________________ संस्कृत-प्रवेशिका [7 : कारक और विभक्ति है। जैसे-जटाभिस्तापसः (जटाओं से तपस्वी ज्ञात होता है। यहाँ 'तापसत्व' तापस का प्रकार विशेषण है और तापस का ज्ञापक है 'जटा'); दण्डेन सन्यासी (दण्ड से सन्यासी लगता है)। 20. हेतौ-हेतु ( हेत्वयं = कारण अर्थ ) में [ हेतुवाचक शब्दों से तृतीया होती है। जैसे-दण्डेन घटः ( दण्डहेतुक घट = दण्ड घट का हेतु है); पुण्येन दृष्टो हरिः (पुण्य के कारण हरि के दर्शन हुए): धनं परिश्रमेण भवति (धम परिश्रम से प्राप्त होता ); बुद्धिः विद्यया वर्धते (बुद्धि विद्या से बढ़ती है)। विशेष के लिए 'षष्ठी हेतुप्रयोगे' द्रष्टव्य है। चतुर्थी विभक्ति ( Fourth case-ending) 21. कर्मणा यमभिप्रेति स सम्प्रदानम्-[ दान क्रिया के ] कर्म के द्वारा [कर्ता] जिसको अभिप्रेत ( सन्तुष्ट या सम्बन्धित ) करता है वह सम्प्रदान (सम्यक् प्रदीयते अस्मै तत् सम्प्रदानम् - जिसको पूरी तरह से दिया जाता है ऐसे देय द्रव्य का उद्देश्य सम्प्रदान ) कहा जाता है। सम्प्रदानसंशा होने पर अग्रिम मूत्र 'चतुर्थी सम्प्रदाने से उसमें चतुर्णी विभक्ति होती है। जैसे--विप्राय गो पदाति (ब्राह्मण को दान में गाय देता है। यहाँ का गोदान कर्म के द्वारा ब्राह्मण को सन्तुष्ट करना चाहता है)। ____ यदि सपा दान अर्थ नहीं होगा तो 'षष्ठी शेषे' सूत्र से षष्ठी विभक्ति होगी- रजकस्य वस्त्रं ददाति' (धोबी को धोने के लिए कपड़ा देता है)। 22. चतुर्थी सम्प्रदाने-सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसेबालकाय पुस्तकं ददाति ( लड़के को पुस्तक दान में देता है)। 23. रुच्यर्थानां प्रीयमाण:-रच्यर्थकों (प्रीति अर्थ वाली रुच् , स्वद् आदि धातुओं) के योग में] प्रीयमाण (प्रसन्न होने वाला) सम्प्रदान हो। जैसे-हरये रोचते भक्तिः (हरि को भक्ति अच्छी लगती है); मह्यम् अध्ययनं रोचते ( मुझे अध्ययन अच्छा लगता है); बालकाय मोदकाः रोचन्ते ( बालक को लड्डू अच्छे लगते हैं)। 24. धाररुत्तमर्णः-धारि (णिजन्त'' = कर्ज लेना या उधार लेना) धातु के योग में उत्तमर्ण (ऋण देने वाला साहूकार) सम्प्रदान होता है। जैसे-श्यामः यज्ञदत्ताय शतं धारयति ( श्याम ने यशदत्त से सौ रुपया उधार लिया है); त्वं मां सहस्रं धारयसि ( तुम मेरे सौ रुपये के ऋणी हो); भक्ताय धारयति वं हरिः (हरि भक्त के लिए मोक्ष के ऋणी हैं)। 