Book Title: Atmavallabh
Author(s): Jagatchandravijay, Nityanandvijay
Publisher: Atmavallabh Sanskruti Mandir
Catalog link: https://jainqq.org/explore/012062/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atmavallabh आत्मवल्लभर A૦૯લબ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational For Prvate & Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय वल्लभ स्मारक अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव माघ शुक्ल 5 (वसंत पंचमी) संवत् 2045 10 फरवरी 1989 एवं अखिल भारतीय श्वेताम्बर जैन कान्फ्रेंस रजत अधिवेशन 8, 9, 10 फरवरी 1989 के स्वर्णिम अवसर पर प्रकाशित स्मारिका शुभ आशीर्वाद जैनाचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वरजी महाराज -:स्थल :श्री आत्म वल्लभ संस्कृति मंदिर 20वां कि.मी., जी.टी. करनाल रोड पोस्ट : अलीपुर, दिल्ली 110036 दूरभाष : 7202225, तार : 'शोधपीठ' (भारत) Jain Education international Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ॐ कार बिन्दु संयुक्तं, नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव, ॐ काराय नमो नमः ।। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो अरिहंताणं । नमो सिद्धाणं । नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं । नमो लोए सव्व साहूणं । एसो पंच नमक्कारो, सव्व पावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं । । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ d-Los प्रदीरामादिताणामामासिहागना मायायरियातामानवझाद्यामानामाला ने सहमागासाएंचनामा काराम मित छणाowमाणामाला स्वसिण्डमादामालाश ताका लगातसमपणासमणालयचंदाचाराच वसादाबतिकवादकतरार्दिवाचन FOTO Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। नमो वीतरागाय ।। देवदेवः स्वयंसिद्धश्चिदानन्दमयः शिवः।। परमात्मा परब्रह्म परमः परमेश्वरः।। जगन्नाथः सुरज्येष्ठो भूतेश: पुरुषोत्तमः। सुरेन्द्रो नित्यधर्मश्च श्रीनिवासः सुधार्णवः।। सर्वज्ञः सर्वदेवेश: सर्वगः सर्वतोमुखः।। सर्वात्मा सर्वदर्शी च सर्वव्यापी जगद्गुरुः।।। तत्वमूर्तिः परादित्यः परब्रह्मप्रकाशकः। परमेन्दः परप्राणः परमामृतसिद्धिदः।।। अजः सनातनः शम्भरीश्वर श्च सदाशिवः।। विश्वेश्वरः प्रमोदात्मा क्षेत्राधीशः शुभप्रदः।। साकारश्च निराकारः सकलो निष्कलोs व्ययः निर्ममो निर्विकारश्च निर्विकल्पो निरामयः।। अमरश्चारुजोऽनन्त एकोऽनेकः शिवात्मकः। अलक्ष्यश्चाऽप्रमेयश्च ध्यानलक्ष्यो: निरञ्जनः।। in Education international For Private & Pronme Only www.gainclibrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय वल्लभ स्मारक चतुर्मख जिनालय-मूलनायक भगवान श्री वासुपूज्य स्वामी सौजन्य - लाला श्री धरमचंद परिवार श्री पद्मचंद, वीरचंद भाभू-दिल्ली Forte Pennonale Only wwwjanawbrary.oro Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मैं न जैन हूँ नबौद्ध न वैष्णव हूँ न शैव,न हिन्दू हूँ न मुसलमान। मैं तो वीतराग देव परमात्मा के दिखाये हुए शांति के मार्ग पर चलने वाला एक पथिक हूँ।" arrivate sersonal use only W.jaincatory.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वल्लभ विजय and .. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंजाब सदा से शौर्य, समर्पण एवं पराक्रम की भूमि रही है। इसी भूमि पर जिला फिरोजपुर में एक छोटा सा गांव लहरा है। जैसे छोटा सा बीज विशाल वट वृक्ष को जन्म देता है वैसे ही इस छोटे से गांव ने एक तेज स्फुलिंग का दर्शन कराया। आचार्य श्री विजानंद सरीश्वर जी म. का जन्म विक्रम सं. 1894 में चैत्र सुदी प्रतिपदा अर्थात् नववर्ष के प्रथम दिन हुआ। इनके पिता का नाम गणेश चन्द्र और माता का नाम रूपादेवी। बचपन का नाम दित्ताराम जाति कपूर क्षत्रिय उनका बचपन जीरा गांव में व्यतीत हुआ। दित्ता की मेधा अत्यन्त तीव्र थी। वे स्थानकवासी साधुओं के सम्पर्क में आए। प्रभावित हुए और संवत् 1910 में मालेरकोटला में स्थानकवासी दीक्षा अंगीकृत की। शिष्य बने जीवनरामजी म. के नामकरण हुआ आत्मारामजी म. । मुनि आत्मराम जी म. ने ज्ञान-साधना और चारित्र पालन को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। उनमें अदम्य ज्ञान-पिपासा थी। एक ही दिन में वे सौ श्लोक कंठस्थ कर लेते थे। उनमें उत्कट जिज्ञासावृत्ति थी, सत्यान्वेषण उनका मुख्य कार्य था। शास्त्रों की गहराई में जाकर तत्व खोजते थे। आगमों के गहन अध्ययन से उन्हें पता चला कि मैं जिस रास्ते पर चल रहा हूं वह शास्त्रसम्मत नहीं है। शास्त्रों में जिन प्रतिमा का समर्थन मिलता है। उन्होंने अपना मतपरिवर्तन करने का निश्चय कर लिया और अपने सत्रह साधुओं के साथ स्थानकवासी सम्प्रदाय छोड़ कर जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ के वयोवृद्ध साधुप्रवर श्री बुद्धि विजय जी म. के पास सं. 1932 में संवेगी दीक्षा अंगीकार की। नाम रखा गया मुनि आनंद विजय। मुनि आनंद विजय जी को शास्त्रों का अपरिमित ज्ञान था, उनमें अद्भुत व्यक्तृत्व कला थी। उन्होंने समग्र गुजरात और राजस्थान में विहार कर जैन धर्म का प्रचार और प्रसार किया। पंजाब में आकर लोगों को सत्य का मार्ग बताया स्थानस्थान पर जैन मंदिरों की ध्वज पताका फहराई। संवत् 1943 में समग्र भारतवर्ष के जैन समाज ने एकत्र होकर पालिताना में मुनि आनंद विजय को आचार्यपद से अलंकृत किया। इस पदवीदान समारोह में पैंतीस हजार लोग थे तब से उनका नाम आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी म. हुआ। भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद एकसठदी पाट परंपरा पर आचार्य श्री विजयसिंह सूरि हुए। उनके बाद ऐसा कोई प्रभावशाली महापुरुष न हुआ जिसे श्रीसंघ ने आचार्य पद के योग्य समझा हो। 25 वर्ष के बाद जैन संघ को आचार्य श्री विजयानंद सरीश्वरजी म. मिले थे। संवत 1949 में शिकागों में विश्वधर्म परिषद् The World's Parliament of Religions )का आयोजन हुआ था। इसमें सम्मिलित होने के लिए आचार्य श्री को आमंत्रित किया गया था। उन्होंने अपनी धार्मिक मर्यादा का पालन करते हुए असमर्थता व्यक्त की। फिर परिषद् ने उनसे अपना प्रतिनिधि भेजने का आग्रह किया। इस पर सूरिजी ने श्रीयुत वीरचन्द राघवजी गांधी को अपने पास छह महीने तक रखा और जैन दर्शन का ज्ञान कराया। उन्हें शिकागो में अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा। श्री गांधी को वहां आशातीत सफलता मिली। सनातन जैन धर्म से पहली बार समग्र विश्व परिचित हुआ। आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी म. का जीवन और कार्य अत्यन्त विस्तृत है। उन्होंने जैन धर्म को स्थिरता और विकास प्रदान किया, साथ ही उसे विश्व के रंगमंच पर ला रखा। उनमें अद्भुत कवित्व शक्ति थी। पूजाएँ, स्तवन और सज्झायों की उन्होंने रचनाएँ की हैं। कई उच्च कोटि के ग्रन्थ लिखें है। उन्होंने आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरीश्वरजी म. को तैयार किया और अधूरे कार्य पूरा करने का उन्हें निर्देश दिया। संवत् 1953 में गुजरानवाला (पाकिस्तान) में उनका स्वर्गवास हुआ। जैन धर्म, समाज, साहित्य और संस्कृति पर उन्होंने जो उपकार किये हैं, चिरस्मरणीय रहेंगे। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायाम्भोनिधि पंजाब देशोद्वारक जैनाचार्य श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वर जी महाराज सौजन्य - श्री मोहनलाल, बोम्बे बाईल हाऊस मोगा (पंजाब) 110 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तंग हिमभुग, पर्वत-शिखरों से कल-कल निनाद कर बहते निझर-सीकर के समान शीतल व निर्मल जैनधर्म को अपने आचरण और व्यवहार की अवर्णनीय निःस्पह-कार्य-प्रणाली से जन-जन तक पहुंचानेवाले सत्प्रेरक-विश्वमंगल की पुनीत भावना के उपदेशक प्रेम, ऐक्य व पूर्ण मानवता के संदेशवाहक, दरदर्शक कलिकाल कल्पतरू विजय वल्लभ का जन्म वि. सं. 1927 कार्तिक सदी द्वितीया को हआ। बाल्यावस्था में ही मात-पित-वियोग का आकस्मिक दारुण दःख यह धारणा बना गया कि सांसारिक आधार स्वयं आधारविहीन है, सब कछ क्षणिक व अनित्य है। जीवन की शाश्वता प्रभ के ध्यान व चितन में है बाल वल्लभ की यह धारणा आयवृद्धि के साथ पुष्ट होती गई और परिणाम स्वरूप वि.सं. 1944 में राधनपर में दीक्षा के रूप में फलीभूत हुई। कछ वर्षों के निरन्तर स्व-पर शास्त्राध्ययन तपश्चर्या एवं आत्मचितन के बल पर वे मात्र जैन समाज ही नहीं मानव समाज के समक्ष सम्प्रदायों की संकीर्ण परिधि से परे समाज-सधारक विचारक, साधक योगी व प्रसरचितक के रूप में प्रतिष्ठित हए और जन-जन के पूज्य बन गये। तभी तो सं. 1981 मार्गशीर्ष शक्ला पंचमी को अखिल श्री संघ ने आपको आचार्य पदवी प्रदान कर स्वयं को धन्य धन्य माना। तत्कालीन भारतीय नेतागण आप श्री के क्रान्तिकारी विचारों व प्रवचनों से बड़े प्रभावित हुए। उनके श्रद्धान्वित आहवान पर आपश्री ने समाज में चेतना का संचार किया। भारत-पाक विभाजन के समय आप पाकिस्तान में थे। श्री संघ के अननय-विनय करने पर भी अकेले भारत आने से इंकार कर दिया और सम्पूर्ण श्री संघ को साथ लेकर आने की बात पर अटल रहे और उम मानवता की संकीर्णता के परिचायक, भीषण पाशविक विनाश के बीच अपने वचन व दायित्व को आपने सफलतापूर्वक निभाया। पप गरुदेव श्रीमद बिजयानंद सरीश्वरजी महाराज आत्माराम जी साहब ने स्वर्गारोहण से पर्व कहा था वल्लभ। सरस्वती मंदिरों के निर्माण के मेरे स्वप्न को परा करना और साथ ही इस समाज की बागडोर तम्हारे हाथ में सौंपे जा रहा है। गरू वल्लभ ने गरूदेव के आदेशों का अक्षरशः पालन किया। आपने स्थान-स्थान पर स्कल, कॉलेज, गरुकल, वाचनालय, उद्योगकेन्द्र, ज्ञान भाण्डार व धार्मिक पाठशालाएं स्थापित कराई। सर्वजन हिताय का यह दृष्टिकोण वल्लभ को जन-मानस का हृदय वल्लभ बना गया। गरु वल्लभ प्रबल साहित्य प्रेमी ही नहीं अपित साहित्य-स्रष्टा भी थे। गद्य और पद्य दोनों विधाओं में आपकी रचनाएं उपलब्ध हैं। काव्यरचनाओं में भक्ति और संगीत का माधमिश्रण पाठक व श्रोता को अनंत अस्तित्व तक पहँचा देता है। आप द्वारा लिखी गई समस्त 2600 कविताएँ, छंद, स्तवन, भजन, व पुजाएँ जैन साहित्य की नहीं अपित भारतीय साहित्य की अमुल्य धरोहर हैं। जैन धर्म की वैयक्तिक विभिन्नता प्रथम-पृथक विचार धारावाले सम्प्रदायों से आपका मन मलीन हो उठता था। वे चाहते थे सभी सम्प्रदायों से दर एकता सूत्र में बंध कर मात्र जैन कहलायें। कित जैन धर्म व समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर करनेवाले तत्कालीन विद्वद मण्डली में जैन शिक्षाशास्त्री के रूप में विख्यात ज्ञानपञ्ज चितक पंजाबकेसरी आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सरीश्वर जी महाराज महामंत्र नवकार का जाप करते हए वि. सं. 2011. आश्विन कृष्णा एकादशी को बम्बई में इस नश्वर देह का त्याग कर स्वर्ग सिधार गये। दिल्ली में बन रहा वल्लभ स्मारक आपश्री के सदपदेशों व भावनाओं को साकार रूप देने की दिशा में एक ठोस कदम है। भारतीय समाज विशेष रूप से जैन समाज आपका सदैव ऋणी व आभारी रहेगा। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालकल्पतरू पंजाबकेसरी युगवीर आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज सौजन्य - सत्यपाल जैन रखड़ीवाले Hormone होशियारपुर (पंजाब) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनका दर्शन मात्र ही शांति और अद्वैत माधर्य का समन्वय उपस्थित करता था, बिन कहें जिनके आकर्षक मखाकृति में उपदेश, गंगा की अजय धारा के समान मुखर हो उठते थे, जिनके प्रवचनों की शैली मधर मोहक और प्रभावशाली होने के साथ-साथ श्रोताओं पर ऐसी अमिट छाप छोड़ती थी कि वे कभी विस्मृत न कर पाते, ऐसे प्रभावी उपदेशक शातिमुर्ति व पारस पज्य आचार्य श्रीमद विजय समद्र सरीश्वर जी महाराज। आप श्री का जन्म वि. सं. 1948 मार्गशीर्ष शक्ता एकादशी को हुआ। अन्य है वह पानी नगरी (राजस्थान) जिसने ऐसे बहमल्य रसन को जन्म दिया। बाल्यावस्था में गंभीर, एकांतप्रिय व धर्म के प्रति अगाध आस्था रखनेवाले साधु-सन्तों की सेवा में विशेष रुचि लेने लगे। (यह सेवा भाव इस बात का स्पष्ट परिचायक था कि भविष्य में आप सम्पूर्ण जैन धर्म व समाज के लिये प्रेरणा के स्रोत व मार्गदर्शक बन छ समय उपरांत आप आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ नरीश्वरजी म.सा. के सम में आये और फिर बादल को देख नर्तन करते मयर की भांति आप अपना मार्ग प्रणेता पर अभिभूत हो उठे। 19 वर्ष की किशोरावस्था जो सासाररूपी क्रीडास्थली में खेलने की होती है, समुद्र के लिये समोर की असारता का व्यावहारिक पाठ पढ़ाने वाली शारीरिक मोहमाया, आकर्षक बाह्यकांति की कृत्रिमता को दिखॉडत कर अन्तनिहित-नवासीत का दशांना कराने वाली बन गयी। वि. स. 1967 में फाल्गुन वदी षष्ठी को प. पू. आचार्य गुरुदेव श्रीमद् विजय वल्लभ सुरीश्वरजी म. सा. के करकमलों से सूरत नगर में दीक्षा ग्रहण की। पूज्य श्री सोहन विजय जी आपके दीक्षा गुरु गुरु भक्ति की परख भक्त के आचरण कथन व व्यवहार से होती है। आप साथ जीवन के लिये आवश्यक अपरिहार्य समस्त धार्मिक क्रियाओं के साथ पूज्य गुरुदेव के आदेशों का अक्षरश पालन करना अपना लक्ष्य व पनीत कर्तव्य समझते थे, जैसे एक साली बाग के लिये बीजारोपण करे पौधे लगाये और तदनन्तर दूसरा अपना कर्तव्य मानकर सिंचन करे और अपनी धमनिष्ठा से नंदन कानन के समक्ष ला खड़ा करे वैसे ही आप श्री पू. गुरुदेव द्वारा स्थापित शिक्षण संस्थाओं, का मलालयों, उद्योगकेन्द्रों की देखरेख अपना उत्तरदायित्त्व मानकर करते थे। इसीलिये थाना (बम्बई) में बि.सं 2009 माघ सदी 5 को गुरुदेव ने आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर अपना पट्टधर बनाया। आपके हृदय में मानवता के प्रति अपार प्रेम करुणा व सहानभूति थी। आप में राष्ट्रीयता की भावना कट-कूट कर भरी थी। 1962 के भारत-चीन युद्ध के अवसर पर आपने समस्त देशवासियों से अपील की कि वे देश रक्षार्थ धन और सुवर्ण का सक्तहरुल से दान करें। इस महान की इस अपील का अप्रत्याशित प्रभाव पड़ा और प्रचुर मात्रा में सुवर्ण धन संग्रह हुआ। वि.स. 2027 दिल्ली में महावीर स्वामीजी अस्पताल के 2400 के निर्माण महोत्सव के अवसर पर आपश्री को विरुशासनाराम की पदवी प्रदान कर राष्ट्रीय सम्मान दिया गया। आप श्री वहाँ समस्त साध- समाज में सबसे अधिक बृद्ध होने के कारण भीष्म पितामह की भाँति प्रधानपद पर सुशोभित हुए। जैन शासन का यह सूर्य जिसकी आभा में जान मन देदीप्यमान था। जिनकी प्रेरणा के पावन प्रसंगों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षिता रहा ऐसे के जिलशासनरत्न वि. सं. 2034 ज्येष्ठ बढी अष्टमी मुरादाबाद में प्रात काल 6 बजे अपूर्व आराधना के साथ वेदना रोहित अखंड समाधि को प्राप्त हुए। आज मुराबाद में प. पू. आचार्य श्री की पावन स्मृति में जैन श्री संघ को मनीत ओला गरुभक्ति का प्रतीक समाधि मंदिर है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनशासनरत्न शान्ततपोमति राष्ट्रसन्त आचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वर जी महाराज सौजन्य - शा बाबुलाल खुशालपाल 'शा मूलचंद अशोक कुमार, बम्बई For Pres Pemote Only www.jainelibrary.orm Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल प्रशस्त भव्य ललाट महापरूषोचित प्रभावकारी व्यक्तित्व दिव्य प्रकाश पञ्ज से उदभासित बाल रवि के समान नयनाभिराम आकृति, प्राणिमात्र के प्राणाधार बहजन हिताय ही नहीं सर्वजीव हिताय की दृष्टि परोपकारी शुभ चितताओं के जनक उज्ज्वल शरदशशांक की शीतल मरीचिका के समान आहलादकारी, मनसा-वाचा-कर्मणा साधत्व के स्वत नि सुत स्रोत, गुरुपदिष्ट मार्ग पर अनवरत अग्रसर आध्यात्मिक सुषमा-केन्द्र, जन-मन मोहक मोहन प. प. श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सुरीश्वर जी महाराज का जन्म विक्रम संवत् 1980 कार्तिक बदी 9 को बडौदा के निकट सालपुरा ग्राम में हआ। संस्कारी वातावरण, पारिवारिक परम्परा और आचरण पर आधारित होता है। गरु इन्द्र का आज का महान् व्यक्तित्व शैशव काल में ही धार्मिक विशद शाकाहारी, अहिंसावादी पारिवारिक वातावरण से प्रारम्भ हुआ। साधु संतों का समागम उनका उपदेश श्रवण मन में वैराग्य भाव पैदा करने लगा। प्राकृतिक वैभव और हरीतिमा के मध्य रहने के कारण हरियाली का शनैः शनैः पतझड़ में परिवर्तन जीवन की नश्वरता का आभास दे रहा था। बैराग्य का रंग गहरा था और सांसारिक जीवन भार स्वरूप लगने लगा। फलत: सं. 1998 फाल्गुन शुक्ला पञ्चमी को मनिराज श्री विनय विजय जी महाराज के कर-कमलों द्वारा आप श्री ने भागवती दीक्षा ले ली। यग द्रष्टा पंजाब केसरी प. प. विजय वल्लभ सरीश्वर जी महाराज का सुखद सान्निध्य आपकी अन्तर्निहित सौम्यता परमार्थ प्रेम व चारित्रिक गरिमा को द्विगणित करने वाला सिद्ध हआ। आप श्री को वि. सं. 2011 चैत्र बदी 3 को सूरत में गणिवर्य पद का सम्मान मिला और आपके सदगणों से प्रभावित होकर वि.सं. 2027 माध शक्ला पञ्चमी को वरली में वहाँ के नूतन मंदिर के प्रतिष्ठा-महोत्सव पर परम पूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वर जी महाराज ने आपको आचार्यपद से अलंकृत किया। आप श्री ने मानव मात्र को उदारता व सहिष्णता का पाठ पढ़ाने वाले श्री महावीर स्वामी जी का संदेश मात्र जैन बंधओं तक ही नहीं पहुँचाया अपित जैनेतरों तक पहुँचाया और उन्हें प्रभावित किया। गजरात के परमार क्षत्रिय आपश्री के प्रवचनों से इतने प्रभावित हए कि वे गरुदेव के अनन्य भक्त बन गये। 50,000 जैनेतर परमार क्षत्रियों ने बड़े ही धूमधाम के साथ सोत्साह जैन धर्म अंगीकार किया। कितने तो जैन धर्म को अंगीकार कर सन्तुष्ट नहीं हए अपितु जैन मुनि बन गये। जैन इतिहास की यह अभतपर्व घटना स्वयं में इस बात का प्रमाण है कि आप श्री के प्रवचन कितने प्रभावशाली हैं और भटके हओं को राह दिखाने वाले हैं। आप श्री की वाणी में दर्शन न्याय, साहित्य, व्याकरण आगम आदि विषयों का गहरा अध्ययन व पांडित्य स्पष्ट झलकता है। - परम गुरु भक्त आपश्री ने गुरु देवों द्वारा स्थापित संस्थाओं पाठशालाओं को अत्यंत जागरुकता व निष्ठा के साथ सम्भाला है। साथ ही गुरूदेवों की योजनाओं व स्वप्नों को साकार रूप देने की दिशा में कई सबल कार्य पूर्ण कर लिये हैं और कई कार्य पूर्णता की और अग्रसर हैं। बडौदा में बना श्री विजय वल्लभ सार्वजनिक अस्पताल बौडेली का महातीर्थ के रूप में परिवर्तन, गाँव-गाँव में मंदिर और पाठशालाओं का निर्माण पावागढ तीर्थोद्वार, मुरादाबाद में जिनशासनरत्न प. प. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वर जी महराज का समाधिमन्दिर आदि कार्य पूर्ण किये जा चुके हैं। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक वल्लभ स्मारक दिल्ली में पूर्णता प्राप्त कर ली। आप श्री के चरण-कमल गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, जम्म, Kinta काश्मीर, जहाँ भी पड़ते हैं वहीं दीक्षा-महोत्सवों अंजन शलाका-प्रतिष्ठाओं, उपधान तपों, पैदल यात्रा-संघों आदि अनेकानेक पार्मिक कार्यक्रमोंन महोत्सना की धम मच जाती है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदिवाकर परमारक्षत्रियोद्धारक वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी महाराज सौजन्य - श्री अमृतलाल नरेन्द्र कुमार जालंधर शहर (पंजाब) Wiawanelibrary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शुभ आशीर्वाद with 24x4६॥ आता पर विजय २४ वी 91 नीमन के महान व्यक्तित्व 0 min५ मामा के अ५२०५ विभिन्न 44144लम 124 in Pokharel होसके अब ५२ जो आMagar 2017 yकाशित हो २६ 2 2 HR मेरी in amar आपका (Nature किमी age-02 - 04के स५५ rect of मिक And 4 204 २०५ में ५५ 300144 कानाजावर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की राजधानी दिल्ली में आत्म-वल्लभ-जैन मद्रास स्मारक-शिक्षण-निधि के कार्यकर्ताओं ने आत्म-वल्लभ- श्रीमान माननीय ट्रस्टी महोदय वल्लभ स्मारक -दिल्ली संस्कृति-मंदिर के अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव के पावन योग्य धर्म लाभ। प्रसंग पर स्मारिका प्रकाशित करने का निर्णय किया है। यह पत्रिकाएं मिली हैं। बल्लभ स्मारक जिनालय की आल्हाद का विषय है। भारत को इस बात का नाज है कि इस प्रतिष्ठा बसंत पंचमी के दिन होने वाली है,जानकर प्रसन्नता भूमि ने अनेक अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के सन्तों को जन्म दिया। उन्होंने साधना, तप, त्याग और पुरुषार्थ के बल पर अनेक मानवता के कार्य किये, आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शन शासनदेव की कृपा से यह प्रतिष्ठा महोत्सव सुंदर किया एवं स्व-पर का कल्याण किया। उसी सन्त परम्परा शासन प्रभावना पूर्वक निर्विघ्न संपन्न हो- यही हार्दिक की श्रृंखला की कड़ी आचार्य श्री वल्लभ विजय जी महाराज मंगल कामना करता हूं। थे। वे क्रान्तिकारक, उच्चविचारक समन्वयवादी. दीर्घ - आचार्य पद्मसागर सूरि दृष्टि सम्पन्न सन्तरत्न थे। उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक प्रान्तों में पैदल परिभ्रमण कर जनता के मानस को बलसाड़ (गुजरात) पहचाना और उस समय की आवश्यकता को जानकर परम गुरु भक्त महामंत्री श्री राजकुमार जी को अनेक शैक्षणिक संस्थाओं का उपदेश देकर स्थापनाएँ कीं। धर्मलाभ। विद्यार्थियों के छात्रावास के लिये प्रेरित किया। स्त्री-शीक्त आपका पत्र मिला। आप वल्लभ स्मारक प्रतिष्ठा को जगाने के लिये कन्या-मन्दिरों की स्थापना कराई। परम्पराओं से ऊपर उठकर साध्वीवृन्द को प्रवचन देने का महोत्सव निमित्त एक स्मारिका प्रकाशित कर रहे हैं यह मार्ग प्रशस्त किया। जन-जन तक पहुंच कर धार्मिकता व जानकर प्रसन्नता हुई। नैतिकता का सन्देश दिया। उनके गण से उमण होने के गच्छाधिपति आचार्य श्री चारित्र-चूड़ामणि इन्द्रदिन्ना लिये परम विदषी साध्वी श्रीमगावती जी ने जनताको प्रेरित सूरीश्वर जी महाराज की निथा में होने वाले प्रतिष्ठा करके उनके स्मारक ने शोध-पीठ, ग्रन्थालय आदि की अंजनशलाका-महोत्सव, जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स का स्थापना की है। इससे हमारे प्राचीन साहित्य का खजाना अधिवेशन तथा स्मारिका का प्रकाशन आदि कार्यों की मैं सुरक्षित रहेगा। अनेक नये ग्रन्थों का निर्माण होगा। हार्दिक सफलता चाहता हूं। स्मारिका के माध्यम से आचार्य श्रीवल्लभ सरिजीमहाराज वल्लभ स्मारक में अहिंसा-प्रचार, शाकाहार. का ठोस कार्य जनता के सामने आकर उनका जीवन नशाबन्दी, व्यसन मक्ति और अहिंसक समाज रचना के जन-जन के लिये प्रेरणादायी बने तथा इस संस्था के माध्यम कार्यक्रम भी चालू हों, ऐसी मैं स्व. गुरुदेवों के चरणों में पुनः से मानवता के अनेक कार्य सम्पन्न हों, यही मेरी शुभ विनती करता हूँ। कामना है। युगद्रष्टा गुरुदेव का स्मारक भी युगद्रष्टा ही बनाना चाहिये। -आचार्य आनन्द ऋषि जनक चन्द्र सूरि For Private B.Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्षा मन्त्री भारत MINISTER OF DEFENCE INDIA नई दिल्ली 23 जनवरी, 1989 संदेश No.... उप-राष्ट्रपति, भारत नई दिल्ली VICE-PRESIDENT INDIA NEW DELHL-110011 January 13, 1989 श्री विजयबलम तरी जी महाराज उन विभूतियों में ते थे जिन्हनि जैन समाची ही नहीं तनये भारतीय समाव को प्रेम और बन्पुत्व का संदेश दिया और स्त्रियों तथा पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए मम पिया । एक साहित्यकार रेस में भी उन्होंने प्रतिका उर्जितनै । यह प्रसन्नता की बात है कि स्मारक प्रतिष्ठा महोत्सव प्राचार्य श्रीजी दीधा माब्दी तमारोहों साथ हो रहा है। इस अवतर पर प्रकाशित स्मारिका में प्राचार्य जी की जीवनी के साथ जैन तिवांतों की भी बर्क रहेगी। 274 शिक्षा एवं संस्कृति ADSEC/89 मानव संसाधन विकास मंत्रालय भारत सरकार नई दिल्ली-११००० MINISTER OF STATE FOR EDUCATION & CULTURE MINISTRY OP HUMAN RESOURCE DEVELOPMENT GOVERNMENT OF INDIA NEW DELHI-110001 JAMIARYA . 1989 MESSAGE MESSAGE दोनों के लिए मैरी कामना स्वीकार करें। this of Gaur I am happy to learn that befitting memorial in the form of a maltipurpose educational project has been established to commemorate the memory of Acharya Vijay Vallabh Suriji Maharaj. T r appy to lears that the closing of the Centenary Celebrations of the Deeksha oE Acheya Sareef and the Pratishtha Mahotsav of Vijay valabh Suarak is to be held on 10th February 1989. His Holiness devoted his life to the cause of waiversal brotherhood, upliftment of wonten und the weaker sections of the society. He was a great nationalist aad a champion of national integration Pratishtha Mahotsay राममनी साथ सरकारमा रोग JAGDISH TYTLER नई दिल्ली।११०००१ MINISTER OF STATE FOOD PROCESSING INDUSTRIES NEW DELHI 110000 SX (S. D. Sharma) 2. I wish the Smarak all success. I wish project. for the success of the January 941451989. MESSAGE (L.P. SHAHI) I am happy to learn that to commemorate the Centenary Celebration of His Holiness Join Acharya Vijay Vallabh Sur51 Maharal. Shree Atma Vallabhair Smarak Shikshan Nidnt propose to issue a Souvenir on the occasion shortly. Acharyaji was a known floure. He had travelled throughout the country to project the message of love, fraternity and humanity. I am also happy to learn that Smarak Shiksha Nicht also propose to set up a school and a museum in this regard. I wish the organisers all success. सुनसंदेश (Jagdish Tytierpes Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय JAWAHARLAL NEHRU UNIVERSITY INEW DELHI-110007 On the auspicious and inspiring occasion of the centenasy celebrations of the Deeksha of the Acharya Shree Vijay Vallabh Suriji Maharaj. I offer my respectful felicitations I wish the Snarak Mah success in its dedicated works inspired by the life and message of the great Acharya Shree Ji. पुज्या श्री ािभानु, ई-एल क्वीन्स म्यू 18-1-89 संदर्भ संख्या मी आत्म बलाम जैन स्मारव १६ निधि के महा मंत्री श्री प्रिय राज कुमार जैन श्री रत्नचंद जी जैन श्री कान्तिनान जी सप्रेम अभिनन्दन । डापका भावमय निमंत्रण और पत्र प्राप्त हुजा । -अत्यन्त ज्ञानन्द हुआ। the most important need in the Atomic Age 18 for its practice of Ahinsa in our actions. That is crucial to progress whatever may be the field of action. Without Ahinsa there can be no peace of mind, no happiness and in the end, not even man's Burvival. The Nidht it sums, to particularly fitted to make a significant contribution in that direction - The promotion of the practice of Aimee in our actions. I wish its devoted efforts every success. ..Kokan LOSkorHAR) to.S. KOTHARE) CHANCELLOR पू० महातरा साध्वी जी श्री मृगावती जी की प्रेरणा और श्रमसाध्य साधना प्रभाव से यह स्वप्न साकार हुशा और भारत की राजधानी में जन f के साहित्य तह संस्कृति का जीवन प्रतीक हा आ यह एक गौरवगाथा है। जामने और आपके टुम्ब सह सब धर्मबन्धु साथियों ने इस ऐतिहासिक सर्जन पटना में जो तन-मन-धन से जो भक्तिपूर्ण दान दिया है इसका मैने प्रत्यक्ष दर्शन किया है। केदारनाथ साहनी महामंत्री 1166189 दिनांक : 11-1-1989 यि श्री राज कुमार जी, सप्रेम नमस्कार। आप 4-1-1989 के पत्र से "विय वल्लभ स्मारक' काम में हो रही पुनीत की जानकारी प्राप्त कर बहुत प्रसन्नता हुई है। आप और आपके सहयोगो 10 वर्ष पूर्व देवे अपने सपने को साकार करने में सफल हो सके हकोई साधारण बात नहों। बिल पारम्भ से आने वाली कठिनाइयों का जित निष्ठा, धैर्य और परिश्रम से आप लोगों ने तामना किया है, यह आपकी सफलता की कुंजी है। राजधानी दिल्ली में महाराज आचार्य विजय यस्तम सूरीजी चले तपस्वी या राष्ट्रीय महापुल्या स्मारक होना ही चाहिए था। वह अद्वितीय हो ह भी अपितहीहै। स्मारक भारतीय वास्तुकला, धर्म, पुरातत्व और जीवन दर्शना अभुतप्रतीक है। निस्सन्देह ह सप्पुयात तफल होगा और स्मारक आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा कालोत बनेगा। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं, भवदीय, Thera / केदार नाथ साहनी 4607 पू० आचार्य श्री वलमसूरीश्वर जी एक युगद्रष्टा और युगसृष्टा थे उनकी विराट प्रतिमा और विशाल दृष्टि मेरे मन सदा संस्मरणीय है। उनकी स्मृति में आपने यह स्मारक सर्जा है वह उनके आदेशों को मूर्त करेगा यह मेरा विश्वास है । पंजाब के गुरूभक्तों ने अमित की बीपित्त का दर्शन जैन समाज का करवाया है। आज इसअवसर पर साध्वीश्रीजी मगावती जी देह में अपने बीच नहीं पर उनकी आत्म प्रभा आज प्रकाश वर्धा कर रही है। इस प्रतिष्ठा महोत्सव पर जरूर जाता पर पहले से ही मेरा एक कार्यक्रम अन्यत्र निधारित हुभा है पर मेरी प्रार्थना और रोष्टरxx गुमेच्छा आप साथ है। सबका विषय हो । चित्रभानु -चित्रमान 11, अशोक रोड, नई दिल्ली -11000111, Ashok Road, New Delhi-110 007 दूरभाष: 383340,300500 For Pre & Personal use only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atmavallabb आत्मवल्लभन આત્મવલભ स्मारिका W शभ आशीर्वाद आचार्य श्री विजय इन्द्रदिन्न सरिजी महाराज सम्पादक मण्डल प्रधान सम्पादक गणि श्री जगच्चन्द्र विजय गणि श्री नित्यानन्द विजय कला सम्पादक सह सम्पादक मग सज्जा) हिन्दी विभाग कांति रांका अवधनारायणधर द्विवेदी संयोजक बीरेन्द्र कमार जना नरेन्द्र प्रकाश जैन, राघव प्रसाद पाण्डेय सदर्शन कमार जैन अंग्रेजी विभाग विज्ञापन संकलन डॉ० प्रेम सिंह इन्द्र प्रकाश जैन गजगती विभाग प्रकाशक डॉ. रमणलाल सी शाह श्री आत्म बल्लभ जन स्मारक शिक्षण निधि डॉ कमाल देसाई 20वा कि मी जी.टी. करनाल रोड। अलीपुर दिल्ली 11003657 मुद्रकश्री जैनेन्द्र प्रेस ए-45 नारायना, फेज-12 नई दिल्ली-1100280 www.camelibrary.org and ducation International Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जैनाचार्य श्री विजयानंद सूरि (श्री आत्माराम जी महाराज) के सयोग्य शिष्य और पट्टधर आचार्य श्री विजय वल्लभ सरि जी ने गरुदेव से आदेश और आशीवाद प्राप्त कर जैन-शासन और मानव-कल्याण के लिए जो अपर्व कार्य सम्पन्न किए, सर्वविदित हैं। उनकी कीर्ति को चिरस्थायी और चिरस्मरणीय बनाने के लिये दिल्ली में श्री विजय वल्लभ स्मारक की कल्पना साकार हुई। यह स्मारक आचार्य श्री के गौरव के अनुरूप बने, इसका विशेष ध्यान रखा गया। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह स्मारक आकाश से वार्तालाप कर रहा है और आभा तथा उत्तुंगता में नगाधिराज हिमालय का उपमेय बन गया है। श्री विजय वल्लभ स्मारक का अंजनशलाका-प्रतिष्ठा, महोत्सव आचार्य श्री विजय इन्द्रदिन्न सूरि, की निश्रा में वसंतपंचमी तदनुसार दिनांक 10.2.89 को सम्पन्न हो रहा है। स्मारक के कर्णधारों ने इस अवसर पर आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि की कीर्ति और उनके गरिमामय, अद्वितीय स्मारक के उपयक्त "आत्म-वल्लभ" स्मारिका प्रकाशित की, जिसे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हए हमें अपार हर्ष हो रहा है। प्रकाशन के पूर्व स्मारिका-समिति के सदस्य समय की कमी और कार्य के आधिक्य के कारण व्यग्र थे कि यह महान कार्य कैसे संभव होगा। कित् गुरु वल्लभ के आशीर्वाद और गुरुजनों की कृपा तथा सहयोगियों के अथक प्रयास से यह असम्भव कार्य आसानी से संभव हो गया। स्मारिका की सफलता के लिये आचार्य श्री विजय इंद्रदिच सूरि जी का आशीर्वाद तो हमें प्राप्त ही था, आप श्री ने विभिन्न समितियों के लिए सुयोग्य और अनुभवी सदस्यों का नामांकन कर हमारा मार्ग पूर्णतः प्रशस्त कर दिया। स्मारिका के संपादक-द्वय गणिवर्य श्री जगच्चन्द्र विजय और गणिवर्य श्री नित्यानंद विजय के नाम का आकर्षण स्मारिका के लिये वरदान सिद्ध हुआ। विशेष कर गणिवर्य श्री जगच्चन्द्र विजय जी ने अहर्निश सहायक संपादकों, साज-सज्जाकारों, परामर्शदाताओं, स्मारक-समिति के सदस्यों, विज्ञापन-प्रतिनिधियों एवं कार्य-समिति के सदस्यों का बहुमूल्य मार्ग-दर्शन किया जिससे "आत्मवल्लभ" को आकर्षक और उपयोगी बनाने में हमें आशातीत सफलता मिली। बिना किसी का नामोल्लेख किए हम उन सभी सहयोगियों, सहकर्मियों और विज्ञापन-दाताओं के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं जिन्होंने अत्यन्त मनोयोगपूर्वक स्मारिका-प्रकाशन में अपना बहमुल्य योगदान प्रदान किया। अन्त में सहृदय पाठकों से निवेदन है कि त्रुटियों की ओर ध्यान न देते हुए इसे संदर्भ-ग्रंथ के रूप में पढ़कर ज्ञान-वर्धन करें। नरेन्द्र प्रकाश जैन सुदर्शन कुमार जैन you For Private Female Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादक इकीन सम्पादकीय ● प्रकृति की सर्वोत्तम कृति मानव है। भिन्न-भिन्न चित्तवल्लियों के कारण उसके स्वभाव में विभिन्नता पाई जाती है। कुछ व्यक्ति किसी मार्ग का अन्धानुसरण कर चल तो देते हैं पर मार्ग की दुर्गमता के कारण साहस छोड़ बैठते हैं, तो कछ साहसी तव्य तक पहुंचने का प्रयास करते हैं और संफान भी होते हैं। कित कतिपय ऐसे दुर्लभ महामना होते हैं जो जिधर चलते हैं स्वयं एक तथा मार्ग बन जाता है। ऐसे पचिक मानव होते हुए भी नवयुगदृष्टा और भ्रष्टा कहकर पूजे जाते हैं। उस शान्तिशोधक के चरणयगल अनुयायियों के लिए प्रकाश-सम्म बन जाते हैं, उनके मखारविन्द से उच्चरित शब्द आस्तवाक्य कहलाते है, उनकी दिनचर्या और प्रवृत्ति आदर्श का रूप धारण कर लेती है, उनके विचार, आशीर्वाद और ॐ वरदान का फल देते हैं। युगवीर बल्लभ एक ऐसे ही महतीय मानव थे। प्रकृतिप्रदत्त विशेषताओं के अतिरिक्त लागणारहित मानव-कल्याणकारी सिद्धान्त पूज्य गुरुदेव का जीवन-दर्शन था। यद्यपि आपश्री के विराट व्यक्तित्व का वर्णन करने में शब्द असमर्थ है तथापि निर्मल आन्तरिक चेतना के वशीभूत होकर साध-साध्वी-वृन्द, गुरूप्रेमी भक्त समुदाय अपने परोपकारी आदर्श पुरुष के प्रति न केवल श्रद्धान्वित हृदयोद्गार व्यक्त करता रहा है अपित उनकी विचारधारा को साकार रूप देकर उसे पल्लवित प्रणित और फलित भी करता रहा है। दिल्ली स्थित विजय वल्लभ स्मारके एक ऐसा अनुपम तीर्थ स्थल है, जो पूज्य गुरुदेव के विचार और सिद्धान्तों का यथार्थ प्रतिविम्ब है तथा भविष्य में यह स्थल आगे आने वाली पीढ़ी के लिए सन्मार्ग और संस्कृति का प्रवक्ता भी प्रमाणित होगा राष्ट्रीय मार्ग से लगा होने के कारण यह जन-मानस का आकर्षण केन्द्र तो है ही, इससे भी बढ़कर यदि इस अविस्मरणीय स्थल को बीसवीं सदी की जैन शिल्पकला और भाव की दृष्टि से सर्वोत्तम कृति कहा जाये तो कोई अत्यक्ति नहीं होगी) वल्लभ स्मारक के निर्माण में सर्वाधिक योगदान जन-भारती महत्तरा साध्वी श्री मृगावती का रहा है, जिन्होंने स्मारक निर्माण हेतु स्वयं को समर्पित कर दिया था, उन्हें इस वल्लभ- स्मारक का "नीव का पत्थर" कहना अधिक उपयुक्त होगा। क्ति उनके इस श्लाध्य कर्तव्य के पीछे प. प. गुरुदेव जिन शासनरत्न शान्ततपोमूर्ति आचार्य श्रीमद्विजय समुद्र सुरीश्वर जी महाराज का प्रेरणात्मक आदेश रहा है और जैन-दिवाकर वर्तमान गच्छाधिपति प.पू. आचार्य श्री विजय इन्द्रदिन सरि जी महाराज के आशीर्वाद तथा शुभचिन्तन का महत्व कम नहीं है, जो निर्माण कार्य की प्रगति और पणता के लिए सतत सचेष्ट रहे। ऊपर लिखित श्रद्धास्पद व्यक्तियों के अतिरिक्त महत्तरा श्री की शिष्याएँ साध्वी सवता श्री आदि का स्मारक को साध्वि प्रदान करना भी सराहनीय है एवम् शिलान्यास से प्रतिष्ठापर्यन्त अहोरात्र तन, मन और धन से समर्पित श्री राजकुमार जैन का यशस्वी योगदान आदर्श और अनुकरणीय है। स्मारक, जिसका 29.11.1974 को समारोह के साथ शिलान्यास किया गया और जो अब बनकर तैयार है, उसके मुख्य • मांदर की प्रतिष्ठा हेतु दिनांक 1.2.89 में 11.2.89 तक एकादशी का महात्सववज्य आचार्य श्री विजय इन्द्रदिन सूरीश्वर जी महाराज की शुभ दिश्रा में सम्पन्न होगा। प्रतिष्ठा के इसी पावन पर विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक एवं सहजपयोगी कार्यक्रमों के साथ स्मारिका का प्रकाशन कर पूज्य गुरुदेवों के गुणगान के साथ जैन धर्म, संस्कृति तथा वल्लभ के प्रति एक साभार समर्पण व्यक्त किया गया है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस आत्मवल्लभ' स्मारिका में पूज्य आचा गुरुदेवों की स्मृतियां जाने में सबसे बड़ी समस्या समय की रही, स्वल्प समय में गुरुतर कार्य करना कठिन था तवापि विद्वान लेखका कवियों एवं विचारकों ने परी तत्यामा दिखाकर अपने लेख, कविताएँ और उद्गार जपण्य और स्थान की कमी के कारण सबको स्मारिका में स्थान है। पाना सम्भव नहीं हो पाया। फिर भी जिन्होंने अपने लख तथा रचनाएँ भेजी जुन सभी विचारकों के हम आभारी है स्मारिका सम्पादन में हिंदी हलती व अंग्रेजी कलह सम्पादक क्रमश पडित थी अब बनारायण धेरै विचदी श्री वीरेन्द्र कुमार जैन एवं श्रीराधव प्रसाद पांडेय, डा रमन डॉ. कुमारपाल देसाई तथा सिंह का सहयोग सराहनीय हैं। स्मारिका की रूप म महाकार श्री. कामि, एका का योगद उल्लेखनीय है। संयोजक एवं प्रकाशक श्री नरन्द्र प्रकार्या जन एवं श्री प्रदर्शन कमार जैन श्री आत्मवहन नि शिक्षण धि विज्ञापन वाया में इस्काश अन मुद्रक श्री बनन्द प्रेस श्री आत्मानन्द जैन ने कीला स्मारक प्रतिष्ठा महात्यन्त समिति, अनुवाद वासपज्य स्वामी ट्रस्ट के समस्त स्टीगण के अतिरिक्त जिन प्रत्यक्ष-अगत्यक्ष रूप से जई ने भी दिसा के पात्र HETH विद्या आमवल्लभ सारिका एक प्रति है। इसे यथाशक्य सब दृष्टियों से सर्वोत्तम बनाने का प्रयास किया गया है फिर भी शीघ्रता के कारण वटियों का रह जाता उसे सुधार कर पढ़ें।" Jain Educason international गणि नित्यानन्त्र www.jainelibra Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं क्या चाहता हूँ? "होवे कि न होवे, परन्त मेरा आत्मा यही चाहता है कि साम्प्रदायिकता दर हो कर जैन समाज, मात्र श्री महावीर स्वामी के झण्डे के नीचे एकत्रित होकर श्री महावीर की जय बोले तथा जैन शासन की वृद्धि के लिए ऐसी एक "जैन विश्वविद्यालय" नामक संस्था स्थापित होवे। जिससे प्रत्येक जैन शिक्षित हो, धर्म को बाधा न पहँचे, इस प्रकार राज्याधिकार में जैनों की वृद्धि होवे। फलस्वरूप सभी जैन शिक्षित होवें और भख से पीडित न रहें। शासन देवता मेरी इन सब भावनाओं को सफल करे। यही चाहना -वल्लभसूरि JainEducatmrernational For PVN rezanty Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे चरणों में शतशत नमन, मा सिमरण से दुरित पार्श्व प्रभ जी की मातृशक्ति सब के જરાતને ગુજરાતની પ્રજાને, પ્રજાની સંસ્કાર સમૃદ્ધિને અને નૈતિકતાને ઘડી, પાસા પાડચા, એ પાણીને બહાર આવે. એની ચમકને જગત એની સામે નીરખ્યા જ કરે એ ज तेरे दर्शन संस्कारी खापा લિકાલસર્વજ્ઞ શ્રી હેમચન્દ્રાચાર્ય બચેલા ઓને तु बना लो प्रभु अपना प्रभ मोहे अपना बनाना होगा बनाना होगा बनाना होगा शरणागत वत्सल में आया हूँ शरणे सेवक निजान निभाना होगा शरण न तुम बिन मोहे किसी का अब तो अपना कहना होगा वल्लभ र जला रहा है मोहे क्रोध दावानल . समकित ध - हो क्षमा वर्षा से बुझाना होगा मान अहिं मोह खाय रहा है नम्रता देके बचाना होगा माया प्रपंच मोहे उलझा रहा है THE INTERIORS OF SOME FIFTEENTH CENTURY JAINA TEMPLES OF RAJASTHAN फोटोग्राफी देके सरलता छुड़ाना होगा अ- सागर में मैं डूब रहा हूँ उन्तोष नावा तिरा श्री कान्ति रांका - संयोज जाता के आगे अधिक क्या क 1, सुभट मेरे पीछे ल दे बहमचर्य हटाना हो 'श वा प्रभ० युग दृष्टा en. of the Satrunjay प्रभ० विजय इन्द्रदिन्न सूरि M.A. DHAKY the 13th century witnesse and destruction of e oles in Western In the eighth and of desecrated Jain quantities ecorated colur प्रभु० प्रभ० प्रभु० प्रभ आखिर पार लगाना होगा आतम लक्ष्मी सहर्ष मनायो वल्लभ अपना बनाना होगा आचार्य विज पता। VIJAY VALLABH SMARAK जैन-दर्शन और विश्वशान्ति nces the rec t these sacred 1. 