवत्याः " भवती भवताम् प० भवत्योः भवतीनाम् भवति " भवस्सु स. भवत्याम् भवतीषु / हे भवन् ! हे भवन्ती। हे भवन्तः! सं० हे भवति। हे भवत्यो / हे भवत्यः ! (52) भवत्' (आप) नपुं०भवन् भवती भवन्ति प्र०, द्वि० शेष पुं० की तरह / (वस्तुनिर्देशक या निश्चयवाचक सर्वनाम् = Demonstrative Pronouns ) (53) 'एतद्" (यह)पुं० ('तद्' की तरह) (54) 'एतद्' (यह) स्त्री० ('तद्' की तरह) एषः एतो एते प्र० एषा एते' एताः एतम् एनम् एती, एमी एतान्,एनान् द्वि० एताम्, एनाम् एते, एने एताः, एना। एतेम, एनेन एताभ्याम् एतैः तृ० एतया, एनया एताभ्याम् एताभिः एतस्मै एतेभ्यः च एतस्यै " एताभ्यः एतस्मात् " " पं० एतस्याः " एतस्य एतयोः, एनयोः एतेषाम् प० - एतयोः,एनयोः एतासाम् एतस्मिन् " " एतेषु स० एतस्याम् " " एतासु (55) 'एतद्' (यह ) नपुं० ('तद्' की तरह )एतत् द एते एतानि प्र. शेष पुं० की तरह / एतत्-द, एनव-द् एते, एने एतानि, एनानि द्वि. (56) 'इदम् (यह - This) 0 (57) 'इदम् (यह) स्त्री० अयम् इमो इमे प्र० इयम् इमे इमाः इमम्,एनम् इमी एनी इमान्,एनान् वि० इमाम,एनाम् इमे, एने इमाः, एना: अनेन, एनेन आभ्याम् एभिः तृ० बनया, एनया आभ्याम् आभिः अस्म " एभ्यः च० अस्य . आभ्यः / 1-2 'एतद्' और 'इदम्' शब्दों के वैकल्पिक रूपों का प्रयोग किसी के बारे में एक बार कुछ कह लेने के बाद पुनः उसके बारे में कहने पर (अन्वादेश-द्विरुक्ति)। होता है। जैसे-अयं वेदमधीतवान् / एनं दर्शनम् अध्यापय / पहा अस्मात् आभ्याम् एभ्यः 60 अस्याः आभ्याम् आभ्यःअस्य अनयोः,एनयोः एषाम् प० , अनयोः,एनयोः आसाम् अस्मिन् , " एषु स. अस्याम् , आसु (58) 'इदम्' (यह) नपुं०इदम् इमे इमानि प्र०, विशेष पुं० की तरह / (59) 'अदस्' (वह = That) पुं० (60) 'अदस्' (क्ह) स्त्रीअसो अमू अमीप्र० असो अमू अमू: अनुम् अमून् द्वि० अमुम् " " अमुना अभूभ्याम अमीभिः तृ अमुया अमूभ्याम् अमूभिः अमुष्मै " अमीभ्य: च अमुष्य " अमूभ्यः अमुष्मात्-" पं. अमुष्याः अमुष्य अमुयोः अमीषाम् " अमुयोः अमूषाम् अमुष्मिन् " अमीषु स. अमुष्याम् " अमूषु (61) 'अदस्' (वह) नपुं०अवः अमू अमूनि प्र., द्वि० शेष पुं० की तरह / (सम्बन्धवाचक सर्वनाम - Relative Pronouns) . (62) 'यद्' (जो = Who) jo--- (63) 'यद्' (जो = Who) स्त्री--- या ये याः यम्यान् द्वि० याम् येन याम्बाम् यः तृ० यया याभ्याम् याभिः यस्मै . येभ्यः च यस्य याभ्यः यस्मात- " " पं. यस्याः यस्य ययोः येषाम् प० ययोः यासाम् यस्मिन् // येषु स. यस्याम् " यासु (64) 'यदू' जो = which ) नपुं०यत्- ये यानि प्र०, दि० शेष पुं० की तरह / (प्रश्नवाचक सर्वनाम = Interrogative Pronouns ) (65) 'किम्' (कौन = who, which, what) पु. (66) 'किम्' (कौन) स्त्री० का को के प्र कार के काः Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [111 सर्वनाम, संख्या ] 1: व्याकरण सर्वेण सर्वाभ्याम् सर्वः सर्वस्मै " सर्वभ्यः च सर्वस्मात् " " पं० सर्वस्य सर्वयोः सर्वेषाम् प. सर्वस्मिन् " सर्वेषु स० (70) 'सर्व' (सब) नपुं०सर्वम् सर्वे सर्वाणि प्र०, द्वि० सर्वया सर्वस्यै सर्वस्याः .. सर्वस्याम् सर्वाभ्याम् सर्वाभिः सर्वाभ्यः . सर्वयोः सर्वासाम् // सर्वासु शेष पुं० की तरह। संख्यावाचक शब्द ( Cardinals )' 110] संस्कृत-प्रवेशिका [6: शब्दरूप कम् को कान् द्वि. काम् के काः केन काभ्याम् कः तृ० कया काभ्याम् काभिः कस्म केम्यः कस्यै काभ्यः कस्मात्-" " पं० कस्याः कस्य कयोः केषाम कयोः कासाम् कस्मिन् " केषु स० कस्याम् " कासु (67) 'किम्' (कौन) नपुं०किम् के कानि प्र०, द्वि० शेष पुं० की तरह / (सर्व वाचक सर्वनाम-विशेषण=Pronominal Adjective) (68) 'सर्व२ (सब = All ) पुं०- (66) 'सर्व' (सब) स्त्री० सर्वः सवौं सर्वे प्र० सर्वा सर्वेसर्वाः सर्वम् सर्वान् द्वि० सर्वाम् " " १.सर्वनामों के कुछ अन्य प्रकार--(१) निजवाज़क सर्वनाम ( Reflexive Pronoun)--स्व (स्वयम्) आदि / (2) अनिश्चयवाचक सर्वनाम ( Indefinite Pronoun )--'किम्' शब्द में चित्, चन, अपि, और स्वित् जोड़कर अनिश्चयवाचक सर्वनाम सब लिङ्गों और सब विभक्तियों में बनते हैं। जैसे-कः + चित् = कश्चित्, कौचित्, केचित् / क: + अपि-कोऽपि, कावपि, केऽपि / कः + चन-कश्चन, कौचन, केचन / का+चित्काचित / किम् + चित् किञ्चित् / कस्मिन् + चित् कस्मिश्चित् / (3) अन्योन्यसम्बन्धवाचक सर्वनाम ( Reciprocal Pronoun)-अन्योन्य, इतरेतर, परस्पर मादि / (4) सम्बन्धवाचक सर्वनाम-विशेषण (Possessive Pronoun) ये तद् आदि शब्दों में 'ईय' (छ) जोड़कर बनते हैं। जैसे-तदीय, मदीय, अस्मदीय आदि / 2. (क) अन्य (दूसरा), सम (सब), अन्यतर (दो में से कोई एक), इतर (दूसरा), कतम (बहुतों में से कौन), एकतम (बहुतों में से एक), विश्व, एकतर, 'पूर्व (पहला, पूर्व दिशा), अवर (पीछे, पश्चिम), दक्षिण, उत्तर (पिछला, उत्तर दिशा, बड़ा), अवर (दूसरा, घटिया), अधर (निचला, पटिया), पर (दूसरा), अन्तर, स्व ( अपना) आदि प्रायः सभी सर्वनाम शब्दों के रूप सर्व शब्द की ही तरह चलते हैं। (ख) कति, उभ और उभय शब्दों के रूप-'कति' (कितने) शब्द के रूप नित्य बहुवचनान्त और तीनों लिङ्गों में एक से होते हैं। जैसे-कति, कति, (71) 'एक' (एक) ['सर्व' शब्दवत्] (72) 'द्वि' (दो) (73) 'त्रि' (तीन) पुं० स्त्री० न० पुं० स्त्री०,नपुं० पुं० स्त्री० नपुं० प्र० एकः एका एकम् द्वौ त्रयः तिस्रः त्रीणि द्वि० एकम् एकाम् " " त्री , कतिभिः, कतिभ्यः, कतिभ्यः, कतीनाम्, कतिषु / 'उभ' (दोनों) शब्द के रूप नित्य द्विवचनान्त होते हैं / जैसे-पु. में क्रमशः रूप होंगे--उभौ, उभौ, उभाभ्याम्, उभाभ्याम् , उभाभ्याम्, उभयोः, उभयोः। स्त्री० एवं नपु' के प्रथमा-द्वितीया में 'उभे रूप बनेंगे; शेष पुं० की तरह / 'उभय' (उभ + अयच् ) शब्द के रूप एकवचन और बहुवचन में होते हैं। जैसे-पु. में 'तद' शब्द की तरह (उभयः, उभये / उभयम् उभयान्)। स्त्री० में 'नदी' की तरह (उभयी, उभय्यः)। नए में प्र० वि० के 'उभयम् , उभयानि' रूप होंगे, शेष पुं० की तरह। 1. (क) संख्यावाची शब्दों में 'एक' शब्द के एकवचन में 'द्वि' शब्द के द्विवचन में और 'त्रि' से लेकर 'अष्टादश' तक के शब्दों के रूप केवल बहुवचन में चलते हैं। (ख) संख्यावाची एक शब्द का प्रयोग निम्न 7 अर्थों में होता हैएकोऽल्पार्थो प्रधाने च प्रथमे केवले तथा / साधारणे समानेऽपि संख्यायाच प्रयुज्यते / ' नोट-संख्यातिरिक्ति 'अल्प' आदि अर्थों में 'एक' शब्द का प्रयोग होने पर उसके द्वि० और बहुवचन के भी रूप बनेंगे / जैसे-एकानि फलानि / Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [6: शब्दरूप संख्या ] 1: व्याकरण [113 तृ० एकेन एकया एकेन द्वाभ्याम द्वाभ्याम् त्रिभिः तिभिः त्रिभिः च० एकस्मै एकस्यै एकस्मै " " त्रिभ्यः तिसृभ्यः त्रिभ्यः पं० एकस्मात् एकस्याः एकस्मात् " . . " प० एकस्य // एकस्य द्वयोः द्वयोः त्रयाणाम् तिसृणाम् त्रयाणाम् स० एकस्मिन् एकस्याम् एकस्मिन् . त्रिषु तिसृषु त्रिषु (74-77) चतुर् (चार) पञ्चम् (पांच) षषु (छ) सप्तन् (सात) (ग) एकोनविंशति (19) से सहन (1000) तक के सभी रूप यद्यपि एक वचनान्त होते हैं परन्तु वे बहुवचनान्त विशेष्यों के साथ प्रयुक्त होते हैं। जैसे - विंशतिः छात्राः शतं स्त्रियः। नियत-संख्या के परिमाण के लिए द्विवचन और बहुवचन में भी प्रयुक्त होते हैं। जैसे-विंशतयः बाह्मणानाम्, हे शते स्त्रीणाम् / (ब) एक, द्वि, त्रि और चतुर् शब्दों के रूप तीनों लिङ्गों में भिन्न-भिन्न चलते हैं। 'पञ्चन' से 'एकोनविंशति' (19) तक के रूप तीनों लिङ्गों में समान होते हैं। 'विंशति' (20) से 'नवनवति' (66) तक के सभी शब्द स्त्रीलिङ्गक हैं। 'पातम्' आदि नपु' हैं। जैसे-विंशतिः बालकाः फलानि बालिकाः वा। () 'कोटि' शब्द स्त्रीलिङ्गक है / 'महापदम' और 'जलधि' शब्द पु० हैं। (च) 'एक' से 'अष्टादश' पर्यन्त संख्यावाची शब्द विशेषण ( संध्येय) के रूप में प्रयुक्त होते हैं परन्तु अष्टादश से बाद के संख्यावाची शब्द विशेष्य (संख्या) के भी रूप में प्रयुक्त होते हैं। जैसे-एकः छात्रः ('छात्रस्य एकः' नहीं होमा)। विंशतिः छात्राः छात्राणां विशतिः वा। (छ) क्रमवाचक (पूरणार्थक-Ordinal) शब्दों के रूप संख्याओं की तरह चलते हैं। प्रथम, द्वितीय और तृतीय शब्दों के चतुर्षों से सप्तमी तक एकवचन में . सर्वनाम संबन्धी रूप भी बनते हैं / जैसे-द्वितीयस्मै, द्वितीयस्याः। (ज) संख्यावाची एक, द्वि, आदि शब्दों से बने हुए पूरणार्थक (प्रथमः, द्वितीयः आदि) शब्द निम्न प्रकार होंमे पुं० स्त्री० न० एक- प्रथमः प्रथमा प्रथमम् विंशति- विशः, विशतितमः (अग्रिमः, आदिमः) एकविंशति-एकविंशः, एकविंशतितमः द्वि- द्वितीयः द्वितीया द्वितीयम् त्रिंशत् - त्रिंशः, त्रिशत्तम: नि- तृतीयः तृतीया तृतीयम् चत्वारिंशत्-शत्वारिंशः, चत्वारिंशत्तमः चतुर- चतुर्थः चतुर्षी चतुर्थम् पञ्चाशत्- पञ्चाशः, पञ्चाशत्तमः (तुरीयः, तुर्यः) षष्टि षष्टितमः पश्चन्- पञ्चमः पञ्चमी पञ्चमम् सप्तति- सप्ततितमः षष् - पष्ठः षष्ठी षष्ठम् अशीति- अशीतितमः सप्त - सप्तमः सप्तमी सप्तमम् नवति- नवतितमः' अष्ट - अष्टमः अष्टमी अष्टमम् शत शततमः / नवन- नवमः नवमी नवमम् द्विशत - द्विशततमः दशन्- दशमः दशमी दशमम् सहस्रतमः (स) एक से परार्ध तक संख्या निम्न प्रकार है पुं० स्त्री० नपुं० प्र. चत्वारः / चतस्रः . चत्वारि पञ्च षट् सप्त वि० चतुरः तः चतुभिः चतसृभिः चतुभिः पञ्चभिः षडभिः सप्तभिः च० चतुभ्यः चतसृभ्यः चतुभ्यः पञ्चभ्यः षड्भ्यः सप्तभ्यः पं० प. चतुर्णाम् चतसृणाम् चतुर्णाम् पञ्चानाम् 'बष्णाम् सप्तामाम् स. चतुषु चतसृषु चतुर्ष पञ्चसु षट्सु सप्तसु (75-82) अष्टन (आठ) नवन (नौ) दशन (दस) विंशति (बीस) त्रिंशत् (तीस) प्र० अष्ट, अष्टौ नव दश विंशतिः त्रिंशत् द्वि० // विशतिम् त्रिंशतम् 1 एक 2 द्वि 3 त्रि 4 चतुर 5 पञ्चन् 6 वर्ष 7 सप्तन् 8 अष्टन् नवन् 10 दशन् 11 एकादशन् 12 द्वादशन् 13 त्रयोदशन् 14 चतुर्दशन् 15 पञ्चदशन् 16 षोडशन् 17 सप्तदशन् 18 अष्टादशन् 16 नवदशन् एकोनविंशति / ऊनविंशति एकात्रविशति 20 विशति 21 एकविंशति 22 द्वाविंशति 23 त्रयोविंशति 24 चतुर्विशति / 25 पञ्चविंशति 26 षड्विंशति 27 सप्तविंशति 28 अष्टाविंशति 26 नवविंशति एकोनत्रिंशत् / नत्रिशत एकान्नत्रिंशत् 30 त्रिंशत् 31 एकत्रिंशत् Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [6: शब्दरूप अष्टभिः,अष्टाभिः नवभिः दशभिः अष्टभ्यः,अष्टाभ्यः नवम्यः दशभ्यः संख्या ] प. स० 1: व्याकरण [ 115 अष्टानाम् नवानाम् दशानाम् विशत्याः विशतेः त्रिंशतः अष्टसु, भष्टासु नबसु दशसु विशत्याम, विंशती त्रिंशति 1000 सहस्र (नपुं०) ___करोड़-कोटि (स्त्री०) नील-शङ्क. (पुं०) 10000 अयुत (न०) दस करोड़-अर्बुद (न०) दसनील-जलधि (पुं०) 100000 लक्ष (न०) अरब-अब्ज (न०) पद्म-अन्त्य (न०) लक्षा (स्त्री०) दस अरब-खर्व (पुं०न०) दस पद्म- मध्य (न०) दस लाख-प्रयुत (न०) खरब-निखर्व (पुं० न०) शह-पराध (न०) 32 द्वात्रिंशत 56 षट्पञ्चाशत् 33 त्रयस्त्रिशत् 57 सप्तपञ्चाशत् 34 चतुस्त्रिशत् 58 अष्टा-पञ्चाशत् 35 पञ्चत्रिंशत् अष्टपञ्चाशत् 36 षत्रिंशत् ५९नवपञ्चाशत् 37 सप्तत्रिंशत् एकोनषष्टि ऊनषष्टि 38 अष्टात्रिंशत् एकात्रषष्टि 36 नवत्रिंशत् एकोनचत्वारिंशत् / 60 षष्टि ऊनचत्वारिंशत् / 61 एकषष्टि एकान्नचत्वारिंशत् 62 द्वा(दि) षष्टि / 40 चत्वारिंशत् 63 त्रयः(त्रिषष्टि 41 एकचत्वारिंशत् 64 चतुष्षष्टि 42 द्वा(द्वि)चत्वारिंशत् 65 पञ्चषष्टि / 43 त्रयश् (वि)चत्वारिशत् 66 षट्षष्टि 44 चतुश्चत्वारिंशत् 67 सप्तषष्टि 45 पञ्चचत्वारिंशत् 46 षट्चत्वारिंशत् 68 अष्टा (अष्ट)पष्टि 47 सप्तचत्वारिंशत् 66 नवषष्टि 48 अष्टा-चत्वारिंशत् एकोनसप्तति ऊनसप्तति अष्टचत्वारिंशत् एकात्रसप्तति 46 नवचत्वारिंशत 70 सप्तति एकोनपश्चाशत् जनपञ्चाशत् 71 एकसप्तति एकानपञ्चाशत् 72 द्वा(द्वि)सप्तति 50 पञ्चाश 73 अयस्(त्रि) सप्तति 51 एकपञ्चाशन् 74 चतुस्सप्तति 52 द्वां (द्वि)पञ्चाशत् 75 पञ्चसप्तति 53 त्रयः(त्रिपञ्चाशत् 76 षट्सप्तति 54 चतुःपञ्चाशत् / 77 सप्तसप्तति 55 पञ्चपञ्चाशत् 78 अष्टा (अष्ट) सप्तति विशत्या त्रिंशता विशत्य, विशतये त्रिंशते विशत्याः, विंशतेः त्रिंशतः 76 नवसप्तति एकोनाशीति ऊनाशीति एकन्नाशीति 80 अशीति 81 एकाशीति 82 द्वयशीति 53 त्र्यशीति 84 चतुरशीति 85 पञ्चाशीति 86 षडशीति 87 सप्ताशीति 88 अष्टाशीति 86 नवाशीति एकोननवति ऊननवति एकाननवति नवति 61 एकनवति 12 द्वा(द्वि)नवति 63 त्रयो(त्रि)नवति 64 चतुर्नवति 65 पञ्चनयति 66 षण्णबति 67 सप्तनवति 18 अष्टा (अष्ट) नवति 66 नवनवति एकोनशत (नपुं०) 100 शत 200 द्विशत Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपरिचय ] 1: व्याकरण [117 द्वित्व 2. अदादि (शप् का लोप)x हन्+ति = हन्ति 3. जुहोत्यादि / दा+ति - ददाति 4. दिवादि य (श्यन्) गुणाभाव नुत् + य+ति = नृत्यति 5. स्वादि नु' (श्नु). चि+नु+ति = चिनोति 6. तुदादि अ (श) स्पृश् +अ+ति = स्पृशति 7. रुधादि न (पनम्) भु(न)ज् + ति= धुनक्ति 8. तनादि उ कृ+उ+ति = करोति 6. क्रमादि ना' (ना) गुणाभाव क्री+ना+ति - क्रीणाति 10. चुरादि अ (शप्] गुण चोरि +म+ति = चोरयति विकरण की दृष्टि से गण-विभाजन अकारान्त विकरणवाले बिना विकरणवाले अकारान्त-भिन्न विकरणवाले . दशम अध्याय धातु रूप' (Conjugation of Verbs ) (1) गण (Class)-संस्कृत में सभी धातुओं ( Roots) को 10 भागों में विभक्त किया गया है जिन्हें गण (समूह) के नाम से कहा जाता है। धातुरूपों में होने वाली प्रक्रिया की समानता के आधार पर धातुओं को गणों में विभक्त किया गया है। गणों का नामकरण उन गणों के प्रारम्भ में आई हुई प्रथम धातु के आधार पर किया गया है / जैसे-१. स्वादि (भु), 2. अदादि (अद्), 3. जुहोत्यादि (हु), 4. दिवादि (दि), 5. स्वादि (पुन्), 6. तुदादि (तुद्), 7. धादि ( रुधिर् ), 8. तवादि (तनु), 6. ऋयादि (दुकीञ्) और 10. चुरादि (चर)। प्रथम गण, द्वितीय गण आदि के रूप में भी इन गणों का क्रमशः व्यवहार होता है। (2) विकरण ( Peculiar Modification)-गण-भेद बतलाने वाले प्रत्ययों को विकरण कहते हैं। ये विकरण धातु और उसमें जुड़ने वाले 'ति' प्रत्ययों के मध्य में जुड़ते हैं / गणों में जुड़ने वाले विकरण इस प्रकार हैंगण-नाम विकरण कार्य (धातु पर प्रभाव) उदाहरण 1. वादि अ (शप्) .गुण भू + अ + ति = भवति 1. धातु-भू, कृ आदि क्रियावाचक शब्दों को धातु कहते हैं / इनसे "तिङ्' प्रत्यय होने पर 'भवति', 'फरोति' आदि क्रियायें (तिङन्त ) बनती हैं तथा 'कृ' प्रत्यय जुड़ने पर 'भावकाः', 'कारकः' आदि संज्ञायें (कृदन्त ) बनती हैं। कुछ वैयाकरणों का कहना है कि संज्ञा आदि समस्त शब्द-भण्डार धातुओं से प्रत्यय जुड़कर बना है। अतः इस दृष्टि से धातु शब्द का अर्थ है-'शब्द-योनि' (शब्दों की उत्पत्ति का मूल स्रोत)। धातुयें दो तरह की हैं--(१) मूल-धातुयें (Primitive Roots) और (2) सनाद्यन्त आदि मिश्र धातुयें ( Derivative Roots) / मूल धातुएँ करीब 2 हजार हैं। 2. गणों के नाम क्रमशः याद रखने के लिए निम्न पद्य स्मरणीय है भवाद्यदादिजुहोत्यादि-दिवादिस्वादयस्तथा / तुदादिश्च रुधादिश्च तनादिक्रयादिरेव च / चुरादिश्चेति घातूनां गणा दश समीरिताः / 3. ये विकरण केवल सार्वधातुक लकारों ( लट्, लोट्, लङ् और विधिलिङ्) में ही जुड़ते हैं। भ्वादि दिवादि तुदादि रुधादि चुरादि अदादि जुहोत्यादि स्वादि तनादि धादि (3) लकार ( Tenses and Moods)-विभिन्न कालों (Tenses) तथा भाज्ञा, निमन्त्रण आदि विविध अर्थ-विशेषों ( Moods ) को प्रकट करने के लिए संस्कृत में 10 लकारों का प्रयोग किया जाता है। जैसेलकार वर्तमान काल ( Present Tense) 2. लड़ अनद्यतन भूतकाल (Imperfect) 3. लिट परोक्ष भूतकाल ( Perfect) सामान्य भूतकाल (Aorist) कार्य 1. लट् 1. परस्मैपद में लट्, लोट्, लङ् के एकवचन में 'नो' होता है। 2. परस्मैपद में लट, लोट्, लड़के एकवचन में 'ओ' होता है। 3. 'ना' को भी कभी-कभी 'नी' अथवा 'न्' हो जाता है। 4. 'चर्' धातु से 'णिच् ( अम) प्रत्यय करने पर 'चोरि' धातु बनती है। चुरादि गणीय सभी धातुओं में ऐसा होता है। इसके बाद धातु से विकरंण होगा तथा 'भ्वादिगण' की तरह सज्जन्य प्रभाव होगी। 5. यह विभाजन रूपों की समता को दृष्टि में रखकर किया गया है। 6. ग्यारहवाँ 'लेट्' लकार ( Subjunctive Mood ) है। इसका प्रयोग वेद में मिलता है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातु परिचय ] 1 : व्याकरण [116 11] संस्कृत-प्रवेशिका [10 : धातुरूप [अनद्यतन भविष्यत्काल ( Periphrastic or Ist Future) 6. लुट् (सामान्य भविष्यत्काल (IInd Future) 7. लोट आज्ञा, आशीर्वाद आदि ( Imperative) 8. विधिलिङ् विधि, निमन्त्रण आदि (Optative or Potential) 6. आशीलिङ् आशीर्वाद ( Benedictive) (farfagfer Conditional) विशेष प्रारम्भ के 6 लकार 'काल' के और शेष 'अर्थविशेष' के बोधक हैं। 10. लङ् विकरण के प्रभाव की दृष्टि से लकारों का विभाजन सार्वधातुक (विकरण-युक्त) (Conjugational or Special) आर्धधातुक (विकरण-विहीन) (Non-Conjugational or General) लट् लोट् लङ् विधिलिङ् लुट् लुट् लिट् लुङ् आशीलिङ् लुछ विशेष-सार्वधातुक सकारों में कुछ धातुओं के मूल रूप एकदम बदल जाते हैं। जैसे---- गम् > गाछ / पा > पिब् / प्रा>जिन् / स्था> तिष्ठ दृश् > पश्य / सृ> धौ (धावति ) / सद् > सीद् (सीदति)। (4) तिस्प्रत्यय-धातुओं में जुड़ने वाले और लकारों के स्थान में होने वाले "तिङ्' प्रत्यय 18 हैं। ये परस्मैपद और भात्मनेपद के भेद से दो भागों में विभक्त हैं'परस्मैपद' के प्रत्यय 'आत्मनेपद' के प्रत्यय एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन तिप् तस् झि प्र० पु० त आताम्स सिप् यस् थ म० पु० यास् माथाम् ध्वम् मिप् वस् मस् उ० पु० इट् बहि महिङ् विशेष-धातुओं में जुड़ने वाले इन तिङ्' प्रत्ययों के आधार से धातुओं को तीन भागों में विभक्त किया जाता है'--१. परस्मैपदी धातुएँ (जैसे-भू, गम्, पठ् आदि। इनके रूप केवल परस्मैपद के होते हैं), 2. आत्मनेपदी धातुएँ (जैसे-वृध, लभ, सेव, व्रत आदि / इनके रूप केवल आत्मनेपद के होते हैं ) और 3. उभयपदी धातुएँ (जैसे-नी, दा, कथ् / इनके रूप दोनों पदों वाले होते हैं)। (5) लकारों में 'ति' प्रत्ययों के परिवर्तित रूप परस्मैपद लट् लकार गण ( 1, 4, 6,10) गण (2, 3, 5, 7, 8, 9) एक० द्वि० बहु अति अतः अन्ति प्र० पु० ति तः अन्ति (अति) 1. धातुओं के विभाजन के दो अन्य प्रकार-(१) सकर्मक धातएँ और अकर्मक धातुएँ। जिस धातु का फल तथा व्यापार अलग-अलग अधिकरण में रहे उसे सकर्मक ( कर्म-सहित) धातु कहते हैं और जिसका फल तथा व्यापार एक ही अधिकरण में रहे उसे अकर्मक (कर्म-रहित) धातु कहते हैं / 'फलव्यधिकरणवाचकत्वम् सकर्मकत्वम् / फलसमानाधिकरणब्यापारवाचकत्वम् अकर्मकत्वम् जैसे-रामः ग्रामं गच्छति / यहाँ गमनरूप व्यापार 'राम' में है और उसका फल 'प्राम-संयोग' (ग्राम) में है। परन्तु 'सीता हसति' में 'हसना' रूप व्यापार और उसका फल दोनों एक ही अधिकरण 'सीता' में हैं। अतः 'गच्छति' क्रिया 'सकर्मक' हुई और 'हसति', क्रिया 'अकर्मक' / लजाना, रहना, ठहरना, जागना, बढ़ना, घटना, डरना, जीना, मरना, सोना, खेलना, चाहना, और चमकना इन अर्थों वाली धातुयें अकर्मक होती हैं ( देखिए, पृ०७०, टि०१)। कभी-कभी अकर्मक धातुएँ भी सकर्मक हो जाती हैं और सकर्मक धातुयें भी अकर्मक हो जाती हैं। (2) सेट् , अनिट् और वेट-लुट्, लुटु, और लुङ् लकारों में धातु और प्रत्यय के मध्य में 'इ' (इ) के जुड़ने और न जुड़ने के आधार से धातुओं के ये तीन भेद हैं / सेट् (इट्-सहित / जैसे-गम् + + स्यति = गमिष्यति / भविष्यति, गमिता, भविता आदि ); अनिट् (इट्रहित / जैसे-दा+स्यति % दास्यति / जि+स्यति = जेष्यति) और वेट (वैकल्पिक इट् / जैसे—गुप् + स्यति = गोपायिष्यति, गोपिष्यति, गोप्स्यति)। 1. संस्कृत व्याकरण में 'परस्मैपद' का अर्थ है-'वह पद जो दूसरे के लिए हो' अर्थात् क्रिया का फल परगामी ( कर्ता से भिन्न के लिए) हो। जैसे—सः पचति = वह दूसरों के लिए पकाता है / 'आत्मनेपद' का अर्थ है-वह पद जो अपने लिए हो' अर्थात क्रिया का फल काम करने वाले कर्ता को ही प्राप्त हो (कर्तृगामी) / जैसे-सः पचते- वह अपने लिए पकाता है। परन्तु व्यवहार में ऐसा भेद दिखलाई नहीं पड़ता है। आजकल सुगमता की दृष्टि से प्रायः सर्वत्र परस्मैपदी धातुओं का ही प्रयोग अधिक प्रचलित है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] संस्कृत-प्रवेशिका [10 : धातुरूप ___असि अथः अथ म० पु० सि यः प आमि आवः आमः उ० पु० मि वः मः / ___ लल् लकार ( धातु के पहले 'अ' जुड़ेगा) / अतुअताम् अन् प्र०पु० त ताम् अन् अ .न्यतम् बत म०पु० तम् त आव आम० पु० अम्ब म लृट् लकार ('सेट्' में 'इ' जुड़ेगा) ()स्यति (ह) स्यतः (इ) स्यन्ति प्र० पु० (इ)स्यति (इ)स्यतः (क)स्यन्ति (5) स्यसि (इ) स्यथः () स्पथ म० पु० (इ)स्यसि (३)स्यथा (इ)स्यथ ()स्यामि (इ) स्थावः (इ) स्यामः उ० पु० (३)स्यामि (इ)स्यावः (4) स्यामः लोट् लकार अतु, अतात अताम् अन्तु प्र. पु० तु ताम् अन्तु भ, तात्. मतम् अत म पु० हि तम्त आनि आव आम उ०पू० आनि आव आम विधिलिङ् लकार एन . एताम् एषुः प्र० पु० यात् याताम् युः ए. एतम् एत म०पु० याः यातम् यात एयम् एव एम उ० पु० याम् याव याम आत्मनेपद लट् लकार अन्ते प्र० पु० ते आते अते - एथे अवै म.पु. से माथे वे ए बावहे भामहे उ० पु. ए वह महे ला लकार (धातु से पहले 'अ' जुड़ेगा) ____ अन्त प्र० पु० त आताम् अत अथाः एषाम् अध्वम् म०पु० थाः आयाम् ध्वम् आवहि आमहि उ०० इ वहि महि लट् लकार ('सेट्' में 'इ' जुड़ेगा) (इ)स्यते (१)स्येते (१)स्यन्ते प्र० पु. (इ)स्यते ()स्येते (३)स्यन्ते भ्वादि-भू, पठ् ] 1: व्याकरण [121 (इ)स्वसे (इ)स्येथे (इ) स्यध्वे म० पु० (इ)स्यसे (इ)स्येथे (इ)स्यध्वे (इ)स्ये (इ)स्यावहे (इ)स्यामहे उ० पु. (इ)स्ये (इ)स्यावहे (इ)स्यामहे लोट् लकार अताम् एताम् अन्ताम् प्र० पु ताम् आताम् अताम् एथाम् अध्वम् म० पु० स्व आथाम्ध्व म् ऐ आवहै आमहै उ०पु० ऐ मावहै आमहै विधिलिक लकार एत एताम् एरन् प्र पु० ईत ई याताम् ईरन् एथा:- एयाथाम् ध्वम् म०पु० ईथाः ईयाथाम् ईध्वम् एय एवहि / एमहि उ० पु० ईयर ईवहि- ईमहि (1) भ्वादि गण' भू' (होना) 50, अक०, सेट् लट् पठ्' (पढ़ना) 50, सक०, सेट् भवति भवतः भवन्ति प्र०पू० पठति पठतः पठन्ति भवसि भवथः भवथ म०पु० पठसि पठयः पठय . भवामि भवावः भवामः उ०पू० पठामि पठावः पठामः 1. इस गण में 1035 धातयें हैं जो आधे से भी अधिक हैं। इस गण की प्रमुख विशेषतायें है-(१) बातु और प्रत्यय के बीच में 'म' (शप) विकरण जुड़ता है। (2) धातु के अंतिम स्वर (इ, ई, उ, ऊ, ऋ, क) को तथा उपधा के स्वर को गुण (ए, ओ, अर् ) होता है / (3) 'ए' को 'अय्' और 'ओ' को 'अ' आदेश होता है। 2. 'भू' और 'पठ्' धातुओं के अवशिष्ट लकारों के रूप लिद बभूव बभूविथ बभूव बभूवतः बभूवथुः बभूविध . बभूवुः बभूव बभूविम प्र० पपाठ पेठतुः पेठुः म० रेठिय पेट्युः पेठ उ० पपाठ, पपठ पेठिव पेठिम लुरू प्र० अपाठीत् अपाठिष्टाम् अपाठिषुः म० अपाठीः अपाठियम् अपाठिष्ट उ० अपाठिषम् अपाठिष्व अपाठिष्म अभूत् अभूः अभूवम् अभूताम् अभूतम् अभूब अभूवन् अभूत अभूम Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 122] संस्कृत-प्रवेशिका [10 : धातुरूप भ्वादि-गम्, चल्] 1 : व्याकरण / [123 गम्' (जाना) प०, सक्०, अनिट् चल' (चलना, हिलना) प०, सक०, सेट ('गम्' को 'गच्छ' सार्वधातुक में) गच्छति गच्छतः गच्छन्ति प्र गच्छसि गच्छथः गच्छथ म गच्छामि गच्छावः गच्छामः उ चलति ललतः चलन्ति चलसि चलथः चलथ चलामि चलावः चलामः ला अभवत् अभवताम् / अभवन् प्र० पु० अपठत् अपठताम् अपठन अभवः अभवतम् अभवत म०पू० अपठः अपठतम् अपठत अभवत् अभवाव अभवाम उ० पु० अपठम् अपठाव अपठाम लुट् भविष्यति भविष्यतः भविष्यन्ति प्र० पू० पठिष्यति पठिष्यतः पठिष्यन्ति भविष्यसि भविष्यथः भविष्यथ म० ए० पठिष्यसि पठिष्यथः पठिष्यथ / भविष्यामि भविष्यावः भविष्यामः उ०म० पठिष्यामि पठिष्याकः पठिष्यामः लोट भवतु, भवतात् भवताम् भवन्तु प्र. पु० पठतु, पठतात् पठताम् पठन्तु भव, भवतात् भवतम् भवत म०पु० पठ, पठतात् पठतम् पठत भवानि भवाव भवाम उ० पु० पठानि विधि लिक भवेत् भवेताम् भवेयुः प्र० पु० पठेत् पठेताम् पठेयुः भवेः भवेतम् भवेत म०पु० पठेः पठेतम् पठेत भवेयम् भवेव भवेम उ०पू० पठेयम् पठेव पठेम अगाछत् अगछः अगच्छम् अगच्छताम् अगच्छतम् अगच्छाव अगच्छन् प्र. अगच्छत म० अगच्छाम उ० अचल अचल अचल अचलताम् अचलन् अचलतम् अचलत अचलाव गमिष्यति गमिष्यतः गमिष्यन्ति प्र० चलिष्यति चलिष्यतः चलिष्यन्ति गमिष्यसि गमिष्यथः गमिष्यथ म० चलिष्यसि चलिष्यथः चलिष्यय गमिष्यामि गमिष्याव: गमिष्यामः उ० चलिष्यामि चलिष्यावः चलिष्यामः लोट गच्छतु-तात् गच्छताम् गच्छन्तु प्र० चलतु-ता चलताम् चलन्तु वच्छ-सात् गच्छतम् गच्छत म गच्छत म०' ला चल-तात् चलतम् चलत गच्छानि गच्छाव गच्छाम उ० चलानि चलाब चलाम विधिलिक गच्छेत् गच्छेताम्। गच्छेयुः प्र चलेन् चलेताम् चलेयुः गच्छः गच्छेतम् गच्छेत म० चले चलेतम् चलेत गच्छेयम् गच्छेव गच्छेम उ० .चलेयम् चलेव चलेम भविता भवितारौ भवितारः प्र० पठिता पठितारौ पठितारः भवितासि भवितास्थः भवितास्थ म० पठितासि पठितास्थः पठितास्थ भवितास्मि भवितास्वः भवितास्मः उ० पठितास्मि पठितास्वः पठितास्मः आशीलिङ भूयात् भूयास्ताम् भूयासुः प्र० पठ्यात् पञ्चास्ताम् पञ्चासुः भूयाः भूयास्तम्भू यास्त म. पठचाः पठधास्तम् पठयास्त भूयासम् भूयास्व भूयास्म उ० पठ्यासम् पठ्यास्व पठचास्म 1. 'गम्' और चल धातुओं के शेष लकारों में प्र०. पु. के रूपजगाम जग्मतुः जग्मुः लिट् चचाल चेलतुः चेलु: अगमताम् अगमन् लछ अचालीत् अचालिष्टाम् अचालिषुः गन्ता गन्तारी गन्तारः लुट् चलिता चलितारी चलितारः नम्यात् गम्यास्ताम् गम्यासुः आ०लिक-चल्यात् चल्यास्ताम् चल्यामुः भगमिष्यत्- अगमिष्यताम् अगमिष्यन् लु अचलिष्यत् अचलिष्यताम अनियन अभविष्यत् अभविष्यताम् अभविष्यन् प्र० अपठिष्यत् अपठिष्यताम् अपठिष्यन् अभविष्यः अभविष्यतम् अभविष्यत म० अपठिष्यः अपठिष्यतम् अपठिष्यत अभविष्यम् भभविष्याव अभविष्याम उ० अपठिष्यम् अपठिष्याव अपठिष्याम / Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्वादि-श्रु, दृश्, स्था, वद्] 1. व्याकरण [125 स्था' (ठहरना) प०, अक०, अनिट् बद्' ( कहना) 50, सक०, सेट ('स्था' को 'तिष्ठ्' सार्वधातुक लकारों में ) . 124 ] 'संस्कृत-प्रवेशिका [10: धातुरूप श्रु' (सुनना) प०, सक०, अनिट् दृश्' (देखना) प०, सक०, अनिट ('श्रु' को 'शृ' और 'नु' विकरण ('दृश' को 'पश्य' सार्वधातुक लकारों में) सार्वधातुक लकारों में) लट् शृणोति शृणुतः शृण्वन्ति प्र० पश्यति पश्यतः पश्यन्ति शृणोषि शृणुथः शृणुष म० पश्यति पश्यपः पश्यच शृणोमि शृणुवः-ण्वः शृणुमः-मः 30 पश्यामि पश्यावः पश्यामः तिष्ठति तिष्ठसि तिष्ठामि तिष्ठतः तिष्ठन्ति प्र० तिष्ठथः तिष्ठय म० तिष्ठावः तिष्ठामः उ० वदति बदसि वदामि बदतः बदथः बदावः बदन्ति बदथ बदामः अशृणोत् अशृणोः अशृणवम् अशृणुताम् अमृण्वन् प्र० अशृणुतम् अश्रृणुत म० अशृणुव-गव अशृणुम-म उ० अपश्यत् अपश्यताम् अपश्यन् अपश्यः अपश्यतम् अपश्यत अपश्यम् अपश्याव अपश्याम शृणोतु-तात् शृणुताम् शृण्वन्तु शृणु-सान् शृणुतम् शृणुत शृणवानि शृणवाव शृणवाम प्र. पश्यतु-तात् पश्यताम् पश्यन्तु म० पश्य-सात् पश्यतम् पश्यत 0 पश्यानि पश्याव पश्याम अतिष्ठत् अतिष्ठताम् अतिष्ठन् प्र० अवदत् अवदताम् अवदन् अतिष्ठः अतिष्ठतम् अतिष्ठत म० अवदः अवदतम् अवदत अतिष्ठम् अतिष्ठाव अतिष्ठाम उ० अवदम् अवदाव। अवदाम लुट् स्थास्यति स्वास्थतः स्थास्यन्ति प्र० वदिष्यति वदिष्यतः वदिष्यन्ति स्थास्यसि स्थास्यवः स्थास्यथ म० वदिष्यसि वदिष्यथः वदिष्यथ स्थास्यामि स्थास्यावः स्थास्याम: उ० वदिष्यामि वदिष्यावः वदिष्यामः लोट् तिष्ठतु-तात् तिष्ठताम् तिष्ठन्तु प्र० वदतु, वदतात् बदताम् वदन्तु तिष्ठ-तात् तिष्ठतम् तिष्ठत म० वद, वदतात् वदतम् वदत तिष्ठानि तिष्ठावतिष्ठाम उ० बदानि वदाव वाम विधिलिङ तिष्ठेत् तिष्ठेताम् तिष्ठेयुः प्र० वदेत् वदेताम् वदेयुः तिष्ठः तिष्ठेतम् तिष्ठेत म० बदेः वदेतम् वदेत तिष्ठेयम् तिष्ठेव तिष्ठेम उ० बदेयम् वदेव वदेम गद् (स्पष्ट बोलना) प०, स०, सेट् 'पद्'>न (अस्फुट बोलना)प०, अ०, सेट शृणुयान् शृणुयाः शृणुयाम् शृणुयाताम् शृगुवातम् शृणुयाव शृणुयुः प्र० शृणुयात म० शृणुयाम उ० पश्येत् पश्येताम् पश्येः पश्येतम् पश्येवम् पश्येव पश्येयुः पश्येत पश्येम श्रोष्यति श्रोष्यतः धोष्यन्ति प्र० द्रक्ष्यति द्रक्ष्यतः द्रश्यन्ति श्रोष्यसि श्रोष्यवः श्रोष्यथ म. द्रक्ष्यसिद्रक्ष्यथः द्रश्यय. श्रोष्यामि थोच्यावः श्रोष्यामः उ० वक्ष्यामि व्यावः द्रक्ष्यामः 1. 'शु' और 'दृश' धातुओं के शेष लकारों में प्र० पु० के रूपशुश्राव शुश्रुवतुः शुश्रुवुः लिट् ददर्श ददृशतुः अधौषीत् अधीष्टाम् अश्रौषुः ला अद्राक्षीत् अद्राष्टाम् / अद्राक्षः) अदर्शत, अदर्शताम् / अदर्शन / थोता श्रोतारी थोतारः लुट् द्रष्टा अष्टारी द्रष्टारः धूयात् श्रूयास्ताम् धूयासुः आ०लिक दृश्यात् दृश्यास्ताम् दृश्यासुः अश्रोष्यत् अश्रोष्यताम् अश्रोष्यन् लुड अद्रक्ष्यत् भद्रक्ष्यताम् अद्रक्ष्यन् 1. 'स्था' और 'बद्' धातुओं के शेष लकारों में प्र० पु० के रूपतस्थौ तस्थतुः तस्थुः लिट् उबाद ऊदतुः दुः अस्थात् अस्थाताम् अस्युः लुङ अवादीत् भवादिष्टाम् अवादिषुः स्थाता स्थातारौ स्थातारः लुट बदिता बदितारौ बदितारः स्थेयात् स्थेयास्ताम् स्थेयासुः आ० लिक उद्यात् उद्यास्ताम् उद्यासुः अस्यास्यत् अस्थास्यताम् अस्थास्यन् लुक अवदिष्यत् अवविष्यताम् अवदिष्यन् 2. 'गद्' और 'जदु' धातुओं के घोष लकारों में प्र० पु० के रूप Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126] संस्कृत-प्रवेशिका [10 : धातुरूप भ्वादि -गद्, णद्, अन्, पा] 1: व्याकरण [127 लट प्र. गदति गदतः गदन्ति गदसि गदयः गदध गदानि गदावः गदामः नदति नदतः नवन्ति नदसि नदथः नदामिनदावः नदामः नदय अतति अतमि अतथः अतामि अतावः म० . अतय अतामः पिबति पिवतः पिबन्ति पिबसि पिबधः पिबथ पिबामि पिबावः पिबाम: उ ल आतन् आतः आतम् आतताम् आततम् आताव लङ् प्र० म० उ० अपिबत् अपिवः अपिबम् अपिबताम् अपिबन् अपिबतम् अपिबत अपिबाव अपिबाम आताम अगद अगदताम् अगदन् प्र० अनद अनवताम् अनदन् अगदः अगदतम् अगदत म० अनदः अनदतम् अनदत अगदम् अगदाव अगदाम उ० अनदम् अनदाव अनदाम लट् गविष्यति गदिष्यतः गदिष्यन्ति प्र. नदिष्यति नदिष्यतः भविष्यन्ति गदिधासि गदिष्यथः गदिष्यथ म नदिष्यसि नदिष्यथः नदिध्यय गदिष्यामि गदिध्यावः गदिष्यामः उ० नदिष्यामि नदिष्यावः नदिष्यामः लोटू गदतु-तान् गदताम् गदन्तु प्र. नवतु-तात् नदताम् नदन्तु गद-तान् गदतम् गदत म० नद-तात्न दतम् नदत गदानि गदाव गदाम उ०. नदानि नदाव नदाम विधिलिङ्ग गदेन् गदेताम् गदेयुः प्र. नदेन नदेताम् नदेयुः गदेः गदेतम् गदेत मानदेः नदेतम् नदेत गदेयम् गदेव गदेमउ नदेयम् नदेव नदेम अत् (हमेशा चलना) प०, स०, सेट् पा' (पीना) 50, स०, अनिट् ('पा' को . पिब्' सार्वधातुक लकारों में) अतिष्यति अतिप्यतः अतिष्यन्ति प्र० पास्यति पास्यतः पास्यन्ति अतिष्यसि अतिष्पथः अतिष्यथ म. पास्यति पास्यथः पास्यय अनिष्पामि अतिष्यावः अतिष्यामः उ० पास्यामि पास्यावः पास्यामः लोट अततु तान् अतताम् अतन्तु प्र. पिबतु-तात् पिवताम् पिबन्त अत-तात् अततम् अतत म०. पिब-तात् पिबतम् पिबत अतानि अताव अताम उ० पिबानि पिबाव पिबाम विधिलिस् अते अतेताम् . अतेयुः प्र. पिवेन् पिबेताम् पिबेयुः अते. अतेतम् अतेत म. पिबेः पिबेतम् पिबेत अतेयम् अलेव अतेम उ० पिबेयम् पिबेव पिबेम ए' (बढ़ना) मा०, अ०, सेट वृतु' (रहना) आ०, 10, सेट लट् एधते एघेते एधन्ते प्र. वर्तते वर्तते वर्तन्ते एघसे एधेथे एघडवे म. वर्तसे वतेथे वर्नध्दे एधे एधाबहे एघामहे उ वर्ते वर्तावहे वर्तामहे आत आततुः आतुः लिट् पपी पपतुः पपुः आतीन आतिष्टाम् आतिषुः लङ् अपात् अपाताम् अपुः अतिता अतितारौ अतितारः लट् पातापातारौ पातारः अत्यास अत्यास्ताम् अत्यासुः आ० लिङ् पेयान पेयास्ताम् पेयासः जातिष्पत् आतिप्यता आतिष्यन् लङ् अपास्यत् अपास्यताम् अपास्वम् 1. 'एध्' और 'वृद्' धातुओं के शेष लकारों के रूप-- जगाद जगदतुः जगदुः लिट् ननाद नेदतुः नेदुः अगादीन् अगादिष्टाम अगादिषुः लुङ्ग अनादीन् अनादिष्टाम् . अनादिपु.] अगदीन् अगदिष्टाम् अगदिषुः अनदीन् भनदिष्टाम् अनदिषुः) गदिता गदितारौ गदितारा लुट नदिता नदितारी नदितारः' गद्यान् गद्यास्ताम् गद्यासुः आ० लि नद्याम् नद्यास्ताम् नद्यासुः अगदिष्य अगदिष्यताम् अगदिष्यन् लङ् अनदिष्यन् अनदिष्यताम् अनविष्यन् 1. 'अत्' और 'पा' धातुओं के शेष लकारों में प्र० पु० के रूप Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 ] संस्कृत-प्रवेशिका [ 10 : धातुरूप बहुज लङ् ऐधत ऐधेताम् ऐधन्त प्र० अवर्तत अवर्तताम् अवतन्त ऐधयाः ऐधेथाम् ऐधध्वम् म० अवर्तथाः अवर्तथाम् अवर्तध्वम् ऐधे ऐषावहि ऐधामहि उ. अवर्ते अवविहि अवर्तीमहि लुट् (विकल्प से 'वत्स्यति' आदि प० रूप बनेंगे) एघिष्यते एघिष्येते एधिय्यन्ते प्र. वतिष्यते बतिष्येते यतिष्यन्से एधिष्यसे एधिष्येथे एधिष्यध्वे म. वतिष्यसे बतिध्येथे बतियध्वे एधिष्ये एधिप्यावहे एधिष्यामहे उ० वतिष्ये वतिष्यावहे बतिग्यामहे / लोट एघताम् एधेताम् एधन्ताम् प्र० बर्तताम् बर्तेताम् वर्तन्ताम् एघस्न एधेथाम् एधध्वम् म० वर्तस्व वलेंथाम् वर्तध्वम् एषावहै एधामहै उ० वर्ने वर्तावहै वर्तामहै विधिलिङ् एवेत. एधेयाताम् एधेरन् प्र. वर्तेत वतयाताम् वरिन् एधेथाः एधेयाथाम् एवम् म. वर्तथाः वर्तयाथाम् वर्तध्वम् / एधेय. एधेवहि एधेमहि उ० वय वर्तेवहि वर्तमहि भ्वादि-ए, वृतु, कमु] 1: व्याकरण [126 कमु' (इच्छा करना) आ०, स०, सेट लट कामयते कामयेते कामयन्ते प्र० अकामयत अकामयेताम् अकामयन्त कामयसे कामयेथे कामयध्वे म अकामयथाः अकामयेथाम् अकामयध्वम् कामये कामयाबहे कामयामहे उ० अकामये अकामयावहि अकामयामहि लृट् (विकल्प से) कामयिष्यते कायिष्येते कामयिष्यन्ते प्र० कमिष्यते कमिष्येते कमिष्यन्ते कामयिष्यसे कामयिष्येथे कामयिष्यध्वे म. कमिष्यसे कमिध्येथे कमिष्यध्वे कामयिष्ये कामयिष्यावहे कामयिष्यामहे उ० कमिष्ये कमिष्यावहे कमिष्यामहे . 444 लोट विधिलि कामयताम् कामयेताम् कामयन्ताम् प्र० कामयेत कामयेयाताम् कामयेरन् कामयस्व कामयेथाम् कामयध्वम् म० कामयेथाः कामयेयाथाम् कामयेध्वम् कामय कामयावहै कामयामहै उ० कामयेय कामयेवहि कामयेमहि A ('एधयामास' एधाम्बभूव आदि रूप भी होंगे) लिट् एघाचक्रे एधाञ्चक्राते एधान्चक्रिरे प्र० बवृत्ते बताते वतिरे एधाकृष एधानकाथे एधाञ्चकृढ्वे म० ववृतिषे यवृताथे यतिध्ये एधाश्चन एधाचकृबहे एधाचकृमहे उ० ववृते बवृतिवहे ववृतिमहे लुङ् (विकल्प से अवृतत्' आदि 50 रूप बनेंगे) ऐधिष्ट ऐधिषाताम् ऐधिषत प्र० अतिष्ट अवतिषाताम् अतिषत / ऐधिष्ठाः ऐधिषायाम् ऐधिवम् म० अतिष्ठाः अवतिषायाम् अवसिवम् / ऐधिपि ऐधिष्वहि ऐधिष्महि उ० अतिषि अवतिष्यहि अवसिष्महि / आशीर्लिङ् एधिषीष्ट एघिषीयास्ताम् एपिषीरन् प्र. वतिषीष्ट वर्तिषीयास्ताम् वतिषीरन् एविष्ठाः एधिषीयास्थाम् एघिषीध्वम् म० वतिषीष्ठाः बतिषीयास्थाम् वतिषीध्वम् एधिषीय एधिषीवहि एधिषीमहि उ० वतिषीय वतिषीवहि यतिषीमहि लुक (विकल्प से 'अवत्स्यत्' आदि प० रूप बनेंगे) ऐधिष्यत ऐधिष्येताम् ऐधिष्यन्त प्र. अवतिष्यत अवतिष्येताम् अवतिष्यन्त ऐधिव्यथाः ऐषिष्येथाम् ऐधिष्यध्वम् म० अवतिध्यथाः अवतिष्येषाम् अवतिष्यध्वम् ऐषिष्ये ऐधिष्यावहि ऐघिष्यामहि उ० अवतिष्ये अवतिष्यावहि अवतिष्यामहि 1. 'कमु' धातु के शेष लकारों में प्र० पु० के (दो-दो) रूपनिट् ---कामयाञ्चक्रे कामयाञ्चकाते कामयाञ्चक्रिरे। चकमे चकमाते चकमिरे। लुक -अचीकमत अचीकमेताम् अचीकमन्त / अचकमत अचकमेताम् अचकमन्त / लद-कामयिता कामयितारौ कामयितारः / कमिता कमितारौ कमिसार। भा०लिङ्ग-कामयिषीष्ट कामयिषीयास्ताम् वीरन् / कमिषीष्टषीयास्ताम् ०षीरन् / ME अकामयिष्यत् यिष्येताम् यिष्यन्त / अकमिष्यत अकमिष्येताम् अकमिष्यात। है / इ एधिता एधितारी एधितारः प्र० वर्तिता वतितारी वतितारः / / एधितासे एधितासाथे एधिताध्वे म. वतितासे बतितासाथे वर्तितावे | एधिताहे एधितास्वहे एधितास्महे उ० वर्तिताहे बतितास्वहे तितास्मो Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [10 : धातुरूप 130] संस्कृतप्रवेशिका नी' (ले जाना) उ०, सक०, अनिट् परस्मैपद नयति नयतः नयन्ति प्र. नयते नयसि नयथः नयथ म नयसे नयामि नयावः नवामः उ० नये आत्मनेपद नयेते नयन्ते नयेथे नयध्ये नयावहे नयामहे भ्वादि-नी, श्रि, यज् ! 1: व्याकरण [131 श्रि >श्रि (सेवा करना, सहारा लेना) उ०, सक०, सेट परस्मैपद ल आत्मनेपद श्रयति श्रयतः श्रयन्ति प्र० श्रयते श्रयेते श्रयसि श्रयथः श्रयथ म. श्रेयसे येथे श्रयध्वे श्रयामि श्रयावः श्रयामः श्रये श्रयावहे श्रयामहे ल अधयत् अश्रयताम् अनयन् अश्रयत अश्रयेताम् अश्रयन्त अश्रयः अश्रयतम् अश्रयत म० अश्रयथाः अश्रयेथाम् अश्रयध्वम् अश्रयाव अयाम उ० अश्रये अश्रयावहि अश्रयामहि प्र० अनयत् अनयताम् अनयन् अनयः 'अनमतम्' मनयत अनयम् अनयाव अनयाम प्र. म. उ० अनयत अनयेताम् अनयन्त अनयथाः अनयेथाम् अनयध्वम् अनये अनयावहि अनयामहि नेष्यति नेष्यतः नेष्यन्ति प्र० नेष्यते नेष्यसि नेष्यथः नेष्यथ म० नेष्यसे नेष्यामि नेष्यायः नेष्यामः उ० नेष्ये नेष्यन्ते नेष्यध्वे नेष्यामहे नेष्येथे नेष्यावहे 3 111 TT II UT IT 11 लोद नयन्तु नयन्तात् नयानि नयतम् नयाव प्र० नयताम् 'म० नयस्व उ० नये नयेताम् नयेथाम् नयावहै नयन्ताम् नयध्वम् नयामहे नयाम श्रयिष्यति श्रयिष्यतः श्रयिष्यन्ति प्र० श्रयिष्यते श्रयिष्येते श्रयिष्यन्ते श्रयिष्यसि श्रयिष्यथः श्रयिष्यथ म० श्रयिष्यसे श्रयिष्येथे श्रयिष्यध्वे श्रयिष्यामि श्रयिष्यावः धयिष्यामः उ० श्रयिष्ये अविष्यावहे श्रयिष्यामहे लोट श्रयतु-तात् श्रयताम् श्रयन्तु प्र० श्रयताम् श्रयेताम् अयन्ताम् श्रय-ता। श्रयतम् श्रयत म. श्रयस्व श्रयेथाम् श्रयध्वम् श्रयाणि श्रयाव श्रयाम उ० श्रयै भयावहै श्रयामहै विधिलिक श्रये येताम् धयेयुः प्र० श्रयेत श्रयेयाताम् भयेरन श्रयः श्रयेतम् श्रयेत म. धयेथाः धयेयाथाम् श्रयेध्वम् श्रयेयम् श्रयेव श्रयेभ उ० श्रयेय / श्रयेवहि श्रये महि 'यजन ( यज्ञ या पूजा करना ) उ०, सक०, अनिट् . परस्मैपद लट् आत्मनेपद यजति यजतः यजन्ति प्र० यजते , यजेते यजन्ते 1. 'शिव' धातु के शेष लकारों में प्र० पु० के दोनों पदों में रूपमिश्राय शिधियतुः शिधियुः लिट् शिश्रिये शिश्रियात शिथियिरे अशिथियत् अशिधियताम् अशिश्रियन् लुङ्ग अशिधियत अशिश्रियेताम् अशिश्रियन्त श्रयिता थयितारौ . श्रयितारः लुट् श्रयिता अयितारौ अयितारः श्रीयान् श्रीयास्ताम् श्रीवासुः आलिश्रयिषीष्ट श्रयिषीयास्ताम् अपिपीरन अयिष्यत् अश्रयिष्यताम् अधयिष्यन् लूल अथयिष्यत अश्रयिष्येताम् अश्रयिष्यन्त 2. 'यज्' धातु के शेष लकारों में प्र० पु० के दोनों पदों के रूपइयाज ईजतुः ईजुः लिट् ईजे ईजाते ईजिरे भयाक्षी अयाष्टाम् अयातुः लुछ अयष्ट अयक्षाताम् अयक्षत विधिलि. नयेत् नये मयेयम् नयेताम् नयेतम् नयेव नयेयुः नयेत नयेम प्र० नयेत म० नयेयाः उ० नयेय नयेताम् नयेरन् नयेयाथाम् नयेध्वम् नयेवहि नयेमहि 1. 'नी' धातु के शेष लकारों (दोनों पदों) में प्र. पु. के रूपनिनाय निन्यतुः निन्युः लिट् निन्ये निन्याते निभ्यिरे अनैषीत् अनेष्टाम् अनेषुः लुक. अनेष्ट अनेषाताम् अनेषत नेता नेतारौ नेतारः लुट् मेता नेतारौ नेतारा नीयात् नीयास्ताम् नीयासुः आ०लिक नेषीष्ट नेषीयास्ताम् नेषीरन् / अनेष्यत् अनेष्यताम् अनेष्यन् / लुरु अनेष्यत अनेष्येताम् अनेष्यन्त / Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] संस्कृत-प्रवेशिका यजयः यजथ म० यजसे यजावः यजामः उ० यजे [10: धातुरूप यजेये यजध्वे यजावहे यजामहे अदादि-अद्, विद् ] 1: व्याकरण [133 'अदु" (खाना) प०, सक०, अनिट् 'विद्' (जानना ) 10, सक०, सेट यजसि यजामि अत्ति अत्सि अनि अत्तः अदन्ति अत्थः अत्थ अदः अद्यः प्र० वेत्ति,वेद वित्तः,विदतुः विदन्ति,विदुः म० वेत्सि,वेत्थ वित्थः,विदथुः वित्थ,विद उ० देधि,वेद विद्वः, विद्व विद्यः,विद्य भादत् आदः आदम् आत्ताम् आदन,आदुः प्र० आत्तम् आत्त म० आह आन उ० अवेत् अवेः अवेदम् अवित्ताम् अविदुः,अथिदन अवित्तम् अवित्त अविद्व अविद्म वेदाम अयजत् अयजताम् अयजन् प्र० अयजत अयजेताम् अयजन्त अयजा अयजतम् अवजत म० अयजथाः अयजेथाम् अयजध्वम् अयजम् अयजाव अयजाम उ० अयजे अयजावहि अयजामहि लूटू यक्ष्यति यक्ष्यतः पक्ष्यन्ति प्र० यक्ष्यते यक्ष्यते यक्ष्यन्ते यक्ष्यसि यक्ष्यथः यक्ष्यथ म० यक्ष्यसे यक्ष्येथे यक्ष्यध्ये यक्ष्यामि यक्ष्यादा यक्ष्यामः उ० यक्ष्ये यश्यावहे यक्ष्यामहे लोटू यजतु-तात् यजताम् यजन्तु प्र० यजताम् यजेताम् यजन्ताम् यज-तात् यजतम् यजत म० यजस्व यजेथाम् यजध्वम् यजानि यजाव यजाम उ० बजे यजावहै यजामहै विधिलिए यजेत् यजेताम् यजयुः प्र० यजेत यजेयाताम् यजे रन् यजे. यजेतम् यजेत म. यजेथाः यजेयाथाम् यजेध्वम् यजेयम् यजेव यजेम उ० यजेय यजैवहिः यजेमहि (2) अदादिगण यष्टा यष्टारी यष्टारः लुटू यष्टा यथारी यष्टारः इज्यात् इज्यास्ताम् इज्यासुः आणलिङ् यक्षीष्ट यक्षीयास्ताम् यक्षीरन् अयक्ष्यत् अयक्ष्यताम् अयक्ष्यन् लुज अयक्ष्यत अयक्ष्येताम् अयक्ष्यन्त 1. इस गण में 72 धातुयें हैं। इसमें विकरण का लोप हो जाता है। अदादिगणीय कुछ धातुओं के लट् लकार के रूपदुह (प०) दोग्धि दुग्धः दुहन्ति रुद् (प०) रोदिति रुदितः रुदन्ति (दुहना) धोक्षि दुग्धः दुग्ध (रोना) रोदिषि रुदियः रुदिथ ___दोझि दुह्वः दुह्मः। रोदिमि रुदिवः रुदिमः (आ०) दुग्धे दुहाते दुहते स्वप्(प०) स्वपिति स्वपितः स्वपन्ति धुक्षे दुहाथे धुरध्वे (सोना) स्वपिषि स्वपिथः स्वपिथ दुहे दुह्वहे दुह्महे स्वपिमि स्वपिवः स्वपिमः स्ना(प०) स्नाति स्नातः स्नान्ति या (50) याति यातः यान्ति (स्नान करना) स्नासि स्नाथः स्नाथ (जाना) * यासि याथः याथ अत्स्यति अस्पतः अत्स्यन्ति प्र बेदिष्यति वेदिष्यतः वेदिष्यति अत्स्यमि अत्स्यथः अत्स्यथ म० वेदिष्यसि वेदिष्यथः वेदिष्यय अस्यामि अत्स्यावः अत्स्यामः उ० वेदिष्यामि वेदिध्यावः वैविध्यामः लोट् ('विदाकरोतु' आदि रूप भी बनते हैं) अत्तु,अत्तात् अत्ताम् अदन्तु प्र० वेत्तु वित्ताम् विदन्तु अद्धि,अत्तात् अत्तम् अत्त म० विद्धि वित्तम् वित्त अदानि अदाब अदाम उ० वेदानि वेदाव' विधिलिक अद्यात् अद्याताम् अधुः प्र० विद्यात् विद्याताम् विद्युड अद्या: अबातम् अथात म० विद्याः विद्यातम् विद्यात अद्याम् अद्याव अद्याम उ० विद्याम् विद्या विद्याम स्नामि स्नावः स्नामः यामि यावः यामः शासू (50) शास्ति शिष्टः शासति इण (प०) एति इतः यन्ति (शासन करना)शास्सि शिष्ठः शिष्ठ (जाना) एषि इथः इथ शास्मि शिवः शिष्मः एमि इवः इमः 1. 'अद्' और 'विद्' धातुओं के शेष लकारों में प्र० पु० के रूपमाद आदतुः आदुः लिट् विवेद विविदतुः विविदुः. (जपास जक्षतुः जनः) (विदाञ्चकार विदामचक्रतुः विदाध्यक) अधसन् अघसताम् अघसन् लुरू अवेदीत् अवेदिष्टाम् अबेदिषुः अत्ता अत्तारी अत्तारः लुट् वेदिता देवितारी वेदिताअचान अद्यास्ताम् अद्यासुः आलिक विद्यात् विद्यास्ताम् विद्यासुः भात्स्यत् आत्स्यताम् आत्स्यत् लुछ अवेदिष्यत् अवेदिष्यताम् भवेदिण्यन Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134] संस्कृत-प्रवेशिका [10 : धातुरूप शीशी ' (सोना) आ०, अ०, सेट् अधि + ई->' (पढ़ना) मा०, स०, अ. अदादि-शी, इ, ब, अस्, हन् ] 1: व्याकरण परस्मैपद ब्रवीति,माह ब्रूतः,आहतुः ब्रुवन्ति,माहुः प्र० ब्रूते। ब्रीषि,आस्थ ब्रूथः, आहथुः बूथ म० वर्षे ब्रवीमि ब्रूमः उ० ब्रुवे शेते शयाते शयाये शेवहे शेरते . अधीते अधीयाते शेष्वेम. अधीषे अधीयाथे शेमहे उ. अधीये अधीवहे शेषे आत्मनेपद ब्रुवाते ब्रुवाथे बहे अधीयते अधीध्वे अधीमहे ब्रुवते बूध्वे ब्रूमहे अशेत भशंषाः अशयि अशेयाताम् अशेरत प्र. अध्यत अध्ययाताम् अध्ययत अशेयाथाम् भशेध्वम् म. अध्यैषाः अध्येयाषाम् अध्यध्वम् अशेषहि अशेमहि उ. अध्ययि अध्यवहि मध्यमहि अजवीत् अग्रवी अब्रवम् अब्रूताम् अब्रूतम् 'अब्रूव अब्रुवन् अब्रूत - अधूम. प्र. अब्रूत अब्रुवाताम् अब्रुवत म० अब्रूयाः अबुवायाम् अब्रूध्वम् उ० अब्रुवि अब्रूवहि अनूमहि शयिष्यते शयिष्यसे शयिष्ये शयिष्यते शयिष्यन्ते प्र० अध्येष्यते अध्येष्येते अध्येष्यन्ते शयिष्येथे शयिष्यध्वे म अध्येष्यसे अध्येष्येचे अध्येष्यध्वे शयिष्यावहे शयिष्यामहे उ. अध्येष्ये अध्येष्यावहे अध्येष्यामहे वक्ष्यति वक्ष्यतः वक्ष्यन्ति प्र० बक्ष्यते वक्ष्येते वक्ष्यन्ते वक्ष्यसि बक्ष्यथः वक्ष्यथ म० वक्ष्यसे वक्ष्येथे वक्ष्यध्वे वक्ष्यामि वक्ष्यावः वक्ष्यामः उ० वक्ष्ये लक्ष्यावहे वक्ष्यामई लो ब्रवीतु-तात् ब्रूताम् ब्रुवन्तु प्र० ताम्बु वाताम् अवताम् ब्रूहि-तात् ब्रूतम् बूत म० ष्व ब्रुवाथाम् ध्वम् अवाणि ब्रवाब अवाम उ० अवै अवावहै बवामहे विधिलिए ब्रूयात् ब्रूयाताम् ब्रूयुः प्र. ब्रुवीत बृवीयाताम् बुवीरन् ब्रूया: ब्रूयातम् बूयात म० ब्रुवीथाः बुवीयायाम् ब्रुवीध्वम् ब्रूयाम् ब्रूयाव ब्रूयाम उ० ब्रुवीय ब्रुवीवहि ब्रुवीमहि अस्' (वर्तमान रहना) प०, अ०, अनिट् हन्' (वध करना; जाना) 50, स०, सेट शेताम् शयाताम् शेरताम् प० अधीताम् अधीयाताम् अधीयताम् / गोष्व , शयायाम् शेध्वम् म. अधीष्व अधीयाथाम् अधीध्वम् शय शयावहै. शयामहै उ० अध्पर्य अध्ययावहै अध्ययामहै विधिलिक शयीत शयीयाताम् शयीरन् प्र० अधीयीत अधीयीयाताम् अधीमीरन् शयीथाः शयीयाथाम् शयीध्वम् म० अधीयीथाः अघीयीयाथाम् अधीयीध्वम् शयीय शयीवहि शयीमहि उ० अधीयीय अधीयीवहि अधीयीमहि। > (कहना) उ०, सक०, अनिट् (आर्धधातुक लकारों में 'ब्र' को 'वच्' होगा) 1. 'शी' और 'अधि+ई' धातुओं के शेष लकारों में प्र० पु. के रूपशिश्ये शिष्याते शिपियरे लिट् अधिजगे अधिजगाते अधिजगिरे। अशयिष्ट अशयिषाताम् अशयिषत लुक अध्यगीष्ट अध्यगीषाताम् अध्यगीषत / (अध्यष्ट अध्यषाताम् अध्यषत) शयिता शयितारी शयितारः लुट् अध्येता अध्येतारी अध्येता। शयिषीष्ट शयिषीयास्ताम् शयिषीरन् आ०लिक अध्येषीष्ट अध्येषीयास्ताम् अध्येषीरता अशयिष्यत अशयिष्येताम् अशयिष्यन्त लुछ अध्यगीष्यत अध्यगीध्येताम् गीष्यन्त / / (अध्यष्यत अध्यष्येताम् अध्यष्यन्त 2. '' धातु के शेष लकारों के प्र० पु० में दोनों पदों के रूपउवाच .. अवतुः ऊचुः लिट् ऊचे ऊचाते चिरे / अवोचत अवोचताम् अयोचन् लुक् अवोचत अवोपेताम् अयोधात वक्ता अस्ति स्तः सन्ति प्र. हन्ति हतः ' घ्नन्ति असि अस्मि स्वः स्मः उ० हन्मि हन्वः हन्मः वक्तारी वक्तारः लुट् वक्ता वक्तारी वक्तारः उच्यास्ताम् उच्यासुः आलिवक्षीष्ट वक्षीयास्ताम् वक्षीरन अवक्ष्यत् अवध्यताम् अवक्ष्यन् लुङ अवक्ष्यत अवक्ष्येताम् अवक्ष्यन्त 1. 'अस्' धातु के शेष लकारों के रूप 'भू' के ही होंगे क्योंकि वहाँ 'अस्' को 'भू' हो जाता है। 2. 'हन्' धातु के शेष लकारों में प्र० पु के रूप :-लिट्-जघान जघ्नतुः जनुः / लु-अवधीत् अवधिष्टाम् अवधिषुः / लुट्-हन्ता हन्तारी हन्तारः / आ० लिङ्गवध्यात् वध्यास्ताम् वध्यासुः / लुर-अहनिष्यत् अहनिष्यताम् अहनिष्यन् / Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 ] संस्कृत-प्रवेशिका [10 : घातुरूप जुहोहु, भी, दा] १:ध्याकरण [137 आसीत् . आस्ताम् आसीः आस्तम् आसम् आस्व आसन् आस्त आस्म प्र० अहन् म० बहन् उ० अहनम् अहताम् अहतम् अहन्व अनन् अहत महन्म - भविष्यति भविष्यतः भविष्यन्ति प्र० हनिष्यति हनिष्यतः हनिष्यन्ति भविष्यसि भविष्यथः भविष्यथ म हनिष्यसि हनिष्यथः हनिष्यथ भविष्यामि भविष्यावः भविष्यामः उ० हनिष्यामि हनिष्यावः हनिष्यामः लोट अस्तु-स्तात् स्ताम् सन्तु प्र० हन्तु,हतात् हताम् घ्नन्तु एधि-स्तात् स्तम् स्त म . जहि,हतात् हतम् हत असानि असाव असाव असाम उ० हनानि हनाव हनाम विधिलिए स्यात् स्याताम् स्युः प्र० हन्यात् हन्याताम् हन्युः स्याः स्यातम् स्यात म० हत्याःहन्यातम् हन्यात स्याम् स्थाव स्याम उ० हन्याम् हन्याव हन्याम (3) जुहोत्यादि-गण' हु' (हवन करना) प०, स०, अनिट् भी (उरना) 50, अ०, अनिट् 1. इस गण में 24 धातुयें हैं। इस गण की प्रमुख विशेषतायें हैं-(१) लट लकार प्र० पु० के बहुवचन में 'अन्ति' के स्थान पर 'अति' होता है। (2) लङ् लकार प्र० पु. के बहुवचन में 'अन्' के स्थान पर 'उस्' होता है और तब यदि धातु के अन्त में 'आ' हो तो उसका लोप, यदि इ, उ, ऋ हो तो गुण होता है। इस गण की 'हा' और 'धा' धातुओं के लट् लकार के रूपहा (प०) जहाति जहितः जहति धा० (50) दधाति धत्तः दधति (त्यागना) जहीतः (धारण करना) दधासि धत्थः धत्थ जहासि जहिथः जहिथ दधामि दध्वः दध्मः जहीथः जहीय (आ०) धत्ते दधाते दधते जहामि जहिवः जहिमः घत्से दधाथे दध्वे जहीवः जहीमः दधे दध्वहे दध्महे 2.'' और 'भी' धातुओं के शेष लकारों में प्र. पु. के रूपजुहाव जुहवतुः जुहुवुः लिट् बिभाय बिभ्यतुः बिभ्युः (जुहवाञ्चकार चक्रतुः ०च:) (बिभयाञ्चकार चंक्रतुः चक्रुः) लट् (विकल्प से 'भि' को 'भी' होगा) जुहोति जुहतः जुबति प्र० बिभेति बिभितः,बिभीतः बिभ्यति जुहोषि जुहुयः जुहुथ म० बिभेषि,बिभिथः,बिभीथः बिभीथ,विभीथ जुहोमि जुहुवः जुहमः उ० बिभे मि बिभिवः, विभीवः बिभिमः,बिभीमः लङ् (लट् के समान 'भि' को 'भी' होगा) अजुहोत् अजुहुताम् अजुहवः प्र० अविभेत् अबिभिताम् अविभयुः अजुहोः अजुहुतम् अजुहुत म० अबिभेः . अबिभितम् अविभित अजुहवम् अजुहव अजुहम उ० अबिभयम् अबिभिव अविभिम लृद् (लट् के समान 'भि' को 'भी' होगा) होष्यति होष्यतः होष्यन्ति प्र० भेष्यति भेष्यतः भेष्यन्ति होष्यसि होघ्यथः होप्यथ म० भेष्यसि भेष्यथः भेष्यथ होष्यामि होण्यावः / होप्यामः उ० भेष्यामि भेप्यावः / भेष्यामः लोट (लट् के सामान 'भि' को 'भी' होगा) जुहोतु, जुहूतात् जुहुताम् जुह्वतु प्र. विभेतु,विभितात् बिभिताम् बिभ्यतु जधि, जुहूता जुहुतम् जुहुत म० बिभिहि, बिभिंतात् बिभितम् बिभित जुहवानि जुहवाव जुहवाम उ० बिभयानि विभयाव विभयाम विधिलिङ ('भि' को 'भी' होने से दो-दो रूप) जुहुयाताम् जुहुयुः प्र० विभियात् बिभियाताम् विभियुः जुहुयाः जुहुयात जुहुयात म. विभियाः बिभियातम् बिभियात जुहुयान् जुहुयाव जुहुयाम उ० बिभियाम बिभियाव बिभियाम दा' (देना) उ०, सक०, अनिट अहोषीत् अहौष्टाम् अहौषुः लुक अभैषीत् अभैष्टाम् अभैषुः होता होतारी होतारः लुट् भेता भतारी भेतारः यत् हूयास्ताम् हूयासुः आवलिङ्ग भीयात् भीयास्ताम् भीयासुः अहोग्य अहोप्यताम् अहोष्यन् लुङ् अभेष्य अभेष्यताम् अभेष्यन् 1. 