SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 20] , संस्कृत-प्रवेशिका / 2: सन्धि स्वर-सन्धि 1 : व्याकरण [21 5. अयादि-सन्धि ( एप के साथ समान असमान स्वरों की सन्धि) : एचोऽयवायावः ( एच + स्वर- अयादि आदेश)-'एच' ( ए ऐ ओ औ) को क्रमशः अय् आय् अव् आ आदेश होते हैं [ यदि बाद में कोई भी स्वर हो] जैसे-(क)ए+स्वर - अय् > हरे+ए-हरये, शे + अनम् - शयनम्. ने+ अनम् = नयनम् / (ख) ऐ+स्वर-आय> + अक:- नायकः, कस्मै+ ऐश्वर्यम् = कस्मायश्वर्यम् / (ग) ओ+ स्वर-अ> विष्णो + इति = विष्ण१. विशेषः-(क) वान्तोपि प्रत्यये ( 6.1.76 )-ओ औ के बाद यकारादि प्रत्यय हो तो भी अवादि आदेश होंगे। जैसे-गो + यम् - गव्यम् (गो का विकार दूध, दही, घी आदि), नौ + यम् -नाव्यम् (नौका से नरने योग्य जले)। ख) अध्वपरिमाणे च (वा.)-मार्ग के परिमाण अर्थ में गी शब्द के आगे 'यूतिः' शब्द होने पर भी अवादेश होगा। जैसे-गो+यूतिःगन्यूतिः (दो कोस)। (ग) क्षय्य-जय्यी शक्यार्थे (६.१.८१)शक्या होने पर 'क्षे जे के' के 'ए' को अयादेश होता है यदि बाद में यकारादि प्रत्यय हो / जैसे-क्षे+यम् = क्षय्यम् / जय्यम्, क्रय्यम् / / अन्यत्र-क्षेयम्, जेयम्, केयम् / लोपः शाकल्पस्य ( ८३.१६)-अयादि आदेश होने पर 'यू' और 'बु' का विकल्प से लोप होता है, यदि पदान्त 'य' और 'ब' के पहले 'अ आ' हो और बाद में 'अश्' वर्ण / जैसे-हरे+इह-हरयिह, हर इह / विष्णो + इह-. विष्णविह, विष्ण इह / ते+आगताः = तयागताः, त आगता। 'लोपः शाकल्यस्य' से 'यव' का लोप होने के बाद यद्यपि 'हर इह में गुण-सन्धि प्राप्त थी परन्तु पाणिनि-व्याकरण का एक सूत्र है 'पूर्वाऽसिद्धम् (8.2.1) जिसका तात्पर्य है कि इस सूत्र के बाद के सूत्रों द्वारा किए गये कार्य इससे पूर्ववर्ती सूत्रों के प्रति असिद्ध (न किए गये की तरह) है। तात्पर्यार्थ यह है कि अष्टाध्यायी में 8 अध्याय हैं, प्रत्येक अध्याय में 4-4 पाद हैं और प्रत्येक पाद में कई-कई सूत्र हैं। 'पूर्वत्राऽसिद्धम्' आठवें अध्याय के दूसरे पाद का पहला सूत्र है। अर्थात् इससे पहले अष्टाध्यायी के सवा सात 'अध्याय हैं और बाद में त्रिपादी मात्र (आठवें अध्याय के तीन पाद मात्र), 'लोपः शाकल्यस्य' (8.3.16.) यह सूत्र विपादी ( 'पूर्वत्राऽसिद्धम्' के बाद) का है। अतः इससे 'यु व्' का लोप होने पर भी 'आद्गुणः' (6187) सूत्र ( जो कि त्रिपादी से पूर्ववर्ती है ) से गुण-सन्धि नहीं होगी क्योंकि 'य व' का लोप होने पर भी उसे असिद्ध ( अव्यवहित) माना जायेगा और तब 'य व्' के लोप होने से गुण-सन्धि ( हरे+इह -- हरेह ) नहीं होगी। नोट-यह नियम सर्वत्र लागू होता है। विति, विष्ण इति; विष्णो+ए-विष्णवे, भू> भो + अति - भवति / (घ) औ + स्वर - आव पौ+अकः = पावकः, दौ+ उपमिती द्वायुपमिती, देवी+ थागती - देवावागतो, देवा मागतो। 