3, rather tim An भगवान् महावीर विजयइन्द्र तक (पट्ट- परम्परा) नी।। ined to build nquest and sthan. The he destruc Arthas o hile unc ns anc agin anu er moi. century 1 ing activitie century A' mical in sr ph श्री सुधर्मा स्वामी जी (अनगार निर्ग्रन्थगच्छ) 'जंबूस्वामी जी प्रभव स्वामी शय्यभव सि लोभद्र सर गा हमारे गुरुदेव : आचार्य विजय वल्लभ वल्लभ विशेष कल्याणद यद्यपि आप मर्थ हैं सदबाह स्वामी जी इस पृथ्वी पर कि और स्वा प्रकृति की सर्वोत्तम कृति मानव है चित्तवृत्तियों के कारण उसके स्वभाव में वि जाती है। कुछ व्यक्ति किसी मार्ग का अन्धानुसर तो देते हैं पर मार्ग की दुर्गमता के कारण साहस छोड़ तो कुछ साहसी गन्तव्य तक पहुँचने का प्रयास करत सफल भी होते हैं। कित कतिपय ऐसे दुर्लभ महामना जो जिधर चलते हैं स्वयं एक नया मार्ग बन जाता है। पथिक, मानव होते हुए भी नवयुग-द्रष्टा और स्रष्टा कह पूजे जाते हैं। उस शान्तिशोधक के चरणयुगल अ के लिए प्रकाश स्तम्भ बन जाते हैं, उन वल्लभ उच्चरित शब्द आप्तवाक्य कहलाते और प्रवृत्ति आदर्श का विचार, आशीर्वाद गधु-स ।। जयन्तु वीतरागाः ।। भगुरुसङ्क्षिप्तचरित्रर गवाल्यबह्माचारिणे बल्लभसरये ।। T: 1 प्लभ जन्म लिया, अपनी सुविधा किया और अन्त में व समुदाय के क्ति ऐ है, न जन्म -आचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वजी तु प्रकाशकीय 15 महावी भगवान अनेकान्तवा च सदिय अन्याय का धन अन्याय-अनीति या हिंसा आदि में जो भी बात से सत्ता या और कई चीज प्राप्त की जाती है, आसक्ति पूर्वक स श्री गदि विवाडी.... का एक भुत मार्ग। अन्तरिक चेतना के वशी -दर्शन वृन्द, गुरुप्रेमी भक्त समुदाय अप वर्णन करने में आदर्श पुरुष के प्रति केवल श्रद्धान्वित् करता रहा है अपित उनकी विचारधारा पे पल्लवित, पति धर्म-चित्त की शुद्धत 3 elibrary.om Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ satmavallabb आत्मवल्लभा । श्री वल्लभगुरुसंक्षिप्तचरित्रस्तुतिः ... मनि पण्य विजय । । हमारे हृदय-सम्राट આત્મવલભ 2. भक्तामरपाद-पर्तिरूपासरि-राजस्तुतिः .... मुनि विचक्षण विजय .... 2 विजय वल्लभ 3. जैनाचार्य श्री १०८, श्रीमद विजयवल्लभ सरीश्वरजी महाराज की जन्मादि कण्डलियाँ 4. श्री वल्लभ निर्माण कण्डली गान ... हस्तीमल कोठारी....... 5. हमारे गरुदेव : आचार्य विजय वल्लभ ... आचार्य विजय समुद्रसरीश्वरजी । 6. माँ के वचन पूरे हए.. आचार्य विजयन्द्रदिन्न सूरीश्वरजी..... 7. जैन समाज के प्रखर शिक्षा शास्त्री... आचार्य विजयजनक चन्द्र सूरि ....... 8. आचार्य श्री विजय वल्लभ सरि - सर्वतोमुखी व्यक्तित्व के धनी ..... उपाध्याय अमर मनि । 9. समन्वयी वादी आचार्य - विजय वल्लभ सरि ... आचार्य तुलसी.....। 10. वल्लभ गरु मक्तक... गणि बीरेन्द्र विजय , .......................। 11. आचार्य श्री विजय वल्लभ सरि 'जीवन घटनाक्रम - एक नजर में ... गणी वीरेन्द्र विजय 12. वल्लभ एक सर्वदेशीय व्यक्तित्व... मुनि जयानन्द विजय .....। 13. गरु वल्लभ द्वारा स्थापित संस्थायें .... मनि चिदानन्द विजय .......। 14. अधरी भावना.... अगरचंद्र नाहटा .....। 15. रूबाईया ... अभयकुमार जैन 16. मध्यम वर्ग एवं आचार्य विजय वल्लभ ... ऋषभदास सका। 17. समाजोत्थान के मल तत्व... विजय वल्लभ परि......। 18 हमने भगवान महावीर को खोया है... आचार्य विजय वल्लभ 19. यगवीर - विजय वल्लभ ..... साध्वी पीयुषपूर्ण श्री ...... 20 यगवीर - विजय वल्लभ ... साध्वी समंगला श्री । 21 प्रसंग-परिमल ... मनि नवीनचन्द्र विजय, - राघव प्रसाद पाण्डेय ...। 22. पंजाब केसरी के पांच आदर्श... ऋषभदास जैन ...............। 23. विश्व की विराट् विभूति विजय वल्लभ .... साध्वी यशोभद्रा श्री 24. वल्लभ-महिमा ... राघव प्रसाद पाण्डेय ...... 25. श्री विजय वल्लभ सरीश्वरजी महाराज मेरी दष्टि में .... डा. जवाहरचन्द्र पटनी 26. जैन संत - कवि श्री विजयवल्लभ सूरि जी महाराज . प्रो. रूपलाल वमा .......। 27. अपना बना लो प्रभ आचार्य विजय वल्लभ मरि । 28. बल्लभ की अमोघ शक्ति और भक्ति , ... प्रो. राम जैन ...। 29. गुरु वल्लभ और संक्रान्ति महोत्सव . . रघबीर कुमार जैन । 30. दीर्घ दशी : गरु वल्लभ ... लाडोरानी जन«ate & Personal use Only अनुक्रमणिका Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ एवं कला वैभव 31. श्रद्धांजलि गीत in. 32. गुरुदेव का चमत्कार 33. मानवता के प्रेरक. 34. दःखियों का मसीहा .... 35. गरु वल्लभ के तीन उपदेशक... साध्वी अमितगुणा श्री 36. वंदना... रमेश पंवार 37. SHRI VIJAYVALLABH SURISHWAR JI MAHARAJ घनश्याम जैन रतनचंद जैन ... खरतरगच्छीय मुनि श्री जयानन्द साध्वी प्रमोद श्री 38. JAIN SAINT ACHARYA SHRI VIJAYA VALLABH SURI (1870-1954) DEMOC 39. भगवान महावीर से विजय इन्द्र तक (पट्ट परम्परा) 40. आत्माराम जी महाराज (गुजराती)... डॉ० रमणलाल ची. शाह 41. म.सा. श्री विजय वल्लभ सूरीश्वरजी साध्वी सुमति श्री 42. ओ मेरे गुरु तेरी तय हो .... मुनि धर्मधुरन्धर विजय 43. आचार्य इन्द्रदिन्न सूरि सर्वगुण सम्पन्न जैनाचार्य. 44. जागे भाग हमारे... सुशील "रिन्द" 45. मानव सद्भावना के महान् संत.... - श्री विजय इन्द्रदिन्न सूरि... श्री अविनाश कपुर 46. श्रीमद् विजय जनकचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज WAN MEN ACA 1. THE TEMPLES OF INDIA 2. THE JAIN TEMPLE 3. SOME INSCRIPTIONS AND IMAGES ON MOUNT SATRUNJAYA... AMBALAL PREMCHAND SHAH 4. JAINA TEMPLES OF RAJASTHAN. 5. THE IMAGES OF THE TEMPLE .... 6. TEMPLE WORSHIP 7. जिन मंदिर विधि... मुनि विनोद विजय 8. तत्त्वार्थ श्रद्धाणं समग्रदर्शनम् 9. जैन स्थापत्य और शिल्प... सुमंत शाह अ. ना. धर द्विवेदी M.A. DHAKY 10. गुरु वल्लभ और कांगड़ा तीर्थ... शान्तिलाल नाहर 11. पावन तीर्थ श्री हस्तिनापुर... निर्मल कुमार जैन 12. भगवान महावीर की जन्म भूमि क्षत्रियकड. AAN हीरालाल दुग्गड़ 56 56 57 57 58 58 59 61 63 64 68 69 71 73 73 74 1 3 6 9 14 16 17 21 22 27 28 30 atmaVallabh आत्मवल्लभ આત્મવલ્લભ अनुक्रमणिका Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन 2 और इतिहास atmavallabb आत्मवल्लभा ।. देश के लिये संदेश ... विजयेन्द्रदिन्न सरि । આત્મવલભ 2. जैन दर्शन और विश्व शांति... आचार्य विजय इन्द्रदिन्न.... 3 श्रावक धर्म ... गणि जगच्चन्द्र विजय , ........... 4. पर्वगत आगमों की परम्परा... डॉ० गोकुलचन्द्र जैन ...... 5. भगवान महावीर का अनेकान्तवाद ... साध्वी मृगावती श्री.... 6. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म... साध्वी ओंकार श्री ........। 7. अनेकान्तवाद... पं० गिरिजादत्त त्रिपाठी 8. कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य .... साध्वी प्रफुल्ल प्रभा श्री ............। 9. अकबर प्रतिबोधक श्री हरि विजय सूरि... मुनि अरुण विजय .........। 10 तीर्थं तथा राष्टं प्रति जैन समाजस्य योगदान ... साध्वी नयनानंद थी। 11. जैन दर्शन में छः लेश्वाएं... आचार्य रजनीश ..... 12. प्रमख जैनाचार्यों की योग दर्शन को देन . . . अरुणा आनन्द 13. धर्म चित्त की शुद्धता .... अनुराधा . . . . . . . . . . 14. CHATURVIDH SANGH .............. 15. JAIN LITERATURE ..............। 16. STUDIES IN THE FOLK-TALES OF INDIA... M.B. Emeneau ...... 17. THE VALLUE OF A VEGETARIAN DIET ... Dr. Natubhai Shah ....... 18. CONTRIBUTION OF THE JAINS... IN THE FIELD OF COMMERCE, TRADE, INDUSTRY AND SOCIAL RESPONSIBILITY... Pratap Bhogilal ....... 19. JAIN STUDIES IN GERMANY... Magdalene Duckwitz 20. ABOUT AN AKSAYATRITIYA VYAKHYANA... Dr. Nalini Balbir H.. 21. JAINISM - A UNIVERSAL RELIGION ... Sudhakar M. Dalal ...... 22. मेरी भावना . . . . . . . . . . 23. कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य (गजराती)... पं० शीलचन्द्रविजय जी गणि.... 24. जप साधना ... शशिकान्त महेता ...................................... 25. जैन साहित्यमा बुद्धिचातुर्यना कथा घटको .... पन्नालाल र० शाह .............। 26. जैन साहित्यगत प्रारम्भिक निष्ठा .... पं० दलसुख मालवणिया। 27. श्री वीरचंद्र राघवजी गांधी... डॉ० कुमारपाल देसाई ..........। 28. समता ... प्रा० तारा बहेन रमणलाल शाह अनुक्रमणिका viww.jainelibrary.org, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्लभ स्मारक नींव से शिखर तक atmavallabh आत्मवल्लभर આત્મવલભ 1. श्रद्धा-परुष... मनि श्री नवीनचन्द्र विजय 2. वल्लभ स्मारक मंगलकारी... प्रो० 'राम' जैन ..... 3. मातेश्वरी पद्मावती ... साध्वी मृगावती .......। 4. गरु वल्लभ की अमर स्मति... आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सरि । 5. बल्लभ और बल्लभ स्मारक... मुनि श्री अमरेन्द्र विजय .......। 6. बीजांकर से फलवृद्धि तक-विजय वल्लभ स्मारक... राजकुमार जैन ............. 7. जैन स्थापत्य कला की उत्कृष्ट कलाकति "वल्लभ स्मारक"... विनोदलाल एन, दलाल.. 8. चेतना के स्वर... गणि नित्यानंद विजय 9. "गुरु वल्लभ और वल्लभ स्मारक". . . साध्वी प्रगुणा श्री ...... 10. विश्व विथत वल्लभ स्मारक... प्रियधर्मा श्री ...........। 11. जगती का शिक्षक... राधव प्रसाद पाण्डेय 12. विजय वल्लभ स्मारक में "भोगीलाल लेहरचंद भारतीय संस्कृति संस्थान"... नरेन्द्र प्रकाश जैन 13. 'विजय वल्लभ स्मारक' जैन ज्ञान भण्डार... महेन्द्र पी. सेठ । 14. श्री विजय वल्लभ जैन होम्योपैथिक औषधालय ... वीरचंद भाभू । 15. "वल्लभ स्मारक" भोजनशाला ... कृष्ण कुमार | 16. नींव की ईंट ... अवधनारायणधर द्विवेदी .....। 17. PILLARS OF SMARAK - AN INTRODUCTION 18 श्री आत्मानन्द जैन सभा दिल्ली... सुदर्शनलाल जैन 19. श्री जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स ... राजकुमार जैन .....। 20. महत्तरा साध्वी श्री मृगावती श्री जी महाराज ... 21. महत्तरा जी की छाया.., सुशील रिन्द..... 22. महत्तराजी : एक राष्ट्रीय मूल्यांकन ... सुप्रज्ञा श्री....। 23. श्री मृगावती महाराज की दिव्य अलौकिक शक्ति... राजकमार जैन । 24. महत्तरा मृगावती जी और सन्यास की महिमा... वीरेन्द्र कुमार जैन .. 25. महत्तरा जी का महान जीवन ... दलसुख मालवणिया ।। 26. अध्यात्म जगत की ज्योति .... विद्या बहन शाह .. 27. महत्तराजी - नियमावली और विशेषताएं... आर्या सुव्रता श्री .... 28. साध्वी संघ - एक विनती... साध्वी मृगावती श्री .......... 29. जीवन मां सादाई नुं महत्व... पु० महत्तरा जी मृगावती श्री जी ..... 30. महत्तराजी नुं महाप्रयाण... राजकुमार जैन .............। 31. शासन हित स्वका किया अर्पण... पन्नालाल नाहटा .....। अनुक्रमणिका Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational For Prvate & Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2atmaVallabh आत्मवल्लभ આત્મવલભ हमारे हदय-सम्राट -विजय वल्लभ हे विश्व शांति के सूत्रधार! हे ऐक्य नीति के सृजनहार! हे युग द्रष्टा ! हे युग वल्लभ! है बार- बार तझको प्रणाम !! For Private & Person a li Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। जयन्तु वीतरागाः ।। 'श्रीवल्लभगरुसक्षिप्तचरित्रस्ततिः बाल्यभावात्तदीक्षाय आबाल्यब्रहमचारिणे । ब्रह्मतेजोऽलकृताय नमो बल्लभसूरये ।।१।। विजयानन्दसूरीन्द्रपादसेवाप्रभावतः । प्राप्तज्ञानादिकौशल्यः जयतात सरिवल्लभः ।।२।। शान्तो धीरः स्थितप्रज्ञो दीर्घदर्शी जितेन्द्रियः । प्रतिभावानुदारक्ष्च जयताद् गुरुवल्लभः ।।३।। ज्ञातं श्रीवीरधर्मस्य रहस्यं येन वास्तवम् । धारितं पालितं चापि जयतात् सूरिवल्लभः ।। ४।। श्रीवीरोक्तद्रव्यक्षेत्रकालभावज्ञशेखरः । अतज्ज्ञतन्मार्गदर्शी जयताद् गुरुवल्लभः ।।५।। जागरूकः सदा जैनशासनस्योन्नतिकृते । सर्वात्मना प्रयतिता जयतात् सूरिवल्लभः ।।६।। जैनविद्यार्थिसज्ज्ञानवृद्धयै विद्यालयादिकाः । संस्थाः संस्थापिता येन जयताद् गुरुवल्लभः ।।७।। पान्चालजैनजनताधारस्तद्धितचिन्तकः । तद्रक्षाकारी प्राणान्ते जयतात् सूरिवल्लभः ।।८।। साधर्मिकोद्धारकृते पन्चलक्षीमसूत्रयत् । रुप्याणां मुम्बईसवाद् जयताद् गुरुवल्लभः।।९।। विजयानन्दसूरीशद्रता विश्वकामनाः । प्रोद्मविता यथाशक्ति जयतात् सूरिवल्लभः ।। १०।। जीवनं जीवितं चारु चारित्रं चारु पालितम् । कार्य चारु कृतं येन जयताद् गुरुवल्लभः ।।११।। मुनि पुण्यविजयः । For Private & Personal use only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामरपाद-पूर्तिरूपासूरि-राजस्तुतिः।। वयं कथं लवपुरं ननु यत्र शान्ति- वाणी निपीय जनवल्लभ वल्लभा ते. तेषां प्रचारवशतः किल वीरपूर्व दत्त्वा पदं प्रतिनिधेहरिविष्टरस्थः। वैराग्यमागतवती सुजनस्य बुद्धिः। विद्यालयो विरचितो जिनधर्मशिक्षः। आशंसयद् विजयवल्लभसूरिमादा- पात्रस्य गौरमिद विसिनीदलेषु, ईलियो धवति तं किम, घोरवातैः वालम्बनं भवजले पततां जनानाम्।।1।। मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः।।8।। कि मंदारादिशिखरं चलितं कदाचित् ?11511 यः संघदत्तपदआर्हतभक्तिवीरो, दृष्ट्वा मुखं तव विभो प्रशमं प्रसन्नं, विद्यालयस्य सुफलं विभुवीरनाम्नो, मात्सर्यरोषमदमोहमहीषसीरः। लोकेऽत्र लोकनिवहाः प्रमदं भजन्ते। विद्याप्रकाशलसितं जिनधर्मयुक्तम् स्वार्थ विहाय परमार्थरतं कवींद्रम्, प्रद्योतनं समुदितं खलु वीक्ष्य कि नो, प्रीत्या वदन्ति शिशुवृन्दमवेक्ष्य लोका, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्।।2।। पद्माकरेषु जलजानि विकाशभाञ्जि?।।9।। दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः।।16।। श्रीवीरशासननिकेतनकेतनाभं, दीक्षार्थमागतवतोऽसुमतोऽनुगृह्या, चण्डद्यतिर्निजगवा नु मनोगुहानाम्, सूरेः पदं शमपदं जनजीवनाभम्। दत्सेऽपवर्गपदवी पदवी स्वकीयाम्। हर्ताः तमो स्खलनंद मलिनं जनानाम्। सूरीश! भूरितरभारभरं विना त्वातस्यैव जन्म सफलं जगति स्वकीय तस्माद्वदामि जगतीह भयेन शन्य:, मन्य : क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम?।।3।। भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति।। 1011 सूर्यातिशायिमहिमाऽसि मुनीन्द्र! लोके।।17।। शब्देतिहासभिषगागमनकचक्र, ये सत्यशोधनपराः बहवोऽन्यधर्माः, नित्यं प्रसन्नवदनं सदनं कलानाज्योतिष्कमन्त्रसमतन्त्रतरंगलोलम्। पीत्वेह भङ्गरचनं वचनं गृहणन्ति त्वदीयम्। मानन्ददं कुवलयस्य तवार्य जाने। विज्ञाननीतिनयतर्कमयं विना त्वां, नैव खलु ते कुमतं सुधाशी, प्रौढप्रभावमपि तापहरं जनानां, को वा तरीतुमलमम्बुनिधि भुजाभ्याम्?।।4।। क्षारं जलं जलनिधेरशितुं क इच्छेत् ?।।11।। विद्योतयज्जगदपूर्वशशाङ्कबिम्बम्।। 18।। अज्ञानतापहरणाय गुरो! प्रजानां, वृद्धोऽपि बोधलवलेशयुतः समन्तात्, पीयूषयूषनिभयुक्तिधरोक्तिमेघैपञ्चाम्बुनीवृति विभो विहृतं त्वया यत्। पादं विमुंचति पथे नहि दुर्विदग्धः। राप्लाविता यदि रसा बहुधान्यवधैः। नो चित्रमत्र जनको भयदेऽपि देशे, संपूर्णबोधकलितस्य तवैव चित्रं, आचार्यमानिनिवहैर्नदकृन्मदान्धैः, नाभ्येति कि निजशिशो: परिपालनार्थम् ?। 51 यस्ते समानमपर न हि रूपमस्ति।।12।। कार्य कियज्जलधरैर्जलभारननैः।। 19।। धर्माङ्कुर : प्रकटितो भविचित्तभूमौ, शास्त्रार्थवादनिपुणोऽपि न भीमसेनो, वाचंयमेश! चरणे रमते जनाना तत्रोपदेशजलदः किल नाथ! हेतुः। भीमस्त्वया खलु जितः प्रसभं स्वयुक्त्या। माध्यात्मिकेषु न च संप्रतिकालजेषु। माधुर्यमुद्भवति यत्कलकण्ठकण्ठे, चन्द्रस्य बिम्बमिव तस्य मुखं तदाभूत्, चेतो यथा सुरमणौ लभते प्रमोदं, तञ्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतुः।।6।। यद्वासरे भवति पाण्डु पलाशकल्पम्।।13।। नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि।।20।। अद्यापि यत् समवलोकनमार्गमति, मा बंचिता:स्यरवबोधचयैः सुशीलाः, सवार्गसुंदरतया जितकामदेव! जैनव्रतोपचितिरोधिजन : क्वचिद्यः। __संसारवालकचया इति सद्विचाराः। त्रैलोक्य मोद जनने सुररत्नतुल्यः चित्रं न तत्र, यदि कोऽपि ददर्श दयाँ, सन्त्यत्र नाथ! भवतो भवतोदरूपाः, चित्रं तदेव तव यन्न रमाविलासः, सूर्याशुभिन्नमिव शार्वरमंधकारम्।।7।। कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम्?111411 कश्चिन्मनोहरति नाथ! भवान्तरेऽपि।।21।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्रशासनमिदं प्रसभं प्रकाशं, स्थाने निनाय सुखदं नु तवैव वाणी । आलस्यदं प्रमददं तरणि तमोदं, प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम्।। 22 ।। संसारजीवभरचित्तचकोरचन्द्रा चारं विचारमखिलं चरणं त्वदीयम् । शुद्धां गिरं च कथयन्ति निरीक्ष्य लोका, नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र ! पन्थाः 1 231 देदीप्यमानकरुणानिलयं पवित्र, स्याद्वादभङ्गनयमानसराजहंसम् । त्वामेव सम्यगुपलभ्य महाप्रभाव, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ।। 24।। वैधव्यमूलरुगरुंतुददुःखभाजा मज्ञानसिन्धुजलपूरसमाप्लुतानां । विश्रामधामकरणादबलाजनानां, व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ।। 25।। आनन्दसूरिचरणाब्जमधुव्रताय, विश्वार्तिवारणसमर्पितजीवनाय । दुर्बोधसुप्तनरनेत्रविभाकराय, तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधिशोषणाय । । 2611 क्रोधाग्रि धूमभर शोणितनेत्रयुग्मो मायोरगीविषविकारविदूषितात्मा । मानोदकोक्षितवपुर्न मया जगत्यां, स्वपनान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि।।2711 नित्यं व्रतादिभवकान्तिकदम्बकेन, दैदीप्यमानकचपुञ्जविभाग! नाथ! | आस्यं विभाति भवतोऽत्र महाप्रकाशं, बिम्बं रवेरिव पयोधरपार्श्ववर्ति ।।28।। अज्ञानगाढतिमिरं तव गोविलासः बालस्य वृद्धवयसः करपीडनात्म | नाशं गतं व्यसनदं समजीवबंधो! तुंगोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मेः । । 29।। म्लानंयुगावनितलं विमलं विधाय, शुभ्रं यशो धवलयत् सुरलोकमार्गम् । मन्ये गतं मुनिवरेश! तवैव शीघ्र, मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ।। 