________________ डीष ] 1: व्याकरण [61 . संस्कृत-प्रवेशिका [ 5 : स्त्री-प्रत्यय 60 ] पौंस्नी (पुरुष-सम्बन्धी ), शाक्तीक ( शक्ति + ईक) >शाक्तीकी ('शक्ति' नामक अस्त्र बाली स्त्री), आपकरण (आढय++रुयुन्)>आढचरणी (अनाढ्यनिर्धन को धनवान बनाने वाली स्त्री), सभगंकरिणी, तरुण>तरुणी (युवती ), ललुन>तलुनी (युवती), गाय (गर्ग + य )>गार्गी (गर्ग गोत्र की स्त्री), वात्सी। (4) अकारान्त 'विगु' समास-संज्ञक में। जैसे--त्रिलोक>त्रिलोकी (तीन लोकों का समुदाय ), पञ्चमूली, सप्तशती। परन्तु 'त्रिफला' में 'टप' हुआ क्योंकि यह अजादिगण में है। (5) प्रथम वयस् ( अवस्था) का बोध होने पर अकारान्त शब्दों में। जैसे-कुमार>कुमारी, किशोर>किशोरी, वधूट> वधूटी, तरुण>तरणी ( युक्ती)। चरम अवस्था का बोध होने पर टाप् होगा। जैसे-वृद्धवृद्धा, स्थविर>स्थविरा।(१) वर्णवाची शब्दों (यदि अनुदात्तान्त और 'त' उपधा में हो। तकार को नकार भी होगा) में विकल्प से। जैसेरोहित >रोहिणी (लाल रङ्ग बाली), हरित>हरिणी, श्येत >श्येनी। 'टाप्' होने पर क्रमशः रोहिता, हरिता और श्येता होगा / (7) अन्य उदाहरण-सपत्नी, बीरपत्नी, मानुष>मानुषी, मनु>मानवी, मनायी। (ख) ङ (ई)-(१) अकारान्त 'षिद' और गौरादि गण के शब्दों में। जैसे-नर्तक (तृत् +बुन )>नर्तकी, खनकी, पथिकी, रजकी / गौरागि गण के शब्दों में-गौर> गौरी, मत्स्य> मत्सी (मछली), मनुष्य > मनुषी (मनुष्य जाति की स्त्री), हरिण>हरिणी, आमलक>आमलकी, शिखण्डी, अननुह। नहीं हैं। गोपालक से गोपालिका होगा / शूद्री (शूद्र की स्त्री), सूर्य >सूरी ('सूर्या'देवता) / (4) जातिवाचक अकारान्त शब्दों में (यदि नित्य स्त्रीलिङ्ग न हो और उपधा में यकार न हो) 'यहाँ जाति से जातिवाचक संज्ञा, ब्राह्मण आदि जाति, अपत्य-प्रत्ययान्त तथा शाखा के पड़ने वाले' ये चारों अर्थ समझना चाहिए। जैसे-तटतटी ( यह नित्य स्त्रीलिङ्ग नहीं है तथा उपधा में 'य' भी नहीं है ), वृषल >वृषली (वृषली-शूद्र जाति की स्त्री), कठ> कठी ( 'कठ' शाखा को पढ़ने चाली), उपगु+अण् + डी - औपगवी (उपगु की सन्तान स्त्री जाति / यह 'डीप्' का अपवाद है)। अन्य उदाहरण-कुक्कुटी, ब्राह्मणी ( इसमें 'हीन्' भी होगा। 