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________________ वुल्, तृच ] 1H व्याकरण 42] संस्कृत-प्रवेशिका [ 3 : कृत्-प्रत्यय 2. धातु के अन्तिम 'उ ऊ' को गुण एवं अवादेश होता है। जैसे-श्रु> प्रव्यम् / हु> हव्यम् / भू>भव्यम् / सु>सव्यम् / 3. 'लभ' धातु के पूर्व 'आ' अथवा 'उप' उपसर्ग प्रशंसा के अर्थ में जुड़ा होने पर नुम् (न>म् ) का आगम होता है। जैसे-आ+ लभू> आलम्भ्य / उपलभ् > उपसम्भ्य ( उपलम्भ्यः साधुः - साधु प्रशंसनीय है / प्रशंसा अर्थ न होने पर उपलभ्य = 'उलाहना योग्य' होगा)। 4. विशेष प्रयोग (पवर्गभिन्न व्यञ्जनान्त धातुओं में)-जन् >जन्यम् / हन् >वध् >वध्यम् / शक्> शक्यम् / सह सह्यम् / गद्ग द्यम् / म>माम् / घर > चर्यम् / (6) निमित्तार्थक( Gerundial pfinitive )-'तुमुन् / जब कोई क्रिया किसी दूसरी क्रिया के निमित्त से की जाती है तो निमित्तार्थक क्रिया में 'तुमुन्' (तुम् ) प्रत्यय होता है। अर्थात् 'को', 'के लिए' अर्थ में 'तुम्' प्रत्यय होता है। जैसे-भू>भवितुम्, हन् > हन्तुम्, बा>दातुम, दूग्>, द्रष्टुम्, सह >सोढुम, वह > बोदुम्, कृ>कर्तुम, लिख् > लेखितुम्, गम् > गन्तुम्, *>त्रातुम् / 'तुमुन् प्रत्यय जोड़ते समय स्मरणीय नियम 'तव्यत्' प्रत्यय जोड़ते समय जो नियम लगते हैं वही यहाँ भी लगते हैं / अतः 'सव्य' के स्थान पर 'तुम्' पद रख देने से 'तुमुन्' प्रत्ययान्त पद बन जाते हैं।' (7) कर्तृवाचक ( Agent of the action)-बुल, तृच और णिनि कर्ता ( करने वाला) अर्थ में खुल (अक), तृच (तृ) और णिनि (इन) प्रत्यय होते हैं। जैसे१. (क) 'तुमुन्' प्रत्ययान्त शब्द अव्यय होते हैं। (ख) तुमुनन्त क्रिया जिस क्रिया के साथ आती है उसकी अपेक्षा तुमुनन्त क्रिया बाद में समाप्त होती. है। जैसे--सः रामं द्रष्टु' याति / (ग) तुमुनन्त क्रिया और मुख्य क्रिया का का एक ही होता है / (घ) तुमुनन्त क्रिया के बाद यदि 'काम' या 'मनस्' (इच्छार्थक) शब्द हों तो 'तुम्' के 'म्' का लोप हो जाता है। जैसे-वक्तुकामः, वक्तुमनाः / / 2. कर्ता अर्थ में और भी कई प्रत्यय होते हैं। जैसे-खच (अ)-प्रियंवदः (प्रियं 1. आडो यि / उपात्प्रशंसायाम् / अ०७.१.६५.६६ / 2. तुगुन्ण्वुलो क्रियायां क्रियार्थायाम् / अ० 3. 3. 10. 3. रागागक केषु तुमुन् / अ० 3. 3. 158. कामगोपि काशिका, 6.1.144. (क) ण्वुल और तृच् प्रत्ययान्त रूप 'बुल' प्रत्ययान्त पद' . 'तृच' प्रत्ययान्त पद' धातु. न पुं० स्त्री० नपुं० पुं० स्त्री० (अकम्) (अकः) (इका) . (तृ) (ता) (श्री) , वदतीति ) , वशंवदः, पतिवरा / खश्' (अ)-स्तनन्धयः (स्तनं धयतीति). जनमेजयः (जन+ए+खश्)। ट' (अ)- दिवाकरः, निशाकरः, भास्करः, कुरुचरः / क' (अ)---गोदः (मां ददातीति), सुखदः, बुधः, प्रियः (प्रीणातीति)। क" (४)-तादृशः (तद् + दृश् + कञ् ), सदृशः / विव' ( लोप)ब्रह्महा (ब्रह्म + हन् + क्विप् ), कर्मकृत्, पक्षच्छित् / ड" (अ)-अजः, द्विजः, सर्वगः, उरगः / ल्यू' (अन)-नन्दनः (नन्द+ ल्यु-नन्धयतीति) जनार्दनः / च' (अक)-निन्दकः, हिंसकः / इष्णुच"(इष्णु)--सहिष्णुः, अलङ्करिष्णुः / आलुच (आलु)-दयालु:, निद्रालुः, श्रद्धालुः / उ-चिकीर्षुः, पिपासुः / युच्" (अन)--चलनः (चलितुं शीलम् यस्य सः ) / षाकन् 15 (क) जल्पाकः, वराकः (a+षाकन् ) / 1. (क) 'वुल' प्रत्ययान्त शब्दों के रूप पुं० में 'राम', स्त्री० में 'लता' और नपुं. में 'शान' की तरह चलेंगे। (ख) 'तृच' प्रत्ययान्त शब्दों के रूप स्त्री० में 'नदी'; पुं० और न० में 'कर्तृ' की तरह चलेंगे। (ग) 'तृच्' प्रत्ययान्त पदों के साथ कर्म में षष्ठी होती है। जैसे-धनस्य हर्ता। (घ) कभी-कभी धुल' का प्रयोग 'तुमुन्' की तरह क्रिया के रूप में भी होता है।18 जैसे-राम दर्शको द्रष्टुं या गच्छति / (क) मृज् धातु से 'तृच्' प्रत्यय करने पर 'माष्ट्र' रूप बनता है / 1. वुल्तृची / अ० 3.1.133. 2. प्रियवशे वदः खच / संज्ञायां भृतृवृजिधारिसहितपिदमः / गमश्च / अ०३ 2.38,46-47. 3. अ० 3.2. 26, 31-32, 35-36, 83. 4 अ०३. 2. 20-22. 5. अ० 3.2. 3-4; 3.1.135-136,.144. 6. त्यदादिषु दृशोऽनालोचने कश्च / अ०३. 2.60. 7. 3. 2.61,78, 86, 177. 8. अ०३.२. 48,67-101. 9. नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः / अ०३. 1. 134. 10. अ० 3. 2. 146. 11. अ०३. 2. 136. 12. अ० 3. 2. 158. 13. सनाशंसभिक्ष उः / अ० 3.2.168. 14. अ० 3. 2. 148, 151 15. जल्पभिक्षकुट्टलुण्टवृङः पाकन् / अ० 3. 2. 155, 16. तुमुन्ण्वुलो क्रियाया क्रियायाम् / अ० 3. 3. 10.
SR No.035322
Book TitleSanskrit Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherTara Book Agency
Publication Year2003
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size98 MB
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