30।। रत्नत्रयं हृदयमध्यविराजमानं, सूरीश ! सूरभव! भूतभयंकराचं, भव्यांगिनां निजकृतं सहसा जगत्याम् । उच्चण्डचण्डकरकान्तिकदम्बकेन, त्वत्कीर्तनात्तम इवाशुभिदामुपैति ।। 38 ।। सामाजिकोन्नतिपरा मनसः प्रवृत्ति यता यथा तव तथा न मुने! परस्य । यादृग् विभो भवति निश्चलता ध्रुवस्य, तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ।।33।। पूजाविरोधिनिपुणार्यसमाजभाजां, गन्तुं भवार्णवतले तरिभञ्जकानाम् । एतादृशं सुपथवर्तनलोपकानां दृष्टवा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्।। 34।। अध्यात्मवेषमिषसंयमिनाम भाजां, बालादिवृद्धवयसां खुल वंचकानाम् । माध्वीकतुल्यवचसां कुविकल्पजालं, नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ।। 35।। वामाविलासवर भोग भरेन्धनोधै वृद्धि गतं भविनरोषितबोधिबीजम्, कामानलं मुनिवरेश्वर! चित्तजातं, त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ।। 36।। मिथ्याप्रवादजलपूर्णतटाकमग्न साहित्यशर्कररसामृतपूरितायाः, सन्नयाय भंगनयनक्रसुदुस्तरायाः । पारं परं गतभयं हि सुरापगाया, 'त्वत्पादपडंजवना श्रयिणो लभन्ते ।। 39।। संसारसागरशरण्य! मुने! तवेदम् । मन्येऽस्ति नाथ! भुवने विमलं हि भावि, प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ।।31।। वाणी सुधारसझरी, शिवमार्गयानं, सर्वेऽन्यधर्मनिरता अपि ते निपीय । मत्वाहि मुक्तिरमणीरमणानि पाद पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति । । 32 । । शास्त्रार्थमत्र भवदीयसुशिष्यवर्गाः, आचार्यवर्य। बहुशिष्यगणैर्वृतस्य, जैनेन्द्रशासनविलेपिजनस्य चाग्रे । त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद्व्रजन्ति । । 40 ।। सिद्धौषधिं समुपिलम्य मुने! भवन्तः, कर्मप्रतापपरितापितदेहयष्टीम । संत्यज्य मोक्षरमणीरमणत्वमाप्य, मर्त्या भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ।। 41 ।। सम्यक्त्वमाप्य शिवमार्गनिबन्धनं भो, लोकेशलोकसमभावविभूषितांग ! शिष्याः प्रकाशमित पूर्णकलाकमिन्दो: सद्यः स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ।। 42।। संपूर्णरोगभय भूतपिशाचबाधा, देहं विभो न परमादति सा कदाचित् । एकाग्रमर्थपरिचिन्तनया त्रिसंध्यं, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ।। 43।। मुक्तालतां तव नुतिं सुगुणां सुवर्णा नित्यं प्रसादसहितां रहिता कलकैः कण्ठे विचक्षणजनः किल यः करोति तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ।। 44।। -मुनि विचक्षणविजय मेकान्तपक्षधुतलक्षणलक्षिताक्षम् । दूरीकरोति मुनिपास्तमयं द्विजिवं त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः 113741 Only www.jainelibrary.om Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (आचार्य देव श्र युवा Education Infociational बल्लभ श्री मद विजय लभ प्यूरीश्वरजी म.सा. वल्लभ वृद्ध जैनाचार्य श्री १०८, श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज की जन्मादि कुण्डलियाँ अथ श्री मध्यलोकालंकारभूत जम्बूद्वीपे दक्षिण भारते आर्यक्षेत्रे गुर्ज्जरवेशे गौरवास्पदे बड़ौदाख्यनगरे अवसर्पिणयाः पंचमारे श्री महावीरप्रभु शासन काले २३९७ तमे वीर निर्वाणाब्दे, १७९२ तमे शकशालि सम्वत्सराब्दे, १९२७ तमे विक्रमाब्दे, दक्षिणायने, शरऋतौ मासोत्तमे कातिकेमासे, शुक्लेपक्षे शुभतिथौ द्वितीयायां २५-४३, बुधवासरे, विशाखाभे २०-२० आयुष्यामन् योगे ५-१५ कौलव करणे २५-४३ दिनमानं २८-३० तुलार्कतः गतांशः १०, तदनुसार २६ अक्तूबर १८७० ख्रिष्टाब्दे, सूर्योदयादिष्टम् ७-७, अयनांशाः २२-१२-१३-७ लग्नम् ७ १८-०-४ दशम ४-२५-०-४४, स्वोदय ४-२२-१० बड़ौदा नगरीय अक्षांशाः २२-१८ तुलांशाः ७३-१२ पू० वृश्चिकलग्ने जैनधर्म प्रतिपालकस्य वीसा श्रीमालीवंशावतंसस्योत्तमकुलोत्पन्न स्यसुप्रसिद्धस्य तेजस्विनः श्रीमतो धर्माराधकस्य श्रेष्ठिवर्य श्री दीपचन्द्रस्य धर्मपत्नी श्रीमती इच्छादेवी स्वदक्षिणाकुक्षितः पुत्ररत्नमजीजनत् । जन्म कुण्डली १० १२ के. ९ श. ११ १ ८ चं० २ सू. ७ शु. मं० ६ बु० ५ गु० ३ रा० ४ १० १२ चालत (भाव) कुण्डली के० ९ ११ १ श०८ २ चं० ७ सू० ५ शु० ६बु० ४ मं० गु० ३ रा० www.janglibrary.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवांश कुण्डली १० सू० गु०८ ७ के० शु० स्पष्ट ग्रहाः चं मं बु गु शु श रा ।७४ ५ २६८२८ १००५ २५ ४०१ २१ २१ १८ १०५२४८५३ ३९ २७/२३ २३ ५४ २६ ०५३ | ४५ ६९ १६ १६ ६०८६ |३३ ५-१६ ११ ११ मा. व व २७ To मा मं०२ स्पष्ट भावाः म. सं५ । सं १० ११ ११ २५८२२ २०१० ३८ । २४ १८ ११ ७ सं ८ सं ९ । सं १० सं ११ सं १२ सं १८ २२८ २५ ८ | ६ २०४ १० । २० ३० - ४० ५०० ५० ४० ३० २०१० www.jainelibrary.om Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा कुण्डली २४० ५ रा० TAL ल० श०३Xमं०१ बल सू० ६ चं० ७गु० (११ के० १० आचार्य पद कुण्डली गु० ९ बु० ২ হা০ ও ২০ चं०१० के० X ल०८ सू० ११ मं० श्री वल्लभनिर्वाण कुंडलीगान हस्तीमल कोठारी अथ शुभ सम्वत् १९४४ (गुजराती ४३) वैशाख शु०१३ गुरौ ४३ए५४, हस्तभे,२१/० बजयोगे ३७-३२,मेपार्कतः | २४, स्टैण्डर्ड टा० ८-३९ तदनुसार ५मई १८८७, तर्ज-छोड़ गये महावीर मुझे आज अकेला छोड़ गये। सूर्योदयादिष्टम् ६-२०, राधनपुर, स्थानीय अक्षांशाः (दक्षिणीयाः) २३०-४५ रेखांशाः ७१०-३६ तत्काले मेरे श्रीसंघकेसिरताज, अब कहाँ सिधारे राज। दीक्षा ऽभवत् मरूधरकी आँखों के तारे, पंजाबियों के प्राण। भारत का था कल्पतरूवर, गर्जर प्रकटयो भाण। मेरे वल्लभ तेरा नाम अनुपम, जग वल्लभ कहलाया। लाखों मनुज का नायक था, यहाँ लाखों कादिल बहलाया। मेरे वृद्ध आयु तक देव तेने, जिन धर्मकी सेवा कीनी। श्रावक संघ के अभ्यद्रयहित, संस्थायें स्थापन कीनी । मेरे अथ शुभ सं०१९८१ मार्गशीर्ष शुक्ला ५, सोमवासरे ११४६, श्रवणभे ४३-२९ धुव योगे ४४-५३ वृश्चिकार्कतः कर्क लगन में चंद्र गुरू संग, गरूवर स्वर्ग सिधारे। १७, तदनुसार १ दिसम्बर १९२४ लाहौरनगरीय कन्या का रवि बीजे भवन में, दिव्य पराक्रम धारे । मेरे सूर्योदयदिष्टम ०-४०, आक्षांशाः३१-३५,रेखांशाः ७४ | शुक्र शनैश्रर चौथे भवन में, बध भी साथ कहावे। १९(बम्बई पांचांगानुसार)अयनांश:२२-४२-५६,लाहौर मंगल राहु छट्टे भवन में, केतु बारमें ठावे । मेरे स्टैण्डर्ड टाइम ७.३० प्रातः आचार्य पद-प्राप्तिः अभवत् धर्म-भवन का स्वामी सुरगुरू, उच्च लगन में बैठा। चंद्र शक्र निज घर के स्वामी, शनी उच्च बन बैठा। मेरे मंगल रह रवि त्रीजे छठे. ये सब शभ फलकारी। उच्चगति को प्राप्त करावे, ग्रह बल के अनुसारी। मेरे छोड़ हमें गरू स्वर्ग के सुखमें, तेरा जी ललचाया। आसो वदि देशमी की रात्रि, गुरूवर स्वर्गसिधाया। मेरे मंगलवारे पष्य ऋषि के प्रथम चरण में जावे। अथ शुभ सं०२०११, आश्विन कृष्णा १०, परतः मुंबई शहर की लाखों जनता, गरूवर शोक मनावे मेरे एकादशी मंगलवार, तदनुसार २२ सितम्बर १९५४ प्रातः | भाग्य हुआ कुछ अल्प हमारा, वल्लभ सूर्य गमाया। २-२३, स्टै०टा० तत्समये निर्वाण पद प्राप्तिः अभवत्। हस्ती श्री गुरूराज चरण में, सादरसीप्त झुकाया। मेरे Perimester आदर्श जीवन (बृहद्). ४रा० निर्वाण कुण्डली ५ ३के० सू०६X ल०४ ग० चं० ७ बु० श० शु० १०X १२ X ९रा० मं० Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे गुरुदेव :आचार्य विजय वल्लभ -आचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वरजी इस पृथ्वी पर कितने ही मनुष्यों ने जन्म लिया, अपनी सुविधा सूत्र में बाँधा और महाराष्ट्र के विदर्भ तक जाकर समाज को पास आई अन्त में मेरी फाँसी रद्द हो गई।" और स्वार्थ के अनसार उन्होंने जीवनयापन किया और अन्त में बचाया। धार्मिक सामाजिक प्रगति एवं उत्थान के लिए कठोर दसरा प्रसंग सं०1992 में गरुदेव पालीताणा में विराज रहे मृत्यु की शरण वरण किया। इन अपार मानव समुदाय के परिश्रम किया। बम्बई में महावीर जैन विद्यालय, राजस्थान में थे। युवक घनश्याम को नीले साँप ने डस लिया। उसे अस्पताल ले अधिकांश व्यक्तियों का संसार को न तो नाम का पता है, न जन्म पार्श्वनाथ जैन विद्यालय वरकाणा में पार्वजैन उम्मेद कालेज, जाया गया डाक्टरों ने जवाब दे दिया। जब बचने की कोई आशा का, न मौत की तारीख का। इन्हीं मानव समुदाय में कुछ व्यक्ति फालना में पंजाब, अम्बाला शहर में आत्मानंद जैन कालेज आज न रही तो उस के मित्र रतनचंद गुरुदेव के पास आए। गुरुदेव ने ऐसे भी हो जाते हैं, जो इस तरीके से जी जाते हैं कि उनका नाम भी उनका गौरव बढ़ा रहे हैं। समस्त विद्यार्थी जगत् उनके इस स्थिति की गम्भीरता पहचानी और वासक्षेप दिया सब कुछ अच्छा लेते हुए हमें एक अलौकिक आनंद का अनुभव होता है। क्योंकि वे ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता। हो जाएगा।" और सचमुच घनश्याम, जो अच्छे संगीतज्ञ हैं मृत्य व्यक्ति अपने पीछे एक ऐसी सुगंध छोड़ जाते हैं जो सदियों तक पं. गुरुदेव ने केवल शिक्षण-संस्थाओं के लिए ही प्रयत्न नहीं के मुख से निकल आए। फैली रहती है। ऐसे व्यक्ति जगत् को जीवन-यापन का एक नवीन किया प्रत्युत जैन शासन की उन्नति और प्रभावना के लिए तीसरा प्रसंग सं०1996 में बड़ौत में जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा दृष्टिकोण दे जाते हैं और सुख-प्राप्ति का एक अद्भुत मार्ग दिखा उपधान, उद्यापन, अंजनशलाका, प्रतिष्ठा, नव मंदिरों का हो रही थी। माघ की ठंड जोरों पर थी। रथयात्रा निकलने वाली जाते हैं। निर्माण, जीर्णोद्वार, उपाश्रयों और धर्मशालाओं के निर्माण को थी। आस-पास के गांवों से हजारों लोग आए थे। दिगम्बर जैन ऐसे ही एक महामानव थे हमारे गुरुदेव विजय वल्लभ भी प्रेरणा दी। उनके प्रवचन जनसाधारण के लिए होते थे। हाईस्कूल में आत्मबल्लभ नगर की रचना की गई थी। प्रतिष्ठा सरीश्वर जी। वे विलक्षण प्रतिभाशाली और दिव्य शक्ति सम्पन्न उनकी वाणी में हर किसी को बांध देने की मृदुता और मधुरता महोत्सब ने एक छोटे से मेले का रूप धारण कर लिया था। बड़ौत थे। उन्हें दुख, पीड़ा और विपत्ति में फंसे समाज को उबारने की थी। उनकी प्रतिभा में अदभुत आकर्षण और तेजस्विता थी। उस नगर में यह अपर्व महोत्सव था। इतने में आकाश काले बादलों से तमन्ना थी और स्वयं एक पवित्र जीवन जीकर संसार को अमूल्य अलौकिक प्रतिभा ने अनेक चमत्कारों का सर्जन किया है। वे संदेश देने की तीव्र अभिलाषा थी। चमत्कार करते नहीं थे न चमत्कारों में विश्वास करते थे। अचानक गर्जने लगे। लगता था अभी वर्षा शुरू हो जाएगी। बचपन में ही उनमें विलक्षण सूझ का उदय हो गया था। कुछ चमत्कार स्वयं घटित हो जाते थे। यह उनके चरित्र का प्रभाव आयोजक घबड़ाए। सारी तैयारी धूल में मिल जाने वाली लगी। नया कर दिखाने और किसी अपकट तत्व की खोज करने में था। एसा चमत्कारिक घटनाएदेख-सुनकर हम आश्चय चाकत आयोजक गरुदेव के पास पहुंचे गरुदेव ने सदा की तरह कह दिया बाल्यावस्था में ही लालसा थी। इस लगन ने अनेक विघ्नों के हो जाते हैं ऐसी ही कुछ घटनाओं को हम देखें। सब कुछ अच्छा हो जाएगा। कुछ समय के बाद,बादल बिखर गए बावजूद उन्हें किशोरावस्था में दीक्षित कर दिया। पूर्ण युवावस्था पू० गुरुदेव का आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं जाता था। एक आकाश साफ हो गया। जैन-जैनेतर बहुत प्रभावित हुए। वे में वे त्यागी और वैरागी बन गए। “वसुधैव कुटुम्बकम्” को बार चौपाटी के मैदान में प्रवचन हुआ। प्रवचन के बाद एक मुसलमान जो रथयात्रा को मस्जिद के आगे से निकलने के लिए उन्होंने अपना जीवन-सूत्र बनाया। इसी सूत्र के आधार पर व्यक्ति आया उनके चरण पकड़ कर बोला-"गुरुदेव, आप मुझे मना करते थे, प्रभावित होकर सहर्ष स्वीकृति दे दी। इस प्रकार की उन्होंने जैन-जैनेतरों, अमीर और गरीबों, ब्राहमण और वर्णिकों, पहचानते हैं? गुरुदेव ने उसे कभी देखा नहीं था। कहाः हम तो अनगिनत घटनाएँ हैं। जो हमें श्रद्धानत कर देती हैं। विकट से हिन्दू और मुसलमानों को बिना भेदभाव वीतराग का शभ संदेश नहीं पहचानते।" व्यक्ति ने अपना परिचय देते हुए कहा : गुरुदेव, विकट परिस्थिति में भी उन्होंने अपना धैर्य नहीं छोड़ा उनके सुनाया। हजारों मनुष्यों को उन्होंने माँस-मदिरा और दुराचार से आप ही मेरे प्राणों के रक्षक हैं। मैं मेरठ जिले का रहने वाला हूं। विशाल हृदय में सभी के लिए स्थान था। वे सत्य के पुजारी थे बचाया। पंजाब, राजस्थान, गुजरात, सौराष्ट्र, मध्यप्रदेश और वकील हूं। एक बार एक गुनाह में फंस गया फांसी की सजा हो और जो सत्य का पुजारी था वह उनका पुजारी था। जिस सत्य को महाराष्ट्र आदि प्रान्तों में धूम-घूमकर अपनी ज्ञान-शक्ति और गई। तारीख भी निश्चित हो गई। उस समय आप मेरे गाँव उन्होंने अनुभूत किया उसी को प्रकट किया। उनके नेत्रों से चरित्र बल से वे पंजाब के प्राण, राजस्थान, गुजरात के गौरव, पधारे। मेरी पत्नी आपके दर्शन के लिए आई। उसने रोते हुए वात्सल्य की धारा सदा प्रवाहित होती रहती थी। उन्होंने जो सौराष्ट्र के सिरमौर कहलाये। उन्होंने पंजाब को सुसंस्कारों से मेरी कथा सुनाई। आपसे उसका दुःख देखा नहीं गया, आपने उसे उपकार किए, जीव और व्यक्तित्व की जो पहचान काल के भाल सिंचित किया, राजस्थान को जाग्रत किया, गुजरात को एकता के आशीर्वाद दिया और वासक्षेप भी। वासक्षेप लेकर वह जेल में मेरे पर ऑकत की, चिरस्मरणीय रहेगी। FO.Private Speesonal uine-Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुरुषों का जीवन प्रारम्भ से ही महान् होता है। उनकी महत्ता के चिन्ह पालने में ही परिलक्षित हो जाते हैं जब मां इच्छाबाई अंतिम सांसें ले रही थीं, तब छगन पूछता है कि मां तू मुझे किसके सहारे छोड़कर जा रही है, तब माँ ने कहा "मैं तुझे अरिहंत के चरणों में छोड़कर जा रही हूं। तू अरिहंत के प्रति समर्पित हो जाना। कहने की आवश्यकता नहीं है कि नन्हा छगन तीर्थंकर के चरणों में चला जाता है और यही छगन एक दिन दिव्य विभूति, गुजरात गौरव और पंजाब केसरी आचार्य श्रीमंद् विजयवल्लभ सूरीश्वर बन जाता है तब लगता है। माँ इच्छाबाई का वचन सार्थक हुआ। माता के वचन छगन के हृदय में अंकित हो गए थे। उस के स्वर्गवास के बाद इस असार संसार से छगन विरक्त हो गया। उसकी दृष्टि वैराग्य और चरित्रपर केन्द्रित हुई। एक दिन वह आत्माराम जी महाराज से धर्म धन मांगता है और अपने बड़े भाई आदि सगे सम्बन्धियों के विरोधों के बावजूद दीक्षित हो जाता है। इस प्रकार वह छगन से विजय वल्लभ बना। · जिस मनुष्य के हृदय में लक्ष्य पाने की तीव्र अभिलाषा होती है उसे कभी न कभी मार्ग अवश्य मिल जाता है। जिस मनुष्य के भीतर शुभ आकांक्षाओं का बीज वपन होता है, कि वह एक दिन अंकुरित होकर विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेता है। मुनि श्री वल्लभ विजय में आध्यात्मिक प्रगति की अभिलाषा जगी और उन्हें योग्य गुरु मिल गए। न्यायाम्भोनिधि आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वर जी महाराज जिनका प्रसिद्ध नाम आत्माराम जी महाराज था अपने समय के अप्रतिम विद्वान थे। उन्हें आगमों का गहन अध्ययन था। मुनि वल्लभ विजय ने उन्हीं के सान्निध्य में माँ के वचन पूरे हुए -आचार्य श्रीमद् विजयेन्द्र दिन सूरीश्वर Main Education internationa ज्ञान की साधना की। पू. आत्माराम जी महाराज ने उन्हें अन्तिम संदेश दिया था कि "वल्लभ जिन-मंदिरों की स्थापना पूर्ण हो गई है। अब तुम सरस्वती मंदिरों को स्थापना करना। आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरीश्वरजी महाराज ने गुरु के इस आदेश का पालन जीवन के अन्त तक किया। आचार्य विजय वल्लभ ने देखा कि समाज की उन्नति और प्रगति में धर्म की प्रगति और प्रभावना निहित है। इसलिए सबसे पहले समाज का उद्धार आवश्यक है। समाज केवल धर्म से नहीं चल सकता उसके लिए व्यावहारिकता की भी आवश्यकता है। उन्होंने धार्मिक और व्यावहारिक दोनों शिक्षाओं को आवश्यक बताया। इसी दृष्टि से उन्होंने महावीर जैन विद्यालय आदि शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करवाई। जीवन की अंतिम संध्या में उन्होंने जैन युनिवर्सिटी की स्थापना की बात कही थी। इसकी स्थापना से जैन धर्म-समाज-संस्कृति, दर्शन और साहित्य के प्रचार और प्रसार का कार्य और व्यवस्थित ढंग से होगा। आज जैन युनिवर्सिटी की कितनी आत्यन्तिक आवश्यकता है हम समझ सकते हैं। महान् व्यक्ति अपने गुणों के कारण ख्यात होते हैं। उनके गुणों में गजब की आकर्षक शक्ति होती है उनके गुणों के दर्पण में प्रतिभा प्रतिबिम्बित होती है। उनके गुण ही दूत का कार्य करते हैं। संस्कृत भाषा के एक कवि ने कहा है: गुणाः कुर्वन्ति दूतत्वं दूरेऽपि वसतां सताम् । केतकीगंधमा धातुं स्वयमायान्ति षट्पदाः ।। केतकी भौरों को बुलाने नहीं जाती। भौरें उसकी सुगन्ध से आकर्षित होकर अपने आप आ जाते हैं। वैसे ही जो महापुरुष होते हैं वे आत्मप्रशंसा नहीं करते वे किसी को बुलाने नहीं जाते, उनके दूत रूपी गुण ही संसार को आकर्षित कर ले आते हैं। आचार्य विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज के गुणों से केवल जैन हिन्दू नहीं प्रत्युत मुसलमान भी प्रभावित हुए थे। अनेक मुसलमानों ने उन्हें मान पत्र भेंट किया था। वे उन्हें पीर और फकीर मानते थे। For Pavis & Personal Use Only महापुरुषों की वाणी अद्भुत माधुर्य से सिक्त होती है उनके मुख से कभी कटुशब्द नहीं निकलता। आगमों में कहा भी गया है: महुरं निउणं, कच्चावाडियं अगव्वियमतुच्छं । पुव्विं मइसंकलियं, भणांति जं धम्मसंजुतं ।। (महान व्यक्ति अपने वचन अतीव मधुर, अर्थयुक्त, और विवेकपूर्वक बोलते हैं। उनके कथन में अभिमान या गर्व का अंश भी नहीं होता। ) पूज्य गुरुदेव का हृदय अत्यन्त कोमल था। उनकी वाणी में माधुर्य और आकर्षण शक्ति थी। वह वाणी ओठों की नहीं अन्तर की थी। इसलिए उसमें सनातन सत्य का दिग्दर्शन होता था। आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी महाराज का जीवन आदर्श एवं प्रेरणाप्रद था। अनके गुणों से समन्वित उनका व्यक्तित्व था। उनके असीम गुणों में से एकाध गुण हम भी अपना लें तो हमारा जीवन नंदनवन बन जाए। वास्तविक शिक्षा वही है जो चरित्र निर्माण की प्रेरणा दें। शिक्षा से विद्यार्थी शुद्ध एवं आदर्श जीवनवाला बने। उसमें मानवता, करूणा और प्राणिमात्र के लिये मैत्रीभावना हो। ऐसे विद्यार्थी ही समाज के हीरे होते हैं। - विजय वल्लभ सरि असीम को सीमित नहीं किया जा सकता। विराट् का वर्णन संभव नहीं। उसके वर्णन के लिए शब्द, भाषा, भाव अल्प ही रहते हैं और रहेंगे। महापुरुषों की जीवन-सरिता विशाल विराट होती है। हमारी सीमित दृष्टि वहाँ तक पहुँचने में असमर्थ है। तट पर खड़े रहकर हम केवल सीमित वर्णन ही कर सकते हैं। हम उनके चरणों में गिरकर इतना ही कह सकते हैं कि : महान्त एवं जानन्ति महतां गुण www.jainalibrary.om Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jan Stod जैन समाज के प्रखर शिक्षा शास्त्री बम्बई में विक्रम संवत् 2010 आश्विन कृष्णा एकादशी को जब गुरुदेव का स्वर्गवास हुआ तब रेडियों में प्रसारित हुआ कि जैन समाज के प्रखर शिक्षाशास्त्री का आज बम्बई में निधन हो गया इस सूचना से यह बात स्पष्ट होती है कि आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरीश्वरजी म. वास्तव में एक प्रखर शिक्षा शास्त्री थे। उन्होंने जीवन पर्यन्त शिक्षा प्रचार हेतु सरस्वती मंदिर, गुरुकुल, स्कूल, कालेज, विद्यालय तथा बोर्डिंग हाउसों की स्थापना कराई। वे जैन समाज को इन सबके लिए सतत प्रेरणा एवं उपदेश देकर जाग्रत करते रहते थे। क्योंकि आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वर