25. क्रुधदुहेासूयार्थानां यं प्रति कोपः-धु (कोध करना), दुह (द्रोह मार करना), यं. (ईया करना) तथा असूब (बाह करना या ऐव चतुर्थी विभक्ति ] 1 : व्याकरण [75 निकालना) के अर्थ वाली धातुओं के योग में जिसके प्रति क्रोधादि किया जाता है, वह सम्प्रदान होता है। जैसे-हरये ऋध्यति ब्रह्मति ईष्यति असूयति वा (हरि के ऊपर क्रोध करता है, द्रोह करता है अथवा असूया करता है); खलाः सज्जनेभ्यः असूयन्ति ( दुष्ट सज्जनों से असूया करते हैं ) / विशेष---जब कुध और दह धातुयें सोपसर्ग होती है तब वहाँ कर्मसंज्ञा होती है-गुरुं खलः छात्रः संऋष्यति ( गुरु के प्रति दृष्ट छात्र क्रोध करता है); क्रूरमभिकुष्यति अधिग्रुह्यति वा (तर के प्रति क्रोध य. द्रोह करता है)। 26. तादध्ये चतर्थी वाच्या (वार्तिक)-तादर्थ्य (तस्मै कार्याय इदं तदर्थम् , तदर्थस्य भावः तादयम् = तदर्थ + ष्यम् ) में चतुर्थी जानना चाहिए; अर्थात जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य किया जाता है उस प्रयोजन में चतुर्थी होती है। जैसे-मुक्तये हरि भजति (भूक्ति के लिए हरि को भजता है); शिशुः मोदकाय रोदिति (बालक लड्डू के लिए रोता है); काव्यं यशसे ( काव्य यश के लिए); विद्या विवादाय धनं मदाय (विद्या विवाद के लिए और धन मद के लिए ) / 27. क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः-क्रियार्था-क्रिया (क्रिया अर्थः फलं यस्याः सा क्रिया सा क्रिया क्रियाक्रिया' अर्थात् जिस क्रिया का फल कोई क्रिया हो उस क्रिया को 'क्रियार्थाक्रिया' कहते हैं) जिसका उपपद (पदस्य समीपम् उपपदम् पद के समीप में जो रहता है उसे उपपद कहते है / यद्यपि क्रिया उपपद नहीं हो सकती है तथापि वाचक शब्द के द्वारा उसमें उपपदत्व माना गया है), है ऐसे स्थानी (पदनिवुस अधिकारी 'स्थानी' कहलाता है, तदनुसार अप्रयुज्यमान 'तुमुन्' प्रत्ययान्त पद की प्रकृतिभूत धातु ) के कर्म में चतुर्थी होती है, अर्थात् यदि 'तुमुन् प्रत्ययान्त धातु का प्रयोग परोक्ष रहे तो उसके कर्म में चतुर्थी होती है / जैसे-फलेभ्यो याति (= फलानि आनेतुं याति =फल लाने के लिए जाता है। यहाँ 'याति' किया 'क्रिया-क्रिया' या 'क्रिया फलक-क्रिया है क्योंकि 'गमन' क्रिया का प्रयोजन है 'फलों को लाना'। यह 'याति' क्रिया अप्रयुज्यमान 'आहतुम्' 'मा+ह + तुमुन्' पद के लिए उपपद है / अतएव स्थानी 'ह' धातु के कर्म 'फल' में द्वितीया न होकर चतुर्थी हुई); बनाय गाम् अमुञ्चत् ( वनं गन्तुं गाम् अमुञ्चत बन जाने के लिए गाय को छोड़ा); नमस्कुर्मो मृसिंहाय (=सिंहम् अनुकूलयितुं नमस्कुर्मः नृसिंह भगवान् को अनुकूल करने के लिए नमस्कार करते हैं ) / 28. तुमर्थाच भाववचनात्–'तुमुन्' अर्थवाची भाव-प्रत्ययान्त शब्दों से भी चतुर्थी होती है। अर्थात् 'तुमुन्' प्रत्यय के अर्थ को प्रकट करने के लिए उसी धातु (जिससे 'तुमुन्' प्रत्यय करना हो ) से बनी हुई भाववाचक संज्ञाओं में चतुर्षी होती है। जैसे—यागाय ( यज् + घञ्न्यागः ) याति (यष्टुं 'यज् + तुमुन्' याति यज्ञ क्रिया इय क्रियार्था, क्रिया क्रिया उथपदं यस्य सातत्य क्रियाषिपदस्य।