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________________ पुस्तकालयः ] परिशिष्ट : 9 : निबन्ध-संग्रह 271 270 ] संस्कृत-प्रवेशिका [स्कृत में अनुवाद वैज्ञानिक है / विदेशी विद्वान् भी इसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हैं। हमारा प्राचीन इतिहास, धर्म, साहित्य और संस्कृति इसी भाषा में सुरक्षित हैं। भार, कालिदास, भवभूति, बाण आदि महाकवियों ने इसी भापा में अपना अमूव साहित्य लिखा है। यद्यपि यह भाषा देखने में कठिन है परन्तु अभ्यास से सरल हो सकती है। यह ही एकमात्र ऐसी भाषा है जो समस्त देश को एकता के सूत्र में बाँध सकती है। यह देश की एक अनुपम और दुर्लभ निधि है। अतः इसकी रक्षा के लिए तथा इसके प्रचार के लिए सतत प्रयत्न आवश्यक है। (14) गोखले सच्चे देश भक्त थे / वे भारतवर्ष से बहुत प्रेम करते थे। उनका जीवन बतिसरल और स्वार्थ से रहित था। वे न तो धन की परवाह करते थे और न याति की। अपने समय में उन्होंने वक्ता के रूप में भी याति प्राप्त की थी। वे कोवल शब्दों में विश्वास नहीं करते थे अपितु जो कहते थे वही करते की ये। उनकी नि:स्वार्थ देशसेवा अनुकरणीय है। (15) धर्मसाधना के लिए तथा प्रसन्नता के लिए स्वस्थ रहना आवश्यक है। अच्छा स्वास्थ्य तभी संभव है जब हम शारीरिक रूप से तथा मानसिक रूप से स्वस्थ हों। शारीरिक स्वस्थता के लिए पौष्टिक और संतुलित भोजन के साथ स्वच्छता और व्यायाम भी आवश्यक है। हवा और पानी की शुद्धता के साथ निवास स्थान भी साफ सुथरा होना चाहिए / मानसिक स्वस्थता के लिए सद्विचार और सदाचार के साथ तनावमुक्त रहना आवश्यक है / जहाँ स्वास्थ्य है वहीं सुख और शान्ति है / (16) झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में हुआ था। इसका वाल्यकाल का नाम था 'मनू'। इसके पति थे झांसी के राजा गंगाधर राव / पुष और पति की मृत्यु के बाद उसने झांसी का शासन. संभाल लिया। धार्मिक क्रियाओं के साथ उसने युद्धाभ्यास भी किया। पश्चात् समय आने पर देशभक्ति से धाकृष्ट होकर उसने अंग्रेजों के साथ युद्ध किया। स्वतन्त्रता-संग्राम में उसकी वीरता की शत्रुओं ने भी प्रशंसा की। भारतीय नारी की इस वीरता ते देश का मस्तक सदा ऊंचा रहेगा। (15) 'अहिंसा' सब धर्मों का सार है। अहिंसा के बिना जीवन की स्थिरता संभव नहीं है / यदि हम चाहते हैं कि दूसरे लोग हमें कष्ट न दें, हमारा अपकार न करें तो हमें भी ऐसा ही आचरण दूसरों के साथ करना चाहिए। अहिंसा के अभाव में सर्वत्र अराजकता का प्रसार हो जायेगा। विश्वशान्ति और विश्वबन्धु व तभी संभव है जब सर्वत्र अहिंसा का साम्राज्य हो। हिंसा का अर्थ केवल प्राणों का विनाश करना नहीं है अपितु दूसरों के दिल को किसी भी प्रकार कष्ट पहुँचाना भी हिंसा है। अहिंसा का अर्थ है सबसे प्रेमभाव रखना। (18) मर्यादा पुरुषोत्तम राम राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनकी पत्नी का नाम था सीता। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न उनके छोटे भाई थे। उनमें परस्पर प्रगाढ प्रेमभाव था। पिता के. पचन की रक्षा के निमित्त उन्होंने चौदह वर्ष का वनवास सहर्ष स्वीकार किया। सीता और लक्ष्मण ने राम का अनुगमन किया। पश्चात् सीता का अपहरण करने वाले लंका के राजा रावण का वध करके तथा विभीषण को वहाँ का राजा बना के राम अयोध्या के राजा बने / उनके राज्य में सभी लोग प्रसंन्न थे। अत: आज रामराज्य को याद किया जाता है। (19) विद्यार्थी ही देश के भावी कर्णधार हैं। यदि वे अपने कर्तव्य का सही उङ्ग से पालन नहीं करेंगे तो न देश की, न समाज की और न स्वयं की उन्नति होगी। वे ही आगे चलकर अध्यापक, न्यायाधीश, शासक आदि विविध पदों को संभालेंगे। विद्यार्थियों के निम्न सात कर्तव्य ग्रन्थों में बतलाये गए हैंविद्या का उपार्जन, समय का सदुपयोग, अनुशासन, गुरुभक्ति, शारीरिक शत्तिसंचय, नियमितता और सदाचार / अतः विद्यार्थियों को अपना ध्यान इन कर्तव्यों की ओर ही लगाना चाहिए, अन्यत्र नहीं। (20) याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा-'मैं संन्यास लेना चाहता हूँ और तुम्हें कुछ देना चाहता हूँ। मैत्रेयी ने कहा-'यदि यह समस्त पृथ्वी धन से भर जाये तो क्या मैं अमर हो जाऊँगी'? याज्ञवलय ने उत्तर दिया-'नहीं, धन से अमरत्व की कोई आशा नहीं'। तब मैत्रेयी ने कहा-'जिसको लेकर मैं अमर नहीं हो सकती उसका मैं क्या करूंगी? जिससे अमरत्व प्राप्त हो ऐसा ज्ञान मुझे दीजिए'। याज्ञवल्क्य ने कहा-'पुत्र, धन, पशु आदि प्राणियों के हित के लिए नहीं होते हैं। -इसलिए आत्मा को देखो, सुनो और उसीका चिन्तन करो। आत्मा के देखने, सुनने और चिन्तन-मनन करने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है। परिशिष्ट::निबन्ध-संग्रह (21 , पुस्तकालयः यत्र विविधानां पुस्तकानां संग्रहो (आलयः ) भवति सः 'पुस्तकालयः' ग्रन्थालयो वा कथ्यते। वर्तमानयुगे पुस्तकामयः शिक्षायाः अभिन्नमनमस्ति / शिक्षकाः बद कार्य कुर्वन्ति पुस्तकालयोऽपि तदेव प्रकारान्तरेण करोति / सभयतोऽपि ज्ञानसंवर्धनं भवति / अतएव प्रत्येकशिक्षासंस्थायां पुस्तकालयः सः महामना अवश्यमेव दृश्यते। वस्तुतः अब पुस्तकालयः विक्षितसमाजास जीवनाचार |
SR No.035322
Book TitleSanskrit Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherTara Book Agency
Publication Year2003
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size98 MB
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