'दा' धातु के शेष लकारों में प्र० पु० के दोनों पदों के रूपददौ ददतुः ददुः लिट् ददे ददाते ददिरे अदान् अदाताम् अदुः लुङ् अदित अदिषाताम् अदिषत दाता दातारी दातारः लुट् दाता दातारौ दातारः देयात् देवास्ताम् देयासुः आलिङ् दासीष्ट दासीयास्ताम् दासीरन् / अदास्यत् अदास्यताम् अदास्यन् लुङ् अदास्यत अदास्येताम् जदास्यन्त Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] दिवादि-दिव, जन्, नश, नृत् ] 1: व्याकरण [136 दिव' (जुआ खेलना, चमकना)प. जन्' (होना) आ०, अक०, सेट अर्यानुसार स० अ०, सेट् (सार्वधातुक में 'जन्' को 'जा' होता है ) संस्कृत प्रवेशिका [ 10 : धातुरूप परस्मैपद लट् आत्मनेपद ददति प्र० दत्ते ददाते ददते दत्यः दत्थ म. दत्से ददाये दद्ध्वे दद्वः दमः० दवेदबहे दद्महे ददाति ददासि ददामि दीव्यति दीव्यतः दीव्यन्ति प्र० जायते दीव्यसि दीव्यथः दीव्यय म० जायसे दीव्यामि दीव्यावः दीव्यामः उ० जाये जायेते जायन्ते जायेथे जायध्वे जायावहे जायामहे लक् अददा अदत्ताम् अददुः प्र० अदत्त अददाताम् अददत अददाः अदत्तम् अदत्त म० अदत्थाः अदवाथाम् अदध्वम् अददाम् अदव अदद्म उ० अददि अदहि __अदपहि लूटू दास्थति दास्यतः , दास्यन्ति प्र० दास्यते दास्येते दास्यन्ते दास्यसि दास्यथः दास्यथ म. दास्यसे दास्येथे दास्यध्वे दास्यामि दास्यावः दास्यामः उ० दास्ये दास्यावहे दास्यामहे अदीव्यत् अदीपताम् अदीव्यः अदीव्यतम् अदीयम् अदीव्याव अदीव्यत् प्र. अजायत अजायेताम् अजायन्त अदीव्यत म० अजायथाः अजायेथाम् अजायध्वम् अदीव्याम उ० अजाये अजायावहि अजायामहि ET UIT DI TT TT देविष्यति देविष्यतः देविष्यन्ति प्र. जनिष्यते जनिष्यते जनिष्यन्ते देविष्यसि देविष्यथः देविष्यथ म जनिष्यसे जनिष्येथे जनिष्यध्वे देविष्यामि देविष्याव: देविष्यामः उ० जनिध्ये जनिष्यावहे जनिष्यामहे लोट् लोटू ददातु-तात् दत्ताम् ददतु प्र० दत्ताम् ददाताम् ददताम् देहि-तात् दत्तम् म० दत्स्व ददाथाम् दध्वम् ददानि ददाव ददाम उ० ददै ददावहै ददामहै विधिलिङ् दद्यात् दद्याताम् दद्युः प्र० ददीत ददीयाताम् ददीरन् दद्याः दद्यातम् दद्यात म. ददीथाः ददीयाथाम् ददीध्वम् दद्याम् दद्याव दद्याम० ददीय ददीवहिददीमहि (4) दिवादि गण 1. इस गण में 140 धातुयें है। इस गण की प्रमुख विशेषतायें हैं (1) धातु और प्रत्यय के बीच में 'य' (श्यन्) बिकरण जुड़ता है / (2) धातु को गुण नहीं होता। (1) शेष म्वादिगण की तरह / इस गण की कुछ धातुओं के लट् लकार के रूपभ्रम् (50) भ्रमति भ्रमतः भ्रमन्ति युध (आ०) युध्यते युध्येते युध्यन्ते (घूमना) भ्रमसि भ्रमथः भ्रमथ (युद्ध करना) युध्यसे युध्येथे युध्यध्वे भ्रमामि भ्रमावः भ्रमामः युध्ये युध्यावहे युध्यामहे पोट-इसके 'भ्राम्यति' एवं भ्रम्यति रूप भी होंगे। पा० (आ०) पीयते पीयेते पीयन्ते विद् (आ०) विद्यते विद्येते विद्यन्ते (पीना) पीयसे पीयेथे पीयध्वे (वर्तमान होना) विद्यसे विद्येथे विद्यध्वे पीये पीयावहे पीयामहे विचे विद्यावहे विद्यामहे दीव्यतु-तात् दीव्यताम् दीव्यन्तु प्र० जायताम् जायेताम् जायन्ताम् दीव्य-तात् दीव्यतम् दीव्यत म जायस्व जायेषाम् जायध्वम् दीव्यानि दीव्याव दीव्याम उ. जाये जायावहै जायामहै विधिलङ्ग दीव्येन् दीव्येताम् दीव्येयुः प्र. जायेत जाययाताम् जायेरन् दीव्येः दीव्यतम् दीव्येत म जायेथाः जायेयाथाम् जायेध्वम् दीव्येयम् दीव्येव , दीव्यम उ० जायेय जायेवहि जायेमहि नश् (अदृष्ट या नष्ट होना) 50 बेट नृत् (नाचना) 50, अ०, सेट 1. 'दिव' और 'जन्' धातुओं के शेष लकारों में प्र० पु० के रूपदिदेव दिदिवतुः दिदिकुः लिट् जो जज्ञाते जज्ञिरे अदेवीत् अदेविस्टाम् अदेविषुः लुछ अजनि अजनिषाताम् अजनिषत देविता देवितारौ देवितारः लुट् जनिता जनितारौ जनितारः दीव्यात् दीव्यास्ताम् दीव्यासुः आलिङ्ग जनिषीष्ट जनिषीयास्ताम् जनिषीरन् अदेबिष्यम् अदेविष्यताम् अदेविष्यन् लुक अजनिष्यन् अजनिष्येताम् अजनिष्यन्त 2. 'नश' और 'नृत्' धातुओं के शेष लकारों में प्र० पु० के रूपननाश नेशः नेशुः लिट् ननर्त्त ननृततुः ननृतुः अनशत् अनशताम् अनशन् लुक पनीत् अनतिष्टाम् अनतिषः Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [141 स्वादि-सु, चिञ्] 1: व्याकरण परस्मैपद लट् आत्मनेपद सुनोति सुनुतः सुन्वन्ति प्र० सुनुते सुन्बाते सुनोषि , सुनुथः सुनुथ म. सुनुषे / सुन्वाथे सुनोमि सुनुवा-वः सुनुमःमः उ० सुम्बे सुनुवहेन्वहे सुन्वते सनुध्ने सुनुमहे महे 140] संस्कृत-प्रवेशिका [10 : धातुरूप लट् नश्यति नश्यतः नश्यन्ति प्र० नृत्यति नृत्यत. नृत्यन्ति नश्यसि नश्यथः नश्यथ म. नृत्यसि नृत्यथः नृत्यथ नश्यामि नश्यावः नश्यामः उ० नृत्यामि नृत्यावः नृत्यामः ल अनस्यन् अनश्यताम् अनश्यन् प्र. अनृत्य अनृत्यताम् अनृत्यन् अनश्यः अनश्यतम् अनश्यत म० अनृत्यः अनृत्यतम् अनूत्यत अनश्यम् अनश्याव अनश्याम उ० अनृत्यम् अनृत्यावअनृत्याम (विकल्प से नक्ष्यति' आदि रूप होंगे) लुट् (विकल्प से 'नरस्य॑ति' आदि रूप बनेंगे) नशिघ्यति नशिष्यतः नशिध्यन्ति प्र० नतिष्यति नतिष्यतः नतिष्यन्ति नशिष्यसि नशिप्यथः नशिष्यथ म० नतिप्यसि नतिष्यथः नतिष्यय नशिष्यामि मशिष्यावः नशिष्यामः उ० नतिष्यामि नतिष्यावः नतिष्यामः लोटू नश्यतु-तात् नश्यताम् नश्यन्तु प्र० नृत्यतु-तात् नृत्यताम् नृत्यन्तु नश्य-तान् नश्यतम् नश्यत म० नृत्य-तात् नृत्यतम् नृत्यत' नश्यानि नश्याव नश्याम उ० नृत्यानि नृत्याव नृत्याम विधिलिङ नश्येत् नश्यताम् नश्येयुः प्र० नत्येन नृत्येताम् नृत्येयुः नश्ये: नश्येतम् नश्येत म० नृत्येः नृत्येतम् नृत्येत नश्येयम् नश्येव नश्येम उ० नृत्येयम् नृत्येव नृत्येम (५)स्वादिगण पु>सु (रस निकालना, नहाना) उ०, संक० ( नहाना अर्थ में अक०), अनिट् नशिता,नंष्टा नशितारी नशितारः लुट नतिता नतितारौ नतितारः नश्यान् नश्यास्ताम् नश्यासुः आ० लिछनृत्यात् नृत्यास्ताम् नृत्यासुः अनशिष्यत् अनशिध्यताम् अनशियन् लुङ अनतिष्यत् अनतिप्यताम् अनतिष्यन् 1. इस गण में 35 धातुयें हैं। इस गण की प्रमुख विशेषतायें हैं-(१) धातु और प्रत्यय के बीच में 'नु' (नु) जुड़ता है / (2) धातु को गुण नहीं होता है / (३)'नु' को विकल्प से 'न' हो जाता है यदि बाद में 'व' या 'म्' हो और पहले कोई स्वर वर्ण / (4) 'नु' को कहीं-कहीं गुण हो जाता है / 2. 'पुञ्' धातु के शेष लकारों में प्र० पु० के दोनों पदों के रूपसुषाव सुषुवतुः सुषुवः लिट् सुषुवे सुषुवाते सुषुविरे असावीत् असाविष्टाम् असाविषुः लुङ् असोष्ट असोषाताम् असोषत असुनोत असुनुताम् असुन्वन् प्र० असुनुत असुन्धाताम् असुन्वत असुनोः असनुतम् असुनुत म० असुनुवाः असुन्वाथाम् असुनुध्वम् / असुनवम् असुनुवम्ब असनुम-न्म उ० असुन्वि असुन(नु)वहि असुर(नु) महि लूटू सोष्यति सोष्यतः सोध्यन्ति प्र० सोष्यते सोध्येते सोध्यन्ते सोष्यसि सोष्यथः सोष्यथ म. सोष्यसे सोयेथे सोष्यध्वे सोष्यामि सोष्याव: सोष्यामः उ० सोध्ये सोप्यावहे सोप्यामहे लोद सुनोतु-तात् सुनुताम् सुन्वन्तु प्र० सुनुताम् सुन्वाताम् सुन्वताम् सुनु-तात् सुनुतम् सुनुतम सुनुष्य सुन्वाथाम् / सुनुध्वम् सुनवानि सुनवाब सुनवाम उ० सुनवं सुनवावहै सुनवाम है विधिलिङ सुनुयात् सुनुयाताम् सुनुयुः प्र० सुन्वीत सुन्वीयाताम् सुन्बीरन् सुनुयाः सुनुयातम् सुनुयात म. सुन्धीथाः सुन्वीयाथाम् सुन्वीध्वम् सुनुयाम् सुनुयाब सुनुयाम उ० सुन्वीय सुन्यीवहि सुम्बीमहि चिम्' (चुनना) उ०, सक०, अनिट् परस्मैपद लट् आत्मनेपद चिनोति चिनुतः चिन्वन्ति प्र. चिनुते चिन्वाते चिन्वते सोता सोतारो सोतारः लुट सोता सोतारी सोतारः सूयात सूयास्ताम् सूयासुः आलिङ सोषीष्ट सोषीयास्ताम् सोपीरन् असोष्यत् असोस्यताम् असोष्यन् लुङ असोध्यत असोध्येताम् असोप्यन्त 1. 'चिच्' धातु के शेष लकारों में प्र० पु० के दोनों पदों के रूपचिकाय (चिचाय) चिक्यतुः चिक्युः लिट् चिक्ये (चिच्ये) चिक्याते चिक्षिरे मचैषीत् अचेष्टाम् अचेषुः लु अचेष्ट अचेषाताम् अचेषत ता चेतारौ चेतारः लुट् चेता चेतारौ चेतारः चीयास्ताम् चीयासुः आ०लिङ चेषीष्ट चेषीयास्ताम् चेषीरन् अभेष्यत् ___ अचेष्यताम्.' अचेष्यन् ला अभेष्यत अचेष्येताम् अचेष्यन्त पीयात् Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वादि-आप्, शक् तुदादि-तुद् ] 1: व्याकरण संस्कृत-प्रवेशिका [10 : घातुरूप चिनोषि चिनुथः चिनुष म० चिनुषे चिन्वाथे चिनुध्वे चिनोमि चिनुवः वः चिनुमःमः उ० चिन्वे चिनुबहे-न्बहे चिनुमहे-महे अचिनोत् अचिनुताम् अचिन्वन् प्र० अचिनुत अचिन्वाताम् अचिन्वत अचिनो अचिनुतम् अचिनुत म० अचिनुथाः अचिन्वाथाम् अचिनुध्वम् अचिनवम् अचिनुवस्व अचिनुम-म उ० अचिन्धि अचिन(नु) वहि अचि(नु)महि चेष्यति चेष्यतः चेष्यन्ति प्र० चेष्यते चेष्यति बेष्यथः चेष्यथ मचेष्यसे चेष्यामि चेष्यावः चेष्यामः उ० चेये चेष्येते ध्येथे चेष्यावहे चेष्यन्ते चेष्यध्वे पेयामहे लोट चिनोतु-तात चिनुताम् चिन्यन्तु प्र. चिनुताम् चिन्वाताम् चिन्वताम् चिनु-तात् चिनुतम चिनुत म. चिनुष्व चिम्बाथाम् चिनुध्वम् चिनवानि चिनवाव चिनवाम उ० चिन चिनवावहै चिनधाम है विधिलिक चिनुयात् चिनुयाताम् चिनुयुः प्र. चिन्वीत चिन्बीयाताम् चिन्वीरन् चिनुयाः चिनुयातम् चिनुयात म चिन्थीथाः चिन्वीयाथाम चिन्वीध्वम् चिनुयाम् चिनुयाव चिनुयाम उ० चिन्वीय चिन्वीवहि चिन्धीमहि आपू' (प्राप्त करना)प०, सक०, अनिट् शक्' ( सकना) प०, सक०, अनिट 4 लट् आप्नोति आप्नुतः आप्नुवन्ति प्र० शक्नोति शक्नुतः शक्नुवन्ति आप्नोषि आप्नुथः आप्नुथ म० शक्नोषि शक्नुथः शक्नुथ आप्नोमि आप्नुवः आप्नुमः . शक्नोमि शक्नुवः शक्नुमः लूट् आप्स्यति आप्स्यतः आप्स्यन्ति प्र० शक्ष्यति शक्ष्यतः शक्ष्यन्ति आप्स्यसि बाप्स्यथः आप्स्यय म० शक्ष्यसि शक्ष्यथः शक्ष्यथ आप्स्यामि आप्स्यावः आप्स्यामः उ० शक्ष्यामि शक्ष्यावः शक्ष्यामः लोट आप्नोतु-तात् आप्नुताम् आप्नुवन्तु प्र. शक्नोतु-तात् शक्नुताम् शक्नुवन्तु आप्नुहि-तान् आप्नुतम् आप्नुत म. शक्नुहि तात् शक्नुतम् शक्नुत आप्नवानि आप्नवाव आप्नवाम उ० शक्नवानि शक्नवाब शक्नधाम विधिलिङ् आप्नुयात् आप्नुयाताम् आप्नुयुः प्र० शक्नुयात् शक्नुयाताम् शक्न्यू: आप्नुयाः आप्नुयातम् आप्नुयात म० शक्नुयाः शक्नुयातम् शक्नुयात आप्नुयाम् माप्नुयाव आप्नुयाम उ० शक्नुयाम् शक्नुयाव शक्नुयाम (6) तुदादि गण' तुद् (दुःख देना) उ०, अक०, अनिट् / 1. इस गण में 157 धातुयें हैं। इस गण की प्रमुख विशेषतायें है-(१) धातु और प्रत्यय के बीच में 'अ'(श) जुड़ता है / (2) भ्वादि की तरह धातु की उपधा के और अन्त के स्वर को गुण नहीं होता है। (3) धातु के अन्तिम इ, ईको 'इय'; उ, क को 'उ', ऋ को 'रिय' और ऋ को 'इर्' हो जाता है। इस गण की कुछ धातुओं के लट् लकार के रूपगुच् (प०) मुञ्चति मुञ्चतः मुन्वन्ति क्षिप् (50) क्षिपति क्षिपतः क्षिपन्ति (छोड़ना) मुञ्चसि मुञ्चथः मुञ्चय (फैकना) (आ.) क्षिपते क्षिपेते क्षिपन्ते मुशामि मुश्चावः मुञ्चामः मिल (50) मिलति मिलतः मिलन्ति (मा०) मुञ्चते मुञ्चेते मुञ्चन्ते (मिलना)(मा०) मिलते मिलेते मिलन्ते मुञ्चसे मुयेथे मुखध्ये लिप (प.) लिम्पति लिम्पतः लिम्पन्ति मुञ्चे मुश्चावहें मुञ्चामहे (लीपना) (आ०) लिम्पते लिम्पेते लिम्पन्ते 2. 'तुद्' धातु के शेष लकारों में प्र० पु० के दोनों पदों के रूप-. तुतोष तुतुदतुः . तुतुदुः लिट् तुतुदे तुतुबाते तुतु दिरे मतौत्सी अतीत्ताम् अतीत्सुः लुङ- अतुत्त अतुत्साताम् अतुत्मत तोता लोत्तारी तोतारः लुट् तोता तोतारी तोत्तारः तुगात तुद्यास्ताम् तुद्यासुः आ०लिए तुत्सीष्ट तुत्सीयास्ता तुल्सीरन् भनोत्स्यत् अतोत्स्यताम अतोत्स्यन् ल अतोत्स्यत अतोत्स्येताम् अतोत्स्यन्त बाप्नोत् आप्नुताम् आप्नुवन् प्र० अशक्नोत् अशक्नुताम् अशक्नुवन् आप्नोः आप्नुतम् आप्नुत म० अशक्नोः अशक्नुतम् अशक्नुतं आप्नवम् आप्नुव आप्नुम उ० अशक्मवम् अशक्नुव अशक्नुम 1. 'आप' तथा 'शक्' धातुओं के शेष लकारों में प्र० पु. के रूप---- आप आपतुः आपुः लिट् शशाक शेकतुः . शेका आपत् आपाम् आपन् लुछ अशकत् अशकताम् अशकन् आप्ता आप्तारी आप्तारः लुटू शक्ता शक्तारी शक्कारः आप्यात् आप्यास्ताम् आप्यासुः आलिक शक्यात् शक्यास्ताम् शक्यासु आप्स्यत् आप्स्यताम् आप्स्यन् ल अशष्यत् अशक्ष्यताम् अशष्यन् Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुदादि-सुद्, षिच्, लिब, इष्] 1. व्याकरण असिञ्चत् असिञ्चताम असिञ्चन् प्र. असिञ्चत असिञ्चेताम् असिञ्चन्त असिवः असिञ्चतम् असिञ्चत म. असिञ्चयाः असिम्वेषाम् असिञ्चध्वम् असिचम् असिचाव असिञ्चाम उ० असिञ्चे असिचावहि असिचामहि सेक्ष्यति सेक्ष्यतः सेक्ष्यन्ति प्र० सेक्ष्यते सेक्ष्येते सेक्ष्यन्ते सेक्ष्यसि सेक्ष्यथः सेक्ष्यथ म० सेक्ष्यसे सेक्ष्येथे सेक्ष्यध्वे सेक्ष्यामि सेक्ष्यावः सेक्ष्यामः उ० सेक्ष्ये सेक्ष्यावहे सेक्यामहे लोद् सिञ्चतु-तात् सिञ्चताम् सिञ्चन्तु प्र. सिञ्चताम् सिञ्चेताम् सिञ्चन्ताम् सिञ्च-सान् सिञ्चतम् सिञ्चत म० सिस्चस्व सिञ्चेथाम् सिञ्चध्वम् सिन्चानि सिञ्चाव सिञ्चाम उ० सिञ्च सिचावहै. सिञ्चामहै संस्कृत-प्रवेशिका [10 : धातुरूप __ परस्मैपद लट् आत्मनेपद तुदति तुबतः तुदन्ति प्र० तुदते तुदेते तुदन्ते तुदसि तुदयः / तुदथ म० नुदसे तुदेथे तुदध्वे तुदामि तुदावः तुदामः उ० तुदे तुदावहे तुदामहे लकू अतुदत् अतुदताम् अतुदन् प्र० अतुदत अतुदेताम् अतुदन्त अतुद अतुदतम् अतुदत म० अतुदथाः अतु देथाम् अतुदध्वम् अतुवम् अतुदाव अतुदाम उ. अतुदे अतुदावहि अतुदामहि लट तोत्स्यति तोत्स्यतः तोत्स्यन्ति प्र० तोल्स्यते तोत्स्येते तोत्स्यन्त तोत्स्यसि तोत्स्यथः तोत्स्यथ म० तोत्स्यसे तोत्स्येथे तोत्स्यध्वं तोपामि तोत्स्यावः तोल्यामः उ० तोत्स्य तोत्स्यावहे तोरस्यामहे लोट् तुदतु-तान् तुदताम् तुदन्तु प्र. तुदताम् तुदेताम् तुदन्ताम् तुद-तात् तुदतम् तुदतम. तुदस्व तुदेथाम् तदध्वम् तुदानि तुदाव तुदाम उ० तु तुदावहै तुदामहै विधिलिक तुदे तुदेताम् तुदेयुः प्र० तुदेत तुदेयाताम् तुदेरन् तुदेः तुदेतम् तुदेत म. तुदेयाः तुदेयाथाम् तुदेध्वम् तुदेयम् तुदेव तुम उ० तुदेय तुदेवहि तुमहि पिच्>सि (सींचना) उ०, सक०, अनिट् परस्मैपद लट् आत्मनेपद सिम्पति सिञ्चतः सिञ्चन्ति प्र० सिञ्चते सिञ्चेते सिञ्चन्ते सिञ्चसि सिञ्चयः सिथ म. सिञ्चसे सिञ्चेथे सिञ्चध्ये सिञ्चामि सिञ्चावः सिञ्चामः उ० सिञ्चे सिञ्चाबहे सिञ्चामहे 1. 'पिच्' धातु के शेष लकारों में प्र० पु० के दोनों पदों के रूप-- सिषेच सिषिचतः सिषिचुः लिद सिषिचे सिविचाते सिरिचिरे असिवन् असिचताम् असिचन् लुङ असिवत(असिक्त) असिचेताम् असिचन्त सेक्ता सेक्तारी सेक्तारः लट् सेक्ता सेक्तारी सेक्तार सियात् सिच्यास्ताम् सिच्यासुः आलिक सिक्षीष्ट सिक्षीयास्ताम् सिक्षीरम् असेक्यत् असेक्ष्यताम् असेक्ष्यन् ला असेक्ष्यत असेक्ष्येताम् असेक्ष्यन्त सिञ्चेत् सिताम् सिञ्च युः प्र. सिञ्चेत सिञ्चेयाताम् सिञ्चरन् सिम्पः सिञ्चतम् सिञ्चेत मा सिञ्चेथाः सिम्येयाथाम् सिञ्चध्वम् सिध्वयम् सिञ्चेव सिञ्चेम उ० सिञ्चेय सिञ्चेवहि सिञ्चेमहि लिख (लिखना ) प०, सक०, सेट् इष' (इच्छा करना) प०, अक०, सेट . लट् लिखति लिखतः लिखन्ति प्र० इच्छति इच्छतः इच्छन्ति लिखसि लिखथः लिखथ म इच्छसि इच्छथः इच्छथ लिखामि लिखावः लिखामः' उ० इच्छामि इच्छावः इच्छामः अलिखत् अलिखताम् अलिखन् प्र. ऐग्छन् ऐच्छताम् ऐच्छन् अलिखः अलिखतम् अलिखत म० ऐच्छः ऐच्छतम् ऐच्छत अलिखम् अलिखाव अलिखाम उ० ऐच्छम ऐच्छाव ऐच्छाम 1. 'लिख्' और 'इप्' धातुओं के शेष लकारों में प्र. पु० के रूपलिलेख लिलिखनुः' 'लिलिखुः लिट् इयेष ईषतुः ईषुः / अलेखीत् अलेखिष्टाम् अलेखिषुः लुछ ऐषीत् ऐषिष्टाम् ऐषिषुः / / लेखिता लेखितारी लेखितारः लुट् एषिता,एष्टा एषितारौ,एष्टारी एपितारः,एष्टारः लिख्यात् लिख्यास्ताम् लिख्यासुः आ० लिछ, इष्यात् इष्यास्ताम् ध्यासुः अलेबिष्यन अलेखिध्यताम् अलेखिष्यन् ल ऐषिष्यत् ऐषिप्यताम् ऐषिष्यन् Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146] संस्कृत-प्रवेशिका [१०:धातुरूप तुदादि-मृङ्, पृच्छ; रुधादि-रुधिर्] 1 : व्याकरण [147 लुट् लेखिध्यति लेखिष्यतः लेखिष्यन्ति प्र० एषिष्यति एषिष्यतः एषिष्यन्ति लेखिष्यसि लेखिष्यथः लेबिष्यथ म० एषिष्यसि एषिष्यथः एषिष्यथ लेखिष्यामि लेखिष्यावः लेखिष्यामः उ० एषिष्यामि एषिष्याव: एषिष्यामः लोट लिखतु लिखताम् लिखन्तु प्र० इच्छतु इच्छताम् इच्छन्तु लिख लिखतम् लिखत म० इच्छ इच्छतम् इच्छ्त लिखानि लिखाव लिखाम उ० इच्छानिइच्छाव इच्छाम विधिलिङ लिखे न लिखेताम् लिखेयुः प्र० इच्छेत् इच्छेताम् इच्छेयुः लिखे लिखेतम् लिखेत म० इच्छे: इच्छेतम् इच्छेत लिखेयम् लिखेव लिखेम उ. इच्छेयम् इच्छेव इच्छेम मृछ' (मरना) आ०, अक०, अनिट् प्रच्छ्' (पूछना) प०, सक०, अनिट् (लूट, लिट्, लुट् और लुङ् में परस्मैपद) (सार्वधातुक में प्रच्छ' को 'पृच्छ' ) मरिष्यसि मरिष्यथः मरिष्यथ म० प्रक्ष्यसि प्रत्ययः / प्रक्ष्यथ मरिष्यामि मरिष्यावः मरिष्यामः उ० प्रक्ष्यामि प्रक्ष्यावः प्रक्ष्यामः लोट म्रियेत म्रियेताम् म्रियेरन् प्र० पृच्छतु पृच्छताम् पृच्छन्तु नियेथाः नियेयाथाम् म्रियेध्वम् म. पृच्छ पृच्छतम् पृच्छत नियेय नियेवहि म्रियेमहि उ० पृच्छानि पृच्छाव पृच्छाम विधिलिङ् नियताम् म्रियेताम् नियन्ताम् प्र० पृच्छेत् पुच्छेताम् पृच्छेपुः नियस्व म्रियेथाम् म्रियध्वम् म० पृच्छेः पृच्छेतम् पृच्छेत निय म्रियावहै म्रियामहै उ० पृच्छेयम् पृच्छेव पृच्छेम (7) रुधादि गण' रुधिर>रुध् (रोकना) उ०, द्विकर्मक, अनिट परस्मैपद लट् आत्मनेपद रुणद्धि रुन्द्धः रुन्धन्ति प्र० रुन्द्ध रुन्धाते रुन्धते रुणसि रुन्द्धः रुद्ध म० रुन्त्से रुन्धाथे रुम्वे रुणधिम रुन्हमा उ० रुन्धे रन्ध्वहे रुन्ध्महे म्रियते नियेते नियन्ते प्र० पृच्छति नियसे म्रियेथे नियध्वे म. पृच्छसि निये नियावहे म्रियामहे उ० पृच्छामि पृच्छतः पृच्छन्ति पृच्छथः पृच्छथ पृच्छावः पृच्छामः लक अरुणत्-द् अरुणः अरुणधम् अरुन्ताम् अरुन्द्धम् अरुधन् प्र० अरूद्ध अरुन्धाताम् अरुन्धत अरुन्द्ध म० अरुन्दाः अरुन्धाथाम् / अरुन्द्धनम् अरुन्ध्म उ० अरुन्धि अरुन्ध्वहि अरुन्धमहि अम्रियत अनियेताम् अम्रियन्त प्र० अपृच्छत् अपृच्छताम् अपृच्छन् अम्रियथाः अनियेथाम् अम्रियध्वम् म० अपृच्छः अपृच्छतम् अपृच्छत अम्रिये अम्रियावहि अम्रियामहि उ० अपृच्छम् अपृच्छाव अपृच्छाम रोत्स्यति रोल्स्यतः रोत्स्यन्ति प्र. रोत्स्यते रोत्स्यते रोत्स्यन्ते मरिष्यति मरिष्यतः मरिष्यन्ति प्र० प्रक्ष्यति प्रक्ष्यतः प्रक्ष्यन्ति 1. 'मृङ" और 'प्रच्छ' धातुओं के शेष लकारों में प्र. पु. के रूपममार, मम्रतुः मम्रः लिट् पप्रच्छ पप्रच्छतुः अमृत अमृषाताम् अमृषत लुङ अप्राक्षीत् अप्राण्टाम् अप्राक्षुः मर्ता मारी मारः लुट् प्रष्टा' प्रष्टारी प्रष्टारः मृषीष्ट मृषीयास्ताम् मृषीरन् आ०लिङ पृच्छचात् पृच्छवास्ताम् पृच्छयासुः / अमरिष्यत् अमरिष्यताम् अमरिष्यन् तुम अप्रक्ष्यत् अप्रक्ष्यताम् अप्रक्ष्यनू .. 1. इस गण में 25 धातुयें हैं। इस गण की प्रमुख विशेषतायें हैं-(१)धातु के प्रथम स्वर के बाद 'न' या 'न्' (श्नम्) जुड़ता है। (2) सार्वधातुक लकारों में गुण नहीं होता है। 2. 'रुधिर' धातु के शेष लकारों के दोनों पदों में प्र० पु० के रूपसरोध रुरुधतुः रुरुधुः लिट् साधे रुरुधाते रुरुधिरे अरुधन् (अरोत्सीत्) अरुधताम् अरुधन् लुरु अरुद्ध अरुत्साताम् अरुत्सत रोदा रोद्धारी रोद्धारः लुट् रोद्धा रोद्धारी रोद्वारः मध्यात् ध्यास्ताम् सध्यासुः आ०लिक रुत्सीष्ट रुत्सीयास्ताम् यत्सीरन् भरोत्स्यन् अरोत्स्यताम् अरोत्स्यन् लुङ अरोत्स्थत अरोत्स्येताम् अरोरणात Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148] संस्कृत-प्रवेशिका [10: धातुरूप रुघादि-युजिर्, भुज् ] १.व्याकरण [146 रोत्स्यसि रोत्स्यथः रोत्स्यथ म. रोत्स्यसे रोत्स्येथे रोत्स्यामि रोत्स्यावः रोत्स्यामः उ० रोत्स्ये रोत्स्यावहे रोत्स्यध्वे रोत्स्यामहे लोद रुग्धताम् लोट युनक्तु युङ्क्ताम् युञ्जन्तु प्र० युङ्क्ताम् युजाताम् युञ्जताम् युग्धि युक्तम् युक्त म. युश्व युआयाम् युध्वम् युनजानि युनजाव युनजाम उ० युनजे युनजावहे युनजामहै विधिलिङ युञ्ज्यात् गुज्याताम् युज्युः प्र० युजीत युक्षीयाताम् युक्षीरन् युज्याः युज्यातम् युज्यात म० युञ्जीथाः युझीयाथाम् युञ्जीध्वम् युज्याम् युज्याव युद्ध्याम उ० युञ्जीय युद्धीवहि युद्धीमहि भुज्' (पालन करना) प०, सक०, अनिट् भुज्' (भोजन करना) आ०, सक०,० लट् भुनक्ति भुङ्क्तः . भुञ्जन्ति प्र० भुङ्क्ते भुञ्जते भुक्थः भुक्य - म० मुझे भुआथे भुमध्ये भुनज्मि भुवः भुजमा उ० भुजे भुज्वहे भुज्महे रुणनु रुन्तात् रुग्वाम् रुन्धन्तु प्र० रुन्ताम् रुन्धाताम् / रुन्द्धिन्द्धात् रुन्द्धम् रुद्ध म. रुग्त्स्व रुन्धाथाम् रुन्छवम् रुणधानि रुणधाव रुणधाम उ० रुणधै रुणधावहै रणधामहै विधिलिङ रुन्ध्यात् ध्याताम् रुन्ध्युः प्र० रुन्धीत सन्धीयाताम् सन्धीरन् रुन्ध्याः सन्ध्यातम् सन्ध्यात म० रुन्धीथाः रुन्षीयाधाम् हन्धीध्वम् रुन्ध्याम् हन्ध्याव रुन्ध्याम उ० रुन्धीय सन्धीवहि सन्धीमहि युजि>युज' (मिलाना, लगना) उ०, सक०, अनिट परस्मैपद आत्मनेपद युनक्ति युङ्क्तः युद्धन्ति प्र० युक्ते युाते युद्धते युनक्षि युवथः युक्य म० युझे युञ्जाथे युग्वे युनज्मि युवा युज्मः उ० युजे युज्वहे युज्महे लङ अयुनक् अयुङ्क्ताम् अयुञ्जन् प्र० अयुक्त अयुजाताम् अयुआत अयुनक् अयुङ्क्तम् अयुक्त म. अयुक्थाः अयुतायाम् अयुग्ध्वम् अयुनजम् अथुज्व अयुज्म उ० अयुक्षि अयुज्वहि अयुज्महि मुजाते ला अभुनक् अभुङ्क्ताम् अभुनक् अभुक्तम् अभुनजम् अभुज्य अभुञ्जन् प० अभुङ्क्त अभुजाताम् - अभुञ्जत अभुङ्क्त ग० अभुक्थाः अभुमायाम् अभुग्ध्वम् अभुज्म उ० अभुक्षि अभुज्वहि अभुज्महि लुटूं भोक्ष्यन्ति प्र. भोक्ष्यते भोक्ष्येते भोक्ष्यन्ते भोक्ष्यथ म. भोक्ष्यसे भोक्ष्येथे भोक्ष्यध्वे भोक्ष्यामः उ. भोक्ष्ये भोक्ष्यावहे भोक्ष्यामहे भोक्ष्यति भोक्यतः भोक्ष्यसि भोक्ष्यथः भोक्ष्यानि भोक्ष्यावः लोटू योधयति योक्ष्यतः योक्ष्यन्ति प्र० योक्ष्यते योदयेते योक्ष्यन्ते योक्ष्यसि योक्ष्यथः योक्ष्यथ म योक्ष्यसे योध्येथे योदयध्वे योक्ष्यामि योक्ष्यावः योक्ष्यामः उ० यावर योक्ष्यावहे योक्ष्यामहे 1. 'युजिर' धातु के शेष लकारों में (दोनों पदों में ) प्र. पु० के रूपयुयोज युयुजतुः युयुजुः लिट् युयुजे युयुजाते युयुजिरे अयोक्षीत् अयोक्ताम् अयोक्षुः लुक् अयुक्त अयुक्षाताम् अयुक्षत योक्ता योक्तारौ योक्तारः लुटू योक्ता योक्तारौ योक्तारः युज्यात युज्यास्ताम् युज्यासुः आ० लिस् युक्षीष्ट युक्षीयास्ताम् युक्षीरन् / अयोक्ष्यत् अयोध्यताम् अयोक्ष्यन् लुङ् अयोक्ष्यत अयोध्येताम् अयोधयन्त भुनक्तु भुक्ताम् भुञ्जन्तु प्र० भुक्ताम् मुखाताम् भुगताम् मुग्धि भुङ्क्तम् भुङ्क्त म० भुव भुताथाम् भुग्ध्वम् भुनजानि भुनजाव भुनजाम उ. भुन भु नजावहै भुनजामहे 1. 'भुज्' धातु के शेष लकारों में (दोनों पदों में) प्र. पु. के रूपबुभोज बुभुजतुः बुभुजुः लिट् बुभुजे बुभुजाते बुभुजिरे अभौक्षीत् अभौक्ताम् अभौक्षुः लु अभुक्त अभुक्षाताम् अभुक्षत भोक्ता भोक्तारौ भोक्तारः लद् भोक्ता मोक्तारी भोक्तार भुज्यात भुण्यास्ताम् भुज्यासुः आ०लिक भुक्षीष्ट भुक्षीयास्ताम् भुक्षीरन् अभोक्ष्यत् अभीष्यताम् अभोक्ष्यन् लुर अभोक्ष्यत अभोक्ष्येताम् भभोक्ष्यन्त Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] संस्कृत-प्रवेशिका [10: धातुरूप विधिलिक मुज्यात् भुज्याताम् भुज्युः प्र. भुञ्जीत भुञ्जीयाताम् भुकीरन् भुज्याः भुज्यातम् भुज्यात म भुञ्जीथाः भुजीयाथाम् भुजीध्वम् भुज्याम् भुज्याव भुज्याम उ० भुजीय भुञ्जीवहि भुज्जीमहि (8) तनादि गण' तनु'>तम् (फैलाना ) उ०, सक०, सेट परस्मैपद लट् / आत्मनेपद तनोति तनुतः तन्वन्ति प्र० तनुते तन्वाते तन्वते तनोषि तनुयः तनुथ म० तनुषे तन्वाथे तनु वे तनोमि तनुवा-ग्वः तनुमा-मः उ० तन्वे तनुवहे-न्वहे तनुमहे महे तनादि-तनु, कृ] 1 : व्याकरण [151 विधिलिङ् तनुयात् तनुयाताम् तनुयुः प्र० तन्वीत तन्वीयाताम् तन्वीरनु तनुयाः तनुयातम् तनुयात म० तन्वीथाः तन्वीयायाम् तन्वीध्वम् तनुयाम् तनुयाव तनुयाम उ० तन्वीय तन्वीवहि तन्वीमहि कृ (करना) उ०, सक०, सेट परस्मैपद आत्मनेपद . करोति कुरुतः कुर्वन्ति प्र० कुरुते कुर्वाते कुर्वते करोषि कुरुथः कुरुथ म कुरुषेकुथि कुरुष्वे करोमि कुर्वः कुर्मः उ० कु कुर्वहे कुर्महे अकरोत् अकुरुताम् अकरोः अकुरुतम् अकरवम् अकुर्व अकुर्वन् अकुरुत अकुर्म प्र अकुरुत म० अकुरुथाः उ. अकुर्वि अकुर्वाताम् अकुर्वत अकुर्याथाम् अकुरुध्वम् अकुर्वहि अकुर्महि / अतनोत् अतनो अतनवम् अतनुताम् अतम्वन् प्र. अतनुत अतन्वाताम् अतम्बत अतनुतम् अतनुत म० अतनुथाः अतन्वाथाम् अतनुध्वम् अतनुव-न्व अतनुम-न्म उ० अतन्वि अतनुवहि-म्वहि अतन्(नु) महि तनिष्यति तनिध्यतः तनिष्यन्ति प्र० तनिष्यते तनिष्येते तनिष्यन्ते तनिष्यसि तनिष्यथः तनिध्यथ म० तनिष्यसे तनिष्येथे तनिष्यध्वे तनिष्यामि तनिष्यावः तनिष्यामः उ० तनिष्ये तनिष्यावहे तनिष्यामहे लोट तनोतु,तनुतात् तनुताम् तन्वन्तु प्र. तनुताम् तन्वाताम् तन्वताम् तनु,तनुतात् तनुतम् सनुतः म तनुष्व तन्वाथाम् तनुध्वम् तनवानि तनवाद तनवाम उ० तनव तनवावहै तनवामहै 1. इस गण में 10 धातुयें हैं / इसमें धातु और प्रत्यय के बीच में 'उ'होता है। 2. 'तनु' पातु के शेष लकारों में (दोनों पदों में ) प्र० पु. के रूपततान तेनदुः तेनुः लिट् तेने तेनाते तेनिरे अतानीव(अतनीत्) अतानिष्टाम् अतानिषुः लुङ् अतत(अतनिष्ठ) अतनिषाताम् अतनिषत तनिता तनितारी तनितारः लुट् तनिता / तनितारौ तनितारः तन्यात तन्यास्ताम् तन्यासुः आ० लिए तनिषीष्ट तनिषीयास्ताम् तनिषीरन् अतनिष्यत् अतनिष्यताम् अतनिष्यन् लुछ अतनिष्यत अतनिष्पेताम् अतनिष्यन्त करिष्यति करिष्यतः करिष्यन्ति प्र. करिष्यते करिष्येते करिष्यन्ते करिष्यसि करिष्यथः करिष्यथ म. करिष्यसे करिष्येथे करिष्यध्ये करिष्यामि करिष्यावः करिष्यामः उ. करिष्ये करिष्यावहे करिष्यामहे लोट् करोतु,कुरुतात् कुरुताम् कुर्वन्तु प्र. कुरुताम् कुर्वाताम् कुर्वताम् कुरु-तात् कुरुतम् कुरुत म. कुरुष्व कुर्वाथाम् कुरुध्वम् करवाणि करवाव करवाम उ० करवै करवावहै करवामहै विधिलिक कुर्यात् कुर्याताम् कुर्युः प्र. कुर्वीत कुर्वीयाताम् कुर्वीरन् कुर्याः कुर्यातम् कुर्यात म कुर्वीथाः कुर्वीयाथाम् कुर्वीध्वम् कुर्यात् कुर्याव कुर्याम उ० कुर्वीय कुर्वीवहि कुर्बीमहि 1. 'कृ' धातु के शेष लकारों में (दोनों पदों में)प्र०पु० के रूप चकार वक्रतुः चक: लिट् चक्र चक्राते चक्रिरे अकार्षीत् अकाष्टाम् अकार्षुः लुङ अकृत अकृषाताम् अकृषत कर्ता कर्तारौ कर्तारः लुट् कर्ता कर्तारौ कर्तारः क्रियात् क्रियास्ताम् क्रियासुः आलिङ कृषीष्ट कृषीयास्ताम् कषीरण अकरिष्यत् अकरिष्यताम् अकरिष्यन् लुक अकरिष्यत 'अकरिष्येताम् मकान Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] संस्कृत-प्रवेशिका [10 : घातुरूप (9) क्रयादि गण' डुकीब्की (खरीद-बिक्री करना ) उ०, सक०, अनिट् / परस्मैपद लट् आत्मनेपद क्रीणाति क्रीणीतः क्रीणन्तिः प्र. क्रीणीते क्रीणाते क्रीणते क्रीणासि क्रीणीयः क्रीणीय म० क्रीणीपे क्रीणाथे क्रीणीध्वे क्रीणामि __ क्रीणीवः क्रोणीमः उ० क्रीणे क्रीणीबहे क्रीणीमहे क्रयादि-क्री, पूञ्] 1: व्याकरण [153 क्रीणीयाः क्रीणीयातम् क्रीणीयात म. क्रीणीथाः क्रीणीयाथाम् क्रीणीध्वम् क्रीणीयाम् क्रीणीयाव क्रीणीयाम उ० क्रीणीय क्रीणीवहि क्रीणीमहि - पूच्>पू (पवित्र करना ) उ०, स०, सेट् परस्मैपद आत्मनेपद पुनीतः पुनन्ति प्र. पुनीते। पुनाते पुनते पुनासि पुनीथः पुनीष म. पुनीषे पुनाथे पुनीध्वे पुनामि पुनीवः पुनीमः उ० पुने पुनीवहे पुनीमहे लङ अपुनात् अपुनीताम् अपुनन् प्र. अपुनीत अपुनाताम् अपुनत अपुनाः अपुनीतम् अपुनीत म. अपुनीयाः अपुनाथाम् अपुनीध्वम् अपुनाम् अपुनीव अपुनीम उ० अपुनि अपुनीवहि अपुनीमहि अक्रीणात् अक्रीणाः अक्रीणाम् अक्रीणीताम् अक्रोण प्र० अक्रीणीत अक्रीणाताम् अक्रोणत अक्रीणीतम् अक्रीणीत म० अक्रोणीथाः अक्रीणायाम् अक्रीणीध्वम् अक्रीणीव अक्रीणीम उ० अक्रीणि अक्रीणीयहि अक्रीणीमहि ष्यति ध्यतः ऋष्यन्ति प्र० क्रेष्यते क्रेष्यसि ऋष्यथः ऋष्यथ म ऋष्यसे क्रोष्यामि ऋष्यावः ऋष्यामः उ० ऋष्ये ध्येते ऋष्यन्ते येथे ऋष्यध्वे वेष्यावहे ऋष्यामहे लोटू पविष्यति पविष्यतः पविष्यन्ति प्र० पविष्यते पविष्येते पविष्यन्ते पविष्यसि पविष्यथः पविष्यथ म. पविष्यसे पविष्येथे पविष्यध्वे पविष्यामि पविष्यावः पविष्यामः उ० पविष्ये पविष्यावहे पविष्यामहे क्रीणातु,क्रीणीतात् क्रीणीताम् क्रीणन्तु प्र. क्रीणीताम् क्रीणाताम् क्रीणताम् क्रीणीहि,क्रीणीतात् क्रीणीतम् क्रीणीत म० क्रीणीष्व क्रीणाथाम् क्रीणीध्वम् क्रोणानि क्रीगाव क्रीणाम उ० क्रीण क्रीणावहै क्रीणामहे विधिलिङ क्रीणीयात् क्रीणीयाताम् क्रीणीयुः प्र. क्रीणीत क्रीणीयाताम् क्रीणीरन् / 1. इस गण में 61 धातुयें हैं। इस गण की प्रमुख विशेषतायें हैं-(१) धातु और प्रत्यय के बीच में 'ना' (श्ना) जुड़ता है, जो कहीं 'मी' और कहीं 'न' हो जाता है। (2) उपधा में यदि अनुनासिक वर्ण हो तो उसका लोप हो जाता है। (3) अजनारत धातुओं के लोट् लकार के म०पु० एकवचन में 'हि' के स्थान पर 'आन' होता है। 2. 'क्री' धातु के शेष लकारों में (दोनों पदों में)प्र० पु० के रूपचिक्राय चिक्रियतुः चिक्रियुः लिट् चिक्रिये चिक्रियाते चिक्रियिरे अक्रवीत् 'अक्रष्टाम् अर्कषुः लुङ अक्रोष्ट अवेषाताम् अक्रेषत क्रेतारी क्रेतारः लुट् क्रेता क्रेतारी केतारः क्रीयात् क्रीयास्ताम् क्रीयासुः आ०लिक्वेषीष्ट केषीयास्ताम् ऋषीरन् अक्रेष्यत् अक्रेष्यताम् अक्रष्यन् लुक अकरिष्यत अकरिष्येताम् अकरिष्यन्त पुनातु,पुनीता पुनीताम् पुनन्तु प्र. पुनीताम् पुनाताम् पुनताम् पुनीहि पुनीतात् पुनीतम् पुनीत म. पुनीष्व पुनाथाम् पुनीध्वम् पुनानि पुनाव पुनाम उ० पुर्न पुनाव पुनामहै विधिलिङ पुनीयात् पुनीयाताम् पुनीयुः प्र. पुनीत पुनीयाताम् .. पुनीरन् पुनीयाः पुनीयातम् पुनीषात म. पुनीथाः पुनीयाथाम् पुनीध्वम् पुनीयाम् पुनीयाव पुनीयाम उ० पुनीय पुनीवहि पुनीमहि 1. 'पू' धातु के शेष लकारों में ( दोनों पदों में ) प्र० पु० के रूपपुपाव पुपुवतुः पुपुवुः लिट् पुपुवे . पुपुवाते पुपुबिरे अपावीत् अपाविष्टाम् अपविषुः लुङ अपविष्ट अपविषाताम् अपविषत पविता पवितारी पवितारः लुट् पृविता पवितारी पवितारः पूयात् पूयास्ताम् पूयासुः आलिङ पविषीष्ट पविषीयास्ताम् पविषीरन अपविष्यत् अपविष्यताम् अपविष्यन् लुङ. अपविष्यत अपविष्येताम् अपविष्यात Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 154] संस्कृत-प्रवेशिका [10 : चातुरूप ज्ञा' (जानना ) उ०, सक०, अनिट् ( सार्वधातुक में 'ज्ञा' को 'जा' आदेश) परस्मैपद लट् आत्मनेपद जानाति. जानीतः जानन्ति प्र. जानीते जानाले जानते जानासि जानीय: जानीथ म. जानीषे जानाये जानीध्वे जानामि जानीवः जानीमः उ० जाने जानीवहे जानीमहे / * ऋयादि-ज्ञा, ग्रह ] 1: व्याकरण परस्मैपद लट् भात्मनेपद वृह्णाति गृहीतः गृहन्ति प्र० गह्वीते गृह्माते गलते गृहासि गृहीथः गृह्णीय म. गृहीये गृहाथे गृह्णीध्वे गृह्णामि गृहीवः गृहीमः उ० गृहे गृह्णीवहे गृह्णीमहे लङ् अहात् अगृहीताम् अगृहुन् प्र० अगृहीत अगृहाताम् अगृहृत अगृह अगृहीतम् अगृहीत म० अपहीथाः अगृहाथाम् अल्लीध्वम् अग्रहाम् अगृहीव अगृहीम उ० अगृहि अगृहीवहि अगृहीमहि अजानात् अजानाः अजानाम् अजानीताम् अजानन् प्र. अजानीत अजानाताम् अजानत बजानीतम् अजानीत म० अजानीथाः अजानाथाम् अजानीध्वम् अजानीव अजामीम उ. अजानि अजानीवहि अजानीमहि लुट् ज्ञास्यति शास्वतः शास्यन्ति प्र० ज्ञास्यते। ज्ञास्येते ज्ञास्यन्ते ज्ञास्यसि ज्ञास्यथः / ज्ञास्यथ म. ज्ञास्यसे / शास्येथे ज्ञास्यध्वे ज्ञास्यामि ज्ञास्याबः ज्ञास्यामः उ. ज्ञास्ये शास्त्रावहे ज्ञास्यामहे जानातु.जानीतात् जानीताम् जानन्तु प्र. जानीताम् जानाताम् जानताम् जानीहि,जानीतात् जानीतम् जानीत म. जानीव जानाथाम् जानीया जानानि जानाव जानाम उ. जाने जाना जानामहै विधिलिङ जानी मात् जानीयाताम् जानीयुः प्र० जानीत जानीयाताम् जानीरन् जानीयाः जानीयातम् जानीयात म. जानीथाः जानीयाथाम् जानीध्वम् जानीयाम् जानीयाव जानीयाम उ० जानीय जानीवहि जानीमहि प्रह' (पकड़ना, लेना) उ०, सक०, सेट् / सार्वधातुक में 'ग्रह' को 'गृह') 1. 'ज्ञा' धातु के शेष लकारों में (दोनों पदों में ) प्र०ए० के रूपजो जज्ञतुः जजुः लिट् जज्ञे जज्ञाते जज्ञिरे अज्ञासीन अज्ञासिष्टाम् अज्ञासिषुः लुङ अज्ञास्त अशासातान अज्ञासत ज्ञाता ज्ञातारी ज्ञातारः लुट् ज्ञाता ज्ञातारी ज्ञातारः / ज्ञायात् (ज्ञेयात्) ज्ञायास्ताम् ज्ञायासुः आलिङ, ज्ञासीष्ट ज्ञासीयास्ताम् ज्ञासीरन् अज्ञास्यत् अज्ञास्यताम् अज्ञास्यन् लुङ अज्ञास्यत अज्ञास्येताम् अज्ञास्यन्त 2. 'ग्रह धातु के शेष लकारों में (दोनों पदों में) प्र. पु. के रूपजग्राह जगहतुः जगृहुः लिट् जगृहे जहाते जगृहिरे अग्रहीत अग्रहीष्टाम् अग्रहीषुः लुङ अग्रहीष्ट अग्रहीषाताम् अग्रहीषत ग्रहीष्यति ग्रहीष्यतः ग्रहीष्यन्ति प्र० ग्रहीष्यते ग्रहीयेते ग्रहीष्यन्ते ग्रहीष्यसि ग्रहीष्यथः ग्रहीष्यथ म. ग्रहीष्यसे ग्रहीष्येथे ग्रहीष्यध्वे ग्रहीष्यामि अहीष्यावः ग्रहीष्यामः उ० ग्रहीष्ये ग्रहीष्यावहे ग्रहीष्यामहे लोट गृहातु,गृहीतात् गृहीताम् गृहन्तु प्र० गृहीताम् गृहाताम् गृहृतान् गृहाण,गल्लीतात् गृल्लीतम् गृहीत म हीष्य गृहाथाम् गृहहीध्वम् गृहानि गृहाव गृह्णाम उ० गृह गृलावहै गृहामहै विधिलिङ्ग गृहोपात् गृह्णीयाताम् गृहीयुः प्र० गृहीत गृहीयाताम् गृहीरन् गृहीयाः गृह्णीयातम् गृहीयात म. गृहीथाः गृहीयाथाम् गृहीत्रम् गृह्णीयाम् गृहीयाव गृहीयाम उ० गृह्णीय गृहोदहि गृहीमहि (10) चुरादि गण' ग्रहीता ग्रहीतारौ ग्रहीतारः लुट् ग्रहीता ग्रहीतारौ ग्रहीतारः यह्यात् गृह्मास्ताम् गृह्यासुः आलिङग्रहीषीष्ट ग्रहीषीयास्ताम् ग्रहीषीरन् अग्रहीष्यत् भग्रहीष्यताम् अग्रहीष्यन् लुङ अग्रहीष्यत अग्रहीष्येताम् अग्रहीष्यन्त 1. इस गण में 411 धातु हैं। इस गण की प्रमुख विशेषतायें हैं-(१) धातु और प्रत्यय के बीच में 'अय्' (णिच् ) जुड़ता है। (2) धातु के अन्तिम स्वर (इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ) को वृद्धि / (3) कथ्, गण रच आदि कुछ धातुओं को छोड़कर अन्यत्र उपधा के स्वर (इ, उ, ऋ) को गुण (ए, ओ, अर) हो जाता है। (4) यदि उपधा में 'अ' हो तो उसे गुण नहीं होगा अपितु वृद्धि होगी। (5) सभी धातुयें 'उभयपदी' तथा 'सेट' होती हैं / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [10 : धातुरूप , 156 ] संस्कृत-प्रवेशिका चुर' (चुराना) उ०, सक०, सेट परस्मैपद लट् चोरयति चोरयतः चोरयन्ति प्र० चौरयते चोरयसि पोरयथः चोरयथ म० चोरयसे चोरयामि चोरयावः चोरयामः उ० चोरये चुरादि-चुर्, गण, कथ् ] 1: व्याकरण [157 परस्मैपद आत्मनेपद गणयति गणयतः गणयन्ति प्र० गणयते / गणयेते गणयन्ते गणयसि गणयथः गणयथ म. गणयसे गणयेथे गणयध्वे गणयामि गणयावः गणयामः उ० गणये गणयावहे गणयामहे आत्मनेपद चोरयेते चोरयन्ते चोरयेथे पोरयध्वे चोरयावहे चोरयामहे अगणयत् अगणयः अगणयम् अगणयताम् अगणयन् प्र. अगणयत अगणयेताम् अगणयन्त अगणयतम् अगणयत म० अगणयथाः अगणयेथाम् अगणयध्वम् अगणयाव अगणयाम उ० अगणये अगणयावहि अगणयामहि अचोरयत् अचोरयताम् अचोरयन् प्र० अचोरयत अचोरयेताम् अचोरयन्त अचोरयः अचोरयतम् अचोरयत म० अचोरयथाः अचोरयेथाम् अचोरगध्वम् अचोरयम् अचोरयाव अचोरयाम उ० अचोरये अचोरयावहि अचोरयामहि लट् चोरयिष्यति चोरयिष्यतः चोरयिष्यन्ति प्र. चोरयिष्यते चोरयिष्येते चोरयिष्यन्ते चोरयिष्यसि चौरयिष्यथः चोरयिष्यथ म० चौरयिष्यसे चोरयिष्येथे चौरयिष्यध्वे चौरयिष्यामि चोरयिष्यावः चोरयिष्यामः उ० चोरयिष्ये चोरयिष्यावहे चोरयिष्यामहे लोट् चोरयतु-तात् चोरयताम् चोरयन्तु प्र. चोरयताम् चोरयेताम् चोरयन्ताम् चोरय-तात् चोरयतम् चोरयत भ० चोरयस्व चोरवेथाम् चोरयध्वम् चोरयाणि चोरयाव चोरयाम उ० चोरयै चोरयावहै चोरयामहे विधिलिक चोरयेत् चोरयेताम् चोरयेयुः प्र० चोरयेत चोरयेयाताम् चोरयेरन् चोरयः चोरयेतम् चोरयेत म. चोरयथाः चोरयेयाथाम् घोरयध्वम् चोरयेयम् चोरयेव चोरयेम उ० चोरयेय चोरयवाहि चोरयेमहि गण (गिनना) उ०, सक०, सेट् 1. 'चुर्' धातु के शेष लकारों में ( दोनों पदों में ) प्र० पु० के रूपचोरयामास चोरयामासतुः चोरयामासुःलिट चौरयाञ्चक्रे चोरयाञ्चक्राते चोरयाश्चक्रि अचूचुरस अचूपुरताम् अचूचुरन् लुछ अचूचुरत अचूचुरेताम् अचूचरन्त चोरपिता चोरपितारी चोरथितार लुट् चोरयिता चोरपितारी पोरयितारः चोर्थात् चोर्यास्ताम् चोर्यासुः आलिङ चोरयिषीष्ट चोरयिषीयास्ताम् चोरयिषीरन अचोरयिष्यत् अचोरयिष्यताम् यिष्यन् लुछ अचोरयिष्यत यिष्येताम् यिष्यन्त 2. 'गण' धातु के शेष लकारों में (दोनों पदों में ) प्र.पु. के रूपगणयामास गणयामासतुः गणयामास्ः लिट गणयाञ्चक्रे (गणयाम्बभूव,गणयामास) अजी (अज) गणत अजीगणताम् अजीगणन् लुक अजीगणत(अजगणत) गणेताम् गणन्त गणिष्यति गणिष्यतः गणिष्यन्ति प्र० गणयिष्यते गणयिष्येते गणयिष्यन्ते गणिष्यसि गणिष्ययः गणिष्यय म० गणयिष्यसे गणयिष्येथे गणयिष्यध्ये गमिष्यामि गणिष्यावः गणिष्यामः उ० गणयिष्ये गणविष्यावहे गणयिष्यामहे लोटू प्रणयतु-तात् गणयताम् गणयन्तु प्र. गणयताम् गणयेताम् गणयन्ताम् गणय-तात् गणयतम् गणयत म. गणयस्व गणयेथाम् गणयध्वम् गणयानि गणयाव गणयाम उ० गणय गणयावहै गणयामहै विधिलिक गणवेत् गणयेताम् गणयेयुः प्र. गणयेत गणयेयाताम् गणयरन् गणयः गणयेतम् गणयेत म. गणयेथाः गणयेयाथाम् गणयध्वम् गणयेयम् गणयेव गणयेम उ० गणयेय गणयेवहि गणयेमहि ___ कथ्' (कहना) उ०, सक०, सेट गणयिता गणपितारी गणयितारः लुट् गणयिता गणयितारौ गणयितारः गण्यात गण्यास्ताम् गण्यासुः आ०लिक गणयिषीष्ट ०धीयास्ताम् यिषीरन अगणयिष्यत् यिष्यताम् अगण यिष्यन् लुङ अगणयिष्यत यिष्येताम् अगणयिष्यन्त 1. 'कथ' धातु के शेष लकारों में (दोनों पदों में)प्र०पु०के रूपकथयामास ) कथयामासतुः कथयामासुः लिट् कथयामास मासतुः मासुः कयवाचकार कथयाञ्चक्रतुः कथयाचकः कथयाचक्रे पक्रातेचक्रिरे कथयाम्बभूव ) कथयाम्बभूवतुः कथयाम्बभूवः कथयाम्बभूव बभूवतुः बभूवुः विशेष-भस्', 'कृ' और 'भू की तरह। अचकयत् अचकथताम् अचकवन् लुङ् अचकथत अचकवेताम् अचकचन्त कथयिता कथयितारी कथयितारः लुट् कथयिता कथयितारी कथयितारः / कथ्यात् कथ्यास्ताम् कथ्यासुः आ०लिङ् कथयिषीष्ट कथयिषीयास्ताम् कथयिषीरन् मकथयिष्यत् अकथयिष्यताम् अकथयिष्यन् ला अकययिष्यत यि घेताम् अकथयिष्यन्त Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लद् 158] संस्कृत-प्रवेशिका [10 : धातुरूप परस्मैपद आत्मनेपद कथयति कथयतः / कथयन्ति प्र. कथयते कथयन्तें कथयसि कथयथः कथयथ म० कथयसे कथयेथे कथयध्वे कथयामिकथयावः कथयामः 0 कथये कथयावहे कथयामहे लङ अकथयत् अकथयताम् अकथयन् प्र० अकथयत अकथयेताम् अकथयन्त अकथयः अकथयतम् अकथयत म० अकथयथाः अकथयेथाम् कथयध्वम् अकथयम् अकथयाव अकथयाम उ० अकयये अकथयावहि अकबरामहि कथयिष्यति कथयिष्यतः कथयिष्यन्ति प्र० कथयिष्यते कथयिष्येते कथयिष्यन्ते कथयिष्यसि कथयिष्यथः कथयिष्यथ म कथयिष्यसे कथयिष्येथे कथयिष्यध्वे कथयिष्यामि कथयिष्यावः कथयिष्यामः उ० कथयिष्ये कथयिष्यावहे कथयिष्यामहे लोटू भाग 2: अनुवाद' ( Translation ) पाठ 1 : सामान्य वर्तमान काल ( Present Tense) उदाहरण-वाक्य [ 'लट् लकार का प्रयोग ](क) प्रथम पुरुष-पुंल्लिङ्ग स्त्रीलिङ्ग 1. वह है % सः अस्ति। सा अस्ति। तद् अस्ति / 2. वे दोनों हैं तो स्तः। तेस्तः / ते स्तः। 3. वे सब हैं-ते सन्ति / ताः सन्ति / तानि सन्ति / (ख) मध्यम पुरुष (तीनों लिङ्गों में) (ग) उत्तम पुरुष (तीनों लिङ्गों में ) 4. तुम हो त्वम् असि / 7. मै हूँअहम् अस्मि / 5. तुम दोनों हो युवां स्थः। 8. हम दोनों हैं = आवा स्वः / 6. तुम सब हो = यूयं स्थ। हम सब हैं - वयं स्मः / (घ) अन्य प्रयोग 10. सीता जाती है = सौता गण्छति / 11. रमेश पढ़ता है - रमेशः पठति / 12. वे दोनों खेलते हैं = तौ क्रीडतः / 13. हम दोनों लिखते हैं = आवां लिखावः / 14. तुम हंसते हो = त्वं हससि / 15. तुम सब दौड़ते हो = यूयं धावथ / नियम-१. क्रिया कर्ता के पुरुष और वचन के अनुसार होती है। 2. कर्ता के लिङ्ग का क्रिया पर असर नहीं पड़ता है। 3. 'असमद्' और, युष्मद्' शब्दों के रूप तीनों लिङ्गों में समान होते हैं। 4. सामान्य वर्तमानकाल में लट् लकार की क्रिया होती है।' कथयतु-तात् कथयताम् कषय-तात् कथयतम् कथयानि कथयाव कथयन्तु प्र० कपयताम् कथयेताम् कथयन्ताम् कथयत म कथयस्व कथयेथाम् कथयध्वम् कथयाम उ० कथय कथयावहै कथयामहै विधिलिक कथयेयुः प्र. कथयेत कथयेयाताम् कथयेरन् कथयेत म. कथयेथाः कथयेयाथाम् कथयेध्वम् कथयेम उ० कथयेय कथयेवहि कथयेमहि कथयेत् कथयेताम् कययेः कथयेतन कथयेयम् कथयेव 1. किसी भाषा के शब्दों एवं विचारों को भाषान्तर में बदलना अनुवाद है / भाव हीन केवल शब्दानुवाद कभी-कभी हास्यास्पद हो जाता है। जैसे-वह मुँह देखी करता है सः मुखं दृष्ट्वा करोति / इसके स्थान पर 'पक्षपातं करोति सः' ऐसा अनुवाद करें / अङ्ग-अङ्ग में जवानी भर गई अङ्गेषु यौवनं सन्नद्धम् / 2. 'लट् लकार का प्रयोग शाश्वत सत्य या वस्तु के स्वभाव को सूचित करने के लिए (जैसे-किं कि न साधयति कल्पलतेव विद्या। नद्यः प्रवहन्ति ) तथा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160] संस्कृत-प्रवेशिका [पाठ:१ 5. हमेशा 'सुबन्त' और 'तिङन्त' पदों का ही प्रयोग करें। 'सुप्' या 'तिङ्' प्रत्ययों का तथा 'सुप्' या 'तिङ्' से रहित शब्दों (प्रातिपदिकों या धातुओं) का भूलकर भी प्रयोग न करें। 6. पदान्त 'म्' के बाद यदि कोई व्यञ्जन वर्ण हो तो उसका अनुस्वार कर देना चाहिये, स्वर वर्ण के बाद में होने पर नहीं / 7. सभी संज्ञा पद प्र० पु० में होते हैं / अतः उनके साथ क्रिया भी प्र० पु. की ही होती है।। अभ्यास १-पुस्तकें हैं / गीता खेलती है / मनुष्य हंसते हैं / वे दोनों पढ़ते हैं। तुम जाते हो। हम सब गाते हैं / मैं लिखता हूँ। वे सब गिरते हैं / सुरेश दौड़ता है। वे सब जाती हैं। हम सब सोते हैं। सीता है। पाठ 2: सामान्य वर्तमानकाल ( Present Indefinite Tense) उदाहरण-वाक्य [ विभक्तियों का सामान्य प्रयोग 1. सीता पुस्तक लिखती है- सीता पुस्तकं लिखति / 2. बालक गेंद से खेलते हैं -बालकाः कन्दुकेम क्रीडन्ति / 3. वह ब्राह्मण के लिए धन देता है सः ब्राह्मणाय धनं ददाति / 4. मोहन पेड़ पर से गिरता है = मोहनो वृक्षात् पतति / 5. मैं राम की पुस्तक पढ़ता हूँ= अहं रामस्य पुस्तकं पठामि / 6. विश्वविद्यालय में छात्र पढ़ते हैं -विश्वविद्यालये छात्राः पठन्ति / 7. हे राम! तुम कहो जाते हो-हे राम ! त्वम् कुत्र गच्छसि ? 8. क्या वह पुस्तकें ले जाता है % किं सः पुस्तकानि नयति ? - 6. मैं पुस्तक नहीं पढ़ता हूँ = अहं पुस्तकं न पठामि / 10. सीता पेड़ पर से नहीं गिरती है % सीता वृक्षात् न पतति / नियम-- [कर्तृवाच्य के कर्ता में प्रथमा, [कर्तृवाच्य के] कर्म में द्वितीया, करण में। तृतीया, सम्प्रदान में चतुर्थी, अपादान में पञ्चमी, सम्बन्ध में षष्ठी और अधिकरण (आधार) में सप्तमी विभक्ति होती है। ... निषेधवाचक (Negative) और प्रश्नवाचक (Interrogative) वाक्य भी। साधारण (Affirmative ) वाक्यों की ही तरह होते हैं / उनमें प्रश्न का भाव पुष अभी-अभी समाप्त हुए अथवा निकट भविष्य में समाप्त होने वाले कार्यों को प्रकट करने के लिए (जैसे-त्वं कदा गमिष्यसि गृहम् ? एष गच्छामि - तुम मा घर जाओगे? अभी जाता है। त्वं कदा गहाद् आगतः ? अयम् अहम् आगच्छा = तुम कब घर से आये? अभी मैं आ रहा हूँ।) भी होता है। सामान्य वर्तमानकाल] 2: अनुवाद कदा, किम्, कस्मात्, कथम् आदि अव्ययों को जोड़ कर प्रकट किया जाता है तथा वाक्य के अन्त में प्रश्नवाचक चिह्न भी लगाया जाता है / निषेध का भाव व्यक्त करने के लिए साधारणतः 'म' का प्रयोग किया जाता है। कभी-कभी व्यशान से आरम्भ होने वाले शब्दों के आदि में 'अ' जोड़ कर तथा स्वर से प्रारम्भ होने वाले शब्दों के आदि में 'अन्' जोड़कर भी निषेधात्मक वाक्य बनाये जाते हैं। जैसे-गमनम >अगमनम्; आवश्यकम् >अनावश्यकम् / अभ्यास २-हम दोनों गांव को जाते हैं। क्या तुम आंखों से नहीं देखते हो? क्या सीता आँगन में खेलती है ? छात्र विश्वविद्यालय में पढ़ते हैं। वाराणसी में संस्कृत के विद्वान् हैं। श्यामा डण्डे से सेवक को मारती है। बालक पेड़ पर से गिरता है। मैं निर्धनों को धन देता हूँ। क्या लड़के खेलते हैं ? तुम सब कलम से लिखते हो / वे दोनों दिल्ली जाते हैं। . पाठ 3 : सामान्य वर्तमानकाल ( Present Indefinite Tense), उदाहरण-वाक्य [ 'भवत्', 'च' और 'वा' शब्दों का प्रयोग ] 1. आप जाते हैं = भवान् गच्छति / 2. आप दोनों जाती हैं % भवत्यो गच्छतः / 3. राम और मोहन पढ़ते हैं = रामः मोहनश्च पठतः / 4. राम, तुम और मैं (अर्थात् हम सब) पड़ते हैं = रामः त्वम् अहश्च (वयम् ) पठामः / 5. हम दोनों और तुम सब लिखते हैं = आवां च यूयं च ( वयम् ) लिखामः / 6. तुम, राम और सीता खेलते हो = त्वं रामः सीता च क्रीडय / 7. राम और लक्ष्मण बुद्धिमान् हैं = रामः लक्ष्मणश्च सुधियो स्तः। 8. वह, तुम या मैं लिखता है -सः त्वम् अहं वा लिखामि / 6. तुम दोनों अथवा वे सब जाते हैं = युवां ते वा गच्छन्ति / 10. मैं या राम या कृष्ण या सीता पढ़ती है = अहं रामः कृष्णः सीता वा पठति / / नियम-१०. यदि सम्मानसूचक 'भवत्' (आप) शब्द का प्रयोग होता है तो क्रिया प्र० पु. की ही होती है। (1-2) 11. 'च' और 'वा' शब्दों का प्रयोग 'व' और 'वा' से जुड़े हर शब्दों के बाद " अथवा जुड़े हुए शब्दों के दोनों तरफ करना चाहिए / (4-5, 9:10) 12. 'च' से जुड़े हुए कर्ता जब दो हों तो क्रिया द्विवचन में और जब दो से अधिक हों तो बहुवचन में होगी। (3-7) 11 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 162 1 संस्कृत-प्रवेशिका [पाठ : 3-5 13. यदि किसी क्रिया के कर्ता भिन्न-भिन्न पुरुषों के हों और ये 'च' शब्द से जुड़े हों तो क्रिया का पुरुष प्राधान्य ( उत्तम-मध्यम→प्रथम) के अनुसार होगा चाहे वे किसी भी क्रम से क्यों न उक्त हों। (3-7) 14. यदि किसी क्रिया के कर्ता भिन्न-भिन्न पुरुषों के हों और वे 'वा' या 'अथवा' (विकल्प-वाचक) शब्द से जुड़े हों तो क्रिया का पुरुष और वचन अन्तिम कर्ता के पुरुष और वचन के अनुसार होगा। (9-10) अभ्यास ३-क्या गीता और मैं खेलता है ? आँगन में आम के पेड़ से पत्ते गिरते हैं। आप दोनों कहाँ जाते हैं ? सीता, गीता और मोहन पढ़ते हैं। तुम, राम और मोहन रेल से कहाँ जाते हो? आप विद्वान् हैं। सीता अथवा गीता कूदती है। महेश अथवा तुम दौड़ते हो। तुम, मैं और राम पढ़ते हैं / आप सब गाते हैं। 'पाठ 4 : सामान्य भूतकाल और भविष्यत्काल (Past and Future Indefinite Tenses ) सदाहरण-वाक्य [ 'लङ्' और 'लुट' लकारों का प्रयोग ] 1. वह गाँव गया = सः ग्रामम् अगच्छत् = अगच्छत् सः ग्रामम् / 2. क्या मैंने अपना काम नहीं किया = किम् अहं स्वकार्य न अकश्वम् ? 3. लक्ष्मण ने राम की सेवा की = लक्ष्मणः रामस्य सेवाम् अकरोत् / 4. मैंने पुस्तक पढ़ी- अई पुस्तकम् अपठम् = पुस्तकम् अपठमहम् / 5. सीता ने भात खाया % सीता ओवनम् अखादत् / 6. आज वह स्कूल जायेगा = अद्य सः विद्यालयं गमिष्यति / 7. क्या तुम उसका काम नहीं करोगे % किं त्वं तस्य कार्य न करिष्यसि ? 5. मैं वर्गीचे में पूलों को देखंगा- अहम् उद्याने पुष्पाणि द्रक्ष्यामि / 1. आप नगर के उद्यान में सीता को देखोगे- भवान् नगरस्य उद्याने सीता द्रक्ष्यति / नियम-१५. भूतकाल में 'लङ् लकार का प्रयोग किया जाता है।' 1. (क). संस्कृत में भूतकाल के लिए तीन लकारों का प्रयोग प्रचलित है-लङ्,लिट् और लुङ् / लङ् का प्रयोग अनद्यतन भूत (जो आज की बात नहीं है) में (जैसेअहं ह्यः ग्रामम् अगच्छम्), लिट् का प्रयोग परोक्षभूत (बहुत अधिक पुरानी घटना) में (जैसे-रामो राजा बभूव) और 'लुङ्' का सामान्य भूत (अद्यतनभूत-जो मिला बाज ही हुई हो उस भूतकाल) में (जैसे-अद्य अहं ग्रामम् अगमम्) होता है। परन्तु आजकल सुगमता की दृष्टि से भूतकाल में 'लङ्' का प्रयोग अधिक प्रचलित हो रहा है। सामान्य काल, सर्वनाम आदि] 2. अनुवाद 16. सामान्य भविष्यत् काल में 'लूट' लकार का प्रयोग किया जाता है।" 17. कर्ता, कर्म और क्रिया को किसी भी क्रम से रख सकते हैं / (1, 4) अभ्यास ४.-मैं अच्छोद सरोवर में स्नान के लिए आई थी। क्या सूर्य अस्त हो गया था ? कृष्ण ने कंस को मारा / आज शकुन्तला पति के घर जायेगी / आज तुम सब ईश्वर का भजन करोगे / मैं बी० ए० कक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करूंगा। हे कपिराज ! कल तुम अयोध्या में भरत का दर्शन करोगे / मेरे मित्र का विवाह पन्द्रह जून को होगा / क्या उसने कल गीत नहीं गाया? रमेश साईकिल से गिरा / परसों से स्नातकोत्तर कक्षाओं की परीक्षायें प्रारम्भ होंगी। देश का प्रधान मंत्री कौन बनेगा? राजा अशोक अहिंसा का पुजारी था। पाठ 5: सर्वनाम, विशेषण, क्रियाविशेषण और अव्यय उदाहरण-वाक्य [तीनों कालों का प्रयोग] 1. क्या यह फल मधुर नहीं है = किम् इदं फलं मधुरम् नास्ति? 2. क्या वह बीमार बालक शीघ्र चलता है = सः रुग्णः बालकः शीघ्र चलति / 'किम्? 3. यह गीता रमेश की पत्नी है = एषा गीता रमेशस्य पत्नी अस्ति / 4. वह उस ब्राह्मण के लिए नीला वस्त्र और सफेद थाली देता है - सः तस्मै ब्राह्मणाय नीलं वस्त्रं श्वेतां स्थाली च दास्यति / 5. इस बगीचे में दो वृक्ष, दो लतायें और दो पुष्प सुशोभित है = अस्मिन् उद्याने द्वौ वृक्षी द्वेलते द्वे पुष्पे च शोभन्ते / (ख). कभी-कभी 'लट् लकार में 'स्म' जोड़कर भी भूतकाल का अर्थ प्रकट किया जाता है / यद्यपि 'स्म' का प्रयोग सभी पुरुषों और सभी वचनों में होता है परन्तु प्र० पुल में ही इसका प्रयोग अधिक देखा जाता है। 'स्म' को क्रिया से पृथक ही लिखा जाता है, मिलाकर नहीं। जैसे-एकस्मिन् वने कोऽपि सिंहो वसति स्म (एक बन में कोई सिंह रहता था)। ते ग्राम गच्छन्ति स्म (वे गाँव गये)। (ग). 'कृत' प्रत्ययों (क्त और क्तवतु) का भी प्रयोग भूतकाल की क्रिया के रूप में होता है। जैसे--सीता वनं गतवती / सः गतः / रामः रावणं हतवान् / आजकल इनका प्रयोग बहुतायत से होता है। (देखिए, पाठ 10). 1. संस्कृत में भविष्यत्काल के लिए दो लकारों का प्रयोग होता है-लृट् और लुट् / सामान्य भविष्यकाल में 'लुट्' और अनद्यतन भविष्यत् में 'लुट्' / जैसे-महं ग्रामं गमिष्यामि (मैं गाँव जाऊँगा)। अहं श्वः ग्राम गन्तास्मि ( मैं कल गाँव जाऊँगा)। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनाम, विशेषण आदि / 2: अनुवाद [ 165 संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बत्तलाते हैं) शब्दों के लिङ्ग, विभक्ति और बचन अपने-अपने विशेष्य के अनुसार होते हैं विशेष्यस्य हि यस्लिङ्ग विभक्तिबचने च ये / तानि सर्वाणि योज्यानि विशेषणपदेष्वपि / / 22. जब विशेष्य पुं० और स्त्री० दोनों हों तो विशेषण पुं० होगा / (6, 12) 23. यदि एक भी विशेष्य नपुं० होगा तो विशेषण भी नपुं० का ही होगा। उसका वचन या तो एकवचन होगा या संख्या के अनुसार द्विवचन और बहुवचन भी। 24. क्रियाविशेषण सदा नपुं० एकवचन में होंगे / जैसे—मधुरं गायति / 25. 'वा', 'उत्त', 'अपदा' आदि विकल्पवाचक शब्दों से युक्त एकाधिक विशेष्यों का यदि एक ही विशेषण हो तो विशेषण का लिन और वचन बाद वाले विशेष्य के अनुसार होगा। 26. कभी-कभी 'अस्ति', 'भवति' आदि अस्तित्व-वाचक क्रियाओं का प्रयोग अनावश्यक भी होता है। (6). . on 1641. संस्कृत-प्रवेशिका - [पाठ: 5 6. पुत्री और पुत्र रक्षणीय हैं - पुत्री पुत्रश्च रक्षणीयो / 7. उस स्कूल में बहुत से छात्र थे परन्तु छात्रा एक ही थी तस्मिन् विद्यालये बहवः छात्राः आसन् परन्तु छात्रा एका एव आसीत् / 8. यहाँ समिति में भाज अन्त में कैसे आपस में ठीक-ठीक समझौता हो गया % मात्र समिती अध अन्ते (अन्ततोगत्वा ) कथं मिथः यथायथं ऐकमत्यम् अभवत् ? 6. प्रमाद तन्द्रा और आलस्य वर्जनीय हैं -प्रमादः तन्द्रा आलस्यं च वर्जनीयं वर्जनीयानि वा। 10. सुशील बालक, मधुर फल और पुष्पित लतायें कब और कहाँ अच्छी नहीं लगतीं हैं = सुशीला बालकाः, मधुराणि फलानि, पुष्पिताः लताश्च कदा कुत्र च न प्रतिभान्ति / 11. अरे ! गौता स्कूल जल्दी-जल्दी जाती है परन्तु वहाँ वह धीरे-धीरे / पढ़ेगी - अरे | गीता पाठशाला शीघ्रं गच्छति परन्तु तत्र सा शनैः शनैः पठिष्यति / 12. यहाँ तीन लड़के, चार बालिकायें, अठारह स्त्रियाँ और बीस पुरुष हैं जो प्रतिदिन प्रायः गाते हैं = अत्र त्रयः बालकाः चतस्रः बालिकाः अष्टादश स्त्रियः विंशतिः पुरुषाः च सन्ति ये प्रतिदिनं प्रायः गायन्ति / 13. हम सब दुखी हैं परन्तु गीता सुखी है = वयं दुःखिनः परन्तु गीता सुखिनी। नियम-१८. अव्यय सभी लिङ्गों, विभक्तियों और वचनों में अपरिवर्तित होते हैं। 16. हन्त, है, मरे, भोः आदि आश्चर्य-सूचक अव्यय वाक्य के प्रारम्भ में रखे जाते हैं। परन्तु वा, च, तु, हि, चेत् आदि वाक्य के प्रारम्भ में नहीं रखे जाते। 20. विशेषण और किया-विशेषण प्रायः अपने-अपने विशेष्य के पहले आते हैं। कभी-कभी विशेष्य के बाद में भी उनका प्रयोग होता है। जब विशेषण का विधेय ( Predicate) के रूप में प्रयोग होगा तो विशेषण विशेष्य से प्रधान होगा। जैसे-नील कमलम् = कमलं नीलम् / 21. सर्वनाम (जो संशा के स्थान पर प्रयुक्त होते हैं) और विशेषण' (जो १.(क) कुछ शब्द विशेष्य के अनुसार तीनों लिङ्गों में प्रयुक्त होते हैं / जैसे-मधुरः शब्दः, मधुरा वाणी, मधुरं वचनम् / तटः, तटी, तटम् आदि / (ख) कभी-कभी अर्थभेद से भी लिङ्ग बदल जाता है। जैसे-मित्रम् = दोस्त (नपुं०), मित्रः = सूर्य (पुं० ) / (ग) कुछ शब्द अर्थभेद न होने पर भी भिन्न-भिन्न लिङ्गों में ही प्रयुक्त होते हैं। जैसे-'स्त्री' अर्थवाचक 'दाराः' (पुं०), 'स्त्री' (स्त्री०), 'कलत्रम्' (नपुं०)। 'नक्षत्र' वाचक 'पुष्यः' (पुं०), 'तारा' (स्त्री०), 'नक्षत्रम्, (नपुं०)। (घ) कुछ शब्द नियत लिङ्ग और नियत वचन वाले होते हैं / वे विशेषण के रूप में प्रयुक्त होने पर भी विशेष्य के अनुसार नहीं बदलते / जैसे-ज्ञानम् (नपुं०), प्रमाणम् (नपुं०) / वेदाः प्रमाणम् / गुणाः पूजास्थानम्, आदि / नियत लिङ्ग तथा नियत वचन वाले कुछ अन्य शब्द-(१) नित्य पुं०बहुवचन-दाराः (स्त्री), अक्षता: (चावल), लाजाः (लाई), असवा, प्राणाः (जीवन वाचक)। (२)नित्य स्त्री०बहुवचन-अप्सरसः (अप्सरायें ), आपः (जल), वर्षाः (बरसात), सिकताः (बालू), समाः (वर्ष), सुमनसः (फूल)। (3) नित्य द्विवचन-दम्पती (पति-पत्नी), पितरी (माता-पिता), अश्विनी (दो देव) / इसके साथ क्रिया द्विवचनान्त होती है / (1) नित्य नपुं० एकवचन--(क)द्वय; युगल, युग, मिथुन, दन्तु ये 'दो' अर्थ के बोधक हैं तथा गण, वृन्द, कुल, समूह ये बहुत्व के बोधक हैं परन्तु जिनके साथ ये जुड़ते हैं वे एकवचनान्त होते हैं। जैसेछात्रयम् युगलं वा। (ख) पात्रम्, आस्पदम्, स्थानम्, पदम्, भाजनम्। प्रमाणम्, दुःखम्, भूषणम्, कारणम्, परमम्, बलम् आदि पाद जब कर्म या विधेय के रूप में प्रयुक्त होते हैं तो नपुं० एकवचनान्त होते हैं (उद्देश्य के रूप में प्रयुक्त होने पर अन्य वचनों वाले भी होते हैं)। जैसे—गुणाः पूजास्थानं गुणिषु भवन्ति / यूयं मम स्नेहपात्रम् आस्पदम् वा। भवन्तः पत्र प्रमाणं सन्ति / आशा हि परमं दुःखम् / सा मम् मित्रम् अस्ति / सता सङ्गो हि भेषजम् / (5) संख्यावाचक शब्दों के लिए देखिए, पृ० 111, दि०१ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज्ञा, चाहिए आदि ] 2: अनुवाद उसका उल्लेख नहीं भी किया जाता है (जैसे-४,५)। 30 पुके साथ 'लोट्' लकार का प्रयोग होने पर 'वितर्क' का भाव व्यक्त होता है। जैसे--क्या मैं यह काम करूंकिमहमिदं कर्म करवाणि ? 28. विधि ( कड़ा मादेश), चाहिये,' संभावना आदि अर्थों में 'विधिलिङ' का प्रयोग होता है। 26. कभी-कभी वादेश, आशीर्वाद आदि अनेक अर्थों में लोट्' और 'विधिलिह' दोनों का प्रयोग समानरूप से देखा जाता है। (11) संस्कृतम्प्रवेशिका [पाठ: 6 अभ्यास ५-पया तुम मेरी सब प्रकार से सहायता नहीं करोगे? मनीषा के स्कूल में चार बालिकायें, बीस बालक और तीन अभ्यापिकायें हैं / प्रानार्य कल मेरी कक्षा का निरीक्षण करेंगे। उन्होंने कल आपका बहुत इन्तजार किया / भापके मातापिता कही रहते हैं ? यहाँ पाँच मीठे फल, तीन हरी लतायें, दो लाल पड़े और भाठ सुन्दर फूल हैं / यद्यपि यह बालिका बहुत चतुर है परन्तु पढ़ती कभी-कभी ही है। आज इस स्कूल में अचानक उपद्रव कैसे हो गया ? वाराणसी नगरी बहुत सुन्दर है। तुम्हारा यह कार्य अनुकरणीय होगा / इस नगर का राजा उस गरीब ब्राह्मण को धन देता है। मनीषा अपनी कक्षा में प्रथम रहती है। पाठ 6 : आज्ञा, चाहिए, संभावना और आशीर्वाद / उदाहरण-वाक्य [ 'लोट्' और 'विधिलिङ्' का प्रयोग - 1. तुम पुस्तक पढ़ो = त्वं पुस्तकं पठ। / 2. सत्य मोलो और गुरुओं की सेवा करो-सत्यं वद गुरुम् च शुश्रूषस्य / " 3. वह फूलों को देखे और तुम विद्वज्जनों की सेवा करो- सः पुष्पाणि पश्यतु त्वं च विद्वज्जनान् सेवस्व / 4. मुझे प्रत्युत्तर.दो प्रतिवचनं मे देहि / 5. हे देव ! प्रसन्न होगी और रक्षा करी! हे देव ! प्रसीद, पाहि च / 6. भगवान् सदा तुम्हारी रक्षा करें - भगवान् सदा त्वाम् अवतु / 7. तुम सौ वर्षों तक जियो - त्वं शरदा शतं जीव / प, बाप हरि का भजन करें और उसका फल प्राप्त करें - भवान् हरि भजतु तस्य फलं च लभताम् / 1. उसे पढ़ना चाहिए तथा तुम्हें भोजन करना चाहिये (वह पढ़े और तुम भोजन सरो)- सः पठेत् त्वं च भुक्षीथाः / 10. मैं देशभक्ति से यश प्राप्त कह (मुझे देशभक्ति से यश प्राप्त करना चाहिये) = अहं देशभक्त्या यशः लभेय / 11. वह इस काम को करें और राजा प्रजा की रक्षा करे (उसे यह काम करना चाहिए और राजा को प्रजा की रक्षा करना चाहिए) - सः इदं कर्म कुर्योद (करोतु) राजा च प्रजा रक्षेत् ( रक्षतु.)। 12. शायद वह वाराणसी आये - कदाचित् सः वाराणसीमागच्छेत् / नियम-२७. आज्ञा और आशीर्वाद अर्थ' में 'लोट् लकार का प्रयोग प्रचलित है। माशार्थक वाक्यों में प्रायः म पु० का कर्ता छिपा रहता है। अतः कभी-कभी। 1. यद्यपि आशीर्वाद अर्थ में प्रधान रूप से 'आशीलिङ' का प्रयोग होता है परन्तु / 'लोट् लकार का भी प्रयोग बहुत प्रचलित है (आशिषि लिहलोटो)। १.(क) 'चाहिए' अर्थ में 'तव्यत्', 'अनीयर' आदि प्रत्ययों का भी प्रयोग होता है। (देखिए-पाठ 20) / (ख) कभी-कभी 'अर्हति' (योग्य, समर्थ, उचित होना आदि अर्थ में) क्रिया का भी प्रयोग देखा जाता है / परन्तु ऐसे वाक्यों में अभीष्ट कार्य में 'तुमुन् प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है / जैसे-नमा त्यक्तुमर्हसि त्वम् / न त्वं शोचितुमर्हसि / 2. 'लोट्' और 'विधिलिङ्' का निम्न अर्थों में भी प्रयोग होता है [ विधिनि मन्त्रणामन्त्रणाधीष्टसंप्रधनप्रार्थनेषु लिङ् / लोट् च / ]' (क) विधि (कड़ा आदेश)-मधु मांसं च वर्जयेत् वर्जयतु वा विद्यार्थी (विद्यार्थी की गधु और मांस नहीं खाना चाहिए); संदा धर्मम् आचरतु भाचरेत बा (सदा धर्म का आचरण करना चाहिए)। (ब) निमन्त्रण-अच भवान् इह भूक्ताम् भुजीत वा (माज आप यहाँ भोजन कीजिए)। (ग) ओमन्त्रण-अत्र यथेच्छमागच्छतु आगच्छेत् वा (यहाँ इच्छानुसार बायें)। (घ) अनुरोधमा अध्यापयेत् सध्या पयतु वा भवान् ( आप मुझे पढ़ाने का कष्ट करें)। (ड) जिज्ञासा-फिमहं गच्छानि गच्छेयं वा (क्या मैं जाऊँ)? (च) प्रार्थना-मयि दयां कुरु कुर्याः वा (मुझ पर क्या करें); कि भोजनं लभेय लभ वा (क्या भोजन प्राप्त कर सकता है? (0) आशीर्वाद-आत्मसदृशं भर्तारं लभस्व लभेथाः दा (अपने अनुरूप पति को प्राप्त करो)। (ज) आदर-अत्र उपविशतु उपविशेत् वा श्रीमान् (श्रीमान् यहाँ बैठिए)। (अ) इच्छा-भवान् शीघ्र नीरोगो भवेत् भवतु वा (आप शीघ्र स्वस्थ हो जायें)। (ब) उपदेश-सत्यं ब्रूयात् ब्रवीतु बा, प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् (सच बोलो मधुर बोलो, परन्तु अप्रिय-सत्य न बोलो)। (त) कामचारानुक्षा-अपि आस्व आसीथाः बा, अपि शेष्व शयीषाः वा (तुम चाहो तो बैठो, चाहो तो सोमो)। (थ) शपथ-यो मा दुष्ट इति कथयति तस्य पुत्राः प्रियेरन् (जो मुझे दुष्ट कहता है उसके पुत्र मर जायें। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / संस्कृत-प्रवेशिका [पाठ : 7-8 अभ्यास ६-शायद कल गुरुजी दिल्ली जायें / मुझ गरीब पर दया कीजिए। आप ही बतायें उसे कैसे प्रसन्न करूं? चञ्चला लक्ष्मी की उपासना मत करो / आप सब गुरुजनों को नमस्कार करें। शिव जी आप सब की रक्षा करें। किसी से द्वेष नहीं करना चाहिए / सज्जनों से कभी द्रोह मत करो। सुख अथवा दुःख की प्राप्ति में हर्ष अथवा विषाद नहीं करना चाहिए। जामो, विजय प्राप्त करो। भगवान् राम की जय हो। हे राजन् / मैं आपका और क्या अभीष्ट करूं / आर्या जी, यह भासन है, आप इस पर बैठें। हमेशा सत्संगति करना चाहिए। सदाचारी शिष्यों को गुरुजन समस्त विद्याओं का रहस्य खोल दें। तुम घर जाओ और अध्ययन करो। हे पुत्री ! तुम वीरपुत्र की जननी बनो / गुरुजन व्याकरण शास्त्र पढ़ायें / पाठ 7 : अपूर्ण (वर्तमान-भूत-भविष्यत् ) काल ( Continuous Tenses ) उदाहरण-वाक्य ['शतृ' और 'शानच्' प्रत्ययों का प्रयोग ] 1. वह घर जा रहा है - सः गृहं गच्छन् अस्ति ( गच्छति)। 2. सब लड़कियां पुस्तकें पढ़ रही हैं 3 ताः बालिकाः पुस्तकानि पठन्त्यः सन्ति (पठन्ति)। 3. क्या वह काँप रहा है और तुम सो रही हो कि सः कम्पमानः अस्ति (कम्पते) त्वं च शयाना असि (शेषे)। 4. उन सब के चचल नेत्र क्या देख रहे हैं = तेषां चञ्चलनेत्राणि किं पश्यन्ति सन्ति (पश्यन्ति)? 5. रीता वहाँ सिंह को देख रही है और यहाँ तुम दोनों पढ़ रहे हो - रीता ता सिंहं पश्यन्ती अस्ति (पश्यति) युवा च अत्र पठन्तौ स्थः (पठथः)। 6. तुम कहाँ जा रहे थे = त्वं कुत्र गच्छन् आसीः (अगच्छः)? 7. आप उस समय क्या देख रहे थे भवान् तदानीं किं पश्यन् आसीत् (अपश्यत्)? 8. लड़कियाँ नदी के किनारे जल पी रही थीं = बालिकाः नद्यास्तटे अपः पिबन्त्यः आसन् (अपिबन्)। 6. हम उस समय घर से आ रहे थे% वयं तदानी गहादागच्छन्तः आस्म (आगच्छाम)। 10. हम दोनों सायंकाल खेल रहे होंगे = आवां सायं क्रीडन्ती भविष्यावः, (क्रीडिष्यावः)। 11. परिक्षार्थी उत्तर-पुस्तिकायें लिख रहे होंगे = परीक्षार्थिनः उत्तरपुस्तकानि लिखन्तः भविष्यन्ति (लिखिष्यन्ति)। अपूर्ण काल; 'जाते हुए' आदि] 2 / अनुवाद 12. बालिका पढ़ रही होगी और तुम देख रहे होगे = बालिका पठन्ती भविष्यति _(पठिष्यति ) त्वं च पश्यन् भविष्यसि ( द्रक्ष्यसि ) / नियम-३०. 'पढ़ रहा', 'जा रहा' आदि अपूर्ण-कालिक क्रियाओं का अनुवाद सामान्य काल की ही तरह होता है (देखिए कोष्ठक क्रिया)। कभी-कभी अपूर्णकालिक क्रियाओं का अर्थ प्रकट करने के लिए तदर्थक धातुओं में 'शत' (अत्) और 'शान' (मान-मान) प्रत्ययों का भी प्रयोग किया जाता है। 'शतृ' और 'शान' प्रत्ययान्त शब्द विशेषण होते हैं, अतः उनका लिङ्ग, विभक्ति और वचन अपने विशेष्य के अनुसार होते हैं / कर्ता के पुरुष का इन पर प्रभाव नहीं पड़ता है। 31. 'शतृ-शानच्' प्रत्ययान्त शब्दों के साथ 'अस्' ( सत्ता ) धातु का भी प्रयोग (कर्ता के पुरुष और वचन के अनुसार) होता है। 'अस्' धातु पाली क्रिया ही मुख्य क्रिया होती है और उसका प्रयोग कालानुसार ही होता है। अभ्यास ७-गोपाल स्कूल में पढ़ रहा है। तुम सब यह क्या कर रहे हो? आकाश में बादल गरज रहे हैं। वे दोनों लड़कियाँ मालायें बना रही थीं। गीता देख रही थी और सुशीला गाना गा रही थी। वह रामायण का पाठ कर रहा होगा / वृक्ष के पत्ते झड़ रहे थे। वे सब पत्र लिख रहे होंगे / तुम फल खा रहे थे। राधा सो रही होगी और कृष्णा रेडियो सुन रही होगी / छात्र कक्षा में अध्यापक की प्रतीक्षा कर रहे थे। राधा अथवा श्याम आ रहा होगा। - पाठ 8 : 'जाते हुए', 'सुनते हुए' श्रादि वाक्य उदाहरण-वाक्य [ 'शतृ' और 'शानच्' प्रत्ययों का प्रयोग - 1. राजमार्ग से जाने हुए सुन्दर राजकुमार को देखो राजमार्गेण गच्छन्तं सुन्दरं राजकुमारं पश्य / 2. उपदेश देते हुए अध्यापक ने छात्रों को दण्ड दिया = उपदिशान अध्यापकः छात्रानदण्डयत् / 3. वह मधुबाला को देखते हुए हंसता है = सः मधुबाला पश्यन् हसति / 4. कुछ समय में वह युवक हो जायेगा = गच्छता कालेन : युवकः भविष्यति / 5. मैं देखते हुए और हंसते हुए सुनता है- अहं पश्यन् हसन् च शृणोमि / 6. वह प्रतीक्षा करते हुए बैठी थी = सा प्रतीक्षमाणा अतिष्ठत् / 7. प्रतिदिन बढ़ता हुआ धन उसके ऐश्वर्य का कारण है-प्रतिदिन वर्धमान धनं तस्य ऐश्वर्यस्य कारणम् / 8. मेरे रहते हुए तुम कैसे दुःखी होओगी - ममि सिति / त्वं कथं दुःखिनी भविष्यसि / Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] संस्कृत-प्रदेशिका [पाठ :6. सोते हुए भी विद्वज्जन सब कुछ देखते हैं = शयानाः अपि विद्वज्जनाः सर्व पश्यन्ति / 10. शत्रु के कटु वचनों को सहन करते हुए हम कैसे रहेंगे = शत्रोः कटु वचनानि सहमानाः वयं कथं स्थास्यामः ? नियम-३२. 'जाते हुए', 'सुनते हुए' आदि गौण क्रियाओं का अनुवाद 'शतृ' और 'शान' प्रत्ययों के द्वारा किया जाता है। अभ्यासक-गाड़ी चलाते हुए ड्राइवर से वार्तालाप करना उचित नहीं है। वन में रहते हुये भी राम ने रावण को मार डाला / मैंने कालेज जाते हुए मार्ग में सर्प को देखा / ज्ञान प्राप्त करते हुए वह धीरे-धीरे विद्वान् बन गया। कुछ समय बाद आप वृद्ध हो जायेंगे / बहुत प्रकार के कष्टों को सहते हुए भी सीता प्रसन्न है। ज्ञानमार्ग में वर्तमान रहने पर भी वह भक्तिमार्ग का आश्रय लेगा / क्या सीता ने रावण के यहाँ राम के आगमन की प्रतीक्षा करते हुये समय बिताया? खाना खाते समय बोलना हानिकारक है। कार्य करते हुए वह मेरे वचनों को सुनेगी। पाठ: वाच्य-परिवर्तन ( Change of Voice) सदाहरण-वाक्य [ कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य और भाववाच्य का प्रयोग ] 1. देवदत्त गांव जाता है = देवदत्तः ग्रामं गच्छति (कर्तृ०)। देवदत्तेन ग्रामो गम्यते (कर्म०)। 2. मैं तुम दोनों को देखता हूँ = अहं युवां पश्यामि (कर्तृ०)। मया युवा दृश्येथे (कर्म)। 3. हम सब फल खाते हैं = वयं फलानि खादामः (कर्तृ.)। अस्माभिः फलानि खाधन्ते (कर्म)। 4. आप जो चाहते हैं, वह सब मैं करता है = भवान् यदिच्छति तत् सर्वमहा . करोमि (कर्तृ.)। भवता यदिष्यते तत् सर्व मया क्रियते (कर्म)। 5. सीता पाठशाला में पुस्तक पढ़े 3 सीता पाठशालायां पुस्तकं पठेत् (कर्तृ०)।। सीतया पाठशालायां पुस्तकं पठ्येत् (कर्म)। 6. तुम हंसते हो और वह जोर से रोती है = त्वं हससि, सा च उच्चैः रोदिति (कर्तृ०)। त्वया हस्थते तया च उच्च रुचते (भाव)। 7. हम सब पढ़ते हैं और वे सब सोते हैं = वयं पठामः ते च स्वपन्ति (कर्तृ०)।। अस्माभिः पठ्यते तैः च सुप्यते (भाव०)। 8. वह कूदता है, और तुम काँपते हो = सः कूदते त्वं च कम्पसे (कर्तृ.) तेन कुर्वते त्वया च कम्प्यते (भाव०)।. 6. महेश रोमा था और रीता भी रोयेगी - महेशः अरोदीत्, रीता पापि, 'जाते हुए; वाच्य परिवर्तन] 2: अनुवाद [171 रोदिष्यति (कर्तृ.) / महेशेन अरुद्यत, रीतया चापि रोविष्यते (भाव)। नियम-३३. 'सकर्मक' धातुओं से कर्तृवाच्य (Active Voice) और कर्मवाच्य (Passive Voice) के वाक्य बनते हैं। 'अकर्मक' धातुओं से (देखिये, पृ०.७०, टि०१) कर्तृवाच्य और भाववाच्य ( Impersonal Voice ) के वाक्य बनते हैं। अकर्मक धातुयें कभी-कभी उपसर्ग के लगने पर सकर्मक भी हो जाती हैं। जैसे-सा लज्जामनुभवति / 24. कर्तृवाच्य में कर्ता प्रधान होता है। अतः (क) क्रिया के पुरुष, वचन भावि (कृदन्त किया का लिङ्ग) कर्ता के अनुसार होते हैं। (ख) का में प्रथमा विभक्ति होती है। (ग) कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। (घ) धातुओं के सभी मूल रूप कर्तृवाच्य में ही होते हैं। 'कर्तरि प्रत्यये जाते प्रथमा कर्तृकारके / द्वितीयान्तं च कर्म स्यात् कर्वधीनं क्रियापदम् // ' 25. कर्मवाच्य में कर्म प्रधान होता है। अतः (क) क्रिया के पुरुष, वचन आदि कर्म के अनुसार होते हैं। (ख) का में तृतीया विभक्ति होती है। (ग) कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है (घ) शेष अन्य सभी कारक कर्तृवाच्य की ही तरह होते है। (छ) कर्मवाच्य की क्रिया सार्वधातुक लकारों में 'य' प्रत्यय जोड़कर बनाई जाती है और उसके रूप केवल आत्मनेपद में ही चलते हैं। (जैसेलिख्+य+ते लिख्यते / 'कर्मणि प्रत्यये जाते तृतीया कर्तृकारके / प्रथमान्तं च कर्म स्यात् कर्माधीनं क्रियापदम् / / ' 36. भाववाच्य में भाव प्रधान होता है। अतः (क) क्रिया प्र० पु० एकवचन में ही होती है / (ख) कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है / (ग) कर्म का अभाव रहता है। (घ) भाववाच्य की क्रिया बनाने की प्रक्रिया कर्मवाच्य की क्रिया की (प्रक्रिया की तरह ही है (जैसे---भू+य+ते = भूयते)। "कर्माभावः सदा भावे तृतीया चैव कर्तरि / प्रथमः पुरुषश्चकवचनच त्रियापदे / / ' नोट-वाच्य-परिवर्तन में कर्ता, कर्म और क्रिया पर ही असर पड़ता है, शेष वाक्यांश अपरिवर्तित रहता है। अभ्यास-बह ग्रन्थ पढ़ता है और राधा खेलती है। समता अथवा गीता 1. क्रिया में जो 'तिप्' आदि प्रत्यय जुड़ते हैं वे कत्ता, कर्म या भाव में होते हैं / अतः जब किया में प्रयुक्त 'तिप्' आदि प्रत्ययों के द्वारा कर्ता उक्त होता है तब कर्ता की प्रधानता होती है और वहाँ कर्ता में प्रातिपादिकार्थ से प्रथमा होती है। इसी प्रकार जब कर्म उक्त होता है तब कर्म प्रधान होता है और वहाँ कर्म में प्रातिपदिकार्य से प्रथमा होती है। भाव उक्त होने पर भाव प्रधान होता है। सी भाभार पर वाच्य के तीन भेद किये जाते हैं / Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // / 172] संस्कृत-प्रवेशिका [पाठ : 10-11 गाना गा रही है। पिता ने पुत्र से कहा ! मेरे द्वारा पात्रु जीते जाते हैं। राम ने रावण को मारा और सीता की रक्षा की। सूर्य से जगत् प्रकाशित होता है / ईश्वर ने इस संसार को रचा। उसके द्वारा पुस्तकें लाई जायें। अध्यापकों ने पुस्तकें पढ़ाई। तुमने फल खाया। वे दोनों स्कूल जाते हैं। क्या तुमने पुस्तकें लिखी हैं ? गीता बाजार नहीं जा रही है। हम दोनों ने यह रेडियो बनाया है। आप जो चाहते हैं वह सब मैं करता हूँ / संदीप ने स्कूल में पुरस्कार प्राप्त किया। पाठ 10: भूतकालिक वाक्य उदाहरण-धाक्य ['क्त' और 'क्तवतु' प्रत्ययों का प्रयोग ] 1. ये सभी बालक घर गए = ते सर्वे बालकाः गृहम् अगच्छन् (कर्तृ०)।तः सर्वः बालकः गृहमगम्यत (कर्म) / ते सर्वे बालकाः गहं गतवन्तः (कर्तृ.)। तः सर्वैः बालकः गृहं गतम् ( कर्म०)। ते सर्व बालकाः गृहं गच्छन्ति स्म (कर्तृ.)।तैः सर्वेः बालकः गृहं गम्यते स्म (कर्म)। 2. बालिकाओं ने फल खाया = बालिकाः फलमभुजत (कर्तृ०)। बालिकाः फलं भुक्तवत्यः (कर्तृ.) / बालिकाभिः फलं भुक्तम् (कर्म)। 3. मैंने पुस्तकें पड़ी = महं पुस्तकानि अफ्ठम् / मया पुस्तकानि अपठचन्त / अहं पुस्तकानि पठितवान् / मया पुस्तकानि पठितानि / 4. राजपुरुषों ने नगरी की रक्षा की = राजपुरुषाः नगरीम् अरक्षन् / राजपुरुषाः नगरी रक्षितवन्तः / राजपुरुषः नगरी रक्षिता। 5. कुम्भकार ने पड़ा बनाया = कुम्भकार: घटम् अरचयत् / कुम्भकारः घटं रचितवान् / कुम्भकारेण घटः रचितः / 6. मैं हंसा और वह सोया = अहम् अहसम्, सः च अस्वपीत् (स्वपिति स्म)। अहं हसितवान् सः च सुप्तवान् / मया हसितं तेन च सुप्तम् / 7. वन में गए हुए राम ने ऋषियों को प्रणाम किया - वनं गतः रामः ऋषीन प्राणमत् / वनं गतः रामः ऋषीन् प्रणतवान् / वनं गतेन रामेण ऋषयः प्रणमिता। 6. पढ़ी हुई पुस्तकें लाओ= पठितानि पुस्तकानि आनय / / 6. बाये हुए (खा लेने पर ) उसने कार्य किया = भुक्तवता तेन कार्य कृतम् / / 10. उसके खा लेने पर वह आया = भुक्तवति तस्मिन् सः आगतवान् / नियम-३६. सामान्य भूतकाल के लिए कर्मवाच्य में 'क्त' और कर्तृवाच्य में 'क्तवतु' प्रत्ययों का प्रयोग होता है। 37. 'क्त' प्रत्ययान्त (कर्मवाच्य की) क्रियाओं का लिङ्ग और वचन कर्म के अनुसार तथा 'क्तवतु' प्रत्ययान्त (कर्तृवाच्य की) क्रियाओं का लिङ्ग और वचन कर्ता भूतकाला पूर्ण काल] 2: अनुवाद [ 173 के अनुसार होता है। भाववाच्य में 'क्त' प्रत्यय होने पर 'क्त' प्रत्ययान्त क्रिया नपुं० एकवचन में ही होगी। पुरुष का 'क्त' और 'क्तवतु' प्रत्ययान्त क्रियाओं पर कोई असर नहीं पड़ता है। 38. 'क्त' और 'क्तवत् प्रत्ययों का प्रयोग विशेषण के रूप में भी किया जाता है। ऐसी स्थिति में इनके लिङ्ग, विभक्ति और वचन अपने-अपने विशेष्य के अनुसार होते हैं / (7-10) 36. ऐसे वाक्यों में यदि एक क्रिया के होने पर दूसरी क्रिया का होना पाया जाये तो पहले होने वाली (कृदन्त) क्रिया में तथा कर्तृवाच्य के कर्ता अथवा कर्मवाच्य के कर्म में सप्तमी होती है। (10) अभ्यास १०-मोहन ने श्याम को बन्दूक से मारा। उन कन्याओं ने बगीचे के दो फूल तोड़े। राम, सीता और लक्ष्मण बन गये। क्या गीता मे पुस्तकें नहीं पढ़ीं ? लिखी हुई उत्तर-पुस्तिकायें ले जाओ। बालिका ने जल पिया और सो गई। श्याम ने पढ़ी हुई पुस्तकें पुनः पढ़ीं। लेखक के यहाँ से लाई हई पुस्तकं पढ़ो। भोजन किए हुए बालक को दूध दो / मनीषा और रीता ने इनाम में प्राप्त सभी धन स्कूल को दान में दे दिया। पाठ 11 : पूर्ण वर्तमान-भूत-भविष्यत् काल ( Perfect Tenses ) उदाहरण-वाक्य ['क्त' और 'क्तवतु' प्रत्ययों का प्रयोग.१. (क) वह पुस्तक पढ़ चुका है = सः पुस्तकं पठितवान् [अस्ति] (कर्तृ०)। (ख) उसने पुस्तक पढ़ ली है - तेन पुस्तकं पठितम् [अस्ति] (कर्म)। 2. मैं काम कर चुका हूँ = अहं कार्य कृतवान् [ अस्मि ] | 3. सीता ने कथा सुन ली है = सीता कथां श्रुतवती [ अस्ति / 4. क्या तुम दोनों घर जा चुके हो = कि युवा गृहं गतवन्तौ [स्तः ] / 5. मेरे पहुँचने के पूर्व ही चोर भाग गये थे = मम आगमनात् पूर्वमेव तस्कराः (चौराः) पलायितवन्तः [ आसन् ] / 6: अध्यापक के जाने के पहले ही बालिकायें जा चुकी थीं = अध्यापकस्य . गमनात् पूर्वमेव बालिकाः गतवत्यः [ आसन् ] / 7. क्या पांच बजने के पूर्व ही मैं जाग चुका था = कि पञ्चवादनात प्रागेव अहं प्रबुद्धवान् [आसम् / 8. रात होने से पहले ही बालिकाएँ घर पहुंच चुकी होंगी रातः प्रागेम बालिकाः गृहम् आगतवत्यः भविष्यति / Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 ] संस्कृत-प्रवेशिका [पाठ : 11-12 6. क्या तुम्हारे जागने के पूर्व वह पुस्तक नहीं पढ़ चुकेगा = किं तव जागरणात् . पूर्व सः पुस्तक न पठितवान् भविष्यति / 10. तुम्हारे स्टेशन पहुंचने से पहले रेलगाड़ी आ चुकी होगी - तव वाष्पयान विरामस्थलमागमनात् प्राक् वाष्पयानम् आगतवत् भविष्यति / नियम-४०. 'कर चुका' आदि पूर्णकाल की क्रिया का अर्थ प्रकट करने के लिए कर्तृवाच्य में 'क्तवतु' प्रत्ययान्त गौण क्रिया का कर्ता के लिङ्ग और वचन के अनुसार प्रयोग होगा। 41. क्तवतु' प्रत्ययान्त क्रिया के साथ 'अस्' धातु वाली मुख्य-किया का भी प्रयोग कर्ता के पुरुष और वचन के अनुसार होगा। ऐसे वाक्यों के प्रयोग में प्रायः 'अस्' धातुवाली क्रिया का प्रयोग नहीं भी होता है / 42. कर्मवाच्य में 'क्त' प्रत्ययान्त क्रिया होगी परन्तु 'अस्' धातु की क्रिया कर्तृवाच्य के समान ही होगी। (1) अभ्यास 11- रमेश और नीलिमा ने अपना काम पूर्ण कर लिया है। आपने और मैंने तब तक काम पूरा कर लिया होगा। उसने ऐसा कार्य क्यों किया है ? क्या वह स्कूल बन्द हो चुका है? मेरे पहुँचने के पहले श्याम खाना खा चुका था। तीन बजने के पूर्व रेलगाड़ी छुट चुकी थी। क्या मेरे आने से पहले तुम अपना कार्य समाप्त कर चुके होगे? तुम्हारे कहने से पहले ही मेरा मित्र पत्रों को लिख चुका होगा / वर्षा होने से पहले तुम सब पर पहुँच चुके होगे / पुलिस के पहुँचने से बहुत पहले चोर भाग चुके होंगे / सूर्योदय से पहले ही वह स्नान कर चुकी होगी। ___ पाठ 12 : पूर्णापूर्ण वर्तमान-भूत-भविष्यत् काल ( Perfect Continuous Tenses) उदाहरण-वाक्य [ 'शतृ' और 'शानच्' प्रत्ययों का प्रयोग ]1. मैं गत दिन से यहाँ कार्य कर रहा हूँ = अहं विगतदिवसाय् अत्र कार्य कुर्वन् अस्मि / 2. तुम कितने समय से कांप रहे हो = त्वं कियत्कालान् कम्पमानः असि ? 3. वह बुधवार से खेल रही है = सा बुधवासरा क्रीडन्ती अस्ति / 4. मैं आठ बजे से यह सब सहन कर रहा हूँ - अहम् अष्टवादनसमयाद इदं सर्व सहमानः अस्मि / 5. तुम कल सायंकाल दो घंटे तक पढ़ते रहे थे त्वं यः सायं घंटाद्वय पर्यन्तं पठन् आसीः / पूर्णकाल; पूर्णापूर्णकाल ] 2: अनुवाद [175 6. मैं एक सप्ताह तक गीता पढ़ता रहा था = अहम् एकसप्तरहपर्यन्तं गीतां पठन् आसम् / 7. बालिकाएं चार दिन तक सेवा करती रही थीं - बालिकाः दिनच जुष्टय पर्यन्तं सेवमानाः आसन् / 8. क्या रीता और गीता गत दिन से तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर रही होंगी = किं रीतागीते गतदिवसात् तव प्रतीक्षां न कुर्वत्यो भविष्यतः / 9. तुम्हारा मित्र दो घंटे से और राम दो बजे से खेल रहे होंगे = तब मित्रं घंटातयकालात् रामः द्विवादनकालाच्च कीडन्ती भविष्यतः / नियम-४२. पूर्णापूर्ण (जब किसी समय से किसी काम का लगातार होता रहना पाया जाये ) वर्तमान-भूत-भविष्यत् काल में अपूर्ण (वर्तमान-भूत-भविष्यत् ) काल की तरह 'शतृ' अथवा 'शानच्' प्रत्ययों का तथा 'अस्' धातु की क्रिया का प्रयोग किया जाता है। 44. वर्तमान और भविष्यत् काल के समय-वाचक (जब से काम प्रारम्भ हो) शब्दों में पञ्चमी विभक्ति होती है। 45. भूतकाल के समयवाचक शब्दों में 'पर्यन्तम्' पद जोड़ दिया जाता है। अभ्यास १२-वह सुबह से क्या कर रही है ? मैं पांच घंटे से पढ़ रहा हूँ। तुम इस विद्यालय में कितने समय से पढ़ा रहे हो? वे दोपहर से आपका इन्तजार कर रहे हैं / इस वर्ष 15 जुलाई से लगातार वर्षा हो रही है। क्या वह तीन घण्टे से कोई कार्य नहीं कर रहा है? तुम एक घंटे से इस कमरे में क्या कर रहे थे? वह चार साल से कठिन परिश्रम कर रहा था। वे चार दिनों तक लगातार पढ़ती रही थीं। अध्यापक आठ घंटे से पढ़ा रहे होंगे ! क्या आज छात्र कुलपति जी से दो बजे से बहस कर रहे होंगे? वे दोनों सोमवार से यात्रा कर रहे होंगे। पाठ 13 : कर्तृ-कर्म कारक उदाहरण-वाक्य [ प्रथमा और द्वितीया विभक्तियों का प्रयोग ] १.मैं ग्रन्थ पढ़ता है = ग्रन्थमहं पठामि (कर्तृ०)। ग्रन्थः मया पठचते (कर्म)। 2. वे वन में जाते हैं और वह पञ्चत्व को प्राप्त होता है = ते वनं गच्छन्ति सच पञ्चत्वं याति / 3. हे राम! यहाँ माम और नारियल के फल हैं = हे राम ! अत्र -आम्रफलानि नारिकेलफलानि च सन्ति / 4. यह मेरा ग्रन्थ है, ऐसा समझो = अयं मम ग्रन्थ इति जानीहि / 5. वह एक मास तक पढ़ता है और मैं एक कोश तक चलता हूँ - सः मासमेकं पठति अहं च क्रोशमेकं गच्छामि / 6. वह गुरु को नमस्कार करता है - सः गुरुं नमति (सः गुरवे नमस्मरीति)। 7. हरि वैकुण्ठ में सोते हैं = हरिः वैकुण्ठमधिशेते (अधितिष्ठति, मध्यापते मा)। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] संस्कृत-प्रवेशिका [ पाठ : 13-14 8. घर के चारों ओर बालक खेलते हैं - गृहमभितः बालकाः क्रीडन्ति / 6. राग के बिना जीवन को धिक्कार है % रामं बिना जीवनं धिक् / 10. गोपाल गाय से दूध दुहता है और श्याम बकरी को गाँव ले जाता है - गोपालः गां पयः दोग्धि श्यामश्च अजां ग्रामं नयति (कर्तृ०)। गोपालेन गौः पयः दुह्यते श्यामेन च अजा ग्रामं नीयते (कर्म)। 11. मैं तुम्हें तिनके के भी बराबर नहीं मानता है % अहं त्वां तृणं न मन्ये / नियम-४६. निम्नोक्त स्थलों में प्रथमा विभक्ति होती है (देखिए, पृ० ६५-६७)(क) कर्तृवाच्य के कर्ता में। (ख) कर्मवाच्य के कर्म में / (ग) वस्तु, ग्रन्थादि का नामनिर्देश करने में / (घ) 'इति' शब्द के योग में / () सम्बोधन में। 47. निम्नोक्त स्थलों में द्वितीया विभक्ति होती है ( देखिए, पृ०६७-६२)(क) कर्तृवाव्य के कर्म में / (ख) क्रिया के लगातार होने पर समय और दूरी वाचक शब्दों में। (ग) जब अनादर दिखाना हो तो 'मन्' धातु के कर्म में / (घ) अधि + शी, अषि + स्था, अधि + आस्, अभि + नि + विश्, उप + बस्, अनु + वस्, अधि + वस् और आ + वस् इन धातुओं के आधार में / (ङ) अभितः, परितः, सर्वतः, उभयतः, समया, निकषा, हा, प्रति, धिक, उपर्युपरि, अधोऽधः, अध्यधि, अन्तरा और अन्तरेण ये अव्यय जिसके साथ आयें, उसमें / (च) गमनार्थक धातुओं के योग होने पर गमन के उद्देश्य में। (छ) विना के योग में / (ज) [कर्तृवाच्य में] दुह, याच आदि द्विकर्मक धातुओं के योग होने पर मुख्य कर्म के साथ-साथ गौण कर्म में (यदि वक्ता की इच्छा हो)। (झ) [ कर्मवाच्य में ] दुहादि 12 धातुओं का गौण कर्म तथा 'नी' आदि 4 धानुओं का मुख्य कर्म प्रथमा में [तदितर द्वितीया में ] होगा। अभ्यास १३-वह मन्दिर गया। आम, घड़ा और फूल यहाँ रखो। हे देवदत! यहाँ गाँव के चारों ओर उपवन हैं। सिंह वन में रहता है और गुफा में सोता है। मुझे विद्यार्थी जानो / कृष्ण के चारों ओर भक्तगण हैं। वे सब बन में विचरण करते हैं / क्या राम की उपासना के बिना भी जीवन है? वह तीन दिन से काम कर रहा है। मैं उसे राजा जानता हूँ। वे सब स्वर्ग गये। पाचक चावलों से भात 'पकाता है। गांव के निकट विद्यालय है। राजा चोर को दण्ड देता है। ज्ञाम के बिना सुख कहाँ ? आपके अलावा और कोन बदला ले सकता है ? विद्यार्थी अध्यापक के चारों ओर खड़े-खड़े बातें कर रहे थे। दोनों पर दया करो। पाठ १४:करण कारक सदाहरण-वाक्य [ तृतीया विभक्ति का प्रयोग ]1. वह बालयों के साथ रथ से आता है = सः रथेन बालकः सह आगच्छति (कर्तृ०) तेन रथेन बालकः सह आगम्यते (कम)। कर्तृ-कर्म-करण कारक] 2: अनुवाद [177 2. आँख से काना और पैर से लंगड़ा देवदत्त गाँव जाता है - नेत्रण काणः पादेन च खजः देवदत्तः ग्रामं गच्छति ( कर्तृ.)। नेत्रेण काणेन पादेन च खगेन देवदत्तेन प्रामो गम्यते (कर्म)। 3. वह होता है = सः भवति ( कर्तृ.) / तेन भूयते (भाव० ) / . 4. वह चक्षु से राम को देखता है % सः चक्षुषा रामं पश्यति / 5. उसने एक मास में ग्रन्थ को पढ़ा- समासेन ग्रन्थम् अधीतवान् / 6. राम स्वभाव से सज्जन है परन्तु वह कष्टपूर्वक जीता है = रामः प्रकृत्या साधुः परन्तु सः कष्टेन जीवति / 7. तुम जटाबों से तपस्वी और शिखा से हिन्दू लगते हो त्वं जटाभिः तापसः शिखया च हिन्दुः प्रतीयसे / 8. बह अध्ययन के लिए काशी में रहती है - सा अध्ययनेन काश्या वसति / 6. बुद्धि विद्या से बढ़ती है - बुद्धिः विद्यया वर्धते / १०.ज्ञान के बिना सब कुछ शून्य है = ज्ञानेन (शान ) विना सर्व शून्यम् / 11. झगड़ा मत करो, दुर्जन से आपको क्या प्रयोजन = अलं विवादेन, दुर्जनेन भवता प्रयोजनं किम् ? 12. वह ऐश्वयं में देवताओं से बढ़कर है = सः ऐश्वर्यण देवान् अतिशेते / 13. महेश रूप में सीता के समान और गुणों में राम के समान है = महेशः रूपेण (आकृत्या ) सीतया समः गुणैश्च रामेण सदृशः / 14. मैं अपने पुत्र की तथा अपने जीवन की कसम खाता है - अहं स्वपुत्रेण स्वजीवितेन च शपामि / 15. यज्ञदत्त किस मार्ग से और किस दिशा से गया है- यशदत्तः केन मार्गण कया दिशा च गतः? 16. मूखों को उपदेश देना केवल उनका क्रोध बढ़ाना है, शान्ति के लिए नहीं = उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये / नियम ४-निम्नोक्त स्थलों में तृतीया विभक्ति होती है (देखिए, पृ०७२-७४)(क) कर्मवाच्य के कर्ता में। (ख) भाववाच्य के कर्ता में। (ग) करण (साधकतम कारण) में। (प) सहार्थक (सह, साधन, साकम, समम् ) शब्दों के योग में जिसका साथ बतलाया जाए, उसमें। (5) जिस विकृत अङ्ग से अङ्गी में विकार मालूम पड़े उस अङ्ग-वाचक शब्द में। (च) जब निश्चित समय में कार्य-सिद्धि 12 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 ] संस्कृत-प्रवेशिका [पाठ: 15 बतलाई जाये तो काल और दूरी-वाचक शब्दों में। (छ) प्रकृति आदि (नाम', गोत्र आदि ) शब्दों में (यदि उनसे किसी के स्वभाव मादि का ज्ञान ही)। (ज) जिस चिह्न से किसी का बोध हो उस चिह्न में। (झ) कारण-बोधक शब्दों में यदि हेतु शब्द का प्रयोग न हो। (ब) पृथक्, विना और तुल्यार्थक शब्दों के योग में (द्वितीया और पञ्चमी भी)। (4) अलम् (बस, मत), कृतम् (निषेध), किम, कार्यम्, अर्थः, प्रयोजनम् (प्रयोजन भर्य होने पर) के योग में / () जिस गुण या दुर्गुण की दृष्टि से किसी को बढ़कर बतलाया जाये उसमें / (ड) जिसके सदृश बतलाया जाये उसमें / (ढ) शपथ खाने में (जिसकी शपथ खाई जाए)। (ण) जिस मार्ग या दिशा से जाना बतलाया जाए, उसमें / अभ्यास १५-स्वर्णकार सोने से गहने बनाता है। कुली शिर पर सामान ढोता है। राम जानकी के साथ बन जाते हैं। गाय का दूध स्वभाव से मीठा और सुपाच्य होता है / व्यापार के निमित्त से मोहन प्रयाग में रहता है। क्या तुम शपथ खाकर कहते हो कि सुरेश ने चोरी की है ? मूर्ख शिष्य से क्या प्रयोजन ? तुम्हें सज्जनों के साथ रहना चाहिए, दुर्जनों के साथ कभी नहीं / अस्त्र पीड़ितों की रक्षा के लिए होता है, न कि निर्दोषों को पीड़ित करने के लिए। छात्र रेल से कानपुर गये / ऐसे पुत्र के उत्पन्न होने से क्या जो न विद्वान् हो और न धार्मिक ही। वेशभूषा से वह योद्धा प्रतीत होता है / वह आंख से अन्धा है, अतः गिर गया है। केवल मनोरथ से धन प्राप्त नहीं होता है, कुशलता से प्राप्त होता है। सम्प्रदान कारक] 2 : अनुवाद 7. संजय उसे रहस्य की बात कहता है और वह उसे धर्म का उपदेश देता है = संजयः तस्मै रहस्यं कथयति सः च तस्मै धर्म शंसत्ति उपदिशति वा / 6. देवदत्त राम के सौ रुपयों का ऋणी है = देवदत्तः रामाय शतं धारयति / 6. मैं देशरक्षा के लिए प्राणत्याग करूंगा = अहं देशरक्षाय प्राणत्यागं ___ करिष्यामि। 10. शिष्य गुरु को प्रणाम करके पढ़ने के लिए जाता है = शिष्यः गुरुं प्रणम्य पठनाय (पठितुं) याति / 11. वह गुरु से भोजन के लिए निवेदन करता है = सः गुरवे भोजनाय ( भोज नार्थम्, भोजनस्य कृते) निवेदयति / नियम-४६. निम्नोक्त स्थलों में चतुर्थी विभक्ति होती है (देखिए, पृ०७४-७६) (क) सम्प्रदान कारक में। (ख) नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलम् (पर्याप्त ) और वषट् इन शब्दों के योग में (जिसे नमस्कार आदि किया जाये)। (ग) आयुष्य, मद्र (हर्ष), भद्र, कुशल, सुख, अर्थ और हित शब्दों के योग में (यदि आशीर्वाद के अर्थ में इनका प्रयोग हो, तो) जिसे आशीर्वाद दिया जाए, उसमें / (घ) स्वागत शब्द के योग में जिसका स्वागत किया जाए, उसमें / (ङ) 'तुमुन्' का अर्थ छिपा रहने पर उसके कर्म में। (च) जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य किया जाए, उसमें। (छ) निम्न धातुओं के योग में-(१) कुष, दूह, ईष्र्ण्य और असूय (जिस पर क्रोधादि किया जाए); (2) स्पृह (जिसे चाहा जाए); (3) रुच् या रुच्यर्थक (जो प्रसन्न हो); (4) कथ्, ख्या, शंस्, चक्ष, नि + विद् (णिजन्त) तथा तदर्थक (जिसको लक्ष्य करके कुछ कहा जाए); (५)[णिजन्त 'धू' ] चारि (जिससे ऋण लिया जाएं) और (६)प्रणिपत, प्रणम् (जिसे प्रणाम किया जाए, उसमें द्वितीया भी)। 50. चतुर्थी के स्थान पर कभी-कभी 'अर्थम्' और 'कृते' का भी प्रयोग होता है। 'अर्थम्' शब्द समस्तरूम में प्रयुक्त होता है और 'कृते' के योग में षष्ठी होती है / (11). अभ्यास १५-विष्णु को भक्ति अच्छी लगती है। विद्यार्थी परीक्षा पास करने के लिए पढ़ते हैं। यह समाचार गुरु जी से निवेदन कर दें / तुम मुझसे क्यों ईर्ष्या करते हो? तुम मेरे पच्चीस रुपयों के ऋणी हो / गुरु जी को प्रसन्न करने के लिए सोहन उन्हें द्रव्य देता है। बालक दूध के लिए रोता था। रोगी को दवा दे दो। सज्जनों का जीवन परोपकार के लिए होता है / मुझे धन की स्पृहा नहीं है, केवल ज्ञान प्राप्त करना मेरा लक्ष्य है। पाठ 15: सम्प्रदान कारक उदाहरण-वाक्य [ चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग - 1. किस शिष्य के लिए ज्ञान देते हो = कस्मै शिष्याय ज्ञानं वितरसि ? 2. राजा को नमस्कार हो = राज्ञे नमः / / 3. देवी का स्वागत है, मेरा कुशल हो और प्रजा का कल्याण हो = स्वागतं देव्यै ( देव्याः), मह्यं (मम) कुशलं भूयात्, प्रजाभ्यः च स्वस्ति / 4. तुम मूर्ख पर क्रोध करते ही और भोगों की स्पृहा = त्वं मूर्खाय क्रुध्यसि भोगेभ्यः स्पृहयसि च / 5. मुले अध्ययन अच्छा लगता है = मह्यम् अध्ययन रोचते / / 6. हरि दैत्यों के लिये और आप शत्रुओं के लिए पर्याप्त हैं = हरिः दैत्येभ्यः ___ अलम् (प्रभुः, समर्थः, शक्तः), भवान् शत्रुभ्यश्च / 1. 'नाम' शब्द के साथ अन्य प्रयोग-अस्ति वाराणसी नाम नगरम् / तत्र घनदत्तो नाम राणा / असी रामनामा बालकः / तस्य भार्यां मनोरमा नाम्नी / Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18.] संस्कृत-प्रवेशिका [पाठ:१६-१७ अपादान, सम्बन्ध] 2: नुवाद पाठ 16 : अपादान कारक सदाहरण-वाक्य [पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग - 1. उस महल से बालक गिरा = तस्मात् प्रासादात् बालकः अपतत् / 2. वह सिंह से बालक की रक्षा करती है - सा बालक सिंहाव त्रायते / 2. वह अपने पुत्र को पाप से हटाता है-सः स्वपुत्रं पापान्निवारयति / 4. वह अध्यापक से पढ़ता है- सः अध्यापकात् पठति / 5. हिमालय से गङ्गा निकलती है - हिमालयात् गङ्गा प्रभवति / 6. श्याम से राम चतुर है-श्यामात् रामः पटुतरः। 7. बाल्यावस्था से लेकर आज भी देवदत्त गाँव के बाहर उद्यान के पूर्व में रहता है = आशंशवात् देवदत्तः प्रामावहिरुद्यानात् पूर्वमधितिष्ठति / 5. ज्ञान के विना मोक्ष नहीं मिलता है = ज्ञानाद ऋते न मोक्षः / 1. वह चोर से नहीं डरता है सः चौराद्न बिभेति / 10. देवदत्त पाप से घृणा करता है - देवदत्तः पापाज्जुगुप्सते / 11. वैश्य तिलों से उड़द को बदलता है - वैश्यः तिलेभ्यः माषान् प्रतियच्छति / 12. चोर शासक से छिपता है - चौरः शासकात् निलीयते / 13. यह छात्र अध्ययन से घबड़ाता है परन्तु शत्रुओं को हराता है - अयं छात्रः अध्ययनात् पराजयते परन्तु शत्रून् पराजयते / 14. पर्वत आग वाला है, धूमवाला होने से = पर्वतो वह्निमान् घूमात् / नियम ५१-निम्न स्थलों में पञ्चमी विभक्ति होती है (देखिए, पृ० ७६-७९)(क) अपादान कारक में। (ब) जिससे भय हो या रक्षा की जाए। (ग) जिससे किसी को हटाया जाए। (ब) जिससे नियमपूर्वक विद्या सीखी जाए। (ज) जिससे या जहां से कोई वस्तु पैदा हो। (च) दो वस्तुओं की तुलना में जिससे तुलना की जाए। (छ) तर्क (अनुमान वाक्य) के हेतु में। (ज) जिससे जुगुप्सा (घृणा); विराम (रुकना), प्रमाद (किसी बात से हटना) हो। (स) 'पराजयते' ( असा अर्थ में) के योग में, जो असह्य हो / (ब) 'आ' उपसर्ग ( तक अर्थ में ), प्रभृति, आरभ्य, बहिः, अनन्तरम् , परम्, अवंम् , अन्य, आरात् (दूर और समीप); इतर, ऋते, और दिशावाची (पूर्व, उत्तरः आदि) शब्दों के साथ। (ट) छिपने की क्रिया में जिससे छिपा या बचा जाए। (ठ) 'प्रतियच्छति' (बदलना अर्थ में ) के योग में, जिससे बदला जाए। अभ्यास १६-रमेश को इस स्कूल से पृथक् मत करो। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक भारत का विस्तार है। एक समान होने पर भी गौ से गवय भिन्न है। क्या अध्यापक से छात्र छुपता है? धन से ज्ञान श्रेष्ठ है। भारतवासी शत्रु से नहीं करते हैं। सेवक बालक को आग से हटाता है। दुष्टों से हमें भय नहीं है। वह पुस्तक के बदले रुपया देता है। क्या तुम पेड़ से नहीं गिरे? सच्चा मित्र वही है जो अपने मित्र को दुष्कर्म से हटाकर सत्कर्म में प्रवृत्त कराये। बीज से अङ्कर पैदा होता है। पूर्व दिशा से सूर्य का उदय होता है / पाठ 17 : सम्बन्धार्थ सदाहरण-वाक्य [ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग ]1. यह राम की पुस्तक है और यह उसका विचार है - रामस्य पुस्तकमिदम् अयञ्च तस्य विचारः। 2. क्या राम धन के निमित्त से काशी में रहता है % किं धनस्य हेतोः काश्यां वसति रामः? 3. वह किस निमित्त से पढ़ता है - कस्य हेतोः सः पठति ? 4. कवियों में कालिदास श्रेष्ठ है = कवीनां कविषु वा कालिदासः श्रेष्ठः / 5. तुम्हारे और मेरे में यही अन्तर है = अयमेव आवयोविशेषः / 6. मुझे भी पुण्य करना चाहिए = ममापि ( मयापि ) पुण्यं कर्तव्यम् / 7. गीता आयुष्मती हो% गीतायाः बायुष्यं भूयात् / स, अध्ययन के पश्चात् वह पिता के सामने वृक्ष के नीचे बैठा है: पितुः पुरः सः वृक्षस्याघोऽध्ययनानन्तरं तिष्ठति / 9. गाँव से दूर अथवा वृक्ष के समीप जामो = प्रामस्य दूरं (पूरे) वृक्षस्य निकट वा गच्छ / 10. वह माता को ( दुःखपूर्वक ) स्मरण करता है = मातुः स्मरति सः। 11. वह दिन में तीन बार खाता है = सः दिवसस्य त्रिभुङ्क्ते / 12. तुम्हारे लिए, मैं सब प्रकार का कष्ट सहने को तैयार हूँ तब कृते सर्व विधं कष्टं सोढुमुद्यतोऽस्मि / 13. मेरे सामने ही उसने उसे पीटा = मम समक्षमेव तेन सः ताडितः / 14. संजय देवदत्त के तुल्य है परन्तु अभिषेक की उपमा नहीं है = संजयः देवदत्तस्य (देवदत्तेन) तुल्यः (समः) परन्तु नास्ति उपमा अभिषेकस्य / Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [पाठ : 17-18 15. शिष्य गुरु का अनुकरण करता है - गुरोः (गुरुम्) अनुकरोति शिष्यः / 16. उसे इस नगर से गये हुए आज तीसरा महीना है = अस्मात् नगराद् गतस्य तस्य इदानीं तृतीयो मासः / 17. संदीप के पाण्डित्य से तुम अनभिज्ञ हो-संदीपस्य पाण्डित्यस्य (पाण्डित्ये)अन भिज्ञोऽसि त्वम् / 18. जगत् का कर्ता ब्रह्मा है = अस्ति जगतः कर्ता ब्रह्मा / 16. यह कृष्ण की कृति है - कृष्णस्य कृतिरियम् / 20. मेरा सोना और राम का जाना आकस्मिक है = मम शयनं रामस्य च गमनमाकस्मिकम् / सम्बन्ध, अधिकरण] 2: अनुवाद [183 के लिए कौन सा विदेश है और प्रियवादियों के लिए कौन पराया है ? जिसके पास स्वयं बुद्धि नहीं है उसे कैसे ज्ञान दें? मित्र मनीष ! यह तुम्हारे योग्य नहीं है / मोर का नृत्य किसे प्रिय नहीं है ? गुरुजनों के सामने छात्रों को मिथ्या नहीं बोलना चाहिए / गुरु और शिष्य में उतना ही अन्तर है जितना भगवान् और भक्त में / नदी के पुल के ऊपर और नीचे जल ही जल है। नियम ५२-निम्न स्थलों में षष्ठी विभक्ति होती है (देखिए, पृ०७६-८१)(क) जिससे सम्बन्ध बतलाया जाए। (ख) हेतु, कारण आदि शब्दों के प्रयोग होने पर हेतु और हेत्वर्थ में / (ग) जिनसे बहुतों में से छांटा जाए / (घ) जिन दो चीजों में मेव (विशेष, अन्तर आदि शब्दों के द्वारा) सूचित किया जाए। (ङ) 'तव्यत्' आदि 'कृत्य' प्रत्ययों के प्रयोग होने पर कर्ता में। (च) आयुष्य, मद्र (हर्ष), भद्र, कुशल आदि शब्दों से जिसे आशीर्वाद दिया जाए। (छ) दक्षिणतः, उत्तरतः, उपरि, अधः, पुरस, पश्चात्, अने, पुरस्तात आदि शब्दों का प्रयोग होने पर उनका जिससे सम्बन्ध हो / (ज) दूर और समीप अर्थ वाले शब्दों का प्रयोग होने पर उनका जिससे सम्बन्ध हो। (झ) दुःख-पूर्वक स्मरण करने के अर्थ में तदर्थक धातुओं से, जिसे स्मृत किया जाए / (अ) दो बार (द्विः), तीन बार (त्रि.), सौ बार ( शतकत्वः) आदि जिससे संबन्धित हों। (ट) कृते (के लिए) और समक्ष (सामने) अव्ययों का जिससे सम्बन्ध हो / (4) तुल्य, सदृश, सम, संकाश (सदृश), तुला, उपमा आदि समानता सूचक शब्दों का प्रयोग होने पर उपमान में 1 (3) जिसका अनुकरण (अनु+कृ), किया जाए / (क) किसी घटना के समय से लेकर अवधि बतलाने पर घटना के पात्र तथा घटना-सूचक कृदन्त में / (ण) अभिश (शाता), अनभिज्ञ आदि विशेषणों के कर्म में। (त) 'कृत्' प्रत्ययान्त शब्दों का प्रयोग होने पर कर्म में और कर्म के न होने पर कर्ता में / अभ्यास-१७. बनारस के पास सारनाथ है / गीता का पुत्र राजा का स्मरण (दुःखपूर्वक) करता है। पिता के बार-बार मना करने पर भी उसके पुत्र ने अध्ययन छोड़ दिया / क्या तुम दिन में सो बार गाली देते हो? तुम्हारे सामने ही उसने बी. ए. की परीक्षा पास कर ली है। वह सभी शास्त्रों में पण्डित है परन्तु व्यवहार से अनभिज्ञ है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सभी विश्वविद्यालयों में श्रेष्ठ है। विद्वानों पाठ 18 : अधिकरण कारक सदाहरण-वाक्य [ सप्तमी विभक्ति का प्रयोग ] 1. देवदत्त मञ्च पर खेलता है = मञ्चे क्रीडति देवदत्तः। 2. मोहन वृद्धावस्था में भी प्रातः पढ़ता है - वृद्धावस्थायामपि प्रातःकाले (प्रातः) पठति मोहनः / 3. छात्रों में रमेश पटुतम है - छात्रेषु (छात्राणां) रमेशः पटुतमः / 4. उसका मुझ पर स्नेह है = तस्य मयि स्नेहः / 5. पुत्रवत्सल तुम्हारे में ऐसी कठोरता उचित नहीं है-पुत्रवत्सले स्वयि (पुत्रवत्सलस्य तव ) ईदृशी कठोरता न उपयुज्यते / 6. वह देश-सेवा और अध्ययन में लगा है%Dदेशसेवायामध्ययने च व्यापूतः सः। 7. तुम्हारे द्वारा ऐसा करने पर और मेरे रक्षक होते हुए धर्म कार्य मैं विन कहाँ = त्वया तथाऽनुष्ठिते मयि च रक्षितरि धर्मकायें विघ्नः कुतः ? 8. सूर्य के अस्त होने पर वे घर आये = सूर्येऽस्तङ्गते सति गृहं समायातास्ते / 6. पुत्रों के रोते रहने पर भी वह सन्यासी हो गया = पुत्रेषु दत्सु (पुत्राणां ___ रुदतां ) सः संन्यस्तवान् / 10. राम के बन चले जाने पर भरत आये = रामे वनं गते आगतवान् भरत: (कर्तृ.)। रामेण वने गते आगतो भरतः (कर्म)। 11. गायों के (भविष्य में) दुहे जाते समय वह जायेगी = गोषु धोक्ष्यमाणासु सा गमिष्यति / 12. गायों के ( अतीत काल में ) दुहे जाते समय वह गया या = गोषु दुग्धासु सः गतः। 13. ज्यों ही आप आए त्यों ही घड़ा गिरा = प्रविष्टमात्रे एव भवति घटोऽपतत् / 14. वह चमड़े के लिए हाथी को मारता है-पर्मणि दीपिनं हन्ति सः। 15. उसने अपने शव पर बाण फेंके - तेन स्वशत्री शराः क्षिप्ताः। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पूर्वकालिका वियर्थक ] 2. अनुवाद [185 पूर्वकालिक क्रिया से 'कर' या 'करके' अर्थ निकलता हो तो पूर्वकालिक क्रिया ('कर' या 'करके' ) में 'परवा' (त्वा) या 'ल्यप्' (य) प्रत्यय जोड़ दिया जाता है। अभ्यास-१९. कौत्स ने अध्ययन समाप्त कर गुरु से दक्षिणा लेने का आग्रह किया। सुरेश बी० ए. परीक्षा पास करके बम्बई में नौकरी करेगा। छात्र गुरु को प्रणाम करके परीक्षा देने जायेंगे / कोमा पानी पीकर उड़ गया। चोरों ने घर में घुसकर चोरी की परन्तु पुलिस ने उन्हें दौड़ाकर पकड़ लिया। राक्षसों को जीतकर श्रीराम सीता के साथ अयोध्या लौटे / प्रतिज्ञा करके कहो कि मैं सत्य बोलंगा। क्या रमेश का पड़ोसी घर के सभी सदस्यों को रोता हुआ छोड़कर सन्यासी हो गया ? 184] संस्कृत-प्रवेशिका [पाठ : 19-20 नियम-५३ निम्न स्थलों में सप्तमी विभक्ति होती है (देखिये, पृ. ५१-५२)(क) अधिकरण कारक में। (ख) समयबोधक शब्दों में / (ग) जिस समुदाय से छोटा जाए। (प) स्निह, अभिलए, अनुरञ् (गनुरक्त होना) आदि प्रेम, आसक्ति विश्वास एवं आदरसूचक क्रियाओं के विषय में। () योग्यता अथवा उपयुक्तता आदि अर्थों वाले शब्दों के आधार में / (च) व्यावृत (किसी काम में लगा हुआ ), आसक्त, व्यग्र ( उतावला ), तत्पर, कुशल, निपुण, साधु, प्रवीण, पद, दक्ष आदि के विषय में। (छ) रहते हए', 'होने पर', 'करने पर इन अर्थों में / (ज) एक क्रिया के हो जाने पर जब दूसरी क्रिया का होना बतलाया जाये ती पहले प्रारम्भ होने वाली क्रिया (कृदन्त क्रिया) और कर्तृवाच्य के कता में गा कर्मवाच्य के कर्म में (यदि ऐसे वाक्यों से अनादर का भाव व्यक्त हो तो षष्ठी भी / जैसे-वाक्य नं०-१)(अ) ज्यों ही, इतने ही में, उसी क्षण इन अर्थों में / (ब) जिस फल के लिए कोई काम किया जाए (यदि प्रयोजन उस क्रिया के कर्म से युक्त हो)। (2) जिसे लक्ष्य करके क्षिप् (फैकना), अस् (फैशना), मुच् (छोड़ना) आदि क्रियाओं का प्रयोग हो। अभ्यास १-कुमुद गृह कला में चतुर है परन्तु पढ़ने में कमजोर है। मनोरमा सभी छात्राओं में दक्ष है / छात्र पुस्तकों में अनुरक्त होंगे / मेरे भोजन करते समय वर्षा हुई। जैसे ही पानी गिरा मैं घर पहुँचा / क्या आपकी मुझ पर पूर्ववत् कृपादृष्टि रहेगी? जिसने बाल्यावस्था में नहीं पढ़ा वह पृतावस्था में क्या पढ़ेगा? जो अध्ययन में निपुण हैं उनका सर्वत्र सत्कार होता है। आप मेरी बीमारी के विषय में चिन्ता न कीजिये / चमड़े के लिए मृग को मारना क्या हिंसा नहीं है ? मैं नहीं जानता क्यों मेरे हृदय में तुम्हारे ऊपर विश्वास है / क्या किरण स्कूल में पढ़ती है ? पाठ 16 : पूर्वकालिक ('कर' या 'करके' ) वाक्य उदाहरण-वाक्य [ 'क्वा' और 'ल्यप् प्रत्ययों का प्रयोग ] 1. हम पुस्तकें पढ़कर चलेंगे = वयं पुस्तकानि पठित्वा पलिष्यामः / 2. वह स्नान करके जाती है = सा स्नानं कृत्वा (स्नात्वा) गच्छति / 3. राम फल खाकर गया-रामः फलं भुक्त्वा गच्छति स्म / 4. योद्धा शत्रुओं को जीतकर और बहुत से उपहार पाकर वापस बाता है - योद्धा शत्रून् विजित्य (जित्वा) बहूनुपहारान् लब्ध्वा च निवर्तते। 