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________________ संस्कृत-प्रवेशिका [ संज्ञायें संज्ञायें। परिशिष्ट : 7 : प्रकृति-प्रत्यय [251 जैसे-नर+सु-सरः, अस् + तिप्-अस्ति / (2) कृत् प्रत्यय-धात्वर्थ से कुछ विशेष अर्थ प्रकट करने के लिए धातु के बाद में जुड़ने वाले विभक्ति। तिङ्) से इतर तब्यत्, अनीयर, ण्वुल, तृच् आदि प्रत्थय विशेषों को कृत्-प्रत्यय कहते हैं। जैसे ---कृ+तव्यत् = कर्तव्यम् / (3) तद्धित-प्रत्यय'--प्रातिपदिकार्य से कुछ विशेष अर्थ प्रकट करने के लिए प्रातिपदिक के बाद में जुड़ने वाले विभक्ति (सुप् ) प्रल्पयों से इतर अग्, मतुम् आदि प्रत्यय विशेषों को तद्धित-प्रत्यय कहते हैं। जैसे-वसुदेव + अण्वासुदेवः / (4) स्त्री-प्रत्यय'-पुंलिङ्ग शब्दों से स्त्रीलिङ्ग पाद बनाने के लिए पुंल्लिङ्ग शब्दों के बाद में जुड़ने वाले टाप, डीप आदि प्रत्यय विशेगों को स्त्री-प्रत्यय कहते हैं। जैसे-अज + टापअना। (5) सनादि-प्रत्यय -धातु के बाद में जुड़ने वाले 'सन्' आदि तथा प्रातिपदिक के बाद में जुड़ने वाले 'क्यच' आदि प्रत्ययविशेषों को सनादि प्रत्यय या धात्ववयव (धातु+अवयव ) कहते हैं। ये प्रत्यय संख्या में 12 हैं / ये जिसमें जुड़े होते हैं उनकी धातु संज्ञा होती है और तब उन के रूप सभी लकारों में चलते हैं / ऐसी धातुओं को सेनाद्यन्त धातु या प्रत्ययान्त धातु कहते हैं। जैसे-गम् + सन् + तिम्-जिगमिषति; पुत्र+क्यच् +ति-सुत्रीयति / कारक), तद्धितप्रत्ययान्त ( दशरथ + इ =दाशरथि ) तवा समास (राजपुरुष ) की भी प्रातिपदिक संज्ञा होती है। प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुप' विभक्तियाँ जुड़ती हैं / रूपी-प्रत्यय और तद्धित-प्रत्यय भी प्रातिपदिक में ही जुड़ते हैं। (3) पद-जिन शब्दों के अन्त में 'सुप' प्रत्यय (सु से मुप्त क 21 प्रत्यय) अथवा 'ति' प्रत्यय (लिप् से महिइ तक 18 प्रत्यय ) जुड़े हों उन्हें पद कहते हैं। प्रातिपदिकों में सुपु तथा धातुओं में तिङ् प्रत्यय जुड़ते हैं। पद बनने पर ही उनका वाक्यों में प्रयोग होता है।' (4) अव्यय-जिनके रूपों में कोई परिवर्तन नहीं होता अर्थात् जो सदा सभी प्रकार के प्रयोगों में एक समान रहते हैं वे अव्यय कहलाते हैं। जैसे-यथा, कृत्वा आदि / (ख) संज्ञायें: आचार्य पाणिनि ने अष्टाध्यायी में व्याकरण सम्बन्धी नियमों को समझाने के लिए तथा किसी विशेष अर्थ को प्रकट करने के लिए कुछ पारिभाषिक शब्दों ( Technical terms) का प्रयोग किया है जिन्हें उन्होंने 'संशा' शब्द से कहा है। कुछ प्रमुख संज्ञाओं का सामान्य परिचय निम्न है (1) धात् -क्रिया वाचक भू, गम्, इत्यादि को धातु कहते हैं / ' धातु संज्ञा होने पर 'ति' और 'कृत्' प्रत्यय होते हैं। (5) उपसर्ग-क्रिया के योग में प्र, परा आदि उपसर्ग कहलाते हैं।" ये क्रियापद के प्रारम्भ में जोड़े जाते हैं। जब ये क्रियापद के साथ संयुक्त होते हैं तभी उपसर्ग कहलाते हैं। इसके क्रिया पद के साथ जुड़ने पर धात्वर्थ या तो बदल जाता है या उसमें कुछ वैशिष्टय आ जाता है। जैसे-प्र+हप्रहारः। मा+ह-आहारः। (6) सवर्ण-जिन वर्णों का उच्चारण स्थान और आभ्यन्तर प्रयत्न समान होता है वे परस्पर सवर्ण कहलाते हैं। जैसे-क् ख् ग् घ् परस्पर सवर्ण हैं क्योंकि इनका उच्चारण स्थान कण्ठ तथा आभ्यन्तर प्रयत्न स्पर्श है। वर्गीय वर्ण मापस में सवर्ण होते हैं। और ल की भी परस्पर सवर्ण संज्ञा होती है। (7) उपधा-अन्तिम वर्ण से ठीक पूर्ववर्ती वर्ण को उपधा कहते हैं। जैसे - 'गम्' ग् +अ+म) के अन्तिम वर्णम् से ठीक पूर्ववर्ती वर्ण 'अ' वर्ण / (2) प्रातिपदिक-धातु (भ. पठ् आदि) प्रत्यय (क्त्वा आदि), तमा प्रत्यपान्त (हरिषु. करोषि आदि ) को छोड़कर सार्थक शब्द समुदाय (संजा, सर्वनाम, विशेषण आदि) को प्रातिपदिक कहते हैं। कुत् प्रत्ययान्त (+ बुल 1. देखें पृ०३२। 2. देखें पृ०४७। 3. देखें पृ० 58 / 4. देखें पृ० 249 / 5. भूवादयो धातवः / अ०१३।। 6. अर्थवश्वानुरप्रत्ययः प्रातिपादिकम् / अ० 1945 | देखें पृ. 65 / / 1. कृत्तद्धिततमासाश्च / अ० 1 / 2 / 46 / 2. सुप्तिङन्तं पदम् / अ० 1 / 4 / 14 / . अपई न प्रयुजीत / 4. अव्ययीभावश्च / अ० 111140, देखें पृ०६२। 5. देखें, पृ०६२। 6. तुल्यास्यप्रयत्न सवर्णम् / अ० 11 / 9, देखें पृ०१४ / 7. ऋलवर्णपोमिथः सावण्यं वाच्यम् / वा.(अ०११९)। 8. अनोऽशात् पूर्व उपधा / अ० 11164 //
SR No.035322
Book TitleSanskrit Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherTara Book Agency
Publication Year2003
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size98 MB
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