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________________ 268 ] संकृत-प्रवेशिका [ संस्कृत में अनुवाद (5) रामायण संस्कृत-साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण महाकाव्य है। इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि है। इसमें मर्यादापुरुषोत्तम राम के जीवन चरित्र का उज्जवल वर्णन है। संस्कृत का सर्वप्रथम काव्य-ग्रन्थ होने से इसे आदिकाव्य कहा जाता है। इसमें भारतीय संस्कृति का सुन्दरतम रूप वर्णित है। काव्य की दृष्टि से यह बहुत सुन्दर काव्य है। इसकी भाषा प्रारम्भ से अन्त तक परिष्कृत और प्रसादगुण से युक्त है। कविता सरल, सरस और मनोहर है। अलंकारों का सुन्दर सम्मिश्रण है। करुणरस का प्राधान्य है। परकालीन कवियों ने इसका बाश्रय लेकर काव्य और नाटक लिखे हैं। (6) एक नगर में तपोदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसने बाल्यावस्था में पिता के बहुत समझाने पर भी विद्या नहीं सीखी। कालान्तर में लोगों से अपनी निन्दा सुनकर पश्चात्ताप करने लगा और विद्या की प्राप्ति के लिए गङ्गातट पर तपस्या करने लगा। एक दिन ब्राह्मण भेषधारी इन्द्र को गङ्गा में पुल बनाने हेतु पानी में बालू डालते देखकर तपोदत्त ने कहा-'अरे मूर्ख ! बालू से गङ्गा जी में पुल नहीं बन सकता है, तेरा यह प्रयत्न सर्वथा निष्फल है।' तब इन्द्र ने हँसकर कहा-'जो तुम यह जानते हो तो फिर बिना पढ़े केवल व्रत-उपवासादि करके विद्योपार्जन करने का उद्योग क्यों कर रहे हो? अध्ययन के बिना तुम्हारा भी यह यत्न बिना भित्ति के चित्र के समान निष्फल है'। (7) निषध देश का राजा नल एक बार वन-विहार को निकला। नगर से कुछ दूर निकल जाने पर एक उपवन में उसने. एक मनोहर तालाब देखा। उसमें खूब कमल खिले हुए थे। वहाँ उसने एक बहुत ही मनोहर हंस देखा। उस पर मुग्ध होकर राजा ने अपने तरकस से एक सम्मोहन बाण उस पर चलाने के लिए निकाला / धनुष पर बाण रखते ही उसने एक अलक्षित वाणी सुनी। उसका भाव यह था कि-हे राजन् ! इस पर बाग मत छोड़ो। यह तेरा अभीष्ट सिद्ध करेगा। (8) वेद भारतीय साहित्य के सर्व-प्राचीन ग्रन्थ हैं। इनका निर्माण कब हुआ? इसका सही-सही निर्णय करना अत्यन्त दुष्कर है। कुछ भारतीय मनीषियों की मान्यता के अनुसार वेद अनादि और अपौरुषेय हैं। इनके सम्बन्ध में निश्चित रूप से इतना ही कहा जा सकता है कि ये विश्व-साहित्य के आदि ग्रन्थ हैं और संसार में ज्ञान का अभ्युदय वेदों के अभ्युदय के साथ ही हुआ है। भाषा, इतिहास, संस्कृति, साहित्य सभी दृष्टियों से वेद महत्त्वपूर्ण और अवर्णनीय हैं। " (1) महाकवि बाण भट्ट संस्कृत साहित्य के सर्वश्रेष्ठ गद्य काव्यकार हैं। सम्राट हर्षवर्धन के सभापण्डित होने के कारण इनका समय सप्तम शताब्दी का संस्कृत में अनुवाद ] परिशिष्ट : 8 : अभ्यास-संग्रह [ 269 पूर्वार्द्ध माना जाता है। इन्होंने दो गद्य ग्रन्थ लिखे हैं :-'हर्षचरित' और 'कादम्बरी'। ये दोनों ही ग्रन्थ अनुपम हैं। हर्षचरित एक ऐतिहासिक गद्य-काव्य है। काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से इसकी कई विशेषताएँ हैं। कादम्बरी संस्कृत गद्यकाव्य की अनुपम कृति है। कवि की प्रतिभा का चरम उत्कर्ष इसमें दिखलाई देता है। बाण की वर्णन शैली, भाषा-सौष्ठव, अलंकार-योजना, प्रकृति-चित्रण, रस-परिपाक आदि सभी अद्भुत हैं जो सहृदयों को मोह लेते हैं। (10) परिवर्तन प्रकृति का नियम है। प्रकृति के इस नियम को जड़ हो या चेतन सभी स्वीकार करते हैं। जो प्रदेश पहले निर्जन थे वे आज सुन्दर महलों से सुशोभित हैं। जो कल राजा थे वे आज भिखारी हैं और जो कल भिखारी थे वे आज धनवान हैं। परिवर्तन की इस महिमा से ही क्षणमात्र में सुख दुःख का और दुःख सुख का स्थान ग्रहण कर लेता है। सुख और दुःख दोनों पक्र के समान बदलते रहते हैं। एकान्ततः सुख अथवा दुःख कभी नहीं रहते / अतः सुख के उपस्थित होने पर न तो अत्यन्त हर्षित होना चाहिये और न दुःख के उपस्थित होने पर दुःखी। सदा सुख और दुःख में समता धारण करना चाहिए। (11) सृष्टि के प्रारम्भ से ही स्त्रियों का महत्त्व स्वीकार किया गया है। वैदिक युग में गार्गी आदि स्त्रियों के सम्मान का विधान मिलता है। पौराणिक युग में भी उनको उचित सम्मान प्रदान किया गया है। मध्यकाल में नारियों को केवल भोग का साधन मानकर उनके साथ उचित न्याय नहीं किया गया। वर्तमान काल में स्त्रियाँ पुनः अपने गौरव को प्राप्त करके पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रही हैं। स्त्रियाँ राष्ट्र के भावी नागरिकों की जननी हैं। बालकों के चरित्र-निर्माण में उनका महत्वपूर्ण योग होता है। अत: उनकी सचित शिक्षा एवं सुरक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है। (12) मनुष्य समाज का एक अङ्ग है। समाज की उन्नति से ही उसकी एम्नति होती है और समाज की अवनति से उसकी भी अवनति होती है। अतः प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह सदा समाज की उन्नति के लिए प्रयत्न करे। समाजसेवा का भाव बाल्यकाल से ही जागृत करना चाहिए। सच्चा समाज तेवक विनम्र होता है। वह दूसरों की सहायता और सेवा करके प्रसन्न होता है। उसका लक्ष्य सदा यह रहता है कि समाज के सभी व्यक्ति सदा सुखी, स्वस्थ और प्रसन्न रहें। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उन सबने समाजसेवा का व्रत मुख्यरूप से लिया था, अतएव वे समाज को तथा स्वयं को सम्मत मारो / (12) संसार में अनेक भाषायें प्रचलित हैं। सममें संत भाना Mmm तथा भारतीय भाषाओं की जननी है। इसका ज्यामा पOm. The
SR No.035322
Book TitleSanskrit Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherTara Book Agency
Publication Year2003
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size98 MB
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