5. वे तलवार लेकर युद्धस्थल में गए - ते खङ्गानादाय युद्धभूमिमगच्छन् / नियम-५४. पूर्वकालिक वाक्यों में एक क्रिया के होने पर दूसरी क्रिया का होना पाया जाता है। ऐसे वाक्यों में यदि दोनों क्रियानों का कर्ता एक ही हो और पाठ 20: विध्यर्थक ('चाहिए' आदि) वाक्य उदाहरण-वाक्य [ 'तव्यत्', 'अनीयर' और 'यत्' प्रत्ययों का प्रयोग]१. शिष्य को गुरु की आज्ञा का पालन करना चाहिए (शिष्य गुरु की आज्ञा का पालन करे) = शिष्यः गुरोः आज्ञा पालयेत् (कर्तृ०)। शिष्येण गुरोः पाशा पालनीया (कर्म)। 2. उसे ऐसा वाक्य नहीं बोलना चाहिए = सः एतादृशं वाक्यं न वदेतृ (कर्तृ०)। सेन एतादृशं वाक्यं न वाच्यम् (कर्म)। 3. मुझे गाँव जाना चाहिए = अहं पाम गच्छेयम् / मया ग्रामः गन्तव्यः / 4. मुझे होना चाहिए = अहं भवेयम् ( कर्तृ.) / मया भवितव्यम् (भाव०)। 5. सदा सत्कर्म करना चाहिए - सदा सत्कर्माणि कर्तव्यानि (करणीयानि)। 6. हमें निर्वलों की रक्षा करना चाहिए = अस्माभिः निर्बलाः रक्षणीयाः / .. तुम्हें व्याख्यान देना होगा = त्वया व्याख्यातव्यं भविष्यति / 8. हमारे कर्तव्य कर्म बहुत है - अस्माकं कर्त्तव्यकर्माणि बहूनि सन्ति / 1. मुझे आज आपको क्या देना चाहिए = भवते मया अद्य किं देयम् / 10. यह राजा स्तुति का विषय है = स्तुत्यः खलु असी राजा। नियम--५५. 'चाहिए' अर्थ में कर्तृवाच्य में 'विधिलिङ्' का, कर्मवाच्य और भाववाच्य में 'तव्यत्', 'अनीयर' और 'यत्' प्रत्ययान्त क्रियाओं का प्रयोग होता है। 56. कभी-कभी इनका प्रयोग विशेषण के रूप में भी होता है / (8) 57. 'तव्यत', 'अनीयर' और 'यत्' प्रत्ययान्त क्रियाओं का लिङ्ग और वचन कर्मवाच्य में कर्म के अनुसार तथा भाववाच्य में सदा नपुं० एकवचन में होता है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] संस्कृत-प्रवेशिका . [पाठ : 21-22 अभ्यास-२०. सभी को अपना काम समय पर पूरा कर लेना चाहिए / उसे हँसना चाहिए / गुरु के चरण पूजनीय हैं। उन्हें अपना पाठ पढ़ना चाहिए। हम सब देश की रक्षा करें। पूजनीय गुरु जी कहाँ जा रहे हैं? यह अवश्य करणीय कार्य कल अवश्य होना चाहिए / तृण की भी उपेक्षा नहीं करना चाहिए। क्या हमारे कुलपति प्रशंसा के योग्य हैं? उन दोनों को परीक्षा देना होगी। परीक्षा में प्रष्टव्य प्रश्न बहुत हैं, अतः हमें सभी प्रश्नों के उत्तर याद करना चाहिए। पाठ 21 : तुलनात्मक (Degree) वाक्य उदाहरण-वाक्य [ 'तरप्' और 'तमप्' प्रत्ययों का प्रयोग ]-- 1. क. श्याम चतुर है = श्यामः पटुः अस्ति / ख. श्याम से रमेश अधिक चतुर है = श्यामाद रमेशः पटुतरः / ग. राम सबसे अधिक चतुर है = सर्वेष (सर्वेषां) रामः पटुप्तमः / 2. क. देवदत्त सुस्त था = देवदत्तः मन्दः आसीत् / ब. देवदत्त से यज्ञदत्त सुस्त था = देवदत्तात् यज्ञदत्तः मन्दतरः आसीत् / ग. सुरेश सबसे अधिक सुस्त था - सुरेशः सर्वेषु (सर्वेषां) मन्दतमः आसीत् / 3. रमेश से श्याम अधिक दुष्ट नहीं है = रमेशात् श्यामः दुष्टतरः नास्ति / 4. राम और सीता में सीता ही मृदु है - सीतारामयोः सीता एव मृदुतरा। 5. इन दोनों में कौन अधिक साधु है = अनयोः कः साधुतरः? 6. सभी छात्राओं में सीता सबसे अधिक योग्य है - सर्वासु छात्रास ( सर्वासा छात्राणाम् ) सीता योग्यतमा अस्ति। 7. श्याम सबसे अधिक भारी, बुद्धिमान्, योग्य और चतुर है = सर्वेषु श्यामः गुरुतमः, बुद्धिमत्तमः, योग्यतमः, पटुतमः च अस्ति। 8. परीक्षा में पहले सरल प्रश्नों को ही हल करना चाहिए पश्चात दूसरे प्रश्नों को परीक्षायां पूर्व सरलतमाः एव प्रश्नाः समाधेयाः तदनु अन्ये प्रश्नाः। 6. सभी देवों में राम को ही सर्वाधिक प्रशस्य जानो सर्वेषु देवेषु राममेव प्रशस्यतमं जानीहि / 10. आज सर्वाधिक बलवान् का ही राज्य है = अद्य प्रबलतमस्यैव राज्यम् / नियम-५८. जब दो की तुलना में एक का अतिशय ( उत्कृष्टता अथवा ह्रास) बतलाया जाता है, तो-(क) अतिशय-वाचक विशेषण में 'तरप्' (तर) प्रत्यय जोड़ दिया जाता है / (ख) जिसकी अपेक्षा अतिशय बतलाया जाता है उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है / (ग) जब तुलनीय दोनों वस्तुओं का द्वन्द्व-समास हो तो उनमें सप्तमी का तुलनात्मक प्रेरणात्मक ] 2: अनुवाद [17 द्विवचन होता है (4-5) / (घ) 'तर' प्रत्ययान्त विशेषण के लिङ्ग, वचन आदि विशेष्य के अनुसार होते हैं 56. जब दो से अधिक की तुलना में एक का अतिशय बतलाया जाता है तो अतिशय-वाचक विशेषण में 'तमप्' (तम) प्रत्यय जोड़ा जाता है। (ख) जिनकी अपेक्षा अतिशय बतलाया जाता है उनमें 'षष्ठी' या 'सप्तमी' विभक्ति होती है। (ग) 'तमप्' प्रत्ययान्त विशेषण के लिङ्ग, वचन आदि विशेष्य के अनुसार होते है। अभ्यास २१-सभी आम्रफलों में बनारसी आम मीठा होता है। भारतवर्ष सभी देशों में श्रेष्ठ है / मोहन श्याम से अधिक चतुर नहीं है। इन दोनों में कौन अधिक बुद्धिमान है ? राजा दशरथ की पत्नियों में कौशल्या सबसे बड़ी थी। सुरेश महेश से अधिक सरल स्वभावी है परन्तु पढ़ने में मृदु है। दमयन्ती सब स्त्रियों में सुन्दर होगी। गङ्गा और यमुना में गङ्गा का महत्त्व अधिक है। फूलों में शिरीष फूल अधिक कोमल होता है। पाणिनि की अष्टाध्यायी सभी व्याकरण के प्रन्थों में प्रशस्य है / सुमन सभी छात्राओं में अधिक सुशील है। . पाठ 22 : प्रेरणात्मक (Causative ) वाक्य उदाहरण-वाक्य ["णिच्' प्रत्यय का प्रयोग ]-- 1. (क) छात्र लेख लिखता है - छात्रः लेखं लिखति / (ख) अध्यापक छात्र से लेख लिखवाता है - अध्यापक छात्रेण लेख लेखयति / 2. (क) राम कार्य करता है और पाचक भात पकाता है = रामः कार्य करोति पाचकः च ओदनं पचति / (ख) मैं राम से कार्य करवाता हूँ और पाचक से भात पकवाता है - अहं रामेण (राम) कार्य कारयामि पाचकेन च ओदन पाचयामि / 3. (क) देवदत्त गाँव जाता है = देवदत्तः ग्रामं गच्छति / - (ख) राम देवदत्त को गांव भेजता है = रामः देवदत्तं ग्राम गमयति / 4. (क) वह बैठता है % सः आस्ते / (ख) तुम उसे बैठाते हो = त्वं तम् आसयसि / 5. वह श्याम को भात खिलाता है और मनीषा को रामायण पढ़ाता है - सः श्यामम् ओदनं भोजयति मनीषाच रामायणं पाठयति / 6. श्याम छात्र के द्वारा गीता को गांव भेजता है और स्वयं सोता है-माम छात्रेण गीता प्राम गणपति बनी 7. मैंने नौकर से बोझा तुलवाया - अहं रोमकेग गारगाहमा / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188] संस्कृत प्रवेशिका [पाठ : 23-24 8. दशरथ ने अपने पुत्र राम को वन भेजाम्दवारथः स्वपुत्र रामं धनमगमयत् / 6. मित्र को घर में प्रवेश कराओ = मित्रं गृहं प्रवेशय / 10. गुरु छात्रों को वेद पढ़ायें = गुरुः छात्रान् वेदमध्यापयतु / 11. तुम इसे क्यों नहीं पड़ाते हो - त्वमिमं किमर्थ म पाठयसि ? नियम-६०. प्रेरणात्मक वाक्यों में णिजन्त-क्रिया (देखिए, परिशिष्ट 3 तथा पृ० 70) का प्रयोग होता है। _णिजन्त क्रिया का प्रयोग करते समय कर्तृवाच्य में-(क) सामान्य रूप से प्रयोज्य-कर्ता (अणिजन्त क्रिया का कर्ता) में तृतीया, प्रयोजक-कर्ता (णिजन्त क्रिया का कर्ता) में प्रथमा, कर्म में द्वितीया और क्रिया प्रयोजक-कर्ता के अनुसार होगी। (ब) अकर्मक, गत्यर्वक, शानार्थक, भक्षणार्थक, शब्दकर्मक, परस्मैपदी 'दृश्' आदि कुछ धातुओं के होने पर प्रयोज्य-कर्त्ता में द्वितीया होगी। (ग)'' और 'कृ' धातुओं (आत्मनेपदी 'दृश्' भी) के होने पर प्रयोज्य- कर्ता में द्वितीया अथवा तृतीया दोनों विकल्प से हो सकती हैं। (प) यदि कोई प्रयोजक-कर्ता किसी दूसरे प्रयोजक-कत्ता से प्रेरित होकर (प्रयोज्य कर्ता से) कार्य कराता है तो द्वितीय प्रयोजकमा में द्वितीया न होकर (गत्यर्थक धातुओं के होने पर भी) तृतीया ही होगी। अभ्यास २२-मारीच रावण से सीता का अपहरण करवाता है। भगवान् सबको सुख देते हैं। मैंने अपने मित्र का विश्वविद्यालय में प्रवेश करवाया / शेर बालक को हराता है। तपस्वी तृणों से भूगो के बच्चों को तृप्त करते हैं। मन्त्री राजा से उसे धन दिलाता है। सुमन्त्र के द्वारा राम बन ले जाये जाते है। कौरव पाण्डवों को वन में भेजते हैं। माता बालक को चन्द्रमा दिखाती है। गुरु छात्र को शास्त्र पढ़ाता है। सूर्य कमलों को विकसित करता है। विश्वामित्र ने जनक की पुत्री के साथ राम का विवाह करवाया / पण्डित ग्रामवासियों को कथा सुनाता है / साघु सादगी से जीवन का निर्वाह करते हैं। क्या अध्यापक ने छात्र से कार्य करवाया? __ पाठ 23 : निमित्तार्थक वाक्य उदाहरण-वाक्य [ 'तुमुन् प्रत्यय का प्रयोग]१. क्या वे शत्रु को मारने के लिए शिव की उपासना करते हैं कि ते शत्रु ___हन्तुं (हननाय) शिवमुपासन्ते / 2. गीता भोजन के लिए प्रयत्न करती है = गीता भोक्तुं ( भोजनाय ) यतते / 3. तुम यह कार्य नहीं कर सकते हो = त्वमिदं कार्य कर्तुं न शक्नोषि / निमित्तार्थक; हेतुहेतु.] 2 : अनुवाद [16 4. मैं विद्याभ्यास के लिए काशी जाऊँगा परन्तु भाग्य में लिखे हुए को कोन मिटा सकता है = अहं विद्याभ्यास कतुं (करणाय) काशी गमिष्यामि परन्तु ललाटे लिखितं प्रोज्झितुं का समर्थः? 5. वन जाने की इच्छा है = वनं गन्तुम् (गमनाय ) इच्छास्ति / 6. यह जाने का समय है = गन्तुं ( गमनाय ) वेला इयमस्ति / 7. वह बोलने का इच्छुक है = सः वक्तुकामः अस्ति / 8. मैं जीतने के लिए पर्याप्त है = अहं जेतुं पर्याप्तः ( अलम् ) अस्मि / नियम-६१. निम्न स्थलों में धातुओं से 'तुमुन्' (तुम् ) प्रत्यय जुड़ता है-(क) निमित्तार्थक 'को' या 'के लिए' अर्थ प्रकट होने पर / (ख)'जाने वाला है या 'जाने को है' इस अर्थ के होने पर / (ग) काल-वाचक (समय, वेला आदि) शब्दों के होने पर / (घ) पर्याप्त, समर्थ, अलम् आदि शब्दों के होने पर। नोट-'तुमन्' प्रत्ययान्त अव्यय और मुख्य क्रिया का कर्ता एक ही होता है। अभ्यास-२३ पुत्र की रक्षा करने के लिए वह युद्ध-स्थल में गया / तुम यह कार्य नहीं कर सकते हो / वे जल में स्नान करने नदी के किनारे गये। मैं कालेज जाने की तैयार है। छात्र पुस्तकें खरीदने के लिए बाजार जाते हैं। यह समय पढ़ने का है, खेलने का नहीं। शायद आप और कुछ कहना चाहते हैं / पिता जी कुम्भ-स्नान के लिए प्रयाग गये / तुम गाने के लिए कहाँ जाओगे ? वैज्ञानिक शास्त्र समस्त संसार को नष्ट करने में समर्थ हैं। क्या कल तुम्हारा नौकर काम करने के लिए नहीं आया? मैं जानना चाहता हूँ कि यह पत्र किसने लिखा है ? क्या तुम व्याकरण पढ़ना चाहते हो? पसीने से नहाई हुई भी वह नहाने के लिए तालाब में उत्तरी। पाठ 24 : हेतुहेतुमद्भावात्मक ( Conditional ) वाक्य सदाहरण-वाक्य [ 'यदि', 'येत्' और 'हि' का प्रयोग]१. यदि तुम मेरी बात सुनोगे तो जीवन में सुखी रहोगे = यदि मम वचनं शृणोसि त्वं तहि जीवने सुखी भविष्यसि / 2. यदि वह यज्ञ करेगा तो अनयों का विनाश अवश्य होगा = यदि यज्ञं करोति सः तहि अनर्यानां विनाशो भविष्यति / 3. यदि मैं वहाँ जाऊँगा तो वहाँ उस कन्या को देखेंगा = यदि तत्र गच्छाम्यहं तहि तत्र तो कन्यको द्रक्ष्यामि / 4. यदि वह तुम्हारा मित्र है तो तुम्हारा काम अवश्य करेगा यदि सः तव मित्रमस्ति तहि तव कार्यम् अवश्यं करिष्मति / Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190] संस्कृत-प्रवेशिका [पाठ : 25-26 5. यदि तुम वहाँ रहते हो तो वहाँ के विश्वविद्यालय की स्थिति का वर्णन करो = यदि त्वं तत्राधिवससि तहि तत्रत्यस्य विश्वविद्यालयस्य स्थिति वर्णयस्व / 6. यदि ऐसी बात है तो तुम जागो = एतादृशी वार्ता चेत्तहि गच्छ / 7. यदि तुम यहां आते तो मैं तुम्हारे साथ चलता - यदि त्वम् अत्र आगच्छः तहि अहं त्वया सह व्रजेयम् / 8. यदि राम परिश्रम करता तो परीक्षा में पास होता = यदि रामः परिश्रम __ मकरोत् तहि परीक्षायां सफलतामलभत (लभेत)। नियम ६२-हेतुहेतुमद्भाव वाले वाक्यों में निम्न नियम याद रखें-(क) पूर्वाद्ध में 'यदि' अथवा 'चेत्' का और उत्तरार्ध में तहि शब्द का प्रयोग / (ख) दोनों वाक्यों से भविष्यत्काल का अथवा पूवार्द्ध से वर्तमान काल का और उत्तरार्ध से भविष्यत् काल का बोध हो तो पूर्वार्ध में वर्तमान काल की किया का और उत्तरार्ध में भविष्यत् काल की क्रिया का प्रयोग | कभी-कभी दोनों में भविष्यत् काल की क्रिया भी होती है।' (ग) यदि दोनों वाक्यों से वर्तमान काल का बोध हो तो दोनों में वर्तमान काल की क्रिया का प्रयोग / (घ) यदि पूर्वाद से वर्तमान काल का और उत्तराधं से अथवा दोनों वाक्यों से 'आज्ञा' आदि का बोध हो तो पूर्वार्ट में वर्तमानकाल की क्रिया का और उत्तरार्ध में लोट या विधिलिङका प्रयोग / (ङ) यदि दोनों वाक्यों में भूतकाल का बोध हो तो दोनों में भूतकाल की क्रिया का प्रयोग। अभ्यास २४-यदि तुम प्रातः पुस्तक पढ़ोगे तो परीक्षा में अवश्य पास होगे। यदि वह आता है तो मैं जाऊँगा। यदि सूर्योदय होने पर तुम भगवान् का स्मरण करोगे तो जीवन में सुखी रहोगे / यदि ऐसी बात है तो तुम अपना काम करो / यदि प्रयाम अध्ययन करता तो परीक्षा में प्रथम श्रेणी से पास होता। मनोज यदि वहाँ जाये तो मेरा भी सामान लेता जाये। यदि तुम प्रतिदिन समाचार पत्र पढ़ोगे तो संसार की खबरें जान लोगे / यदि तुम आओगे तो मुझे अवश्य यहाँ देखोगे / मैं गर्मी। की छुट्टियों में यदि पहाड़ की यात्रा पर जाता तो स्वास्थ्य लाभ करता। पाठ 25 : 'करने वाला' अर्थवाचक शब्द उदाहरण-वाक्य ['ण्वुल' और 'तृच' प्रत्ययों का प्रयोग] 1. इस गांव में एक उपासक रहता है = ग्रामेऽस्मिन्नेकः उपासको निवसति / 1. वस्तुतः ऐसे वाक्यों मैं 'लुङ् लकार के प्रयोग का विधान है / जैसे-सुवृष्टिपचेदभविष्यत् सुभिक्षमभविष्यत् / यदि सः आगमिष्यहि तेन सह अगमिष्यम् / 'करने वाला'; भाववाचक] 2: अनुवाद 2. लेखक और लेखिका सेवक के साथ जाते हैं - लेखकः लेखिका च (लेखको) सेबकेन सह गच्छतः। 3. शत्रु प्राणों के घातक हैं = शत्रवः प्राणानां घातकास्सन्ति / 4. जगत् का कर्ता, धर्ता और संहर्ता ईश्वर है = जगतः कर्ता, घर्ता, संहर्ता च ईश्वरोऽस्ति / 5. क्या दाता ज्ञाता को धन देता है = दाता ज्ञात्र धनं ददाति किम् ? 6. धन का हर्ता जाता है - गच्छति धनस्य हर्ता / नियम ६३–'करने वाला' अथवा 'वाला' अर्थ में 'वुल' (अक) अथवा 'तृच' (तृ) प्रत्ययों का प्रयोग होता है / ( कभी-कभी 'वुल्' का प्रयोग 'तुमुन् की तरह क्रिया के रूप में भी होता है। जैसे-रामं दर्शको द्रष्टुं वा याति)। इनके लिङ्ग, विभक्ति और वचन विशेष्य के अनुसार होते हैं तथा इनके कर्म में षष्ठी होती है। अभ्यास २५-पाठिकायें स्कूल में छात्राओं को व्याकरण पढ़ा रही है / रसोईया खाना पका रहा है और भोजन करने वाले भोजन कर रहे हैं / इस मुहल्ले में पुस्तकों के विक्रेता अधिक हैं परन्तु खरीदने वाले कम / वे सभी गायक के साथ गाना गायेंगे। आजकल देश के नियामक पथभ्रष्ट हो रहे हैं। इस विश्वविद्यालय के छात्र खूब अध्ययन करने वाले हैं। धन का हरण करने वाला चोर भाग गया / वेद पापों को नाश करने वाला है। क्या इस नगर में कोई अच्छा गवैया नहीं है? पाठ 26 : भाव-वाचक संज्ञायें "mamani सदाहरण-वाक्य ('ल्युट्', 'घ' और 'क्तिन्' प्रत्ययों का प्रयोग) 1. तुम्हारा कहना सत्य है = तव कथनं सत्यमस्ति / 2. उस सभा में भाषण दो- तस्या सभायां भाषणं कुरु / 3. मेरा उस समय जाना और उसका उस समय रोना आवश्यक था तदा मम गमनं तस्य तदा रोदनं चावश्यकमासीन् / 4. क्या अधिक पढ़ना और अधिक खेलना ठीक नहीं है % अधिकं पठनम् अति क्रीडनञ्च वरं नास्ति किम् ? 5. सदाचार ही परम धर्म है = सदाचार एव परमो धर्मः। 6. त्याग की महिमा अचिन्त्य है - त्यागस्य महिमा मचिन्त्यः / 7. सर्वत्र सोत्साह प्रवृत्त होना चाहिये = सर्वत्र सोत्साहेम प्रमतितमा / 8. इस राजा की कीति दिगन्तव्यापिनी है - अस्य जो विगतमामिला / Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनाम और विशेषण ] 2: अनुवाद [193 192] संस्कृत-प्रवेशिका [पाठ : 27 6. मेरी धर्म में बुद्धि और कर्म में प्रवृत्ति है = अस्ति बुद्धिः धर्म प्रवृत्तिश्च / कर्मणि मम। नियम ६४-भाव-वाचक संज्ञायें बनाने के लिए 'ल्युट्' (अन), 'घ' (अ) और 'क्तिम्' (ति) प्रत्यय धातु में जुड़ते हैं / 'ल्युट्' प्रत्ययान्त शब्द नपुं०, 'घन' प्रत्ययान्त शब्द पुं० और 'क्तिन' प्रत्ययान्त शब्द स्त्री० में हमेषा होते हैं / इन शब्दों के साथ कर्म में षष्ठी होती है। अभ्यास २६-संसार से मुक्ति मिलना कठिन है। क्या आज आपका भाषण होगा? सुरेश की कीति और रीता की धर्म में बुद्धि एक साथ हुई / यहाँ सबका प्रवेश संभव नहीं है / सुख और दुःख में समभाव रखना चाहिए / भगवान् का भजन करो और बच्चों का भरण पोषण | बुद्धि से धन और धन से सुख प्राप्त होता है। सभी जीवों का मरण अवश्यंभावी है। आज सभा में कौन सा प्रस्ताव रखा जायेगा? इस विषय में पुनःविचार अपेक्षित है। मनीषा दूध का पान करती है और उसकी बुद्धि निर्मल है। पाठ 27 : सर्वनाम और विशेषण उदाहरण वाक्य [ एक, द्वि, और बहुवचन का विशेष प्रयोग ] 1. वह प्रभु तुम दोनों की रक्षा करे = सः प्रभुः वाम् (युवाम्) पातु / 2. तुम यह पुस्तक लो और राम यह साड़ी ले - गृहाण त्वमेतद् पुस्तकं / गृह्णातु रामश्वेमा शाटिकाम् / 3. जब तक सोता वह तैल-चित्र लाती है तब तक तुम वह मकान देखो। = तावत्वम् अदः गृहं पश्य यावत् सीता ततैलचित्रमामयति / / 4. इस कक्षा में कितने छात्र हैं = कति छात्रास्सन्ति कक्षायामस्याम् ? 5. सुनीता कहती है कि जो जाता है वह पुनः लौटकर नहीं आता है = सुनीता कथयति यद यो गच्छति न पुनरागच्छति सः। 6. क्या यह छात्रयुगल पुस्तक पढ़ता है = किमिदं छात्रयुगलं पुस्तकं पठति ? 7. पति-पत्नी अथवा माता-पिता जाते हैं = दम्पती पितरौ वा गच्छतः / 8. दोनों बालक खेलते हैं = उभौ बालको क्रीडतः। 6. हम सब दो नेत्रों से देखते हैं = वयं नेत्रद्वयेन ( नेत्राभ्याम् ) पश्यामः / 10. पूज्य गुरुदेव जाते हैं % गच्छन्ति पूज्याः गुरवः / 11. मैं मगध देश गया, अङ्ग देश नहीं = अहं मगधानगच्छम्, नाङ्गदेशम् / 12. ब्राह्मण पूज्य हैं, शूद्र नहीं प्राह्मणाः पूज्याः, न शूद्राः। 13. उस दारा (स्त्री) को यह अक्षत दो = तेभ्यो दारोभ्यः इमानक्षतान् देहि।।। 14. यहाँ चार कन्यायें और बीस बालक हैं %D सन्ति चतस्रः कन्याः, विंशतिः बालकाश्चात्र। 15. घड़ा द्रव्य है और शब्द प्रमाण - घटो द्रव्यम्, शब्दश्च प्रमाणम् / 16. कोई भी पुरुष अथवा कोई भी स्त्री कुछ भी पढ़े : कश्चित् (कश्चन, फोऽपि बा) पुरुषः काचित् (काधन, कापि वा) स्त्री वा किश्चिदपि (किचन किमपि वा) पठतु / नियम-६५. अस्मद् और युष्मद् शब्दों के वैकल्पिक रूपों (मा, नौ, नः, मे तथा ला, नाम, वः, ते) का प्रयोग वाक्य के आरम्भ में, छन्द के चरण के प्रारम्भ में; च, वा, ह, अह, एव आदि अग्ययों के साथ में तथा सम्बोधन के तुरन्त बाद में नहीं होता है। 66. इदम् और एतद् से 'यह' का अर्थ-बोध होता है परन्तु 'एतद' शब्द का प्रयोग अत्यन्त निकटवर्ती के लिए होता है। 67. तद् और अदस् से 'वह' का अर्थ-बोध होता है परन्तु 'तद्' शब्द का प्रयोग अत्यन्त दूरवर्ती (परोक्ष) के लिए होता है। 68. 'यत्' शब्द का प्रयोग जब 'कि' के अर्थ में किया जाता है तो वह नपुं० एकवचन में ही होता है। 69. जब 'यत्' और 'तत्' शब्द का सापेक्ष सर्वनाम के रूप में प्रयोग होता है तो 'यत्' और 'तत्' के लिङ्ग, विभक्ति और वचन एक जैसे होते हैं। 70. नेत्र, पैर, हाथ आदि जोड़े वाले शब्दों का प्रयोग सामान्य रूप से द्विवचन में होता है। 71. आदर अर्थ में 'एक' व्यक्ति के लिए भी बहुवचन का प्रयोग होता है। 72. राज्य, देश, जनपद मादि के वाचक शब्दों में बहुवचन का प्रयोग होता है। यदि 'मगर' या 'देश' शब्द अन्त में हो तो एकवचन / 73. जाति-वोधक शब्दों से यदि जाति का ही अर्थ बतलाना अभीष्ट हो तो बहुवचन अथवा एकवचन दोनों का प्रयोग होगा। 74. युगल आदि के साथ एकवचम होता है। अभ्यास २७-यह लेखनी किसकी है? वह कन्या और वह बालक कहाँ गये? इस स्कूल में अध्यापकों की और छात्रों की संख्या कितनी है? या युगल खेलते हैं ? कौन भाता-पिता अपने बच्चों से प्रेम नहीं करते है? महली किसकी पत्नी है? इस नगर में बीस विद्यालय तथा पाच महाविधानमा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] संस्कृत-प्रवेशिका [पाठ : 28 भी पुस्तक लाओ और कोई सा भी पाठ पढ़कर सुनाओ। वर्षा में नदियाँ बालू बहाकर ले गई। अश्विनीकुमार ज्ञान देते हैं। इन फूलों को देखो। सुशीला न तो पैरों से चलती है और न कानों से सुनती है। ये कन्यायें अप्सराओं के तुल्य हैं। कितने वर्षों तक वह जीवित रहा? आप ही इस विषय में प्रमाण हैं। जो स्त्री आती है वही यहाँ काम करती है। 'होने पर' वाक्य ] 2: अनुवाद [ 165 के रूप में प्रयुक्त होगा और तब उत्तरवाक्य के कर्तृवाच्य होने पर दोनों में प्रथमा होगी। कर्मवाच्य होने पर दोनों में तृतीया होगी, सप्तमी नहीं। (8) अभ्यास २८-अनीता के पढ़ लेने पर गीता आई। उन स्त्रियों के सो जाने पर चोर आये। खेत में किसानों द्वारा कार्य कर लेने पर उसका मालिक आया / अध्यापक द्वारा कक्षा में पाठ पड़ा लेने पर रमेश घर गया। विश्वविद्यालय में मेरे द्वारा पुरस्कार प्राप्त करने पर सभी छात्र प्रसन्न हुए। मेरे द्वारा उत्तरपुस्तिकायें लिख लेने पर निरीक्षक महोदय गये। गाती हुई छात्राओं ने नाचना प्रारम्भ किया / खेलकर जाते हुए मुझे अध्यापक ने बुलाया / क्या सिनेमा की सभी टिकटें बिक जाने पर मैं खिड़की पर पहुँचा? पाठ 28 : 'होने पर' अर्थ वाले वाक्य उदाहरण वाक्य [ 'कृत्' प्रत्यय एवं 'सप्तमी-विभक्ति' का प्रयोग ]1. राम के वन चले जाने पर दशरथ ने प्राण छोड़े = रामे वनं गते दशरथः प्राणान् त्यक्तवान् ( कर्तृ०)। रामेण बने गते दशरथेन प्राणाः स्यक्ताः (कर्म)। 2. सूर्य के अस्त हो जाने पर छात्र घर गये = सूर्य अस्तङ्गते छात्राः गृहम गच्छन् / 3. हम स्त्रियों के पुस्तकें पढ़ लेने पर वह पाया = अस्मासु स्त्रीषु पुस्तकानि पठितवतीषु आगतः सः। 4. क्या मेरे द्वारा गीता पढ़ लेने पर और उसके द्वारा उपनिषदें पढ़ लेने पर पिता जी आए = किं मया गीतायां पठितायां तेन च उपनिषत्सु पठितासु पिता आगतः? 5. उन स्त्रियों के प्रस्थान कर जाने पर मैं बोला = प्रस्थितासु तासु स्त्रीषु उक्तवानहम् / 6. भोजन करके घर की ओर हमारे आते हुए होने पर छात्र दिखाई दिये = भोजनं कृत्वा अस्मासु गृहं प्रति आगच्छत्सु सत्सु दृष्टाः छात्राः / 7. मेरे सेवा करने पर सभी प्रसन्न हुए = मयि सेवमानायां सर्वे प्रहृष्टाः / 8. आए हुए देवदत्त ने अध्ययन प्रारम्भ किया = आगतेन देवदतेन अध्ययन प्रारब्धम् / नियम-७५. (क) जब पूर्वकालिक वाक्य तथा उत्तरकालिक वाक्य के कर्ता भिन्न-भिन्न हों और पूर्वकालिक क्रिया से 'हो जाने पर' या 'हो पकने पर' अर्थ निकलता हो तो पूर्वकालिक क्रिया में 'क्त'क्तवत्', 'शत'-'शान' आदि प्रत्ययों का प्रयोग होगा दिखिए, पाठ 18-19] / (ख) यदि ऐसे वाक्यों में एक ही कर्ता का - दो बार उल्लेख किया गया हो तो पूर्वकालिक वाक्य का भाव कर्ता के विशेषण Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग:३: निबन्ध (Composition) (1) काशी-हिन्दू-विश्वविद्यालयः अस्माकं देशे अनेक महाविद्यालयाः विश्वविद्यालयाश्च सन्ति परं काशी-हिन्दविश्वविद्यालयः सर्वान् अतिशेते / अयं विश्वविद्यालयः न केवलं भारतस्य अपितु समस्तसंसारस्य प्रख्याततमेषु विश्वविद्यालयेषु एकः / अत्र कला-विज्ञान-वाणिज्य-संगीत 1. 'नि+बन्धु - निबन्ध (अच्छी तरह से बाँधना ) / किसी विषय पर परिमार्जित भाषा में स्वतः परिपूर्ण क्रमबद्ध विचारों के लेखन को 'निबन्ध' कहते हैं। अतः-(१) वणित विषय की पूर्णता, (2) विचारों की क्रमबद्धता तथा (3) भाषा की परिमार्जितता-ये तीन मुख्य बातें निबन्ध में होती हैं। इसके लिए जरूरी है कि-(क) भाषा-शैली सरल, सरस, अर्थ-गम्भीर, भावानुरूप, स्वाभाविक, व्याकरण से शुद्ध, प्रवाहपूर्ण, सुभाषित-लोकोक्ति-अलङ्कार आदि से अलकृत, तथा पुनरुक्ति-क्लिष्टता-संदिग्धता-अनावश्यक विस्तार आदि दोषों से रहित हो। (ब) निबन्ध के प्रारम्भ में प्रभावोत्पादक संक्षिप्त प्रस्तावना ( इसमें विषय-निर्देश किया जाता है। प्रस्तावना प्रारम्भ करने के कई बङ्ग हैं। जैसे-विषय की परिभाषा से, उपयोगिता से, सूक्ति या कहावत से, दृश्यवर्णन से, घटना विशेष से, आदि) हो। (ग) अन्त में सारगर्भित संक्षिप्त उपसंहार तथा मध्यभाग में विषय के विविध पहलुओं का विस्तृत विवेचन हो / निबन्धों को विषय-तत्व की दृष्टि से सामान्यतः निम्न तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) वर्णनात्मक ( Descriptive)-इसमें मुख्यतः वर्णनीय विषय (प्राकतिक तथा अप्राकृतिक वस्तुओं) के बाह्य स्वरूप का स्थूल वर्णन किया जाता है। जैसे-गङ्गा, वाराणसी, गौ, दीपावली, विद्यालयः आदि / (2) विवरणात्मक (Narrative) इसमें ऐतिहासिक अथवा काल्पनिक घटनाओं, जीवन-चरित एवम् आत्मकया बादि का क्रमिक विवरण प्रस्तुत किया जाता है / इसमें वर्णन की अपेक्षा क्रमिक-विकास पर विशेष ध्यान रखा जाता है। जैसे-नौका-विहारः, महात्मागान्धी, पुस्तकस्य आत्मकथा, आदि / (3) विचारात्मक (Reflective)--इसमें तर्क एवं युक्तियों के द्वारा प्रतिपाद्य विषय की उपयोगिता और अनुपयोगिता का विचार किया जाता है। इसमें विचारों की मुख्यता होती है। विचारात्मक निबन्ध कई प्रकार के होते हैं / जैसे-भावात्मक (सत्यम्, अहिंसा, धर्यम् / आदि), समीक्षात्मक (गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति, उपमा कालिदासस्य ) आदि / काशी-हिन्दू-विश्व०] 3: निबन्ध [197 प्राच्यविद्याविज्ञान-समाजविज्ञान-कृषि-चिकित्सा-विधि-प्रोद्योगादयः बहवः संकायाः विद्यन्ते येषु विभिन्न विद्याः पाठयितुं महीयांसः लब्धप्रतिष्ठाः श्रेष्ठविद्वांसः सन्ति / कलासंकाये महिलामहाविद्यालये प्राच्यविद्याविज्ञान-संकाये च संस्कृतस्य अध्यापन भवति / महामनसा मदनमोहनमालवीयेन प्रचलितशिक्षाप्रणाली दूषितां दृष्ट्वा उत्तमशिक्षाप्रसाराय काश्याम् अयं हिन्दू-विश्वविद्यालयः संस्थापितः। अस्य शिलान्यासः 1916 ईसवीयवत्सरे लाउँ-हाटिङ्गमहोदयस्य करकमलाभ्यां सम्पन्नः / डा. सरसुन्दरलालः आप्रारम्भात् 1918 ईसवीयपर्यन्तं, ततः डा० पी० एस० शिवस्वामीभग्यरः 1916. ईसवीयपर्यन्तं, ततश्च महामना मदनमोहनमालवीयाः 1939 ईसवीयपर्यन्तं कुलपतिपदम् अलंकृतवान् / तदनन्तरं अन्ये विश्वविताः महोदयाः (डा० राधाकृष्णन सर्वपल्ली, आ० नरेन्द्रदेवप्रभृतयः) विश्वविद्यालयस्य कुलपतिपदं विभूषितवन्तः / सम्प्रति"""महोदयः कुलपतिपदं प्रसाधयति / अयं राष्ट्रिय विश्वविद्यालयः नगराद् बहिः विशालया परिखया परिवेष्टितः वर्तते / अस्मिन् विश्वविद्यालये बहवः अवान्तर-महाविद्यालयाः सन्ति यत्र विविधविद्याप्रवीणाः अध्यापनकलानिपुणाश्च द्विसहस्त्राधिकाः अध्यापकाः अध्यापयन्ति / अत्रत्यया मनोरमया वैज्ञानिक-शिक्षापखल्या सुव्यवस्थितनिवासादिव्यवस्थया व आकृष्टाः छात्राः दूरदेशतोऽपि आगत्य पठन्ति, विविधोपाधीन् लभन्ते च / अत्र छात्राणां संख्या पञ्चविंशतिसहस्राधिका वर्तते / अत्र बृहत्पुस्तकालयः, क्रीडाङ्गणानि, छात्रावासाः, शिवाजी. हालनामक-मल्लशाला, ओषधालयाश्च सन्ति / अत्र न केवलमध्यापनस्यैव अपितु देशभक्त, समाजसेवायाः, सैनिकशिक्षायाः, सदाचारस्य, व्याख्यानकलायाः, मल्लविद्या शिक्षा समुचितः शोभनश्च प्रबन्धो वर्तते / प्रतिरविवासरं मालवीयभवने प्रातः गीतोपदेशोऽपि प्रकाण्डविद्वद्भिः दीयते / प्रायः सर्व छात्राः हृष्टपुष्टाः विकसितबदनाः भद्रवेषाः सदाचारपरायणाश्च सन्ति / / विश्वविद्यालयस्य प्रधानद्वाराद्वहिः महामनसो मालवीयस्य खड्गासना एका सुरम्या मूर्तिः विराजते / बत्र यत्र-तत्र बहूनि सुपुष्पितानि उद्यानानि, आकर्षकाणि सुरम्यविशालभवनानि च विलसन्ति / सुप्रसिद्ध बिडलामंदिरं वर्तते यत्र विश्वनाथस्य शोभना मूर्तिः शोभते / अस्य मंदिरस्य दर्शनाय देशस्य सर्वभागेभ्यः जनाः समायान्ति / बालिकानां कृते स्नातक-परीक्षां यावत् पृथक् महाविद्यालयः आवासाश्च वर्तन्ते / स्नातकोत्तरकक्षायां तु प्रायः सर्वेषां सहव शिक्षा-प्रबन्धो विद्यते / इत्यं प्राच्य-पाश्चात्यविद्याकेन्द्र काशी-हिन्दू विश्वविद्यालयः चतुर्दिक्षु विख्यातः / अत्र पठन्तः छात्राः गौरवमनुभवन्ति, उपाधि लब्ध्वा निर्गताः स्नातकाश्च स्वस्वकार्येषु सफलतया व्यापृताः भवन्ति / अतः अस्य उत्तरोत्तरविकासाय मर्यावापरिरक्षाणाय च साहाय्यं सर्वेषां पवित्रं कर्तव्यमस्ति / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 : वाराणसी] 3 : निबन्ध [ 166 नगरी 'काशी' नाम्ना अपि प्रसिद्धा वर्तते / लोकभाषायाम् अस्याः नाम 'बनारस' इत्यप्यस्ति / अनेकेषु प्राचीनग्रन्थेषु अस्याः महिमा उपलभ्यते / इयं गङ्गायाः वामतटे धनुषाकारेण विराजते। 198] संस्कृत-प्रवेशिका [2-3 : गङ्गा, वाराणसी (2) गङ्गा (भागीरथी) . भगवती गङ्गा (गम् + गन् + टाप् ) भारतदेशस्य पुण्यतमा पतितपावनी एका दिव्या नदी। इयं हिमालयपर्वतस्य 'गंगोत्तरी' नामकस्थानात प्रभवति / ततः प्रयागे यमुना-सरस्वतीभ्यां सम्मिलिता सती तस्मिन्-तस्मिन् स्थाने अनेकनदीभिश्व मिलित्वा प्रवहन्ती कलकत्तासमीपे गंगासागरसंगमे समुद्र निमज्जति / इयं गङ्गा विधात्मना स्वर्ग, पातालं मर्त्यलोकञ्च व्याप्नोति तस्मात् 'त्रिपथगा'; स्वर्गादवतरन्ती इयं शिवजटासु कश्चित्कालमवरुवा पुनश्च भगीरथप्रार्थनया सगरसन्ततिसमुद्धाराय ततोऽवतरन्ती पृथ्वीलोके 'भागीरथी'; हिमवतः प्रभूतत्वात् 'हेमवती' इति चोच्यते / बह्रोः आश्रमस्य मध्यावधस्तादपसरन्ती इयं 'जाहवी' इत्यपि व्यपदिश्यते / हिमवतः ज्येष्ठपुत्री गङ्गा आसीत् / सा ब्रह्मणः शापवशात् पृषिव्यामापतिता। तब शांतनुराशः पत्नी जाता। तया तत्र अष्टी पुत्राः जाताः, तेषु भीष्मः एकः / इत्यमियं गङ्गादेव्याः मूर्तरूपत्वात् 'गङ्गा' इति / एवमेव अन्यान्यपि बहूनि नामानि पुराणेषु शास्त्रान्तरेषु च समुपलभ्यन्ते / अस्याः तीरे भूयांसि महानगराणि सन्ति / तेषु हरिद्वारम्, प्रयागः, वाराणसी, पाटलिपुत्रम् ('पटना' इति), भागलपुरम्, कलिकाता ('कलकत्ता' इति) विशेषतः उल्लेखनीयानि / हरिद्वारे वाराणस्याञ्च अस्याः सौन्दर्य वाचामगोचरतां याति / क्षेत्रादिसेचने विद्युदादिसमुत्पादने च गङ्गा अस्माकं भूयांसमुपकारं करोति / अस्याः जलम् अतिपवित्रम्, निर्मलं स्वास्थ्यकर / इदं चिराय रक्षितमपि कीटादिना विकृति न प्राप्नोति / अस्याः तीरे निवासेन, जलपानेन, स्नानेन, वायुसंस्पर्शन च महान् स्वास्थ्यलाभो भवति, पापानि च नश्यन्ति / अतः प्रतिवर्षम् असंख्या धार्मिकजनाः हरिद्वार-प्रयाग-काशी प्रभृतीनिगङ्गातीर्थस्थानानि स्नानाय गच्छन्ति / अस्याः प्रमुखतीर्थस्थामस्थतटभागेषु बहवः मनोहराः घट्टाः सन्ति यत्र मनोरञ्जनप्रियाः बहवः जनाः नौकाविहारादिकं कुर्वन्ति, तटस्य रमणीयता च पश्यन्ति / समये-समये अस्याः तटेषु बहुत्र महान्तः उत्सवाः आयोज्यन्ते / एवम्प्रकारेण गङ्गानदी इहलोके परलोके च उभयत्र हितावहा / अतः समुचितमेवोक्तं देवीभागवते गङ्गा गनेति यो ब्रूयात् योजनानां शतैरपि। ' मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति / / (3) वाराणसी (काशी) भारतदेशस्य उत्तरप्रदेशे वाराणसी नगरी प्राचीनतम तीर्थस्थानम् / केचन असी(यसी) कणानयोमध्ये स्थितत्वात अस्याः नाम 'वाराणसी' ति व्यवहरन्ति / इयं इयं नगरी कदा स्थापिताऽभूत इति निश्चेतुं न शक्यते / पुराणानुसारेण इयं भगवता शंकरेण स्वनिवासाय निवसतां च मुक्तिप्रदानाय त्रिशूलस्योपरि स्वयं स्थापिता। जनता अद्यापि विश्वसिति यद भगवान् शंकरः अत्रैव निवसति / अतः योऽत्र पार्थिव शरीरं त्यजति सः भगवतः कृपया तारकर्मत्रबलेन ए सद्यः मुक्ति प्राप्नोति / 'काश्यां मरणान्मुक्ति' इति सिद्धान्तस्तु अस्याः आध्यात्मिक महत्त्वं प्रतिपादयति / अत्र जगत्प्रसिद्ध विश्वनाथस्य सुवर्णमयं मन्दिरम्, अन्नपूर्णादेव्या मन्दिरम्, संकटमोचननामकं हनुमतो मन्दिरम्, हिन्दूविश्वविद्यालये नवीनं विश्वनाथमन्दिरम्, संकटामन्दिरम्, नवदुर्गाणां मन्दिराणि, कालभैरवमन्दिरम्, पाश्र्धनायनमन्दिरम, निकटवर्तिनि सारनाये जैन-बौद्ध-हिन्दुमन्दिराणि च प्रसिद्धतमानि सन्ति / उक्तमन्दिरातिरिक्तानि अन्यानि अपि विशालमन्दिराणि संतिष्ठन्ते, लघुमन्दिराणा का गणना। भगवती विन्ध्यवासिनी अष्टभुजी देवी समीपस्थे विन्ध्याचले विराजते / इत्यं नगरी इयं समस्तधर्माणामेव केन्द्रीभूता दृश्यते / पतितपावनी मोक्षप्रदायिनी च गङ्गा अत्र भक्तानां श्रेयसे प्रवहति / गङ्गायाः वामतटे बहवः मनोहराः घट्टाः सन्ति / तेषु च पंचगङ्गा-मणिकर्णिका-दशाश्वमेध-हरिचन्द्र-तुलसीघट्टाः प्रसिद्धतमाः। दशाश्वमेधपट्टे तु सर्वदा गानिकाणां समवायो दृश्यते, यत्र अनेके स्त्रीपुरुषाः प्रतिदिनमागत्य प्रातः स्नानपूजादिकं सायं च कथा-कीर्तनादिश्रवणं कुर्वन्ति / मणिकर्णिका-हरिश्चन्द्रघट्टयोः दाहसंस्कारः काशीलाभाय ( मुक्तिलाभाय) सर्वदैव प्रचलति / पंचगङ्गायां कार्तिकमासे, दशाश्वमेधे माघमासे, अस्सीघट्टे च वैशाखमासे, गङ्गास्नानं विशेषफलदायकम् / तुलसीदासस्य निवासस्थानत्वात् तुलसीघट्टस्यापि महत्त्वं सर्वजनप्रसिद्धम् / भूयते अत्र तुलसीघट्टे श्रीरामचरितमानसस्य रचना अभवत् / इमां नगरी परितः पञ्चकोशी परिक्रमार्थं सुप्रसिद्धात वाराणसी भारतस्य सुप्रसिद्ध पुरातनं विद्यापीठमासीत् / इदानीमपि अत्र काशीहिन्दूविश्वविद्यालयः, सम्पूर्णानन्द-संस्कृत-विश्वविद्यालयः काशीविद्यापीठन इमे विश्वविद्यानां केन्द्ररूपेण त्रयो विश्वविद्यालयाः विलसन्ति / अन्येऽपि संस्कृतस्य माङ्गलभाषायाश्च बहवः विद्यालयाः महाविद्यालयाश्च सन्ति / अत्याना पणिताना देशे विदेशे च सर्वत्र ख्यातिरस्ति / इत्थमस्याः शैक्षिकगौरवमपि न न्यूनम Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5: मदनमोहन मालवीयः] 3: निबन्ध [201 धर्मचक्रप्रवर्तनमकरोत् / पश्चात् प्रामाद् ग्राम परिश्रमन् धर्म चोपदिशन् अनेकान भिक्षुसंघान् विहारांश्च आस्थापयत् / पञ्चचत्वारिंशत् वर्षाणि तथा कुर्वन् 'देवरिया' जनपदस्य 'कुशीनगरे' अशीतिवयस्कः सः महापरिनिर्वाणं प्राप्नोत् / भारतवर्मा-चीन-लंका-जापान-नेपालप्रभृतिदेशेषु अद्यापि तेनोपदिष्टधर्मस्य प्रभावः प्रसारश्च दृश्येते / सय बौद्धधर्मः अन्ताराष्ट्रियता प्राप्तः / अस्य मुख्योपदेशाः पञ्चशीलादिपदेन व्यपदिश्यन्ते / 'अहिंसा, सत्यम्, अचौर्यम्, ब्रह्मचर्यम्, मद्यमांसादित्यागः इति पंचशीलाः / दुःखम्, दुःखसमुदयः, दुःखनिरोधः, दुःखनिरोधमार्गः, इति 'चत्वारि आर्यसत्यानि'। 200] संस्कृत-प्रवेशिका [4: भगवान् बुद्धः संक्षेपेण इयं नगरी भारतीय संस्कृतिकेन्द्रभूता, यतोऽत्र सर्वधर्म-सम्प्रदायादीनां संस्थानानि यत्र तत्र समवलोक्यन्ते / अस्या गौरवं सौष्ठवं च वैदेशिकानामपि हृदयम् पावर्जयति / अतो धन्या इयं विरचिरचना काशी / शङ्कराचार्येण उक्तम् काशी धन्यतमा विमुक्तिनगरी सालङ्कृता गङ्गका तत्रेय गणिकर्णिका सुखकरी मुक्तिहिं तत् किङ्करी / स्वौकस्तुलितः सदैव बिबुधैः काश्या समं ब्रह्मणा काची क्षोगितलेस्थिता गुरुतरा स्वर्गों लघुः खे गतः // (4) भगवान् बुखः संसारे भगवतो बुद्धस्य नाम को न जानाति / परमात्मनः दशावतारेषु भगवती बुद्धस्य नवमं स्थानम् / साधं-द्विसहस्त्र संवत्सरपूर्व भारतस्योत्तरकोशलेषु कपिलवस्तुनाम्या नगयाँ सुम्बिनीवने वैशाखपूर्णिमाया भगवान् बुद्धः स्वजम्ममा भारतभुवमलकरवान् / अस्य माता 'मायादेवी' पिता च गणानामधिपतिः शाक्यवंशीयो महाराजः 'शुद्धोदनः' / अस्य माता प्रसवात् सप्तमे दिने स्वर्ग गता। अतोऽस्य पालनं विमाता 'प्रजावती' अकरोत् / अस्य नाम सर्वार्थसिद्धिकरः "सिद्धार्थः' आसीन, परन्तु बोधिज्ञानप्राप्यनन्तरं 'बुद्ध' नाम्ना विख्यातोऽभवत् / 'अस्य जन्मकाले एव ज्योतिविद्भिः फलादेशः कृतः यदयं महापुरुषः राज्यादिसुखं परित्यज्य वने तपश्चरित्या च स्वधर्म समस्ते भूमण्डले प्रसारयिष्यति। अतः दैवज्ञप्रबोधितो राजा पुत्रवियोगभिया संसारस्य सर्वान् रमणीयान् पदार्यान् आनाय्य तं तथा बरब्जयत् यथा सः किं दुःखम्' इति ज्ञातुं न शक्नुयात् / अल्पे एव वयसि सः सर्वासु विद्यासु पारङ्गतोऽभवत् / समस्तसुखसाधनैः परिवृतमपि तं राजकुमार संसारात विरक्तं वीक्ष्य पिता तस्य परिणयम् अन्वर्थनाम्या राजकुमार्या यशोधरया सह अकरोत् / सा मचिरेणव कालेन 'राहुल' नामानं पुत्रमजनयन् / देवप्रेरणया परिभ्रमणकाले सिद्धार्थः जराजर्जरितसर्वाङ्ग वृद्धम्, रोगाक्रान्तगात्र रुग्णम्, श्मशानं नीयमानं मृतपुरुषम्, प्रशान्तचित्तं 'सौम्यमूर्ति सन्यासिनं च दृष्ट्वा नितान्तवीणवैराग्यः अभवत् / सः एकदा स्वनिश्चयानुसारम् अर्धरात्री स्तनन्धयं पुर्व मनोरमा पत्नी च सुषुप्त्यवस्थायां परित्यज्य सारथिना सह 'कन्थक'नामकम् अश्वमारुप महाभिनिष्क्रमणमकरोत् / मार्ग सारथये स्वाभरणादीरिः दत्त्वा स्वाभिशायं प्रकटीकृत्य प्रत्यावर्तयत / अथ दनादनं परिभ्रमन् घोर तपः अतपत् / पश्चात 'गया' नगयो वढमूले चिरं तपस्यन् दिव्यज्योतिः अलभत / ततः परं सः 'मुड' प्रति माम्ना सः वटवृक्षश्च 'बोधिवृक्ष' नाम्ना प्रख्यातोऽभवत् / अथ लम्ध-नामज्योतिः सः विश्वकल्याणाय सर्वप्रथमं सारनाथे (वाराणसीसमीपे) / (5) महामना मदनमोहनमालवीयः श्रीमद्भगवद्गीतानुसारेण ये केचन अलौकिकशक्तिसम्पन्नाः महापुरुषाः महीतले समवतरन्ति ते ईश्वरस्यैव अंशभूता भवन्ति / एतादृशाः जगद्वन्दनीयाः महापुरुषाः सर्वेष्वेव देशेषु समये-समये प्रादुर्भवन्ति / एवंविधेषु बाधुनिकेषु महापुरुषेषु भारतीयसंस्कृतेः समुपखिकस्य हिन्दुधर्मकजीवनस्य महामनसो मदनमोहनमालवीयस्य स्थान परममहत्त्वपूर्णम् अनुकरणीयञ्च / अस्य जम्म 1861 ईसवीये दिसम्बरमासस्य 25 तारिकायां प्रयागसमीपतिनि ग्रामे ब्राह्मणकुले अभवत् / अस्य पूर्वजानां राजस्थानान्तर्गत-मालवदेशनिवासित्वाद अयं 'मालवीयः' इति उपाण्यातः / अस्य पिता पं०'अजनाथमालवीयः' विद्वान् सरसकथावानकच आसीत् / अस्य विवाहः मिर्जापुरवासिन्या कुन्दनदेण्या सह जातः / मालवीयेन प्रारम्भिकशिक्षा पितृपादमूले गृहे एव प्राप्ता। अंग्रे कलकत्ता-विश्वविद्यालयान् 1884 ईसवीय बी० ए० परीक्षा समुत्तीर्णा / निर्धनताकारणादस्याध्ययनकाले बहुविघ्नानि समायातानि / अर्थाभावात् 1854 ईसवीयादारभ्य 1887 पर्यन्तं राजकीयोच्च विद्यालयेऽयं शिक्षकपदं स्वीकृतवान् / पश्चात् 1891 ईसवीये सः विधिपरीक्षा ( बकालत - L.L.B.) समुत्तीयं प्राइविवाककार्य ( वकालत) प्रयागे प्रारभत / परन्तु देशसेवाय वाक्कीलव्यवसायं परिस्यक्तवान् / मालवीयः प्रतिदिनं श्रीमद्भागवतस्य भगवद्गीतायाध स्वाध्यायमकरोत् / कालाकाङ्करस्य राज्ञः अनुरोधेन 'दैनिक-हिन्दुस्तान' नामक समाचारपत्र सम्पादितवान् / किञ्चित्कालानन्तरम् अयं बह्वीः पत्र-पत्रिकाः तत्तत्काले नेपू येन समपादयत्; यथा-'इण्डियन-यूनियनपत्रम्', 'हिन्दी-साप्ताहिकपत्रम्', 'अभ्युदयपत्रम, दैनिक 'लीडर' नामकं ऑङ्गलपत्रम्, मासिकपत्रिका 'मर्यादा' / 1902 सनीय उत्तरप्रदेशीयविधानसमितेः तवन 1906 ईसवीये केन्द्रीयविधामसगिक गाय Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] संस्कृत-प्रवेशिका [6 : महात्मागान्धिः स्वरूपेण शासनेन सम्मानितः / तदानी पदमिदं प्रायः आङ्गलदेशवासिनां कृते एव सुरक्षितमासीत्, सदस्यानां कार्य च परामर्शप्रदानमात्रमासीत् / परं तत्पदासीनः मालवीयः शासननीतिसमालोचनमपि यथावसरं निर्भयमकरोत् / 1906 ईसवीया लाहोरकांग्रेससभायाः तथा 1912 ईसवीये दिल्ली-कांग्रेसाधिवेशनस्य च सभापतिपदमभूषयत् / 1916 ईसवीये 'रोलट-एक्ट' इत्यस्य विरोधं गान्धिमहोदयेन सह कृतवान् / देशसेवापरायणः अर्घ द्वि-त्रिवारं कारागारवासमपि असहत / अयं हिन्दूमहासभागोसेवासंघ-सनातनधर्म महासभादिधामिक-सामाजिक संस्थानां संस्थापकः संचालका आसीत् / एवं कालक्रमेण अस्य कीतिः सर्वासु दिक्षु प्रासरत् / ___ अस्य महानुभावस्य नीतिः प्राधान्येन पक्षपातरहिता, देशभक्तिप्रधाना, विदेशवस्तुपरित्यागात्मिका, भारतीयसंस्कृतिसम्पोषिका, स्वतन्त्रताप्रवणा, प्राचीनपरम्परानुसार शिक्षाप्रादानोन्मुखी चासीत् / प्रचलितशिक्षाप्रणाली दास्यमनोवृत्तिवधिनी विचिन्त्य प्राचीन संस्कृतिसंवर्धनाय राष्ट्रियभावनासमुद्बोधनाय च काशी-हिन्दूविश्वविद्यालयं 1916 ईसवीये फरवरीमासस्य चतुर्थतारिकायां शुभभूहर्ते संस्थापितवान् / देशनायकः अयं 1946 ईसवीये नवम्बरमासस्य द्वादशतारिकायां भौतिकं शरीरम् अत्यजत्, न यशःशरीरम् / एवं महामना यावज्जीवनं सततं सामाजिकक्षेत्रे, धार्मिकक्षेत्र, राजनीतिक्षेत्रे शिक्षाक्षेत्रे च चिरस्मरणीयो सेवामकरोत् / काशी-हिन्लू-विश्वविद्यालयः तु अस्य एकः कीर्तिस्तम्भ एव, अन्येऽपि बहवः आसन् किन्तु विस्तरभिया तदुल्लेखः परित्यज्यते / किं बहुना, मालवीयः महान् राजनीतिज्ञः, समाजसेवकः, देशभक्तः, शिक्षाप्रसारकः, आध्यात्मपरायणः निर्भयचासीत् / अस्य कीतिकौमुदी दिग्दिगन्ता व्यापिनी / 6 : महात्मागान्धिः] 3 : निबन्ध [203 लब्हवा च सः स्वदेशं प्रत्यागतः / अत्र आगत्य प्राविवाककार्य (वकालत) प्रारभत सः, किन्तु तद्व्यवसायं छलकपटमयमनुभूय तस्माद् उपारमत / एकदा सः दक्षिण अफ्रीकादेशे गतः / तत्र भारतीयाना कष्टबहुला शोचनीया दशां विलोक्य तेषां समुद्धाराय महद् आन्दोलनं समचालयत् / अयं खलु गान्धिमहोदयस्य राजनीतो प्रवेशस्य प्रथमावसरः / तत्र सफलता प्राप्य सः प्रायः विंशतिवर्षानन्तरं 1914 तमे वर्षे पुनः स्वदेशं प्रत्यागतः / अत्रागत्यैव अयं मोतीहारीमण्डले निवसता नीलव्यवसायिनां गौराङ्गानाम् अत्याचारेभ्यः पीडितो जनता समुद्धा सर्वप्रथममान्दोलनं समचालयत् / ततश्च अमृतसरे 'जलियांवालाबाग' नामकस्थानस्य दारुणनरसंहारघटनातः अतिद्रवितचित्तः सः शासनविरोधे 'असहयोगान्दोलनं' प्रारभत / तदा सः शासनेन सहयोगिभिः सह कारागारवास दण्डितः / 1930 ईसवीये लवणसत्याग्रहे सः पुनः सहयोगिभिः सह कारागारवासं प्रापितः। 1631 ईसवीये सः लण्डने आयोजितायां गोलमेज परिषदि (Second Round Table Conference ) कांग्रेसप्रतिनिधिरूपेण गतः, परन्तु सफलता न अवाप्नोत् / 1937 ईसवीये अस्य प्रेरणया राष्ट्रियमन्त्रिमण्डलः खादीप्रोत्साहनम्, ग्रामसुधारः, मादकद्रव्याणां प्रतिषेधः, भारतीयशिक्षापद्धतेः प्रसारः, हरिजनेभ्यः विविधसुविधाप्रदानम् इत्यादीनि कार्याणि साधितानि / 1942 ईसवीये 'भारतं त्यजत' (Quit India) इति प्रसिद्धं महत्त्वपूर्णच अन्तिमम् आन्दोलनं प्रारब्धम् / पुनरपि सः सहयोगिभिः सह कारागारे निक्षिसः / अन्ततः 1947 तमे वर्षे अगस्तमासस्य पञ्चदयातारिकार्या पूर्णस्वतन्त्रता प्रदाय वैदेशिकघोषणया वैदेशिकशासन समाप्तिमगच्छत् देशश्च स्वतन्त्रोऽभवद / किन्तु तदानीं दुर्भाग्येन देशस्य हिन्दुस्तान-पाकिस्तानरूपेण द्विषा विभाजनं जातम् / दैवदुर्विपाकादेव 1948 तमे वर्षे जनवरीमासस्य त्रिंशत्तारिकायां यवनपक्षपातहष्टेन 'नायुरापगोडसे' नामकेन पूना विद्यलाभवने पञ्चवादनकाले प्रार्थनावसरे सः गुलिकया हतः / एवं भारतभाग्यभानुः अकाले एवं अस्तं गतः / महात्मनो गान्धिनः स्थानस्य पूर्तिरसम्भवैव सर्वथा / (6) महात्मागान्धिः को हि भारतीयो न जानाति महात्मानं गान्धिमहोदयम् / एतेन भारतीयानां स्वतन्त्रतायै समुन्नतये च महान्ति अद्भुतानि च कार्याणि कृतानि / सर्वेष अभूतपूर्वा सफलता च प्राप्ता। अस्य स्मरणं राम कृष्ण-बुद्धादीनामिव क्रियते / गान्धिमहोदयस्य जन्म 1866 ईसवीयस्य अक्टूबरमासस्य द्वितीयतारिकायां गुर्जरप्रदेशे (गुजरातप्रान्ते ) पोरबन्दरनगरे अभवत् / अस्य पितुर्नाम 'श्रीकाबागान्धिः', परममिष्ठायाः मातुश्च 'पुत्तलोबाई' इति / अस्य पिता राजकोटराज्यस्य प्रधानमन्त्री आसीत् / एतेन धार्मिकशिक्षा स्वमातुरेव प्राप्ता / प्राचीनपरम्परानुसारम् अस्य विवाहः बाल्यकाले त्रयोदशवर्षीये वयसि श्रीमत्या कस्तूरबया सह समपद्यत / विवाहानन्तरं सः मैट्रिकुलेशनपरीक्षामुत्तीर्य विधि (Law)-शिक्षाय आङ्गलदेशं - गतः / तत्र चतुर्पु वर्षेषु ता शिक्षा समाप्य तदुपाधि ( Bar-at-Law=L.L.B.) गान्धिमहोदयेन सञ्चालितस्य स्वतन्त्रतासंग्रामस्य सफलतायाः मूलमंत्रः सत्यअहिंसात्मकास्त्र प्रयोग एव / अयं मानवेतिहासे असाधारण सफलः अभूतपूर्वः प्रयोगः आसीत् / यतः दुर्दान्तः प्रबलारिभिः सह अस्त्रविहीन-देशस्य कृते नाग्या गतिरासीत् / अतः एवंविषः सफलः प्रयोगः अस्य देवत्वम् असंशयं प्रकटयति / ततः प्रभूति भारतीयाः परमप्रेम्णा एनं 'बापू', 'राष्ट्रपिता' चेति पदद्वयेन सम्मानयन्ति / अस्तुतः शरीरेण विरहितोऽपि सः अहिंसादिसिद्धान्तः अमरत्वं पाप्तः / तस्य यमगर केवल भारतवर्षे एव अपितु समस्तेऽपि विश्व अभिव्याप्त Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 : महाकविः कालिदासः 3: निबन्ध [205 204 ] संस्कृत-प्रवेशिका [7 : महाकविः कालिदासः (7) महाकविः कालिदासः कविकुलगुरुः कालिदासः न केवल भारतस्य अपितु समस्तविश्वस्य महाकविषु मूर्धन्यतया परिगण्यते / संस्कृतसाहित्ये अस्य प्रतिभा सर्वातिशायिनी / पाश्चात्यसमालोचकाः अपि एनं शेक्सपीयरोपमं स्वीकृत्य सम्मानयन्ति / यथा चोक्तम् 'पुरा कवीनां गणना-प्रसङ्गे कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदासः / अशापि तत्तुल्यकयेरभावादनामिका सार्थवती बभूव / / कालिदासस्य जन्मस्थानमधिकृत्य त्रीणि मतानि सन्ति-(१) केचिदेनं बङ्गदेशीयं मन्यन्ते यतः अस्य 'कालिदास' इति नामैव अभिव्यनक्ति यदयं 'कालि' समाराधनेन कविप्रतिभा लब्धवान् / बङ्गेषु देवी-काली प्राधान्येन पूज्यते / अद्यापि भाषाडस्य प्रतिपदि कालिदासोत्सवः महतायोजनेन सम्पायते / (2) अपरे तु एनं काश्मीरवासिनं मन्यन्ते / अप कुमारसंभवे हिमालयवर्णनम्, मेघदूते अलकापुर्यादिवर्णनम्, अभिज्ञानशाकुन्तले मागच्याश्रमोपकण्ठे काश्मीरप्रदेशानुहारि उपत्यकावर्णनं चैव प्रमाणम् / (3) अन्ये तु एनं उज्जयिनीनिवासिनं मन्यन्ते / एतन्मतसाधक मेघदूते अवन्तिदेशस्थोज्जयिन्याः, तत्समीपस्थप्रदेशानां (दशार्ण-मन्दसौर-विदिशा भेलसादीनां), क्षिप्रायाः भगवतो महाकालस्य च वर्णनम् / अन्यच्च पण्डितसमाजे एतदपि प्रचलितं यत् कालिदासः स्वजन्मना काश्मीरभुवमलकृत्य प्रौढ़े वयराि उज्जयिनीमागतः।। एवमेव कालिदासस्य समयोऽपि विवादग्रस्तः / अत्रापि चत्वारि मतानि प्राधान्येन प्रचलितानि सन्ति-(१) 'मालविकाग्निमित्र' नाटकस्य अनुरोधेन शुङ्गवंशीयस्य राक्षः अग्निमित्रस्य कालः (ईसापूर्व द्वितीयशताब्द्याम् अर्धशतकम् ) उपरितमा सीमा, तथा समाजः हर्षस्य आश्रितेन बाणेन सबहुमान कालिदासनाम वणितम्, तदनुसारेण सप्तमशताब्दीतः प्राक् षष्ठशताब्दी अधस्तना सीमा पर्यवस्यति / एतदभ्यन्तरे एवं केचन कालिदाससमयं ईसापूर्वद्वितीयशताब्दी मन्यन्ते / (2) अपरे जनश्रुतिमनुसृत्य राश: विक्रमादित्यस्य नवरत्नेषु अन्यत अमिमं विक्रमसंवत्सरारम्भे वर्तमानं कालिदासं प्रथमशताब्द्याम् स्थापयन्ति / (3) अन्ये तु सम्राजः विक्रमादित्यापरनामकस्य द्वितीयचन्द्रगुप्तस्य समकालिकस्य कालिदासस्य समयं चतुर्थशताब्दी स्वीकुर्वन्ति / अत्र युक्तिरियमुपस्थाप्यते यत् कलिदासस्य काव्ये यत् वर्णनमुपलभ्यते तत् प्रायो अस्मिन्नेव राशि संगच्छते / (4) मेक्समूलरप्रभृतिभिः कालिदासस्य कालः षष्ठशताब्दी निर्णीयते / अस्य प्रारम्भिकजीवने एका किंवदन्ती बद्धमला प्रचलति / अयं साधारणब्राह्मणकुलोत्पन्नः अल्पे एव वयसि पितृविहीनः परगृहे पालितोऽभवत् / अशिक्षितः अयमेकदा यस्य वृक्षस्य यस्याः शाखायाः अग्रभागं अधिवः आसीत् तामेव छेत्त प्रारभत / तं तथा दृष्ट्वा 'महामूर्ख' इति च मत्वा शास्त्रार्थे कयाचित् विद्योत्तमया राज कुमार्या तिरस्कृताः विद्वांसः तं तस्याः प्रासादं प्रतीकारभावनया नीतवन्तः / तत्र प्रवृत्ते च शास्त्राचे छलेन पराजितायाः तस्याः तत्प्रतिज्ञानुसारम् एतेन सह परिणयं कारितवन्तः / पश्चात् प्रथमसमागमे एवं उष्ट्रस्थाने 'उ' शब्द प्रयुञ्जानं तं महामूर्ख मत्वा सा तं गृहात निस्सारितवती। एवं स्त्रिया पराभूतः कालिदासः कालान्तरे महाकालीप्रसादेन सिद्धि कविप्रतिभा च लब्ध्वा स्वगृहमागतः। यदा सः पत्नी द्वारकपाटमुद्घाटयितुं सम्बोधितवान् तदा सा अन्त:स्थिता एव प्रत्यषद 'अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः ' ततः सः तद्वाक्यस्य प्रतिपदमधिकृत्य क्रमशः कुमारसंभवम् (अस्त्युत्तरस्यामित्यादि), मेघदत्तम् (कश्चित् कान्ताविरहेत्यादि) रघुवंशम् ( वागर्थाविवेत्यादि) चेति त्रीणि काव्यानि अरचयत् / अन्यान् अपि ग्रन्थान् निर्मितवान् / यथा-अभिज्ञानशाकुन्तलम, विक्रमोर्वशीयम् मालविकाग्निमित्रम् चेति श्रीणि नाटकानि तथा ऋतसंहारनामकमेक मुक्तककाव्यम् च / तत्र काव्येषु रधुवंशमहाकाव्यम्, नाटकेषु अभिज्ञानशाकुन्तलम्, खण्डकाव्येषु ( Lyrics ) मेघदूतं सुविख्यातम् / अस्य रचनासु-(१) ध्वनिप्राधान्यं तत्प्रयुक्त चार्थ गाम्भीर्यम्; (2) अलङ्कारविषयाणां सर्वसाधारणानुभवगोचरता तत्प्रयुक्तमुपमादिवैशिष्टयम्, यथोक्तम्-'अपमा कालिदासस्य (0) प्रसाद-माधुर्यवैशद्यम्; (4) शब्दस्य अर्थानुरूपता; (5) वैदर्भीरीति-रस-विषयानुकलछन्दसा प्रयोग; (6) भावप्रवणता; (7) कला-कौशलम्; (5) प्रकृतिवर्णन-चरित्रचित्रण पुण्यम् ; (9) सहजसौन्दर्य निरूपणम् / (10) भारतीय-संस्कृतिसम्पोषकत्व बाहुल्येन दृश्यते। अन्येऽपि बहवो विशेषाः सन्ति किन्तु निबन्धविस्तरभिया नोल्लिख्यते / किं बहुना, यादृशं चारुत्वं रचना-चमत्कृतिर्वा अस्य प्रन्थेषु उपलभ्यते तत् प्रायो अन्यत्र दुर्लभम् / उदाहरणार्थ त्रीणि पद्यानि प्रस्तुयन्ते-- संचारिणी दीपशिखेव रात्री यं यं व्यतीयाय पतिवरा सा / नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपालः / / रघुवंशः / / . इदं किल व्याजमनोहरं वपुस्तपःक्षम साधयितुं च इच्छति / ध्रुवं स नीलोत्पलपत्रधारया शमीलता क्षेत्तमृषिर्व्यवस्वति / / शाकुन्तलम् / / मन्दं मन्द नुदति पवनश्चानुकूलो यथा त्वां वामश्चार्य नुवति मधुरं चातकस्ते सगन्धः। खिन्नः खिन्नः शिखरिष पदं न्यस्य गन्तासि यत्र / क्षीणः क्षीणः परिलघु पयः स्रोतसां चोपभुज्य / / मेघदूतम् / / किं बहुना, कवेरप्रतिम वैदुष्यं विचार्य श्रीकृष्णेन कविना सम्यगेवोक्तम् -- अस्पष्टदोषा नलिनीव हृद्या हारावलीव प्रथिता गुणोथैः / प्रियाशुपालीव विमर्दहया न कालिदासावपरस्य पाणी। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] संस्कृत-प्रवेशिका [8: सत्सङ्गतिः . 