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________________ अष्टम अध्याय समास (Compound) 52] संस्कृत-प्रवेशिका [7 : कारक और विभक्ति को मारता है। यहाँ कलभूत चर्म हनन क्रिया के कर्म (हाथी) के साथ सम्बद्ध है। अतः चर्म में सप्तमी हुई है); दन्तयोः हन्ति कुञ्जरम् (दांत के लिए कुञ्जर हाथी को माता है); केशेषु चमरी हन्ति (बालों के लिए चमरी मृग को मारता है)। 51. यस्य च भावेन भावलक्षणम् (यस्य च क्रियया क्रियालक्षणम् )-- जिसके भाव (क्रिया) से भाव का लक्षण (क्रियान्तर का द्योतन) हो उससे सप्तमी हो / यहाँ 'भाव' का अर्थ है-'क्रिया' / भाव शब्द के दो बार प्रयोग होने से परवर्ती भाव का अर्थ है-द्वितीय क्रिया (क्रियान्तर)। फलतः इस सूत्र का अर्थ होगा-'जिसकी क्रिया से दूसरी क्रिया का पता चलता है उससे (प्रथम क्रिया वाले से).सप्तमी हो।' इस प्रकार के वाक्यों में एक कार्य (क्रिया) के होने पर दूसरे कार्य (क्रिया) का होना प्रकट होता है तथा पहले होने वाले कार्य में 'शत', 'शान' अथवा क्त, क्तवतु आदि प्रत्ययों से निष्पन्न शब्द का क्रिया के रूप में प्रयोग किया जाता है। पहले प्रारम्भ होने वाली क्रिया यदि कर्तृवाच्य में होती है तो 'शतृ' आदि क्रिया के साथ कर्ता में और यदि कर्मवाच्य में होती है तो 'शतृ' आदि क्रिया के साथ कर्म में सप्तमी होती है / जैसे-मया कार्य कृते सः आगतः (मेरे द्वारा कार्य किये जाने पर वह आया); गोषु दुह्यमानासु बालकाः गृहमगच्छन् (गायों के दुहे जाते समय बालक पर गये); रामे वनं गते दशरथः मृतः ( राम के बन जाने पर दशरथ मृत्यु को प्राप्त हो गये) ब्राह्मणेषु अधीयानेषु सः गतः (ब्राह्मणों के अध्ययन करते समय पह गया);सूर्य अशा गते गोया यरभगच्यन् / 52. यतश्च निर्धारणम्-जिससे ( जिस समुदाय से ) निर्धारण (एक देश का पृथक्करण) हो उससे ( समुदाय से) षष्ठी तथा सप्तमी हो; अर्थात् जब किसी समुदाय ( वर्ग) से किसी विशेषता (जाति, गुण, क्रिया आदि) के कारण निर्धारण (पृथक्करण ) किया जाता है तो समुदायवाचक शब्द में सप्तमी तथा षष्ठी होती है। जैसे-गोषु गवां वा कृष्णा बहुक्षीरा (गायों में काली गाय बहुत दूध देती है) छात्रेषु छात्राणां वा मैत्रः पटुः (छात्रों में मंत्र चतुर है); गच्छत्सु गग्छता वा धावन् शीघ्रः (चलने वालों में दौड़ने वाला शीघ्र होता है); कविषु कवीनां वा कालिदासः श्रेष्ठः (कवियों में कालिदास श्रेष्ठ है ) / जब दो में से किसी एक का निर्धारण किया जाता है तो जिससे निर्धारण किया जाता है उसमें 'पञ्चमी विभक्ते' से पञ्चमी होती है-धनात विद्या गरीयसी (धन से विद्या गुरुतर है)। समास ( सम् + अस् + घ) शब्द का अर्थ है-'संक्षेप' (अनेक सुबन्तों का एक पद बन जाना); अर्थात जब दो या दो से अधिक शब्दों (सुबन्तों) को आपस में इस प्रकार से जोड़ दिया जाता है कि शब्द का आकार छोटा होने पर भी उसके अर्थ में परिवर्तन नहीं होता है, तो उसे समास कहते हैं। समास शब्द की व्युत्पत्ति है-'समसनम् एकपदीभवनं (संक्षेपः) समासः' अथवा 'समस्यते एकत्र क्रियते अनेक सुबन्तम् इति समासः'। समास होने पर प्रायः पूर्ववर्ती शब्दों की विभक्तियों को हटा (लोप) दिया जाता है। यद्यपि पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्रयुक्त पस्मैपदम्, आत्मनेपदम्, भयङ्करः, युधिष्ठिरः, सरसिजम्, वागर्थाविव आदि कुछ अलुक् समास प्रसिद्ध हैं जिनमें पूर्वपद की विभक्तियों का लोप नहीं हुआ है परन्तु एक पद बनना रूप समास का प्रयोजन यहाँ वर्तमान है / समास के प्रयोजन (फल) है-(१) एक पद बन जाना, (2) विभक्ति का लोप और (3) एक पद बनने से एक उदात्त स्वर होना / व्याकरण के नियमानुसार एक पद में एक ही उदात्त स्वर माना जाता है। अतः विभक्ति का लोप न होने पर भी एक पद बनना रूप फल समास का रहता ही है। जब समस्त पद के शब्दों को अलग-अलग करके (विभक्ति के साथ ) दर्शाया जाता है तो उसे 'विग्रह' कहते हैं। जैसे-राज्ञः पुरुषः-राजपुरुषः। यहाँ 'राजपुरुषः' समस्त पद है और 'राज्ञः पुरुषः' उसका विग्रह / समास में आये हुये शब्दों की प्रधानता और अप्रधानता के आधार पर समास के प्रमुख चार प्रकार माने गये हैं-(१) अव्ययीभाव (प्रायः पूर्व-पदार्थ - अव्यय प्रधान ), (2) तत्पुरुष (प्रायः उत्तर पदार्थ प्रधान), (3) द्वन्द्र (प्राय: भय पदार्थ प्रधान ) और (4) बहबीहि (प्रायः अन्य पदार्थ प्रधान)।' जब (1) लक्षण में प्रायः पद देने का कारण है कि तत् तत् समासों के प्रकरण में मात ऐसे भी समस्त पद आये हुए हैं जिनमें उक्त लक्षण (पूर्व पदार्थ प्रधान अध्ययीआय है, आदि लक्षण) घटित नहीं होता है परन्तु उनके उस समास के प्रकरण में होने मही वह समास माना जाता है। अतः प्रत्येक के लक्षण में प्रायः पद दिया गया ।जैसे-(क)'उन्मत्ता गङ्गा यत्र सः% उन्मत्तगतो नाम देशः' (जहाँ गङ्गा उन्मत्त ..मा उन्मत्तगत नामक देश है)। यह पद अव्ययीभाव के प्रकरण में है परन्तु यहाँ Hacepon
SR No.035322
Book TitleSanskrit Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherTara Book Agency
Publication Year2003
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size98 MB
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