6. पूर्वरूप-सन्धि ( पदान्त 'ए ओ' के साथ 'अ' की सन्धि ) - एड: पदान्तादति ( एक+अ-पूर्वरूप)-अत् (अ) परे होने पर पदान्त "एह' से पूर्वरूप होता है अर्थात् पदान्त 'ए ओ' (एक) के बाद यदि हो तो परवर्ण (अ) पूर्ववर्ण (एनओ) में प्रविष्ट होकर तद्रूप (ए ओ रूप) हो जाता है। इस तरह 'अ' वहाँ नहीं रह जाता / पूर्वरूप को सूचित करने के लिए अवग्रहचिह्न ('' के स्थान पर '5') लगा दिया जाता है। जैसे-(क) ए+ अ-ए> हरे+अव- हरेऽवः संसारे+यस्मिन् , संसारेऽस्मिन्, के+अपिकेऽपि / (ख) ओ+ अओऽ> विष्णो + अव - विष्णोऽव; बालः>बालो+ अत्र - बालोऽत्र, पण्डितो + अवदत् = पण्डितोऽवदत् / नोट--यह सूत्र अयादि-सन्धि का प्रतिषेधक है। 7. पररूप-सन्धि (अकारान्त उपसर्ग+एकारादि या ओकारादि धातु की सन्धि) : एडि पररूपम् (अकारान्त उपसर्ग + एकादि धातु-पररूप)-[अकारान्त उपसर्ग के बाद यदि ] 'ए' अथवा 'ओ' (एक) से प्रारम्भ होने वाली धातु हो तो पररूप'अ' परवर्ण रूप) हो जाता है। जैसे-(क) अ+ए ए>प्र+एजतेप्रेजते ( अधिक काँपता है ), अव+ एजते - अवेजते (काँपता है), प्र+एषयतिप्रेषयति ( भेजता है)। (ख) अ+ओ = ओ>उप+ओषति - उपोषति ( जलाता 1. परन्तु गो + अग्रम् - गोऽप्रम्, गो अग्रम्, गवानम् ये तीन रूप बनेंगे। देखें 'सर्वत्र विभाषा गोः' (6. 1. 122) तथा अवङ् स्फोटायनस्य (1.1.123) / 2. (क) एत्येधत्यूठसु (6. १.८६)-'अ' के बाद एकारादि धातु (इण, एध ) के रहने पर तथा ऊठ सम्बन्धी ऊकार के रहने पर दोनों की वृद्धि होती है। जैसे-उप + एति- उपैति, उप+ एधते- उपधते, अव+एषि-अवषि, प्रष्ठ + ऊहः - प्रष्ठौहः / (ख) एवे चानियोगे (वा.)-'अ' के बाद 'एव' ( अनिश्चय अर्थ वाचक होने पर ) हो तो पररूप होगा। जैसे--क्व+एवगोय। परन्तु निश्चय अर्थ रहने पर वृद्धि-अद्य + एव-अव / (ग) भोमाडोश्च (६.१.१५.)-'ओम्' और 'आङ्' हो तो पररूप-शिवाय + भोगमः शिवायों नमः / शिव + आ + इहि = शिवेहि / (घ ओत्वोष्ठयोः गमासे वा (वा.)-ओतु' और 'ओष्ठ हो तो-स्थल+ओतुः-स्थलोतु, भूलीतुः ( मोटा विडाल ) कण्ठ + ओष्ठम् -कण्ठोष्ठम्, कण्ठौतम /
SR No.035322
Book TitleSanskrit Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherTara Book Agency
Publication Year2003
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size98 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy