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________________ वाचे - 104] संस्कृत-प्रवेशिका [6: शब्दरूप करिणे करिभ्याम् करिभ्यः च० पथे पथिभ्याम् पथिभ्यः करिणः // पं० पथः " " " करिणोः करिणाम् प० पथोः पथाम् करिणि क रिष स. पथि " पथिषु हे करिन् ! हे करिणी ! हे करिणः ! सं० हे पन्थाः ! हे पन्थानी ! हे पन्थानः ! (32) शकारान्त 'ताहश्" (वैसा) (33) सकारान्त 'विद्वस् (विद्वान्): तादृक्- तादृशी तादृशः प्र. विद्वान् विद्वांसी विद्वांसः तादृशम् - वि० विद्वांसम् " विदुषः तादृशा तादृरभ्याम् . तादृग्भिः तृ' विदुषा - विद्वद्भ्याम् विद्वद्भिः तादृशे . तादृग्भ्यः च. विदुषे विभ्यः तादृशः . . पं० विदुषः , " तादृशोः तादृशाम् प० " विदुषोः विदुषाम् ताशि " तादृल स० विदुषि , विद्वत्सु हे तादृक्-ा ! हे तादृशो! हे तादृशः ! सं० हे विद्वन् ! हे विद्वांसौ ! हे विद्वांसः ! व्यश्चनान्त (हलन्त ) स्त्रीलिङ्ग संझा शब्द (34) चकारान्त 'वाचू" (35) 'अप' (जल) (36) रकारान्त 'गिर (वाणी): (नित्य बहुवचनान्त): वाक्-ग् वाचो वाचः प्र० आपः प्र० मीः गिरौ गिरः कुटुम्बिन्, कुशलिन् ( सुखी), केशरिन् (सिंह), यिन् (खरीदने वाला), गृहिन् (गृहस्थ ), चक्रवर्तिन् (सम्राट् ), तपस्विन्, दूरदशिन्, देषिन्, रोगिन्, वाग्मिन् (शीघ्र बोलने वाला), वादिन (वादी), विटपिन् (वृक्ष), वैरिन् (शत्रु), शाखिन् (वृक्ष), शिखिन् (मयूर), साक्षिन् (साक्षी) आदि / 1. इसी प्रकार (क) मादृश् (मरे समान), भवादश (आपके समान), त्वादश बादि पुं० शब्द / (ख) 'दिश, दृग (नेत्र) आदि शकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों के भी रूप इसी प्रकार बनेंगे। 2. "विद्वस्' का स्त्री० 'विदुषी होता है और उसके रूप 'नदी' की तरह बनी। 3. प्रायः इसके रूप ध्यानान्त पुं० संज्ञा शब्दों के तुल्य होते हैं। 4. इसी प्रकार-(क) त्वच् (चमड़ा, छाल), रुच् (चमक), शुच् (शोक), ऋच् (बदमन्त्र) आदि स्त्रीलिङ्ग शब्द। (ख) जलमुच (मेघ), वारिमुच (मेष), पयोमुत्र (मेघ), सत्यवान् (सत्यवादी) आदि चकारान्त पुं० शब्दों के भी रूप वाच की तरह चलेंगे। 5. इसी प्रकार-पुर (नगर) और धुर (धुरी) स्त्री० शब्दों के रूप बनेंगे। हलन्त स्त्री०, नपुं०] १:व्याकरण [105 वाचम् वाची वाचः द्वि. अपः वि. गिरम् गिरी गिरः वाचा वाग्भ्याम् वाग्भिः तृ० अद्भिः तु० गिरा गीभ्याम् गीभिः " वाग्भ्यः 10 अद्भ्यः प० गिरे गीभ्यः वाचा " " पं० पं.गिरः " " वाचो वाचाम् प० अपाम् प०॥ गिरोः गिराम् बाचि - बार स० अप्सु स० गिरि - गीर्ष हे वाक्-ग ! हे वाचो ! हे वाचः! सं० हे आपः ! सं० हे गीः ! हे गिरी ! हे गिरः! (37) वकारान्त 'दिव' (आकाश, स्वर्ग): (38) सकारान्त 'आशिस्" (आशीर्वाद): द्यौः दिवो दिवः प्र. आशीः आशिषौ बाशिषः दिवम् द्वि० आशिषम् " " दिवा युभ्याम् धुभिः तृ. आशिषा माशीाम् आशीभि दिवे " युभ्यः 0 आशिषे . बाशीभ्यः दिवः " " पं० आशिषः " " " दिवोः दिवाम् प० आशिषोः भाशिषाम् दिवि षु स० आशिषि बाशीषु, माशीःषु हे द्यौः ! हे दिवी ! हे दिवः! सं. हे आशीः ! हे आशिषौ ! हे माशिषः! व्यञ्जनान्त ( हलन्त ) नपुंसकलिङ्ग संज्ञा शब्द (39) तकारान्त 'जगत् (विश्व): (40) नकारान्त 'नामन् (नाम): जगत् जगती जगन्ति प्र०, द्वि० नाम नाम्नी, नामनी नामानि जगता जगद्भ्याम् जगद्भिः तृ नाम्ना नामभ्याम् नामभिः जगते जगद्भ्याम् जगद्भ्यः च. नाम्ने " नामभ्यः जगतः // // पं. नाम्नः . (वाणी) 1. इसी प्रकार-स्त्रीलिङ्ग अचिस् (लो) शब्द के भी रूप भनेंगे परन्तु 'आशिस्' के रूपों में जहाँ दीर्घ 'ई' है वहाँ 'अचिस्' के रूपों में ह्रस्व '' ही रहेगा। २.तृतीया से लेकर आगे के सभी रूप 'भूभृत्' के तुल्य हैं। 3. इसी प्रकार-प्रेमन् (प्रेम), दामन् (नक् , रस्सी), व्योमन् (आकाश), सामन् (सामवेद का मन्त्र ), धामन् (चमक, मकान), लोमन् (रोम), वेमन् (कर्षा) आदि।
SR No.035322
Book TitleSanskrit Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherTara Book Agency
Publication Year2003
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size98 MB
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