2: सदाचारः] 3 : निबन्ध [207 एव मंत्रीम्, विचारविमर्शम्, आहारा दिव्यवहारं च कुर्यात्, न जातु असज्जनः सह / उक्तञ्च भवभूतिना सत्सङ्गतिमाहात्म्ये-'सतां सद्भिः सङ्गः कथमपि हि पुण्येन भवति / ' किन्नाम तद् हितं यत्सङ्गतिनं वितनुते / भर्तृहरिणा मीतिशतके अभिहितम् जाडधं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यम्, पानोमति दिशति पापमपाकरोति / चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीति, सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुंसाम् / / अपि च पापन्निवारयति योजयते हिताय, गुह्यं निन्हति गुणान् प्रकटीकरोति / आपद्गतं प न जहाति ददाति काले, सत्सङ्गतिः कथय किन करोति साम् // अतः समुन्नतिम् इच्छता जनेन सदा सतामेव सङ्गतिविधेया न कदाप्यसताम् / उक्तमपि सद्भिरेव सहासीत सद्भिः कुर्वीत सङ्गतिम् / सद्भिविवाद मैत्रीच नासद्भिः किश्चिवाचरेत् / / किमधिकम्, सत्सङ्गतिः सर्वान् कामान् पूरयति यथाहि कल्पनुमः कल्पितमेव सूते स कामधुक कामितमेव दोधि / चिन्तामणिश्चिन्तितमेवघले सतां तु सङ्गः सकलं प्रसूते / / (8) सत्सङ्गतिः (सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुंसाम - सतां तु सङ्गः सकलं प्रसूते) "सतां = सज्जनानां सङ्गतिः = संपर्कः ( सम्बन्धः) 'सत्सङ्गतिः'। यो यादर्शः पूरुषः सह सङ्गति करोति सः तादृगेव भवति / सज्जनानां सङ्गत्या जनः सज्जनो विनम्रश्च भवति, असज्जनानां च सङ्गत्या सः दुष्टः उद्धतश्च भवति / यथा 'स्पर्शन मणेः संसर्गात सौहमपि स्वर्णावते तथैव सज्जनसंसति निर्गुणोऽपि सकलगुणोपेतः सज्जनश्च जायते / यथोक्तम् काचः काञ्चनसंसर्गातत्ते मारकती द्युतिम् / तथा सत्सन्निधानेन मूखों याति प्रवीणताम् / / अपि च-'संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति / तथा च-'कीटोऽपि सुमनः संगाद् आरोहति सतां शिरः। तस्मात् सतामेव सङ्गतिविधेया न कदाप्यसताम् / सता संगत्या बुद्धिनिर्मला भवति / असत्संपर्केण तु मलिनीभवति / निर्मलायां बुद्धी कार्याकार्यविवेकः प्रस्फुटति, मलिनायां तु सोऽपगच्छति / अतः उक्तम् वरं पर्वतदुर्गषु भ्रान्तं वनचरैः सह / न दुष्टजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि // मस्मिन् जगति न कोऽपि एकाकी संसरति / अनेकः परिचितापरिचितः सह मिलिस्वैव व्यवहरनित्त जनाः / संसारमात्रायां विविधक्रियाकलापेषु परसङ्गतिरनिवार्या / मनुष्यः सामाजिक प्राणी / तस्मात् परसंपर्क विना सः जीवनयात्रा न कर्तुं शक्नोति / सर्वस्यैव मित्राणि शत्रवश्च भवन्ति / एवं स्थिते यदि सः सद्भिः संपर्क करोति तर्हि तस्य जीवनं सुन्दरं सफलं च भवति / अन्यथा महान्ति कृच्छाणि आयान्ति, अकीतिश्च प्रसरति / इत्थं च मानवस्योपरि सङ्गतेरनिवार्य प्रभावः / बालकस्योपरि तु विशेषरूपेण, तस्य कोमलस्वभावत्वात् बुद्धरपरिपाकाच्च / सः यादृशैः सह पठिष्यति, गमिष्यति, क्रीविष्यति, खादिष्यति, वस्य॑ति येभ्यश्च शिक्षा ग्रहीष्यति तादृगे। भविष्यति / यथोक्तं हितोपदेशे-"यन्नवे भाजने लग्नः संस्कारो नान्यथा भवेत्।" तत्र दुर्जनानां संसर्गेण अवर्णनीयाः ज्ञाताः अज्ञाताः वा हानयः भवन्ति / यथा-वृद्धिभ्रंशः, सच्चरित्रतानाशः, सुहृज्जन वियोगः, सम्पत्तिह्रासः, सद्गुणोच्छेदः, कुलमालिन्यम्, सर्वत्राकीर्तिप्रसारः, सर्वानादरभाजनता इत्यादयः / सत्यमेव कथितम् दुर्जनः परिहर्त्तव्यः विद्ययाऽलङ्कृतोऽपि सन् / मणिनः भूषितः सर्पः किमसौ न भयङ्करः / - अपि च-हीयते हि मतिस्तात ! हीनः सह समागमात् / समैश्च समतामेति विशिष्टश्च विशिष्टताम् / / तथा च-असतां सङ्गदोषेण को न याति रसातलम् / अतः सज्जनः सह (3) सदाचारः (आचारः परमो धर्मः शीलं परं भूषणम् =आचारहीनान पुनन्ति वेदाः ) सता सज्जनानाम् आचारः 'सदाचारः' अथवा राम्सम्यक् आचारः 'सदाचारः'। मानवस्य उप्रतिसाधकेषु गुणेषु सदाचारस्य प्रथम स्थानम् / तस्य सम्पूर्णमहिमा शब्दवर्णयितुं न शक्यते / यत्र सदाचारः तत्र सत्यवादिता, विनम्रता, धार्मिकता, जितेन्द्रियता, अलोलुपता, निष्कपटता अन्ये च सर्वे सद्गुणाः मित्रभावेन निवसन्ति / 'सदाचारश्च परमो धर्मः। आहारनिद्रादयः प्राणिमात्रसाधारणाः भावाः किन्तु सदाचारधर्म एवं विशिनष्टि मानवम् अन्येभ्यः प्राणिभ्यः / यथोक्तम् आहारनिद्राभयमैयुनं च समानमेतत् पशुभिर्नराणाम् / धर्मो हि तेषामधिको विशेषः धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः / / सदाचारिणः समाज देशं विश्वं च समुन्नेतुं पारयन्ति / ते केनापि प्रलोभनेन न्यायात् पयः न विचलन्ति अपितु सर्वदैव सर्वेषां कल्याणं निस्स्वार्थ कर्तुं प्रयनन्से / एतादृशानां महापुरुषाणां समाजे महान् प्रभावो भवति, सर्वत्र सर्वदा प विला समादरः / सदाचारिणः जनानां मूर्धनि तिष्ठन्ति, न कुत्रापि कदापि मा उपहागा. पदानि निन्दाभाजनानि वा भवन्ति / अतएवोक्तम्-शीकां पर भूषणम। ग) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MATHURN परोपकारः] 3: निबन्ध [206 एवं स्वेषां परेवाच कल्याणसम्पावनाय सदाचारस्यैवापेक्षा न तूपदेशमात्रस्य / श्रीमद्गीतायां लिखितम्-'जोषयेत सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्' / 208] संस्कृत-प्रवेशिका [: सदाचारः दुष्प्रवृत्तयः सदाचाराभावमूलाः, सर्वे गुणाः सदाचारमूलाच / सत्स्वपि अर्थबलादिषु सदाचारेण विना तस्य सर्व शून्यं भवति / यथोक्तम्-'वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च / अक्षीणो वित्ततः क्षीणः वृत्ततस्तु हतो हतः / ' अपि चाङ्गलभाषायाम 'If health is lost, something is lost. If wealth is lost nothing is lost. If character is lost everything is lost.' सदाचारविहीनाः निरगल ( स्वच्छन्दम् ) कुमार्ग विचरन्तः इहलोके परलोके च दुःखभाजः भवन्ति / यथा सर्वशास्त्रनिष्णातो महाबलवान् रावणः सर्वशः काल-कबलितः, स्वर्ग गतोऽपि राजा नहुषः अधः निपातितः / यदि कोऽपि धन-विद्यादिबलात् आत्मनो दुश्चरित्राणि गोपयित्वा प्रतिष्ठा प्राप्नुयात् परं सोऽपि दुष्कर्मणां भाण्डस्फोटे परमनिन्दनीयां दुर्दशा प्राप्नोति / सच्चरित्रतायाः कोऽपि अनिर्वचनीयः लोकोत्तरः प्रभावी भवति येन तस्य पुरस्तात् महान्तोऽपि जनाः निष्प्रभा भवन्ति / मर्यादापुरुषोत्तमराम-महावीर-बुद्धप्रभृतयः महापुरुषाः सदाचारबलेनैव पूजनीयाः। चिरं देशोऽयं सदाचारे विख्यातः आसीत् किन्तु इदानीं महतः 'खेदस्य विषयः यद् केचन परोपदेशकुणलाः नेतारः सदाचाराद् दूरं गताः / अतएव अस्मद्देशे प्रशस्तसिद्धान्तेषु सत्सु अपि सुखस्य शान्तेश्च ह्रासः सञ्जातः, विदेशेषु च अस्य प्राचीनं गौरवम् अपाचिनोत् / वस्तुतः सदाचाराभावे प्रशस्त सिद्धान्तानां मूल्यवत्ता शून्यैव यथा सुविचारितमपि औषधं नाम-स्मरणमात्रेण आरोग्य-जनकत्वाभावात् निष्फलम् / उक्तमेव सत्यम् शास्त्राण्यधीत्यपि भवन्ति मूर्खाः यस्तु क्रियावान् पुरुषः स एव / सुचिन्तितञ्चौषधमातुराणां न नाममात्रेण करोत्यरोगम् // ये जनाः घनविद्यादिगुणसम्पन्नाः परन्तु आचारहीनाः सन्ति तान् वेदाः अपि न पुनन्ति / अतः प्रसिद्धा उक्तिरियम्-'आचारहीनान पुनन्ति वेदाः।' ये च सदाचारपरायणाः तेषां प्रतिष्ठा सार्वकालिकी भवति / ___ सन्तते चरित्रनिर्माणाय गुरुजनैः सदाचारिभिभाव्यम् / सदाचारवलेनैव श्रीस्वामीरामकृष्णपरमहंस-मदनमोहनमालवीयप्रभृतयः समाजसुधारकाः दिगम्त विधान्तकीर्तयः देशसमुन्नायकाच अभवन् / किं बहुना, सदाचारं बिना सर्व व्यर्थम् इहलोके सुखस्य, परलोके च चरमपुरुषार्थस्य मोक्षस्प साधनं सदाचार एव / (10) परोपकारः (परोपकाराय सतां विगूतयः) परेषामुपकारः 'परोपकार'। अन्येषां हिताय यदपि क्रियते शत् सर्व 'परोपकार' इति कथ्यते / मानवजीवनल्य साफल्यं परोपकारे एव / शास्त्रेषु गावासोऽपि . धर्माः वणिताः सन्ति तेषां सर्वेषां परोपकारः मूर्धनि तिष्ठति / यथोक्तं महर्षिणा व्यासेन अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् / - परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् / / परोपकारस्य भावना अन्तःकरणे पवित्रतामुत्पादयति, ईया-द्वेषादिकानुष्यं विनाशयति, प्राणिमात्रे च भ्रातृभावं संवर्धयति / परोपकारिणः अन्येषां दुःखानि आत्मगतानि मन्यन्ते तानि दूरीकर्तुं सततं प्रयतन्ते च / ते परोपकरणे स्वकीयं दुग्ध न गणयन्ति / ते निर्धनेभ्यः धनम्, वस्त्रहीनेभ्यः वस्त्राणि, बुभुक्षितेभ्यो अन्नम्, पिपासितेभ्यो जलम्, अशिक्षितेभ्यः शिक्षाम्, असहायेभ्यः साहाय्यं ददति / ते एक देशसेवा समाजसेवां विश्वकल्याणं च कतु प्रभवन्ति / तेषां सर्वस्वं परार्थमेव भवति, न क्षुद्रस्वार्थाय / प्रकृतिरपि सदा परोपकारे निरता अस्मभ्यं तस्यैव शिक्षा ददाति / विमृश्यता किमर्थ रात्रिदिवं गन्धवहः प्रयाति, सूर्यचन्द्रमसौ नक्षत्राणि च प्रकाशन्ते, नयः अविरल प्रवहन्ति, तरवः सुस्वादुफलानि फलन्ति, सुभानि सौरभ विकिरन्ति, मेघाच वर्षन्ति / एतेषां सर्वेषामेकमेव समाधानं 'परोपकार' इति / यथोक्तम्-- पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः, स्वयं न खादम्ति फलानि वृक्षाः / धाराधरो वर्षति नात्महेतोः, परोपकाराय सतां विभूतयः / / 'परोपकारार्थमिदं शरीरम्' इति मन्यमानानां परोपकारिणां स्वभावः कथं भवति ? अषोक्तम्-- भवन्ति, नास्तरवः फलोदामैः, नवाम्बुभिर्भूरिविलम्बिनो घनाः / अनुशताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः, स्वभाव एवैध परोपकारिणाम् / / अस्महेशे अनेके महापुरुषाः परहितमाचरन्तः अशेषजमिनम् अयापयन् / परोपकारभावनया महाराजः शिविः शरणागतस्य कपोतस्य रक्षणाय ममोग श्येनाय प्रायच्छत् / महाराजो बधीनिः देवानां हिताय स्वकीयानिमामोनित वान् / महाराजो मयूरध्वजः अन्यस्य आधानिवारणाम नाम / / सदाचाराधशो लोके सदाचारात्सुखं दिवि / सदाचाराद् भवेन्मोक्षः 'सदाचारो हि कामधुक' / / Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] संस्कृत-प्रवेशिका [संस्कृतभाषायाः महत्त्वम् एतादृशाः एव अनेके परोपकारपरायणाः श्रीराम-कृष्ण-महावीर-बुद्ध गान्धि-मालवीयप्रभूतयः महापुरुषाः संजाताः येषां सुकृत्यैः देश: समुन्नतः अभवत् / एतेषां सर्वां यशांसि चिरस्थायीनि / उक्तन श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन, दानेन पाणिनं तु कङ्कणेन / विभाति कायः खलु सज्जनानां, परोपकारेण न चन्दनेन / / 'परोपकारपरायणानां सर्वदा सर्वत्र च सम्मानः अवश्यम्भावी' इति. मस्वा सर्वेरपिसदं स्वार्थ परित्यज्य परोपकाराय यतनीयम् / यदि मानवानां हृदयेषु परोपकारस्य अल्पा अपि भावना समुदिता भवेतहि संसारस्य बह्वीनां जटिल समस्यानाम् अनायासमेव समाधानं सम्पद्यत, शान्तिश्च स्थाप्येत / 'उदारचरितानान्तु वसुधैव कुटुम्बकम्', 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' इत्यादिसिद्धान्तवन्तः परोपकारिणः भवन्ति / अन्येषाम् उपकर्तुः आत्मनोऽपि हितानि भवन्ति, विभूतयश्च पवे-पदे आयान्ति / यथोक्तम्'परोपकरणं येषां जागति हृदये सताम् / नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पयस्तु पदे पदे // अपि च; परोपकारः कर्तव्यः प्राणरपि धनरपि। परोपकारजं पुण्यं न स्यात् क्रतुशतैरपि।। (11) संस्कृतभाषायाः महत्त्वम् वैशिष्टयञ्च संसारेऽस्मिन् विभिन्नदेशेषु विभिन्नाः भाषाः प्रचलिताः सन्ति / न कोऽपि ताः परिगणयितुं समर्थः / संस्कृतभाषायाः इदं वैशिष्टधं यदियमेव 'देवीवाक्', 'सुरभारती', 'गीर्वाणवाणी' इत्यादिपरभिधीयते, नान्या कापि भाषा / अन्यच्च, अन्याः सर्वाः भाषाः मानवव्यवहारमात्रसाधनभूताः किन्तु संस्कृतभाषा कर्मविद्या-ब्रह्मविद्योभयप्रतिपादिका अपि अस्ति / इयं संस्कृतभाषा प्राचीनतमा, सुप्रसिद्धा, प्रायः सर्वासामपि भारतीयभाषाणां जननी च / प्राकृत-पालि-अपभ्रंशादिप्रणाल्या अधुना प्रचलिताः हिन्दी-बंगला-मराठी-गुजराती-प्रभृतयः सर्वाः अपि भाषाः एतस्याः एव समुद्भूताः इति पुत्री-पौत्रीस्थानापन्नाः / अस्याः व्याकरणं सर्वतोभावेन वैज्ञानिकं सर्वविधदोषरहितं सुव्यवस्थितं च / अतएव मैकडानल-कीलहान-मैक्समूलर-कीयप्रभूतयः वैदेशिका: विद्वांसः अपि अस्याः प्रशंसा मुक्तकण्ठेन अकुर्वन् / 'सम्' पूर्वकात् 'कृ' धातोनिष्पन्नः 'संस्कृत' शब्दः / भाष्यते - जनः दैनन्दिनव्यवहारे प्रयुज्यते इति भाषा / अनया व्युत्पत्त्या अनुमातुं शक्यते यत् कदाचिद् इयमपि जनसाधारूप प्रयुज्यमाना आसीत् / श्रूयते यदियं भाषा पूर्वम् अव्याकृता (प्रकृति-प्रत्ययसंस्काररहिता, अखण्डरूपा च ) आसीत्, प्रयोक्तृदोषेण कालक्रमेण किञ्चित् अपभ्रष्टा च अभवत् / पश्चान् देवतानुरोधेन इन्द्रः व्याकरणशास्त्र निर्माय इमा व्याकृताम् (प्रकृति-प्रत्ययसंस्कारसहिताम् ) अकरोत् / अतएव 'संस्कृतम्' इयं संस्कृतभाषायाः महत्त्वम् ] 3: निबन्ध [211 संज्ञा प्रचलिता अभवत् / एवम् अस्याः भाषायाः प्रथमं व्याकरणम् 'ऐन्द्रम्' (इन्द्रप्रणीतम्) आसीत् / अधुना 'पाणिनिव्याकरणम्' (पाणिनिप्रणीतम्) पठन-पाठने प्रचलितम् / प्रकृति-प्रत्ययसंस्कारयुक्ता इयं संस्कृतभाषा साधुशब्दवती इति / साधुशब्दप्रयोगेन धर्मो भवति, असाधुशब्दप्रयोगेन तु अधर्मः / यथोक्तम् 'एकः शब्दः सम्यग्ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्ग लोके च कामधुग भवति' / अस्याः भाषायाः द्विविध रूपम्-वैदिकं लौकिक च / वेदस्य चत्वारो भागा:मंत्र-ब्राह्मण-आरण्यक-उपनिषदः / तत्र भवं संस्कृतं वैदिकमिति कथ्यते / तदुत्तरम् अन्यग्रन्थेषु भवं संस्कृतं लौकिकम् इति निगद्यते / अस्याः भाषायाः शब्दकोषः (Vocabulary) बृहत्तमः, नवीनशब्दनिर्माणसामर्थ्यमपि प्रभूतम् / एतस्याः साहाय्येनैव हिन्दीप्रभृतिभाषान्तरेषु विज्ञानादिपारिभाषिकशब्दाः निर्मातुं शक्यन्ते / अस्माकं सर्वाः प्राचीनविद्याः कलाश्च अस्यामेव भाषायाम् उपनिबद्धाः / अतः सस्मिन्-तस्मिन् विषये प्राचीनसाहित्यज्ञानलाभाय नवीनसाहित्यसर्जनाय च संस्कृतस्य अध्ययनमनिवार्यम् / संस्कृतभाषायाः ज्ञानं विना भारतीयाः आत्मनः पुरातनमितिहास, प्राचीनपरम्पराः, संस्कृतिम्, ज्ञान-विज्ञानादिकं च सम्यग् अधिगन्तुं न प्रभवन्ति / भाषाविज्ञानस्यापि दृष्ट्या अस्याः महत्त्वं निर्विवादम् / एतत्साहाय्येन भारोपीयअवेस्ता-लैटिनप्रभृतीनामपि भाषाणां ज्ञानं सुगर्म भवति / इत्थं च संस्कृतज्ञाने सति स्वल्पप्रयासेनैव बहीनो भाषाणां ज्ञानं लब्धुं शक्यते / विश्वसाहित्यस्य सर्वप्राचीनअन्याः वेदाः संस्कृतभाषायामेव उपनिबद्धाः। वाल्मीकि-व्यास-कालिदास भवभूति-बाणप्रभृतयः महाकवयः अस्यामेव ग्रन्थान् लिखितवन्तः / समयानुरोधेन संस्कृतभाषा इदानी बहुधा आक्षिप्यते / केचन इमां मतां वर्तमानकालानुपयोगिनीं च मन्यन्ते / अपरे इमाम् अतीवकठिनां मत्वा एतदध्ययनात् पराजयन्ते / अन्ये तु इमाम् अर्थोपार्जनाक्षमाम्, व्यम्, कूपमण्ट्रकतासाधिकाम्, व्यवहाराद् दूरापेतां च गणयन्ति / इमे सर्वेऽपि अधिक्षेपाः भ्रान्तिमूलकाः; यतः 1. यावत् कस्यामपि भाषायाम् अध्ययनचिन्तनादिकम् अनुवर्तते, नबीनग्रन्थनिर्माणं च प्रचलति तावत् सा मतेति कथयितुं न शक्यते / इदानीमपि अस्याम् उभयम् उपलभ्यते / तस्मान्न जातु मृता इति वक्तव्यम् / 2. संस्कृतभाषा साम्प्रतमपि नानुपयोगिनी, नापि व्यर्या / प्रयोगाभावेन अनुपयोगिता न सिद्धयति / यथा पार्श्वस्थितम् उपनेत्रम् धारकेण अप्रयुक्तमपि नागुपयोग भवति, तस्य प्रकाशनस्वरूपयोग्यतायाः तदानीमपि सद्भावात् / शाम-विज्ञानपि. लाभः यथा संस्कृतभाषया संभवति न तथा अन्यया भाषया / मायं भगोषurm क्षमः, योग्यः, समर्थोऽपि नोपयुज्यते, न वा तेन तरयानुपयोगिता भिवति / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भातृभक्तिः देशभक्तिश्च ] 3: निबन्ध [215 212] संस्कृत-प्रवेशिका [मातृभक्तिः देशभक्तिच 3. काठिन्यं न बनु संस्कृतस्प दोषः किन्तु तदध्यापनप्रणाल्याः। यतः इदानीमपि सुगमतमरीत्या संस्कृतम् अनायासं पाठयितुं शक्यते / 6. सत्कृताध्येतणां कूपमण्ट्रकता नाध्ययनजन्य। किन्तु वातावरणप्रयुक्ता, स्वमस्तिष्कप्रयुक्ता च, तेष्वपि यास्मन् कस्मिन् दूरदशितायाः आधुनिकतावाश्योपलम्भात् / इतिहासपर्या लोचनेन इदं सुस्पष्टं यद् अतीते समये संस्कृतज्ञाः एव महर्षयः राजनीतिज्ञाः, शास्त्रको विवाः, व्यवहारकुशलाः, देशसमुद्धारकान अभवन् / 5. भाषाज्ञानस्य ज्ञानमेव फलं, न तु-अर्थोपार्जनम् / यथोक्तम्-'गुणाः खलु गुणाः एव, न गुणाः भूतिहेतवः।' धनसञ्चयकतणि भाग्यानि पृयगेव हि / अन्यच्च नेदं तथ्य यत् संस्कृताध्ययनात् धनागमो न भवति, व्यापकविगतोपलब्धेः / एवं धर्मसंस्कृतिपरम्परादिविज्ञानाय ऐक्यसंरक्षणाय व संस्कृतस्य महती उपयोगिता / इयमेव भाषा समस्तदेशम् एकतासूत्रे बध्नाति / इयमेव भारतस्य प्राणभूता भाषाऽस्ति / अस्याः गुणगणस्य वर्णने महाविद्वांसोऽपि असमर्थाः सन्ति / वेदाः, भगवद्गीता, पुराणानि, धर्मशास्त्राणि, काव्यानि च अस्याः माहात्म्यमेवोद्घोषयन्ति / अतः अस्याः संरक्षणाय, संवर्धनाय, प्रचाराय सर्वरपि सततं प्रयतनीयम् / इयं दशस्य निधिः, अनुपम वैशिष्टयम्, अनन्यलम्या विभूतिश्च / (12) मातृभक्तिः देशभक्तिश्च (जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी) भगवता रामचन्द्रेण कनकमथ्याः लङ्कायाः सुचानि तिरस्कृत्य मातुः (जनन्याः) मातृभूमेः (स्वदेशस्य ) च महत्त्वमजीकृतम् अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते / जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी // यो नरः यस्याः कुक्षी जन्म लभते सा तस्य जननी भाताबा, तथा यो यस्मिन् प्रदेशे जन्म लकवा वर्धते जीवनं च यापयति सः तस्य जन्मभूमिः स्वदेवाः मातृभूमिळ / यथा जनन्याः स्वसुतं प्रति नैसोगकं प्रेम भवति तथैव नराणां जननी जन्मभूमि च प्रति नैसगिकी भक्तिः, तयोः प्राणादपि संरक्षण मातृभक्तिः देशमक्तिश्च कथ्यते / मातृकुक्षी मातृभूमौ च नरैयदृिर्श सारख्यपूर्ण निष्कपटः स्वाभाविकश्च सुखं समनुभूयते तादृशं स्वर्गेऽपि न सम्भवम् इति / बालकस्य कृते मातव सर्वस्वमस्ति / सा तदर्थ स्वीयं कष्टजात अगणम्पि,लं प्राणायपि रक्षति / सा स्वयमपीत्वा पुत्रं पाययति, स्वयमनङ्कित्वा स्वसुतस्योदरं भरति, नामकस्य सुखचिन्तय सदा तस्याः समक्षं भवति / पुर्व कष्टान्वितमवलोक्य तस्याः हृदयमतिशयेन अति। सा स्वकीयेन अलोकिकेन स्नेहेन स्वयं करकवर्ष सहमानापि स्वजातं स्वाथै पालयति- लालयति च / किं बहुना, किमस्ति तद् यद् अलौकिकेन मातुःस्नेहेन नहि पूर्यते / उक्त 'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति / अतः उपनिषत्सु आदिश्यते -'मातृदेवो भव' / नरः कवाचिदपि मातुरनृणता प्राप्तुं न शक्नोति / भनुनाऽप्युक्तम्--- यं मातापितरौ बलेशं सहेते संभवे नृणाम् / / न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि / / एतादशगुणसम्पन्ना जननी.. स्वर्गादप्यधिका कथन स्यात् / अतः पुरैरपि तस्याः सेवा अवश्यकरणीया / प्राचीनकाले श्रवणदिभिः भातृ-पितृसेवा प्रदर्शिता / अस्मागिरपि सर्वदा प्राणपणेन जननीसेवार्थ प्रयतितव्यम् / ___ स्वदेशं प्रति मानवानां नैसगिक प्रेम 'देशभक्ति अथवा स्वदेशस्य समुन्नतये या सर्वपरित्यागरूपा भावना सा 'देशभक्तिः। स्वदेशस्याने स्वजीवनमपि तणाय मन्यन्ते देशभक्ताः / न कोऽपि देशः तावत् समुन्नतो भवति यावत् तत्र देशभक्ताः न स्युः / अतो मानवानां कृते देशभक्ति प्रधानं कर्तव्यम् / तां विना ते भारभूताः शवकल्पान / ये जनाः देशस्य - रक्षाय सदा प्रयतन्ते तथा अवसरे सति स्वशरीरार्पणमपि कुर्वन्ति तेषामेव जीवन जीवनम, तद्विपरीतानां तु जीवनं सर्वथा व्यर्थम् / यथोक्तमम स्वदेशो परमा प्रीतिः यस्य नास्ति च गौरवम् / धन-धान्ययुतस्यापि व्यर्थ तस्य हि जीवनम् // जन्मभूमेः क्षेत्र विस्तृतं वर्तते / सा सर्वदा अतिशयानन्दप्रदायिनी; अतः यदा दूरस्थः जनः स्वकीयां जन्मभूमि मागच्छति तदा स्वमातुरभावेऽपि हर्षातिशयमनुभवति / इत्थमस्ति तत्र कश्चिदभुतानन्दस्य उत्सः। देशभक्ताः स्वल्पेनैव कालेन अवनतमपि स्वदेषां समुषतेः शिखरं प्रापयन्ति / यथामहात्मागान्धि-लोकमाग्यबालगंगाधरतिलक-सुभाषचन्द्रबोस-सरदारभगतसिंहप्रभृतयः / एत: पुण्यश्लोकैः महानुभावः देशहिताय स्वशरीरम् अपितम्, बहूनि दुःखानि च सोढानि / देशद्रोहिणः तथैव समुपतमपि देशं स्वल्पेनैव कालेन अवनतेः गतं प्रापयन्ति / यथा-जयचन्द्र-मीरजाफरप्रभृतयः / एतः जघन्यैः देशद्रोहिभिः स्वार्थसाधनाय तथा कृतं येन देशस्य महती हानिरापतिता, तेषां स्वार्थोऽपि च नष्टः / देशभक्तेः बहूनि अङ्गानि भवन्ति / यथा अशान्तिसमये राजनीतिकान्दोलने योगदानम्, युद्धकाले शत्रुनाशाय विविधाःप्रयला तथव शान्तिकालेऽपि. देशानुरागवर्षक नबीनसाहित्यसर्जनम्, आवश्यकतानुसार सर्वतोमुखानि नतननिर्माणानि, विशामकलादिविकासश्च / देशहिते साधिते वयक्तिकलाभोऽपि संभवति / यतः विनटे राष्ट्र कुत: कल्याणम् / देशभक्तिः तदैव विकसिता प्रतिष्ठिता च भवति यदा बानो या प्रारम्भतः एव तस्याः शिक्षा प्रदीयते / तदनुकूल विपुलसाहित्यसर्जनमपि संभवेत् / स्वतन्त्र त्या Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] संस्कृत-प्रवेशिका [ अनुशासनम् तालाभेऽपि देशेऽस्मिन् अस्याः महती आवश्यकता / यतः एनां विना आर्थिक विकासः संरक्षण च न संभवति / इति विचार्य भारतीयाः प्रातः शयनतलादुत्थायव जन्मवसुग्धरा नमस्कुर्वन्ति वसुन्धरे नमस्तुभ्यं भूतधात्रि नमोऽस्तु ते / रत्नगर्भ नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे // अपि च---'क्षोणोऽपि देहमिव कस्त्यजति स्वदेशम् // ' मनीषिभिः मातृभूमिरपि मातैव मन्यते 'माता भूमिः पूषोऽहं पृथिव्याः' / अतः सर्वैरपि मातृसेवां देशसेवां च प्रति दृढ़प्रतिभिर्भाव्यमिति / (13) अनुशासनम् ( सो शक्तिः कलौ युगे एकता) 'मनु' 'उपसर्गपूर्वकात् 'शास्' धातोः निष्पन्नोऽयम् 'अनुशासन' शब्दः / तैत्तिरोयोपनिषदः शांकरभाष्ये अस्य व्याख्यानम् ईश्वरवचनरूपेण कृतम् / गुरुवचनं शासकवचनं वा ईश्वरवचने अन्तर्भूतम् / प्रकारान्तरेणापि इदं व्याख्यातुं शक्यतेमनु - पश्चात् = गुरुपगमनानन्तरं तदीयशासनम् = हिताहितकरणपरिहाररूपवचनम् 'अनुशासनम् / अग्रे एतदेव सामाग्यरूपेण कस्यापि शासकस्य वचनानुसरणे तदादेशपालने वा परिणतम् / फलतः अस्य शब्दस्य अयमर्थः अस्ति यत् कस्यापि व्यवस्थितनियमसमुदायस्य विधिवाक्यवत् (क्षोव-क्षेमं विनंव ) पालनमेव अनुशासनम् / अनुशासनम् द्विविधम-स्वाभाविक बलादारोपितं च / पूर्व तु विनम्रता-आत्मसंयमादिसहितम्, व्यवस्थित-नियम-सदादर्शप्रभवम्, स्वेच्छया परिगृहीतं च भवति / अपर तु दुःखदेण्यादिसंवलितम्, दण्डभीतिजन्यम्, अनिच्छया पालितं च / दासत्वभावनाविकासप्रतिवन्ध स्वतन्त्रचिन्तनाभावादिदोषाः द्वितीये एवं अनुशासने संभवन्ति, न. तु प्रथमे। जीवनस्य प्रत्येको अनुशासनस्य महती आवश्यकता भवति / एतद् विना कुषापि कदापि कस्यापि सफलता न संभवति / अनुशासनमन्तरेण कापि सुष्यवस्था न प्रचलितुं शक्नोति / स एव देशः समाजश्च समुन्नतो भवति यस्मिन् प्रजाः शासकाश्च अनुशासनपालकाः / अतः गृहे आशैशवाद् अनुशासनस्य शिक्षा पितृभिः शिक्षासंस्थासुच तदधिकारिभिः प्रदेया / अम्यान स्वप्रभावेण, न तु दण्डभयेन अनुशासयितुम् अधिकारिभिरपि स्वयं सदाचारिभिः कर्त्तव्यपरायणः अनुशासनप्रणयिभिश्च भाष्यम् / नहि स्वयं सदाचारविरहिताः कर्तव्यपराङ्मुखाः अनुशासनविहीनाः अन्यान् अनुशासने स्थापयितुं प्रभवन्ति / अनुशासनं न केवल सैनिकानां कृते आवश्यकं किन्तु सर्वेभ्यः, विशेषतन छात्रेभ्यः यतः देशस्य छात्राः भाविनः कर्णधाराः विद्यार्षिकर्तव्यम् ] 3 : निबन्ध [215 भाग्यविधातारश्च सन्ति / अतः तेषाम् आत्महिताय, देशकल्याणाय, आगामिन्याः सन्ततेः पुरः समुचितादर्शसंस्थापनाय च अनुशासनमपरिहार्यम् / साम्प्रतं परितः दृश्यमाना स्वेच्छाचारिता अनुशासनस्य बाधिका / स्वेच्छाचारितया अध्ययनानुरागिणः छात्राः, अभिभावकाः, शिक्षासंस्थाधिकारिणः अन्ये सर्वेऽपि चिन्तिताः उद्विग्नाश्च / छात्रेषु अनुशासनशिथिलतायाः चरित्रहीनतायाः स्वेच्छाचारिताया प्रधान कारणम्-समुचितादर्शानुपलम्भः / यस्मिन् गहे अनुशासनं नास्ति तत्र कुटुम्बिनः गुरोः अनादरं कुर्वन्तः, यथेच्छ व्यवहरन्तः, परस्पर पदे पदे विवदमानाः न जातु शान्ति सुखं च लभन्ते / इयमेव स्थितिः अनुशासनापेतस्य समाजस्य देशस्य च / अत्र इतिहास एव प्रमाणम् / निर्विवावमेतत् यद् अल्पसंख्याकेन संघटितेन अनुशासितेन सैन्येन विपुला अपि अनुशासनविहीना विघटमाना सेना पराजीयते / यतः 'संघे शक्तिः कली यगे यदा भारतीयेषु एकता-भावनाया मारैतिरभूत् तदा ते स्वाधीनार अभवन् / एकमुद्देश्य लक्ष्यीकृत्य बहूनां नराणाम् एकत्वभावनया कार्यकरणम् 'एकता' इत्युच्यते / एकता अनुशासनं विना न सम्भवति / यतः अनुशासनाधीना संहतिः, संहति नियता एकता, एकता-निबन्धना शक्तिः, शक्तिमूलको अभ्युदयः, अभ्युदयापेषां च सुषम् / अतएवोक्तम् - अल्पानामपि वस्तूनां सहतिः कार्यसाधिका / तृणगुणत्वमापन्नध्यन्ते मत्सदन्तिनः // ऋग्वेदेऽपि अनुशासित-एकतायाः आवश्यकता प्रतिपाविता 'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् / / प्रकृतिरपि अनुशासनप्रवणा, यतः निश्चिते काले एव फलन्ति वृक्षाः, पुष्पाणि विकसन्ति, ऋतवः आयान्ति गच्छन्ति च / नात्र संदेहलेशोऽपि यद् अनुशासनाभावे सर्वमपि अव्यवस्थितम्, अकिञ्चित्करम, कष्टबहुलम्, विमाशोन्मुखं च। देशस्य स्वतन्त्रताप्राप्तिः, तदक्षणम्, समष्टिरूपेण व्यष्टिरूपेण वा उत्थानम, एवंविधाः संख्यातीताः अनेके भावाः अनुशासनस्य अमितमहत्वं प्रकटयन्ति / यथोक्तम् 'लालने बहवो दोषाः शासने बहवो गुणाः / ' तस्माद जीवनस्य सर्वेषु अपि क्षेत्रेषु अनुशासनं पालनीयम् / सफलतायाः मूलमन्त्रः अनुशासनमेव। (14) विद्यार्थिकर्त्तव्यम् विद्यायाः अधिनः-अभिलाषिणः 'विद्यार्थिनः तेषां कर्तव्यम् -करणीयकार्यकलापः 'विद्याधिकर्तव्यम्। मानवजीवने चतुर्ष कालेषु भिन्नरूपेण विद्या Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] संस्कृत-प्रवेशिका [विद्याथिकर्तव्य उपयुज्यते / तत्र प्रथमः आगमकालः (अध्ययनकालः), द्वितीयः स्वाध्यायकाल: ( बोधकालः), तृतीयः प्रवचनकालः (अध्यापनकालः), चतुर्थः व्यवहारकालः (प्रयोगकालः) / इमे एव चत्वारः कालाः ब्रह्मचर्याचाश्रमपदैरपि व्यपदिश्यन्ते / वेषु अधीयानाना (अध्ययनकालमापनानाम्) छात्राणां कर्तव्यानि अधो निरूप्यते - पूर्वम् अन्तेवासिनः ब्रह्मचर्याश्रमधर्मान् पालवन्तः अध्ययनसमाप्तिपर्यन्तम् अजन गुरुकुले ज्यवसन् / तेषां ब्रह्मचारिणां धर्माः धर्मशास्त्रादिग्रन्येषु विशेषतो वणिताः किन्तु इदानीन्सने शिक्षासंदर्भ विद्यापिनः कर्त्तव्यानि प्रधानतया सप्त परमावश्यकानि / तानि-(१) विद्योपार्जनम्, (2) शारीरिकशक्तिसंचयः, (3) नियमितता, (4) समयस्य' सदुपयोगः, (5) अनुशासनपालनम्, (6) गुरुभक्तिः, (7) चरित्रनिर्माणच / क्रमेण यथा-- 1. विशीपाजेनम्-छात्राणाम् अध्ययनं वाग्देव्याः उपासना तपः च / विद्या सदभ्यासबलेन लम्या भवति / विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् / विद्यया च अमृतमश्नुते / अतः नियमितरूपेण यथाशक्ति विद्याभ्यासः करणीयः / विद्यागमस्य। स्थाने-(१) अध्यापकः (2) पुस्तकालयन / अतः पुस्तकालयस्यापि सम्यग् उपयोगः छात्रैः कार्यः / अवकाशदिनेषु पाठ्यपुस्तकसहायकानि पुस्तकान्तराणि अपि अध्येतव्यानि / अध्ययनकाले आलस्यम, दीर्घसूत्रता, चलता, अन्यमनस्कतां च परिहरेत् / वक्तृत्वकलायाम्, सुन्दरलेखने, भाषणे च योग्यता सम्पादनीया। 2. शारीरिकशक्तिसन्चयः-यदा शरीरं सबल स्वस्थश्च भवति तदैव पठनम्, लेखनम्, चिन्तनम्, कवित्वच्छ सर्वमपि सम्यम् भवितुमर्हति / वेदव्यासेन महाभारते कथितम्-'सर्व इलवर्ता साध्यम् / अतः छात्र नियमेन व्यायामः सेवनीयः / व्यायामश्व बहुविधः / यथा-क्रीडा (Games and Sports), सैनिकशिक्षा (N.C.C.), वण्ड-बैठकादिसंशका प्राचीनभारतीयव्यायामः योगासनादिर्वा / एतैः शारीरिकपाक्तिसंवर्धनं छात्राणां कृते नितान्तमावश्यकम् / 3. नियमितता-प्रातरुत्थानादारभ्य रात्री शयनपर्यन्तं बहूनि कार्याणि भवन्ति / यस्य कार्यस्य यः सभयो भवेत् तस्य तदैव अनुष्ठाने नियमितता / अस्याः परिपालनेन विद्याथिनां पूर्णविकासो भवति कार्याणि च यथासमयं सम्पद्यन्ते / 4. समयस्थ सदुपयोग:-व्यतीतः समयः न कथमपि पुनरायाति / यथोक्तम् वाल्मीकिना-यवतीतं पुनर्नेति स्रोतः शीघ्रमपामिव / ' अतः सर्वैः तथा प्रयतनीयं यथा क्षणमपि निरर्थक न गच्छेत् / ये समयस्य सदुपयोग न कुर्वन्ति ते आत्मनः एव हानि कुर्वन्ति, अन्ते च पश्चात्तापमनुभवन्ति / 5. अनुशासनपालनम्-यौवने अनुशासनस्य महती आवश्यकता। तद् विना कस्मिन्नपि क्षेत्र साफल्यं दुराशामात्रमेव / विद्यार्थिनां कृते तु इदमनिवार्यमेव, यतः आधुनिक विज्ञानम् ] 3 : निबन्ध [217 अनुशासनहीनारछात्राः अध्ययनपराङ्मुखाः भवन्ति / अध्ययनाध्यापनादिव्यवस्था च विनश्यन्ति / 6. गुरुभक्ति:-पिता माता आचार्यश्च एते त्रयोऽपि गुरवः / तेषां - शुश्रूषा छात्राणां कर्तव्यम् / विद्यालाभस्य श्रयः एव उपायाः, तेषु गुरुशुश्रूषा प्रधानतमा / यथोक्तम् - गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा। अथवा विद्यया विद्या चतुर्थी नोपपद्यते / / भगवत्प्राप्तिहेतुत्वाद् गुरवः देवकल्पाः भवन्ति / उपविष्टं च तत्तरीयोपनिषदः शिक्षावल्याम्-'मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव' इति / 7. चरित्रनिर्माणम्-पूर्व गुरुकुले न केवलं विद्यालाभः, परिवनिर्माणमपि शिक्षायाः उद्देश्यमासीत् / इन्द्रियसंयमः, मान्यजनानां सम्मानः, विनयः, सुशीलता, अलोलुपता, शिष्टाचारपालनम्, विहितनिषेवणम्, प्रतिषिद्धपरिवर्जनम् इत्यादिभिः गणगणः चरित्रनिर्माणं भवति / विद्याध्ययनस्य न ज्ञानमात्र फलं किन्तु सच्चरित्रनिर्माणमपि / विद्वांसः निसर्गतः निर्मलचरिताः भवन्ति / चरित्रदोषे विद्या गहिता भवति / तस्मादुदात्तचरित्रोपार्जनाय छात्रैः सततं प्रयतितव्यम् / विद्यार्थिनः देशस्य संसारस्य च भाविनः कर्णधारास्सन्ति / यदि ते स्वकर्तव्यपालन सम्यगरूपेण न कुयुः तहि समाजस्य देशस्य स्वस्य च कापि उन्नतिः असंभवप्राया। यतः ते एव अग्ने अध्यापकाः, न्यायाधीशाः, शासकाः, विविधपदभाजश्च भविष्यन्ति / स्वकर्तव्यच्युताः विद्यार्थिनः यदि तत्र स्थिताः सन्तः सम्यक् न अध्यापयेयुः, सम्यक् न्यायं म कुयुः, सम्यक् न अनुशासयेयुः, स्व-स्वपदोचितकार्यजातं च न सम्पादयेयुः तहि देशः समाजश्च विनाशगते निपतेताम् / तस्मात् छात्रः निर्दिष्टकर्तव्यपरायणैर्भाव्यम् / (15) आधुनिक विज्ञानम् ( विज्ञानं वरदानरूपम् अभिशापरूपं वा) भूतभौतिकपदार्थानां विश्लेषणात्मक ज्ञानम् आधुनिक विज्ञानम् / अद्य अस्यैव डिण्डिमघोषः सर्वत्र संसारे श्रूयते यतः साम्प्रतं मानवाः प्रायः आध्यात्मिकशानविमुखाः लौकिकसुखसाधनपरायणाश्च / तदर्थ कृतान् तान् सर्वान विश्वविस्मयकरान् नवनवान् आविष्कारान् लोको बहु मन्यते / अतएव अस्मिन् विज्ञानयुगे मानवाः बाल्यकालादारय मत्युपर्यन्तं विज्ञानकोडे खेलन्तः दृश्यन्ते, प्रकृतिश्च विज्ञानस्य अनुधरीव प्रतीयते / अधुना विज्ञान प्रकृतेः अनन्तशक्तीनां रहस्यानि उद्घाटयत् तस्यां सर्वथा प्रभवितुमपि प्रयतमानमिव परिदृश्यते / विज्ञानेन मानवसभ्यतायाः स्वरूपमेय परिवर्तितम् / सर्वत्र जीवनस्य प्रत्येकक्षेत्र मानवजातिः वैज्ञानिकशक्त्या प्रभाविता पणते / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] संस्कृत-प्रवेशिका [आधुनिक विज्ञानम् मानवोऽपि विज्ञानमयः संवृत्तः / विज्ञानप्रभावादेव इदानीम् अगम्यमपि सुगमम्, असाध्यमपि सुसाध्यम्, अदृश्यमपि सुदर्शनम्, अलभ्यमपि सुलभं जातम् / वैज्ञानिकाविष्काराः संक्षेपेण चतुषु प्रकारेषु विभाजयितुं शक्यन्ते-(१) दैनन्दिनोपयोगिनः, (2) आधि-व्याधिहराः, (3) मनोरञ्जकाः, (4) विध्वंसकात्र / तत्र आधाः पयः जनहितसाधकाः इति वरदानरूपाः, अन्तिमच हानिकरः इति अभिशापरूपः, परं शत्रोराक्रमणकाले स्वरक्षासंपादनेन चतुर्षोऽपि वरदानरूपः / (1) दैनन्दिनोपयोगिन: अत्र परिगणनीयाः आविष्काराः अधोलिखितास्सन्ति- . (क) यानानि---ट्रेन (वाष्पयान ) मोटर (मृत्तरः)-स्कूटर-साईकिल (द्विचक्रयान)-प्रभृतीनि स्थलयानानि; एरोप्लेन-हेलिकाप्टर-अपोलो-लूना प्रभूतीनि वायुयानानि; शिप-स्टीमर (वाष्पनौका)-पनडुब्बी (जलान्तर्वति-नौका)-प्रभृतीनि जलयामानि सन्ति / एतैः यानः कष्टबहुला चिरकालिकाऽपि यात्रा सुखेन स्वल्पेन च समयेन सम्पाद्यते / स्थने, भूगर्भ, दुर्गमप्रदेशे, जले, अन्तरिक्षं च सर्वत्र मानवानाम् अपतिहता गतिः संजाता / अधुना अपोलो-लना-संज्ञकः वायुयानः चन्द्रलोकयात्रा सफलीभूता। अन्येष्वपि ग्रहेषु तल्लोकेषु वा यात्रायै सततं प्रयत्नाः विधीयन्ते / (ब) विद्यत् , तनिबन्धनानि यन्त्राणि उपकरणानि च-विद्युतः प्रधानं कार्य प्रकाशः / एषः प्रकाशः अतिनिविटेऽन्धकारे सौरप्रकाशम् अतिशयान इव प्रतीयते / विद्युबलेन वायुसन्धारः, शीततापनिवारणम, विविषयानयन्त्रादिसन्चालनम्, अन्येषां दुष्करकार्याणां च सम्पादनम् पूर्वमशक्यमपि इदानी सम्भवति / कि बहुना, प्रायः सर्वेषामपि वैज्ञानिकाविष्काराणाम् इयं आधारशिला / (ग) प्रसार-सूचनायन्त्राणि-टेलीग्राम-टेलीफोन (शब्दसंवादयन्त्रम्)-रेडियो (ध्वनिविक्षेपकयन्त्रम् )-केबुल लाउडस्पीकर-टेलीप्रिंटर-टिलेक्स-टेलीविजन-राबारवायरलेस-पटीयन्त्रप्रभृतीनि प्रमुखानि यन्त्राणि / एतैः गृहस्थितेनापि अतिविप्रकृष्टः सह वार्ता, अतिदूरस्थ-संगीत-समाचाराविश्रवणम्, अन्यत्रभाविना वृत्तान्ताना तात्कालिकाधिगमः, देशान्तरस्थपुरुषादीनां रूपसाक्षात्कार, आरात् स्थले जले नभसि वा प्रचलतो वायुयानानां नक्षत्रादीनां सूचनीपलम्भः, घण्टादिविभागेन समयपरिज्ञानं च सम्भवति / किं बहुना, एतबलेन त्वरितगतिः सर्वचरो वायुरपि पराजितः / अतिविस्तृतमपि इदं जगत् स्वाङ्गणस्थमिव जातम् / (घ) प्रेक्षायन्त्राणि-टेलिस्कोप (दूर-सूक्ष्मवीक्षकयन्त्रम् )-कैमरा-उपनेत्र(चश्मा) प्रभुतीनि प्रेक्षायत्राणि विशेषतः उल्लेख्यानि / टेलिस्कोपयन्त्रण लौकिकप्रत्यक्षातिगमः अपि अतिसूक्ष्म-विप्रकृष्टपदार्थानां सम्यक् प्रेक्षणं सम्भवति / चित्रण आधुनिक विज्ञानम् ] 3 : निबन्ध [216 यन्त्रण (कैमरा) एकस्य बहूनां समवेतानां वा यथावस्थचित्रणं गृह्यते / उपनेत्रद्वारा दुर्बलचक्षुषाऽपि सूक्ष्माणि, अन्यथा अनधिगम्यानि च अक्षराणि साक्षात्कत शक्यन्तै / (ङ) अन्यानि विविधयन्त्राणि-टंकण (टाइपराइटर-टेलिप्रिण्टर-टिलेक्स)मुद्रण (प्रिंटिंग-मशीन)-गणन (कंप्यूटर ) कृषि (टेक्टर, हारवेस्टर, टयूब्बेल)प्रभूतीनि उद्योग वाणिज्य (मिल, फेक्टरी, मशीन )-प्रभुतीनां विविधानि यत्राणि विवरणीयानि सन्ति / एतेषां तत्सत्क्षेत्र अभूतपूर्वः आश्रर्यजनकः प्रभावः सर्वेषा तस्सु कौतुकमावहति / साम्प्रतं बहुजन-चिरकालसाध्यमपि कार्य यन्त्रद्वारा अतिपरिमितपुरुषैः स्वल्पेनव कालेन चारुतरं सम्पाद्यते / (2) आधिव्याधिहरा:-अधुना प्रचलतां बहूनां भयंकररोगाणां प्रशमाय विज्ञानेन नूतनानि एक्सरे-रेडियम सर्जरी-प्लास्टिकसर्जरीप्रभुतीनि चिकित्सासाधनानि आविष्कृतानि, तदर्थ पेनासिलिन-स्ट्रेप्टोमाइसिन-एक्रोमाइसिन क्लोरोमाइसटिनप्रभृतयः नवीनौषधयश्च निमिताः। मानसिकरोगाणां कृते मनोवैज्ञानिकोपायाः अपि प्रादुर्भाविताः / किंबहुना, विज्ञानस्य प्रभावेण नवीनहृदयादिरोपणादिकम् अपि प्रयत्यते; बधिराः शृण्वन्ति, मूकाः वदन्ति, पङ्गवः चलन्ति च / (3. मनोरञ्जकाः-प्रामोफोन-रेडियो-रेडियोग्राम-रिकार्डप्लेयर-टेपरिकार्डरप्रभृतीनि ध्वनियन्त्राणि, हारमोनियम-आर्केष्ट्रा-वेला-सरोदप्रभृतीनि नवीनवाद्ययन्त्राणि; टेलीविजन चलचित्र-(सिनेमास्कोप)प्रभृतीनि चित्रमययंत्राणि मनोरञ्जमसाधनानि / एतेषामाविष्काराणां प्रभावेण मनोरञ्जन सुलभं सर्वजनसाधारणं च सातम् / तेषु पलचित्राणाम् माविष्काराः विशेषतः उल्लेख्याः / तदङ्गशालासु ( Cinema Hall) प्रदर्शिता अवर्णनीय प्रभावोत्पादकाभिनयाः जनानां श्रान्तिम् अपहरन्ति, प्रमोदं च जनयन्ति / (4) संहारकाः-एटमबम-हाइड्रोजनबम ( उद्जनबम )-प्रभृतीनि विष्फोटकक्षेप्यास्त्राणि; मोरादिसंज्ञकनूतनशतघ्नी-भुशुण्डीप्रभुतीनि विविधायुधानिः टैकटारपीडो-मिग-मिराज-प्रभृतीनि आधुनिक युधयन्त्राणि च दारुणानि आग्नेयास्त्राणि आविष्कतानि / एतैः विश्वविनाशोऽपि क्षणमात्रलीला / एतेषामाविष्कारे रुस-अमेरिकादेशी अग्रगण्यौ। द्वितीय महायुद्ध अमेरिका जापानदेशस्य हीरोशिमा-नगर्याः [नागासाक्याच] उपरि परमाण्वस्त्र (Atom-Bomb) प्रक्षिप्तं येन क्षणेनैव सा स्वर्ग कल्पा महानगरी दग्धोत्खाता मरुभूमिरिव संजाता। इत्थम् आधुनिकाः वैज्ञानिकाः आविष्काराः एकत्र मानवानां श्रेयसः सम्पावन कुर्वन्ति अन्यत्र तेषां. विनाशम् / एवं विज्ञानं वरदानरूपम् अभिशापक पति पक्षद्वयम् / Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220] संस्कृत-प्रवेशिका [विद्या यद्यपि विज्ञानेन प्रथमविविधैराविष्कारैः विश्वस्य महानुपकारः कृतः तथापि चरमकोटिकराविष्कारः विनाशस्यापि सामग्री भृशं सुलभीकता; यथा-दानी सर्वेऽपि मानवाः संत्रस्ताः भीताश्व विज्ञानमभिशापं मन्यन्ते / वस्तुतस्तु, न किमपि वस्तु स्वतः एकान्ततः उपकारकम् अपकारकं वा / प्रयोगाधीनव तस्य उपकारकता अपकारकता वा / तस्मात् नायं विज्ञानदोषः / यदि कोऽपि विषं भुजानम् आत्मानं विनाशयेत् नायं विषस्पापराधः, किन्तु तत्प्रयोक्तुरेव / यदि विज्ञानस्य प्रयोगः सुखाय कल्याणाय शान्तये च भवेत् तहि अभिशापवार्ताऽपि नोदीयात् / तस्मात् विज्ञान तथैव प्रयोक्तव्यं यथा समस्तं जगतीतलं स्वर्गतुल्यं मानवजीवन सुखशान्तिमयं च सम्पद्येत / (16) विद्या (किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या विद्ययाऽमृतमश्नुते) विद्याधनं सर्वश्रेष्ठं घनमस्ति / अस्य वैशिष्टयमिदं यत व्यये कृते अपि विद्या संवद्धते, अव्यये तु क्षीयते / किञ्च, इदं धनं न भ्रातृभाज्यं न च पौरादिभिः अपहरणयोग्यम् / विद्यया इहलोकस्य परलोकस्य च सर्वाः अपि सम्पदः प्राप्तुं शक्यते, नान्येन साधनेन / अतएवोक्तं विचारकै: अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विद्यते तव भारति / व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति संचयात् // न चौरहायं न च राजहायं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि / व्यये कृते वर्धत एवं नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् / / विद्याशब्दस्य निष्पत्तिः 'ज्ञानार्थकस्य' विद्धातोः भवति / अतः वस्तुनः सम्यक्तया ज्ञानं विद्येति / लौकिकी विद्या (भौतिकज्ञानम्) अलौकिकी विद्या (आध्यात्मिकज्ञानम्) चेति द्विविधा विद्या / धर्माधर्मयोः, कर्तव्याकर्तव्ययोः विवेकः विद्ययैव भवति / अनया एव मनुष्यो मनुष्य इति / विद्याविहीनस्तु मूर्खः, असभ्यः, पशुरिति च व्यपविश्यते / विद्यार्वभवसम्पन्नः देशे विदेशे सर्वत्र पूज्यते / विदेशे यत्र सर्वे अपरिचिताः सन्ति तत्र वियव बन्धुः, गुरूणां गुरुरपि विद्यैव / किमधिकं विद्यैव परमा देवता। कविना समीचीनमुक्तम् विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् विद्या भोगकरी यशःसुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः / विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम् विद्या राजसु पूज्यते नहि धनं विद्याविहीनः पशुः // तथा च-'स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते / ' विद्याबलेनैव मानवाः अमृताः भवन्ति परमपदवीञ्च प्राप्नुवन्ति 'विद्ययाऽमृतमश्नुते / राजानः विद्यावा पुरस्तात् नतमस्तकाः जायन्ते / विद्या प्रदीप इव सन्मार्ग दर्शयति–'घनान्धकारेष्विव दीपदर्शनम्। महाकविना दण्डिनाऽपि उद्घोषित सत्यम् 3: निबन्ध [ 221 यद् यदि अस्मिन् जगति विद्याज्योतिः न भवेत् तहि इदं सकलं जगत् अन्धकारावृतं सम्पत्स्येत इदमन्धं तमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम् / यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते // . अपि च-'सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्यनास्त्यन्ध एव सः।' शब्दाह्वयं ज्योतिरण विद्येव अस्ति / 'ब्रह्मविद् ब्रह्मव भवति', 'ऋते ज्ञानान मुक्तिः' इत्यादयः श्रुतयः अपि मोक्षप्राप्तिकारणभूतायाः विद्यायाः माहात्म्यं प्रकटयन्ति / विद्या एकमुत्तमं भूषणमपि अस्ति-'विद्यासमं नास्ति शरीरभूषणम्' / सर्वविध शिष्टये सत्यपि एतदपि सुनिश्चितं यद् विनयेनैव विद्या शोभते / विनयाभावे विद्या 'विद्या' नास्ति / अतएवोक्तम् विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् / पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनाद् धर्मस्ततः सुखम् // यद्यपि संसारे लक्ष्मीसरस्वत्योः विरोवोऽपि दृश्यते / त्रचित् मतिमतां या दरिद्रता अवलोक्यते तत् सर्व दुर्भाग्यविजृम्भितम् सम्यग्ज्ञानाभावो वा / सः एव विद्वान् यस्तु क्रियावान् / अतएवोक्तम्-'विद्यामधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् / ' विद्याकृते महान् श्रमः अपेक्ष्यते / अतः विद्यार्जनकाले विद्याथिभिः आलस्यं परित्यज्य सुखचिन्ता न करणीया, यतो हि सुखाथिनो कुतो विद्या, विद्यार्थिनश्च कुतः सुखम् / किंबहुना, आविष्काराणां जननी, कर्तव्याकर्तव्यशापका, मुक्तिप्रदा, सुखावहा' कीतिविस्तारिका, कामदुहा, बन्धुसमा, प्रदीपतुल्या, दिव्यनेत्रसहशा, कल्पलतेव विद्या किं किं न साधयति / समुचितमेव भणितम् मातेव रक्षति पितेव हिते नियुङ्क्ते कान्तेव चाभिरमयत्यपनीय सेदम् / लक्ष्मी तनोति वितनोति च दिक्षु कीति किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या / / (17) सत्यम् (सत्यमेव जयते नानृतम्) / सर्वेषु गुणेषु सत्यं सर्वोत्कृष्ट वर्तते / सर्व ग्रन्थाः एकमुखेन सत्यस्य महिमानमुद्धोषयन्ति / यथा-'नास्ति सत्यात् परो धर्मों, नानृतात् पातकं महत् / ' ये नराः सततं सत्यमेव भाषन्ते न खलु कदाचिदपि अन्तां गिरं निःसारयन्ति ते सर्वेषामपि कृते विश्वासस्य श्रद्धायाश्च भाजनानि भवन्ति / ऐहिक पारलौकिकच सर्व विधं मङ्गलं भवति अनेन गुणेन / अश्वमेधसहस्रादपि सत्यमेव विशिष्यते / अतएवोक्तम्--- अश्वमेधसहनं च सत्यं च तुलया धृतम् / 'अश्वमेधसहस्राद् हि सत्यमेव विशिष्यते // तथा चोपनिषदि लिखितम्-'सत्येन लभ्यस्तपसा मेष भागा'। किञ्च, 'सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम्'। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222] . संस्कृत-प्रवेशिका [ उद्योगः सते कल्याणाय हितं सत्यम् / वस्तुनः यद् स्वरूपं विद्यते तस्य तेनैव रूपेण प्रकाशनं सत्यमिति / सत्यधर्मस्य परिपालनमतीवकठिनम् / सत्यभाषणविषये एतदपि चिन्तनीयम् यत् तत् प्रियमपि भवेत् नाप्रियम् / अतएवोक्तम्-'सत्यं ब्रूयात् प्रियं श्यात् न चूयात्सत्यमप्रियम् / एवं सत्यवादिनः सर्वत्र साफल्यम्, सम्मानम्, कल्याणञ्च लभन्ते / यः खलु असत्यं वदति सः पथभ्रष्टः चरित्रभ्रष्टश्च भवन् सर्वत्र निन्दापात्रं भवति / इत्थम् असत्यभाषणेन स्वस्य हानिः नाशश्च भवतः / इतिहासाद् ज्ञायते यत् महाराजो दशरथः स्वप्रियपुत्र राम चतुर्दशवर्षेभ्यो धन प्रेषयत् / राजा हरिश्चन्द्रः सत्यपरिपालनार्थमेव विविधानि दुःखानि सेहे, पदे पदे अपमानितश्च अभवत्, परं सत्यभाषणात् न विरक्तः / अजातशत्रुः धर्मराजो युधिष्ठिरः सत्यभाषणस्य प्रभावादेव विजयश्रियमलभत / राजा मयूरध्वजो निजपुषस्य शिरो अरया विधा विभक्तवान् / महात्मा गान्धिमहोदयोऽपि सत्पादेव भारतवर्ष स्वतन्त्रमकरोत् / अतएव 'सत्यमेव जयते' इति राजचिह्न भारतस्य स्वीकृतम् / इत्थं यदि वयं जीवनपथि उन्नतिमभिलषामः तहि अस्माभिः सत्यव्रतस्य परिपालनमवश्यं करणीयम् / देशस्य, समाजस्य संसारस्य च कल्याणम् अभ्युदयश्च सस्यादेव भविष्यतः / अतः सत्यमेवोक्तम्- 'सत्यमेव जयते नानृतम्। (18) उद्योगः ( उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः ) लघ महतो वा कस्यापि कार्यस्य सिद्धये उद्योगस्य महती आवश्यकता भवति / केवलम् इच्छामात्रेण कार्य न सिद्धयति / ये जनाः सततमेव उद्योगपरायणाः सन्ति तेषां कृते जगति किमपि असाध्यं दुर्लभञ्च नास्ति / उद्योगिनः पुरुषस्य पुरतः सिद्धयः बद्धाञ्जलयः उपस्थिताः भवन्ति, भाग्यमपि उद्योगिनः एव साहाय्यं कुरुते / उक्तच पूर्वजन्मकृतं कर्म तदैवमिति कथ्यते / तस्मात् पुरुषकारेण विना देवं न सिद्धयति / / तथा च-उद्यमः साहसं धैर्य बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः। षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र साहाय्यकृद् विभुः // अभिलषितार्थप्राप्त्यर्थ सुदृढेन संकल्पेन बाधामविगणय्य या प्रवृत्तिः, सा उद्योगः / उद्योगो हि पुरुषकारः, कर्म, उद्यमः इति च कथ्यते / सर्वाणि दुःखानि सर्व चाभावाः अकर्मण्यतया भवन्ति / आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुरस्ति / उद्यमसमो नान्यः बन्धुरस्ति / उद्योगी पुरुषः यदि इच्छेत्तहि समस्तं लोकमपि परावर्तयेत् / उद्योगाभावे सति प्राप्तमपि विनश्यति / अतएवोक्तम् उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीदेवेन देयमिति कापुरुषा बदन्ति / दवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या यस्ने कृते यदि न सिद्धयति कोऽत्र दोषः / / अहिंसा] 3 : निबन्ध [ 223 किञ्च-उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः। नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः // तथा च-आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः / नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति // योजनानां सहस्रं तु शनर्गच्छन् पिपीलिका / अगच्छन् वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति / / * सर्वत्र वयम् उद्योगस्य महत्त्वम् अवलोकयामः / येषां कृते पूर्वम् एकवारमपि भोजन दुर्लभमासीत्, ये च शतशो विदीर्णानि वस्त्राणि धारयन्तः महत्ता कष्टेन अङ्गगोपन कर्तुं शक्नुवन्ति स्म ते एव उद्योगेन महान्तो धनवन्तः सन्तः बहुमूल्यः कौशेयवसनः शरीराणि विभूषयन्ति / किमधिकम्, उद्योगेन अलभ्यमपि सुलभं भवति, असम्भवमपि सम्भव भवति, दुर्बलोऽपि बलवान् भवति, मूर्योऽपि विद्वान् भवति / प्रकृतिः स्वकीयं सर्वमपि भवं तस्मै उपायनीकरोति / वैज्ञानिकाः उद्योगप्रभावेणय जले, स्थले आकाशे च सर्वत्र अप्रतिहतगतिवन्तः सन्ति / लोके विषमता विलोक्य केचन कार्यसिद्धयर्थं देवं ( भाग्यम् ) प्रमाणयन्ति / देवे अनुकूले सर्व सुसाध्यं भवति, प्रतिकूले सति सर्व विपर्यस्यति / देवप्रभावादेव पुरुषोत्तमः रामोऽपि असम्भवमपि हेममृगं विलोक्य अलुभत / अतएवोक्तम्-.--'नवान्यथा भवति यल्लिखित विधात्रा' / परन्तु यथा क्षेत्रेषु उप्तमपि बीज सेचनादिकर्म अपेक्षते तथैव देवसाधनेऽपि उद्योगस्यावश्यकता नियता / अतएवोक्तं भगवद्गीतायाम् नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो हकर्मणः / शरीरयात्रापि च ते न प्रसिध्येदकर्मणः // प्रकृतिरपि उद्योगपरतायाः एव शिक्षा वितरति / सूर्य चन्द्रादयः पक्षिकीटादयश्चसर्वे स्व-स्वकार्यसलग्नाः अवलोक्यन्ते / अतः अस्माभिरपि आलस्यं विहाय उद्योगपरायणः भवितव्यम्, यतः पौरुषं विना भाग्यमपि फलदं न भवति यथा केन चक्रेण न रथस्य मतिभवेत् / तथा पुरुषकारेण विना देव न सिद्धयति / / (16) अहिंसा (अहिंसा परमो धर्मः) सर्वेषामपि सत्य-ब्रह्मचर्यादीनां धर्माणा मूलम् अहिंसा वर्तते / अहिंसव धर्ममार्गः / परमात्मनोऽपरं रूपमहिसैव / अधुना जगति हिंसायाः साम्राज्यमस्ति / प्राणिवधः मनोरखनस्य साधनम् वर्तते / युद्धविभीषिका सर्वत्र जम्मायते / विश्वशान्तिः चिन्तनीयां दशां प्राप्ता। अतः वर्तमानसमये अहिंसायारुपयोगिता प्राचीनकालावपि अधिका जाता। हिंसा विविधा भवति-मानसिकी वाचिकी कायिकी च / कस्यचित जी अशुभादिचिन्तनं 'मानसिकी' हिंसा / असत्यभाषणेन कठोरभाषणेगा.tish Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 ] संस्कृत-प्रवेशिका [गुणाः पूजास्थानम् 0 प्रदान 'वाचिकी' हिंसा / शस्त्रादिना जीवस्य हननं प्रताडनं वा 'कायिकी' हिंसा / एतासां तिसृणां हिंसानां परित्यागोऽहिसेति कथ्यते / इत्थमहिसाया इदमेव मौलिक रूप यत् मानवैः मनसा वचसा कर्मणा च तन करणीयं यदन्येषां प्रतिकूल भवेत् / उक्तञ्च श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् / आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् / / तथा प-'आत्मौपम्येन भूतेषु दयां कुर्वन्ति साधवः' / एवम् 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' इति सिद्धान्तानुसरणहिंसा / यदि जगति हिंसायाः ताण्डवनृत्यं स्यातहि न कोऽपि नरः देशो वा शान्त्या सुखेन वा स्थातुं शक्नोति / अहिंसाबलेनैव स्वस्य लोकस्य च कल्याणं भविष्यति / अहिंसाशस्त्रेणेव भारतदेशः पराधीनतां विहाय स्वतन्त्रतामलभत / भगवता महावीरेण, भगवता बुद्धन, महात्मना गान्धिमहोदयेन च अहिंसाया एवोपदेशः प्रदत्तः / कलिङ्गाधिपतिना सम्राजा अशोकेनाऽपि अहिंसायाः प्रचारः कृतः। जैनधर्मस्य मूलोहेश्यनऽहिंसा एव / अहिंसायाः महिमा अचिन्त्यः / शत्रवोऽपि अहिंसया मित्राणि भवन्ति, क्रूराः अपि सरला जायन्ते / अहिंसापरायणः सर्वत्र निर्भयं विचरन्ति, सुखं प्रतिष्ठांच प्राप्नुवन्ति। सत्य-तप-स्याग-क्षमा-प्रेम-पवित्रता-प्रभूतयः गुणाः समायन्ति / कि बहुना, असम्भबानि अपि कार्याणि अहिंसया सिध्यन्ति / अहिंसायाः माहात्म्यं विचिन्त्य एव अधुना सौराष्ट्रात विश्वशान्त्यर्थं प्रयतन्ते / इत्थम् अहिंसाव्यवहार प्रशस्तः सर्वोत्कृष्टधर्मप्रवेति निर्विवादमेव / सत्यमेवोक्तम्--'अहिंसा परमो धर्म:' / (20) गुणाः पूजास्थानं गुणिबु नलिङ्गं न च वयः (गुणहि सर्वत्र पदं निधीयते) 'पूजायाः आधारभूताः गुणा एव सन्ति न तु लिङ्गन च वयः' इति प्रतिपादकेन महाकविना भवभूतिना अरुन्धत्या मुखेन सीता प्रति स्वकीयः श्रद्धाभावः प्रदशितः अस्यां सूक्तो। श्लोकवायम् शिशु शिष्या वा यदसि मम तत्तिष्ठतु तथा विशुद्धत्कर्षस्त्वयि तु मम भक्ति दृढयति / शिशुत्वं स्त्रणं वा भवतु ननु वन्यासि जगतां गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न लिङ्गं न च वमः / / वस्तुतः गुणीपुरुषः सर्वस्यापि जगतः सम्मानपात्रता लभते / लघुरपि सः महतो पूज्यः श्रद्धेयश्च भवति / महानपि गुणरहितः जनः सदाचारिभिः न केवलम् अनाद्रियते एव अपितु त्यज्यतेऽपि / धर्मप्रियेण गुणवता विभीषणेन विद्वान् स्वभ्राता रावणोऽपि परित्यक्तः, रामश्च आद्रितः। गुणाः पूजास्थानम् ] 3. निबन्ध [225 यद्यपि जगति 'सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति' इत्यपि सूक्तिः सुप्रसिद्धा। दृश्यते च निर्गुणोऽपि गुणवान्, निरक्षरोऽपि विद्वान् भवति धनप्रभावात् / परन्तु अघुनैव सर्वत्र जीवन निर्वाहः न भवति / अर्थराशि प्राप्य जनाः सम्मानावाप्तये समाजे समुत्सुकाः दृश्यन्ते / वास्तविकी सम्मानप्राप्तिस्तु गुणद्वारा एव भवति / गुणिनं विना धनिकानां कार्यसिद्धिर्न भवति / 'गुणैर्हि सर्वत्र पदं निधीयते' इत्यं गुणरप्राप्यं किञ्चिदपि नास्ति / 'स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते' इत्यपि चोक्तम् / शास्त्राध्ययनमात्रेण कोऽपि विद्वान् गुणो वा न भवति / वस्तुतः स एव विद्वान् मुणवान् च यः क्रियावान् / गुणाः कुत्र भवन्ति ? कस्मिन् समये कस्थ वयसि वा समुद्भूताः भवन्ति? इति वक्तुं न शक्यते / तत्र स्त्रीत्वं-पुरुषत्वं, बाल्यत्वं वृद्धत्वं, शूद्रत्वं-ब्राह्मणत्वं च कारणं नास्ति / अतएवोक्तम् गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते पितृवंशो निरर्थकः / वासुदेवं नमस्यन्ति वसुदेवं न मानवाः / / न हि जन्मनि ज्येष्ठत्वं ज्येष्ठत्वं गुण उच्यते। गुणात् गुरुत्वमायाति दधि-दुग्ध-घृतं तथा / वस्तुतस्तु मानवजीवने गुणानां महन्मूल्यं वर्तते / गुणानामभावे तु मानवजीवन पशुवदेव निष्फलं भवति / सम्यगुक्तम् येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। ते मत्यलोके भुवि भारभूताः मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति / एतेषां गुणानामेव वैशिष्टयात् पिकः सक्रियते, काकः तिरस्क्रियते च / गुणः यादृर्ण सम्मान प्रतिष्ठा स्नेहश्च प्राप्यते तत् सर्व नान्यः साधनः। धनादिभिः या प्रतिष्ठा लभ्यते सा न चिरस्थायिनी, न लोकव्यापिनी न च सज्जनरनुमोदिता / अतः 'गुणं पृच्छस्व मा रूपम्, शीलं पृच्छस्व मा कुलम्' इत्युक्तम् / किच, 'गणा: गुणशेषु' गुणाः भवन्ति ते निगुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः / इत्यादिभिः यथा गुणमाहात्म्य निर्विवादम् तथैव तत्र 'आयुलिनादीनां वैशिष्टधं नास्ति' इत्यपि समीचीनम् / अतः सर्वत्र गुणान् विचार्य एवं आदरः कर्तव्यः न तु केवलम् आयुलिङ्गादीन् विलोक्य / / Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ( Appendix) परिशिष्ट : 1: धातुकोष प्रथम गण (भ्वादि.)