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________________ स्वर-सन्धि ] १.व्याकरण संस्कृत-प्रवेशिका [2: सन्धि 2. गुण-सन्धि ('अ' के साथ असमान मूल स्वरों की सन्धि ) : (क) अदेङ् गुणः-अत् (ह्रस्व 'अ' ) और एड (एओ) की गुणसंज्ञा होती है। गुणसंज्ञा होने पर अगले सूत्र से गुण एकादेश होता है। (ख) आद्गुणः ( अ, आ + इक्-गुण)-प्रात् ( अवर्ण - अ आ) से [ इक् परे ].गुण हो, अर्थात् अ, आ के बाद यदि कोई असवर्ण मूल स्वर ( इक् ) आता है तो दोनों के स्थान पर गुण एकादेश हो जाता है। जैसे-(क) ब, आ+ इ, ईए>उप- इन्द्रः- उपेन्द्रः, रमा+ईशः- रमेशः, देव+ईशः- देवेशः / (ख) ब, मा+उ, ऊ-ओ>गङ्गा+ उदकम् - गङ्गोदकम्, पर+ उपकारः-परोपकारः। - (ग) अ, आ+, अर्*>ब्रह्म + ऋषिः - ब्रह्मर्षिः, महा + ऋषिः- महर्षिः / 1. गुण सन्धि के अपवाद ( वृद्धि-सन्धि )-- (क) अक्षाहिन्यामुपसंख्यानम् (वा.)-'अक्ष' शब्द से 'कहिनी' शब्द परे होने पर पूर्व-पर के स्थान में वृद्धि एकादेश होगा। जैसे--अक्ष + अहिनीअक्षौहिणी ( चतुरङ्गिणी सेना)। (ख) प्रादहोढोढयेषेष्येषु ( वा० -- प्र उपसर्ग से परे ऊह कर दि एष और एष्य हों तो वृद्धि एकादेश / जैसे-. प्र+ऊहः अदः ऊतिः एषः एष्यः-प्रौहः ( उत्कृष्ट तर्क), प्रौढः (बड़ा), प्रौदिः (प्रौढ़ता), प्रेषः (प्रेरणा), प्रेष्यः (सेवक) / प्रेषः और प्रेष्यः में पररूप का बाध है। (ग) ऋते च तृतीयासमासे (वा.)-अवर्ण से ऋन् शब्द के परे तृतीया सगास में वृद्धि एकादेश होगा / जैसे-ख+ ऋतःसुखात: (सुखेन ऋतः - सुख से प्रात)। तृतीया समास न होने पर गुण ही होगा। जैसे-परम+ऋतः-परमतः (परमश्चासौ ऋतः - मुक्त)। (घ) प्रवत्मतरकम्बलवसनार्णवशानामणे (वा.)-प्रमादि से परे ऋण शब्द के होने पर वृद्धि एकादेश / जैसे-4+ऋणम् -प्रार्णम् ( अधिक कर्जा ), वत्सतराणम् (छोटे बछड़े के लिए लिया-हुआ कर्जा), कम्बलार्णम्, ऋणार्णम्, दशार्णम् (देश-विशेष)। (3) स्वादीरेरिणोः (वा.)स्व+ईर, ईरिन्, ईरिणी - स्वरः, स्वैरिन्, स्वैरिणी (व्यभिचारिणी)। (च) उपसर्गादृति बाती (६.१.६१)-अवर्णान्त उपसर्ग से परे ऋकारादि धातु हो तो वृद्धि। जैसे-+ ऋच्छति -प्रार्छति (जाता है), उपान्छति ( समीप में पहुँचता है)। 2. उरण रपरः(१.१.