SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृत-प्रवेशिका [7 : कारक और विभक्ति करने के लिए जाता है); दानाय ( दातुम् ) धनमबर्जयति ( दान देने के लिए धन कमाता है); पठनाय (पठितुम् ) इच्छति ( पढ़ने की इच्छा रखता है)। 26. नमास्वस्तिस्वाहास्वधालवषड्योगाच-नमः ( नमस्कार ), स्वस्ति ( मंगल, कल्याण ), स्वाहा ( देवता को दाम), स्वधा (पितरों को वाम ), अलम् ( समर्थ, पर्याप्त ) और वषट् ( हवि का दान ) के योग से [ जिसे नमस्कार आदि किया जाए, उसमें ] चतुर्थी होती है। जैसे-हरये नमः ( हरि को नमस्कार); प्रजाभ्यः स्वस्ति (प्रजाओं का मंगल ); अग्नये स्वाहा (अग्नि देवता को दान); पितृभ्यः स्वधा (पितरों को दान ) दैत्येम्यो हरिरलम् ( दैत्यों के लिए हरि पर्याप्त हैं); इन्द्राय वषट् ( इन्द्र के लिए हवि का दान)। 'अलम्' यदि निषेध अर्थ में प्रयुक्त होगा तो तृतीया विभक्ति होगी-'अलं महीपाल तव श्रमेण (हे राजन् ! आप व्यर्थ श्रम न करें)। ___ 'उपपदविभक्तेः कारकविभक्तिबलीयसी' इस पूर्वोक्त नियम से 'मुनित्रयं नमस्कृत्य' में द्वितीया विभक्ति हुई है। पश्चमी विभक्ति ( Fifth case-ending ) 30. ध्रुवमपायेऽपादानम्-अपाय ( अप + अय् + घअपाय 3 विश्लेष या विभाग) होने पर ध्रुव ( अवधिभूत) अपादानसंज्ञक होता है। अर्थात् जिससे विभाग होता है वह (घुव) अपादान होता है। अपादान संज्ञा होने पर अग्रिम सूत्र 'अपादाने पञ्चमी' से पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे--वृक्षात् पत्रं पतति (वृक्ष से पत्र गिरता है। यहाँ 'वृक्ष' अवधिभूत है और उससे पत्र विभक्त हो रहा है; धावतोऽश्वात् पतति ( दौड़ते हुए घोड़े से गिरता है)। 11. अपादाने पञ्चमी-अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसेसः प्रासादात् अपतत् (वह महल से गिरा); ग्रामावायति सः (बह गांव से आता है)। 32. जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम् (वा.)-जुगुप्सा (घृणा), विराम (विरति) तथा प्रमाद (असावधानी) अर्थ वाली धातुओं का भी [ अपादान संज्ञा के रूप में ] परिगणन करना चाहिए; अर्थात् इन धातुओं के अर्थ वाली धातुओं के योग में जिससे जुगुप्सा आदि की जाये उसकी अपादान संज्ञा होती है। इसमें बुद्धि परिकल्पित विभाग का विधान किया गया है। जैसेपापाज्जुगुप्सते विरमति वा (पाप से घृणा करता है या विरक्त होता है); धर्माप्रमाद्यति (धर्म से प्रमाद करता है); स्वाधिकारात्प्रमत्तः (अपने अधिकार से प्रमत्त); सत्यान्न प्रमदितव्यम् (सत्य से प्रमाद नहीं करना चाहिए); स्वाध्यायान्मा प्रमदः ( स्वाध्याय से प्रमाद मत करो)। पञ्चमी विभक्ति] 1: व्याकरण [77 33. भीत्रार्थानां भयहेतुः-भयार्थक और प्राणार्थक धातुओं ('भी' तथा '' धातु के अर्थ वाली धातुओं) का योग होने पर भय का कारण अपादान होता है। वस्तुतः यहाँ बुद्धिकल्पित विभाग ही है। जैसे–चौराद् बिभेति (चोर से डरता है); लोकापवादाद भयम् (लोकनिन्दा से भय ); मार्जाराद् दुग्धं त्रातुमिच्छति (बिल्ली से दूध की रक्षा करना चाहता है); मां नरकपासात् रक्ष (नरक में गिरने से मेरी रक्षा करो)। भय-हेतु के न होने पर अपादान संज्ञा नहीं होगीअरण्ये बिभेति ( जंगल में डरता है; यहाँ जंगल से भय नहीं है अपितु जंगली जीवों से भय है जो इस वाक्य में नहीं है)। 4. बारणार्थानामीप्सितः-वारणार्थक (वारण प्रवृत्ति को रोकना) धातुओं के [प्रयोग होने पर ] ईप्सित की अपादान संशा होती है। अर्थात् जिससे किसी को वारण करना अभिलषित हो उसमें पञ्चमी होती है। जैसे—यवेभ्यो गां वारयति (जौ से गाय को रोकता है); पापानिवारयति मित्रम् ( मित्र को पाप से दूर करता है); अग्नेः बालकान् वारयति (आग से बालक को दूर करता है)। 35 अन्तधौं येनादर्शनमिच्छति-गोपन (= अन्तधि 'अन्तर् +या+कि'= व्यवधान) होने पर जिससे अदर्शन की इच्छा करता है वह अपादान होता है; अर्थात् जब कोई किसी से अपने को छिपाना चाहता है तो जिससे छिपाना चाहता है वह अपादानसंज्ञक होता है। जैसे--मातुनिलीयते कृष्णः (कृष्ण माता से छिपता है); अन्तर्धत्स्व रघुव्याघात् राक्षसेश्वर ! (हे राक्षसराज रावण ! तुम रघुरूपी व्याघ्र से अपने को छिपाओ)। 36. आख्यातोपयोगे-उपयोग ( उपयुज्यते फलाय इति उपयोगः जो निश्चित फल के लिए प्रयुक्त हो; परन्तु यहाँ यह शब्द नियमपूर्वक विद्याग्रहण में रूट है) में आख्याता (आ समन्ताद ख्याति वक्ति इति आख्याता गुरु, उपाध्याय) अपादानसंज्ञक होता है; अर्थात् जिससे नियमपूर्वक विद्या सीखी जाती है वह गुरु अपादान होता है। जैसे-उपाध्यायाद् अधीते ( उपाध्याय से पढ़ता है); अध्यापकात् संस्कृतं पठति (शिक्षक से संस्कृत पढ़ता है)। नियमपूर्वक विद्या न सीखने पर षष्ठी होगी--'नटस्य गाथां शृणोति' (नट की गाथा सुनता है)। 37. जनिकतेः प्रकृतिः-उत्पत्ति के कर्ता (जनेः उत्पत्त्याः कर्ता जानकर्ता तस्य जनिकर्तुः% जायमानस्य- उत्पत्ति का कर्ता वही होता है जो उत्पन्न होता है) की प्रकृति (हेतु) अपादान होती है; अर्थात् 'जनि' (पैदा होना) धातु के कर्ता का मूल कारण अपादान होता है / जैसे—ब्रह्मणः प्रजाः प्रजायन्ते (ब्रह्मा से प्रजायें उत्पन्न होती हैं ); गोमयात् वृश्चिको जायते ( गोबर से बिच्छू पैदा होता है );
SR No.035322
Book TitleSanskrit Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherTara Book Agency
Publication Year2003
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size98 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy