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________________ कर्म-भाववाच्य, आत्मनेपद ] परिशिष्ट : 5: बा०प० विधान [255 254] संस्कृत-प्रवेशिका [कर्म-भाववाच्य क्रियायें (11) 'क्य' प्रत्यय के विषय में ज्ञातव्य बातें-(१) यह आचार, करोति, उत्साह, उदमन, वेदना आदि अर्थों में होता है / (२)रूप आत्मनेपद में चलते हैं। (3) 'क्य' (य) जुड़ने पर-(क) पूर्ववर्ती अन्तिम स्वर (सुबन्त का 'अ') दीर्घ हो जाता है / (ख) शब्द के बन्तिम 'स्' का विकल्प से लोप (ओजस् और अप्सरस् में नित्य ) होता है। (ग) स्त्री प्रत्यय हटा दिया जाता है (स्त्री प्रत्ययान्त शब्द यदि 'क' में अन्त हो तो नहीं)। (1) पठ् ( कर्मवाच्य ) प्र. पु. के रूपःलट् लोट विधिलिए लुट् एकवचन--पठ्यते पठ्यताम् अपठयत पठघेत पठिष्यते द्विवचन--पठ्येते पठयेताम् अपठ्येताम् पठचेयाताम् पठिष्यते बहुवचन-पठचन्ते पठचन्ताम् अपठयन्त पठघेरन् पठिष्यन्ते आ० लि लिट् लुक् लुट् लुङ ए००-पठिषीष्ट पेठे अपाठिपठिता अपठिष्यत द्वि०व०--पठिषीयास्ताम् पेठाते अपाठिषाताम् पठितारी अपठिष्येताम् व०व०-पठिषीरन् पेठिरे अपाठिषत पठितारः अपठिष्यन्त (२)स्था (भाववाच्य ) प्र. पु. के रूपलट् लोट विधिलिस् तृट् ए०व०-स्थीयते स्थीयताम् अस्थीयात स्थीयेत स्थास्यते द्वि० व०-स्थीयेते स्थीयेताम् अस्थीयेताम् स्थीयेयासाम् स्थास्येते ब०व०-स्थीयन्ते स्थीयन्ताम् अस्थीयन्त स्थीयेरन् स्थास्यन्ते नोट-शेष लकारों में क्रमशः-स्थासीष्ट, तस्ये, अस्थायि, स्थाता, अस्थास्यत / परिशिष्ट : 4: कर्मवाच्य और भाववाच्य की क्रियायें कर्मत्राच्य और भाववाच्य की क्रियायें बनाने के नियम--(१) ये केवल आत्मनेपदी होती हैं तथा इनमें गणचिह्न नहीं जुड़ते हैं। (2) सार्वधातुक लकारों (लट् , लोट्, लङ् और विधिलिङ्) में धान और प्रत्यय के बीच में 'या' (य) जोड़ा जाता है। शेष लकारों के रूप कर्तृवाच्य के समान होते हैं, परन्तु वे आत्मनेपद के प्रत्ययों वाले होते हैं, चाहे धातु किसी भी पद की क्यों न हो। (3) धातु प्रायः अपने मूल रूप में रहती है। धात्वादेश (जैसे--गम् को गच्छ) भी नहीं होते हैं। जैसे-गम् +य+ते = गम्यते (जाया जाता है); भू + य+ते : भूयते (हा जाता है)। (4) इकारान्त और उकारान्त धातुओं के स्वर को . दीर्थ हो जाता है। जैसे-चि>चीयते। स्तु>स्तूयते; श्रुभूयते; जि>जीयते / (5) ऋकारान्त धातुओं के 'ऋ' को 'रि' हो जाता है। जैसे-कृ>क्रियते ह> ह्रियते (अपवाद-स्मृ>स्मयते)। (6) ऋकारान्त घातुओं के 'क' को 'ई' (पवर्ग प्रारम्भ में हो तो 'ऊर्') हो जाता है / जैसे-तु>तीर्यते; ज> जीर्यते; पृ> पूर्यते / (7) धातु के मध्य में आने वाले 'न्' का प्रायः लोप हो जाता है। जैसे-मन्थ् < मथ्यते; बन्ध > बध्यते; इन्ध >इध्यते; शंस्>शस्यते; (अपवाद-चिन्न> चिन्त्यते; निन्द्>निन्द्यते; वन्द्व न्द्यते)। (8) 'बच्' आदि धातुओं को सम्प्रसारण हो जाता है। जैसे-ब>उद्यते; वच्>उच्यते; यज् इज्यते)। (9) ऐकारान्त गै तथा आकारान्त (दा, धा, मा, स्था, गा, पा, हा) धातुओं के अन्तिम स्वर को '6' हो जाता है। जैसे-->मीयते; दा> दीयते; मा>मीयते; धा>धीयते; गा>गीयते; हा>हीयतेः स्थास्थीयते ( अन्यत्र-ज्ञा>ज्ञायते; त्रायते; स्ना> स्नायते; ध्यध्यायते / (10) कुछ धातुओं के कर्मवाच्य और भाववाच्य के रूप (विशेष के लिए देखें, परिशिष्ट : १:धातुकोप) परिशिष्ट : 5: आत्मनेपद और परस्मैपद विधान (क) आत्मनेपद : निम्न परिस्थितियों में धातु आत्मनेपदी हो जाती है (1) भाववाच्य और कर्मवाच्य में-भूयते, गम्यते / (2) नि + विश् धातु से-निविशते / (3) परि, वि, अव +की धातु से-परिक्रीणीते / (4) वि, परा + जि धातु से--विजयते, पराजयते / (5) सम्, अब, प्र, वि + स्था धातु सेसन्तिष्ठते, प्रतिष्ठते / (6) उद् + स्था (यदि उठना अर्थ न हो) धातु से-ज्ञानाय उत्तिष्ठते / (7) उद् + चर् (सकर्मक) धातु से-धर्ममुच्चरते / (8) तृतीयान्त से युक्त सम् + चर् धातु से-रथेन सञ्चरते। () भोजन या भोगना अर्थ में भुज् धातु से-ओदनं भुङ्क्ते, दुःखशतानि भुङ्क्ते ( अन्यत्र-महीं भुनक्ति)। (10) ङित् धातुओं से-शेते / (11) अनु, परि, आ + क्रीड् धातु से अनुक्रीडते / (12) ज्ञा (छिपाने या अकर्मक अर्थ में) धातु से-शतमपजानीते, सपिषो जानीते / (13) उद्, वि+तप् (अकर्मक या स्वाङ्गकर्मक) धातु से--सूर्यः
SR No.035322
Book TitleSanskrit Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherTara Book Agency
Publication Year2003
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size98 MB
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