५१)- >अर्, ल>अल् )-शल के स्थान में जो 'अण्' (अ ) होता है बह रपर और लपर ('रल' है पर-बाद में जिसके अर्थात् बर् इर् उर अल् इत् उल् ) होकर ही प्रवृत्त होता है। यहाँ रसर में प्रयुक्त 'र' से 'र' प्रत्याहार (र, ल)लेना है (र और ल में अभेद (घ) अ, आ+ब- अल् >तव सकार:-तवल्कारः (तेरा लकार) ई. वृद्धि-सन्धि ( अ, आ के साथ संयुक्त स्वरों की सन्धि ) : (क) वृशिरादैच-बाकार' और ऐच (ऐ औ) की पद्धिसंशा होती है. पश्चात् 'वृधिरेचि' से एच ( ए ओ ऐ पो) को वृद्धि एकादेश (ऐबी) होता है। (ख) वृद्धिरेचि ( अ, आ+एच् = वृद्धि)-[ अवर्ण से ] एच् पर होने पर वृद्धि होती है, अर्थात् अ, आ के बाद यदि कोई संयुक्त स्वर ( एच् ) आता है तो दोनों के स्थान पर वृद्धि (ऐ, ओ) होती है। जैसे-(क) अ, आ+ए, ऐ> हित+एषिन् - हितैषिन्, देव+ऐश्वर्यम् = देवश्वयम्, पश्च+एते = पश्चैते, मा. एवम् -मैवम् / (स) अ, आ ओ, औ-औ> गङ्गा+ओपः-गङ्गोधः, देव+ औषधम् - देवौषधम्, दर्शन+औत्सुक्यम् = दशनोत्सुक्यम् / 4. यण-सन्धि ( 'इक्' के साथ असमानं स्वरों की सन्धि ): इको यणचि (इ + असमानस्वर-यण)-'अच्' परे रहने पर 'इक' को 'यण' होता है, अर्थात् ह्रस्व अथवा दीयं इ, उ, ऋ, न (इक् ) अपने सदृश अन्तःस्थ वर्णी (यण् - य, व, र, ल् ) में बदल जाते हैं, यदि बाद में कोई असमान स्वर (अ) हो। जैसे-(क) ई+असमानस्वर-4>यदि + अपियद्यपि, नदी+अपि नद्यपि, सुधी+ उपास्यः-सुव्युपास्यः / (ख), + असमान स्वर ->सु+आगतम् -स्वागतम्, अनु+एषणम् - अन्वेषणम्, मधु+ अरिः- मध्वरिः / (ग) ऋ, ऋ+ असमान स्वर->मातृ + इच्छामात्रिच्छा, धातृ+अंशः-धावंश: (ब्रह्मा का अंश), पितृ + औदार्यम्-पित्रीदार्यम्, पितृ + अनुमति:-पित्रनुमतिः, मातृ + आशा-मात्राज्ञा / (घ) + असमान स्वर-ल>ख आकृतिः - लाकृतिः (ब के समान आकृति वाले कृष्ण)। अन्य उदाहरण-दधि + आनय - दध्यानय, प्रति + एकम् - प्रत्येकम्। / भी माना जाता है)। जैसे-(क) अर > कृष्ण + ऋद्धि:-कृष्णदिः, ग्रीष्म+ऋतुः - ग्रीष्मर्तुः। (स) अल् > मम + कारः- ममल्कार, तवल्कारः। (ग) इ>++ति-किरति (देखें-'भूत धातोः' 7.1.100) / (घ) उ>पि + तस् = पिपूर्तः ( देखें-'उदोष्ठयपूर्वस्य' 7.1.102) / 5. मिशेष के लिए देखिए, गुणसन्धि और पररूपसन्धि / .. समपि च' (8.4.47) अच से परे.'यर' को विकल्प से द्वित्व होता है, परन्तु 'यर' के आगे बच्' होने पर नहीं होगा। इस पूत्र से द्वित्वं होने पर भन्य रूप भी बनेंगे-सुखपुपास्यः, मदरूवरिः, धात्वधः।
SR No.035322
Book TitleSanskrit Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherTara Book Agency
Publication Year2003
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size98 MB
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