'क्षत्रिय' में ही नहीं होगा, अपितु 'टाप' होकर 'क्षभिया' बनेगा क्योंकि दमकी उपधा में 'य' है, परन्तु ह्यो, गवयी, मुकयी, मत्सी, मनुषी में निषेध नहीं 1) / अन्य उदाहरण-सिंही, हंसी, व्याघ्री, गर्दभी, मारी। (5) मनुष्य जातिवाचक इकारान्त शब्दों में। जैसे-दक्ष>दाक्षि>दाक्षी (दक्ष की सन्तान जी), कुन्ती। उकारान्त शब्द होने पर 'ऊ' होगा। जैसे--पुर>कुरू: (कुरु जाति की स्त्री), ब्रह्मानन्धः / (6) इन्द्र, वरुण, भव, शर्व, रुद्र, मृड, हिम, यव, यवन, मातुल और आचार्य शब्दों में ( 'आनुक' - आन् का भी अगम / इन्द्र आदि छह, मातुल तथा आचार्य में पुंयोग अर्थ में ही डीए और आनुक् ) "जैसे-इन्द्र>इन्द्राणी, (इन्द्र की स्त्री), वरुणानी ( वरुण की स्त्री), कमानी, शर्वाणी, रुद्राणी, मृडानी (शिवजी की स्त्री। भव आदि शिवजी ना ), हिमानी ( अधिक बरफ), अरण्यानी ( महद् अरण्य ), यवानी 14 गुरु जी = अन्न), यवनानी ( यवनों की लिपि), मातुलानी ( मामा की 10-मामी। आनुक न होने पर 'मातुली' बनेगा), उपाध्यायी (उपाध्याय - की स्त्री / 'आनुक' न होने पर उपाध्यायानी), आचार्यांनी (आचार्य की Must णत्व' का निषेध है। यदि स्त्री आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होगी तो 'टाप्' Mभाभार्या होगा। इसी प्रकार स्वयं अध्यापन कार्य करने पर उपाध्याया और मा), अयं>अर्याणी (वैश्य कुल की स्त्री। अर्थी और अर्या रूप .00), त्रियाणी (क्षत्रिया और क्षत्रियी रूप भी बनेंगे)। (7) अन्य PM- प्रीत < वस्त्रक्रीती ( वस्त्र में खरीदी गई ), चन्द्रमुख> चन्द्रमुखी 1001+ गगान मुख वाली। चन्द्रमुखा भी होगा), अतिकेशी, ( केशों का बाली। 'अतिकेशा' भी होगा), पाणिगृहीत >पाणिगृहीती ना होने पर 'पाणिगृहीता' वह स्त्री जिसका हाथ पकड़ा गया U01011 (नासिका), सुगात्री ( सुगात्रा), सुकण्ठी ( सुकण्ठा ) / mai योपधात् / अ० 4.3.61 / 2. इतो मतुष्यजातेः / अ० 4.1.65 / प्रभूटहिमारण्य-यवयवनमातुलाचार्याणामानुक् / अ० 4.1.46 / कन्दली, मङ्गली, बृहद >बृहती, महती, उभयी, मण्डली, मतामह>मातामही। (पित्' भी है). पितामही। (2) उकारान्त गुणवाचक तथा बहु आदि गण / शब्दों में विकल्प से / जैसे-मृदु>मृद्वी ( कोमला), पटु> पट्वी, गुरु गुगल बहु>बह्वी, शकट>शकटी, रात्रि>रात्री / अन्यत्र मृदुः, पटुः, बहुः, मका रात्रिः होगा। (3) जहाँ पति-पत्नी भाव रूप सम्बन्ध के कारण पुरुषवाचक समा स्त्री का बोध हो।' जैसे-गोपगोपी ( गोपस्य स्त्री। गाय का पालन माण चाला गोप हुआ और उसकी स्त्री 'गोपी'। 'गोपी' को गोपालन करना मानाया 1. द्विगोः / अ०४.१.२१. 2. वयसि प्रथमे / अ० 3. 1. 20. 3. वर्णादनुदात्तात्तोपधात्तो नः / अ०४. 1.36. 4. 'अनुदात्तान्त' न होने से कृष्ण>टाप् = कृष्णा, कपिला होगा। अग्य होगा-'सारङ्ग>सारङ्गी,शबली। ('अन्यतो जीष / अ० 4.1.40.), 5. षिद्गौराविभ्यान / अ० 4.1.41 / 6. बोतो गुणवचनात् / महाविया अ०४.१.४.1 7.गोगावापायाम् / अ०४.१.४ | "