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________________ 260 ] संस्कृत-प्रवेशिका [ अनुबन्ध (4) गुण--अ ( अ ) और ए ओ ( एङ्) की गुण संज्ञा होती है।' गुण इन् ( इ उ ऋ द) के स्थान में ही होते हैं अर्थात् इ० ए, उ>ओ, >अ, (9) बृद्धि-आ (आव) और ऐ औ ( ऐच ) की वृद्धि संज्ञा होती है।' वृद्धि हक (इ. ऋर) के स्थान में ही होती है। अर्थात् ऐ, उ>ओ, ऋ>आ, ह>आ। (10) सम्प्रसारण-यण (म् व् र ल्) के स्थान में क्रमशः इक् (इ उ ऋख) होना सम्प्रसारण कहलाता है। यह 'इको यणचि' सूत्र के विपरीत कार्य करता है / जैसे-वच् + क्त्वा-उपस्था। (11) टि-अचों (स्वरों) के मध्य में जो अन्त्य अच् वह है आद्य अवयव जिस समुदाय का उसे टि संज्ञा होती है। अर्थात् किसी शब्द के अन्तिम अच को परवर्ती व्यजन के साथ ( यदि हो तो) टि कहते हैं। जैसे-'मनस्' में अन्तिम अच् है 'अ' जो आदि अवयव है 'अस्' इस समुदाय का / अतः 'अस्' की टि संज्ञा होगी। (ग) अनुबन्ध ('इद' संज्ञक वर्ण): पाणिनि व्याकरण में कई इत् संज्ञक वर्गों का प्रयोग मिलता है। इन 'इद' संज्ञक वर्गों को अनुबन्ध कहते हैं। संस्कृत व्याकरण के नियमों से अनभिज्ञ पाठक सोचते हैं कि जब किसी वर्ण- का लोप (इ संज्ञा) करना ही है तो उसका मावेश या आगम क्यों किया जाता है ? वास्तव में उनका अपना प्रयोजन है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो गुण, वृद्धि आदि की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। उदाहरणार्थ प्रत्ययों के संदर्भ में कुछ अनुबन्धों का प्रभाव निम्न है(अ) तिङन्त और कृदन्त में (1) अचो णिति (अ७-२-११५)-अजन्त शब्द के अन्तिम अच् को वृद्धि होती है यदि बाद में बित् या णित् प्रत्यय हो। जैसे-भू+ पञ्-भावः, +ण्वुलकारकः / कुम्भ + + अण्=कुम्भकारः। (2) अत उपधायाः (अ०७-२-११६)-उपधा के अकार को वृद्धि (आ) होती है यदि बाद में जित् या णित् प्रत्यय हो। जैसे-यज+पयागः, सत्य+व+णिनि-सत्यवादी। 1. अदेङ् गुणः / अ० 112 ! 2. वृद्धिरादैन् / 101 / 11 / 3. इग्यणः सम्प्रसारणम् / अ० 114 4. मेषोऽन्त्यादि टि / 101 / 1 / 63 / अनुबन्ध ] परिशिष्ट : 7 प्रकृति-प्रत्यय [261 (3) सार्वधातुकार्धधातुकयोः (अ०७-३-८४)-सार्वधातुक' तथा पार्षधातुक' प्रत्यय परे रहते अन्स्य इक् को गुण होता है। जैसे-जि+सप् +ति-जयति ( सार्वधातुक); कृ+तव्यत् कर्त्तव्यम् / ( आर्धधातुक ) / (4) पुगन्तलघूपधस्य च (अ०७-३-४६)-पुगन्त ( पुक् आगम जिसके अन्त में हो) और लघूपध (जिसकी उपधा लघु हो) के मन के इक् को गुण होता है सार्वधातुक और आर्धधातुक प्रत्यय परे रहते। जैसे-हि+पुक्+णि+ तिलेपयति, लिख्+घञ्-लेखः / ये गुण और वृद्धि इक्के स्थान में ही होते है(इको गुणवृद्धी / अ०१-१-३)। नोट-क्किङति च (म०१-१-५) गित्, कित् और छित प्रत्ययों के परे रहते ( सार्वधातुक और आर्धधातुक परे रहने पर भी) इक को गुण और वृद्धि कार्य नहीं होते। जि+स्नु जिष्णु, जि+क्त्वा-जित्वा, जागृ + तस् ( अपित होने से * तस को डिन्तवत् माना जाता है-सार्वधातुकमपित् / अ.१-२-४)जागृतः। (अ) तद्धित में: (१)तद्धितेष्वचामादेः-(अ०७-२-११७)-जित या णित् तद्धित-प्रत्यय परे रहते शब्द के प्रथम स्वर (अच् ) को वृद्धि होती है। जैसे-दशरथ+इ= दाशरथिः, अश्वपति + अण्प्राश्वपतम् / (2) किति च (अ०७-२-११०)-"कित्' तद्धित प्रत्यय परे रहते शब्द के प्रथम स्वर को वृद्धि हो / जैसे-कुन्ति + ठक् कौन्तेयः, गङ्गा+उक् गाङ्गं यः / 1. सार्वधातुक तथा आर्धधातुक-तिङ् शिव सार्वधातुकम् / आर्धधातुकं शेषः / (अ० 3 / 4 / 113-114) धातु से विहित ति। तिपादि 18 प्रत्यय) तपा शिद (शकार इव * संज्ञक हो) प्रत्ययों की सार्वधातुक संज्ञा होती है। तिक और शिव को छोड़कर शेष धातु से विहित तृच्, तुमुन् आदि प्रत्ययों की आर्धधातुक संज्ञा होती है। लिट् तथा आशिषि लिङ्ग में तिपादि की भी आर्धधातुक संज्ञा होती है। (लिट् च / लिङाशिषि / अ०३।४।११५-११९)। लुटु, खट्, लुछ और लङ् लकार में धातु और प्रत्यय के बीच क्रमशः ताग, स्य, सिन् और स्प' विकरण आने से इन्हें भी आर्धधातुक माना जाता। शेष 4 लकार (लट्, लोट्, ला, विधिलिङ) शुद्ध सार्वधातुकामात लकारों में ही गण सम्बन्धी समादि विकरण जुड़ते हैं, मामानुस / 2. वही।
SR No.035322
Book TitleSanskrit Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherTara Book Agency
Publication Year2003
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size98 MB
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