अट् (प, घुमना ) अटति, अटतु, आटत, अटेत, अटिष्यति / आटयति, अटघते अर्च (प, पूजना) अचंति, अर्चतु, आर्चत, अर्चेत्, अविष्यति / अर्चयति, अच्च ते अर्ज (प, कमाना ) अर्जति, अर्जतु, आर्जन, अर्जत, अजिष्यति / अर्जयति, अय॑ते अई, (प, योग्य० ) अर्हति, अर्हतु, आहंद, अहंद, अहिष्यति / अहंयति, अर्खते ईक्ष (आ, देखना) ईक्षते, ईक्षताम्, ऐक्षत, ईक्षेत, ईक्षिष्यते। ईक्षयति, ईक्ष्यते ईष्य (प, ईर्ष्या०) ईय॑ति, ईमंतु, ऐमंद, ईष्यत्, ईयिष्यति / ईय॑यति, ईष्यते ईह, (आ, चाहना) ईहते, ईहताम्, ऐहत, ईहेत, ईहिष्यते / ईयति, ईहाते ऋ (आ, कमाना) अर्जते, अर्जताम्, आर्जत, अर्जेत, अजिष्यते / अर्जयते, अय॑ते एए (मा, बढ़ना), एधते, एधताम्, ऐधत, एघेत, एधिष्यते / एधयति, एध्यते कम् (आ, चाहना) कामयते, कामयताम् अकामयत, कामयेत, कामयिष्यते / कामयति कम्प (आ, कांपना) कम्पते, कम्पताम्, अकम्पत,कम्पेत, कम्पिष्यते / कम्पयति,कम्प्यते कास् (आ, खांसना) कासते,कासताम्,अकासत,कासेत, कासिष्यते / कासयति,कास्यते कील (प, गाड़ना) कीलति, कीलतु, अकीलत, कीलेत, कीलिष्यति / कीलयति, कील्यते कुर्द, (आ, कूदना) कूदते, कूर्दताम्, अकूर्दत, कूर्पत, कूदिष्यते / कूर्दयति, कूर्यते कूज् (प, चूं) कूजति, कूजतु, अकूजत्, कूजेत्, कृजिष्यति / कूजयति, कूज्यते कूप (आ, समर्थ०) कल्पते, कल्पताम्, अकल्पत, कल्पेत, कल्पिष्यते / कल्पयति, कल्प्यते कृष् (प, जोतना) कर्षति, कर्षतु, अकर्षत, कर्षेत्, कय॑ति / कर्षयति, कृष्यते 111111111 / 1 : भ्वादि गण ] . परिशिष्ट :1: धातुकोष' [227 क्रन्द् (प, रोना ) क्रन्दति, क्रन्दतु, अकन्दत्, क्रन्देत्, क्रन्दिष्यति / कन्ययति, कन्यते कम् (प, चलना) कामति, कामतु, अक्रामत्, कामेत् , मिष्यति / कमयति, कम्यते कीड़ (प, खेलना) क्रीडति, क्रीडतु, अक्रोडत, कीडेत, कीडिष्यति, / क्रीडयति, कीडपते क्षम् (भा, क्षमा०) क्षमते, क्षमताम्, अक्षमत, क्षमेत, क्षमिष्यते / क्षमयति, क्षम्यते क्षि (प, नष्ट०) क्षयति, क्षयतु, अक्षयत्, क्षयेत्, क्षेष्यति / क्षाययति, क्षीयते क्षुभ् (आ, क्षुब्ध०) क्षोभते, क्षोभताम्,अक्षोभत,क्षोभेत,क्षोभिष्यते / क्षोभयति, क्षुभ्यते खन् (उ, खोदना) खनति, खनतु, अखनत्, खनेत, खनिष्यति / खानयति, खन्यते खाद् (प, खाना) खादति, खादतु, अखादत, खादेत, खादिष्यति / खादयति, खाद्यते खेल् (प, खेलना) खेलति, खेलतु, अखेलत्, खेलेत्, खेलिष्यति / खेलयति, खेल्यते गद् (प, कहना) नि+गदति, गदतु, अगदत्, गदेव, गदिष्यति / गादयति, गद्यते गम् (प, जाना) गच्छति, गच्छतु, अगच्छत्, गच्छेत्, गमिष्यति / गमयति, गम्यते गर्ज (प, गरजना) गर्जति, गर्जत, अगर्जत,- गर्जेत, गजिष्यति / गर्जयति, गय॑ते गह, (आ, निन्दा०) गर्हते, गर्हताम्, अगहत, गर्हेत, गहिष्यते / गहँ यति, गाते गाह, (आ, घुसना) गाहले, गाहताम्, अगाहत,गाहेत, गाहिष्यते / गाहयति, गाह्यते गुङ्ग्, (प, गं जना) गुआति, गुजतु, अगुञ्जत् ,गुजेत्, गुञ्जिध्यति / गुञ्जयति, गुज्यते गुप् (प,रक्षा०) गोपायति,गोपायतु,अगोपायत्,गोपायेत् गोपिष्यति / गोपयति,गोप्यते गुप् (आ, निन्दा०) जुगुप्सते, जुगुप्सताम् ,अजुगुप्सत, जुगुप्सेत,जुगुप्सिध्यते / जुगुप्सयति गुह, (उ, छिपाना ) गृहति-ते, गृहतु, अगृहत्, गृहेत्, गृहिष्यति / मूहयति, गुह्यते गै (प, माना ) गायति, गायतु, अगायत्, गायेत्, गास्यति / माययति, गीयते अस् (आ, खाना ) असते, ग्रसताम्, अनसत, असेत, असिष्यते / प्रासयति, अस्यते ग्ले (प, दुखी०) ग्लायति, ग्लायतु, अग्लायत्, ग्लायेत्, बलास्यति / ग्लापयति, ग्लायते घट (मा, यत्न) घटते, घटताम्, अघटत, घटेत, घटिष्यते / घटयति, घट्यते घ्रा (प, सूंघना) जिन्नति, जिघ्रतु, अजिघ्रत्, णित्, घ्राष्यति / प्रापयति, प्रायते चम् (प, पीना) आ + चामति,चामतु, अचामत्, चामेत्, चामिष्यति / चामयति, चम्यते चर् (प, चलना ) चरति, चरतु, अचरत्, चरेत, चरिष्यति / चारयति, पर्यते चव् (प, चबाना) चर्वति, चर्वतु, अचव, पर्वत, चविष्यति / चर्वयति, चर्यते चल (प, कम्पन०) चलति, चलतु, अचलत, चलेत, चलिष्यति / चलयति, पल्यते चित्' (प, समझना ) चेतति, चेततु, अचेतत्, चेतेत्, चेतिष्यति / चेतयति, चित्यते चुम्बू (प, चूमना) चुम्बति, चुम्बतु, अम्बत्, चुम्बेद, धुम्बिध्यति / जुम्व्यति, चुम्ब्यते 1. (क) गण के क्रम से तथा अकारादि क्रम से प्रसिद्ध धातुओं के क्रमशः लट्, लोट्, लङ, विधिलिङ्, लुट् और णिच्-प्रत्ययान्त व कर्मवाच्य के प्र० पु० एकवचन के रूप दिए गए हैं / (ख) उभयपदी धातुओं के परस्मैपद में ही अधिक प्रचलित होने के कारण उनके प्रायः परस्मैपद के ही रूप दिए गए हैं। (ग) भनेक अर्थ वाली घातुओं का कोष्ठक में एक ही अर्थ दिया गया है। (घ) 'जो धातुएं एकाधिक गण में हैं उनका प्रसिद्धि को ध्यान में रखकर कहीं-कहीं उल्लेख कर दिया है। (ङ)प, आ, उ ये वर्ण क्रमशः परस्मैपदी, आत्मनेपदी और उभयपदी के बोधक हैं। 2. काश् (भा,चमकना) इसके रूपों में 'स' के स्थान पर 'श' होगा / जैसे-काशते / 1. यह धातु चतुर्थ गण में परस्मैपदी होती है। जैसे—क्षाम्यति, भाग्मत् / 2. यह धातु चुरादिगण में स्भयपदी होती है। जैसे-गहंयति-ते / 3. यह पातु चुरादिगण में (सोचना अर्थ में ) मा०होती है। श्री-भागते / Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228] संस्कृत-प्रवेशिका [1 : भ्वादि गण चूषु (प, चूसना ) चूपति, चूषतु, अचूषद, चूषेत्, चूषिष्यति / चूषयति, चूष्यते चेष्ट (बा, चेष्टा०)चेष्टते, चेष्टताम्, अचेष्टत, चेष्टेत, पेष्टिष्यते / चेष्टयति, चेष्टयते जप् (प, जपना) जपति, जपतु, अजपत्, जपेत्, जपिष्यति / जापयति, जप्यते जल्प (प, यात०) जल्पति, जल्पतु, अजल्पत, जल्पेत, जल्पिष्यति / जल्पयति, जल्प्यते जि (प, जीतना) जयति, जयत, अजयत, जयेत्, जेष्यति / जाययति, जीयते जीव (प, जीना) जीवति, जीवतु, अजीवत्, जीवेत, जीविष्यति / जीवयति, जीव्यते (बा, भाई ) अम्भते, जृम्भताम्, अजृम्भत, जम्भेत, ऋम्भिष्यते / जम्भयति, ज्वल (प, जलना) ज्वलति, ज्वलतु,अज्वलव, ज्वलेत,ज्वलिष्यति / ज्वालयति,ज्वल्यते तम् (प, छीलना) तक्षति, तक्षतु, अतक्षत्, तक्षेत्, तक्षिष्यति / तक्षयति, तक्ष्यते / तम् (प, तपना) तपति, तपतु, बतपत्, तपेत, तप्स्यति / तापयति, तप्यते तर्ण' (प, मत्स्ना०) तर्जति, तजंतु, अतर्जत, तर्जेत, तनिष्पति / तर्जयति, तपते तु (प, तैरना) तरति, तरतु, अतरत्, तरेत, तरिष्यति / तारयति, तीर्यते त्यजू (क, छोड़ना) त्यजति, त्यजतु, अत्यजत, त्यजेव, त्यक्ष्यति / त्याजयति, त्यज्यते पप् (मा, लजाना) त्रपते, अपताम्, अत्रपत, पेत, पिष्यते / अपयति, प्यते *(मा, बचाना) त्रायते, पायताम्, अत्रायत, कामेत, त्रास्यते / नापयति, त्रायते स्वर् (मा, जल्दी०) त्वरते, त्वरताम्, अत्यरत, त्वरेत, त्वरिष्यते / त्वरयति, स्वर्यते दय (बा, दया०) दयते, दयताम्, अदयत, दयेत, दयिष्यते / दापयति, दय्यते दंए (प, डसना) दशति, दशतु, अवशत, दशेत, दक्ष्यति / दशयति, दश्यते वह (प, जलाना) दहति, बहतु, अबहत, दहेत, धक्ष्यति / दाहयति, दह्यते दीक्ष (आ, दीक्षा०)दीक्षते,दीक्षताम, अदीक्षत, दीक्षेत, दीक्षिष्यते / दीक्षयति, दीक्ष्यते दश (प, देवना) पश्यति, पश्यतु, अपश्यत्, पश्येत्, द्रक्ष्यति / दर्शयति, दृश्यते युव (बा, चमकना)योतते, द्योतताम्, अद्योतत, द्योतेत, चोतिष्यते / द्योतयति, द्युत्यते दु(प, पिघलना) द्रवति, द्रवतु, अद्रवत्, वेद, द्रोष्यति / द्रावयति, दूयते धाद् (उ, दौड़ना) धावति, धावतु, अधावत धावेत, धाविष्यति / धावयति, घाव्यते धूप (प, सुखाना) घूपायति, धूपायत, अधूपायत्, धूपायेत्, धूपायिष्यति / धूपाययति मा (प, फेंकना.) धमति, धमतु, अघमन, धमेद, मास्यति / मापयति, ध्मायते ध्य (प, ध्यान०) ध्यायति, ध्यायतु,अध्यायत्, ध्यायेत्, ध्यास्यति / ध्यापयति, ध्यायते ध्वन् (प, शब्द०) ध्वनति, ध्वनत, अध्वन, ध्वनेत्, ध्वनिष्यति / ध्वनयति, ध्वन्यते / ध्वंस् (भा, नष्ट०) बसते,ध्वंसताम् अध्वंसत,ध्वंसेत, ध्वंसिष्यते / ध्वंसयति, ध्वस्यते मद् (प, नाद०) नदति, नदतू, बनदद, नदेव, नदिष्यति / नादयति, नद्यते नन्द् (प, प्रसन्न०) नन्वति, नन्दतु, अनन्दव, नन्देव, मन्दिष्यति / नन्दयति, नन्द्यते 1 : वादि गण] परिशिष्ट : 1: धातुकोष [ 226 नम् (प, शुकना) नमति, नमत, अनमत, नमेत, नस्यति / नमयति, नम्यते निन्द् (प, निन्दा) निन्दति,निन्दत, अनिन्दव, निन्देव, निन्दिध्यति / निन्दयति, निद्यते नी (प, लेजाना) नयति, नयतु, अनयत, मयेत्, नेष्यति / नाययति, नीयते (आ, रोजाना) भयते, नयताम्, अनयत, नयेत, नेष्यते / नाययति, नीयते पच (उ, पकाना) पचति, पचतु, अपचत्, पचेत्, पक्ष्यति / पाचयत्ति, पच्यते पठ् (प, पड़ना) पठति, पठतु, अपठत्, पठेत्, पठिष्यति / पाठयति, पठपते पण (आ, खरीदना) पणते, पणताम्/अपणत, पणेत, पणिष्यते / पाणयति, पण्यते पत् (प, गिरना) पतति, पततु, अपतत्, पतेत्, पतिष्यति / पातयति, पत्यते पा (प, पीना) पिवति, पिबतु अपिबत्, पिबेत्, पास्यति / पाययति, पीयते पू (मा, पवित्र) पवते, पवताम्, अपवत, पर्वत, पविष्यते / पावयति, पूयते प्लु (आ, कूदना ) प्लवते, प्लक्ताम्, अप्लवत, प्लवेत, प्योष्यते / प्लावयति, प्लूयते फल् (प, फलना ) फलति, फलतु, अफल, फलेत, फसिध्यति / फाल्यति, फल्यते बाध्(बा, पीड़ा०) बाधते, बाधताम्, अबाधत, बाघेत, बाषिष्यते / बाधयति, बाध्यते बुध्' (उ, जानना) बोधति, बोधतु, अबोधत, बोचे, बोधिष्यति / बोधयति, बुध्यते भज् (उ, सेवा०) भजति, भजतु, अभजत, भजेत्, भक्ष्यति / भाजयति, भज्यते भण् (प, कहना ) भणति, भणदु, अभणत्, भणेत्, भणिष्यति / भाणयति, भव्यते भाष(आ, कहना) भाषते, भाषताम्, अभाषत, भाषेत, भाषिष्यते / भाषयति, भाष्यते भास् (बा, चमकना) भासते,, भासताम्, अभासत, भारोत, भासिष्यते / भासयति, भित् ( आ, मांगना) भिक्षते, भिक्षताम्, अभिक्षत, भिक्षेत, भिविध्यते / भिक्षयति भिदि (प, टुकड़े०) भिदति, भिदतु, अभिवत्, भिदेव, भिदिष्यति / भिन्दयति, भिद्यते.' भू (प, होना) भवति, भवतु, अभवत्, भवेत्, भविष्यति / भावयति, भूयते. भूप् (प, सजाना ) भूषति, भूषतु, अभूषत्, भूषेव, भूविष्यति / भूषयति, भूष्यते भू* (उ, भरना) भरति-ते, भरतु, अभरत, भरेद, भरिष्यति / भारयति, प्रियते भ्रम' (प, घूमना ) भ्रमति, भ्रमतु, अभ्रमत्, भ्रमेव, भ्रमिष्यति / भ्रमयति, भ्रम्यते भ्रंश (आ, गिरना) भ्रंशते, भ्रंशताम्, अभ्रंशत, भ्रंशेत, भ्रंशिष्यते / भ्रंशयति, अंश्यते मम् (प, मयना) मथति, मथतु, अमथन्, मयेत्, मषिष्यति / माययति, मध्यते मान् (आ, जिज्ञासा०) मीमांसते, मीमांसताम्, अमीमांसत, मीमांसेत, मीमांसिध्यते / 1. बुध (4, बा, जानना) बुध्यते, बुध्यताम्, अबुध्यत, बुध्येत,भोत्स्यते। बोधयति,बुध्यते / 2. भिद् (७,उ,तोड़ना) भिनत्ति (भिन्ते), भिनत्तु, अभिनत्, भिन्द्यात्मेत्स्यति / भेषगति 3. भू (३,उ,धारण) बिति(विभूते),बिभर्त, अविभः, विभयात, मरिष्यति / भारमति 4. प्रम् (४,प, घूमना) भ्राम्यति, भाम्पतु, अनाम्यत, प्राभ्येत, अगिमति प्रमात 5. मान् (10, उ, आदर) मानयति,मानयत,अमामयत, मानयेत.माणनिम्नति मापन 1. यह धातु चुरादिगण में (डाँटना अर्थ में) 0 होती है / जैसे-तर्जयते / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23.] संस्कृत-प्रवेशिका [१:म्बादि गण मील (प, मांख मीचना) मीलति, मीलतु, अमीलत्, मीलेक, मीलिष्यति / मीलयति मुद (आ, प्रसन्न०) मोदते, मोयताम्, अमोदत, मोदेत, मोदिष्यते / मोदयति, मुद्यते मूर्छ (प,मूछित०) मूर्छति,मूच्र्छतु,अमूच्र्छत मर्छन्, मच्छिष्यति / मच्छयति, मुर्छयते म्ल (प, मुरझाना) म्लायति, म्लायतु, अम्लायत, म्लायेत, म्लास्यति / म्लापयति यज़ (उ, यज्ञ०) यजति-ते, यजतु, अयजत्, यजेत, यक्ष्यति / याजयति, इज्यते यत् (मा, प्रयल०) यतते, यतताम्, अयतत, यतेत, यतिष्यते / यातयति, यस्यते याच (उ, मांगना) याचति, याचतु, अयाचत, याचेत, याचिष्यति / याचयति, याच्यते रक्ष (प, पालन०) रक्षति, रक्षतु, भरदात, रक्षेत, रक्षिध्यति / रक्षयति, रक्ष्यते रट् (प, रटना) रति, रस्तु, अरटत्, रटेत, रटिष्यति / राटयति, रठाते रम्' (बा, रमना) रमते, रमताम्, अरमत, रमेत, रस्यते / रमयति, रम्यते राज् (उ, चमकना) राजति, राजतु, अराजत्, राजेत, राजिष्यति / राजयति, राज्यते रुच (आ, अच्छा०) रोचते, रोचताम्, अरोचत, रोचेत,रोचिध्यते / रोचयति, रुच्यते रुह (प, उगना) रोहति, रोहतु, अरोहत, रोहेत, रोष्यति। रोहयति, रहते लग (प, लगना) गति, लगतु, अलगत्, लगेत, लगिष्यति / लगयति, लग्यते. लह (मा, लौषना) उत् + लपते, संपताम्, अलंपत, लंघेत, लंपिष्पते / लंघयति लभ (मा, पाना) लभते, लभताम्, अलमत, लभेत, लभस्यते / सम्भयति, लभ्यते लम्बू (मा, लटकना) सम्बते, लम्बताम्, अलम्बत, लम्बेत, लम्बिष्यते। लम्बयति लस (प, शोभित०)वि+लसति, लसतु, अलसत् लसेत्, लसिष्यति / लासयति, लस्यते लिङ्ग, (प, आलिंगम०) आ+लिंगति,लिंगतु,अलिंगत्, लिंगेत्, लिगिष्यति / लिंगयति लुट (प, लोटना) लोटति, लोटतु, अलोटत्, लोटेत, लोटिष्यति / खोटयति, लुटाते नुद (प, बिलोना) आ+ लोडति, लोडतु, अलोडत्, लोडेत्, लोडिष्यति / लोडयति बद् (प, बोलना) वदति, वदतु, अवदत्, बदेत, वदिष्यति / बाययति, उद्यते वन्द (मा, प्रणाम०) वन्दते, वन्दताम्, अवन्दत, वन्देत, वन्दिष्यते / बन्दयति वन्द्यते वप् (उ, बोना ) वपति-ते, वपतु, अवपत्, वपेत्, वप्स्यति / वापयति, उप्यते वम् (प, उगलना) वमति, वमतु, अवमत्, वमेत्, वमिष्यति / वमयति, वम्यते वस् (प, रहना) वसति, वसतु, अवसत्, वसेत्, वत्स्यति / वासयति, उध्यते बह, (उ, ढोना) वहति-ते, बहत, अवहत् , बहेत, वक्ष्यति / बाहयति, उह्यते वाञ्छ (प, चाहना) वाञ्छति,वाञ्छतु, अवाञ्छत्, वाञ्छेत्,वाञ्छिष्यति / वाञ्छयति वृत् (आ, होना) वर्तते, वर्तताम्, अवर्तत, वर्तेत, बतिष्यते / वर्तयति, वृत्यते वृध (आ, बढ़ना) वर्धते, वर्धताम्, अवर्धत, वर्धेत, वधिष्यते / वर्धयति, वृध्यते 1 : वादि गण] परिशिष्ट : 1: धातुकोष [231 वृष (प, बरसना ) वर्षति, वर्षतु, अवर्षत्, वर्षेत्, वषिष्यति / वर्षयति, वृष्यते वे (उ, बुनना) वयति-ते, वयतु, अवयत्, वयेत्, वास्यति / वाययति, यते वेप् (आ, कॉपना) वेपते, वेपताम्, अवेपत, वेपेत, वेपिच्यते / बेपयति, वेष्यते वेष्ट् (धा, घेरना) वेष्टते, वेष्टताम्, अवेष्टत, वेष्टेत, वेष्टिष्यते / वेष्टयति, वेष्ट्यते व्यय् (आ, दुःखित) व्यथते, व्यथताम्, अव्यथत, व्यथेत, व्ययिष्यते / व्यथयति बज् (प, जाना) व्रजति, प्रजत, अवजत्, ब्रजेत्, प्रजिष्यति / वाजयति, बज्यते शडू (मा, शङ्का०) शबूते, शताम्,अशङ्कत, शङ्कत,शतिध्यते / शङ्कपति,शङ्कयते - शम् (उ, शाप.) शपति-ते, शपतु, अशपत्, शपेत्, शप्स्यति / भापति, शप्यते शंस् (प, प्रशंसा०) प्र+शंसति, शंसतु, असत्, शंसेत्, शंसिष्यति / शंसयति, शंस्यते शिश् (आ,सीखना) शिक्षते,शिक्षताम्,अशिक्षत, शिक्षेत,शिक्षिष्यते / शिक्षयति, शिक्ष्यते शुच् (प, शोक०) शोचति, शोचतु, अशोचत, शोचेत, शोचिष्यति / शोचयति, शुच्यते शुभ (आ, चमकना) शोभते, शोभताम्, अशोभत, शोभेत, शोभिध्यते / शोभयति श्चुत् (प, चूना) श्रोतति, श्वोतत, अधोतत, चीतेत, श्रोतिष्यति / श्रोतयति,प्रचत्यते भि (उ, आश्रय०) श्रयति-ते, अयतु, अषयत, श्रयेत, श्रयिष्यति / थाययति, धीयते धु (प, सुनना) शृणोति, शृणोतु, अशृणोत्, शृणुयात्, श्रोष्यति / श्रावयति, श्रूयते श्लाथ् (आ, प्रशंसा) प्रलापते,श्लाघताम, अश्लाघत,पलाघेत, पलाषिष्यते / श्लाषयति ष्ठिन् (प, यूकना) नि+ण्टीवति, ष्ठीवतु, अष्ठीवत् ष्ठीवेत्, ठेविष्यति / ष्ठेवयति सद् (प, बैठना) नि+ सीदति, सीदतु, असीदत्, सीदेव, सत्स्यति / सादयति, सद्यते सह, (आ, सहना) सहते, सहताम्, मसहत, सहेत, सहिष्यते / साहयति, सह्यते सू (प, सरकना) सरति, सरतु, असरत, सरेत, सरिष्यति / सारयति, नियते सेव (मा, सेवा करना) सेवते, सेवताम्, असेवत, सेवेत, सेविष्यते / सेवयति, सेव्यते स्वल् (प, गिरना)स्खलति,स्खलतु,अस्खलत्,स्खलेत,स्वलिष्यति / स्वलयति,स्वल्यते स्था (प, ठहरना) तिष्ठति, तिष्ठतु, अतिष्ठत, तिष्ठत, स्थास्यति / स्थापयति, स्थीयते स्पन्द (मा,फड़कना) स्पन्दते, स्पन्दताम्, अस्पन्दत, स्पन्देत, स्पन्दिष्यते / स्पन्दयति स्पर्ध (आ,स्पर्षां०)स्पर्धते, स्पर्धताम्, अस्पर्धत,स्पर्धेत,सधिष्यते। स्पर्धयति, स्पध्यते स्मि (आ, मुस्कराना) स्मयते, स्मयताम्, अस्मयत, स्मयेत,स्मेष्यते / स्माययति, स्मीयते स्मृ (प, स्मरण०) स्मरति, स्मरतु, अस्मरत, स्मरेत, स्मरिष्यति / स्मारयति, स्मर्यते स्यन्द् (आ, बहना) स्यन्दतें, स्यन्दताम्, अस्पन्दत, स्पन्वेत, स्यन्दिष्यते / स्यन्दयति संस् (मा, सरकना) संसते, संसताम्, अन्नसत, संसेत, संसिष्यते / संसयति, संस्यते स (प, चूना) स्रवति, ववतु, अस्रवत्, नवेत्, स्रोष्यति / सावयति, खूमते हस् (प, हरना) हसति, हसतु, अहसत्, हसेत्, हसिष्यति / हासमति, मते ह (उ,चुराना) हरति-ते, हरतु, अहरत्, हरेत, हरिष्यति / हारगति, लगते ढे (उ, बुलाना) मा+बपति, हयतु, अब्जयत, जयेत् अयमति जाति वर्ग 1. वि+रम् (1, प, रमना) विरमति, विरमतु, व्यरमत्,विरमेत्, विरंस्यति / 2. लव धातु चुरादिगण में उ० है / जैसे-लंघयति-ते। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 : जुहो; 4 : दिवादि] परिशिष्ट : 1: धातुकोष [233 तृतीय गण (जुहोत्यादि)दा' (प, देना) ददाति, ददातु, अददात्, दद्यात्, दास्यति / दापयति, दीयते (आ, देना) दत्ते, दत्ताम्, अदत्त, ददीत, दास्यते / दापयति, दीयते घा (प, धारण) दधाति, दधातु, अदधात्, दध्यात्, धास्यति / धापयति, धीयते (आ, धारण) धत्ते, धत्ताम्, अधत्त, दधीत, धास्यते / धापयति, धीयते भी (प, डरना) बिभेति, विभेतु, अबिभेद, बिभीयात, भेष्यति / भाययति, भीयते भ (उ, पालना) विति, बिभर्तु, अविभः, बिभूयात, भरिष्यति / भारयति, प्रियते हा (प, छोड़ना) जहाति, जहातु, अजहात्, जहाद, हास्यति / हापयति, हीयते हु (प, यज्ञ करना) जुहोति, जुहोतु, अजुहोत, गुहयात्, होष्यति / हावयति, हूयते 232] संस्कृत-प्रवेशिका [2: अदादि गण द्वितीय गण (अदादि)अद् (प, बाना) अत्ति, अत्तु, आदत्, अद्यात्, अत्स्यति / आदयति, अद्यते अस् (प, होना) अस्ति, अस्तु, आसीत, स्यात, भविष्यति / भावयति, भूयते आस् (मा, बैठना) आस्ते, आस्ताम्, आस्त,आसीत, आसिष्यते / मासयति आस्यते इ(प, जाना) एति, एत, ऐत्, इयात्, एष्यति / गमयति, ईयते इ(आ, पढ़ना) मधि + ईते, ईताम्, ऐत, ईयीत, एष्यते / अध्यापयति, अधीयते चकास्(प,चमकना)चकास्ति,चकास्तु अचकास्त,चकास्थात्,चकासिष्यति / चकासयति जा (प, जागना) जागति, जागत, अजागत, जागृयात, जागरिष्यति / जागरयति दुह, (प, Jहना) दोग्धि, दोग्धु, अधोक, दुह्मात्, घोक्ष्यति / दोहयति, दुह्यते (मा, दुहना) दुग्धे, दुग्धाम्, अदुग्ध, दुहीत, घोक्यते / दोहयति, दुह्यते द्रा(प, सोना) नि+दाति, निद्रात ज्यदात्, निद्रायात, निद्रास्पति / निद्रापयति, निद्रायते द्विषु (उ, द्वेष०)ष्टि, देष्टु, अद्वेष्ट्, द्विष्यात, देवयति / द्वेषयति, द्विष्यते पा (प, रक्षा०) पाति, पातु, अपात्, पायात्, पास्यति / पाययति, पायते बू (प, बोलना ) प्रवीति, प्रवीतु, अब्रवीत, ब्रूयात, वक्ष्यति / पाचयति, उच्यते (आ, बोलना) छूते, जूताम्, अब्रूत, ब्रवीत, बध्यते / वाचयति, उच्यते भा (प, चमकना) भाति, भातु, भात, भायाद, भास्यति / भासयति, भास्यते मा (प, नापना) माति, मातु, अमात्, मायात, मास्यति / मापयति, मीयते या (प, जाना) याति, वातु, अयात, यायात्, यास्यति / यापयति, यायते रु(प, शब्द करना) रीति, रौतु, अरौत, रूयात, रविष्यति / रावयति, रूयते * रुन् (प, रोना) रोविति, रोवितु, अरोदीत्, रुद्यात, रोदिष्यति / रोदयति, रुद्यते लिह, (उ, चाटना) लेदि, लेख, अलेट्, लिह्यात्, लेष्यति / लेहयति, लिहते वा (प, हवा बहना) वाति, वातु, अबात्, वायात्, वास्यति / वापयति, वायते विद्' (प, जानना ) वेत्ति, वेत्तु, अवेन, विद्यात्, वेदिष्यति / वेदयति, वेद्यते शास् (प, शिक्षा०) शास्ति, शास्तु, अशात, शिष्यात्, शासिष्यति / शासयति, शिष्यते शी (आ, सोना) शेते, शेताम्, अशेत, शयीत, शयिष्यते / शाययति, शय्यते श्वस् (प, सांस०) बसिति, श्वसितु,अश्वसीत,श्वस्यात्, वसिष्यति / श्वासयति, श्वस्यते सू (आ, जन्म देना) सूते, सूताम्, असूत, सुवीत, सविष्यते / सावयति, सूयते स्तु (उ, स्तुति०) स्तौति, स्तोतु, अस्तीत्, स्तुयात, स्तोष्यति / स्तावयति, स्तूयते स्ना (प, नहाना) स्नाति, स्नातु, अस्नात्, स्नायात्, स्नास्यति / स्नापयति, स्नायते स्वप् (प, सोना) स्वपिति, स्वपितु, अस्वपीद,स्वप्यात, स्वस्यति / स्वापयति, सुप्यते हन (प, मारना) हन्ति, हन्तु, अहन्, हन्यात्, हनिष्यति / पातयति, हन्यते चतुर्थ गण (दिवादि)कुप् (प, क्रोध०) कुप्यति, कुप्यतु, अकुप्यत्, कुष्येत् कोपिष्यति / कोपयति, कृप्यते क्रुध् (प, क्रुद्ध०) क्रुध्यति, क्रुध्यतु, अनुष्य , कुष्येत्, क्रोत्स्यति / क्रोषयति, कुष्यते क्लम् (प, थकना) क्लाम्यति, क्लाम्यतु, अक्लाम्पत्, क्लाम्येत्, पल मिष्यति / क्लामयति क्षम् (प, क्षमा०) क्षाम्यति, क्षाम्यतु, अक्षाम्यत्, क्षाम्येत्, क्षमिष्यति / क्षमयति, क्षुध (प, भूख०) क्षुध्यति, क्षुध्यतु, अशुध्यत्, क्षुध्येत्, कोस्यति / क्षोधयति, क्षुध्यते खिद् (भा,खिन्न०) विद्यते, खिद्यताम्, अखिद्यत, खिोत, बेत्स्यति / खेदयति, विद्यते जन् (आ, पैदा०) जायते, जायताम्, अजायत, जायेत, जनिष्यते / जनयति, जन्यते ज (प, वृद्ध०) जीर्यति, जीर्यतु, अजीर्यत्, जीर्येत्, जरिष्यति / अत्यति, जीर्यते ही (आ, उड़ना) उत् + डीयते,डीयताम्, अडीयत, डीयेत, यिष्यते / डाययति, डीयते तुम् (प, तुष्ट) तुष्यति, तुष्यतु, अनुष्यत्, तुष्येत्, तीक्ष्यति ! तोषयति, तुष्यते तृप् (प, तृप्त० ) तृप्यति, तृप्यतु, अतृप्यत्, तृप्येत्, तपिष्यति / तर्पयति, तृप्यते तृष् (प, प्यासा.) तृष्यति, तृष्यतु, अतृष्यत्, तृष्येत्, तषिष्यति / तर्षयति, तृष्यते अस् (प, डरना ) त्रस्यत्ति, त्रस्यतु, अत्रस्यत्, त्रस्येत्, सिष्यति / त्रासपति, त्रस्यते दम (प, वमन०) दाम्यति, दाभ्यनु, अदाम्यत्, दाम्येत्, दमिष्यति / दमयति, वम्यते दिव् (प, जुबा०) दीव्यति, दीव्यतु, अदीव्यत, दीव्येत, देविष्यति / देवयति, दीव्यते दीप् (आ, चमकना) दीप्यते, दीप्यताम्,अदीप्यत,दीप्येत,दीपिच्यते / दीपयति, दीप्यते दुष् (प, बिगड़ना ) दुष्यति, दुष्यतु, अदुष्यत् , दुष्येत्, दोश्यति / दूषयति. दुष्यते दू (आ, दुःखित०) दूयते, यताम्, अद्यत, दूयेत, दविष्यते / दावयति, पूयते दृप् (प, गर्व०) दृष्यति, दृप्यतु, अदृप्यत्, दृष्येत्, षिष्यति / वर्पयति, दृप्याने द्रुह (ग, दोह०) द्रुह्यति, द्रुह्यतु, अद्रुह्यत्, दुह्येत्, द्रोहिष्यति / द्रोहमति, हमने 1. दा ( 1, प, देना ) यच्छति / ( 2, प, काटना) वाति / 1. विद् (४,आ, होना) विद्यते / (६,उ,पाना) विन्दति / (10 आ, कहना) निवेदयते Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234] संस्कृत-प्रवेशिका [4: दिवादि; 5: स्वादि नश् (प, मष्ट०) नश्यति, नश्यतु, अनश्यत् , नश्येत, नशिष्यति / नाशयति, नश्यते नृत् (प, नाचना) नृत्यति, नृत्यतु, अनृत्यत्, नत्येत्, नतिष्यति / नर्तयति, नत्यते पुष्' (प, पुष्ट०) पुष्यति, पुष्यतु, अपुष्यत्, पुष्येत, पोक्षयति / पोषयति, पुष्यते प्री' (मा, प्रसन्न) प्रीयते, प्रीयताम, अप्रीयत, प्रीयेत, प्रेष्यते / प्रायषति, प्रीयते बुध (आ, जानना ) बुध्यते, बुध्यताम्, अबुध्यत, बुध्येत, भोत्स्यते / बोधयति, बुध्यते घ्रम् (प, धूमना) भ्राम्यति, भ्राम्यतु, अभ्राम्यव, भ्राम्येत्, भ्रमिष्यति / भ्रमयति, मुह (प, मोह ) मुह्यति, मुह्यतु, अमुह्मद, मुह्येद, मोहिष्यति / मोहयति, मुह्यते युज् (आ, ध्यान०) युज्यते, युज्यताम्, अयुज्यत, युज्येत, योक्यते / योजयति, युज्यते युध (आ, लड़ना) युध्यते, युध्यताम्, अयुध्यत, युध्येत, योत्स्यते / योधयति, युध्यते 'रज (उ, प्रसन्न०) रज्यति, रज्यतु, अरज्यत्, रज्येत्, रक्ष्यति / रज्जयति, रज्यते रुष् (प, रुष्ट०) रुष्यति, रष्यतु, अरुष्यत्, रुष्येत, रोषिष्यति / रोषयति, रष्यते ली (आ, लीन०) लीयते, लीयताम्, अलीयत, लीयेत, लेष्यते / लाययति, लीयते लुप (प, लुप्त०) लुप्यति, लुप्यतु, अलुप्यत्, लुप्त, लोपिष्यति / लोपयति, तुप्यते नुभ् (प, लोभ०) लुभ्यति, लुभ्यत, अलुभ्यत्, लुभ्येत, लोभिष्यति / लोभयति, लुभ्यते विद् (आ, होना) विद्यते, विद्यताम्, अविद्यत, विद्येत, वेत्स्यते / वेदयति, विद्यते / व्यधु (प,बींधना) विष्यति, विध्यतु, अविध्यत, विध्येत्, व्यत्स्यति / व्याधयति, विध्यते शम् (प, शान्त०) शाम्यति, शाम्यतु, अशाम्यद, शाम्येव, शमिध्यति / शमयति,शम्यते शुध (प, शुद्ध) शुध्यति, शुध्यतु, अशुध्यद, शुध्येत, शोत्स्यति / शोषयति, शुध्यते शुषु (प, सूखना ) शुष्यति, शुष्यतु, अशुष्यत्, शुध्येत्, शोक्ष्यति / शोषयति, शुष्यते श्रम्, (प, श्रम०) थाम्यति, श्राम्यतु, अश्राम्यत्, श्राम्येव, अमिष्यति / श्रम्य ति, धम्यते श्लिषु (प, मालिंगन) शिलष्यति, शिलष्यतु, अश्लिष्यत्, श्लिष्येत्, श्लेष्यति / सिधु (प, पूरा०) सिध्यति, सिध्यतु, असिध्यत्, सिध्येत्, सेत्स्यति / साधयति, सिध्यते सिव (प, सीना) सीम्यति, सीव्यतु, असीव्यत्, सीव्येत्, सेविष्यति / सेवयति, सीव्यते स्निह, (प,स्नेह०) स्निाति, स्निातु, अस्निात्, स्निात, स्नेहिष्यति / स्नेहयति, हृष (प, खुश होना) हृष्यति, हृष्यतु, अहृष्यत्, हृष्येत्, हर्षिष्यति / हर्षयति, इष्यते पञ्चम गण (स्वादि)आप् (प, जाना) आप्नोति,आप्नोतु,आप्नोत् ,आप्नुयात्,आप्स्यति / आपयति, आप्यते चि (प, चुनना) चिनोति, चिनोतु, अचिनोत्, चिनुयात्, चेष्यति / चाययति चीयते (मा, चुनना) चिनुते, चिनुताम्, अचिन्त, चिन्वीत, चेष्यते / चायवति, चीयते lililin 6 : तुदादि] परिशिष्ट: 1: धातुकोष [235 दु (प, दुःखित होना) दुनोति, दुनोतु, अदुनोत् दुनुयात्, दोष्यति / दावयति, यते धु (उ, हिलाना) धुनोति, धुनोतु, अधुनोत्, धुनुयात्, धोष्यति / घावयति, धूयते '(उ, चुनना) वृणोति, वृणोतु, अवृणोत्, वृणुयात्, परिष्यति / वारयति, वियते शक् (प, सकना) शक्नोति, शक्नोतु, अशक्नोत्, शझ्नुयात्, शक्ष्यति / शाकयति, प्राक्यते साधु (प, पूरा०) सानोति, साधनोतु, असाध्नोत्, साध्नुयात्, सात्स्यति / साधयति षष्ठ गण ( तुदादि)-- इषु (प, चाहना) इच्छति, इच्छतु, ऐच्छत्, इच्छेत्, एषिष्यति / एषयति, इष्यते उज्म् (प, छोड़ना)उज्झति,उजातु, बोझत्, उज्जोत्,उजिमष्यति / उज्नयति, उज्जयते कुत् (प, काटना) कृन्तति, कन्ततु, अकृन्तत्, कृन्तेत्, कतिष्यति / कर्तयति, कृत्यते क (प, विखेरना) किरति, किरतु, अकिरत्, किरेत्, करिष्यति / कारयति, कीर्यते क्षिप् (उ, फेकना) क्षिपति, क्षिपनु, अक्षिपत्, क्षिपेत, क्षेप्स्यति / क्षेपयति, क्षिप्यते गुम्फ (प, Dथना) गुम्फति, गुम्फनु, अगुम्फत् , गुम्फेत, गुम्फिष्यति / गुम्फयति, मुम्पयते तुद् (उ, दुःव०) तुदति, तुदतु, अतुदत्, तुबेत्, तोत्स्यति / तोदयति, तुद्यते त्रुट् (प, टूटना) त्रुटति, तुटतु, अत्रुटत्, टेत, त्रुटिष्यति / त्रोटयति, ट्यते विश् (उ, कहना ) दिशति, दिशतु, अदिशत्, दिशेत्, देश्यति / देशयति, विश्यते दृ (आ, आदर०) आ + द्रियते, द्वियताम्, अद्वियत, द्रियेत, दरिष्यते / दरयति, द्रियते नुद (उ, प्रेरणा.) नुवति-ते, नुदतु, अनुदत्, नुवेत्, नोत्स्यति / नोदयति, नुयते प्रच्छ (प, पूछना) पृच्छति, पृच्छतु, अपृच्छत्, पृच्छत्, प्रक्ष्यति / प्रच्छ्यति, पृष्ठवते भ्रस्ज् (उ,भूनना) भृज्जति, भृज्जतु, अभृज्जत्, भृज्जेत्, प्रक्ष्यति / प्रज्जयति, प्रज्यते गस्ज् (प, डूबना) मज्जति, मज्जतु, अमज्ज़त्, मज्जेत्, मक्ष्यति / मज्जयति, मज्ज्यते मिल (उ, मिलना) मिलति, मिलतु, अमिलन,मिलेत, मेलिष्यति / मेलयति, मिल्यते मुच (उ, छोड़ना) मुवति, मुखातु, अमुञ्चत्, मुख्यक, मोक्ष्यति / मोचयति, मुण्यते मृ (मा, मरना) म्रियते, नियताम्, अम्रियत, नियेत, मरिष्यति / मारयति, म्रियते लस्जु (बा, लज्जित०) लज्जते, सज्जताम्, अलज्जत, लज्जेत, लज्जिष्यते / मज्जयति लिखु (प, लिखना) लिखति, लिखतु, अलिखत, लखेत, लेखिष्यति / लेखपति, लिण्यते लिए (उ, लीपना) लिम्पति, लिम्पतु, अलिम्पत, लिम्पेत, लेप्स्यति / लेपयति, लिप्यते विद् (उ, पाना) विन्दति, विन्दतु अविन्दत्, विन्देत्, बेदिष्यति / वेदयति, विद्यते विश् (प, घुसना) प्र+विशति, विशतु, बविशत्, विशेष, वेष्यति / वेशयति, विश्यते सिन् (उ, सींचना) सिंचति, सिंचतु, असिंचन, सिंचेत्, सेक्ष्यति / सेचयति, शिष्यते सृज् (प, बनाना ) सृजति, सृजतु, असृजत्, सृजेत् लक्ष्यति / सर्जयति, गाने 1. पुष् ( 6, प, पुष्ट करना) पुष्णाति / (10, उ, पालना ) पोषयति-ते / 2. प्री (6, उ, प्रसन्न करना) प्रीणाति / (10, उ, प्रसन्न करना) प्रीणपति-ते 3. युज् (7, उ, मिलाना ) युनक्ति / (10, उ, लगाना) योजयति-ते। 1. वृ (E, आ, छाँटना ) वृणीते / (10. उ, हटागा) पारयति / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236] . संस्कृत-प्रवेशिका [7-6 रुपादि, तनादि, ब्रयादि स्पृश् (प, छूना ) स्पृशति, स्पृशतु, अस्पृशत्, स्पृशेत्, स्पृष्यति / स्पर्शयति, स्पृश्यते स्फुट् (प,खिलना) स्फुटति, स्फुटतु, अस्फुटत्, स्फुटेत्, स्फुटिष्यति / स्फोटयति स्फुट्यते स्फुर (प, फड़कना) स्फुरति, स्फुरतु, अस्फुरत्, स्फुरेत्, स्फुरिष्यति / स्फारयति स्फुर्यते सप्तम गण ( रुधादि) इन्धी (मा, जलना ) इन्धे, इन्धाम, ऐन्ध, इन्धीत, इन्धिष्यते / इन्धयति, इध्यते क्षुद (उ, पीसना) अणत्ति, क्षुणतु, अक्षुणत, अन्यात्, क्षोत्स्यति / क्षोदयति, क्षुद्यते छिद् (उ, काटना) छिनत्ति, छिनत्तु, अच्छिनत्, छिन्यात, छेत्स्यति / छेदयति, छिचते पिष् (प, पीसना) पिनष्टि, पिनष्टु, अपिनष्ट, पिध्यात्, पेक्ष्यति / पेषयति, पिष्यते भज (प, तोड़ना) भनक्ति, भनक्तु, अभनक, भज्यात्,भक्यति / भञ्जयति, भज्यते भिद् (उ, तोड़ना) भिनत्ति, भिनत्तु, अभिनत्, भिन्द्यात्, भेत्स्यति / भेदयति, भिद्यते भुज् (प, पालना ) भुनक्ति, भुनक्तु, अभुनक्, मुळ्यात्, भीक्ष्यति / भोजयति, भुज्यते (था, खाना ) भुङ्क्ते, भुङ्क्ताम्, अभुङ्क्त, भुजीत, भोक्ष्यते,। भोजयति, युज् (उ, मिलाना) युनक्ति, युनक्तु, अयुनक्, गुरुज्यात्, योक्ष्यति / योजयति, युज्यते रुप (प, रोकमा ) रुणद्धि, रुणदु, अरुणत्, सन्ध्यात्, रोत्स्यति / रोधयति, रुध्यते' (आ, रोकना ) रुन्धे, रुन्धाम्, अरुन्ध, सन्धीत, रोत्स्यते / रोधयति, रुध्यते हिस् (प, हिंसा०) हिनस्ति, हिनस्तु, अहिनत्,हिंस्यात्, हिसिष्यति / हिंसयतिहिंस्यते अष्टम गण (तनादि) कृ (प, करना) करोति, करोनु, अकरोत् कुर्यात्, करिष्यति / कारयति, क्रियते / (आ, करना) कुरुते, कुरुताम्, अकुरुत, कुर्वीत, करिष्यते / कारयति, क्रियते तम् (प, फैलाना) तनोति, तनोतु, अतनोत्, तनुयात्, तनिष्यति / तानयति, तन्यते " (आ, फैलाना ) तनुते, तनुताम्, अतनुत, तन्वीत, तनिष्यते / तानयति, तम्यते / . नवम गण (क्रमादि)अश् (प, खाना) अपनाति, अश्नातु, आश्नात्, अश्नीयात्, अशिष्यति, / आणपति; क्री (प, खरीदना) क्रीणाति, क्रीणातु,अक्रीणात्, क्रीणीयात्,क्रेष्यति / कापयति क्रीयते - (भा) क्रीणीते, क्रीणीताम, अक्रीणीत, क्रीणीत, वेष्यते / क्रापयति, क्रीयते / अन्य (प, संग्रह०) ग्रनाति,अध्नातु,अग्नथ्नात्, अध्नीयात् ग्रन्थिष्यति / ग्रन्थयति, अध्यते / ग्रह, (उ, लेना) गृह्णाति, गृहात, अगृहात गहीयात, ग्रहीष्यति / ग्राहयति, गृह्यते / शो (प, जानना ) जानाति, जानातु, अजानात्, जानीयात, शास्यति / शापयति, (आ) जानीते, जानीताम्, अजानीत, जानीत, ज्ञास्यते / ज्ञापयति, ज्ञायते / पुष् (प,पुष्ट०) पुष्णाति, पुष्णातु, अपुष्णात् पुष्णीयात्, पोषिष्यति / पोषयति, पोष्यते 10 : चुरादि] परिशिष्ट : 1 : धातुकोष [237. पू (प, पवित्र०) पुनाति, पुनानु, अपुनात, पुनीयात्, पविष्यति / पाययति, पूर्यते प्री (उ.प्रसन०) प्रीणाति, प्रीणातु, अप्रीणात्, प्रीणीयात्, प्रेष्यति / प्रणयति, प्रीयते बन्धु (प, बाँधना) बध्नाति,बध्नातु,अवघ्नात् बध्नीयात्, भन्त्स्यति / बन्धयति, बध्यते मन्थ् (प, मथना) मध्नाति, मध्नातु, अमथ्नात्, मनीयात्, मन्थिष्यति / मन्धयति, मुष् (प, चूराना) मुष्णाति, मुष्णातु, अमुष्णात्, मुष्णीयात्, मोषिष्यति / मोषयति लू (उ, काटना) लुनाति, लुनातु, अलुनात्, लुनीयात्, लविस्यति / लावयति, लूयते वु (आ, छाँटना ) दृणीते, वृणीताम्, अदृणीत,वृणीत, वरिष्यते / वारयति, नियते दशम गण (चुरादि )आन्दोल(उ,हिलाना)आन्दोलमति, दोलयतु, दोलयत्, दोलयेत्, दोलयिष्यति।दोल्यते अप् (उ, पहुँचाना) आपयति, आपयतु, आपयत्, आपयेत्, आपयिष्यति / आप्यते ईर् (उ, प्रेरणा०) प्र+ईरयति-ते, ईरयतु, ऐरयत्, ईरयेत्, ईरयिष्यति / ईर्यते कथ् (प, कहना ) कथयति, कथयतु, अकथयत्, कथयेत्, कथयिष्यति / कथ्यते (आ, कहना ) कथयते, कथयताम्, अकथयत, कथयेत, कथयिष्यते / कथ्यते कृत् (उ, नाम लेना) कीर्तयति, कीर्तयतु, अकीर्तयत्,कीर्तयेत्, कीर्तयिष्यति / कीर्त्यते क्षल् (उ, घोना) प्र+क्षालयतिक्षालयतु,अक्षालयत् ,क्षालयेत्,क्षालयिष्यति / क्षाल्यते खण्ड् (उ, तोड़ना) खण्डयति,खण्डयतु, अखण्डयत्, खण्डोत्, खण्डयिष्यति / खण्डचते गण (उ, गिनना) गणयति-ते, गणयतु, अगणयत्, गणयेत्, गणयिष्यति / गण्यते गवेषु (उ, खोजना) गवेषयति, गवेषगतु, अगवेषयत्, गवेषयेत्, गवेषयिष्यति / गवेष्यते गुण्ठ (उ, पूंघट०) अव+गुण्ठयति, गुण्ठयतु, अगुण्ठयत्, गुण्ठयेत्, गुण्ठयिष्यति, गुंठयते घुष (उ, घोषणा.) घोषयति, घोषयतु, अघोषयत्, घोपयेत्, घोषयिष्यति / पोष्यते चित्र (उ, चित्र०) चित्रयति, चित्रयतु, अचित्रयत्, चित्रयेत्, चित्रयिष्यति / चित्र्यते चिन्त् (अचिन्ता०) चिन्तयति.चिन्तयतु,अचिन्तयत्,चिन्तयेत्, चिन्तयिष्यति / चिन्त्यते चिह्न.(उ, चिह्न) चिह्नयति,चिह्नवतु, अविह्वयत्, चिह्नयेत,चिह्नयिष्यति, / चिहपते चद् (उ, प्रेरणा०) चोदयति, चोदयतु, अचोदयत्, चोदयेत्, पोदयिष्यति / चोद्यते चुर (उ, चुराना) दोरयति-ते,चोरयतु, अचोरयत, चोरयेत, चोरयिष्यति / चोर्यते चूर्ण (उ, चूर्ण० ) चूर्णयति, चूर्णयतु, अचूर्णयत्, चूर्णयेत् , चूर्णयिष्यति / चूय॑ते छद् (उ, ढकना) आ+ छादयति,छादयतु, अच्छादयत्,छादयेत्, छादयिष्यति / छाद्यते ज्ञा (उ, आज्ञा०) मा + शापयति, ज्ञापयतु, अज्ञापयत् , जापयेत्, शापयिष्यति / ज्ञाप्यते टशू (उ, चिह्न) टङ्कपति, टङ्कयतु, अटळूयत्, टङ्कयेत्, टङ्कयिष्यति / टक्यते तड़ (उ, पीटना ) ताइयति, ताडयतु, अताडयत्, ताडयेत् , ताडयिष्यति / ताडपते १.चुरादिगण के प्रेरणार्थक रूपों में अन्तर नहीं होता है / अतः जगहें छोड़ दिया। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238] संस्कृत-प्रवेशिका [10 : चुरादि 10: चुरादि,१: सम्बन्धी वर्ग] परिशिष्ट : 2 : शब्दकोष [236 लोक् (उ,देखना) आ + लोकयति,लोकयतु,अलोकयत्,लोकयेत्, लोक यिष्यति / लोक्यते लोच (उ, देखना) आ+ लोचयति,लोचयतु, अलोचयत, लोचयेत्, लोचयिष्यति / लोच्यते वच् (उ, वाचना) वाचयति-ते, वाचयतु, अवाचयत्, वाचयेत्, वाचयिष्यति। वाच्यते बञ्च (उ, ठगना) वञ्चयति,वञ्चयतु, अवञ्चयत्, वञ्चयेत्, वञ्चयिष्यति / बध्यते विद् (उ, कहना) नि + वेदयति, वेदयतु, अवेदयत्, वेदयेत्, वेदयिष्यति / वेद्यते बीज् (उ, पंखा०) बीजयति, वीजयतु, अवीजयत्, वीजयेत्, वीजयिष्यति / वीज्यते (उ, हटाना, ढकना)वारयति-ते, वारयतु, अवारयत्, वारयेत्, वारयिष्यति / वार्यते वृज् (उ, छोड़ना) वर्जयति, वर्जयतु, अवर्जयत्, वर्जयेत्, वर्जयिष्यति / वयते सान्त्व् (उ,सान्त्वना०) सान्त्वयति, सान्त्वयतु, असान्त्वयत्, सान्त्वयेत्,सान्त्वयिष्यति / सूच (उ, सूचना०) सूचयति, सूचयतु, असूचयत्, सूपयेत्, सूचयिष्यति / सूच्यते सूत्र (उ, संक्षिप्त०) सूत्रयति, सूत्रयतु, असूत्रयत्, सूत्रयेत्, सूत्रयिष्यति / सूज्यते स्पृह (उ, चाहना) स्पृहयति, स्पृहयतु, अस्पृहयत्, स्पृह्येत्, स्पृहयिष्यति / स्पृह्यते स्वद् (उ, स्वाद०)स्वादयति, स्वादयतु, अस्वादयत्, स्वादयेत्, स्वादयिष्यति / स्वाद्यते तर्क (उ, सोचना) तर्कपति, तर्कयतु, अतर्कयत्, तर्कयेत्, तर्कयिष्यति / तर्फघते संस् (उ, सजाना ) अव+तंसयति, तंसयतु, अतंसयत्, तंसयेत्, संसयिष्यति / तस्यते तुल (उ, सोलना) तोलयति, तोलयतु, मतोलयत्, तोलयेत्, तोलयिष्यति / तोल्यते दण्ड (उ, दण्ड०) दण्डयति, दण्डयतु, अदण्डयत, दण्डयेत, दण्डयिष्यति / दण्ाधते धू (उ, रखना) धारयति-से, धारयतु, अधारयत्, धारयेत्, धारयिष्यति / धार्यते घृष (उ, दबाना) घर्षयति, धर्षयतु, अधर्षयत्, धर्षयेत्, घर्षयिष्यति / घमंते पाल (उ, पालना) पालयति, पालयतु, अपालयत्, पालयेत्, पालयिष्यति / पाल्यते पीड (उ, दुःख०) पीडयति, पीडयतु, अपीडयत्, पीडयेत्, पीडयिष्यति / पीडधते पूष (उ, पालना) पोषयति-ते, पोषयतु, अपोषयत्, पोषयेत्, पोषयिष्यति / पोष्यते पूज् (उ, पूजना) पूजयति-रो, पूजयतु, अपूजयत्। पूजयेत्, पूजयिष्यति / पूज्यते पूर् (उ, भरना) पूरयति-ते, पूरयतु, अपूरयत्, पूरयेत्, पूरयिष्यति / पूर्यते प्री (उ, प्रसन्न) प्रीणयति-ते, प्रीणयतु, अप्रीणयत्, प्रीणयेत्, प्रीणयिष्यति / प्रीण्यते भः (उ, खाना ) भक्षयति-ते, भक्षयतु, अभक्षयत्, भक्षयेत्, भक्षयिष्यति / भक्ष्यते भत्स (उ, डाँटना) भर्सयति, भर्सयतु, अभसंयत्, भसयेत्, भत्संयिष्यति / भत्स्यते मण्ड (उ, सजाना) मण्डयति, मण्डयतु, अमण्डयत्, मण्डयेत, मण्डयिष्यति / मन्डपते मन्त्र (उ, मन्त्रणा०) मन्त्रयति, मन्त्रयतु, अमन्त्रयत्, मन्त्रयेत्, मन्त्रयिष्यति / मन्यते मान (उ, आदर०) मानयति-ते, मानयतु, अमानयत्, मानयेत, मानयिष्यति / मान्यते मार्ग (उ,ळंटना) मायति-ते, मार्गयतु, अमान्यत, मायेत, मार्ग यिष्यति। मार्यते मार्ज (उ,साफ०) मार्जयति, मार्जयतु, अमार्जयत, मार्जयेत, माजयिष्यति / भाज्यते मिश्र(उ,मिलाना) मिश्रयति-ते, मिश्रयतु, अमिश्रयत्, मिश्रयेत्, मिथयिष्यति / मिथ्यते मुच (उ, मुक्त०) मोचयति-ते, मोचयतु, अमोचयत्, मोचयेत्, मोचयिष्यति। मोच्यते मृग (उ, ढूंढना) मृगयति, मृगयतु, अमृगयत्, मृगयेत, मृगयिष्यति / मृश्यते मृज् (उ, साफ०) मार्जयति-ते, मार्जयतु, अमार्जयत्, मार्जयेत्, मार्जयिष्यति। माय॑ते मृष (उ, क्षमा०) मर्षयति, मर्षयतु, अमर्षयत्, मर्षयेत्, मर्षयिष्यति / मय॒ते यन्त्र (उ,नियमित०)नि + यन्त्रयति, यन्त्रयत, अयन्त्रयत् , यन्त्रयेत्,यन्त्रयिष्यति। यत्र्यते युज् (उ, लगाना) योजयति-तं, योजयतु, अयोजयत, योजयेत्, योजयिष्यति / योज्यते रच (उ, बनाना) रचयति-ते, रचयतु, अरचयत्, रचयेत्, रचयिष्यति / रच्यते रस् (उ, स्वाद०) रसयति-ते, रसयतु, अरसयत्, रसयेत्, रसविष्यति / रस्यते रूप् (उ, रूप बनाना) रूपयति-ते, रूपयत, मरूपयत्, रूपयेत्, रूपयिष्यति / रूप्यते लक्ष् (उ, देखना) लक्षयति-ते, लक्षयतु, अलक्षयत्, लक्षयेत्, लक्षयिष्यति / लक्ष्यते लङ्घ (उ, लाँधना) लखपति-ते, लङ्घयत, अलङ्घयत्, लजयेत्, लङ्कयिष्यति / लंध्यते लड् (उ, प्यार०) लाउयति-ते, लाडयत, अलाइयत्, लाडयेत्, लाडयिष्यति / लाच्यते परिशिष्ट :२.(वाग्-व्यवहार ) शब्दकोष (1) सम्बन्धी वर्ग (Relations)| दासी-चेटी अतिथि-अतिथि: दुश्मन-अरिः, शत्रुः, रिपुः अध्यापक--अध्यापकः दूत--संदेशहरः दूतः औरत-नारी, स्त्री, योषित् देवर-देव (देवी) कुल-कुटुम्बम्, परिवार देवरानी-यातृ (याता) गाभिन-गर्भिणी ननद-ननान्दृ (ननान्दा) ग्राहक-ग्राहकः, क्रेता नाती-गप्त (नप्ता) चाचा ( काका)-पितृव्यः नाना-मातामहः चेला-शिष्यः नोकर-मृत्यः, दासः, सेवकः, अनुचरः छिनार-कुलटा, पुंश्चली पति-पतिः, भर्ता, धवः जमींदार-भूमिपतिः, भूस्वामी पतिव्रता-पतिव्रता, सती जंवाई (दामाद)-जामाता पतोहू-पुत्रवधूः जीजा(बहनोई)-भगिनीपतिः, आवुत्तः पत्नी-पत्नी, भार्या, दाराः (पुं०) जेठ-पत्यग्रजः परदादा-प्रपितामहः दादा-पितामहः परनाना-प्रमातामहः द्रादी-पितामही परपोता-प्रपौत्र Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २:शरीर वर्ग] परिशिष्ट : 2: शब्दकोष [241 240] संस्कृत-प्रवेशिका [1-2 सम्बन्धी एवं शरीर वर्ग परीक्षक-परीक्षकः यजमान-यजमानः परीक्षार्थी परीक्षार्थी यार (Paramour)-उपपतिः, जारः पिता-जनकः, पितृ (पिता) रांड़-विधवा, रण्डा, पुत्र-आत्मजः, पुत्रः,तनयः, सुतः, सूनुः | रानी-राशी पुत्री-आत्मजा, सुता, पुत्री, दुहिता | " (पटरानी)-महिषी पोता-पौत्र: रिश्तेदार ( सम्बन्धी)-बन्धुः, शातिः पोती-पौत्री वेश्या-वेश्या, गणिका, रूपाजीवा फूमा (बुआ)-पितृस्वसा सखी-आलिः, सखी फूफा-पितृस्वसृपतिः ससुर-श्वशुरः बहिन-भगिनी, स्वसा साला-प्याल: बहू-वधूः, वधूटिका साली-श्यालिका भतीजा-भातुष्पुत्रः, प्रातृजः सास-श्वश्रूः भतीजी-भ्रातृसुता सोहागिन-सौभाग्यवती, पतिवती भाई-भ्राता (2) शरीर वर्ग ( Parts of the ___Body) "सगा-सहोदरः, सोदरः अंगूठा-अङ्गुष्ठः * सौतेला-विमातृजः, वैमात्रयः अङ्गुली' अङ्गुलिः "छोटा-अनुजः अंडकोष वृषणः, मुष्कः बड़ा-अग्रजः आँख-नेत्रम्, नयनम्, अक्षि, लोच" चचेरा-पितृव्यपुत्रः नम्, चक्षुः "फर्फरा-पैतृष्बस्रयः आँख की पुतली-कनीनिका, तारका " ममेरा-मातुलेयः आंत-अन्त्रम् " मौसेरा-मातृष्वनेयः आँसू-अश्रु भानजा-भागिनेयः, भगिनीपुत्र: इन्द्रिय-इन्द्रियम् भाभी ( भौजाई)-प्रातृजाया एड़ी-पाणिः माता-माता, जननी ओठ-ओष्ठः मामा-मातुलः " (नीचे का)-अधरः मामी-मातुलानी, मातुली कंकाल-ककालः, अस्थिपञ्जरः मालिक-स्वामी, प्रनुः कनपटी-गण्डस्थलम् मित्र-मित्रम्, सुहृद्, सखा, वयस्यः / कन्धा-स्कन्धः, अंसः मौसा-मातृष्वसृपतिः कमर-कटिः मौसी--मातृष्वस (मातृष्वसा) | कलाई-मणिबन्धः, प्रकोष्ठः 1. अंगूठा के बाद की चारों अंगुलियों के क्रमशः नाम--तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा (कनिष्ठिका)। कलेजा-वृक्कम् कान--कर्णः, श्रोत्रम् खून-रुधिरम्, रक्तम् कूबड़-कुब्जः कोहनी-कफोणिः, कूपरः गर्दन-ग्रीवा गर्भाशय-गर्भाशयः, जरायुः गला कण्ठः गाल-कपोल: गुदा-गुदा, मलद्वारम् गोद--कोड:, अङ्कः, उत्सङ्गः घुटना-जानु: चमड़ा-स्वक, चर्म (नपुं०) चुल्लू-चुलुकः चूक-चूचुकम्, कुचाग्रम् चूतड़-नितम्बः . चोटी-शिखा, चूडा " (स्त्रियों की)-बेणी छाती-वक्षः, उर जांघ-जंघा, ऊरः . जीभ-जिह्वा, रसना ठुड्डी-चिबुकम्, हनुः तलुवा-पादतलम् तालु-तालु, काकुदम् तोंद-नन्दम् थूक --निष्ठीवनम् दाँत-दलः, दशनः, रदन दाढी-कुर्वम्, दिमाग-मस्तिष्कम् नस-शिरा नाक-नासिका, प्राणम् नाखन-नखः, कररुहः नाड़ी-नाडिः, स्नायुः, धमनी पलक-पक्ष्म (मपु.) पसीना-प्रस्वेदः पाँव-पादः, चरणः, अद्भिः पीठ-पृष्ठन पेट-उदरम्, कुक्षिः फेफड़ा-फुफ्फुसम् बाह-बाहुः, भुजः बाल-केशः, शिरोरुहः, कचः बल्गम-कफः, श्लेष्मा भौंह-भ्रूः, भृकुटी मन--मनः (नपुं०), नित्तम्, अन्तःकरणम् मल-मलम्, पुरीषम्, विष्ठा मसूड़ा-दन्तमांसम् मांस-मांसम्, आमिषम्, पिशितम् माथा-ललाटम्, भाल मुंह-आननम्, वक्त्रं, मुखम् मुट्ठी-मुष्टिः, मुष्टिका मूंछ-श्मथु मूत्र-मूत्रम् योनि-योनिः, भगः . रीढ़-पृष्ठांस्थि (न ) लार-लाला, स्यन्दिनी लिङ्ग-लिङ्गम्, शिश्न: वीर्य-शुक्रम् शरीर-शरीरम्, गात्रम्', देहः, कायः, तनुः सिर-शिरः, शीर्षम् स्तन-स्तनः, कुचः, पयोधरस, उरोज: हड्डी-अस्थि (नपुं.) | हथेसी-करतला, कारतमम् | हाथ करः पाणिन Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] . संस्कृत-प्रवेशिका [3-5 आभूषण, वस्त्र, गृहस्थी० 5: गृहस्थी की सामग्री] परिशिष्ट : 2: शब्दकोष [243 आभरणम् (3) आभूषण वर्ग (Ornaments) | खड़ाऊँ-पादुका अंगूठी-अगुलीयकम् , कमिका गद्दा-तूलसंस्तरः " (नामांकित)-मुद्रिका गलेबन्द-गलबन्धः, कण्ठांशुकम् कंगना-कंकणः, कंकणम् चादर-प्रच्छदः कड़ा-कटकः, वलयः चिथड़ा-कन्या कण्ठा-कण्ठाभरणम्, कण्ठिका चोली-कञ्चुकी कनफूल-कर्णपूरः, कर्णावतंसः जाँघिया-अर्धारुकम् करधनी-मेखला, काञ्चिः जूता-उपानह कुण्डल-कुण्डलम् तकिया-उपधानम्, शिरोधानी गहना-आभूषणम्, अलङ्कारः, तौलिया-उपवस्त्रम् दरी-आस्तरणम् घुघरू-किंकिणी दुपट्टा-उत्तरीयम्, द्विपटी चूड़ामणि-चूडामणिः, शिरोरत्नम् धोती---अधोवस्त्रम्, परिघानीयम् चूड़ी (कांच की)-काचवलयः . पगड़ी-उष्णीषम् छागल-पदचारुकः परदा--यवनिका, अवगुण्ठनम् . पायजेब-नूपुरः, नूपुरम्, मजीरः पेटीकोट (साया)-अन्तरीयम्, अन्तर्वस्त्रम् * बाजूबन्द-केवरम्, अंगदम् .. बिछिया (पैर का)-पदरजकः बिछौना-शय्या, आस्तरणम् माला-सक् बुर्का-निचोलः, प्रच्छदपटः ( मोती की)--मुक्तावली ब्लाउस-कंचुलिका मुकुट-किरीटम्, मुकुटम् / मफलर-कण्ठांशुकम्, गलबन्धः मशहरी-मशकहरी हार-हारः मोजा (पर का)-पादत्राणवस्त्रम् हंसुली-वेयकम् "(हाथ का)-हस्तत्राणवस्त्रम् (4) वस्त्र वर्ग (Clothes). रजाई-तूलिका, तूलपटी अंगरखा-अङ्गरक्षिका, अङ्गरक्षक रुई-कार्पासः, तुलः अंगोछा-गात्रमार्जनी, उपवस्त्रम् रूमाल -करवस्त्रम् ओढ़नी-प्रच्छदपट: रेशम-कौशेयम् कंवल-कम्बल सलवार-स्यूतवरः कपड़ा-वस्त्रम्, वसनम्, चीरम्, चलम् साड़ी-शांटिका "(कनी)-और्णम्, कर्णामयम् स्वेटर-ऊर्जावरणम् " (सूती)-कार्पासम् (5) गृहस्थी की सामग्री ... " (रेशमी)-कौशेयम् / (Domestic- Articles) - कुरता-कञ्चकः, निचोल: अंगीठी-हसन्ती आइना-दर्पणः, आदर्शः, मुकुरः ड्रेसिंग टेबिल-शृङ्गारफलकम् इमामदस्ता-अश्ममालम् तख्ता-काष्ठपट्टम् उबटन-उद्वर्तनम् तराजू-तुला ओखली-उलूखलम् " (डंडी)-तुलादण्डः कंघी-प्रसाधनी, कंकतिका " (पलड़ा) तुलाफलकम् कटोरा-कटोरम् तवा-ऋजीषम् कड़ाही--कटाह ताला-तालकम् करछुल-दर्वी ताली-कुञ्जिका कागज-कागद तिपाई-त्रिपादिका काजल-कज्जलम्, अञ्जनम् दवात-मसीपात्रम् कापी-कप्पिका दाँत-कुरेदनी-दन्तशोधनी कील-कीलकम् दातीन-दन्तधावनम्, दन्तपवनम् कुर्सी-आसन्दिका, विष्टरम्, आसनम् ; दिया-दीपः, दीपकम् कूची-कूचिका दियासलाई-दीपशलाका कैची-कतरी, कतनी धागा (डोरा)-सूत्रम्, तन्तु : खरल-खल्लः नाखूनपालिश-नखरञ्जनम् खाट-खट्वा पतीली-स्थाली खूटी-नागदन्तः पलङ्ग-पर्यङ्कः गलीचा-कुथः पाउडर-चूर्णकम् गिलास ( कांच का)-कांचकंसः पीतल-पित्तलम् गेंद-कन्दुकः पेटी-मञ्जूषा घड़ा-घटः, कुम्भः, कलशः पेंसिल-तूलिका घड़ी-पटिका प्याला-चषकः चक्की-पेषणी, घरटूटः प्लेट-शरावः चटाई-कट: फर्नीचर-उपस्करः चम्मच-चमसः फाउंटनपेन-धारालेखनी चलनी-चालनी बटखरा (तराजू का)-यौतवम् चाकू-क्षुरिका बत्ती-वर्तिका चूल्हा-चल्ली बल्व (बिजली का)-विद्युद्दीपकम् चौकी-चतुष्पादिका बस्ता-वेष्टनम् झाड़-सम्मानी, शोधनी बाल्टी--उदञ्चनम् डेस्क-लेखनपीठम् | बैंप-फलकः Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244] संस्कृत-प्रवेशिका [5-6 : गृहस्थी०, पशु-पक्षी 6 : पशु-पक्षी आदि] परिशिष्ट : 2: शब्दकोष [245 बोरा-शणपुटः | अण्डा-अण्डम् ब्रश-रोममार्जनी, तूलिका अजगर-अजगरः " (दाँतों का)-दन्तमार्जनी उल्लू-उल्लू कः, कौशिकः ब्लेड-रकम् ऊँट-उष्ट्र:, क्रमेलकः भट्ठी-भ्राष्ट्रिका कछुआ-कूर्मः, कच्छपः मंजन (दांत का)-दन्तचूर्णम् कछुवी-कच्छपी महावर--अलक्तकः कठफोड़ा---शतच्छदः, काष्ठकुट्टः मूसल-मुसलः कबूतर-कपोतः मेंहदी-मद्धिष्ठा कीड़ा-मकोड़ा-कीटा मेज-फलकम् कुतिया-शुनी रबड़-घर्षक: कुत्ता-श्वा, कुक्कुरः रस्सी (डोरी)-रज्जुः केंकड़ा-कर्कटकः, कुलीरः लकड़ी-दारु केंचुआ-शिली, किञ्चकः लालटेनकांचदीपः कोयल-कोकिलः, परभृन्, पिकः लिपस्टिक-ओष्ठरजनम् .. कोयल की बोली-कुहुः लोटा (कमण्डलु)-करकः कौआकाकः, वायसः, ध्वाक्षः लोढ़ा-शिलापुत्रः कौड़ी-पदिका संड़सी-सन्देशः खंजन-खंजनः संदूक--मजूषा, पेटिका खटमल-मत्कुणः सरीता--शंकुला खरमोश-शशका, शशः साबुन–फेनिलम् गधा-गर्दभः, खरः सिंदूर-सिन्दूरम् गाय---गौः, धेनुः सिल-शिलापट्टम्, शिला गिरगिट-सरटः, कृकलासः सुई-सूचिः गीदड़-गोमायुः, शृगालः.. ... सूप-सूर्पः | गीधनः सोफा-आसन्दिका मैंडा-गण्डकः स्टूल-संवेशः / गोजर-शतपदी . स्टेनलेस स्टील-निष्कलङ्कायसम् गोह-गोधा स्टोव-मृतलचुल्ली गौरया-चटकी, चटका स्नो-हैमम् घोंसला-नीडः, कुलायः स्विच (विजली का)-विद्युत्कुञ्जिका घोड़ा-अश्वः, घोटकः (6) पशु-पक्षि आदि ( Animals, चकवा चक्रवाकः Birds etc.) चकनी-चक्रवाकी चकोर-कोरः, चन्द्रिकापायी बकरी-अजा, छागी चमगादड़-अजिनपत्रा, जतुका | बगुला-बकः चिड़िया-पक्षी, खगः, विहगः, बटेर लावा, वतिका द्विजः, शकुन्तः बतख-वर्तकः, कादम्बः चींटी-पिपीलिका बन्दर-वानरः, कपिः, मर्कटः, चीता-चित्रकायः लागूल चील-चिल्लः: चिल्ला बरं---गन्धोली चीलर-स्वेदजः बाप-व्याघ्रः, द्वीपिन्, शाल: चुहिया-मूषिका बाज-श्येनः चूहा--मूषकः, आखुः विच्छ-वृश्चिकः चोंच-पञ्चः बिडाल-मार्जारः, विडालः छछून्दर-छछुग्दरी बिल्ली-मार्जारी छिपकली-पल्ली बैल-वृषभः, बलीवदः जुगनू-वद्योतः, ज्योतिरिङ्गणः भालू-भल्लूकः, ऋक्षः जू-यूका भेड़----मेषः, एडका जोंक-जलौका भेड़िया-वृकः शीगुर-शिल्ली भैस-महिषी टिटहरी-टिट्टिभः, टिट्टिमी भैसा-महिषः डॉस-दंशः भीरा-भ्रमरः तीतर-तित्तिरः मकड़ी-ऊर्णनाभः, लूता तेंदुना-तरक्षः मक्खी-मक्षिका तोता-शुकः, कीरः मगर-मकरः दादुर (मेंढक)-दर्दुरः मच्छड़-मशकः दीमक-वाल्मीकः मछली-मीनः, मत्स्यः, सषः नाक-कुम्भीरः, नक्र: मधुमक्खी-मधुमक्षिका नीलकण्ठ-नीलकण्ठः मुर्गा-कुक्कुटः नील गौ-गवयः मुर्गी-कुक्कुटी नेवला-नकुलः मेंढक-मण्डूकः, भेकर, दर्दुरः " पंख-पक्षः, पत्रम् मैना-सारिका (शारिका). पतंगा(टिड्डी)-शसभः मोर-मयूरः, शिखी * पपीहा-चातकः / " का पंच-पिच्छम, बाह बकरा-अजः, छागः / | " की गोलीका .. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [7. खाद्य-पदार्थ ७:खाद्य-पदार्थ ] परिशिष्ट : २:शब्दकोष खिचड़ी-कृशः खीर-पायसम् खीरा-चटि:, पुषम् गल्ला-अन्नराशिः गाजर-जनम् तम्बाकू-तमाखुः तरबूज-तरबूजम्, कालिन्दम् ताड़ी-तारिकम् तिल-तिला तीता-तिक्तः तेल-तैलम " (सरसों)-सर्वपतलम् " (मिट्टी) खनिजतलम तोरई-जालिनी रोहू-रोहितः अरवी-आलुकी लंगूर-गोलाङ्गलः अरहर-आढकी लीब-लिक्षा आदला-आमलकी लोमड़ी-लोमशा आटा-पिष्टम्, पिष्टान्नम् शेर-सिंहः, मृगेन्द्रः आम-आम्रः, रसालः, सहकारः शेषनाग-शेषः, अनन्तः आलू-गोलालु सांड़-गोपतिः इमली-तिन्तडीकः सांप-अहिः, सर्पः, भुजगः, भुजङ्गः | इलायची-एला " फणा-फणा उड़द-माषः " केंचुली-निर्मोक: ककड़ी-कर्कटी सारस-सारसः कचौड़ी-माषगर्भा, कर्षरिका सियार-शृगालः सीप-शुक्तिका, शुक्तिः कटहल-पनसः, पनसम् सुअर-शूकरः, वराहः कडवा-कदा सेही-शल्यः कढ़ी--तेमनम्, वेसनी भोस-शिशुमारः कत्था-खदिरम् हंस-हंसः, मरालः कई-- कुष्माण्ड हाथी-गजा, करी करेला-कारवेल्लम्, कटिल्लम् हारीत-हारीतः कला-कषायः हिरण-मृगः, हरिणः, कुरङ्गः काजू-काजवम्, काजुका (7) खाद्य-पदार्थ-(Eatables) काफी-कफनी अंगूर-द्राक्षा कालीमिर्च-मरिचम् अंजीर-अंजीरम् किसमिश (दाख)-शुष्कद्राक्षा अखरोट-अक्षोटम्, अक्षोटक' " (छोटी) क्षुद्रद्राक्षा, निर्वीजा प्रचार-सन्धितम् कुंदर-कुन्दरुः अजवाइन-अजमोदिका केला-कदली, रम्भाफलम् अदरख-आईकम् कैथ-कपित्थः अनार दाडिमम् कोदों-कोद्रवः अन्न-अन्नम् खजूर-खर्जूरम् अफीम-अहिफेनः खट्टा-अम्लः अमचूर-आम्रचूर्णम् खरबूजा-खर्बुजम् अमरूद-पेरुकम्, अमृतफलम् खांड-खण्डः अमावट आनातकम् | खाजा-मधुशीर्षः गुलाबजामुन-दुग्धपूपिका मूलर-उदुम्बरम् गेहूँ % गोधूमः " का आटा-गोधूमचूर्णम् धी-धृतम्, आज्यम्, सपिः चटनी-अवलेहः, अवदंशः चटपटा-मधुरतिक्तः चना-चणकः चपाती-चर्पटी चायपानी-पायपानम् चावल-तण्डसः, अक्षताः (0) " (पका)-ओदनम्, भक्तम् "(भूसीसहित)-बीहिः चिरौंजी-प्रियालम् चीनी-शर्करा छीमी (मटर) शिम्बा, शमि छोहाडा-झुधाहरम् जलपान जलपानम् जलेबी-कुण्डली, कुण्डलिनी जामुन-जम्बूफलम्, जीरा-जीरकः, जीरकम् दहीवड़ा-दधिवटक बाल-द्विदलम् " (पकी)-सूपः दालचीनी-दारूत्वचम् दालमोठ-दालमुद्गः दूध-दुग्धम्, पयः, बीरम् धनिया-धान्यकम् धान-धाम्यम्, शालिः नमक-लवणम् नमक (सेंधा)-संधवम् नमकीन-लवणामम् नारंगी( सतरा)-नाराम, नारङ्ग, नारङ्गका नारियल-नारिकेलम् नीबू-निम्बूकम् पकवान-पक्वान्नम् पकौड़ी-पक्वटिका पपड़ी-पर्पटी पपीता-एरण्डं, चिभिटम् परवल–पटोलम्, पाण्डका पापड़-पंटा. पान-ताम्बलम् पालक-पानया जो (जव)-यवः ज्वार-यवनाला टिंडा-टिडिशः टोस्ट-भ्रष्टापूप: डबलरोटी-अभ्यूषः Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] संस्कृत-प्रवेशिका [७:खाद्य-पादार्थ [246 पिस्ता--अंकोलम पीपर-पिप्पली पुलाव (तहरी)-पुलाकः पूजा-अपूपः | मिठाई-मिष्टान्नम् मीठा-मधुरः मिर्च-मरीचः मिस्त्री-सितोपला मुनक्का-मधुरिका | मुरम्बा-मिष्टपाक मुसम्मी-मातुलुंगः 1 : णिजन्त धातुयें] परिशिष्ट : 3 : प्रत्ययान्त धातुयें सुपारी-पूगः, पूगीफलम् हर्र-हरीतकी सेम-सिम्बा, शिम्बिः / हलुआ-संयावः सेवई (बिया)-सूत्रिका हल्दी-हरिद्रा, काञ्ची सोंठ-शुण्ठी / हींग-हिंगुः, रामठम् पेठा-कोष्माण्डम् पोदीना-अजगन्धः, पुदीनः पोस्ता-पौष्टिकम् प्याज-पलाण्डु . . फल-फलम् फालसा-पुनागफलम् फैनी-फेनिका बताशा-बाताश बथुआ-वास्तुकम् बहेड़ा-बिभीतकः बाजरा--प्रियङ्गुः बादाम-वातादम् बिस्कुट-पिटकः बेर-बदरी, कर्कन्धुः बेल-बिल्वम्, श्रीफलम् बेसन-पणकचूर्णम् * भण्टा-भण्टाकी, वृन्ताकम् .. भांग-विजया भिण्डी-भिण्डका मक्खन-नवनीतम्। मट्ठा (छाछ)-तक्रम् . मसाला-उपस्करः मसूर-मसूरः, मङ्गल्पका महुआ-मधूकः माई-मण्डम् भांस-मांसम्, पिशितम् मालपूआ-अपूपः मूंगफली--मण्डपी मूली--मूलकम्, मूलिका मेवा-शुष्कफलम् मैथी-मेथिका रसगुल्ला-रसगोल: रसोई--रसवती राई-राजिका रायता-दाधेयम् रोटी-रोटिका, करपट्टिका लड्डू-मोदकः, मोदकम् लप्सी-यवागूः लस्सी-दाधिकम् लहसुन-लशुनम् लाजा-लाजाः लौंग-लवङ्गम्, लवङ्गः लौकी--अलाबः शक्कर (चीनी)-शर्करा शराब-मदिरा, सुरा, मद्यम् शरीफा (छीताफल)-सीताफलम् शलगम-श्वेतकन्दः शाक (तरकारी)-शाकः सतपुतिया--सप्तपुत्रिका परिशिष्ट : 3 : प्रत्ययान्त (सनाद्यन्त) धातुयें ( Derivative Roots ) जब किसी विणेष अर्थ, प्रेरणा, इच्छा आदि का बोध कराना अभीष्ट होता है तो 'सन्' आदि 12 प्रत्यय' धातु अथवा प्रातिपदिकों में जोड़े जाते हैं। इनके जुड़ने पर उनकी 'धातु' संज्ञा होती है और तब 'तिङ्' प्रत्यय जुड़ने पर उनके रूप समस्त लकारों में चलते है / ये धातु 'प्रत्ययान्त धातुयें' या 'सनायन्त धातुयें कहलाती है / 'सन्' आदि प्रत्यय धातु (या प्रातिपदिक) और 'ति' प्रत्ययों के बीच में जुड़ते हैं। ये धातुयें 5 प्रकार की होती हैं-(१) णिजन्त ( "णिच्' प्रत्ययान्त = 'प्रेरणार्थक'), (2) सन्नन्त ( 'सन्' प्रत्ययान्त = 'इच्छार्थक'), (3) यडन्त ('यह' प्रत्ययान्त = 'समभिहारार्थक'), (4) बङ्लु गन्त ( यह 'यहस्त' के समान ही है) और (5) नामधातु (क्यचाद्यन्त = "विभिन्नार्थक')। (१)णिजन्त धातु (प्रेरणार्थक = Causative) जब कोई कार्य किसी दूसरे से कराया जाता है तो उस अर्थ बाली धातु में "णिच् प्रत्यय जोड़कर प्रेरणार्थक धातुयें बनाई जाती हैं / जैसे-सः पचति ( वह पकाता है)-सः तेन पाचयति (वह उससे पकवाता है)। णिजन्त-क्रियाओं के बनाने के निम्न नियम हैं-- (क) मूलधातु और प्रत्यय के मध्य 'णिच्' (इ- अय् + अ = अय ) जुड़ेगा। जैसे--गम् + अय + ति = गमयति / (ख) धातु के अंतिम इ, उ, ऋ स्वर को वृद्धि . तथा अयादि सन्धि भी होगी / जैसे- = कारयति / नीनाययति / भू = भावयति / दृष्ण-दर्शयति / (ग) उपधा के अ को वृद्धि और इ, उ, ऋ को गुण होगा / जैसेपळपाठयति / लि = लेखयति / भुज = भोजयति / वृतु वर्तयति / (प) परन्तु गम्, रम्, क्रम, नम्, शम्, दम्, जन्, त्वर, घट् और व्यथ् इन धातुओं के उपधा के 'भ' को वृद्धि नहीं होगी। जैसे-गमयति, रमयति, क्रमयति, नमयति, शमयति, दमयते, . | सरसों-सर्षपः 1. सन्-क्यच-काम्यच-क्यङ्-क्यषोऽथाचारक्विणिज्-यस्तथा / यगायेयङ् णिडाचेति द्वादशामी सनादयः // Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250] 3 : यन्त धातुयें] परिशिष्ट : 3 : प्रत्ययान्त धातुयें [251 / संस्कृत-प्रवेशिका [2 : सन्नन्त धातुयें जनयति, त्वरयति, घटयति, व्यथयति / (ङ) आकारान्त धातुओं के अन्त में 'अय' से पूर्व '' और जुड़ जाता है। जैसे -दा = दापयति, धापयति, स्थापयति, यापयति स्नापयति / परन्तु 'पा' (पीना) से पाययति और 'पा' या 'पाल' (रक्षा करना) से पालयति / (च) चुरादिगणीय सभी घातुयें जिजन्त ही हैं। अतः उनमें कोई परिवर्तन नहीं होगा / (छ) सभी णिजन्त धातुयें उभयपदी, सकर्मक और सेट होती है। इनके रूप पुरादिगण की धातुओं के समान होते हैं / जैसे, बुध कर्तृवाच्य में (लट्) बोधयति, बोषयते / (लह) अबोधयत्, अबोधयत / (लुटु) बोधयिष्यति, बोधयिष्यते / (लोट्) बोधयतु, बोधयताम् / (विधिलिङ्) बोधयेत्, बोधयेत / कर्मवाच्य में, क्रमश:-बोध्यते / अवोध्यत / बोधिष्यते / बोध्यताम् / बोध्येत / (ज) कुछ विशिष्ट णिजन्त रूप-म वापयति / अधि+5% अध्यापयति / हन् = घातयति / दुः = दूषयति / लभू - लम्भयति / अस् = भावयति / मृज् = मायति / विशेष के लिए देखें-परिशिष्ट:१: 'धातुकोष' / (2) सन्नन्त धातु (इच्छार्थक = Desiderative)-किसी कार्य को करने की इच्छा का अर्थ बतलाने के लिए उस कार्य का वर्ष बतलाने वाली धातु से 'सन्' (स्) प्रत्यय लगाया जाता है, यदि दोनों क्रियाओं का कर्ता एक ही व्यक्ति हो। जैसे—इसकी पढ़ने की इच्छा है = सः पिपठिषति (पठितुमिच्छति)। कत्ता के भिन्न-भिन्न होने पर 'सन् प्रत्यय नहीं होगा। जैसे-शिष्याः पठन्तु इति इच्छति अभिलषति वा गुरुः (गुरु की इच्छा है कि छात्र पढ़ें; यहाँ प्रत्यय 'सन्' न होकर इच्छाक धातु का प्रयोग हुआ है, क्योंकि 'पठन' क्रिया और 'इच्छा' क्रमशः छात्र और गुरु में पृथक्-पृथक् है, एक कर्ता में नहीं)। सन्नन्त धातुओं के विषय में ज्ञातव्य बातें-(१) धातु को (हलादि धातु के प्रथम एकाच को और अजआदि धातु के द्वितीय एकाच को) द्वित्त्व होगा / जैसे-पठ् + सम्प + पठ् + स् - पपठ् = पपठ् ++ स्> + अ + ति-पिपठिषति (पठितुमिच्छति - पढ़ने की इच्छा करता है)। अ>घस्ल + सन् - जिघस्स् - जियत्स् + + ति-जिघत्सति (अत्तुमिच्छति - खाना चाहता है)। कृ + सन् = चिकीर्षति (कर्तुमिन्छति) / (2) अभ्यास के अकार को इकार होगा। (3) 'सेट्' धातुओं (ग्रह, गुहू और उगन्त धातुयें छोड़कर) में 'इट्' होगा; अनिट् में नहीं / (4) सन्नन्त धातुयें अनेकान् होने से सेट् होती हैं। (5) 'शप: बिकरण होगा और 'सन्' के 'आर्धधातुक होने से गुणादि कार्य होंगे / (6) भ्वादि गण की तरह (परस्मैपद में 'पठ्' और आत्मनेपद में 'ज्ञा' के समान ) रूप चलेंगे। जैसे-'पठ् कर्तृवाच्य में ] -(लट् ) पिपठिषति, पिपठिषते; (लङ्) अपिपठिषत, अपिपठिषत; (लट्) पिपठिषिष्यति, पिपठिषिष्यते (लोट्) पिपठिषतु, पिपठिषताम्; (विधिलिङ) पिपठिषेत्, पिपठिषेत / / / [ कर्मवाच्य में ] क्रमश:-पिपठिष्यते, अपिपठिष्यत, पिपठिषिष्यते, पिपठिष्यताम्, पिपठिष्येत / (7) सन्नन्त धातुओं में 'आ' जोड़ने पर इच्छार्थक संज्ञा शब्द बन जाते हैं। जैसे-पा>पिपास + आ-पिपासा (पीने की इच्छा), जिज्ञासा, शुश्रूषा, विवक्षा, मुमूर्षा, चिकीर्षा आदि। (8) सन्नन्त धातु में 'उ' जोड़ने पर इच्छार्थक विशेषण शब्द बन जाते हैं / जैसे-पा>पिपास् + उ = पिपासुः (पीने का इच्छुक), जिज्ञासुः, चिकीर्षः / (6) कुछ सन्मन्त रूप-भू भूषति ( होने की इच्छा करता है), लभ>लिप्सते (पाने की इच्छा०), हन>जिघांसति, अ> विधत्सति, स्था>तिष्ठासति, भुजबुभुक्षते, चुरचुचोर यिषति, जीव्> जिजीविषति, शी>शिशयिषते, बुधबभत्सते, लिलिलेखिपति, अधि+> अधि. जिगोसते ( अध्ययन की इच्छा०), वि + जि>विजिगीषते, दृश्>विदृनते, आप्> इप्सति, शु>शुश्रूषते, बच्>विवक्षति / (3) यडन्स धातु (समभिहारार्थक = Frequentative or Intensive)-क्रिया का समभिहार ( बार बार होना या अधिक होना) प्रकट करने के लिए (केवल हलादि एकाच धातु) में 'यङ्' (य) प्रत्यय जोड़ा जाता है। जैसे-पुनः पुनः पिबति अतिशयेन भूशं वा पिबति = पेपीयते (पार बार या अधिक बार पीता है)। पुनः पुनः अतिशयेन भृशं वा भवति = बोभूयते ( बार बार या अधिक होता है) / यह 'यङ्' प्रत्यय अजादि और अनेकाच् धातुओं से नहीं होता है। जैसे-भृशं जागति, भृशमीक्षते आदि / ___ यङन्त धातुओं के विषय में ज्ञातव्य बातें-(१) धातु को द्वित्त्व होगा। जैसे-भू+भू+ यङ् = भूभूय बोभूय् + अ +ते-बोभूयते / (2) यहन्त धातुयें भनेका होने से 'सेट' होती है। (3) भ्वादि की तरह 'शप' विकरण और गुणादि कार्य होते हैं। (4) यङन्त धातुओं के 'जिन' होने से इनके रूप केवल आत्मनेपद के ही होंगे / (5) गत्यर्थक घातुओं से 'कौटिल्य' (वन गमन ) अर्थ में 'यह' होता है। जैसे-गम्ज ङ्गम्यते (कुटिलं गच्छति), व्र> वानज्यते (कुटिलं व्रजति)। (६)इनके रूप सभी लकारों में चलते हैं (वैदिक संस्कृत में परस्मैपद में तथा लौकिक संस्कृत में आत्मनेपद में ) / जैसे-बुध (दोनों वाच्यों में एक समान)(लट् ) बोवुध्यते, ( लङ्) अबोबुध्यत, (लृट् ) बोबुधिष्यते, (लोट् ) बोबुध्यताम्, (विधिलिङ्) बोबुध्येत / (7) कुछ यान्त रूप-नी> नेनीयते (बार-बार ले जाता है), घ्रा>जेधीयते, दश>दरीदृश्यते, बहसवपते, हम्:जान्यते, वा> देवीयते, नुत्न रीनृत्यते, शी> शाशय्यते, गैजेगीयते, 1. जेजीयते, वृत्>वरीवृत्यते, रुद्रोश्यते, सिन् >सेसिव्यते, पा--पीयरी, परपापच्यते / 1. अभ्यास-उको गुण भी शेता। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 ] संस्कृत प्रवेशिका [4-5 यङ्लगन्त एवं नामधातुयें (4) यलुगन्त धातु (समभिहारार्थक)-क्रिया समभिहार में विहित 'यङ्' का लोप हो जाने पर यङ्लुगम्त धातु कहलाती है। इसका प्रयोग वैदिक संस्कृत में मिलता है और इसके रूप परस्मैपद में चलते हैं। यङ्लगन्त धातुओं का अदादिगण में परिगणन होने से 'शप्' विकरण का लोप हो जाता है। 'यह' का लोप हो जाने पर भी [ प्रत्यय-लक्षण नियम से ] द्वित्वादि कार्य होते हैं। जैसेभू>बोभोति / तिम्, सिप और मिप् में वैकल्पिक 'ईट्' का आगम होने से 'वोगवीति' रूप भी बनता है। (5) नामधात ( Denominative)-संज्ञादि सुबन्त (नाम) में जब क्यचादि प्रत्यय (क्य, काम्यच्, काङ्, क्य, विप् , णिच् और णिह) जोड़कर उसे धातु बनाते हैं तो उसे 'नामधातु' कहते हैं। इनमें 'श' विकरण जुड़ता है तथा इनके रूप भ्वादिगण की तरह चलते हैं / इनका प्रयोग प्रायः वर्तमानकाल में होता है। नामधातुओं का प्रयोग कई प्रकार के अर्थों को प्रकट करने के लिए होता है / जैसे (1) इच्छार्थ-आत्मनः पुत्रमिच्छति = पुत्रीयति (पुत्र + क्यच >य ) पुत्र काम्यति (पुत्र + काम्यच् ) वा (अपना पुत्र चाहता है) / तमनः गङ्गाम् इच्छति गङ्गीयति (गङ्गा + क्यच्; अपने लिए गङ्गा की इच्छा करता है)। नदीयति (नदी+क्यच् ) / वधूयति (वधू + क्यम्)। राजीवति (राजन् + क्यच् ) विष्णूयत्ति (विष्णु + क्यच् ) / गव्य ति ( गो + क्यच् ) / माव्यत्ति (नौ + क्य)। (2) आचारार्थ-(क) उपमानकर्म (जिसके समान समझा जाये) छात्रं पुत्रमिवाचरति = पुत्रीयति छात्रं गुरुः (पुत्र + क्यच् गुरु छात्र के साथ पुत्रके समान आचरण करता है)। विष्णु मिवाचरति द्विजम् = विष्णयति द्विजम् (ब्राह्मण के साथ विष्णु के समान आचरण करता है)। कृष्ण इव आचरति = कृष्णति (कृष्ण+विवप्सर्वापहार लोप; कृष्ण के समान आचरण करता है)। इदमिवाचरति=इदामति (इदम् + विवा)। राजेव भावरति = राजानति ( राजनू + क्विप्)। पन्था इव आचरति % पथीनति (पथिन् + विवपु, मार्ग के समान आचरण करता है)। स्व इवाचरति = स्वति (स्व+वियप, आत्मीय के समान आचरण करता है)। बघूयति (वधू + क्यच् ) / कर्वीयति ( कर्तृ + क्यच् ): कृष्ण इवाचरति कृष्णायते (कृष्ण + क्यङ्, कृष्ण का सा आचरण करता है)। अप्सरा इवाचरति = अप्सरायते (अप्सरा+क्या)। विद्वान् 'इवाचरति-विद्वायते या विद्वस्यते (विद्वस्+क्य)। कुमारीव आचरति कुमारायते (कुमारी + क्यङ्; यहाँ स्त्री प्रत्यय 'ई' का लोप हो गया है ) / पाचिकेव आचरति = पाचिकायते (पाचिका + क्यङ्, यहाँ स्त्री प्रत्यय का लोप नहीं हुआ 1. कवाचक उपमान में मसरा प्रत्याराना में स्कालरोय रो। को क्यड सलोपश्च / 37. 3.1.63 5 : नामधातुयें] परिशिष्ट : 3 : प्रत्ययान्त धातुयें [253 क्योंकि इसमें 'क' प्रत्यय जुड़ा है ) / युवतीवाचरति-युवायते (युवती + क्यङ्)। सपत्नीव आचरति सपनायते ( सपत्नी + क्यङ्)। (ख) उपमान अधिकरणप्रासादीयति कुट्या भिक्षुः (प्रासाद + क्यच् भिखारी कुटी को महल समझता है)। कुटीयति प्रासादे राजा (कुटी + क्यच् राजा महल को कुटी समझता है)। (३)करोत्यर्थ-शब्दं करोति = शब्दायते (शब्द + क्यङ शब्द करता है)। पैर करोति = वैरायते (वर + क्यङ् वैर करता है)। कलहं करोति = कलहायते (कलह + पह) / अभं करोति अनायते (अध्र + क्यङ्) मेघ करोति = मेघायते ( मेष + क्यछ ) / घटं करोति = धटयति ( घट् + णिच् घड़ा बनाता है ) / (4) उत्साहार्थ-कष्टाय (पापाय) क्रमते = कष्टायते ( कष्ट + क्यङ्, पाप करने को तैयार होता है)। (5) उद्वमनार्थ-फेनम् उद्वमति = फेनायते (फेन + क्यङ् फेन उगलता है)। बाष्पमुमति = वाष्पायते ( वाष्प + क्यङ्) / ऊष्माणमुद्रमति % ऊष्मायते (ऊष्मा + क्या)। (6) वेदनाथ (अनुभवार्थ)-सुखं वेदयते = सुखायते (सुख + क्या स्वयं सुख का अनुभव करता है। 'परस्य सुखं वेदयते' ऐसा प्रयोग नहीं होगा)। (7) भवत्यर्थ-लोहितं भवतीति = लोहितायते (लोहित + क्यष्; लाल हो / जाता है ) / पटपटायते ( पटपट + क्यच् ) / (8) वर्तन एवं चरणार्थ-रोमन्थं वर्तयति = रोमन्थायते ( रोमन्थ + क्यङ्, रोमन्य = जुगाली करता है)। तपश्चरतीति = तपस्यति (तप् + क्य; तपस्या करता है)। (6) अन्य प्रत्ययों के प्रयोग-मुण्डं करोतीति = मुण्डयति ( मुण्ड + णिच्; मूंडता है) / कृष्णति (कृष्ण + क्वि, कृष्ण के समान आचरण करता है) पुत्रमात्मा नमिच्छति -पुत्रकाम्यति (पुत्र + काम्यच्)। यशस्काम्यति / सपिष्काम्यति / परि. पुग्छयते (परि + पुछ + णि)। (10) 'क्यच' प्रत्यय के विषय में ज्ञातव्य बातें-(१) यह इच्छा और आचार अर्थ में होता है / (2) रूप परस्मैपद में चलते हैं। (3) क्यच् (य) जुड़ने पर-(क) उससे पूर्ववर्ती संज्ञा का अंतिम स्वर परिवर्तित हो जाता, (. आ, इ> ई। उ, ऊ> / ऋ>री / ओ>अब / औ>आय)।(-) ज, ण तथा न् का लोप हो जाता है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-भाववाच्य, आत्मनेपद ] परिशिष्ट : 5: बा०प० विधान [255 254] संस्कृत-प्रवेशिका [कर्म-भाववाच्य क्रियायें (11) 'क्य' प्रत्यय के विषय में ज्ञातव्य बातें-(१) यह आचार, करोति, उत्साह, उदमन, वेदना आदि अर्थों में होता है / (२)रूप आत्मनेपद में चलते हैं। (3) 'क्य' (य) जुड़ने पर-(क) पूर्ववर्ती अन्तिम स्वर (सुबन्त का 'अ') दीर्घ हो जाता है / (ख) शब्द के बन्तिम 'स्' का विकल्प से लोप (ओजस् और अप्सरस् में नित्य ) होता है। (ग) स्त्री प्रत्यय हटा दिया जाता है (स्त्री प्रत्ययान्त शब्द यदि 'क' में अन्त हो तो नहीं)। (1) पठ् ( कर्मवाच्य ) प्र. पु. के रूपःलट् लोट विधिलिए लुट् एकवचन--पठ्यते पठ्यताम् अपठयत पठघेत पठिष्यते द्विवचन--पठ्येते पठयेताम् अपठ्येताम् पठचेयाताम् पठिष्यते बहुवचन-पठचन्ते पठचन्ताम् अपठयन्त पठघेरन् पठिष्यन्ते आ० लि लिट् लुक् लुट् लुङ ए००-पठिषीष्ट पेठे अपाठिपठिता अपठिष्यत द्वि०व०--पठिषीयास्ताम् पेठाते अपाठिषाताम् पठितारी अपठिष्येताम् व०व०-पठिषीरन् पेठिरे अपाठिषत पठितारः अपठिष्यन्त (२)स्था (भाववाच्य ) प्र. पु. के रूपलट् लोट विधिलिस् तृट् ए०व०-स्थीयते स्थीयताम् अस्थीयात स्थीयेत स्थास्यते द्वि० व०-स्थीयेते स्थीयेताम् अस्थीयेताम् स्थीयेयासाम् स्थास्येते ब०व०-स्थीयन्ते स्थीयन्ताम् अस्थीयन्त स्थीयेरन् स्थास्यन्ते नोट-शेष लकारों में क्रमशः-स्थासीष्ट, तस्ये, अस्थायि, स्थाता, अस्थास्यत / परिशिष्ट : 4: कर्मवाच्य और भाववाच्य की क्रियायें कर्मत्राच्य और भाववाच्य की क्रियायें बनाने के नियम--(१) ये केवल आत्मनेपदी होती हैं तथा इनमें गणचिह्न नहीं जुड़ते हैं। (2) सार्वधातुक लकारों (लट् , लोट्, लङ् और विधिलिङ्) में धान और प्रत्यय के बीच में 'या' (य) जोड़ा जाता है। शेष लकारों के रूप कर्तृवाच्य के समान होते हैं, परन्तु वे आत्मनेपद के प्रत्ययों वाले होते हैं, चाहे धातु किसी भी पद की क्यों न हो। (3) धातु प्रायः अपने मूल रूप में रहती है। धात्वादेश (जैसे--गम् को गच्छ) भी नहीं होते हैं। जैसे-गम् +य+ते = गम्यते (जाया जाता है); भू + य+ते : भूयते (हा जाता है)। (4) इकारान्त और उकारान्त धातुओं के स्वर को . दीर्थ हो जाता है। जैसे-चि>चीयते। स्तु>स्तूयते; श्रुभूयते; जि>जीयते / (5) ऋकारान्त धातुओं के 'ऋ' को 'रि' हो जाता है। जैसे-कृ>क्रियते ह> ह्रियते (अपवाद-स्मृ>स्मयते)। (6) ऋकारान्त घातुओं के 'क' को 'ई' (पवर्ग प्रारम्भ में हो तो 'ऊर्') हो जाता है / जैसे-तु>तीर्यते; ज> जीर्यते; पृ> पूर्यते / (7) धातु के मध्य में आने वाले 'न्' का प्रायः लोप हो जाता है। जैसे-मन्थ् < मथ्यते; बन्ध > बध्यते; इन्ध >इध्यते; शंस्>शस्यते; (अपवाद-चिन्न> चिन्त्यते; निन्द्>निन्द्यते; वन्द्व न्द्यते)। (8) 'बच्' आदि धातुओं को सम्प्रसारण हो जाता है। जैसे-ब>उद्यते; वच्>उच्यते; यज् इज्यते)। (9) ऐकारान्त गै तथा आकारान्त (दा, धा, मा, स्था, गा, पा, हा) धातुओं के अन्तिम स्वर को '6' हो जाता है। जैसे-->मीयते; दा> दीयते; मा>मीयते; धा>धीयते; गा>गीयते; हा>हीयतेः स्थास्थीयते ( अन्यत्र-ज्ञा>ज्ञायते; त्रायते; स्ना> स्नायते; ध्यध्यायते / (10) कुछ धातुओं के कर्मवाच्य और भाववाच्य के रूप (विशेष के लिए देखें, परिशिष्ट : १:धातुकोप) परिशिष्ट : 5: आत्मनेपद और परस्मैपद विधान (क) आत्मनेपद : निम्न परिस्थितियों में धातु आत्मनेपदी हो जाती है (1) भाववाच्य और कर्मवाच्य में-भूयते, गम्यते / (2) नि + विश् धातु से-निविशते / (3) परि, वि, अव +की धातु से-परिक्रीणीते / (4) वि, परा + जि धातु से--विजयते, पराजयते / (5) सम्, अब, प्र, वि + स्था धातु सेसन्तिष्ठते, प्रतिष्ठते / (6) उद् + स्था (यदि उठना अर्थ न हो) धातु से-ज्ञानाय उत्तिष्ठते / (7) उद् + चर् (सकर्मक) धातु से-धर्ममुच्चरते / (8) तृतीयान्त से युक्त सम् + चर् धातु से-रथेन सञ्चरते। () भोजन या भोगना अर्थ में भुज् धातु से-ओदनं भुङ्क्ते, दुःखशतानि भुङ्क्ते ( अन्यत्र-महीं भुनक्ति)। (10) ङित् धातुओं से-शेते / (11) अनु, परि, आ + क्रीड् धातु से अनुक्रीडते / (12) ज्ञा (छिपाने या अकर्मक अर्थ में) धातु से-शतमपजानीते, सपिषो जानीते / (13) उद्, वि+तप् (अकर्मक या स्वाङ्गकर्मक) धातु से--सूर्यः Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति प्रत्यय ] परिशिष्ट :: प्रकृति-प्रत्यय० [ 257 256 ] संस्कृत-प्रवेशिका [परस्मैपद, मूर्द्धन्यीकरण उत्तपते, भग्नी पाणिमुत्तपते / (14) आङ् +हे (स्पर्धा हो तो) धातु से--मल्ल मल्ल माह्वयते ( अन्यत्र--पिता पुत्रमाह्वयति ) / (ख) परस्मैपद : निम्न परिस्थितियों में धातु परस्मैपदी होती है (1) अनु, परा + कृ धातु से--अनुकरोति / (2) अभि, प्रति, अति + क्षिप्.. धातु से--प्रतिक्षिपति (अन्यत्र-आक्षिपते)। (३)+वह धातु से-प्रवहति / (4) परि+मूष धातु से परिमृष्यति / (5) वि. आङ्, परि, उप + रम् धातु से-बिरमति, उपरमति ( उप + रम् धातु से अकर्मक होने पर---उपरमति उप रमते वा)। परिशिष्ट : 6: मृर्द्धन्यीकरण (Cerebralization ) (1) णत्व-विधान' (न >")-- (क) र , ऋ, ऋ से परे न् को ण होता है। जैसे--चतुर्णाम्, पितृणाम्, पुष्णाति, नृणाम् / (ख) यदि अट् (स्वर, ह, य, व, र), कवर्ग, पवर्ग, आङ, और नुम् (न, अनुस्वार) का बीच में (एक या अधिक का) व्यवधान हो तो भी न कोण हो जाता है। जैसे-रामेण, हरीणाम्, मृगेण, दर्पण, मूर्षण, कराणाम् / (ग) णत्यविधान के कुछ अन्य उदाहरण --शूर्पणखा, वणी, प्रणदति, प्रमीणाति, प्रभवाणि, प्रणिगदति / नोट-निम्न स्थलों में णत्व नहीं होगा-- (1) पदान्त न में / जैसे--रामान्, हरीन्, गुरुन् / (2) अट आदि से भिन्न वों का व्यवधान होने पर। जैसे--अर्थेन, रसेन, अर्चना, दृढानाम्, कृष्णानाम् / (3) भिन्न-भिन्न पदों के होने पर। जैसे-रामनरेशः / (4) क्षुम्नादि गण के शब्दों में / जैसे-नरीनत्यते।। (2) पत्व-विधान (स्>)--- (क) आदेश अथवा प्रत्यय-सम्बन्धी अपदान्त 'स' को 'ष' होता है यदि उसके पहले 'इण्' (अ, मा से भिन्न स्वर, ह य व र ल ) या कवर्ग हो। जैसे-हरिष, ...रपाभ्यां नो णः समानपदे / अकुप्वानुम्व्यवायेऽपि / पदान्तस्य / ऋवर्णान्नस्य णत्वं वाच्यम् / 2. इण्कोः / आदेशप्रत्यययोः / नुमुविसर्जनीयशर्यवायेऽपि / चतुर्षु, देवेषु, भ्रातृषु, दिक्षु, वाक्षु / (ख) इण् और कवगे के बाद नुम् (न्, अनुस्वार), विसर्ग और शर ( श् स् ) का व्यवधान होने पर भी षत्व हो जायेगा / जैसे---धनंषि, आशी:प, चक्षु., पिपठीषु / (ग) इण और कवर्ग के बाद में 'शास्' (शासन करना), 'वस्' (रहना ) और 'घस' (खाना) धातुओं के अवयवरूप 'स्' को '' हो जाता है। जैसे -शिष्यः, उषितः, जक्षतुः / (8) 'सह' धातु के 'साह' के 'स्' को 'ए' होगा। जैसे तुरापाट् / अन्यत्र---रासाही, तुरासाहः / नोट--(१) पदान्त 'स्' को म्' नहीं होगा। जैसे-हरिस्तत्र / (2) 'सात्' प्रत्यय के 'स् को पत्र नहीं होगा / जैसे-नदीसात् / वायुसात् / परिशिष्ट : 7: प्रकृति-प्रन्यय, संज्ञायें और अनुबन्ध (क) प्रकृति-प्रत्यय : व्याकरण की दृष्टि से शब्द के प्रकृति और प्रत्यय का विचार अत्यावश्यक होता है। अतः परीक्षाओं में प्रकृति-प्रत्यय पूछा जाता है। दोनों शब्दों का अर्थ निम्न है (1) प्रकृति-मूल धातु या शब्द (प्रातिपदिक ) जिसमें प्रत्यय लगाए जाते हैं। जैसे-भवति >भू (प्रकृति ) + ति (प्रत्यय) (2) प्रत्यय-प्रकृति (धातु और प्रातिपदिक ) में जोड़े जाने वाले शब्दांश विशेष को प्रत्यय कहते हैं। 'बहु' और 'अक'को छोड़कर शेष सभी प्रत्यय प्रकृति के बाद जोड़े जाते हैं। प्रत्यय पाँच प्रकार के हैं(१) विभक्ति-प्रत्यय (सुप् और तिङ् प्रत्यप), (2) कृत्-प्रत्यय, (3) तद्धित-प्रत्यय, (4) स्त्री-प्रत्यय और (5) सनावि-प्रत्यय / (1) विभक्ति-प्रत्यय-प्रातिपदिक के बाद में जुड़ने वाले 'सुप' प्रत्ययों को तथा धातु के बाद में जुड़ने वाले 'तिङ् प्रत्ययों को विभक्ति-प्रत्यय कहते हैं।' 1. विभाषा सुपो बहुच पुरस्तात्तु / अ० 5 / 3 / 68 / 'यषा-ईषद् ऊनः पटुः बहुपटुः / यहाँ 'पटु' में 'बहुप' प्रत्यय पूर्व में हुआ है। 2. अव्यय सर्वनाम्नामकच् प्राक् टे। ज०५।३।७१ / यथा--अज्ञातयोः 'युषयोः' युवकयोः / यहाँ युष्मद युव+क+ोग।। 3. विभक्तिश्च / अ. 1498 / 17 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्रवेशिका [ संज्ञायें संज्ञायें। परिशिष्ट : 7 : प्रकृति-प्रत्यय [251 जैसे-नर+सु-सरः, अस् + तिप्-अस्ति / (2) कृत् प्रत्यय-धात्वर्थ से कुछ विशेष अर्थ प्रकट करने के लिए धातु के बाद में जुड़ने वाले विभक्ति। तिङ्) से इतर तब्यत्, अनीयर, ण्वुल, तृच् आदि प्रत्थय विशेषों को कृत्-प्रत्यय कहते हैं। जैसे ---कृ+तव्यत् = कर्तव्यम् / (3) तद्धित-प्रत्यय'--प्रातिपदिकार्य से कुछ विशेष अर्थ प्रकट करने के लिए प्रातिपदिक के बाद में जुड़ने वाले विभक्ति (सुप् ) प्रल्पयों से इतर अग्, मतुम् आदि प्रत्यय विशेषों को तद्धित-प्रत्यय कहते हैं। जैसे-वसुदेव + अण्वासुदेवः / (4) स्त्री-प्रत्यय'-पुंलिङ्ग शब्दों से स्त्रीलिङ्ग पाद बनाने के लिए पुंल्लिङ्ग शब्दों के बाद में जुड़ने वाले टाप, डीप आदि प्रत्यय विशेगों को स्त्री-प्रत्यय कहते हैं। जैसे-अज + टापअना। (5) सनादि-प्रत्यय -धातु के बाद में जुड़ने वाले 'सन्' आदि तथा प्रातिपदिक के बाद में जुड़ने वाले 'क्यच' आदि प्रत्ययविशेषों को सनादि प्रत्यय या धात्ववयव (धातु+अवयव ) कहते हैं। ये प्रत्यय संख्या में 12 हैं / ये जिसमें जुड़े होते हैं उनकी धातु संज्ञा होती है और तब उन के रूप सभी लकारों में चलते हैं / ऐसी धातुओं को सेनाद्यन्त धातु या प्रत्ययान्त धातु कहते हैं। जैसे-गम् + सन् + तिम्-जिगमिषति; पुत्र+क्यच् +ति-सुत्रीयति / कारक), तद्धितप्रत्ययान्त ( दशरथ + इ =दाशरथि ) तवा समास (राजपुरुष ) की भी प्रातिपदिक संज्ञा होती है। प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुप' विभक्तियाँ जुड़ती हैं / रूपी-प्रत्यय और तद्धित-प्रत्यय भी प्रातिपदिक में ही जुड़ते हैं। (3) पद-जिन शब्दों के अन्त में 'सुप' प्रत्यय (सु से मुप्त क 21 प्रत्यय) अथवा 'ति' प्रत्यय (लिप् से महिइ तक 18 प्रत्यय ) जुड़े हों उन्हें पद कहते हैं। प्रातिपदिकों में सुपु तथा धातुओं में तिङ् प्रत्यय जुड़ते हैं। पद बनने पर ही उनका वाक्यों में प्रयोग होता है।' (4) अव्यय-जिनके रूपों में कोई परिवर्तन नहीं होता अर्थात् जो सदा सभी प्रकार के प्रयोगों में एक समान रहते हैं वे अव्यय कहलाते हैं। जैसे-यथा, कृत्वा आदि / (ख) संज्ञायें: आचार्य पाणिनि ने अष्टाध्यायी में व्याकरण सम्बन्धी नियमों को समझाने के लिए तथा किसी विशेष अर्थ को प्रकट करने के लिए कुछ पारिभाषिक शब्दों ( Technical terms) का प्रयोग किया है जिन्हें उन्होंने 'संशा' शब्द से कहा है। कुछ प्रमुख संज्ञाओं का सामान्य परिचय निम्न है (1) धात् -क्रिया वाचक भू, गम्, इत्यादि को धातु कहते हैं / ' धातु संज्ञा होने पर 'ति' और 'कृत्' प्रत्यय होते हैं। (5) उपसर्ग-क्रिया के योग में प्र, परा आदि उपसर्ग कहलाते हैं।" ये क्रियापद के प्रारम्भ में जोड़े जाते हैं। जब ये क्रियापद के साथ संयुक्त होते हैं तभी उपसर्ग कहलाते हैं। इसके क्रिया पद के साथ जुड़ने पर धात्वर्थ या तो बदल जाता है या उसमें कुछ वैशिष्टय आ जाता है। जैसे-प्र+हप्रहारः। मा+ह-आहारः। (6) सवर्ण-जिन वर्णों का उच्चारण स्थान और आभ्यन्तर प्रयत्न समान होता है वे परस्पर सवर्ण कहलाते हैं। जैसे-क् ख् ग् घ् परस्पर सवर्ण हैं क्योंकि इनका उच्चारण स्थान कण्ठ तथा आभ्यन्तर प्रयत्न स्पर्श है। वर्गीय वर्ण मापस में सवर्ण होते हैं। और ल की भी परस्पर सवर्ण संज्ञा होती है। (7) उपधा-अन्तिम वर्ण से ठीक पूर्ववर्ती वर्ण को उपधा कहते हैं। जैसे - 'गम्' ग् +अ+म) के अन्तिम वर्णम् से ठीक पूर्ववर्ती वर्ण 'अ' वर्ण / (2) प्रातिपदिक-धातु (भ. पठ् आदि) प्रत्यय (क्त्वा आदि), तमा प्रत्यपान्त (हरिषु. करोषि आदि ) को छोड़कर सार्थक शब्द समुदाय (संजा, सर्वनाम, विशेषण आदि) को प्रातिपदिक कहते हैं। कुत् प्रत्ययान्त (+ बुल 1. देखें पृ०३२। 2. देखें पृ०४७। 3. देखें पृ० 58 / 4. देखें पृ० 249 / 5. भूवादयो धातवः / अ०१३।। 6. अर्थवश्वानुरप्रत्ययः प्रातिपादिकम् / अ० 1945 | देखें पृ. 65 / / 1. कृत्तद्धिततमासाश्च / अ० 1 / 2 / 46 / 2. सुप्तिङन्तं पदम् / अ० 1 / 4 / 14 / . अपई न प्रयुजीत / 4. अव्ययीभावश्च / अ० 111140, देखें पृ०६२। 5. देखें, पृ०६२। 6. तुल्यास्यप्रयत्न सवर्णम् / अ० 11 / 9, देखें पृ०१४ / 7. ऋलवर्णपोमिथः सावण्यं वाच्यम् / वा.(अ०११९)। 8. अनोऽशात् पूर्व उपधा / अ० 11164 // Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 ] संस्कृत-प्रवेशिका [ अनुबन्ध (4) गुण--अ ( अ ) और ए ओ ( एङ्) की गुण संज्ञा होती है।' गुण इन् ( इ उ ऋ द) के स्थान में ही होते हैं अर्थात् इ० ए, उ>ओ, >अ, (9) बृद्धि-आ (आव) और ऐ औ ( ऐच ) की वृद्धि संज्ञा होती है।' वृद्धि हक (इ. ऋर) के स्थान में ही होती है। अर्थात् ऐ, उ>ओ, ऋ>आ, ह>आ। (10) सम्प्रसारण-यण (म् व् र ल्) के स्थान में क्रमशः इक् (इ उ ऋख) होना सम्प्रसारण कहलाता है। यह 'इको यणचि' सूत्र के विपरीत कार्य करता है / जैसे-वच् + क्त्वा-उपस्था। (11) टि-अचों (स्वरों) के मध्य में जो अन्त्य अच् वह है आद्य अवयव जिस समुदाय का उसे टि संज्ञा होती है। अर्थात् किसी शब्द के अन्तिम अच को परवर्ती व्यजन के साथ ( यदि हो तो) टि कहते हैं। जैसे-'मनस्' में अन्तिम अच् है 'अ' जो आदि अवयव है 'अस्' इस समुदाय का / अतः 'अस्' की टि संज्ञा होगी। (ग) अनुबन्ध ('इद' संज्ञक वर्ण): पाणिनि व्याकरण में कई इत् संज्ञक वर्गों का प्रयोग मिलता है। इन 'इद' संज्ञक वर्गों को अनुबन्ध कहते हैं। संस्कृत व्याकरण के नियमों से अनभिज्ञ पाठक सोचते हैं कि जब किसी वर्ण- का लोप (इ संज्ञा) करना ही है तो उसका मावेश या आगम क्यों किया जाता है ? वास्तव में उनका अपना प्रयोजन है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो गुण, वृद्धि आदि की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। उदाहरणार्थ प्रत्ययों के संदर्भ में कुछ अनुबन्धों का प्रभाव निम्न है(अ) तिङन्त और कृदन्त में (1) अचो णिति (अ७-२-११५)-अजन्त शब्द के अन्तिम अच् को वृद्धि होती है यदि बाद में बित् या णित् प्रत्यय हो। जैसे-भू+ पञ्-भावः, +ण्वुलकारकः / कुम्भ + + अण्=कुम्भकारः। (2) अत उपधायाः (अ०७-२-११६)-उपधा के अकार को वृद्धि (आ) होती है यदि बाद में जित् या णित् प्रत्यय हो। जैसे-यज+पयागः, सत्य+व+णिनि-सत्यवादी। 1. अदेङ् गुणः / अ० 112 ! 2. वृद्धिरादैन् / 101 / 11 / 3. इग्यणः सम्प्रसारणम् / अ० 114 4. मेषोऽन्त्यादि टि / 101 / 1 / 63 / अनुबन्ध ] परिशिष्ट : 7 प्रकृति-प्रत्यय [261 (3) सार्वधातुकार्धधातुकयोः (अ०७-३-८४)-सार्वधातुक' तथा पार्षधातुक' प्रत्यय परे रहते अन्स्य इक् को गुण होता है। जैसे-जि+सप् +ति-जयति ( सार्वधातुक); कृ+तव्यत् कर्त्तव्यम् / ( आर्धधातुक ) / (4) पुगन्तलघूपधस्य च (अ०७-३-४६)-पुगन्त ( पुक् आगम जिसके अन्त में हो) और लघूपध (जिसकी उपधा लघु हो) के मन के इक् को गुण होता है सार्वधातुक और आर्धधातुक प्रत्यय परे रहते। जैसे-हि+पुक्+णि+ तिलेपयति, लिख्+घञ्-लेखः / ये गुण और वृद्धि इक्के स्थान में ही होते है(इको गुणवृद्धी / अ०१-१-३)। नोट-क्किङति च (म०१-१-५) गित्, कित् और छित प्रत्ययों के परे रहते ( सार्वधातुक और आर्धधातुक परे रहने पर भी) इक को गुण और वृद्धि कार्य नहीं होते। जि+स्नु जिष्णु, जि+क्त्वा-जित्वा, जागृ + तस् ( अपित होने से * तस को डिन्तवत् माना जाता है-सार्वधातुकमपित् / अ.१-२-४)जागृतः। (अ) तद्धित में: (१)तद्धितेष्वचामादेः-(अ०७-२-११७)-जित या णित् तद्धित-प्रत्यय परे रहते शब्द के प्रथम स्वर (अच् ) को वृद्धि होती है। जैसे-दशरथ+इ= दाशरथिः, अश्वपति + अण्प्राश्वपतम् / (2) किति च (अ०७-२-११०)-"कित्' तद्धित प्रत्यय परे रहते शब्द के प्रथम स्वर को वृद्धि हो / जैसे-कुन्ति + ठक् कौन्तेयः, गङ्गा+उक् गाङ्गं यः / 1. सार्वधातुक तथा आर्धधातुक-तिङ् शिव सार्वधातुकम् / आर्धधातुकं शेषः / (अ० 3 / 4 / 113-114) धातु से विहित ति। तिपादि 18 प्रत्यय) तपा शिद (शकार इव * संज्ञक हो) प्रत्ययों की सार्वधातुक संज्ञा होती है। तिक और शिव को छोड़कर शेष धातु से विहित तृच्, तुमुन् आदि प्रत्ययों की आर्धधातुक संज्ञा होती है। लिट् तथा आशिषि लिङ्ग में तिपादि की भी आर्धधातुक संज्ञा होती है। (लिट् च / लिङाशिषि / अ०३।४।११५-११९)। लुटु, खट्, लुछ और लङ् लकार में धातु और प्रत्यय के बीच क्रमशः ताग, स्य, सिन् और स्प' विकरण आने से इन्हें भी आर्धधातुक माना जाता। शेष 4 लकार (लट्, लोट्, ला, विधिलिङ) शुद्ध सार्वधातुकामात लकारों में ही गण सम्बन्धी समादि विकरण जुड़ते हैं, मामानुस / 2. वही। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी में अनुवाद ] परिशिष्ट : 8: अभ्यास-संग्रह [263 262] संकुल-प्रवेशिका [ हिन्दी में अनुवाद परिशिष्ट : 8 : अनुवादार्थ अभ्यास-संग्रह (क ) हिन्दी में अनुवाद कीजिये-- (1) उत्तमः छात्रः सर्वेषु छात्रेषु प्रथमः भवति / प्रकृत्या साधु-स्वभावः सः नेत्राभ्यां हीनान्, धोत्रेण बधिरान, पादेन खान वा बालकान् दृष्ट्वा न हसति नाक्षिपति च / सः गर्वण युक्तो न भवति / सदा तस्य शास्त्रेषु व्यसनम्, यशति च अभिरुचिः भवति / घनेन हीनोऽपि सः परेषां धनाय वस्तुभ्यो वा न स्पृहपति / ऋणग्रहणं तस्मै न रोचते / अतएव सः कस्मैचित् किमपि न धारयति / मित्रेभ्यः सः कदापि न कुष्पति, नैव द्रुह्यति, नापि ईष्यति, असूयति वा / सः कश्चन बालक तृणाय न मन्यते / सः आतुरेभ्यः दानं ददाति / 'द्रोहः कष्टाय कल्पते, परोपकारः पुण्याय' इति सः सम्यग् विजानाति / एषां गुणानां हेतोः गुरवः तस्मिन् स्निह्यन्ति / (2) ससे कृष्णवल्लभ ! पश्यसि इदम् आश्रमस्थानम् / इयं रमणीया तरुपङ्क्तिरुल्लसति / मनोरमा लता तुझेरावेष्टिता विलसन्ति / एतानि कुसुमानि प्रस्फुटितानि, येषु मधुलोलुपा मधुकरा गुजन्ति / अग्रतस्ताबद् अवलोकयावः / एते परिभ्रमन्ति ब्रह्मचारिणः, नाहरन्ति चैते कुशान पुष्पाणि समिधाश्च / एते हि परिपरन्ति आचार्यान् / माचरन्ति सदाचारान्, न तू स्वेच्छाचारान् / त्यजन्ति अविनयं, न तु विनयम् / परिहरन्ति हिंसा, न तु दयात् / वदन्ति सत्वं न तु. अनुतम् / एते केचिद् ब्रह्मचारिणो वेदान् पठन्ति, के चिच्च अन्यानि शास्त्राणि / (3) कश्चित् शृगालः स्वेच्छया नगरस्य समीपे भ्राम्यन् कस्यचिद् रजकस्य गृहं प्राविशत् / तत्र स नीलीभाण्डे अपतत्, येन तस्य वर्णो नीयोऽभवत् / ततो वनं गत्वा शृगालान् आहूय तेनोक्तम् --अहं भगवत्या वनदेवतया स्वहस्तेन बरण्यस्व राज्ये अभिषिक्तः / अस्मिन् अरण्ये मम आशया व्यवहारः कार्यः। शूगोला: तं विशिष्टवर्णम् अवलोक्य प्रणम्य अवदत्-यथा भाज्ञापयति देव ! एवं क्रमेण सर्वेषु पशुष तस्य स्वामित्वम् अभवत् / ततः व्याघ्रसिंहादीन् उत्तमान सेवकान प्राप्य नीलवर्णः स्वजातीन् अनादतवान् / अथ एकदा सन्ध्या-समये सर्वे शृगाला: सहैव शब्दम् अकुर्वन् / ततस्तं शब्दं श्रुत्वा जातेः स्वभावात् नीलवर्णोऽपि शब्दम् अकरोत् / इत्थं तं शृगालं परिज्ञाय व्याघ्रस्तं हतवान् / सत्यमेयोक्तम् यः स्वभावो हि यस्यास्ति सं नित्यं दुरतिक्रमः / श्वा यदि क्रियते राजा स कि नावनात्युपानहम / / (4) आश्रमेऽस्मिन् विद्यार्थिनां पित्तवृत्तिः सांसारिकचिन्ताभ्यः पराङ्मुखी सती केवलं ब्रह्मपरा वर्तते / बह्मचारिणः न केवलं शरीरेण मनसापि स्वस्थाः दृश्यन्ते। तेषाम् अध्ययननिष्ठा अनुपमा। स्वल्पेन कालेन वेदविद्यादिभिः सह शिल्पादीनां शिक्षाग्रहणं सुकर भवति तेषाम् / सर्वे ज्येष्ठविद्याबिनोऽवराणा साहाय्य कुर्वन्ति / कुलपतिः नित्यमेव विद्यार्थिनां दशसहस्रेषु प्रत्येकम् अनुचिन्तयति / 'कीदशेन समयेन कस्यचिद् विद्यार्थिनः समुदयो भविष्यति, कस्य वा विद्याथिनोऽपायमूवी प्रवृत्तिः कयं निरोद्धव्या' इति स मर्वेशं चरित्रस्य विकासार्थम् उपायं करोति / (5) तदाकण्य कोपज्वालाज्वलित इव योगी अवदत्-"विक्रमराज्येऽपि करमेप दुराचाराणाम् उपद्रवः ?" ततः मोवदत् -''महात्मन् ! क्व अधुना विक्रम राज्यम् ? वीरविक्रमस्य तु भारतभुवं विरहव्य पातस्य वर्षाणां सप्तदशशत्तकानि आतीतानि / क्व अधुना मन्दिरे मन्दिरे जयजयध्वनिः ? क्व सम्प्रति तीर्थे तीर्थे घण्टानादः? का अद्यापि मठे मठे वेदघोषः? अद्य हि वेदाः विच्छिद्य वीथीष विक्षिप्यन्ते / पुराणानि पिष्ट्वा पानीयेषु पात्यन्ते / क्वचिन्मदिराणि भिद्यन्ते / क्वचिद् दारा: अपहियन्ते / क्वचिद् धनानि लण्ड्यन्ते / क्वचिद आर्तनादाः / क्वचिद् रुधिरधाराः / क्वचिद् अग्निदाहः / इत्येव श्रूयते अवलोक्यते च परितः / " (6) भो मुने ! न युक्तम् अनुष्ठितं भवता यदहं पाषाणेन ताडितः / कि त्वम् धर्मात न बिभेषि / 'तत्समर्पय माम् एनां मूषिकाम्, नो चेद प्रभूतं पापम् अवाप्स्यसि' इति ब्रुवाणं श्येनं प्रोवाच सः शालं कायनो नाम तपोधनः / भो विहंगाधम ! पक्षणीयाः प्राणिनां प्राणाः / दण्डनीयाः दुष्टाः। सम्माननीयाः गुरवः / तत् किम् असंबद्धं प्रजल्पसि / श्येन आह-मुने ! न त्वं सूक्ष्मधर्म वेरिस / यथा भवताम् अनं तथा अस्माकं मूषिकादयी विहिताः विधिना। तत् स्वाहारकांक्षिणं मां कि दूषयसि / एतत् श्रुत्वा मुनिः विहरय माह-भो मूर्ख विहंगम ! कृतयुगे धर्मः सः आसीत् / एषः पुनः कलियुगः / अत्र सर्वोऽपि पापात्मा / तस्कर्म कृतं विना पापं न लगति / . तत् कि वृथा प्रलपितेन / गच्छ त्वम् / / (7) परमधुनाऽपि-"हं वा पातयेयं कार्य वा साधयेयम् / " इति कृतप्रतिशोऽसौ शिवबीरचरः न निजकार्यानिवर्तते। यस्याध्यक्षः स्वयं परिश्रमी, कथं सः न स्यात् स्वयं परिश्रमी ? यस्य प्रभुः स्वयं साहसी, कथं स न भवेत् स्वयं साहसी ? यस्य स्वामी स्वयम् आपदोन गणवति, कथं स गणवेद आपद्ः ? यस्य च महाराजः स्वसङ्कलितं निश्चयेन साधयति, कथं स न साधयेत् स्वसङ्कल्पितम् ? अस्त्येष महाराज-शिववीरस्य दयापात्रं चरः, सत् कथम् एष झम्झाविभीषिकाभिः विभीषितः प्रभुकार्य विगणयेत् ? इतश्च चरस्य एतस्य दृढप्रतिशता निर्भीकता सोत्साहतां स्वामिकार्यसाधन-सत्यसङ्कल्पता च परीक्ष्येव प्रशाम्ता वृष्टिः / . 18) एकदा दक्षिणारण्ये एको वृद्धव्याघ्रः स्नातः सरस्तीरे बूते। गो भो। पान्याः ! इदं सुवर्ण कळूणं गृह्यताम् / ततो लोभाकष्टेन मेग भिलाग्मेन बाबा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +64] नंस्कृत-प्रवेशिका [हिन्दी में अनुवाद हिन्दी में अनुवाद ] परिशिष्ट : 8 : अभ्यास-संग्रह [265 चितम् / भाग्येनैतत्सम्भवति जित्वस्मिन्नात्मसन्देहे प्रवृत्तिन विधेया अथवा मर्वत्राजिने प्रवृत्तिः ससन्देहेव / प्रकादा ब्रूते। कुत्र तव कंकणम् ? व्याघ्रो हस्तं प्रसार्य दर्शयति / ततो यावदसौ तद्वचः प्रतीतो लोमात्सरस्तीरे स्नातुं प्रविशति तावामहापर निमग्नः पलायितुमक्षमः / तं पङ्कपतितं दृष्ट्वा तेन त्याप्रेण शनैः शनैरुपगम्य स व्यापादितः / (9) विराय दिल्लीवलालाम्य छायाम् अध्युषितोऽस्मि / परं वयं कवयः कस्यापि राजस्वं वा वीरत्वं वा आढपत्वं वा न अपेक्षामहे / न वा कस्यापि साभिमानभ्रूभङ्ग सहामहे / न तस्य तादृशं भूवलये राज्यं यादृशम् अस्माकं सारस्वतसृष्टौ। तस्य क्रीतवासा अपि न तदीहासमकालमेव बद्धकरसम्पुटाः यथोचितावस्थानाः पुरतोऽवतिष्ठन्ते या अस्माकं पदानि, वाक्यानि, छन्दांसि, अलंकाररीतयः, गुणाः रसाश्च / अस्मद्वीररसकविताम् आकलय्य म्रियमाणोऽपि युद्धे उत्तिष्ठेत् / अस्मत्-शृङ्गा ररस-रमायनम् आस्वाद्य जितरागद्वेषो मुनिरप्याकुलीभवेत् / वयं विद्याशून्यान् स्वप्नेऽपि न समुपास्महे / (10) अप एकदा रजन्या श्रीशिववीरो गुप्तवेषेण परितः पर्यटन भवि विलण्डन्तं कञ्चन अश्वम् अद्राक्षीत् / कस्पायं कुतोऽयमिति मनसि विचिन्वन् समीपमागत्य कमपि शूद्वयुवकम् अवालोकयत् / 'कुत आगता यूयम्' इति शिववीर: पानरमाक्षीत् / स तु स्वकार्यसंलग्नो अन्यमनस्क एवं उदतरत् 'समायातः कोऽपि, आलपितुमिच्छसि चेद् घटि हायुगलम् अतिवाद्य समायास्यसि तदा त्वया सह वार्ताभिरध्वपरिश्रमम् अल्पयिष्यामि " तदाकवं अन्त:विहसन्जिव शिववीरः पुनरपृच्छत् -'तथा करिष्यावः किन्तु कषय तावत् कुत आगता यूयम् / स तु घोटके दत्तदृष्टिरेव सकोपम् अवदत्-कुत आगता यूवम् कुत आगता यूयम् इति कुत:कारैः स्फोटिती मे कणों। वयं दिल्लीन आनता दिल्लीतो दिल्लीतो दिल्लीतः / कथय गजं ददासि घोटकं वा इति / (11) कस्मिश्विदधिष्ठाने चत्वारो ब्राह्मणपुत्राः मित्रभावमुपगता वसन्ति स्म / तेषां त्रयः शास्त्रपारङ्गताः परन्तु बुद्धिरहिताः / एकस्तु बुद्धिमान् के वर्ल शास्त्रपराङ्मुखः / अथ तैः एकदा मृतसिंहस्यास्थीनि दृष्टानि / ततश्च केन अभिहितम् -'वर्य विद्याप्रभावेण अस्थिषयं जीवसहितं कुर्मः / यावत ते मृतसिंहे जीवत्वं सञ्चारयन्ति तावत् सुबुद्धिना निषिद्धाः / ग्येनं सजीवं करिष्यसि तदा सर्वान् अपि व्यापादयिष्यति / इति तेन अभिहिताः ते अवदन्-धिङ् मूर्ख ! न वयं विद्याया विफलतां कुर्मः। ततस्तेन विहितम्-तहि प्रतीक्षस्व क्षणं यावदह वृक्षमारो. हामि / तथानुष्ठिो तेन, पावरसोऽस्त्रियः. मजीक. कृतस्तावत्ते त्रयोऽपि सिंहेने व्यापादिताः / मः च बुझादवतीयं गृहं गतः / (12) आलोकयतु तावत् लक्ष्मीमेव प्रथमम् / इह जगति यथा इयम् अनार्या जमीः नहि एवं विधम् अपरम् अपरिचितं किञ्चिदस्ति / इषं हि दृढनिष्पन्दीकृतापि नश्यति / परिपालितापि प्रपलायते। न परिचयं रक्षति / नाभिजनम् ईक्षते / न रूपम् आलोकयते / न कुलक्रमम् अनुवर्तते / म शीलं पश्यति / न वैदग्ध्यं गणयति / न सत्यम् अवबुध्यते / गन्धर्वनगरलेखेव पश्यत एव नश्यति / सरस्वतीपरिगृहीतं जनम् ईययेव नालिङ्गति / गुगवन्तम् अपविषमिव न स्पृशति / शर कण्टकमिव परिहरति / दातारं दुःस्वप्नामेव न स्मरेति / मनस्विनम् उन्मत्तमिव उपहसति / यथा यथा चेयं चपला दीप्यते तथा तथा दीपशिखेव कज्जलमलिन मेव कर्म उद्वमति / (13) धूतं विनोद इति, परदाराभिगमनं वैदग्ध्यमिति, स्वदारा-परित्यागः अव्यसनिता इति, देवावपाननं महासत्त्वतेति दोषान् अपि गुणपक्षम् अध्यारोपयद्धिरन्तः स्वयमपि विहसद्भिः प्रतारणकुशलैः धर्तः प्रतार्यमाणा राजानः सर्वजनस्योपहास्यताम् उपयान्ति / ते दृष्टिपातमपि उपकारपक्षे स्थापयन्ति ! आज्ञामपि वरप्रदानं मन्यन्ते / स्पर्शमपि पावनम् आकलयन्ति / न देवताभ्यः प्रणमन्ति / नाभिवादयन्ति अभिवादनान् i / उपहसन्ति विद्वज्जनम् / जरा वैक्लव्यप्रलपितमिति पश्यन्ति वृद्धजनोपदेशम् / सर्वदा तम् अभिनन्दन्ति, योऽहनिशम् अनवरतम् अधिदैवतमिव विगताम्य कर्तव्यः स्तौति / / (14) कस्मिश्चित्कूपे गङ्गदत्तो नाम मण्डूकराजः प्रतिवसति स्म / तेन चिन्तितम्-यत्कयं दायादानां मया प्रत्यपकारः कर्तव्यः / एकदा स. कृष्णसर्पम् अपश्यत् / तं आह सः-भो ! सत्यमेतत्, यत् स्वभाववैरी त्वमस्माकम्, परं परपरिभवात्प्राप्तोऽहं ते सकाशम् / तच्छु त्वा सो व्यचिन्तयत् / अहं कदाचित्कथंचिन्मूषकमेकं प्राप्नोमि तत्सुखावहो जीवनोपायोऽयमनेन कुलाङ्गारेण मे दशितः / तद् गत्वा तान् मण्डूकान भक्षयामीति विचिन्त्य तमालिङ्गय च तेनैव सह प्रस्थितः / अथ क्रमेण निःशेषितास्ते रिपवः / पश्चात् तेन मित्रभाव विस्मृत्य तस्य सुतोऽपि भक्षितः / (१५)श्रद्धया देयम् / अश्रद्धयाऽदेयम् / श्रिया देयम् / ह्रिया देयम् / भिया देयम् / संविदा वेषम् / अब यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात् / ये तत्र ब्राह्मणाः संमशिनः, युक्ता अयुक्ताः, अलक्षा, धर्मकामाः स्युः यथा ते तत्र वर्तरन् तथा तत्र वर्तेषाः / एष आदेशः / एष उपदेशः / एषा वेदोपनिषत् / एतदनुशासनम् / एवमुपासितव्यम् / एवं चैतदुपास्यम् / भोः स्नातकाः / युष्माभिः सदा सोले समुदाचारेच तितव्यम् / (16) मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः / पशुहत्या तु तेषामाक्रीडमम / केवलं विक्लान्तचित्तविनोदाय महारश्यपगत्य ने यथेच्छ निर्वयं च पाणात गति Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत में अनुवाद परिशिष्ट : 8 : अभ्यास-संग्रह .. [267. 266 ] संस्कृत-प्रवेशिका [ हिन्दी में अनुवाद मनुष्या यथा मृगयामरविश्य हिंसावृत्तेश्चरितार्थता संपादयन्ति हिनस्वभावा अपि श्वापदाः किं कदाचित् मनुष्यालयमाविश्य तादृशमतिदारुणं कर्म समनुतिष्ठन्ति / ते स्वाभीष्टदेवतायतः सर्वथा निरपराधान् रोद्यमानानासन्नमृत्युशङ्कावेपमानकलेवरान् पशून् बलादुरहत्य स्वहृदयस्यातिकर्कशनृशंसतायाः परिचयं ददति / वस्तुतः तेषां पशूपहारव्यापारमवलोक्य जडानामप्यस्माकं दिदीयंते खलु हृदयम् / (17) मानवा नाम सर्वासु सृष्टिधारासु निकृष्टतरा सृष्टिः / समन्ताद अभिनबोल रविलक्षण सृष्टिम् उत्पादयता भगवता जवत्सवित्रा यादग बुद्धिप्रकर्षः सृष्टिनैपुण्यं च प्रदर्शितम्, मानवसर्ग विद्धता पुनरनेन तत्सर्व मेकपद एव अपहारितम् / मानवा इव कपटव्यवहारकुशलाः हिंसानिरता जीवा न विद्यन्ते / प्रशान्ते च जठारानले स्वोदरपूर्ते नहि हिंस्रस्वभावाः सिंहादयः पशवः करतलगतामपि हरिणशाशकादीन् उपघ्नन्ति / प्रत्युत मुनिव्रता इव शान्त भावमापा विधाम्यन्ति / न केवलभेते पशुभ्यो निकृष्टास्तृणेभ्योऽपि निस्सारा एव / तृणानि खलु वात्यया सह स्वशक्तितः सुचिरम् अभियुष्य वीरपुरुषा इव शक्तिक्षये क्षितितले निपतन्ति, न तु कदाचित् कापुस्पा इव स्वस्थानमपहाय दुतं प्रपलायन्ते / (18) यौवनं सौन्दर्यम् ऐश्वर्य महासत्वता च प्रत्येकमपि प्रभवति जनानाम् / नर्थाय / चतुर्गा पुनरेतेषामेका सन्निपातः सर्वानर्याना सद्य इत्यर्थेऽस्मिन् कः संशयः ? मानवानां विमलमपि मनः यौवन लक्ष्मीपादपल्लवम्यासेनैव समुद्रहति रागम् / वित्तमदेन नष्टविवेको जनः अपथशिनं विटलोकमेव विदग्ध मतिस्निग्धं च विभाष्य स्वकलत्रं स्ववित्तं च तवधीनं विदधाति, पिदधाति च सुजनसमागमद्वारम् / ते मन:प्रसादाप मधुवानमिति, शौर्यस्फूर्तये चौर्यमिति नानाविधमुपदिश्य स्वयश्यान् कल्पयन्ति / एवंविधदुःशिक्षाबलेन स्वचापलेन च राजसूनवः प्रायेण प्रागेवाविनय पश्चात्तारुण्यम्, पुरस्तादेव जाड्यं तदनन्तरमभिषेकम् पूर्वमेव अहंकारं तदनु सिंहासनाध्यासनं च भजन्ते। (19) तथा प्रारभमाणे च राजनि राजनीतिकुशलाः कतिचन सचिवाः समेत्य सप्रणयं व्यजिज्ञपन्-देव ! देकेन अविदितं किञ्चिदस्तीति न प्रस्तुमहे कथयितुम् / तदपि देवपादयोः असाधारणी भक्तिरस्मान्मुखरयति / तदुचितमनुचितं वा प्रणयपरवर्शरस्माभिरभिधीयमानम् आकर्णयितुम् अर्हति स्वामी। देव ! स्वहृदयमपि राशा न विसम्मणीयम्, किमुतापरे / विखम्भेण मन्त्रि निवेशित-राज्यमारा राजानस्तरेव व्यापादिता भवन्तीति। अपि च परिहतनिखिलेवर व्यापारोऽयं स्त्रियाम् अत्यासंगः सर्वथा अनर्यानुबन्धी। यतो रावणः प्रणयमरेज जनकदुहितरि दशरथतनयेन यशःशेषतामनीयत / (2.) भवादशा एव भवन्ति भाजनानि उपदेशानाम् / अपगतमले हि मनसि टिकमणाविव विशन्ति सुखेन उपदेशगुणाः / गुरुवचनम् अमलमपि अभव्यस्य धूल. मुाजनयति / इतरस्य तु सकलं दोषजातं हरति / अयमेव चानास्वादितविषयरसस्य है काल उपदेशस्य / कुशुमशर-शरप्रहारजर्जरिते हि हृदये गलमिव गलत्युपदिष्टम् / गुरुपदेशन नाम पुरुषाणाम् अखिलमल प्रक्षालनक्षमम् मजलं स्नानम् / विशेषेण रजाम् / बिरखा हि तेषामुपदेष्टारः। प्रतिशब्दक इव राजवचनम् अनुगच्छति जनो भपात् / दामदति ते उपदिश्यमानमपि न शृण्वन्ति / शृण्वन्तोऽपि च गनिमीलितेन अवधीरयन्तः खेदयन्ति हितोपदेशदायिनो गुरून् / ख) संस्कृत में अनुवाद कीजिए (1) गङ्गा भारतवासियों की पूज्य एवं पवित्र नदी है। इसमें योग प्रतिदिन श्रद्धा और भक्ति के साथ स्नान करते हैं / यह 'सुरसरित्' भी कहलाती है। इसका उदगम-स्थान गंगोत्तरी है। वहां से निकलकर यह हरिद्वार की समतश भूमि पर बहती हुई पूर्व दिशा की ओर बहती है। इसका जल अत्यन्त पवित्र, निर्मल और . स्वास्थ्यवर्धक है। बहुत समय तक इसका जल सुरक्षित रखने पर भी विकृत नहीं होता है। हरिद्वार, प्रयाग और वाराणसी उसके प्रमुख तीर्थस्थल हैं। (2) भारतवर्ष में नगरों की अपेक्षा ग्रामों की संख्या अधिक है। जो गांवों में रहते हैं वे स्वस्थ, परिचमी और सेवाभावी होते हैं। गांवों में जिस प्रकार की शुद्ध वायु और सूर्य का प्रकाश उपलब्ध होता है वैसा नगरों में कदापि संभव नहीं है। प्राचीन काल में ग्राम्य जीवन आदर्श था परन्तु आज का ग्राम्य जीवन अशिक्षा, कलह और अन्धविश्वास का घर हो गया है। अतः भारतदेश के अधिकारियों से निवेदन है कि ग्राम्य सुधार की ओर ध्यान देवें। (३)हमारा देश स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है। स्वर्ग भोगभूमि है और भारत है +मभूमि' / संसार के इतिहास में आध्यात्मिकता की धारा प्रवाहित करने का र भारतीय पियों को ही है। उन्होंने स्वार्थ और परमार्थ का सुन्दर सामन्जस्य प्रस्तुत कर विषय के समक्ष एक सुन्दर आदर्श उपस्थित किया है। हम भारतवासियों का कर्तव्य है कि इस आदर्श को चिरस्थायी बनाये रखें। (4) व्याकरण-शास्त्र का जितना विस्तृत और सूक्ष्म अध्ययन संस्कृत भाषा में हुआ है, उतना अन्य किसी भी भाषा में नहीं। व्याकरण को वेद का मुका मतलाया गया है। प्रातिशाख्यों की रचना के बाद याक मे ही सर्वप्रथम के चतुर्विध विभाजन (नाम, आख्यात, उपसर्ग और मिपात) को मात DAI है तथा यह सिद्ध करने का स्तुत्य प्रयास किया कि माया 'धातु-समूह' ही है। इन्हीं लियाम्सों पर पाणिनिकी नाबालि. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 ] संकृत-प्रवेशिका [ संस्कृत में अनुवाद (5) रामायण संस्कृत-साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण महाकाव्य है। इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि है। इसमें मर्यादापुरुषोत्तम राम के जीवन चरित्र का उज्जवल वर्णन है। संस्कृत का सर्वप्रथम काव्य-ग्रन्थ होने से इसे आदिकाव्य कहा जाता है। इसमें भारतीय संस्कृति का सुन्दरतम रूप वर्णित है। काव्य की दृष्टि से यह बहुत सुन्दर काव्य है। इसकी भाषा प्रारम्भ से अन्त तक परिष्कृत और प्रसादगुण से युक्त है। कविता सरल, सरस और मनोहर है। अलंकारों का सुन्दर सम्मिश्रण है। करुणरस का प्राधान्य है। परकालीन कवियों ने इसका बाश्रय लेकर काव्य और नाटक लिखे हैं। (6) एक नगर में तपोदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसने बाल्यावस्था में पिता के बहुत समझाने पर भी विद्या नहीं सीखी। कालान्तर में लोगों से अपनी निन्दा सुनकर पश्चात्ताप करने लगा और विद्या की प्राप्ति के लिए गङ्गातट पर तपस्या करने लगा। एक दिन ब्राह्मण भेषधारी इन्द्र को गङ्गा में पुल बनाने हेतु पानी में बालू डालते देखकर तपोदत्त ने कहा-'अरे मूर्ख ! बालू से गङ्गा जी में पुल नहीं बन सकता है, तेरा यह प्रयत्न सर्वथा निष्फल है।' तब इन्द्र ने हँसकर कहा-'जो तुम यह जानते हो तो फिर बिना पढ़े केवल व्रत-उपवासादि करके विद्योपार्जन करने का उद्योग क्यों कर रहे हो? अध्ययन के बिना तुम्हारा भी यह यत्न बिना भित्ति के चित्र के समान निष्फल है'। (7) निषध देश का राजा नल एक बार वन-विहार को निकला। नगर से कुछ दूर निकल जाने पर एक उपवन में उसने. एक मनोहर तालाब देखा। उसमें खूब कमल खिले हुए थे। वहाँ उसने एक बहुत ही मनोहर हंस देखा। उस पर मुग्ध होकर राजा ने अपने तरकस से एक सम्मोहन बाण उस पर चलाने के लिए निकाला / धनुष पर बाण रखते ही उसने एक अलक्षित वाणी सुनी। उसका भाव यह था कि-हे राजन् ! इस पर बाग मत छोड़ो। यह तेरा अभीष्ट सिद्ध करेगा। (8) वेद भारतीय साहित्य के सर्व-प्राचीन ग्रन्थ हैं। इनका निर्माण कब हुआ? इसका सही-सही निर्णय करना अत्यन्त दुष्कर है। कुछ भारतीय मनीषियों की मान्यता के अनुसार वेद अनादि और अपौरुषेय हैं। इनके सम्बन्ध में निश्चित रूप से इतना ही कहा जा सकता है कि ये विश्व-साहित्य के आदि ग्रन्थ हैं और संसार में ज्ञान का अभ्युदय वेदों के अभ्युदय के साथ ही हुआ है। भाषा, इतिहास, संस्कृति, साहित्य सभी दृष्टियों से वेद महत्त्वपूर्ण और अवर्णनीय हैं। " (1) महाकवि बाण भट्ट संस्कृत साहित्य के सर्वश्रेष्ठ गद्य काव्यकार हैं। सम्राट हर्षवर्धन के सभापण्डित होने के कारण इनका समय सप्तम शताब्दी का संस्कृत में अनुवाद ] परिशिष्ट : 8 : अभ्यास-संग्रह [ 269 पूर्वार्द्ध माना जाता है। इन्होंने दो गद्य ग्रन्थ लिखे हैं :-'हर्षचरित' और 'कादम्बरी'। ये दोनों ही ग्रन्थ अनुपम हैं। हर्षचरित एक ऐतिहासिक गद्य-काव्य है। काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से इसकी कई विशेषताएँ हैं। कादम्बरी संस्कृत गद्यकाव्य की अनुपम कृति है। कवि की प्रतिभा का चरम उत्कर्ष इसमें दिखलाई देता है। बाण की वर्णन शैली, भाषा-सौष्ठव, अलंकार-योजना, प्रकृति-चित्रण, रस-परिपाक आदि सभी अद्भुत हैं जो सहृदयों को मोह लेते हैं। (10) परिवर्तन प्रकृति का नियम है। प्रकृति के इस नियम को जड़ हो या चेतन सभी स्वीकार करते हैं। जो प्रदेश पहले निर्जन थे वे आज सुन्दर महलों से सुशोभित हैं। जो कल राजा थे वे आज भिखारी हैं और जो कल भिखारी थे वे आज धनवान हैं। परिवर्तन की इस महिमा से ही क्षणमात्र में सुख दुःख का और दुःख सुख का स्थान ग्रहण कर लेता है। सुख और दुःख दोनों पक्र के समान बदलते रहते हैं। एकान्ततः सुख अथवा दुःख कभी नहीं रहते / अतः सुख के उपस्थित होने पर न तो अत्यन्त हर्षित होना चाहिये और न दुःख के उपस्थित होने पर दुःखी। सदा सुख और दुःख में समता धारण करना चाहिए। (11) सृष्टि के प्रारम्भ से ही स्त्रियों का महत्त्व स्वीकार किया गया है। वैदिक युग में गार्गी आदि स्त्रियों के सम्मान का विधान मिलता है। पौराणिक युग में भी उनको उचित सम्मान प्रदान किया गया है। मध्यकाल में नारियों को केवल भोग का साधन मानकर उनके साथ उचित न्याय नहीं किया गया। वर्तमान काल में स्त्रियाँ पुनः अपने गौरव को प्राप्त करके पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रही हैं। स्त्रियाँ राष्ट्र के भावी नागरिकों की जननी हैं। बालकों के चरित्र-निर्माण में उनका महत्वपूर्ण योग होता है। अत: उनकी सचित शिक्षा एवं सुरक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है। (12) मनुष्य समाज का एक अङ्ग है। समाज की उन्नति से ही उसकी एम्नति होती है और समाज की अवनति से उसकी भी अवनति होती है। अतः प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह सदा समाज की उन्नति के लिए प्रयत्न करे। समाजसेवा का भाव बाल्यकाल से ही जागृत करना चाहिए। सच्चा समाज तेवक विनम्र होता है। वह दूसरों की सहायता और सेवा करके प्रसन्न होता है। उसका लक्ष्य सदा यह रहता है कि समाज के सभी व्यक्ति सदा सुखी, स्वस्थ और प्रसन्न रहें। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उन सबने समाजसेवा का व्रत मुख्यरूप से लिया था, अतएव वे समाज को तथा स्वयं को सम्मत मारो / (12) संसार में अनेक भाषायें प्रचलित हैं। सममें संत भाना Mmm तथा भारतीय भाषाओं की जननी है। इसका ज्यामा पOm. The Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तकालयः ] परिशिष्ट : 9 : निबन्ध-संग्रह 271 270 ] संस्कृत-प्रवेशिका [स्कृत में अनुवाद वैज्ञानिक है / विदेशी विद्वान् भी इसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हैं। हमारा प्राचीन इतिहास, धर्म, साहित्य और संस्कृति इसी भाषा में सुरक्षित हैं। भार, कालिदास, भवभूति, बाण आदि महाकवियों ने इसी भापा में अपना अमूव साहित्य लिखा है। यद्यपि यह भाषा देखने में कठिन है परन्तु अभ्यास से सरल हो सकती है। यह ही एकमात्र ऐसी भाषा है जो समस्त देश को एकता के सूत्र में बाँध सकती है। यह देश की एक अनुपम और दुर्लभ निधि है। अतः इसकी रक्षा के लिए तथा इसके प्रचार के लिए सतत प्रयत्न आवश्यक है। (14) गोखले सच्चे देश भक्त थे / वे भारतवर्ष से बहुत प्रेम करते थे। उनका जीवन बतिसरल और स्वार्थ से रहित था। वे न तो धन की परवाह करते थे और न याति की। अपने समय में उन्होंने वक्ता के रूप में भी याति प्राप्त की थी। वे कोवल शब्दों में विश्वास नहीं करते थे अपितु जो कहते थे वही करते की ये। उनकी नि:स्वार्थ देशसेवा अनुकरणीय है। (15) धर्मसाधना के लिए तथा प्रसन्नता के लिए स्वस्थ रहना आवश्यक है। अच्छा स्वास्थ्य तभी संभव है जब हम शारीरिक रूप से तथा मानसिक रूप से स्वस्थ हों। शारीरिक स्वस्थता के लिए पौष्टिक और संतुलित भोजन के साथ स्वच्छता और व्यायाम भी आवश्यक है। हवा और पानी की शुद्धता के साथ निवास स्थान भी साफ सुथरा होना चाहिए / मानसिक स्वस्थता के लिए सद्विचार और सदाचार के साथ तनावमुक्त रहना आवश्यक है / जहाँ स्वास्थ्य है वहीं सुख और शान्ति है / (16) झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में हुआ था। इसका वाल्यकाल का नाम था 'मनू'। इसके पति थे झांसी के राजा गंगाधर राव / पुष और पति की मृत्यु के बाद उसने झांसी का शासन. संभाल लिया। धार्मिक क्रियाओं के साथ उसने युद्धाभ्यास भी किया। पश्चात् समय आने पर देशभक्ति से धाकृष्ट होकर उसने अंग्रेजों के साथ युद्ध किया। स्वतन्त्रता-संग्राम में उसकी वीरता की शत्रुओं ने भी प्रशंसा की। भारतीय नारी की इस वीरता ते देश का मस्तक सदा ऊंचा रहेगा। (15) 'अहिंसा' सब धर्मों का सार है। अहिंसा के बिना जीवन की स्थिरता संभव नहीं है / यदि हम चाहते हैं कि दूसरे लोग हमें कष्ट न दें, हमारा अपकार न करें तो हमें भी ऐसा ही आचरण दूसरों के साथ करना चाहिए। अहिंसा के अभाव में सर्वत्र अराजकता का प्रसार हो जायेगा। विश्वशान्ति और विश्वबन्धु व तभी संभव है जब सर्वत्र अहिंसा का साम्राज्य हो। हिंसा का अर्थ केवल प्राणों का विनाश करना नहीं है अपितु दूसरों के दिल को किसी भी प्रकार कष्ट पहुँचाना भी हिंसा है। अहिंसा का अर्थ है सबसे प्रेमभाव रखना। (18) मर्यादा पुरुषोत्तम राम राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनकी पत्नी का नाम था सीता। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न उनके छोटे भाई थे। उनमें परस्पर प्रगाढ प्रेमभाव था। पिता के. पचन की रक्षा के निमित्त उन्होंने चौदह वर्ष का वनवास सहर्ष स्वीकार किया। सीता और लक्ष्मण ने राम का अनुगमन किया। पश्चात् सीता का अपहरण करने वाले लंका के राजा रावण का वध करके तथा विभीषण को वहाँ का राजा बना के राम अयोध्या के राजा बने / उनके राज्य में सभी लोग प्रसंन्न थे। अत: आज रामराज्य को याद किया जाता है। (19) विद्यार्थी ही देश के भावी कर्णधार हैं। यदि वे अपने कर्तव्य का सही उङ्ग से पालन नहीं करेंगे तो न देश की, न समाज की और न स्वयं की उन्नति होगी। वे ही आगे चलकर अध्यापक, न्यायाधीश, शासक आदि विविध पदों को संभालेंगे। विद्यार्थियों के निम्न सात कर्तव्य ग्रन्थों में बतलाये गए हैंविद्या का उपार्जन, समय का सदुपयोग, अनुशासन, गुरुभक्ति, शारीरिक शत्तिसंचय, नियमितता और सदाचार / अतः विद्यार्थियों को अपना ध्यान इन कर्तव्यों की ओर ही लगाना चाहिए, अन्यत्र नहीं। (20) याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा-'मैं संन्यास लेना चाहता हूँ और तुम्हें कुछ देना चाहता हूँ। मैत्रेयी ने कहा-'यदि यह समस्त पृथ्वी धन से भर जाये तो क्या मैं अमर हो जाऊँगी'? याज्ञवलय ने उत्तर दिया-'नहीं, धन से अमरत्व की कोई आशा नहीं'। तब मैत्रेयी ने कहा-'जिसको लेकर मैं अमर नहीं हो सकती उसका मैं क्या करूंगी? जिससे अमरत्व प्राप्त हो ऐसा ज्ञान मुझे दीजिए'। याज्ञवल्क्य ने कहा-'पुत्र, धन, पशु आदि प्राणियों के हित के लिए नहीं होते हैं। -इसलिए आत्मा को देखो, सुनो और उसीका चिन्तन करो। आत्मा के देखने, सुनने और चिन्तन-मनन करने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है। परिशिष्ट::निबन्ध-संग्रह (21 , पुस्तकालयः यत्र विविधानां पुस्तकानां संग्रहो (आलयः ) भवति सः 'पुस्तकालयः' ग्रन्थालयो वा कथ्यते। वर्तमानयुगे पुस्तकामयः शिक्षायाः अभिन्नमनमस्ति / शिक्षकाः बद कार्य कुर्वन्ति पुस्तकालयोऽपि तदेव प्रकारान्तरेण करोति / सभयतोऽपि ज्ञानसंवर्धनं भवति / अतएव प्रत्येकशिक्षासंस्थायां पुस्तकालयः सः महामना अवश्यमेव दृश्यते। वस्तुतः अब पुस्तकालयः विक्षितसमाजास जीवनाचार | Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 ] संस्कृत प्रवेशिका [ दीपावली षड्-ऋतवः ] परिशिष्ट : 9 : निबन्ध-संबह / 273 पुस्तकालयमहत्वादेव एकस्मिन्नपि नमरे बहवः पुस्तकालयाः संस्थाप्यन्ते यत्र जनाः पुस्तकानि अध्येतुं समाचारपत्राणि च वाचपितुं पथावकाशं प्रतिदिनं गच्छन्ति / अस्मिन् युगे अनुसन्धानादिकार्य महत्वपूर्णमस्ति / तच्च सुव्यवस्थित, समृद्ध * पुस्तकालयं विना न सम्भवति / प्रत्येकं जनः विविधपुस्तकानि संग्रहीतुं न शक्नोति तस्मात् पुस्तकालयं विहाय किमप्यन्यत्साधनं नास्ति येन जानानां शानपिपासा शाम्येत / किञ्च, येषां पाश्र्वं पर्याप्तं धनं नास्ति ते पुस्तकालयं गत्वैव पाठय-- पुस्तकानि पुस्तकान्तराणि च यथारूचि पठन्ति / पुस्तकालयेषु समाचारपत्रद्वारा देशविदेशयोः दैनिकवृत्तान्ता: ज्ञायते / पुस्तकालयाः बहुविधाः भवन्ति / यथा-केचन पुस्तकालयाः विश्वजनीना:: भवन्ति; अपरे तु संस्था-संबद्धाः निर्धारितसदस्यानां कृते / केचित् केवलमेकभाषापुस्तकानि; केचिद् अनेकभाषामन्याः भवन्ति / केषुचित् तत्तविषयस्य / यथा-- विज्ञानस्य, वाणिज्यस्य, कलासाहित्यस्थ, दर्शनस्य, मनोरञ्जकोपन्यासादीनां वा / केचित् प्रायः सर्वविषयाणां / यथा-विश्वविद्यालयीयेषु पुस्तकालयेषु / पुस्तकालयस्य सञ्चालनाय एकः पुस्तकालयाध्यक्षो भवति यः प्रतिदिनं यथासमयमागत्य पुस्तकानाम् आदानप्रदानयोः व्यवस्था करोति / तस्य सहायतार्थम् बन्येऽपि कर्मचारिणः आवश्यकतानुसारं भवन्ति / विभिन्नपञ्जिकासु तत्तत् विषयाणां पुस्तकानि उल्लिख्यन्ते / पन्जिकान्तरेषु पुस्तकवितरणस्य प्रत्यावर्तनस्य च विवरणं लिख्यते / नियमानुसारेण पञ्जिकाना संख्या हीनाधिका भवति / मे जनाः पुस्तकालयस्य सदस्याः भवन्ति ते कानिचित् पुस्तकानि अध्यक्षाशया स्वगृहमपि नयन्ति / यदि ते यथासमयं न प्रत्यावर्तयन्ति तदा ते नियमानुसार दण्डभाजः भवन्ति / क्वचित्-क्वचित् पुरतकालये दुर्व्यवस्थाऽपि दृश्यते येन पुस्तकालयस्य समुचितः सदुपयोगः लाभो वा न सआयते। यदि इयं दुर्व्यवस्था दूरीकृता स्यातहि महान् जनलाभो भवेद / अद्य विश्वविद्यालयेषु पुस्तकालयविज्ञानस्य अध्यापनं भवति / अन्ततश्च निविवादमेतत् यत् पुस्तकालयस्य स्थापना सर्वत्र करणीया येन जनानाम् अज्ञानाधकारः अपसारितः स्यात् देशविकासोऽपि संभवेत् / (22 ) दीपावली ( दीपमाला) भारतवर्षे रक्षा बन्धनम् (श्रावणी), विजयदशमी (दशहरा), दीपावली, होलिका चैते चत्वारः हिन्दूधर्मावलम्बिना प्रमुखाः महोत्सवाः सन्ति / यद्यपि एते सर्वेऽपि सर्वैः वर्णः समानमेव प्रतिवर्ष समाद्रियन्ते तथापि एषां चतुर्णा वर्णाना कृते यथाक्रम पृथक्-पृथक् महत्त्वमस्ति / तया श्रावणी ब्राह्मणानाम्, विजयदशमी क्षत्रियाणाम्, दीपावली वैश्यानाम्, होलिका चूद्राणाम् प्रधानपर्वतया मन्यते / तेषु दीपावलीसमारोहः कात्तिकमासस्य कृष्णपक्षे अभावस्यायो सम्पाद्यते। अस्मिन् पर्वणि निशामुळे सर्वत्र पंक्तिबद्धाः दीपाः प्रज्वाल्यन्ते / अतः अस्योसबस्य नाम 'दीपावली' दीपमाला' वा वर्तते / साम्प्रतं पंक्तिबद्धन विधुत्प्रकाशेनापि प्रकाशः क्रियते। उत्सवादस्माद्बहुदिनानि पूर्वमेव जनाः स्वस्थगृहान् सम्माय सुधादिना परिकुर्वन्ति तथा नानाविधैः रङ्गः भूषयन्ति / केचन तोरणद्वाराणि पुष्पमालादिभिः अलकुर्वन्ति च / तस्माद् गृहा: गवा इव प्रतीयन्ते / नगरेषु, ग्रामेषु, गृहेषु, मन्दिरेषु, आपणेषु सर्वत्र दीपा एव दृष्टिपथमायान्ति / अपि च पन्द्रि कारहितायामपि अमावस्यायां गगनमण्डल पूर्णिमावत् प्रतिभाति / नगरेषु विविधवर्ण विद्युन्मालामण्डिताः गृहाः कस्य नाम नाकर्षन्ति चेतः। दृश्यमिदं विलोकयितुं जनाः परितः भ्रमन्ति येन मार्गेषु महान् जनसम्म> जायते / अस्मिन् महोत्सवे निशीथे लक्ष्मीपूजनमपि क्रियते / व्यापारिणः लक्ष्मी विशेषरूपेण आराध्य आयव्ययपब्जिकां पूजयन्ति वार्षिकमायब्ययादिकमपि संकलयन्ति च / अनेके जनाः यूतक्रीडा मद्यपानं चापि कुर्वन्ति / सर्वे नरा: परस्परं मिष्टान्नादिकस्यादानप्रदान कुर्वन्तः प्रमुदिताः दृश्यन्ते / विप्रेभ्यः याचकेभ्यश्च मिष्टान्नमिश्रितं लाजादिक प्रदीयते। प्रायः सर्योऽपि उत्सव: नूनं यया कयाचित् पूर्वघटनया संबद्धो भवति / जनः अस्योत्सवस्यापि अनेकानि कारणानि कल्प्यन्ते। केचित् कथयन्ति यदस्मिन्नेव दिने श्रीरामचन्द्रः लंका विजित्य अयोध्या प्रत्यावर्तत / अपरे बदन्ति यदस्मिन्नेव दिने जैनमतप्रवर्तकस्य भगवतो महावीरस्य निर्वाणमभवत् / अन्ये मन्यन्ते यदस्मिन्नेव दिने भगवान् विष्णुः वामनरूपं धृत्वा वलिना वन्दीकृता लक्ष्मीम् अमुञ्चत् / एतेषु यदपि भवेत् कारणमस्य महोत्सवस्य निविवादमेतद् यदयं परमरमणीयः वैज्ञानिकदृष्टया महत्त्वपूर्णश्च / यदस्माद् दरिद्रतायाः निस्सारणम्, रोगकीटाणमा विनाशः, स्वच्छतायाः सम्पादनम्, समाजे नवीनतायाः आविर्भावः, अन्येऽपि बहवा लाभाः भवन्ति / इदानी केचन दोषाः अपि दृष्टिपथमायान्ति / यथा-द्यूतक्रीडा, मद्यपानम्, विस्फोटकपदार्थप्रयोगः अपव्ययश्च / यदि एतेषां बोषाणां परित्यागः भवेत्तहि अस्योत्सवस्य मानवजीवने अवर्णनीयं महत्त्वं जायेत / (23-28) षड्-ऋतवः भारतदेशोऽयं नानारङ्गोपरञ्जितानां षणाम् ऋतूणां रंगभूमिः। मारे अयमेव देशः यत्र पड़ जातवः चक्रनेमिक्रमेण यथासमयं प्रतिमन रागामामिला च। यद्यपि ऋतूणां प्रवेश: नक्षत्रांनुविधायी तपाति साधारण IN Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 ] संस्कृत-प्रवेशिका [ षड्-ऋतवः षड्- ऋतवः ] परिशिष्ट : 9: निबन्ध-संग्रह [235 मासतयं मन्यते / तत्र संवत्सरानुसारेण प्रथमं वसन्तः ऋतुः समागण्छति / ततः परं क्रमेण ग्रीष्मः, वर्षाः, शरद्, हेमन्तः, शिशिरश्च आयान्ति / अत्र संक्षेपेण तेषां दिग्दर्शनं क्रियते 1. वसन्त:-अयम् ऋतुः साधारणतया चैत्र-वैशाखमासयोः मन्यते / शिशिरग्रीष्गामध्ये स्थितत्वाद् अस्मिन् ऋती नाधिकं शैत्यं न वा अधिकोष्णता बाधते / मन्दशीतलसुरभिः दक्षिणपवनः प्रवहति / यथोक्तम्इह मधुपबधूनां पीतमल्लीमधूनां, विलसति कमनीयः काकलीसम्प्रदायः / इह नटति सलील मञ्जरीवजुलस्य, प्रतिपदमुपविष्टा दक्षिणेनानि लेन / सर्वे शुष्कवृक्षाः सर्वाः पत्रहीनाः लताश्च नूतनपत्र-पुष्पफलादिभिः समलंकृताः भवन्ति / आनेषु नवकिसलया: मजयश्च समुद्भवन्ति / सरोवरेषु कमलानि, स्थलेषु च वकुलाशोकप्रभूतितरूणां लतानां च नानावर्णानि पुष्पाणि विकसन्ति / प्रतिवनं सहकारविटपेषु कोकिलाः मधुरं कूजन्ति, भ्रमराश्च सामोदं पुष्पाणां रसमास्वाद्य मञ्जु गुजन्ति / यथोक्तम् कालिदासेन कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तदनु षट्पदकोकिलकूजितम् / इति यथाक्रममाविरभून्मधुर्दुमवतीमवतीयं वनस्थलीम् / / . अपि - उष्णतायाः उत्कर्षः / अस्य ऋतोः द्विमासपरिमितता उष्णताधिक्यतन्त्रा / यतो अनयोः मासयोः (ज्येष्ठापाढयोः) सूर्यः प्रचण्डाभिः अत्यधिकं तपति, येन कोपाकुलस्य नुपस्य मुखमिव उच्चैगंगनं दुष्प्रेक्ष्यम्, गृहाद बहिनिर्गमन पश्चाग्नितर इच महत्कष्टकर भवति / उष्णः तीवच विरहिणी नि:श्वास इव दुःसहः वाय: प्रहति / वृक्ष-टता-सरित्-प्रतयः प्रोधिताना विरहातुराः प्रमदाः इव प्रतिदिनं दुष्यन्ति / जलस्थाने प्रायः मृगमरीचिकाः प्रतिभान्ति किन्तु इदानीमपि समुद्रः प्रभूतजलपूर्ण एवं गर्जति / ययोक्तम् -"शोषितसरसि निदाचे नितरामेवोवतः निन्धुः।" कृपणस्य घनतृष्णेव पिपासा अत्यधिक वर्धते / स्नानं प्रीतिजनक भवति / आतपबहुलापि छाया तरुपादमूलं न त्यजति / तरुछायासु विधामः सुखकरः मवति / यथोक्तं कालिदासेन सुभगमलिलावगाहाः पाटलसंसर्ग-सुरभिवनवाताः / प्रच्छायमुलभनिद्रा दिवसा: परिणामरमणीयाः / / अपि च--- तप्ता मही विरहिणामिव चित्तवृत्तिस्तृष्णाध्वगेषु कृपणेष्विव वृद्धिमेति / सूर्यः करदहति दुर्वचनैः खलो नु छाया सतीय न विमुञ्चति पारमूलम् / / स्वेदः अजनं प्रवहति, शरीरे शिथिलता च आयाति / कार्येषु मनः स्थिरं न भवति / विद्युयजनानि अन्यानि वा व्यजनानि जनाः अहनियां सेवन्ते / शीतलचन्द्रकिरणोज्ज्वला रात्रिः रम्या आमोदकरी च भवति / तस्मात् जनाः बहिः शेरते / केचन जीवाः तापाधिक्यात् म्रियन्ते / नागरिका: ग्रामीणाः वा जलाय राजमार्ग स्थितेषु जलकूपेषु कलहायन्ते / धर्मानुरागिणः प्रपामण्डपादः व्यवस्था कुर्वन्ति / निशा कुसतां, दिनानि च दीर्घतामुपयान्ति / कष्ट्रबहुलोऽपि अयं ग्रीष्मतुः अनेकदृष्टिभिः कल्याणकरी मन्यते / यतः प्रभूततापात् शरीरस्थाः विकारा: रोमकूपमागेंण स्वेदेन सह बहिः निस्सरन्ति / हानिकारकाः कीटाणवो विनश्यन्ति / पृथिव्याः उर्वरताशक्तिश्च वर्धते / 3. वर्षाः-ग्रीष्माभितप्तानां सर्वेषां सुखप्रदोऽयम् ऋतुः सामान्यतः ग्रीष्मानन्तरं श्रावण-भाद्रपदमासयोः मन्यते / इदानी जोन परिपूर्णा पृथिवीमधिलम्बमानाः श्याममेघाः नभसि परिदृश्यन्ते / कदाचिद् एते केवलं गर्जन्ति, कदाचिच्च वर्षन्ति / कदाचित् मुसलधारावृष्टिः, कदाचित् जलसीकरसिश्चनं, कदाचित् करका-पातः / सर्वे जलाशयाः, कुल्याः, कूपाः, नद्यः जलाप्लाविताः भवन्ति / यत्र कुत्रापि दुष्टिः निपतति तत्र सर्वत्र जल नयनाभिरामोहरीतिमा वा दृष्टिगोचरतो याति / कृषिप्रधाने भारतदेशे कृषकाः विशेष रूपेण हृष्यन्ति / ते दोषागि कति, बीजानि बपन्ति च / स्वल्पेनैव कालेन पृथिवी शस्थवश्मागमा मायने / 400 नवपलाश-पलाशवनं पुरः स्फुटपराग-परागतपङ्कजम् / मृदुलतान्त-लतान्तमलोकयत्त सुरभि सुरभि सुमनोभरैः / / जरेषु चेतनेषु च सर्वत्र नवनवोल्लासाः, अपूर्वो मधुरिमा मादकता च अनुभूयन्ते। कुसुमायुधप्रियदूतक: वसन्तकालोऽयं मधुमय: मधुमासोऽपि कथ्यते, यतः पुष्पावचूलोऽयं समयः / यथोक्तं हरविजय काव्ये 'बलिवजस्थानशनवतान्तः मानोगशापावधिरङ्गनानाम् / अर्थकदानाङ्गमदानुकूल: पुष्पावचूल: समयो जजम्भे // किंबहुना, प्रकृती सर्वत्र अनुपम सौन्दर्य समुल्लसति। प्रकृतिः वसन्ततॊः राज्ञी, पृथिवी च इन्द्रपुरसदुशी राजधानी। प्रतीयते यत् प्रकृतिराज्ञी चित्रविचित्रः विविधः पत्रपुष्पादिमयैः अलंकरणः विभूषिता वसन्तराजम् आवर्जयितुं यतते / एभिरेव हेतुभिः वसन्तः 'ऋतुराजः' व्यपदिश्यते / अस्य सर्वातिशायि सौन्दर्य नवीन: प्राचीनः सर्वैरपि कविभिः सविस्तरं वणितम् / वैज्ञानिकदृष्ट्या अपि अयम् ऋतुः महत्वपूर्णः, शरीराङ्गपोषकः, आमोदकरः, स्फूर्तिदायकः, उत्साहवर्धकश्च / 2. ग्रीष्मः-ग्रीष्मप्रधानदेशोऽयम् / यथा इंग्लैण्डदेशे प्रतिवर्षम् अष्ट-नवमासपर्यन्तं त्यस्योद्रेकः तथैव भारतदेशस्थ अधिकांशप्रदेशेषु सताष्टमासपर्यन्तम् Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 [ संस्कृत-प्रवेशिका [ षड्-ऋतवः त्रीणि राष्ट्रियपवाणि] परिशिष्ट : 9 : निबन्ध-संग्रह [277 पिङ्गलाभामः इन्द्रगोपकाः संचरन्ति / जलाशयेषु मण्डका: टरटरायन्ते / विद्यत युवतिचित्तमिव क्षणं स्फुरति / उन्मदाः मयूरा: मेघगर्जनं धुत्या इतस्ततः नृत्यन्ति / मेघाच्छन्ने गभसि बलाकाः उड्डीयन्ते। सुरेन्द्र पापोऽपि यदा कदा उदेति / यत्र तत्र दोलाविलासः संदृश्यते / वृक्षषु चातका. 'पीकहाँ' (क्वास्ति प्रियः; प्रियो मेधः ) इति मेषजलार्थ रटन्ति / इत्थं सर्वत्र संगीतोत्सवः इव प्रचलति / कि बहुना, सर्वत्र रम्पाणि दृश्यानि चेतांसि हरन्ति / वृष्ट्या अनेकहानयः अपि भवन्ति / यथा-प्रभूतवर्षणेन गंगादय: नमः आप्लवेन भीषणं दृश्यम् उपस्थापयन्ति / प्रायः सर्वे मार्गाः पहिलाः अवरुद्धाश्च भवन्ति / महती धन-धान्यहानिः भवति / जनाः पशवश्च नियन्ते / मृण्मया: गृहाः धराशायिनः जायन्ते / अनेके हानिकारकाः कीटादयः उत्पद्यन्ते / जठराग्निः पाचन क्रियायां निष्क्रिया इव भवति / इत्थं वृष्ट्या यद्यपि अनेकहानयाः भवन्ति तथापि अयम् ऋतुः प्राणिनां जीवनाय अमृतोपमो यतः नानाविधानि शस्यानि उद्भवन्ति / प्राचीनसाहित्ये वैदिकैः ऋषिभिरपि अस्याः महत्वम् उद्घोषितम् / 4. शरद्-अयम् ऋतु: वर्षानन्तरं धन काल मुग्रं गाढतमस उत्थाय आश्विनकार्तिकमासयोः आगच्छति / शरद् गुलपयोधरश्रीः शुद्धाम्बरा मयोढेव शोभते / शुद्धाम्बरे नवनीतनिभः चन्द्रः, तक्रसमा ज्योत्स्ना, क्षीरनीकाशा आशाः (विशः) विलसन्ति / पृथिवी अपडूताम्, नद्यः स्वच्छताम, पास्यानि परिणामरम्यता चौपयान्ति / हंसाः मानसरोवराद् आगत्य मयूरध्वनि परुषीकृश्य च मधुरं निस्वनन्ति / परिमलवाहिनः सप्तच्छद-कल्हारवाताः मन्थरं वान्ति / विमलकुमुदावदाता: तारकादयः विद्योतन्ते। ऊष्मा अधिकतरं बाधते / किंबहुना, शारदीयाः वासराः केषां चेतांसि न समाकर्षन्ति / घननिर्मुक्ततया अतिशुभैः चन्द्रिकिरण नक्षत्र-ग्रहै: क्रौञ्च-हंस-सप्तच्छद-कुमुदपुण्डरीक-काशकुसुमपरागैश्च दिङमण्डल धवलितं भवति / जलाशयानां जलं निर्मलं मधुरं च भवति / 5. हेमन्त:-अयम् ऋतुः शरदनन्तरं मार्गशीर्ष ( भाग्रहायण ) पौषमासयो: मन्यते / अस्मिन् श्राती रजनी क्रमशः वर्धते / दिवसश्च कृशता याति / सर्वत्र शीतः वायुः प्रसरति येन सर्वे प्राणिन: शीतज्वरातराः इव पेन्ते तथा शीतेन कम्पमानाः जनाः सद्यः कूर्मवत् स्वानि अङ्गानि निजे शरीरे एवं उपसंहां काङ्क्षन्ति / अस्मिन् ऋतौ पाचन क्रिया समीचीना भवति येन स्वास्थ्यलाभोऽपि जायते / 6. शिशिर:-अयम् ऋतुः हेमन्तानन्तरं सामान्येन भाष-फाल्गुनमासयोः मन्यते। इदानीं शैत्यं तत्सहचरीव रात्रिरपि पूर्ण वर्धते / शीताव भीताः इव दिवसाः संकुचन्ति, रविश्च मन्दकरो भवति / वलिः प्रियः भवति जलं ... पानिष्टम् / बलवन्तोऽपि जनाः शिशिरात् कम्पन्ते / तुषारः निपतति / जनाः नितराम् अङ्गार सेवन्ते उष्ण वस्त्रं च धारयन्ति / गृहस्य द्वाराणि प्रायः पिहितानि भवन्ति / सूर्य अस्तंगते, निःस्वकुटुम्बः पङ्कजलीला समुदतहत / जठराग्निः अतिप्रदीप्तो भवति / जनाः दूतं कार्याणि समाप्य अचिरं स्वगृहाय पायाः इव घावन्ति / अतएव अयम् ऋतु: 'शिशिर' इति कथ्यते / निर्धनाः, दुर्बलाः, पशवश्य शीतादिताः नियन्ते तथापि अयमपि ऋतुः स्वास्थ्यदृष्टया बहुलाभप्रदः / किंबहुना, प्राणिनां कृते ऋतबः प्रकृति प्रदत्तमेकम् अपूर्व वरदानम् इति बोध्यम् / (29-31) त्रीणि राष्ट्रियपर्वाणि राष्ट्रस्यैतिहासिकघटनासूचकानि कानिचन राष्ट्यिपर्वाणि भवन्ति / भारतवर्षेऽपि एवंविधानि पीणि पर्वाणि प्रचलन्ति-१. स्वतन्त्रता दिवसः, 2. गणतन्त्रदिवसः, 3. गान्धिजयन्तिश्च / एतानि इतिहासस्य प्रोज्ज्वलरत्नानि / एतानि प्रतिवर्ष महता उस्माहेन, हर्षेण समारोहेण च समस्तदेशे समायोज्यन्ते / एतानि अस्माकं राजनीती जीवनधारायां च नवीनप्रेरणा: नबोल्लासान् च वितम्वन्ति / साम्प्रतं सर्वे भारतीयाः देशनेतृणां महापुरुषाणां तुमुलजयध्वनिमुच्चारयन्तः तत्प्रदर्शितमार्ग परिशीलयन्तः ध्वजोत्तोलनं देश रक्षार्थ प्रतिशादिकं च कुर्वन्ति / अत्र तेषां त्रयाणां क्रमेण दिग्दर्शनं क्रियते 1. स्वतन्त्रतादिवसोत्सवः-१९४७ ईसवीयस्य अगस्तमासस्य पञ्चदयातारिकायो (निशीथे चतुर्दशतारिकाविगमे पञ्चदशतारिकाप्रारम्भे) चिरकालात् पराधीना: भारतवासिनः आङ्गलशासकानां शासनपाशात् मुक्ताः / चतुर्दशतारिकायां राको स्वतन्त्रतालाभाय समुत्सुकैः नागरिकैः प्रातरुत्याय अग्रिमदिवसायोजनस्य विपूलानि साधननि एकत्रीकृतानि / स्वतन्त्रताप्राप्तिकाले ( द्वादशवादने / तुमुलशंखध्वनिभिः विविधवाद्यैश्च मांगलिकसमारोहः समपद्यत / 'जय भारतमाता', 'वन्दे मातरम्, 'जय महात्मागान्धिः' प्रभृतिभिः घोषः गगममण्डले व्याप्तमभवत् / प्रातः यत्र तत्र सर्वत्र प्रभात प्रदर्शनानि (प्रभातफेरी), राष्ट्रियध्वजोत्तोलनानि, देशापितजीवनेम्पः पुण्यश्लोकेभ्यः (पाहीद) श्रद्धाञ्जलिप्रदानानि, 'जनगणमन' इति राष्ट्रियगीतप्रसारणानि, मिष्टान्न वितरणानि, देशभक्ताना भाषणानि प आयोजितानि / सज्जीकृतद्वाराणां गान्धिद्वार-राजेन्द्रद्वार-अमाहवारसुभाषद्वार-भारतमाताद्वारप्रभृतीनि नामानि लिखितानि अधुण्यन्त / सायं पाये जनिकसभासु प्रमुखनायकैः भाषणानि विहितानि / यम तम गम का, आम्रपल्लवानां मालावत् तोरणद्वाराणि नानासनिgurial, HINNEL Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्रीकृष्णः ] परिशिष्ट : 9 निबन्ध-संग्रह ताभ्यामेव च विविधान्यान्दोलनानन्तरम् अभूतपूर्वा सफलतामपि ' अवाप्नोत् / एतदीयं सत्याहिंसादर्शनमध्येतुं वैदेशिकाः अत्र आगच्छन्ति / अस्य ईश्वरे महती निष्ठा आसीत् किन्तु सत्यमेव ईश्वरम् अमन्यतमः। एतेन अहिंसा महाशक्तिरूपेण समुपासिता, यदने प्रचुर शास्त्रास्त्रादिभिः सुसम्पन्नाः अपि वैदेशिका: स्वशासन सञ्चालयितुम् असमर्थाः, चिरं स्थातुं नाशक्नुवन् / विश्वेतिहासे नवीमोऽयम् अनुभवः पद बलवन्तोऽपि निर्बलैः सत्याहिंसाबलेनैव पराभूताः / अद्यापि देशोऽस्माकं तामेव नीति तटस्थतानाम्ना अनुसरति / तस्मात् तत्सम्मानाय तज्जयन्त्युत्सवः राष्ट्रियपर्वरूपेण महता समारोहेग समस्ते देशे संपाद्यते / अस्मिन् दिने गान्धिसाहित्यस्य, तज्जीवनसंदेशस्य, तदादर्शपरम्पराणां च मनन, प्रचारः, तदनुपदं समाचरितुं संकल्पाश्च क्रियन्ते। एतेषु विष्वपि पर्वसु सार्वजनिक-राष्ट्रियावकाशो भवति समस्ते भारते / अपराधिना कारावासदण्डावधौ न्यूनता उद्घोष्यते / तस्मिस्तस्मिन् क्षेत्र उत्कर्षाधायक कार्यकर्तृभ्यो विशिष्टपुरुषेभ्यः 'पद्मश्री' प्रभृतयः सम्मानोपाधयो वितीर्यन्ते / 278 ] संस्कृत-प्रवेशिका [ श्रीणि राष्ट्रिय पर्वाणि एव दृष्टिगोचराः अभवन् / तदानीं देशव्यापिनि दर्शनीये महति उत्सवे सर्वेषाम् युगपत् हर्षोल्लासमिथितः अदृष्टपूर्वः स्वाभाविक: अन्तःप्रेरितः अदम्योत्साहः सहयोगश्च पासीत् / किंबहुना पवित्रतमस्य पर्वणः अनुरूप सर्व सम्पादितमभवत् / भारतवर्षस्येतिहासे इदं स्वतन्त्रताभिधानं प्रधानपर्व भारतीयागां कृते गर्वस्य गौरवस्य चास्पदमिति / परतन्त्रतायां स्वर्गोपममपि सुखं नगण्यम्, स्वातन्त्र्ये तु अल्पमपि सुखं अमृतोपममिति निर्विवादम् / एतदर्थस्य देशभक्त': प्रारब्धस्प अहिंसान्दोलनस्य प्रयोगः अद्य चरितार्वः अभवत् / तदा प्रभृति इदं पर्व प्रतिवर्ष तस्यामेव तारिकाया देशे सर्वत्र तथैव समायोज्यते / अत्रावसरे देशसंरक्षणाय सरपि ययाकथमपि संरक्षणाय सकल्पाः क्रियन्ते। पुण्यश्लोकाना गावाः गीयन्ते / वर्षाभ्यन्तरम् अतीते इतिहासे भाषणेषु विहंगम दृष्टिरपि दीयते / 2. गणतन्त्रदिवसोत्सवः-जनवरीमासस्य षड्विंशतितारिकायां गणतन्त्रदिवसोत्सवः समारुह्यते / यद्यपि 1947 ईसवीये अगस्तमासस्य पञ्चदशतारिकायामेव स्वतन्त्रताप्राप्तिरभवत् तथापि जनताप्रतिनिधिनिमित-संविधानानुसार गणतन्त्रवासनपढ़तेः स्थापना 1950 ईसवीये जनवरीमासस्य पविशतितारिकायां समपद्यत / एवं च देवाशासनस्य समग्रो भारः अस्माकं शिरसि, ग्यपतत्, देशश्चार्य प्रभुतासम्पन्न गणतन्त्रः उद्घोषितः / ततः प्रभूति अयमपि स्वतन्त्रतादिवस-समकक्ष एव द्वितीय पर्व प्राचलत् / अस्यास्तिथेरपरमपि माहात्म्यं यत् अस्यामेव तारिकाया 1930 ईसवीये लाहोरनगरस्य रावीतटे कांग्रेससभायाः अधिवेशनम् अभवत् यस्मिन् श्रीजवाहरलालनेहरुमहोदयस्य नेतृत्वे अनेकः देशभपतैः स्वदेशं वैदेशिकशासनात् मोचयितुं शपथः गृहीतः, प्रतिज्ञातं च यत् आस्वतन्त्रतालाभात् वयं क्षणमपि न विधमिध्यामः / ततश्च महात्मागान्धि-सुभाषचन्द्रबोसप्रभृतिभिः प्रारब्धं स्वतन्त्रतान्दोलनं तेषाम् अविरतप्रयासैः अस्मिन्नेव दिवसे सफलमभवत् / ततः प्रभृति प्रतिवर्षम् उत्सवोऽयं पूर्णेन उत्साहेन च भारतवासिभिः विधीयते / अस्मिन्नपि उत्सवे राष्ट्रीयध्वजोत्तोलनादिकं तत्सर्वमपि संपाद्यते यत् पूर्वोक्ते पर्वणि विस्तरेण वणितमस्ति / राजधान्यां (दिल्लीनगरे) एतद्देश षटकप्रदेशानी ( States ) सर्वेषामपि विशेषदृश्यानि ( झांकियाँ ) प्रदश्यन्ते / शतहनीध्वनिभिः (तोप दागकर ) देशप्रतीकभूतस्य राष्ट्रपतेः समादरोऽपि ( सलामी ) अनुष्ठीयते। 3. गान्धिजयन्त्युत्सवः- भारतीयेतिहासे स्वतन्त्रताप्राप्त्यर्थ बहुभिः देशभक्तैः विविधरूपेण प्रयतितम् / तेषु मान्धिमहोदयस्य मूर्धन्य स्थानम् / सः 'बापू, 'राष्ट्रपिता' इत्यादिभिरनेक: आदरसूचकैः शब्दैः सदा देशवासिभिः ध्यपदिश्यते / अस्य महाभागस्य जन्म 1869 ईशवीवस्य अक्टूबरमासस्य द्वि-तारिकायाम् अभवत् / बस्य वैशिष्टय यत् सत्याहिंसारूपाभ्याम् एव अस्त्राभ्यां स्वतन्त्रतासंग्रामः प्रारब्धः। (32) भगवान् श्रीकृष्णः यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत / अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् / / इति वचनमनुसृत्य पञ्चसहस्रवर्षपूर्व ( द्वापरान्ते-कलेरादी) देशेऽस्मिन् भगवान् श्रीकृष्णः अवातरत् / तदनुसारं भाद्रपदमाशि कृष्णपक्षे अष्टम्यां तियो लीलापुरुषोत्तमस्य भगवतः श्रीकृष्णस्य प्रादुर्भावः अभवत् / तदा प्रभूत्येव अद्यापि जनाः तस्य जन्मोत्सवं 'कृष्णजन्माष्टमी' पर्वरूपेण सोत्साहं विदति / कंसस्य स्वसा देवकी तस्य माता, वसुदेवश्च पिता आस्ताम् / अनेनन महाभारतयुद्धकाले रणभूमी अर्जुनाय सकलशास्त्र साररूपा भगवद्गीता उपदिष्टा। दशावतारेषु भगवान श्रीकृष्णः पूर्णकलावतारः मन्यते / कंसस्य स्वसुः वसुदेवेन सह विवाहावसरे एका आकाशवाणी अभवत् गत् तस्याः अष्टमगर्भादुत्पनी बालकः कंसस्य घातको भविष्यति / तदा अस्गाः भविष्यवाण्याः भीतः कसः सप्त नवजात शिशुन निर्दयं हतवान् / अष्टमः लिए श्रीकृष्णः कठोरकारागारे प्रादुरभवत् / तदानीं कंसभीती स्वो पितरो विजोग सोऽवदत् -'हे तात ! गोकुले नन्दगृहे यशोदागर्भात अधुनैव सम्भूता नाममा समान मां च तत्र स्थापय / ' देवप्रभावात् पित्रा वसुदेवेन तथैव कृतम्। बालाका बटनां न कोऽपि मजानात् / तथाभूते कारागारजगेयः गोपाल Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 ] संस्कृत-प्रवेशिका [ भगवान महावीरः नौकाविहारः] परिशिष्ट : 9: निबन्ध-संग्रह [ 289 अविलम्ब तत्र प्राप्य तामेव कन्यका योगमायां मारयितुं प्रवृत्तः किन्तु सा गगनमण्डले उत्सर्य व्याहरत् - 'रे मूठ ! किमर्थं मां मारयितुं प्रयत्नं करोषि, क्यविजातः तवान्तकृत् / ' श्रीकृष्ण: नन्दवेश्मनि यशोदापायर्वे शुक्लपक्षे चन्द्र इव प्रतिदिनम् अवर्धत / यथा यथा सः अवर्धत तथा तथा राजा कंसोऽपि व्याकुलः अभवत् / सः विविधाः बाल्यलीलाः कुर्वन् सर्वेषां विशेषतः पित्रोः परमहर्षम् अजनयत् / अस्य नाम 'कृष्णः' 'श्याम'इच अभवत् कृष्णवर्णत्वात् / बाल्यकाले एव सर्वासु विधाम अस्त्रशस्त्रादिकलामु च निपुणतां प्राप्नोत् / मुरलीवादने तु विशेषतः सिद्धहस्त आसीत् / तस्य मुरलीध्वनि धुत्वा सर्वे मन्त्रमुग्धाः अभवन् / बाल्यकाले सः प्रत्यहं गोपः सह यमुनामूले धेनूः अचारयत् / गोपीनां मनस्तु मदनमोहने श्रीकृष्ण आसक्तम् आमीत् / 'राधा' तस्य प्रिया 'सुदामा' च सहपाठिमित्रमासीत् / श्रीकृष्ण गोपीना भाण्डेभ्यः नवनीतं चोरयित्वा प्रचुरम् अस्वादयत्। सः बाल्यावस्थायामेव स्वविनाशाय कसेन प्रेषिताना पूतना-वकासुरप्रभृतीनां राक्षसानां बधमकरोत् / अन्ततश्च सः कंसमपि हतवान् / सः महानीतिज्ञः अपि आसीत् / महाभारते सारथिरूपेण अर्जुनस्य साहाय्यमकरोत् / फलतः सर्वेऽपि कौरवाः विनाशिताः पाण्डवाश्च विजयिनोऽभवन् / अन्त तश्च स्वराजधानी द्वारकापुरीम् असो अलस्कृतवान् / एवं धर्मसंस्थापमाय मानवरूपेण लीला समाप्य स: लीलापुरुषोत्तमः श्रीकृष्णः शताधिकविंशतितमे व मानवशरीरम् अत्यजत् / ततः प्रभृत्येव देशेऽस्मिन् कृष्णभक्त': प्रचारः समभवत् / / तप्रभावादेव मनुष्ययोनि प्राप्य निर्वाण मलभत / अतएव सिंहः अस्य तीर्थङ्करस्य लक्ष्म मन्यते / श्वेताम्बरपरम्परानुसारं तस्य परिणयः यथाकालं समपद्यत / एकस्तमयोऽपि अजायत / किन्तु दिगम्बरमतेन तथा स्वीक्रियते। यशादिपु निर्मकपशूनां हिमा विलोक्य तस्य हृदयं दयाद्रमभवत् / अतः सः एकदा त्रिशत्वर्षावस्थायां पितरी गृहं च परित्यज्य वनमगच्छत् / तत्र ऋजकूलायाः नद्यारतीरे तपश्चरन् केवल. जानं (सकलपदार्थसाक्षात्कारि ज्ञानम् ) अलभत / केवल शानलाभानन्तरं भगवान् महावीरः षट्पष्टिदिनं यावन् योग्यशिष्यमलभमानः अनुपदिशन् केवलं हरत् / पश्चात् मगधदेशे राजगहे विपुलाचलपर्वते गौतमनामकम् (भगवान् गौतमयुद्धादग्यः, ब्राह्मणोऽयं शिष्यः ) एक योग्यशिध्यमुपलभ्य तमुपदिशन् धर्मचक्रप्रवर्तनमकरोत् / ततः परं त्रिंशत्वर्ष देश-देशान्तरेषु परिभ्रमन् अहिंसा-सत्यअचौर्य-ब्रह्मचर्य-अपरिपहरूपं जैनधर्ममृपादिशत् / यते यदेतेषामुपदेशेन सिंह व्याघ्रादयः हिंसाः अपि जन्तवः हिसावृत्तिमत्यजन् / अन्ततश्च विहारप्रान्ते 'पावापुर' नाम्नि स्थाने कातिककाणचतुर्दश्यां रात्री निर्वाणम् ( मुक्तिम् ) आप्नोत् / एतदुपलक्ष्यीकृत्यैव वीरनिर्वाणनामकः संवत्सरः जैनसमाजे प्राचलत् / जैनधर्मावलम्बिनः ततः प्रभूति अस्यां तिथी दीपावली'-समरोह प्रतिवर्ष सोत्साह सम्पादयति / तदनुगामिनि दिवसे अमावस्यायां प्रातः अर्चनादिमहोत्सवं कुर्वन्ति / इत्यं जनानामन्तिमस्तीथंकरः महावीरः कर्मजित्, सर्वज्ञः, सर्वदर्शी च मन्यते / बहुविधमुपसर्ग हसन् असहत / इत्ययमुपसर्ग विजेतृ-जितेन्द्रिय-जिम्- प्रभृतिपदैः व्यपदिश्यते / यद्यपि नायं भगवतोऽवतारः तथापि मानवः सन्नपि स्वगुणः भगवत् पदम् अन्ते प्राप्नोत् / अवाप्येतत्प्रवर्तितः धार्मिक सम्प्रदायः देशेऽस्मिन् अतिमहति समाजे प्रचलति / सत्यम् अहिंसावीतरागता चास्यमुस्योपायशाः / (33) भगवान् महावीरः जैनधर्मस्य सुप्रतिष्ठापकः भगवान् महावीर आसीत् / अयं वीर-अतिवीर. सन्मति-वर्धमान-प्रभृतिसार्थकनामभिरपि प्रसिद्धः / इतः पूर्व त्रयोविंशतिः जैनतीर्थ दूराः समभवन् / जैनबर्मस्व प्रथमप्रवर्तकः आदिनाथः, अयं तु अन्तिमः संस्थापकः / एतस्य महानुभावस्प प्रादुर्भावः विहार प्रान्ते कुण्डलपुरनगरे ई०पू०६०० तमे वर्षे चैत्र शुक्ले प्रयोदश्याम भवत् / किञ्चिदकालानन्तरं बौद्धधर्मसंस्थापको भगवान् बुद्धः समजायत / भगवतो महावीरस्य माता 'त्रिशला' पिता, च राजा सिद्धार्थः' आस्ताम् / इदमनावधेयं यदयं सिद्धार्थः तन्नामका भगवतो युद्धादन्यः / भगवतो समकाले महान्ति आश्चर्याणि दृष्टानि / जन्मकालादेव अयं दिव्यज्ञानवान् महार बांश्वासीत् / एकदा बाल्यकाले अन्यवालकैः सह क्रीडन्तं महावीर कोऽपि सर्पः आक्राम्यत् किन्तु निर्भयः सः तदाक्रमणं विफलमकरोत् / पुरा आदिनाथ मुखारविन्दात् स्वविषयकं भावितीर्थरत्वं श्रुत्वा वृप्तः सः नरकादियातनामुपभुज्य सिंहयोनिमापन्नोऽपि अहिंसा दिखतभपालयत् / अनन्तरं च (34) नौका-विहारः व्यस्तेऽस्मिन् मानवजीवने मनोर कशानं परमावश्यकम् / तस्य बहूनि साधनानि भवितुं शक्नुवन्ति / तेषु नौकाविहारोऽपि एकम् / एकदा अहं शरत्पूर्णिमाया सप्तभिः मित्र सह नौकाविहाराय गंगातटम् अगच्छम् / दामी गङ्गायाः दृश्यमतिरमणीयमासीत् / ययानिश्चय नौकाविहारकामा. वयं नौकामेकाम् बारूढवन्तः / नौका अधिजलं प्रवहन्ती शनैः शनैः प्राचलत् / शीतल-मन्द-सुगन्धसमीरः नः चेतांसि आनन्ययत् / उत्तिष्ठत्सु पतत्सु चवळजरूतरङ्गेषु विलुठत पनबिम्ब आणेन विलीनं क्षणेन प्रकटितं भवति स्म / ईदयां मनोहारि वृषय कस्म रातमा) बेतः नाह्लादयति / अस्मास्वन्यतमः संगीतमसोमिया सर .140 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 ] संस्कृत-प्रवेशिका [ वाष्पयानयात्रा सैनिक शिक्षा ] परिशिष्ट : 9 : निबन्ध-संग्रह [ 286 तद्गीतं श्रुत्वा अन्यैरपि सहयोगिभिः यथारूचि गीतानि अगीयन्त / मया अध्येक गीतं श्रावितम् / अन्ते नाविकेनापि एकं पीतं लोकभाषायां गीतं येन सर्वेऽपि मुग्धाः समजायन्त / एवं परस्परं विनोदयन्तः, उपहसन्तः, सहानीतानि भोज्यवस्तूनि बास्वादयन्तः वयं गंगायाः मध्यभागं प्राप्ताः / ततश्च एवमेव पट्टापट्टम् संचरन्तः विविधानि मनोहराणि तीरदृश्यानि अपश्याम् / यथा-गंगाजले प्रतिविम्वितानि विशालभवनानि, भव्यदेवमंदिरशिखराणि, तटसोपानप्रभृतीनि / अपि च मध्ये मध्ये वयमपि नावं चालयन्तः स्नान्तीनां नगररमणीनां, बालकानां, एनामितरेषां च जले निमज्जनोन्मज्जनसंतरणशोभाम् अवलोकयन्तः परमप्रमादमनुभवन्तश्च अतिदूरमागताः / तदानीं वेगेन वायुः प्रावहत् / वायोः वेगाव नौका इतस्ततः दोलायमाना जाता। सर्वेऽपि चिन्ताकूला: संजाताः। परमोश्वरकृपया नाविकस्य नैपुण्येन च नौका सकुशलं तीरमागता। तदनु नौकायाः अवतीर्य विनोदस्वभाव नाविकं निश्चिताद् किञ्चिदधिक द्रव्यं अदय / पश्चात् नौकाविहारस्य अभूतपूर्वमानन्दमनुभूय परस्परं संलपन्तः वयं स्वं स्वं गृहं प्रत्यागताः। इव पर्यवेक्षिताः / मार्ग मित्रैः सह वार्तालापसुखमनुभवन् तानि तानि च प्राकृतिकदृष्यानि पश्वन्, अश्यन् पिवंश्च सुखेन यात्रामकरवम् / इत्थं वाष्पयानमपि मध्ये अनेकानि विरामस्थानानि परित्यजद यत्र कुत्र किश्चित्क्षणानां कृते विरमत् च दिल्लीनगरं प्राप्नोत् / दिल्ली प्राप्य वाप्पयानान्तरे संप्रविष्टाः वयम् / तस्मिन्नपि प्रचलति दिष्ट्या यात्रिपु एको गायकः आसीत् यः मनोहारीणि गीतानि श्रावितवान् / अनन्तरं च प्रचलितं कमपि राजनीतिविषयमधिकृत्य रोचकः वार्तालापः प्रारब्धः येन समयः अविदित इव सुखेन बापितः / तदैव चिटिकानिरीक्षकोऽपि प्रकोष्ठाभयन्त रमागत्य चिटिकाः निरीक्षितुमारब्धवान् / केचन यात्रिण: चिटिका-विहीनाः यथाविधि दण्डिताः / एवं क्रमेण वयं यथासमयं नैनीताल प्राप्ताः / प्रकोष्ठाद् यावद निस्सरामि तावद् पत्रप्रेषक मित्रमासाद्य तेनैव सह तस्य स्थानमगच्छम् / स्थानीयानि मनोहराणि प्राकृतिकदृश्यानि पश्यतो मम मनः न तृप्तिमवाप्नोद, तथापि कांश्चित् दिवसान् तत्र अतिवाह्य अवकाशावसाने अनिच्छन्नपि पुनः वाराणसी प्रत्यागतः / ( 35 ) वाष्पयान-यात्रा ( रेल-यात्रा) सा मधुरा स्मृतिः अद्यापि नूतना एव / जूनमासस्य प्रथमतारिका आसीत् बदा अहं कस्यचित् मित्रस्य एक पत्र नैनीतालमागन्तुं प्राप्तावान् / परीक्षां समाष्य यात्रायाः विचारः मया निर्धारितः / यात्रासमुत्सुकोऽहं सर्वाणि आवश्यकवस्तूनि संचित्य भारवाहकेन सह सायं पञ्चवादनवेलायो रेलप्रचत्वरे (प्लेटफार्म ) प्रामः / तत्र वाष्पयानं प्रतीक्षमाणानां जनानां महान् संमः आसीत् / तदानीं विश्वविद्यालयावकाशे मम कानिचित् मित्राणि अपि सम्मिलितानि अभवन् / तेषामेकतमेन मित्रेण चिटिकाविक्रयालयम् (टिकिटघर ) उपगम्ब द्वितीय श्रेण्याः चिटिकाः (टिकिटें ) आनीताः / निश्चितसमयात् पञ्चदशक्षणानन्तरं धूममुद्वमत् महान्तं निनादं च कुर्वत् वाष्पयानं समागतम्, प्रचत्वरपावें च संलग्नम् / जनाकीर्णस्यापि वाष्पयानस्य अवतरता जनानां प्रचुरतया मचिरेणैव केचन प्रकोष्ठाः रिक्ताः अभवन् / अहं स्वमित्रैः सह एकप्रकोष्ठाभ्यन्तरं गवाक्षोपकण्ठं समुचितं स्थानं लब्धवान् / तत्र आसनपट्टे ( वर्ष) विष्टरं (विस्तर ) विस्तारितवान् / किश्चित्क्षणानन्तरं गच्छति वापयाने बहिः वर्षारम्भोऽपि (36) सैनिकशिक्षा कस्यापि स्वतन्त्र राष्ट्रस्य स्वतन्त्रतारक्षणाय सैनिकशिक्षायाः आवश्यकता न केनापि अपह्नोतुं शक्यते / सेना राष्ट्रम्, शासकम्, प्रजाश्च आपद्भ्यः रक्षति / प्राचीन भारतीयशास्त्रेषु विविधाः शक्तयः मन्यन्ते-'प्रभावोत्साहमंत्रजाः'। तत्र प्रथमायाः दे अङ्ग-कोशो बलं (सैन्यम् ) च। प्राचीनकालादेव राज्यस्य सप्ता५ (स्वाम्यमात्यसुहृत्कोषराष्ट्रदुर्गबलानि '-अमरकोषः) सेनायाः प्रमुख स्थानम् / तस्याः आवश्यकता न केवलं युद्धाय अपितु बलबुद्धयोः विकासाय, उद्योगाध्यवसाययोः संरक्षणाय, उत्साहवर्धनाय, हीनताभावनोत्सारणाय सुखशान्ति. मयजीवनयापनाय च भवति / वर्तमानकाले यदा सर्वेऽपि दुःखदैन्यभयाक्रान्ताः, समराशंकाकुलिताः अबलोक्यन्ते सैन्यशक्तिवर्धनमेव समाधानम् / सैन्यशक्तिवर्धनाय सैनिकशिक्षायाः विपुलराजकोशस्य च आवश्यकता भवति / संसारे सर्वत्र मत्स्यन्यायस्य साम्राज्य परिदृश्यते। सत्त्वेष्वधिक: ऊनं शास्ति / समृद्ध राष्ट्रम अर्थकृशं प्रभवति / अतः अद्ध संरक्षणकामाः सर्वे देशाः अस्त्रशस्त्रनिर्माणे सैनिकशिक्षाप्रदाने कोशवर्धने च अनवरतं प्रयतन्ते। भारतस्योपरि तु चीन-पाकिस्तानप्रभृतयो देशाः सततः बुभुक्षितकवत् करदृष्टिं निक्षिपन्ति / तस्मात् स्वतन्त्रतारक्षणाय मातामा पt h सैनिकशिक्षा अनिवार्या आपतिता। विष्टया भारत देशनायकाः गया. प्राचलत् तदा बहिः स्थिताः पाश्र्ववर्तिनः पादपाः अपि विपरीत दिशायां धावन्तः Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 ] संस्कृत-प्रवेशिका [ समाचारपत्रम् स्सन्ति / पञ्चवर्षीययोजनासु मैनिकशिक्षापरिवर्धनाय अस्त्रशस्त्रनिर्माणाय च विशेषस्वानं प्रदत्तम् / अद्य भगवन् महावीर-बुद्ध-गान्धिप्रभृतिभिरुपदिष्टा अहिंसानीतिः सदा एवं चरितार्या भविष्यति यदा वयं शक्तिसम्पनः भवेम / अन्यथा दुर्बलानां कृते सा हास्याय एव / अहिंसा सिद्धान्ततः रम्या भवेन्नाम किन्तु व्यवहारे दौर्वस्यप्रकाशिकैव / युद्ध विना न शक्तिनिर्णयः, शक्ति विना न रक्षा संभवति, रक्षा दिना सुखशान्तिममृद्धिविकासासम्भवः / तस्मात् अनिच्छतोऽपि.यद्धम् अपरिहार्य / ज्ञानविज्ञान-सभ्यतानां चरमोत्कर्षेऽपि पाक्तिप्राधान्यम् अक्षुण्णम् / साम्प्रतं तस्यैव बेशस्य डिण्डिमघोषः ( बोलवाला ) यः सैनिकदृष्ट्या सुसम्पन्नः समृद्धाश्चास्ति / शक्त्यभावे अहिंसावादः पाक्तिहीनतातिरोधानाय कवचमात्रम् / निःशस्त्रीकरणस्य विश्वशान्तिस्थापनायाश्च प्रस्तावौ तस्यैव देशस्य शोभेते यः सैन्यसमृद्धिसम्पन्नः, न चे दुर्बलस्य / यथोक्तम् शक्तिः सबलता यत्र, क्षमा तत्रैव शोमते / सा निर्बले तु हास्याय, विषहीनभुजङ्गवत्.।। सैनिकशिक्षा केवलं पुस्तकीयशिक्षा नास्ति अपितु सैनिकशिक्षायाम् अनु. शासनम् शारीरिकसंघटनम्, देशभक्तिः, शत्रषु प्रतिशोधभावना, देशार्य प्राणपरित्यागसंकल्पः, बुद्धिमत्ता, जागरूकता इत्यादयः सर्वेऽपि अपेक्ष्यते / राष्ट्र तावच्छरीरम्, सुसैनिकास्तु करचरणकल्पावयवाः इति / समाचारपत्रम् ] परिशिष्ट : 9 : निबन्ध-संग्रह [285 समाचारपत्रं प्रचलितमासीत् / भारतवर्षे तु मुगलसाम्राज्यकाले हस्तलिखितं 'संवादपत्र' केवलं शासनाधिकारिषु प्रयुक्तमासीत् / पश्चाद् आगतेषु गौराङ्गषु बत्र 1740 खिण्टाग्दे 'इण्डिया-गजट' मामनम् आग लभाषापत्रं सर्वप्रथम प्रारभत / हिन्दीभाषायाः प्रथम पत्रं 'समाचारदर्पण' नाम्ना प्रकाशित मभवत् / शनैः दानः शिक्षाप्रसारेण सहैव पत्र-पत्रिकायां तत्वाठकानां च संख्या द्रुतमपर्वत / इदानीं समस्तभूमण्डल समाचारपत्रः परित्याप्तम् / न कापि भाषा यस्यां समाचारपत्राभावः। समाचारपत्राणि बहुविधानि / यथा-प्रकाशनकालभेदेन-दैनिक-अर्धदैनिकसाप्ताहिक-अर्धसाप्ताहिक-पाक्षिक-मासिक-त्रैमासिक-पाण्मासिक-बधिकाणिः विषय. भेदेन-राजनीति-धर्म-दर्शन-वाणि ज्या दिगोचराणि; भाषाभेदेन-हिन्दी-अंग्रेजीबंगला-प्रभृतिसंबन्धीनि अपि समाचारपत्राणि भिद्यन्ते / पाक्षिक-मासिक-त्रैमासिका. दिपत्राणां केचन साप्ताहिकपत्राणां च परिगणना न समाचारपत्रेषु किन्तु पत्रिका ( Magazines ) क्रियते, तेषु समाचारापेक्षया लेखबाहुल्यात् / समाचारपत्रेषु समाचारस्य प्राधान्यं भवति / यद्यपि तत्रापि विविधविषयकाः विचाराः, निबन्धाः, विज्ञापनादयश्च प्रकाश्यन्ते तथापि तेषां प्रणाप्रदः समाचार एव / / समाचारपत्राणामनेके लाभास्सन्ति / यथा-१. यत्र कुत्रापि स्थितो मानवः संसारस्य सर्वविधान् नवीनतमसमाचारान् विजानाति / 2. सेवावृत्ति-विवाहव्यवसायादिविषयक: विज्ञापन: पाठकाः लाभान्विताः भवन्ति / 3. समाचारपत्राणि जनता-समाज-शासकादीनां परस्परविचारविनिमयसाधनानि भवन्ति / समाचारपत्रद्वारा समस्यानां समाधानम्, मनोगतभावानां प्रकाशनम्, अधिकारिध्यानाकर्षणं च संपद्यते / 4. राष्ट्रियभावनायाः उद्बोधनम्, सभ्यतायाः संस्कृततेश्च प्रचारः, साहित्यिक-समीक्षा, परीक्षाफलादिघोषणा, लोकमताकलनम्, जनमत निर्माणम्, जनमनोरञ्जनम्, सूचनाप्रसारः एवंविधानि बहूनि कार्याणि समाचारपत्र सम्यक् प्रसाध्यन्ते / समाचारपत्राणां यथोपरिणिताः लाभाः तथा हानबोऽपि बहविधाः / तद्यथा१. मिथ्यासमाचाराणां प्रसारणम, 2. सत्यसंगोपनम, 3. जघन्यस्वार्थसाधनम्, 4. अश्लील विज्ञापनादिभिः समाजस्य अधःपातनम्, 5. देशहितप्रतिकूलसमाचारप्रकाशनम्, 6. पक्षपातपूर्ण समालोचनादिभिः पारस्परिकविद्वेषवर्द्धनम्, 7. कुत्सितवातावरणनिम णिम् इत्यादयः / वस्तुतस्तु नेमे समाचारपत्राणां दोषाः किन्तु तदधिकारि-शासनादिजनिताः / दोषपरिमार्जनाय सम्पादकः संवाददातृभिः अधिकारिभिश्च निदोषः निर्भीकैः सत्यप्रणयिभिश्च भाष्यम्, येन समाचारपत्र तथ्यमेव प्रकाशयेत्, न तु विपरीतम् / (37) समाचारपत्रम् अब समाचारपत्रं मानवाय तथैवावश्यकं यथा तस्य जीवनयापनाय अन्नं वस्त्रं च / 'मनुष्यः सामाजिकः प्राणी' इति सः समाजस्य देशविदेशयोश्च सर्वविधं वृत्तम् अवगन्तुं मदैव स्वभावतः समुत्सुको भवति / मानवस्य इमो प्रवृत्ति पूरयितुमेव / समाचारपत्रस्य जन्म अभवत् / सर्वत्र प्रतिक्षणं घटमानाना वृत्तानां विस्तृतरूपेण शानं समाचारपत्रादेव द्वाग् भवितुमर्हति / अधुना य: संसारस्योदन्तान् न जानाति सः मूर्खः कूपमण्डूको वा मन्यते। संसारः सर्वक्षेत्रेषु क्षिप्रं परिवर्तते / अतः यो नवीनतमघटना ( Latest developments)-अनभिज्ञातः सः जीवनयात्रायां समीहितां सफलतां नाधिगच्छति / एवम् अद्य मानवजीवने सत्यति दूरदर्शनयन्त्र समाचारपत्राणां महती उपयोगिता अस्ति। समाचारपत्राणामितिहासः नातिप्राचीनः / सर्वप्रथमं यूरोपमहादेशे इटलीदेशस्य 'वेनिस'-नगरे षोडशशताब्यां समाचारपत्र प्रादुरभवत् / ततः परं अमनी-इंग्लैण्डप्रभृतिदेशेषु अस्य प्रसारीऽभवत् / धूयते यत् चीनदेशे एकादा शताब्द्यामेव Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 ] संस्कृत-प्रवेशिका पुस्तकस्य आत्मकथा कथमपि कस्यापि हातिकरं तय्यं न प्रकाशयेत् / शासकैः समाचारपत्रेभ्यः पूर्णस्वतन्त्रता प्रदेया, नम्मागें बाधाश्च न कथमपि उपस्थापनीयाः / तदैव समाजस्य, देशस्य, संसारस्य च कल्याणं सम्पत्स्यते / (38) पुस्तकस्य आत्मकथा एकदा पुस्तकाध्ययनानन्तरं यदाहं चिन्तामग्नः आसम् तदा तत् जोर्णपुस्तक माम् अवदत्-सौम्य ! कि मे जीर्णाङ्गानि ध्यायति भवान् / नेदं मे प्राक्तन रूपम् यतो अहमपि पुरा पुरोवर्तिसजातीय-नूतनपुस्तकतुल्यमेव आसम् किन्तु दैवदुर्विपाकाद इदानीम् एतादृशीम् अस्वथां नीतः / अतः चिन्तयामि ते हि मे दिवसाः गताः' इति / तथापि ममैवाय महिमा येन जडा: अपि उद्बुद्धाः भवन्ति, निर्धनाः अपि धनिनो भवन्ति, दीनाः अपि सुखिनः संजायन्ते / यतः मदध्ययनात् विधालाभो भवति / विद्यया च विनयादिप्राप्तिः ययोक्तम अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् / नवस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः / / विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् / पात्रत्वाद् धनमाप्नोति धनाद्धर्मः ततः सुखम् // सहृदयोऽसि चेन् भृगु ममेतिहासम् सर्वप्रथमं मम पूर्वजस्वरूपं गुरूच्चारणानूच्चारणात्मकम् आसीत् / न कोऽपि भोतिका आधारः आसीत्, स्मृतिरेव केवलं साधनम् / इयम् अव्यक्ता अवस्था / किश्चितकालानन्तरं मम पूर्वजानाम् आधिभौतिकगात्राणि शिलामृत्तिका-तरुत्वापादिरूपेण अभिव्यक्तिमापन्नानि। पश्चात् तेषां कलेवराणि तालदलभूर्जत्वङ्मयानि च संवृत्तानि / अद्यापि तानि रूपाणि क्वचित् क्वचिदपि उपलभ्यन्ते यानि दृष्ट्वा मनः नितान्तमानन्दमनुभवति / पत्रात्मकम् इदानीन्तने ममरूपं अनोहरतरम् / अधिदैविक शरीरं तु सदैव सरस्वतीरूपेण अपूज्यत / तत्र भारते सर्वप्रथम मभोपरि ब्राह्मी लिपिरूपेण वर्णानां प्रयोगः प्रारभत / पश्चात् क्रमेण देवनागरी लिपिः विकसिता अभवद् यस्याः इदानीं बाहुल्येन प्रचारः अवलोक्यते / यथा मानवशरीरम् अवस्थाभेदेन परिवर्तते तथैव ममेदं शरीरमपि कालक्रमेण परिवर्तितम्, इदानीं जीणं च सजातम् / इदानीं मम आत्मकथा विशेषतः शृणु-इतः शतं वर्षाणि प्राक् एकदा मुम्बईमुद्रणालये कागदपत्राणामुपरि देवनागरी लिपी सुपरिष्कृतं वर्तमान पुस्तकाकारं मे शरीरं विनिर्मितम् / ततो निर्गत्य अहं पुस्तकविक्रेतुः आपणिकस्य हस्तं प्रापितम्। सः माम् अन्यः भ्रातृभिः सह काष्ठमण्डूषायामास्थापयत् / गते बहुतिये काले कश्चन, भद्रपुरुषः मा सहर्षम् अवलोकयन् स्वगृहम् अनयत् / कालपरिणामस्य दुरिहार्यवाद इदानीं मम ईदुशी दशा सम्पन्ना / मन्ये अत्रैव आयुःशेषं यापयामि।