जी म. ने जीवन के अन्तिम समय में उन्हें महान गुरु की यह भविष्यवाणी निश्चित रूपेण सफल सिद्ध हुई। क्योंकि उनके प्रिय शिष्य वल्लभ ने अपने गुरु की भावना को साकार रूप देने के लिए अनेक स्थानों पर स्कूल, कालेज, विद्यालय आदि खुलवाये। जीवन की अंतिम सांस तक शिक्षा-प्रचार, गरीब विद्यार्थियों को छात्र-वृत्तियाँ दिलवाना, स्कूल कालेजों की समुन्नति, साहित्य प्रचार तथा विदेशों में जैन पंडितों को भिजवाना आदि योजनाओं पर चिन्तन मनन करते रहे और उन्हें कार्यान्वित कराने के लिए प्रयत्नशील रहे। इन शिक्षण-मंदिरों की स्थापना में उन्हें काफी कष्ट उठाने पड़े। इतना ही नहीं, उनके इन नव निर्माण के कार्य का विरोध अधिकांश अपने ही समुदाय के आचार्य और मुनियों ने किया और आज भी उनका विरोध कुछ अंशों में चालू है। उन आचार्यों का कहना है किव्यावहारिक ज्ञान मानव को अवनति की ओर ले जाता है। साधु-सन्तों के लिए तो विशुद्ध धार्मिक, आत्मिक ज्ञान का ही उपदेश एवं प्रचार करना उचित है। स्कूल, कालेज खुलवाना धार्मिक नहीं, अपितु अधार्मिक तथा पापकारी प्रवृत्ति है। क्योंकि कालेजों में व्यावहारिक विद्या का ज्ञान कराया जाता है। इतने विरोधों-अवरोधों के बावजूद गुरुदेव अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी अपने प्रवचनों में कहा करते थे कि जैन-दर्शन का सिद्धान्त "पढमं नाणं तओ दया" तथा "ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्ष : " का है। ज्ञान आत्मा का सहज यह आदेश दिया था, "बल्लभ!" जिन मन्दिरों का निर्माण तो हो गुण है। ज्ञान, ज्ञान ही है। उसमें किसी प्रकार का अन्तर या भसन्तानों को केवल धार्मिक ज्ञान ही दिलवाया हो, व्यावहारिक गया, अब सरस्वती मन्दिरों की स्थापना कराना शेष है। अत: मुझे पूरा विश्वास है कि तुम इसे अवश्य पूरा करोगे। क्योंकि इस काम की तुममें पूरी क्षमता है।" नहीं। ज्ञान, जीव का श्रेष्ठ गुण है और मोक्ष मार्ग का प्रवर्तक है। भव-समुद्र से पार होने के लिए जहाज रूप है और मुक्ति धाम का 'दीपक है।' ज्ञानं श्रेष्ठगुणों जीवे, मोक्षमार्ग प्रवतर्कः । भवाब्धितारणे पोतः, श्रृंगारसिद्धिसशनः । । जैनाचार्यों ने अज्ञान को राग-द्वेषु क्रोधदि कषाओं से भी अधिक महाकष्ट कर कहा है। "अज्ञानं खुल भो कष्ट रागादिकषायेभ्यः " । व्यवहार में काम आने वाले ज्ञान को व्यावहारिक और धार्मिक क्षेत्र में काम आने वाले ज्ञान को धार्मिक ज्ञान कहा जाता है। जिस प्रकार आत्मा और शरीर का सम्बन्ध अनादि है, इसी प्रकार व्यवहार और धर्म का सम्बन्ध भी अनादि है। व्यावहारिक ज्ञान के बिना धर्म का, अध्यात्म का ज्ञान असम्भव है। अतः आदिनाथ भगवान ने लिपि और कला के ज्ञान का प्रथम उपदेश दिया। रहे। पू० गुरुदेव को अपने गुरु से दिव्य संदेश के रूप में सरस्वती-मंदिरों की स्थापना एवं संघ, समाज और राष्ट्र उत्थान आदि के स्पष्ट विचार मिल चुके थे। अतः वे अनेक प्रकार के विरोधी वातावरण तथा भीषण कठिनाइयों में भी अडिग रहे। ज्ञानावरणीय कर्म के भेदों में व्यावहारिक ज्ञानावरणीय और धार्मिक ज्ञानावरणीय ऐसा भेद है ही नहीं। किसी भी प्रकार के ज्ञान की आशातना करने से ज्ञानावरणीय कर्मा का बन्ध होता है। तो उसका प्रचार और ज्ञान के कार्य में दान दिलाने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय भी अवश्य होगा। जिस जैन दर्शन ने ज्ञान के 51 भेदों में मिथ्याज्ञान को "मिथ्याज्ञानाध्यनमः" कह कर नमस्कार किया हो, वह कभी भी व्यावहारिक ज्ञान का निषेध नहीं कर सकता मिथ्या ज्ञान भी सम्यक ज्ञान का कारण होने से नमस्करणीय है। फिर व्यावहारिक ज्ञान। धार्मिक ज्ञान के लिए विशेष उपयोगी होने से उसकी सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती है, क्योंकि व्यावहारिक ज्ञान तो धार्मिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान की नींव है। onal Use Only गुरुदेव ने हजारों विद्यार्थियों को छात्रवृत्तियां दिलवा कर कितना महान् कार्य किया और ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय भी किया। साधु-साध्वियों को भी व्याकरण, काव्य, छन्दशास्त्र, दर्शनशास्त्र, गणित, इतिहास व ज्योतिष आदि का व्यवहारिक ज्ञान करना ही पड़ता है। जब साधु-साध्वियाँ तक व्यावहारिक ज्ञान पढ़ते हैं तो गृहस्थ-सन्तानों को व्यावहारिक ज्ञान दिलाने में पाप लगता है और वह संसार वृद्धि का कारण है, यह कहना कहाँ तक उचित है? आज कितने ऐसे श्रावक निकलेंगे, जिन्होंने अपनी नहीं ? दुःख इस बात का है कि स्कूल और कालेजों का विरोध करने वाले भाई स्वयं अपनी संतानों को विदेशों में पढ़ने के लिए भेजते हैं। किंतु जब उनके सामने निर्धन साधर्मिक विद्यार्थियों को पढ़ाने, सहायता और सहयोग का प्रश्न आता है। तब यही श्रावक व्यावहारिक ज्ञान को पापमय और संसार वृद्धि का कारण बताने लग जाते हैं। यदि व्यावहारिक ज्ञान संसार वृद्धि का कारण है तो अपनी संतानों को पढ़ाने के लिए हजारों का दान क्यों देते हैं? क्यों इतने मंहगे स्कूल-कालेज ढूँढते हैं? दूरदर्शी गुरुदेव का इन शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से व्यावहारिक एवं धार्मिक ज्ञान देने के साथ-साथ संस्कारों का सिंचन कराना भी लक्ष्य था। यही कारण है कि इन संस्थाओं से कई बालक राष्ट्रभक्त, समाज-सेवक, धर्म-प्रचारक, धर्मगुरु और साहित्यकार के रूप में तैयार हुए। आत्मानंद जैन कालेज, अम्बाला में पढ़ने वाले एक मुसलमान विद्यार्थी ने अपने जीवन का अनुभव सुनाते हुए एक समय कहा था कि "मैं मुसलमान होने के कारण मांसाहारी था; परन्तु जैन कालेज में पढ़ने से और यहां के अहिंसा प्रधान वातावरण ने एवं धार्मिक शिक्षा ने मुझे शाकाहारी बना दिया। अपने घर में कुछ दिनों तक संघर्ष करना पड़ा। अन्त में मुझे सफलता मिली।" यह प्रसंग मुझे शान्त-तपोमूर्ति आचार्य श्रीमद् विजयसमुद्र सूरीश्वर जी म. ने सुनाया था। -आचार्य विजय जनकचन्द सूरि Hom Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि सर्वतोमुखी व्यक्तित्व के धनी विक्रमाब्द 1976 की पुरानी बात है। मैं अपने जीवन में पहली बार, तत्कालीन पंजाब प्रदेश के अम्बाला छावनी में आया हुआ था। श्री अजित प्रसाद जैन की अध्यक्षता में महावीर जयन्ती का विराट आयोजन था, आत्मानन्द जैन कालेज के प्रांगण में। आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरिजी भी उन दिनों वहीं थे। एक तरह से उन्हीं के तत्त्वावधान में समग्र जैन समाज की ओर से आयोजित महावीर जयन्ती का उत्सव मूर्त रूप लेने जा रहा था। मुझे भी निमंत्रण था। और इसीलिए अम्बाला छावनी में उसी दिन अम्बाला शहर से पहुंचा था। आशंकाओं के घिरते बादल : महावीर जयन्ती के समारोह की तैयारियाँ अवश्य हो रही थीं, परन्तु अन्दर में जनमानस काफी उलझा हुआ था। जैसा कि प्रायः साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों की मनोभूमिका में हो जाया करता है। बात यह थी कि स्थानकवासी समाज आचार्यश्री विजय वल्लभ सूरिजी की कुछ पुरानी बातों की स्मृति से सशंक था कि साम्प्रदायिक प्रश्नों को लेकर कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए, ताकि स्थानकवासी सम्प्रदाय को नीचा देखना पड़े। मैंने कहा, "अतीत अतीत है। उसे हमेशा वर्तमान के हर परिप्रेक्ष्य में देखते रहना, कुछ अर्थ नहीं रखता। और यदि कुछ ऐसा होता भी है, तो उसका यथावसर योग्य समाधान होगा। हम भी ऐसे कहाँ विचारदरिद्र हैं कि समय पर कुछ कर नहीं सकेंगे। " बात यह थी कि आचार्यश्री अपनी तरुणाई में वाद-विवाद रूप अखाड़े के मानववादी रहे थे। जब देखो तब, शास्त्रार्थों के रणक्षेत्र में जूझते रहे थे। अतः उस पुरानी स्मृति के प्रकाश में द्वन्द्व की आशंका का होना सहज है। परन्तु जीवन में यह एक युग होता है। उस समय प्रायः ऐसा हुआ ही करता है। मैं अपनी ही कहूँ। अपनी तरुणाई से मैं भी कम लड़ाकू नहीं था। उन दिनों मेरे अन्तर में भी उद्दाम संघर्ष की धारा तट तोड़गति से प्रवाहित थी। यदि आचार्यश्री उस तूफानी युग में ऐसे थे, इसमें क्या आचार्य की बात Jain Education teenationa • उपाध्याय अमरमुनि धारणाएँ गलत निकलीं : महावीर जयन्ती का कार्यक्रम कुछ सहमे से वातावरण में शुरू हुआ। पहले आचार्यश्री बोले- बहुत सुन्दर, साथ ही श्रेयस्कर भी। विभिन्न जैन-परम्पराओं में समन्वय कैसे स्थापित हो, यह था वह समाज चिन्ता का स्वर, जो उनके प्रवचन में आदि से अन्त तक मुखरित होता रहा। मैं इसी बीच समझ गया कि आचार्यश्री को समझने में या तो लोग भूल कर रहे हैं, या आचार्यश्रीजी स्वयं ही अपने को काफी दूर तक बदल चुके है। पहले का वह साम्प्रदायिक मनोभाव के धरातल पर उभरने वाला जोश, जब यथार्थता को स्पर्श करने वाले गम्भीर चिन्तन में बदल कर निर्माणकारी रूप ले चुका है। आचार्यश्री के बाद मैंने अपने प्रवचन में अनेकान्त की व्याख्या द्वारा आचार्यश्री के प्रवचन को ही पल्लवित किया और कहा कि जब जैन दर्शन का अनेकान्त विश्व की विभिन्न परम्पराओं के समन्वय का महापथ प्रशस्त कर सकता है, तो वह जैन धर्म की विभिन्न शाखाओं में, जो मूल में एक ही केन्द्र से अंकुरित हुई है, एकरूपता क्यों नहीं स्थापित कर सकता ? अवश्य कर सकता है, यदि हम सब मिल कर निष्ठा के साथ प्रयत्न करें तो ! आचार्यश्री प्रसन्नभाव से प्रवचन सुन रहे थे। बीच-बीच में उनके मखमण्डल पर स्मितरेखा चमक उठी थी, जो इस बात की प्रतीक थी कि पुरानी पीढ़ी सचमुच ही नई पीढ़ी को आशीर्वाद दे रही है। यह था वृद्ध और तरुण का वह वैचारिक सम्मिलन, जो आज के युग में प्रायः कम ही हो पाता है। उत्सव की समाप्ति पर कुशल क्षेम पूछा गया। संक्षिप्त-सा वार्तालाप भी हुआ, किन्तु वह इतना मधुर कि आज भी उनकी मधुरिमा स्मृति के कण-कण को मधुर बनाए हुए हैं। एक घटना को लेकर, साम्प्रदायिक तनाव काफी उग्र हो गया था। आचार्यश्री अपने मोर्चे पर थे, तो हम अपने मोर्चे पर एक तरह से पंजाब का समग्र जैन समाज, परस्पर विरोधी दो पक्षों में विभक्त होकर 'युद्धाय कृतनिशयः' ही था। स्थानकवासी समाज की ओर से जैन भूषण श्री प्रेमचन्द्रजी म. और मैं मोर्चे पर सेनानी बन कर पहुंचे! प्रश्न आया कि मूर्तिपूजक परम्परा के खण्डन में एक जोरदार पुस्तक लिखी जाए। लिखने का दायित्व मुझ पर ! मैंने लिखना शुरू किया तो सम्बोधन में आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि लिखता और उनके पक्ष का दृढ़ता से खण्डन करता। लेखन के कुछ अंश, जब साथ के बड़े कहे जाने वाले मुनि ने देखे, तो जैसी कि उनकी प्रकृति है, कहा "यह क्या? पुस्तक तो ठीक लिख रहे हों खण्डन भी खूब हो रहा है, परन्तु आप उनको आचार्यश्री क्यों लिखते हैं?" मैंने कहा - "तो फिर क्या लिखना चाहिए ?" उन्होंने ज्यों ही यह कहा कि 'दण्डी' लिखिए तो मैंने उत्तर दिया कि "यह मुझ से नहीं होगा। आप उन्हें दण्डी लिखें और वे आप को ढूंढ़िया या मुँहबंदा कहें यह निम्न स्तर की लड़ाई मुझे पसन्द नहीं जब आप एक वैष्णव साधु को संतजी और महंतजी कह सकते है, सिक्ख को सरदारजी और ईसाई साधु को पादरी साहब कह सकते हैं, मुसलमान को मियाँ और मौलवी साहब कह कहते हैं, तो अपने ही जैन समाज के एक लब्ध प्रतिष्ठा आचार्य को आचार्य क्यों नहीं कह सकते ?" मेरे तर्क का उनके पास उत्तर तो कोई था नहीं, हाँ जिद अवश्य थी, और इसी कारण वह पुस्तक आगे लिखी नहीं जा सकी। उक्त प्रसंग की ही एक और घटना है। हमारे तथाकथित बड़े महाराज ने भावावेश में आकर यह प्रश्न खड़ा किया कि "मूर्तिपूजक साधुओं को अपने श्रावक गोचरी न दें। " साम्प्रदायिक तनाव की आड़ में इसे काफी तूल दिया जाने लगा। मैं मतभेद के कारण मनो भेद क्यों ? विक्रम संवत् 1996 की ही बात है- रायकोट (पंजाब) में, इसके सर्वथा विरुद्ध था। मेरा कहना था कि "यह तो बिल्कुल ही Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलत कदम है। इतने नीचे स्तर पर हमें नहीं आना चाहिए। नाते, हम और कविजी, भले ही परस्पर विरोधी कैम्पों में हैं। चिन्तित रहते थे। महाप्रयाण से पूर्व वे सारी शक्ति से मध्यम वर्ग वैचारिक संघर्ष है तो क्या हम अपनी शालीनताभी खो बैठे?"संघ किन्तु जहाँ सम्प्रदाय से ऊपर जैन समाज का प्रश्न है, हम सब की समस्याओं को ही हल करने में लगे थे। बिना किसी के प्रमुख सदस्य मेरे पक्ष में थे, और वह चर्चा वहीं समाप्त हो गई। एक हैं। आप इस छोटे मुनि की बातों का ख्याल न करें।" साम्प्रदायिक भेदभाव के, सर्वसाधारण जनता की हितदृष्टि से, आचार्यश्री को किसी सूत्र से उक्त घटनाओं का पता लगा तो ऊपर कीबातें घटना की दष्टि से साधारण लगती हैं। किन्त उनके वे उद्योग गृहों की स्थापना के रूप में किए गए महनीय उन्होंने कहा कि "कविश्रीजी का विचार ठीक है। हमारे कितने ही उनमें जो भावना अन्तर्निहित है, वह बताती है कि द्वन्द्व की स्थिति प्रयत्न, युग-युग के लिए प्रेरणा स्रोत रहेंगे। इसी सन्दर्भ में मतभेद हों, संघर्ष हों, किन्तु वे सब शान्त वातावरण में वैचारिक में भी आचार्यश्री कितने गम्भीर एवं उदात्त थे। कछ लोग उनके एकबार उन्होंने तड़पते दिल से कहा था-"साधर्मिक वात्सल्य स्तर पर ही होने चाहिएं। मतभेद के कारण मनोभेद क्यों हो? साम्प्रदायिक पक्षग्रह की आलोचना करते हैं। परन्तु मैं देखता है, का अर्थ धर्मबन्धुओं को मिष्ठान्न खिलाना भर ही नहीं है, आखिर हम सब हैं तो एक ही पिता के पुत्र!" हममें से प्रायः सभी साथी किसी न किसी साम्प्रदाय विशेष से बल्कि साधर्मिक बन्धुओं को कार्य में जोड़ कर उन्हें आत्मनिर्भर जब एक भाई से मैंने यह सुना तो आचार्यश्री के प्रति मेरी सम्बन्धित हैं और यथा-प्रसंग अपने-अपने सम्प्रदाय के बनाना, यह भी सच्चा धार्मिक वात्सल्य है। ....एक ओर धनिक भावना ने एक और मोड़ ले लिया। उक्त शब्द छिछले व्यक्तित्व पक्ष-पोषण में, जैसा भी बन आता है, समयानुसार कुछ न कुछ वर्ग मौज उड़ाए, और दूसरी ओर हमारे सहधर्मी भाई भूखों मरें, के नहीं हो सकते। यह वही महान् व्यक्तित्व कह सकता है, जो सक्रियता रखते ही हैं। आज कौन है, जो यह कह सके कि मैं ऐसा यह सामाजिक न्याय नहीं, अन्याय है।" आवश्यकता है आज, हिमाचल सा ऊँचा हो, सागर-सा गहरा हो! कुछ नहीं करता। प्रश्न सम्प्रदाय के पक्ष-पोषणका नहीं, प्रश्न है, आचार्यश्री के इस विचार-स्वप्न को साकार रूपदेने की। एक घटना और संघर्षकाल में भी शान्ति एवं शालीनता बनाए रखने का। जैसा शिक्षा-क्षेत्र के विकास में योगदान : विस्तार तो हो रहा है, पर रायकोट के चातुर्मास की एक कि और जबकि मैंने देखा, आचार्यश्री वस्तुतः शान्ति एवं युगदी आचार्यश्री का शिक्षा-क्षेत्र के विकास में भी और घटना का उल्लेख कर दूं। आचार्यश्री के साध संघ में एक शालीनता की प्रतिमूर्ति थे। महत्वपूर्ण योगदान है। जैन समाज व्यापारी समाज है। अर्थदृष्टि छोटे मुनि थे, नाम अभी स्मृति में नहीं है, उसने एक स्थानकवासी बंबई जैसे सुन्दर स्थान में पहुंचने पर भी आचार्यश्री का तो उसके पास थी उस युग में, किन्तु जैसी कि चाहिए, विद्यादृष्टि श्रावक को कछ प्रश्न लिखकर दिए, और कहा कि "अपने सम्पर्क सूत्र बना रहा। जब भी कोई परिचित व्यक्ति वहाँ से यहाँ नहीं थी। यही कारण था कि परम्पराओं के नाम पर काफी साधओं से जरा इनके उत्तर तो लाओ, देखें,तम्हारे साधु कितने आने को होता, तो सुख-शान्ति का संदेशभिजवात, कार्यक्रमा की अन्धविश्वास समाज में फैले हए थे। एक तरह से समाज का गहरे पानी में हैं।" इस पर स्थानकवासी संघ की ओर से एक सूचना देते, और इधर से मेरे अपने कायकलाप का जानकारा भा अंग-अंग रुढ़िवाद से जकड़ा हआ था। आचार्यश्री का कहना थाप्रतिनिधि मण्डल आचार्यश्री के पास भेजा गया, इसलिए कि लेते। यह था वह महान् वात्सल्यतापूर्ण मुक्त-हृदय, जो अपने -शिक्षा के सिवा और कोई मार्ग नहीं है कि व्यर्थ के पूर्वाग्रहों से हमारे मुनिश्री विचार-चर्चा एवं शास्त्रार्थ के लिए तैयार हैं, इसके परिचितों के प्रति सहज स्नेह की अजस्र धारा बहाता रहा. मुक्त होकर समाज प्रगतिपथ पर अग्रसर हो सके। इसी हेत लिए समय और अन्य नियम तय हो जाने चाहिएँ। ज्योंही साम्प्रदायिक सीमा से परे भी। आचार्यश्री ने महावीर जैन विद्यालय बंबई, आत्मानन्द जैन आचार्यश्री को मूल स्थिति का पता लगा, तो उक्त मुनि को बुला कालेज विद्यालय बंबई, आत्मानन्द जैन कालेज अम्बाला आदि कर सबके सामने डाँटा कि "यह तुम ऊपर-ऊपर क्या गड़बड़ करुणा के जीवित प्रतीक : अनेक शिक्षण संस्थाओं का निर्माण किया, जो आज भी समाज में करते हो? तम्हें किसने कहा था कि मझे बिना पूछे ही इस प्रश्न आचार्यश्री बहत कोमल, संवेदनाशील एवं सहृदय व्यक्ति उच्चस्तरीय शिक्षा का प्रसार कर रही हैं। उक्त सन्दर्भ में प्रश्नोत्तर की चर्चा शुरू कर दो। ये लोग आए हैं, अब जाओ न थे, उनके अन्तर का कण-कण उज्ज्वल मानवीय गुणों से आचार्यश्री का एक वचन है, जो सदा स्मृति में रखने जैसा है - शास्त्रचर्चा के लिए। कितने नासमझ हो तुम। व्यर्थ के द्वन्द्व करते ज्योतिर्मय था। वे करुणा के तो जीवित प्रतीक थे। जब भी कोई "सेवा, संगठन, स्वावलम्बन, शिक्षा और जैन साहित्य का फिरते हो! खबरदार फिर कभी ऐसी हरकत की तो!" अनन्तर दीन-दुःखी उनके चरणों में पहुँचता, रोता हुआ जाता ते वह हँसता निर्माण एवं प्रसारण ये पाँच बातें जैन समाज की प्रगति की शिष्टमंडल से कहा-"भाई यह मुनि की गलती है। सम्प्रदाय के हुआ ही लौटता। वे मध्यम वर्ग की बिगड़ती स्थिति से काफी आधारशिला है।" स्नेह-भावना समन्वय दृष्टि में समभाव बसता है। समभाव में सबके प्रति स्नेह और प्रेम झलकता है। स्नेह भावना पत्थर को भी मोम बना देती है। - विजय वल्लभ सरि FORPrivatespenionline only www.jainelibrary.ora Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 12 समन्वयवादी आचार्य विजयवल्लभ सरि वल्लभ गुरु गुण मुक्तक -आचार्य तुलसी भगवान महावीर का शासन समता का शासन है। समता यानि। अहिंसा यानि समता। विषमता की परिसमाप्ति अहिंसा के बिना संभव नहीं हो सकती। अनेकान्त समता का समग्र दर्शन है। उसके द्वारा अनन्त धर्मों में सत्य को अनन्त दृष्टिकोण से देखने की पद्धति प्राप्त होती है। यही समन्वय का दृष्टिकोण है। जैन शासन में समन्वय की परम्परा दीर्घकालीन है। उसकी प्रेरणा, अहिंसा और अनेकान्त है। सिद्धसैन, समंतभद्र, अकलंक, हरिभद्र, हेमचन्द्र, आदि महान् आचार्यों ने उसकी परम्परा को बहुत ही विकसित और पुष्ट किया है। इस परम्परा में अन्य अनेक समन्वयवादी आचार्य विजयवल्लभसरी भी उसी परम्परा में एक थे। उनका दृष्टिकोण बहुत उदार और व्यापक था। मैं उनसे मिला हूँ। हमारा मिलन मात्र व्याहारिक नहीं था, आन्तरिक था। हम दोनों ने एक दूसरे के हृदय को पहचानने का प्रयत्न किया। आखिर हमने पाया कि हम दोनों एक ही दिशा की ओर चलने वाले पथिक हैं। इस काल में धर्म में संगठन की बहतु अपेक्षा है। उसके अभाव में उसकी शक्ति बढ़ नहीं रही है।जो हैं। वह भी पूर्ण रूपेण उपयोग में नहीं आ रही है। एक और एक के बीच का अर्धविराम हटने पर एक साथ शक्ति बढ़ जाती है। जैन शासन की एकता या संगठन का अर्थ यह नहीं है कि सब गच्छ या गण एक ही नेतृत्व में आ जाएं। यदि आ जाएं तो वह दिन जैन शासन के इतिहास में अपूर्व होगा, किन्त उसकी अभी कोई संभावना दिखाई नहीं देती। वर्तमान में एकता या संगठन का अर्थ इतना अवश्य है कि प्रत्येक जैन सम्प्रदाय अपने को जैन शासन महावृक्ष की एक शाखा माने और दूसरी शाखाओं के प्रति सौहार्दपूर्ण दृष्टिकोण और व्यवहार करे। जैन शासन के मौनिक हितों में सब समस्वर और समप्रयत्न हों। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि आज सबका चितन इस दिशा में चल रहा है। नगरी बड़ौदा जन्म घर दीपचन्द माता इच्छा हरषाये चारों और आनन्द गुरुदेव। तेरी महिमा का क्या गुण गाए उस दिन पढ़ गये फिके तारे और चन्द (1) तू था गुजरात का एक महान लाल फिर भी अधिक रही पंजाब की ओर चाल जीवन संध्या तक गुरु आत्म पथ पर चलते देकर महान समुद्र छोड़ी बम्बई में तन की जाल (2) मन्दिर शिक्षा रसार का दिया आतम ने सन्देश किया तुमने पूर्ण उसे त्रुटी न आने दी लेश अमृत सी वाणी में तुम्हारा यही था कहना हो शिक्षा उत्थान सहधर्मियों का समाज में न क्लेश (3) गुजरात घराने दिया था एक रत्न जिसने किया रोशन कुल और वतन गुरुवर वल्लभ तू अमर है युग युगों तक चाहें तो जाएं चांद और तारों का पतन। (4) वल्लभ स्मारक उद्घाटन का यह पुनीत वर्ष है। श्री संघ में छाया आनंद और अपार हर्ष है केवल उनके गुणगान से ही क्या होगा? जबकि उनके आदर्शों से पायान चरमोत्कर्ष है। गणि वीरेन्द्र विजय POT PVC Polen Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि 'जीवन घटनाक्रम'-एक नजर में गणि वीरेन्द्र विजय बड़ौदा, सं० 1927 राधनपुर, सं० 1943 महेसाणा, सं० 1944 पाली, सं० 1945 मालेरकोटला, सं० 1946 पट्टी, सं० 1947 अम्बाला, सं० 1948 जंडियालागुरू, सं० 1949 जीरा, सं० 1950 अम्बाला, सं0 1951 गुजरानवाला, सं० 1952 नारोवाल, सं0 1953 पट्टी, सं० 1955 मालेरकोटला, सं० 1955 होशियारपुर, सं० 1956 अमृतसर, सं० 1957 पट्टी, सं० 1958 अम्बाला, सं0 1959 जन्म कार्तिक शुक्ल द्वितीया, स्थान बड़ौदा, पिताश्री दीप चन्द भाई, माताश्री इच्छाबाई। दीक्षा, वैशाख शुक्ल गयोदशी। न्यायांभोनिधि आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी म. के शिष्य श्री हर्ष विजय जी के शिष्य घोषित हुए। "सारस्वत चंद्रिका" व्याकरण एवं आत्म-प्रबोध का अध्ययन। कल्पसूत्र की सुबोधिका टीका का अध्ययन। पाली में बड़ी दीक्षा, गप्प दीपिका समीर की रचना। श्री हर्ष विजय जी म. का स्वागत, दस वेकालिक सत्र एवं अमरकोष का अध्ययन। सम्यकृत्व सप्तमी, चन्द्रप्रभा संस्कृत व्याकरण, न्याय, ज्योतिष एवं आवश्यक सूत्र का अध्ययन। न्यायबोधिनी, न्यायमुक्तावलि का अध्ययन। प्रथम शिष्य श्री विवेक विजय म. की दीक्षा। जैन मतवृक्ष तैयार किया। यतिजित कल्प आदि छेद सूत्र का अध्ययन। "तत्वनिर्णय प्रासाद" ग्रन्थ की प्रेस कापी करना प्रारंभ किया। आचार्य श्री विजयानंद सूरीश्वर जी म. का स्वर्गवास।। आचार्य विजयानंद सरि का जीवन-चरित्र लिखा और आत्मसंवत प्रारंभ किया। समाधि-मंदिर के निर्माण का प्रारंभ। दृश्काल में गरीबों के लिए अन्न वितरण प्रारंभ कराया। श्रीमद विजयानंद सूरि म. की मूर्ति की प्रतिष्ठा। जंडियालागुरु में अंजनशलाका प्रतिष्ठा एवं जैन धार्मिक पाठशाला का प्रारंभ। जीरा में जैन साहित्य अवलोकन समिति का संगठन। श्री आत्मानंद जैन पाठशाला की स्थापना। For Private a nal the only www.ainelibrary.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाना, सं० 1960 नाभा नरेश की राज्यसभा में स्थानक वासियों के साथ शास्त्रार्थ एवं महानिशीच सूत्र में मूर्ति पूजा के उल्लेख की सिदिध। जीरा, सं० 1961 99 प्रकार की पूजा की रचना। लुधियाना, सं० 1962 गुजरानवाला से रामनगर तीर्थ तक छरीपालित संघ निकाला। अमृतसर, सं० 1963 श्री पार्श्वनाथ पंच कल्याणक पूजा की रचना। गुजरानवाला, सं0 1964 "विशेष निर्णय" तथा भीमज्ञान त्रिशिका की रचना एवं दिल्ली से हस्तिनापुरतीर्थ तक छरीपालित यात्रा संघ निकाला। पालनपर, सं0 1965 जयपर से खोगांव तीर्थ तक संघ एवं आत्म वल्लभ शिक्षण फंड की स्थापना। बड़ौदा, सं० 1966 राधनपुर से श्री सिद्धाचल तक छरीपालित संघ निकाला। मीयागांव, सं० 1967 बड़ौदा से कावी गान्धार तीर्थ तक संघ, मियागांव में पाठशाला का प्रारंभ, कन्या विक्रय आदि कुप्रथाओं दूर किया। इक्कीस प्रकारी श्री ऋषि मंडल, श्रीनंदीश्वर रूपी तीर्थ की पूजा की रचना। डभोई, सं0 1968बड़ौदा में मनि-सम्मेलन। द्वादश व्रत पूजा की रचना। नांदोद एवं बड़ौदा नरेश समक्ष श्री हंस विजय जी म. की अध्यक्षता में सार्वजनिक प्रवचन दिए। बम्बई, सं0 1969 उपप्रधान तप, श्री महावीर जैन विद्यालय की स्थापना। बम्बई, सं० 1970 श्री पंच परमेष्ठी पूजा की रचना।। सूरत, सं. 1971 श्री जैन वनिता आश्रम के लिए प्रेरणा एवं उपधान तप का आयोजन। जूनागढ़, सं० 1972 स्त्री शिक्षा विद्यालय एवं श्री आत्मानन्द जैन पुस्तकालय की स्थापना। बम्बई, सं0 1973 वंथली में शीतलनाथ भगवान की प्रतिष्ठा, वेरावल में स्त्री शिक्षण विद्यालय, औषधालय की स्थापना। वेरावल से श्री सिद्धाचल तक छरीपालित यात्रा संघ। श्री महावीर जैन विद्यालय के लिए एक लाख रुपए का फंड,श्री पंचतीर्थ की पूजा रचना, प्रवर्तक श्री कांति विजय जी म. के साथ चातुर्मास। अहमदाबाद, सं० 1974 श्री हंस विजय जी म. के साथ चातुर्मास। श्री महावीर स्वामी पंचकल्याणक पूजा की रचना और सूरत में प्रतिष्ठा सादड़ी, सं० 1975 पालनपुर में आचार्यों की मूर्तियों की प्रतिष्ठा, विद्यालय के लिए फंड एकत्र कराना, जैन श्वे. अधिवेशन के लिए प्रेरणा। खुडाला, सं० 1976 श्री आदिनाथ पंचकल्याणक पूजा की रचना। बाली में उपधान शिवगंज से केसरिया जी का संघ निकाला।श्री चौदह राज लोक, श्री पंचज्ञान, श्री सम्यक दर्शन पूजा की रचना। बीकानेर, सं० 1977 गंदोज और मुंडारा में पुस्तकालय एवं पाठशाला की स्थापना करेड़ा तीर्थ में धर्मशाला के लिए प्रेरणा। आजीवन खादी धारण करने की प्रतिज्ञा। अंबाला, सं० 1978 108 स्वर्ण मुद्राओं द्वारा निर्मित स्वास्तिक से होशियारपुर में स्वागत। श्री अष्टापद तीर्थ की पूजा रचना। समाना में प्रतिष्ठा। होशियारपुर, सं0 1979 ब्रह्मचर्य व्रत की पूजा रचना। लाहौर, सं० 1980 होशियारपुर से कांगड़ा तीर्थ तक संघ,पंजाब में सरस्वती मंदिर के लिए मात्र दस दृव्य ग्रहण करने का अभिग्रह। गुजरानवाला, सं0 1981 लाहोर में प्रतिष्ठा। आचार्य पदवी धारण। श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा की रचना। बड़ौत, सं० 1982 अजैन दानवीर श्रीविठ्ठल भाई गोकुल दास द्वारा श्री आत्मानंद जैन गुरुकुल के लिए बत्तीस हजार का दान। नए मंदिरों का प्रारंभ। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिजोवा, सं० 1983 पाटन, सं० 1984 बंबई, सं० 1985 पूना, सं0 1986 बालापुर, सं0 1987 सादड़ी, सं० 1988 पालनपुर, सं0 1989 अहमदाबाद, सं० 1990 बंबई, सं० 1991 बडौदा, सं० 1992 खंभात, सं० 1993 अम्बाला, सं० 1994 रायकोट, सं० 1995 गुजरानवाला, सं0 1996 सियालकोट, सं० 1997 पट्टी, सं0 1998 जंडियालागुरू, सं० 1999 बीकानेर, सं0 2000 लुधियाना, सं0 2001 गुजरानवाला, सं० 2002 गुजरानवाला, सं० 2003 बीकानेर, सं0 2004 सादड़ी, सं० 2005 पालनपुर, सं० 2006 पालीताना, सं० 2007 बिनोली में अंजनशलाका प्रतिष्ठा। अलवर में प्रतिष्ठा, सांडेराव में पाठशाला की स्थापना। श्री हेमचन्द्राचार्य ज्ञान मंदिर के लिए प्रेरणा। धेन्ज से गांभु तक संघ। चारूप एवं करचलिया में प्रतिष्ठा। पाठशाला की स्थापना, बंबई में प्रवेश। उपधान तप और पुस्तकालय प्रारम्भ कराया। येवला में प्रतिष्ठा एवं नूतन उपाश्रय की प्रेरणा। अकोला एवं नाडोल में प्रतिष्ठा। फलोदी से जैसलमेर तक संघ। पोरवाल सम्मेलन, "अज्ञान तिमिर तरणी" कलिकाल कल्पतरू" की पदवियों से मान। पालनपुर में उपधान तप। शान्तमूर्ति हंसविजय जी का स्वर्गवास। डभोई में लोढ़ण पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा। मुनि सम्मेलन का आयोजन। श्री महावीर जैन विद्यालय में प्रतिष्ठा। आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वर जी म. का महोत्सव। उपधान तप एवं उपाश्रय के जीर्णो-द्धार के लिए प्रेरणा। ज्ञानमंदिर की स्थापना। मंदिर का जीर्णोद्धार और प्रतिष्ठा। श्री आत्मानंद जैन कालेज का सेठ कस्तूरभाई द्वारा उद्घाटनासढ़ोरा एवं बड़ौत में प्रतिष्ठा। मालेरकोटला में हाईस्कूल की स्थापना। होशियारपुर से कांगडा तीर्थ तक संघ। खानगाडोगरा में प्रतिष्ठा। मंदिर का खात मुहूर्त। मूर्ति की प्रतिष्ठा। श्रीकांति विजय जी म. का स्वर्गवास। कसूर में अंजनशलाका प्रतिष्ठा। गुरुमंदिर एवं पुस्तकालय की स्थापना। रायकोट में अंजनशलाका प्रतिष्ठा। आचार्य श्री जी का हीरक महोत्सव। फाजिल्का में प्रतिष्ठा। पंजाबी जैन धर्मशाला पालीताना के लिए फंड। सियालकोट में प्रतिष्ठा। भारत विभाजन। अमृतसर में आगमन। महिला उद्योगशाला की स्थापना। साधर्मिकों के उत्कर्ष के लिए उपदेश। अंजनशलाका प्रतिष्ठा, विद्या प्रचार की प्रेरणा। बीजापुर में अंजनशलाका प्रतिष्ठा। बीजापुर रातामहावीर की प्रतिष्ठा के लिए वासक्षेप भेजना, विजयानंद सूरि म. की मूर्ति की प्रतिष्ठा। शिक्षण फंड। पर्वत पर मुख्य मंदिर की बगल में स्थित श्री विजयानंद सूरीश्वर जी म. की पंचधातु की मूर्ति की प्रतिष्ठा।मनि सम्मेलन। भावनगर में आत्म कांति ज्ञान मंदिर का उद्घाटन। बड़ौदा में श्री शत्रंजय तीर्थावतार प्रसाद के, श्री आदिनाथ की मेहता गली में स्थित श्री नेमिनाथ की शाखा श्री महावीर जैन विद्यालय के श्री आदिनाथ की प्रतिष्ठा। आचार्य श्री उमंग सूरीश्वर जी म. को पट्टधर शिष्य की घोषणा की। पं. श्री समुद्र विजय जी म. पं. श्री प्रभाकर विजय जी को उपाध्याय पद दिया। झगडिया तीर्थ में श्री आत्मनंद जैन गुरुकुल की स्थापना। बंबई में धर्मशालाओं पाठशालाओं के लिए प्रेरणा। मध्यम वर्ग के उत्कर्ष के लिए फंड। थाणा में 340 मूर्तियों की अंजनशलाका। घाटकोपर में उपधान तप। उपाध्याय श्री समुद्र विजय को आचार्य पद से विभूषित करना। श्री महावीर जैन विद्यालय के लिए फंड। स्वर्गवास। बंबई, सं0 2008 से 2010 For Private spermonal LIE Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान शती में जिन महापुरुषों ने भारत को विभूषित किया उनमें एक नाम बड़ी श्रद्धा, आदर, भक्ति एवं गौरव के साथ स्मरण किया जाता है, वह है पंजाब केसरी, युगवीर आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी म.सा.. धार्मिक क्षेत्र में ही नहीं वरन् सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय क्षेत्रों के लिए भी यह नाम गौरवस्पद है। विजय वल्लभ का व्यक्तित्व व्यापक, सर्वक्षेत्रीय एवं सर्वकालिक है। उनके जीवन और कार्य के विषय में बहुत कुछ लिखा और कहा गया है। यहां उनके व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पक्षों को उजागर किया गया है। जन्म और दीक्षा हम मातृत्व को इसलिए वंदन करते हैं कि वह महापुरुषों की जन्म दात्री है। हम पर जितने उपकार विजयवल्लभके हैं उतने ही। माता इच्छाबाई के भी हैं। आश्चर्य की बात यह है कि फल को तो सब याद करते हैं; पर कली को कोई याद नहीं करता। लोग यह भूल जाते हैं कि फूल का अस्तित्व कली पर निर्भर है। जो परिवार जिन शासन को पूर्णतया समर्पित होते हैं उनकी । सदैव यह भावना रहती है कि हमारे परिवार से कोई जिनशासन को समर्पित हो जाए। ऐसे परिवार गजरात में आज भी विद्यमान हेमचन्द्राचार्य की माता पाहिनी से आचार्य देवचन्द्र सरि ने चांगदेव को जिनशासन को देने के लिए कहा और उसी समय गोद में खेल रहे चांगदेव को उठाकर पाहिनी ने गरु को दे दिया। चांग उसका एक मात्र पुत्र था। यहां तक कि पति की भी उसने अनुमति नहीं ली। माता पाहिनी अपने देव, गुरू और धर्म के प्रति अपने शासन के प्रति कितनी समर्पित होगी। यह अकथय एवं । अचिन्त्य है। जगदगुरु हीर सूरि म. की माता नाथीबाई ने अपने हृदय के । टुकड़े को गुरु को बोहराते हुए कहा था कोई रे बोहरावे थाने लाडवा, कोई रे बोहरावे थाने दूध। कोई रे बोहरावे थाने कापड़ा, नाथीबाई बोहरावे थाने पूत।। गुरुजी, आपको कोई कपड़े बोहराता है, कोई लड्डू बोहराता है, कोई दूध बोहराता है, पर यह नाथीबाई अपना लाड़ला पुत्र । बोहरा रही है। मेवे-मिठाई और कपड़े-द्ध की तरह अपने । वल्लभ एक सर्वदेशीय व्यक्तित्व -मुनि जयानन्द विजय in Education intonas For PVC Foare Only www.janelibrary.org Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वस्व, हृदय के टुकड़े को बोहरा देना कोई खेल नहीं। यह वही समझते थे। इस लिए स्वभावतः उन्होंने छगन को सांसारिक विजय वल्लभ को विजयानन्द्र सरि म ने एक विशेष कार्य के लिए माता कर सकती है जिसके रोम-रोम में देव, गुरु और धर्म बसे बनाने का प्रयत्न किया। भातृत्व का स्नेह किस में नहीं होता. क्या तैयार किया था। हो। जिसकी प्रत्येक धड़कन के साथ अरिहंत जुड़े हों। नन्दिवर्धन ने वर्धमान स्वामी को दीक्षा लेने से न रोका था? अनेक विजय वल्लभ का अध्ययन क्षेत्र गहन और व्यापक था। श्राविका जीवन की चरम स्थिति या श्राविका जीवन की विघ्नों के बाद छगन को दीक्षा की अनुमति मिली। जो काम अनेक उन्होंने अपना उत्तरदायित्व समझ लिया था। विजयानन्द सरि सफलता जिनशासन के लिए अपने मातृत्व के बलिदान कर देने विघ्नों के बाद होता हैं उसके परिणाम अच्छे होते हैं। म. क्या चाहते थे यह वह अच्छी तरह जानते थे। वे आजीवन में है। पाहिनी और नाथीबाई श्राविका जीवन की उत्कृष्ट भूमिका विजय वल्लभ के जीवन की एक महत्वपूर्ण बात समझ लेना स्वीकार करते रहे कि मैं जो कुछ हूं विजयानंद सूरि म. की बदौलत में पहुँच चुकी थीं। नारी का मूल धर्म समर्पण है और जहां समर्पण आवश्यक है। जब वे किसी कार्य को अच्छा समझ कर करने के हूँ। विजयानंद सूरि म. के चले जाने के बाद उनका अध्ययन भी है वहाँ माधुर्य संगीत और आनंद है, परंतु यह समर्पण देव होना । लिए कदम उठाते थे तो उसे पूरा करके ही छोड़ते थे। चाहे लाख पूरा हो जाता है और वे कटिबद्ध होकर सामाजिक क्षेत्र में उतर चाहिए असुर नहीं, आचरण के सम्मुख होना चाहिए अत्याचार के विघ्न आ जाएं। उनमें यह गुण बचपन से ही विद्यमान था। पड़ते हैं। सामने नहीं, पोषण में होना चाहिए अत्याचार के सामने नहीं, उन्होंने दीक्षा लेने का निर्णय किया और अनेक बाधाओं के विजय वल्लभ में वक्तत्व की अदभत कला थी। प्रथम शोषण में नहीं। बावजद दीक्षा ली और वह भी बड़े ठाठ से। संसार में या समाज में प्रवचन उन्होंने विजयानंद सरि म. की उपस्थिति में जोधपुर के संध्या का समय था। सूर्यास्त हो रहा था और उसके साथ ही चाहे भूचाल आ जाएं, चाहे प्राणोंसे हाथ धोने पड़े, पर अपने लक्ष्य आहोरी हवेली में किया था। सामाजिक क्षेत्र में आने के बाद वे माता इच्छाबाई का जीवन भी अस्त हो रहा था। इच्छाबाई के एवं कर्तव्य से वे कभी डिगे नहीं। सुप्रसिद्ध वक्ता बन गए। उनके अनगिनत कार्यों के पीछे उनकी मन में भी यही पवित्र भावना थी कि मेरा कोई लाल जिनशासन अद्भुत बक्तृत्व कला का जादू है। एक उदाहरण काफी होगा। को समर्पित हो जाए। कोई अरिहंत के चरणों में चला जाए और अध्ययन और प्रवचन गुजरात के ऐतिहासिक नगर पाटण में उनका पावन पदार्पण अन्तिम समय में वह भावना अवसर पाकर प्रकट होती है। छगन विजय वल्लभ लगभग नौ वर्ष तक विजयानन्द सूरि जी म. के , हआ। विजय वल्लभ की इच्छा यहां प्राचीन एवं आधुनिक रोते हुए पूछता है कि माँ! तू मुझे किसके सहारे छोड़ कर जा रही सानिध्य में रहे थे। विजयानन्द रिम, अप्रतिम प्रतिभा के धनी साहित्य के लिए 'हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान भंडार' की स्थापना तो उसने कंपित ओठों से इतना ही कहा कि तू अरिहंत की शरण में थे। पिछली तीन शताब्दियों में जैन धर्म को ऐसा महापुरुष नहीं करने की थी। उन्होंने वहां के स्थानीय लोगों को जैन ज्ञान भण्डार चले जाना वही शाश्वत शरणदाता है। मैं उसी के आधार पर तुझे मिला था। वह युग भारत के इतिहास में नव जागरण एवं नव एव नव की उपयोगिता बताई और व्यक्तिगत रूप से उसके लिए रुपये छोड़कर जा रही हूँ और नन्हें छगन ने जब इस आज्ञा को निर्माण का था। पढ़े लिखे लोगों में देशाभिमान जन्म लेने लगा। एकत्र होने लगे। बहुत समय बीत गया पर उसके लिए पर्याप्त शिरोधार्य किया तो मां की आंखों में अपने जीवन की सफलता के था। यहीं से आधुनिक युग का प्रारंभ होता है और विजयानन्द सूरि " धन राशि एकत्र न हो पाई। कार्यकर्ताओं ने विजय बल्लभ से बात आनंदाश्रु भर आए। चहेरे पर एक अनोखी दीप्ति छा गई। छगन म. में आधुनिकता का जन्म हो गया था। इसी लिए उन्होंने विजयी पप की। कार्य कुछ असम्भव सा जान पड़ा। दूसरे दिन विजय बल्लभ के सिरपरमां के हाथ थे की शरणनिर्विघ्न हो और मां सदा के लिए वल्लभ को सरस्वती मंदिरों की स्थापना करने की प्रेरणादी थी। ने अपने प्रवचन में ज्ञान की उपयोगिता. पाटण की प्रभताजैनों की छगन को छोड़कर चली गई। जब वह जा रही थी तब उसके मुख प्रत्येक महापरुष को अपने बाद के पट्टधर की चिन्ता रहती दानवीरता. हेमचन्द्राचार्य का साहित्य में योगदान और जैन पर श्राविका जीवन की सफलता का परितोष था। मैं कुछ जिन है। वे सदैव ऐसे व्यक्ति की खोज में रहते हैं जो उनके विचारों की शास्त्रों की दर्दशा पर एक ऐसा प्रभावशाली और मार्मिक चित्र शासन के काम आई, इस बात का आनंद था। श्राविका वही है जो प्रतिछाया हो, अधूरे कार्यों को पूरा कर सके। विजयानन्द खींचा कि महिलाओं ने गहने उतार कर ढेर कर दिए। परुषों ने मत्य के समय में भी अपने देव, गरु और धर्म की चिन्ता करे। सूरीश्वर जी म, को भी यह चिन्ता थी और उसी समय उन्हें वे कठियां और अंगठियां उतार दीं। जिनके पास नकद था उन्होंने ठरान के जीवन में संयम के बीज बोये थे इचठाबार्ट ने सभा गुण तरुण मान विजय वल्लभमदिखाई पड़ा उन्हान नकद दिया। पाटण के इतिहास में यह पहला अवसर था कि एक पल्लवित किया था आचार्य श्रीविजयानन्द सरिने रस दिया था हर्षअपना प्रतिबिम्ब विजय वल्लभ मलाक्षत हुआ। उन्हान आचार्य की प्रेरणा से लोगों ने आभषण उतार दिए हों। वे विजय ने। उस बीज को नष्ट करने के लिए प्रकृति ने अनेक अपने विचारों के अनुसार विजय वल्लभ जो गढ़ना प्रारम्भ परिस्थिति का ऐसा ह बह चित्रण करते थे कि लोग उस प्रवाह में बाधाएँ उपस्थित की, पर बीज न हिला न डला न पसीजा न किया। एक प्रसंग से यह बात स्पष्ट होगी। बह जाते। वे करुण स्थिति का वर्णन करते थे तो लोग रो पड़ते हारा। छगन की दीक्षा में सब से अधिक विघ्न उन्हीं के भाई __पंजाब के किसी शहर में विजयानन्द सरि म. के पट्टे के पास थे। कभी वीर रस का विवेचन करते तो लोगों की भजाएं फड़कने खीमचन्द्र ने डाले। पिताजी चल बसे थे। माता की छाया भी उठ तरुण मुनि वल्लभ विजय किसी सूत्र की गाथा रट रहे थे। उस लगतीं। जो एक बार उनका प्रवचन सुन लेता वह सदा के लिए गई थी परिवार की सम्पूर्ण जिम्मेवारी खीमचन्द्र पर थी। वे इस समय एकश्रावक ने सरि जीसे पूछा ये बालमुनि पंजाब में पढ़ रहे उनका भक्त बन जाता उनके प्रवचन में एक गरीब आदमी से जिम्मेवारी को खूब समझते थे। छगन को पढ़ाना-बढ़ाना, हैं।" विजयानन्द सूरि म. ने बल्लभ विजय को पंजाब पढ़ाया था लेकर राजा और महाराजा भी आते थे। राजा और नवाब उनको lnin Ed.व्यवहार कुशल बनाना,सांसारिक बनाना वे अपना मुख्य कर्तव्य इसलिए वे जीवन के अन्तिम समय तक पंजाबपंजाब रटते रहे। प्रवचन करने के लिए अपने राजदरबार में आमन्त्रित करते थे। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल राजा ही उनका प्रवचन नहीं सुनते अपितु उनकी रानियां गुलामी से मुक्त होने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रहा था। स्नेह एवं सद्भाव के उपदेश दिए। उनके प्रवचन में हिन्दू, भी पीछे न रहतीं। बीकानेर की महारानीने अपने प्राईवेट सेकेटरी नयी-नयी सामाजिक संस्थाएं सुधार का झंडा लेकर अस्तित्व में मुस्लिम, सिख आदि विविध धर्म के लोग समान रूप से आते रहते से कुछ रुपये श्रीफल और मेवे मिठाई देकर विजय बल्लभ को आ रही थीं। देश और समाज में हो रहे इस प्रकार के व्यापक थे। लाहौर में जब उन का प्रवेश होने वाला था, उसके पहले दिन आमंत्रित किया था प्रवचन करने के लिए। विजय वल्लभ ने भेंट परिवर्तन से स्वभावतः विजय वल्लभ प्रभावित हुए। जिनके ही हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो गए। जिस दिन प्रवेश होने वाला था। धन्यवाद पूर्वक लौटा दी। जाने के लिए मना कर दिया। रानी विचार की खिड़कियां खुली हुई हैं। जो समाज धर्म, और देश के उस दिन भी उसकी पुनरावृत्ति होने वाली थी। उसके लिए दोनों के अत्यन्त आग्रह पर यहां के गंगा थियेटर में प्रवचन रखा गया। हित के लिए चिंतित हों। जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के गटों में जोरों से तैयारी हो रही थी।पर जैसे ही विजय वल्लभ का रानी और यहां के सेठ साहकारों की पत्नियां भी आयीं। राजस्थान अध्येता हों। वे इतने गहरे और व्यापक परिवेश से स्वभावतः नगर प्रवेश हुआ और सार्वजनिक प्रवचन हुए तो वे आश्चर्य की प्रथा के अनुसार बीच में पर्दा रखा गया और प्रवचन प्रारम्भ प्रभावित होंगे ही। . जनक रूप से गायब हो गए। जो कल एक दूसरे के खून के प्यासे हुआ। विजय वल्लभ के प्रवचन से यहां की रानी इतनी प्रभावित विजय वल्लभ के प्रवचनों में धर्म, देश और समाज की थे वे ही विजय वल्लभ के प्रवचन के बाद गले लगते हुए हुई कि उसने अपने बगीचे का नाम विजय वल्लभ बाग' रखा पराधीन भारत की परिस्थितियों का हबह चित्रण मिलता है। देश दिखाई दिए। कई मुसलमान उनके भक्त हा गए, कई मुस्लिम और जब तक वे बीकानेर में रहे प्रतिदिन प्राइवेट सेकेट्री से सकट्ररास परतन्त्र था। महात्मा गांधी की स्वतन्त्रता की ज्योति जल रही समाजों ने उन्हें अभिनन्दन पत्र भेंट दिए। सुखशाता (कुशल क्षेम) के समाचार पुछवाती रहीं। यह था थी। स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग और विदेशी चीजों का विरोध उनकी वक्तृत्व कला का प्रभाव। जोरों पर था। उस समय विजय वल्लभ ने मलमल के कपड़े उतार इसी प्रकार जैन समाज को भी उन्होंने नये आयाम दिए। उस विजय वल्लभ का सामाजिक दृष्टिकोण फैंके और खुरदरी खादी के मोटे कपड़े परिधान करने प्रारम्भ समय जैन समाज में शिक्षण का अभाव था। उन्होंने शिक्षण आचार्य श्रीमद विजय वल्लभ सरीश्वरजी महाराज को किए। उन्होंने प्रवचनों में इस बात की चर्चा की और महात्मा संस्थाएं स्थापित की। गरीब जैनों की बड़ी दुर्दशा थी। उसके आचार्य श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वर जी महाराज ने आधुनिक गांधी की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा कि गांधी जी हिन्दुस्तान लिए फंड इकट्ठे किए। झगड़े और आपसी कलहों से समाज दृष्टि दी थी। विजय वल्लभ का सामाजिक दृष्टिकोण सधारवादी की स्वतन्त्रता के लिए इतने कष्ट उठा रहे हैं, इतना त्याग कर रहे खोखला हो रहा था उसे मिटाने का प्रयत्न किया। अनेक रूढ़ियां था। न तो उन्होंने प्राचीन रूढ़ियों को सर्वथा नकारा है न उसे हैं, इतना परिश्रम कर रहे हैं तो हमारा भी कर्तव्य है कि उनके जो समाज की प्रगति में बाधक बनती थीं उसे दूर करने का यथा पूर्णरूप से स्वीकारा ही। जिन रूढ़ियों को वे उचित, न्याय संगत कार्य में हाथ बटाएँ। हजारों लोग जेलों में जा रहे हों और तुम लोग सम्भव प्रयत्न किया। वे समाज को प्रगतिशील बनाना चाहते थे। एवं धर्म के अनुरूप समझते थे उन्हें स्वीकार करते थे और जिन बंगलों में ऐश करो, विदेशी कपड़े पहन कर अपनी सम्पन्नता का समाज में कोई अशिक्षित न हो, कोई निर्धन न हो, कोई रोगी न रूढ़ियों से न तो काई धर्म को लाभ होता है न समाज को जो केवल प्रदर्शन करो, यह सर्वथा अनुचित एवं अन्याय है। कहना न होगा हो, कोई दःखी न हो, कोई अनाथ न हो, कोई नंगा न हो। सभी रूढ़ि बनकर रह गयी हैं, जिनके पालन एवं प्रचलन से किसी भी कि विजय वल्लभ की प्रेरणा से हजारों लोगों ने खादी पहनना चालू शिक्षित हों। सभी सम्पन्न हों। संक्षेप में इतना कहा जा सकता है प्रकार का लाभ नहीं होता उन्हें अस्वीकार करते थे। कर दिया था। कि समाज को वे जीवंत, प्रगतिशील एवं उन्नतिशील देखना विजय वल्लभ ने ऐसे बहुत से कार्य किए हैं जो लोगों की दृष्टि चाहते थे। विजय बल्लभ का सामाजिक दृष्टिकोण सुधारवादी महामना मदन मोहन मालवीय और आचार्य विजय बल्लभ था। वे परिवर्तनशील समाज के साथ चलना धर्म मानते थे। में क्रांतिकारी हैं। रूढ़ि तोड़ कर या रूढ़ि से हटकर उन्होंने जो भी का पत्र व्यवहार होता था। उस समय साम्प्रदायिक दंगे हो रहे थे। कार्य किए वे सभी नियम एवं परम्परा में रह कर किए। उन्होंने विजय वल्लभ ने एक पत्र में लिखा था कि आजकल जो भगवान महावीर की उज्ज्वल श्रमण परम्परा के अनुरूप ही सभी हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो रहे हैं उसके पीछे राजनीति का विजय वल्लभ और रूढ़िवादी आचार्य कार्य किए। उन कार्यों के पीछे अगर कोई उनका उद्देश्य था तो शत-प्रतिशत हाथ है। मैं गांवों और शहरों में पैदल घूमता है। यह कि प्रत्येक जैनी सुखी, सम्पन्न और विद्वान हो। उन्होंने गांवों में जहां राजनीति की। आचार्य विजय वल्लभ बीसवीं सदी के युगवीर आचार्य थे। तत्कालीन समाज को समझा। उसे किस चीज की आवश्यकता 'यगवीर' शब्द की व्याख्या गुजराती के सुप्रसिद्ध लेखक, परम है? समाज क्या चाहता है? उन्होंने समाज का मनोवैज्ञानिक हवा नहीं पहुंची है वहां दोनों के बीच बड़ा ही सौहार्द्र, स्नेह एवं गुरु भक्त स्वर्गीय रतिलाल दीपचन्द देसाई ने इस प्रकार की है अध्ययन किया, तब उन्हें पता चला कि समाज सधार चाहता है। सद्भाव का वातावरण है। साम्प्रदायिक दंगे असल में राजनीतिक 'यगवीर उसे कहा जाता है जो यग को समय को पहचानता है। समाज को नये युग की हवा लग गई थी समाज को सम्यक् मोड़ दंगे हैं। अगर साम्प्रदायिक दंगे बन्द करने हों तो राजनीति के युग के साथ चलता है। यग के साथ जी कर वह युग को जीत लेता देने की अत्यन्त आवश्यकता विजय वल्लभ ने समझी। वह समय प्रभाव को दूर किया जाए। सद्भाव एवं सौहार्द्र का प्रचार, प्रसार है इस लिए उसे युगवीर कहा जाता है। हर कोई यगवीर नहीं बन ही ऐसा था कि प्रत्येक भारतीय अपने धर्म, समाज एवं देश को एवं प्रभाव होना चाहिए। सकता। रूढ़ियों के साथ जीना। रूढ़िवादी बने रहना। लकीर का आगे लाने के लिए भगीरथ प्रयत्न करता था। भारत अंग्रेजों की विजय वल्लभ ने संकीर्ण साम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर फकीर बनना। यगवीरता नहीं है। Jain Education www.jainelibrary.om Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूढ़ि के साथ जीने में कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता रूढ़ि बल्लभ के विचारों से पूर्णतया सहमत थे। पर विरोध के डर से काव्य भी हिन्दी में लिखा। उनके प्रवचन की हिन्दी सीधी-सादी अगर शस्त्र के विरुद्ध भी होगी तो वह स्वीकार्य होती है रूढ़ि के कोई नया कदम नहीं उठाते थे। सर्वसाधारण के लिए ग्राह्य थी। काव्य की भाषा भी सरल, सरस पुजारियों के लिए। लोग धर्म का पालन नहीं करते पर रूढ़ियों का आज तीन दशक के बाद कई विरोधी आचार्य, मनि एवं और सुबोध है तथापि उनकी रचनाओं में काव्य, अलंकार, छंद, पालन करते हैं। रूढ़ियों से सत्य ढंक जाता है। वह व्यक्ति को श्रावकों के मन में लग रहा है कि पचास वर्ष पहले विजय बल्लभ लय एव भावा की कमी नहीं है। अंधा बना देती है। विचार शक्ति को कुंठित कर देती है। किसी ने जो कहा और जो किया वह पूर्णतः ठीक था। वे अब पश्चाताप उनके कवि हृदय के विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि युग का अपवाद कालान्तर में रूढ़ि का रूप धारण कर लेता है। की आग में सुलग रहे हैं। उस समय अगर सभी आचार्य विजय विजय वल्लभ में जहां सामाजिक, राष्ट्रीय एवं धार्मिक व्यत्तित्व रूढ़ि एक बार समाज में प्रचलित हो जाने पर वह जनमानस पर वल्लभ के पथ पर चलते तो आज जैन धर्म, समाज एवं संस्कृति के दर्शन होते हैं वहां कवि व्यक्तित्व का भी अद्भुत संयोजन एवं कब्जा, अधिकार जमा लेती है। तत्युगीन नियम उस समय के का इतिहास कछ और होता। दिग्दर्शन होता है। उनके द्वारा रचित स्तवन, सज्झाय एवं पूजाएँ लिए उपयोगी होता है, पर बाद में वह निरर्थक बन जाता है, गाकर आज भी भावुक भक्त भाव-विभोर हो जाते हैं। क्योंकि समय सदा एक सा नहीं रहता। विजय वल्लभ और काव्य धर्म चाहे कितना ही महान, मौलिक और आदर्शमय क्यों न विजय बल्लभ और चमत्कार हो कालान्तर में वह रूढ़ि ग्रस्त हो जाता है। उस में विकृतियां ___ आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म. एक उत्तम कोटि के कवि थे। उनके काव्य की महत्ता जानने और समझने के आनी प्रारम्भ हो जाती हैं। जैन धर्म भी इसका अपवाद न रहा। आचार्य विजय वल्लभ का इस धरती पर अवतरित होना भी जैन धर्म ने भी परिवर्तन के कई मोड़ देखे हैं। कई बार लुप्त लिए प्रो. जवाहर चंद्र पटनी द्वारा लिखित शोध प्रबन्ध 'विजय एक चमत्कार ही था। विजय वल्लभ के जीवन के साथ अनेक होते-होते बचा है। बचा है उसका कारण है। वह युगानुरूपढ़ल वल्लभ के वाड्मय में दर्शन, चिंतन और काव्य अवश्य पढ़ना चमत्कारिक घटनाएँ जुड़ी हुई हैं। सच तो यह है कि न बे चाहिए। आनंदधनजी यशोविजय जी, चिदानंद जी,आत्मारामजी जाता था। युगानुरूप ढल जाने के एक पक्ष का नाम अनेकान्तवाद चमत्कार करते थे और न चमत्कारों में विश्वास रखते थे; पर है। विजय वल्लभ ने इसी अनेकान्तवाद को आगे रखकर जीवन म, की जो काव्य परंपरा चली आ रही थी उसका आचार्य विजय चमत्कार स्वयं घटित हो जाते थे। इन चमत्कारों का महत्व उनके और कार्य की साधना की। वल्लभ ने भली-भांति निर्वाह किया उनकी भक्ति सखा और भक्त वर्ग के लिए हो सकता है; पर उनके लिए उनका कोई महत्व सेवक भाव से पगी है। विजय वल्लभ के समकालीन कई प्रभावक आचार्य थे वह न था। जैन धर्म पर्ण रूप से गुजरात में फला-फूला और विकसित समय जैन धर्म के लिए स्वर्ण युग था। आज जिनके नाम से संसार में कछ ऐसी प्रतिभाएं जन्म लेती हैं जिनका प्रत्येक समुदाय चल रहे हैं वे सभी आचार्य उनके समकालीन थे। आचार्य हुआ। अतः जैन श्रमण कवियों ने गुजराती भाषा में काव्य रचना व्यवहार संसार के लिए चमत्कार होता है। ऐसे सन्तों के कई विजय वल्लभ के कार्य के प्रमुख दो क्षेत्र थे एक धार्मिक दूसरा की है। मध्यकालीन कवि आनंदधन जी यशोविजय जी, उदाहरण हैं, हेमचन्द्राचार्य, सिद्धसेन दिवाकर, महायोगी सामाजिक।उन्होंने जो भी परिवर्तन किए इन्हीं दो क्षेत्रों में किए। चिदानंदजी आदि ने गुजराती-हिन्दी मिश्रित काव्य रचा है। आनंदधन नानक, कबीर, तुलसी। आधुनिक समय में भी ऐसे कई उनके परवर्ती सभी कवियों ने जैसे उदयरन जी. उत्तम विजयी । धार्मिक क्षेत्र में उन्होंने स्वप्नों की बोलियों के द्रव्य को साधारण महापुरुष हुए हैं, रमण महर्षि, राम कृष्ण परमहंस, स्वामी जी, पद्मविजयजी, लक्ष्मी विजयजी, वीर विजयजी आदि ने खात में ले जाने की बात की, साध्वी प्रवचन का समर्थन किया। दयानन्द, विवेकानंद, महात्मा गांधी आदि कई नाम गिनाये जा इस प्रकार छोटी-मोटी अनेक बातें हैं जो एक रूढ़ि से एक परम्परा विशुद्ध गुजराती भाषा में रचनाएँ की हैं। सकते हैं। चमत्कारों का राज यही होता है कि उनमें अद्भुत से हटकर थीं। सामाजिक क्षेत्र में उन्होंने पहला काम शिक्षण बीसवीं शती में दो आचार्य ऐसे हुए जिन्होंने उस परंपरा से मनोबल होता है। अटल आत्मविश्वास होता है, संयम और संस्थाएं स्थापित करने की प्रेरणा दी। दहेज आदि कप्रथाएँ मिटाने अलग हिन्दी में काव्य रचना की। वे हैं आचार्य श्रीमद् विजयानंद चरित्र की प्रबल शक्ति होती है, जो आम जनता में नहीं होती। का प्रयत्न किया। ध्वनि वर्धक यन्त्र का उपयोग प्रारम्भ किया। सूरि एवं आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरि। उन्होंने केवल चमत्कारों का राज यही है वैज्ञानिक तरीके से। ऐसा व्यक्ति जहां इन बातों का उनके स्तवन और समाय की रचना नहीं कि वरन पूजाओं की भी रचना जाएगा वहां का वातावरण बदल जाएगा, चमत्कार घटित होंगे। समकालीन आचार्यों ने घोर विरोध किया। कछ मनियों. आचार्यों की। पूजाओं की रचना करने वाले बासवा शता क एकमात्र चमत्कारों का दूसरा रहस्य है, अटल श्रद्धा। कई पराने गरुभक्त एवं श्रावकों ने तो उनके प्रत्येक विचार का विरोध किया। उन्होंने आचार्य विजय वल्लभ सूरि थे। उन्हें विभिन्न राग-रागनियों का पंजाबी अपने जीवन के अनुभवों की बातें करते हैं, विजय बल्लभ विरोध को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। उनके विरोध में यथेष्ट ज्ञान था। उनके काव्य में गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी और के चमत्कारों का वर्णन करते हैं, तो हमारा सिर उनकी विजय ईष्या की जलन अधिक थी। कछ आचार्य ऐसे थे जिनका सम्बन्ध पंजाबी शब्दों का प्रयोग हुआ है। महिमा सुनकर नत हो जाता है। पंजाबियों को विजय वल्लभ विजय वल्लभ के साथ सौहार्दपूर्ण था । वे न तो विरोध करते थे आचार्य विजय बल्लभ की मातृभाषा गुजराती थी, पर चमत्कारिक पुरुष इसलिए लगते थे कि उनकी उन पर अटल और न समर्थन। तटस्थ रहे। कुछ आचार्य ऐसे भी थे जो विजय उन्होंने राष्ट्रीय एकता का विचार कर हिन्दी भाषा अपनायी और श्रद्धा थी। अविचल विश्वास था। श्रद्धा चमत्कारों की जननी है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य विजय वल्लभ अखण्ड बाल ब्रह्मचारी थे। संयम समाज उस के लिए प्राण न्यौछावर करेगा। विजय वल्लभ का अधिक प्रस्तुत और सामयिक हैं। वे दीर्घदर्शी थे। आगत पचास और चारित्र की साक्षात प्रतिमा थे। उनमें अद्भुत आत्म बल, विशाल भक्त वर्ग उनके लिए प्राण न्यौछावर करता था। चाहे वर्षों में किन कार्यों और विचारों का प्रचलन होगा वह उनकी पैनी गुजराती हो, चाहे राजस्थानी। पंजाब की भूमि तो वैसे भी समर्पण दीर्घदृष्टि ने देख लिया था। वह समय आ गया है तो वे विचलित न होते थे। बम को भी पानी बना देने की ताकत की भूमि है। पुरानी पीढ़ी आचार्य विजय वल्लभ को समर्पित थी। उन्होंने संयम से प्राप्त की थी। चारित्र के प्रभाव से उन्हें वचन और हैं' में बहुत अन्तर है नयी पीढ़ी में संस्कार, श्रद्धा और भक्ति वल्लभ शासन में कार्यरत मुनिगण और गुरु भक्तों का यह सिद्धि मिली थी। जो वे कह देतेवहहोकर रहता था। जिसको में स्पष्ट अंतर दृष्टिपात होता है। श्रद्धा और भक्ति की रिक्तता से कर्तव्य हो जाता है कि वे वल्लभ शासन को एक सुगठित और आशीर्वाद मिलता था वह निहाल हो जाता था। भरी नयी पीढ़ी को संस्कार निष्ठ बनाना अत्यन्त आवश्यक है। अद्धितीय शासन बनायें। गुरु वल्लभ द्वारा संस्थापित संस्थाओं, युग परिवर्तन की दिशा की ओर तेजी से दौड़ रहा है। गुरु विचारों और कार्यों को हजार गुण आगे बढ़ाया जाए। गुरु भक्तों विजय वल्लभ और गुरु भक्तों की नयी पीढ़ी भक्तों की पुरानी पीढ़ी को चाहिए कि वह नयी पीढ़ी को सुसंस्कारों का बच्चा-बच्चा वल्लभ शासन को समर्पित हो। वल्लभ शासन से सिंचित कर सही राह दिखाएं तभी गुरु के ऋण से वे उऋण हो के प्रत्येक सदस्य में समर्पण और एकता जीवंत होनी चाहिए। संसार में कुछ विभूतियां ऐसी होती हैं जिनका नाम और काम सकते हैं और यही गुरुदेव के प्रति सच्चा तर्पण होगा। समर्पण और एकता से युगीन कार्य किए जा सकते हैं। आज दिल्ली कालजयी हो जाता है। ऐसी ही एक विभूति आचार्य विजय इस प्रकार आचार्य विजय वल्लभ का व्यक्तित्व एवं कृतित्व में वल्लभ स्मारक पर वल्लभ शासन की नजर टिकी हुई है। वल्लभ हैं। उनका नाम और कार्य कालजयी है। विजय वललभ ने सर्वदेशीय और बहु आयामी था। उन्हें गए आज तीन दशक से उससे कई आशाएँ हैं वल्लभ शासन को। उनके विचारों और एक नवीनसमाजका प्रयत्न किया जोव्यक्ति समाज का गुरु होऔर अधिक समय बीत चुका है। पर उनके कार्य और विचार जीवन्त कार्यों का अधिकाधिक प्रचार और प्रसार ही उनके लिए हमारा समाज के लिए निस्वार्थ भाव से कुछ कार्य करेगा, तो स्वभावतः हैं और रहेंगे। वे तीस वर्ष पहले जितने प्रस्तुत थे आज उस से भी सच्चा स्मारक होगा। . सबसे पहले समाज में सुगन्ध फैलाने से पहले अपने में सुगन्ध भरो। दूसरों को सुधारने से पहले स्वयं को सुधारो। नव युवकों से अपना चरित्र बल विकसित करो। राष्ट्र के सुनागरिक बनो। राष्ट्र और समाज तुम्हें आशाभरी दृष्टि से देख रहा है। देशप्रेम, मानवता, प्राणिमात्र के लिये मैत्रीभाव रखते हए अच्छे कामों की सगन्ध संसार में फैलाओ। सच्चासह धर्मी वात्सल्य साधर्मिक भाई को भरपेट भोजन करा देना ही साधर्मिक वात्सल्य नहीं है, पर उसे पांवों पर खड़ा करना, उसके सभी प्रकार के कष्टों को दूर करना ही सच्चा साधर्मिक वात्सल्य है। -विजय वल्लभ सूरि विजय वल्लभ आचार्य वल्लभ सूरि जी के जीवन की मुझ पर गहरी छाप पड़ी है। जैनों की दानवृत्ति को आचार्य श्री ने शिक्षा-क्षेत्रों की ओर मोड़ दिया। उन्होंने जाति और धर्म को भेदभाव नहीं माना। उनकी समाज-सुधार की प्रवृत्ति अत्यन्त ही प्रगतिशील थी। इन्होंने खादी के वस्त्र पहने और दारूबंदी के कार्यक्रम में पूर्ण सहाकार दिया। in Education in -श्री मोरार जी देसाईay.org for PrivateBPurnionalDHEcons Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 गुरु वल्लभ द्वारा स्थापित संस्थाएँ इनके अतिरिक्त गुरुदेव की प्रेरणा से अनेक संस्थाओं की स्थापना हुई, जो विभिन्न प्रकार से समाज की सेवा कर रही है। कुछ संस्थाओं का परिचय यहाँ प्रस्तुत हैं। श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई - - -मुनि चिदानन्द विजय युगवीरजैनाचार्य श्रीमद् विजयवल्लभ सूरीश्वर जी म. ने अपने गुरुदेव के अन्तिम शब्दों को हृदयस्थ कर निम्न सरस्वती मन्दिरों का निर्माण कराया, जिसमें से अधिकांश आज भी शिक्षण क्षेत्र में समाज की अभूतपूर्व सेवा कर रहे हैं : बम्बई, शाखाएँ सात - 1. श्री महावीर जैन विद्यालय अम्बालाशहर 2. श्री आत्मानन्द जैन कालेज फालना 3. श्री पार्श्वनाथ जैन उम्मेद कालेज लुधियाना 4. श्री आत्मानन्द जैन हाई स्कूल अम्बालाशहर 5. श्री आत्मानन्द जैन हाई स्कूल मालेरकोटला 6. श्री आत्मानन्द जैन हाई स्कूल बगवाड़ा 7. श्री आत्मावल्लभ जैन हाई स्कूल वरकाना 8. श्री पार्श्वनाथ जैन विद्यालय झगडिया 9. श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल सादड़ी 10. श्री आत्मानन्द विद्यालय होशियारपुर 11. श्री आत्मानन्द जैन मिडिल स्कूल जंडियाला गुरु 12. श्री आत्मानन्द जैन प्राइमरी स्कूल ब्यावर 13. श्री शांति जैन मिडिल स्कूल अम्बालाशहर 14. श्री आत्मानन्द जैन कन्यापाठशला अहमदाबाद ___15. श्री चिम्मनलाल नगीनदास कन्या गुरुकुल लुधियाना 16. श्री आत्मावल्लभ जैन पाठशाला बीजापुर 17. श्री आत्मानन्द जैन पाठशाला खुडाला 18. श्री आत्मवल्लभ जैन पाठशाला वेरावल 19. श्री आत्मानन्द जैन कन्या पाठशाला अहमदाबाद 20. श्री चिम्मनलाल नगीनदास विद्याविहार पाटण 21. श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान मंदिर अम्बालाशहर 22. श्री आत्मानन्द जैन लायब्रेरी 23. श्री आत्मानन्द जैन लायब्रेरी वेरावल 24. श्री आत्मानन्द जैन लायब्रेरी अमृतसर 25. श्री आत्मानन्द जैन लायब्रेरी जंडियाला गुरु 26. श्री विजयानन्द जैन वाचनालय मालेरकोटला - 27. श्री आत्मानन्द जैन कालेजersonal use Only जैन समाज के महान ज्योतिर्धर एवं प्रभावक युगपुरुष पूज्य आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी म. ने अपने पट्टधर श्री विजय वल्लभ सूरीश्वरजी को "सरस्वती-मंदिर" स्थापित करने का अपना अन्तिम आदेश एवं संदेश दिया। आचार्य विजय वल्लभ ने पंजा, राजस्थान, गुजरात तथा महाराष्ट्र में अनेक सरस्वती मन्दिरों की स्थापना की तथा बंबई में "श्री महावीर जैन विद्यालय' की नींव रखी। सन् 1913 में गुरुदेव का बम्बई में चातुर्मास था। शिक्षा प्रचार की आवश्यकता के विचार का जोरों से प्रचार कर उन्होंने एक प्रकार का वातावरण तैयार किया था। फलतः सन् 1913 के फाल्गुन मास में समाज के नवयुवकों की उच्च शिक्षा में सहायता करने के समयोचित हेतु से एक संस्था की स्थापना करने का स्तुत्य निश्चय किया गया। तब संस्था के नामकरण का विचार चला तो गुरुदेव ने बिल्कुल निर्मोह वृत्ति से कहा कि संस्था के साथ किसी महापुरुष, आचार्य साध या व्यक्ति विशेष का नाम जोड़ने के बजाय समस्त जैन संघ के आराध्यदेव भगवान महावीर का नाम ही रखा जाए। इस प्रकार महावीर जैन विद्यालय का जन्म हुआ। ___प्रारम्भ में यह विद्यालय बहुत छोटे स्तर पर शुरू हुआ किंतु कुछ ही वर्षों में इसके लिए एक विशाल भवन खरीदा गया। सन् 1926, में संस्था के विद्यार्थीगृह को एक लाख रुपए का दान देने वाले सेठ वाडीलाल साराभाई के नाम पर 'सेठ वाडीलाल साराभाई विद्यार्थीगृह" नाम दिया गया। 1915 से 1945 तक इस संस्था ने केवल बम्बई में कार्य करके अपनी नींव तथा लोकप्रियता सुदृढ़ बनाई। इसके उपरान्त 1946 से 1988 तक इस संस्था की सात शाखाएँ इन नगरों में स्थापित हुई-बम्बई दो, अहमदाबाद, पूना, बड़ौदा, वल्लभ विद्यानगर, आनंद, भावनगर। इन शाखाओं में विद्यार्थियों के लिए निवास गृह स्थापित किए गए हैं। इस विद्यालय के अपने तथा शाखाओंary.org पूना Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'के विद्यार्थीगृहों में लगभग 1000 छात्रों के रहने की व्यवस्था है। जो शिक्षारूपी पौधा उम्मेदपुर में प्राथमिक के रूप में स्थापित सम्पन्न है। जिसमें 350 छात्र रह सकते हैं। इस संस्था में छात्रों के विद्यालय के अन्तर्गत आगम साहित्य प्रकाशन एवं प्रतिवर्ष किया था, वह 1940 में फालना स्टेशन पर स्थानान्तरित किया चरित्र निर्माण के हेतु नैतिक एवं धार्मिक शिक्षण का विशेष "जैन साहित्य समारोह" सम्पन्न होता है। गया। सन् 1940-41 के सत्र में वह संस्था फालना स्टेशन पर एक प्रबन्ध किया गया है। माध्यमिक शाला के रूप में स्थापित हुई। संस्था के फालना विद्यालय का विकास एवं विस्तार आचार्य श्री विजय वल्लभ स्थानान्तरण के पश्चात् आचार्य श्री ललित सूरीश्वरजी म. के सूरीश्वरजी म. की प्रेरणा एवं प्रयास से हुआ है। इस विद्यालय से श्री आत्मानन्द जैन गरुकल. मार्गदर्शन में संस्था विकसित हुई। माता जिस प्रकार अपने सहस्त्रों स्नातक निकल चुके हैं। इस संस्था के द्वारा विदेशों में नवजात शिशु का लगन, प्रेम एवं निष्ठा के साथ पालन करती है, झगड़िया उच्च शिक्षा एवं अनुसंधान करने वालों को ऋण भी दिया जाता इसी प्रकार से शिक्षा प्रेमी महान शिक्षा प्रेमी आचार्य श्री ललित है। इसकी उन्नति निरंतर हो रही है। गुजरात एवं अन्य प्रान्तों के शहरों में भी नवीन शाखाएँ खोलने की योजना विचारधीन है। सूरि जी म. ने इस संस्था को जीवनदान दिया। श्री गुलाबचन्द जी आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा ढड्ढा ने ऑनरेरी गवर्नर के रूप में इस संस्था को अपना समय एवं इस प्रकार यह संस्था गुरुदेव का महान जीवन्त स्मारक है। से सन् 1950 में श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल की स्थापना हुई। यह मार्गदर्शन देकर इसकी श्लाघनीय सेवा अनेक वर्षों तक की थी। उनकी अन्तिम स्मृति रूप शिक्षा संस्था है। झगडिया गुजरात का सन् 1944 में हाई स्कूल, सन् 1951 में इण्टर कालेज और सन् पनि श्री आत्मानन्द जैन कालेज, अम्बाला और सन सुप्रसिद्ध तीर्थ भी है। अन्य शिक्षण संस्थाओं की तरह यहाँ भी 1958 में डिग्री कालेज के रूप में मान्यता प्राप्त करता इसका छात्रों को चरित्र निर्माण की उच्च शिक्षा प्रदान की जाती है। 'शहर गौरवमय इतिहास है। तब भी यह कालेज सतत् विकासोन्मुख है। पिष्ठले काठ वर्षों से इसकी उन्नति अवरुद्ध हो गई थी। आचार्य श्री मुनिरत्न, मुनिभूषण श्री वल्लभदत्त विजयजी म. का मार्गदर्शन जी एवं गणिधी नित्यानंद विजय जी म. के प्रयास से यह पुन: भी इस संस्था को मिला है। कालेज में बी.ए., बी.कोम, एवं प्रि. प्रगतिपथ पर आरूढ़ हो गई। अब यह संस्था आत्मनिर्भर हो गई आचार्य श्रीमद विजय वल्लभ सूरीश्वरजी म. सा. की प्रेरणा यनिवर्सिटी विज्ञान आदि की शिक्षा दी जाती है। इस संस्था में पढ़े से अनेक प्रान्तों में अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना हुई। इस जैन विद्यार्थी आज महानगरों में उद्योगपति हुए हैं और समाज एवं श्रृंखला में सन् 1938 में अम्बाला शहर में श्री आत्मानन्द जैन धर्म की सेवा कर रहे हैं। कालेज का प्रारम्भ हुआ। प्रसिद्ध उद्योगपति शिक्षानुरागी दान श्री आत्मवल्लभ जैन हाई स्कूल, वीर सेठ कस्तभाई लालभाई ने इसका उद्घाटन किया। जैन ____ पार्श्वनाथ जैन विद्यालय, वरकाणा बगवाड़ा समाज में किसी विश्वविद्यालय से सम्बद्ध यह प्रथम कालेज था। कालेज के प्रारम्भ में मात्र इण्टर आर्ट्स की कक्षाएँ थी। आज राजस्थान के सुप्रसिद्ध तीर्थ वरकाणा में सन् 1926 में कला तथा विज्ञान और वाणिज्य में उपाधि (डिग्री) पाठ्यक्रम पार्श्वनाथ जैन विद्यालय की स्थापना आचार्य श्रीमद् विजय श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म.सा. की प्रेरणा से तक की शिक्षा प्रदान का रहा है। वल्लभ सूरीश्वर जी म. की प्रेरणा से उनके शिष्य मरुधर बगवाड़ा में श्री आत्मवल्लभ जैन हाईस्कूल की स्थापना हुई। धीरे-धीरे यहाँ छात्रावास भी बना। छात्रों के निवास की यहाँ अति कालेज का अपना निजी पुस्तकालय और वाचनालय भी है। देशोद्धारक आचार्य श्रीमद् विजय ललित सूरिजी म. ने की थी। उत्तम व्यवस्था है। स्कूल का अपना एक विशाल मकान है। इसका भवन आधुनिक स्थापत्यकला की दृष्टि से बनाया गया है। प्रारम्भ में इसमें थोड़े से छात्र थे। स्वयं आचार्य श्री जी इसकी इस कालेज को गति और स्थिरता प्रदान की प्रोफेसर देखभाल करते थे। आगे चलकर इसे अपर प्राइमरी स्कल की छात्रों को धार्मिक एवं नैतिक जीवन का पाठ पढ़ाया जाता है। इस संस्था में पढ़े कई विद्यार्थी श्रमण बने हैं। आज भी यह शिक्षण पृथ्वीराज जैन ने। वे इस संस्था के प्राण थे। इस समय प्रिंसीपल मान्यता प्राप्त हो गई। मंदिर आचार्य विजय वल्लभ की कीर्ति पताका पहरा रहा है। टी.आर. जैन के नेतृत्व में कालेज प्रगति की ओर है। सन् 1930 में इस विद्यालय में मिडिल तक शिक्षा दी जाने लगी। 1932 में यह अंग्रेजी मिडिल स्कूल के रूप में आया। 1951 श्री पार्श्वनाथ उम्मेद कालेज, फालना में इस विद्यालय को हाई स्कूल की मान्यता प्राप्त हुई। तभी से यह __श्री आत्मानन्द जैन हाई स्कूल, विद्यालय निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा है। इस संस्था अम्बाला से बड़े योग्य छात्र निकले हैं। विद्यालय का एक विशाल भवन है। गोड़वाड़ के पिछड़े हए प्रदेश में अज्ञान तिमिर का विनाश यह सरकार द्वारा मान्य प्रथम श्रेणी का विद्यालय माना जाता है। करने के लिए आचार्य श्रीमद् विजयवल्लभ सूरीश्वर जी म. ने, इसका विशाल छात्रावास सभी प्रकार की आधुनिक सुविधाओं से सन् 1945 में श्री आत्मानन्द जैन हाई स्कूल अस्तित्व में । www.jainelibrary.orm Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आया। सन् 1950 में इस विद्यालय में 944 छात्र थे। यह संख्या शाखा पंजाब के प्रत्येक संघ में खलने की संभावना है। कार्यान्वित करने के लिए बम्बई में श्री आत्मानंद जैन सभा की 1970 मं बढ़कर 1969 तक हो गई। यद्यपि इस विद्यालय के स्थापना हुई। गत 40 वर्षों में इस सभा ने सराहनीय कार्य किया आसपास गाँवों एवं कस्बों में अनेक मिडिल और हाई स्कूल खुल श्री आत्मानन्द जैन महासभा, पंजाब है। इसका मुख्य लक्ष्य है साधर्मिक उत्कर्ष। साथ ही साथ सभा ने गए हैं, फिर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक होने के कारण इसमें साहित्य भी प्रकाशित किया है। प्रतिवर्ष यह आचार्य विजय विद्यार्थियों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। विद्यालय का वल्लभ स्वर्गारोहण दिन भी बड़े समारोह पूर्वक मनाती है। यह नवीन भवन बड़ा भव्य और आकर्षक है यह विद्यालय हरियाणा युगबीर, पंजाब केसरी आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ संस्था निरंतर अपने महान लक्ष्य की ओर अग्रसर है। सरकार द्वारा मान्य अन्यतम विद्यालय है। इसके शिक्षण स्तर से सूरीश्वर जी म, एक महान समाजसुधारवादी और दूरदर्शी प्रभावित होकर विद्यालय के प्रिंसीपल को राष्ट्रपति ने सम्मानित आचार्य थे। उन्होंने अपने शिष्य उपाध्याय श्री सोहन विजय जी भी किया है। इस प्रकार यह विद्यालय निरंतर उन्नति के पथ पर म. को आज्ञा दी थी कि पंजाब में श्रावकों का संगठन करके उन्हें श्री आत्मानंद जैन यात्री भवन. अग्रसर है। एक सूत्र में बाँध लें। इस आज्ञा को हृदय में धारण कर उपाध्याय पालीताणा जी म. ने सन् 1921 में आत्मानन्द जैन महासभा की स्थापना की। इसके प्रथम सभापति श्री मोतीलाल बनारसीदास निवाचित हुए श्री आत्मवल्लभ जैन पाठशाला, पंजाब केसरी श्री विजय वल्लभ सुरीश्वरजी म. के रोम-रोम लुधियाना गत 60 वर्षों में महासभा ने अनेक महत्वपर्ण कार्य किये हैं. में पंजाब बसा हुआ था। उनकी यह हार्दिक भावना थी कि पंजाब जहाँ इसने समाज में संगठन की भावना जागत की तथा शिक्षा के का स्थान भारत के जैन समाज में गौरवपूर्ण हो। इसके लिये प्रचार का व जैन धर्म के प्रचार की ओर ध्यान दिया, वहाँ महासभा उन्होंने अनेक प्रयत्न किए।इसी विचार से उन्होंने पालीताणा में युगवीर आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी म. ने से सम्बन्धित अनेक क्षेत्रों में कई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की यात्रियों, विशषकर पजा मालभित बोलब म यात्रियों, विशेषकर पंजाबी यात्रियों की होने वाली कठिनाईयों का धार्मिक शिक्षा एवं संस्कार के लिए जगह-जगह जैन पाठशालाएँ गई। साधनहीन युवकों के लिए सोहन विजय जी उद्योगगृह खोला अनुभव किया और खुलवायी थीं। इन्हीं पाठशालाओं की एक जीवन्त श्रृंखला श्री गया। पालीताणा में एक धर्मशाला बनाने की प्रेरणा दी। उन्हीं की आत्मवल्लभ जैन पाठशाला, लुधियाना है। इसकी स्थापना सन् साहित्यिक क्षेत्र में भी महासभा ने पर्याप्त साहित्य प्रकाशित प्रेरणा का फल है कि पालीताणा में "श्री आत्मानंद जैन यात्री 1951 में हुई थी। तभी से यह पाठशाला गुरुदेव की कृपा से किया है। गत 32 वर्षों से महासभा अपना स्वतंत्र मासिक पत्र भवन" (पंजाबी धर्मशाला) के नाम से एक प्रसिद्ध धर्मशाला कार्यकत्ताओं के परिश्रम से एवं श्रीसंघ के पूर्ण सहयोग से अपने "विजयानन्द' के नाम से प्रकाशित कर रही है। विद्यमान है जिसमें यात्रियों को समस्त सुविधाएँ उपलब्ध हैं और लक्ष्य की पूर्ति में अग्रसर है। श्रीसंघ की बालिकाओं में भी धार्मिक जिसमें कोई भी पंजाबी यात्री ठहरकर गौरव अनुभव करता है। सन् 1988 में इसका अधिवेशन आचार्य श्रीमद् विजयेन्द्र, शिक्षा देने के लिए श्री आत्मवल्लभ जैन कन्या पाठशाला भी इसी दिन सूरीश्वरजी म. की निश्रा में हस्तिनापुर में हुआ। इस संस्था के अंतर्गत सुचारु रूप से चल रही है। अधिवेशन में संरक्षक सुप्रसिद्ध उद्योगपति श्री अभयकुमार श्री पार्श्वनाथ उम्मेद जैन बालाश्रम ____ पाठशाला में दी जाने वाली शिक्षा का उद्देश्य समाज के ओसवाल, महामन्त्री श्री सिकन्दरलाल जैन निर्वाचित हुए। इस नन्हें मन्नों के कोमलकांत हदय में धर्म के प्रति अटल श्रद्धा विवेक, अधिवेशन के बाद महासभा नवीन उत्साह के साथ कार्यरत हुई नम्रता, परोपकार, सदाचार, धर्म प्रेम निःस्वार्थ सेवा और अपनी है। युगवीर आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म. की आत्मा के गुणों का विकास करने में प्रयत्नशील बनाना है। प्रेरणा से उन्हीं के शिष्य आचार्य प्रवर श्री ललित सूरि जी म.ने पंजाब का प्रत्येक मूर्तिपूजक संघ इससे सम्बद्ध है। पाठशाला में बच्चों को जैन तत्वज्ञान, जैन खगोल, जैन सन् 1932 में श्री पार्श्वनाथ उम्मेद जैन बालाश्रम की स्थापना भूगोल का ज्ञान कराया जाता है। तत्व ज्ञान की नियमित रूप से उम्मेदपुर में की। जब बालाश्रम का श्रीगणेश हुआ तो मात्र 19 परीक्षाएं होती हैं। अच्छे अंक प्राप्त करने पर विद्यार्थी को श्री आत्मानंद जैन सभा.बम्बई विद्यार्थी थे। धीरे-धीरे यह संस्था 140 तक पहुँची। पारितोषिक प्रदान किए जाते हैं। प्रतिवर्ष इसका वार्षिक उत्सव सन् 1943 में भयंकर बाढ़ के कारण बालाश्रम क्षतिग्रस्त हो बड़े ही समारोह पूर्वक मनाया जाता है। पाठशाला की ओर से गया। कई वर्षों के बाद इसका पुनरोद्धार हुआ। गुरुदेवों के धार्मिक पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं। इस प्रकार यह पाठशाला आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी म. ने साधर्मिक आशीर्वाद से इस समय यह बालाश्रम सुचारू रूप से चल रहा है आचार्य विजय बल्लभ के विचारों का साकार रूप है। इसकी बन्धु के उत्थान का उपदेश दिया था। उनके इस आदेश को और दिन-प्रतिदिन प्रगतिपथ पर अग्रसर हो रहा है। ww.jaipelibrary.org Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधूरी भावना -अगरचन्द नाहटा रूबाईयां 20वीं शताब्दी के यवकहृदय आचार्य विजयवल्लभ सूरि जी नई-नई योजनाएँ होंगी। मैं भी अपना एक सुझाव इस प्रसंग पर ने अपने 84 वर्षों की दीर्घ आय में जो महान सेवाएँ की, वे सर्व देना चाहता है। विदित हैं। अभी उनके स्वर्गवास हुए अधिक वर्ष नहीं हुए। अतः जैन समाज भारतीय जनगणना के अनुसार अल्प हजारों लक्ष्याधिक व्यक्ति उनके सम्पर्क में आने वाले आज भी संख्यकसमाज है, तो भी वह एक प्रतिष्ठित प्रसिद्ध तथा समृद्ध मौजूद हैं। उनके द्वारा स्थापित विद्यालय आदि संस्थाएं व समाज है। अहिंसामूलक जैन धर्म के अनुयायी शान्त और | दिलों से गर्दे नफरत पाक हो गम दूर हो जाएं प्रतिष्ठित मूर्तियाँ तो विद्यमान हैं ही। पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात सविचारक होने ही चाहिएं। धार्मिक कार्यों में जैन समाज खूब ! | सितमगर भी महब्बत के नशे में चर हो जाएं एवं राजस्थान के अनेक स्थानों में उनकी कीर्तिकला और हजारों उदारतापूर्वक प्रति वर्ष करोड़ों रुपये खर्च करता है। लाखों और भक्त विद्यमान हैं। पंजाब और बम्बई के भक्तों का तो कहना ही करोड़ों की अनेक योजनाएँ चल भी रही हैं पर वल्लभ सूरि जी की | अहिंसा एक ऐसे प्यार के जादू का शीशा है क्या? वास्तव में पंजाब में तो उनके भक्त उन पर न्योछावर है, एक उदात्त और भव्य भावना जो अधूरी रह गयी है, उसकी पूति कि इस शीशे में ढल जाएं तो शोला नूर हो जाएं फिदा हैं। वल्लभ गरु का नाम लेते ही उनमें सात्विक जोश का की ओर भक्त और समद्धजन अभी तक प्रयत्नशील नहीं दिखायी उपदेश अहिंसा का सुनाया तूने उफान-सा प्रकट होने लगता है। गुरु के प्रति ऐसी भक्ति अत्यन्त देते। मैं आशान्वित हैं कि आत्मवल्लभ जैन स्मारक शिक्षण अमृत भरा इक आम पिलाया तूने दलभ आर अनुकरणीय है। बम्बई के भक्तों ने भी उनकी स्मृति निधि उसकी शीघ्र ही योजना बनाकर एक महान कमी को परा भारत पै थे छाये हए जब जल्म के बादल में जो महत्त्वपूर्ण कार्य किये व कर रहे हैं, वे बेजोड़ और सराहनीय करेगा। यह चांद सा मुखड़ा था दिखाया तूने हैं। पूज्य वल्लभसूरि जी अच्छे कवि थे। उन्होंने कई सुन्दर पूजाएँ यह भी सभी जानते हैं कि जैन धर्म भारत का प्राचीनतम मेरी निगाह में यं आज शादमानी है व स्तवन आदि बनाये हैं। खेद है कि उनके धर्म प्रवचनों को लिखा धर्म व विश्वकल्याणकारी धर्म है। जैन साहित्य भी बहुत समृद्ध, कर सुरक्षित रखने का जैसा चाहिये, ध्यान नहीं रखा गया अन्यथा नया जमाना नया दौरे-जिन्दगानी है वैविध्यपूर्ण और ज्ञानोपयोगी है। जैन सिद्धान्त वैज्ञानिक और उनकी प्रभावशाली वाणी युग-युगों तक असंख्य जनों के हृदय को दिखाया अमनो अहिंसा का रास्ता हम को विश्व प्रचार योग्य हैं। फिर भी जैन धर्म का प्रचार बहुत सीमित प्रभावित करती रहती। फिर भी जो कुछ किया गया वह उपयोगी है। जैन साहित्य और कला की जानकारी थोड़े से ही व्यक्तियों को कौम पर वल्लभ गुरू की यह मेहरबानी है है ही। होगी। इसका प्रधान कारण है जैन विश्वविद्यालय का न होना। पंजाब की इक शान बना आन के बल्लभ जैन विश्वविद्यालय की स्थापना से इन सब दिशाओं में बहुत बड़ा पंजाब की इक जान बना आन के वल्लभ दिल्ली में पूज्य वल्लभ सूरि जी की स्मृति में जैन स्मारक बन काम हो सकता है। विश्व की शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं है फख़र हमें कौम के इस रहबर पर रहा है, यह जानकर बड़ी खुशी हुई। अवश्य ही भारत की से हमारा सम्बन्ध सहज ही जुड़ सकता है। जैन विश्वविद्यालय आत्म ने जो सौंपा था रतन जान के वल्लभ राजधानी में यह "वल्लभ स्मारक" बड़े स्तर पर बहुत बड़ी की उपयोगिता और आवश्यकता के सम्बन्ध में 2-3 लेख जगह में करीब एक करोड़ रुपये की राशि से बनने जा रहा है। प्रकाशित भी हो चुके हैं। महान् योगिराज पूज्य विजयशान्ति सूरि बड़ौदा में लिया था बने पंजाब केसरी अतः यह पूज्य वल्लभ सरि जी की स्मृति व कीर्ति को चिरस्थायी ने प्रयत्न भी किया था पर सफल नहीं हो पाये। पूज्य आत्मा के बने पट्टधर थे वो पंजाब केसरी और दीर्घकालीन करेगा। जैन धर्म के शिक्षण, शोध, प्रचार, विजयवल्लभ सूरि जी ने तो कई बार इस पर जोर दिया था। | मिटाई कौम की खातिर थी उसने जिन्दगी अपनी साहित्य, प्रकाशन, स्वधर्मी सेवा आदि अनेक उपयोगी एवम् सम्भव है अभी उदयकाल नहीं आया होगा, जैन समाज ने इस सिधारे बम्बई में स्वर्ग मेरे पंजाग केसरी महत्त्वपूर्ण कार्य स्मारक के माध्यम से सम्पन्न होंगे। इससे जैन ओर ठोस कदम नहीं उठाया। गम्भीरता से विचार ही नहीं किया अभय कुमार जैन धर्म का अवश्य ही गौरव बढ़ेगा, और शासनप्रभावना होगी। गया। आशा है अब तो इस परमावश्यकता की पूर्ति वल्ल्भ जैन An EOभवन के व्यवस्थापकों के सामने अवश्य ही बहुत बड़ी-बड़ी और स्मारक अवश्य करेगा। lune Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यम वर्ग एवं आचार्य विजय वल्लभ ऋषभदास रांका संसार में ऐसे महापुरुष हर जगह और हर क्षेत्र में होते आये आचार्य विजय वल्लभ सूरी जी महाराज के अन्तःकरण में करना चाहिए, यही मेरी हार्दिक इच्छा है। उस सभा में जैन हैं: जो दृष्टा होते हैं, समय की गति पहचान कर समाज का वर्तमान कितनी वेदना थी वह समय-समय पर उनके द्वारा दिये गये समाज में चलने वाले धर्म और संस्कृति के कार्यों की दिशा एवं भविष्य के लिए मार्गदर्शन करते हैं। आचार्य व्याख्यानों से स्पष्ट होती है। आचार्य श्री द्वारा अनुभूति के आधार बदलना, देवद्रव्य के उपयोग की योजना, जैन समाज के चारों विजयवल्लभसूरि भी ऐसे युगदृष्टाओं में से एक थे जिन्होंने जैन पर जैन श्वेताम्बर कांफ्रेन्स की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर दिया सम्प्रदायों को एकत्र करने की प्रेरणा दी। समाज को समय के अनुसार चलने का रास्ता बताया। गया भाषण अपने आप में उस समय की झलक स्पष्ट दर्शाता जिन छोटी-छोटी बातों को बड़ा रूप देकर हम आपस में उनका जन्म गुजरात में हुआ परन्तु उनका कार्यक्षेत्र केवल है: कलह कर रहे हैं उनमें अलग होकर यदि हम अपने मन, वचन गुजरात ही नहीं पंजाब, राजस्थान, गुजरात, तथा बम्बई बना। 'आज हजारों जैन परिवारों के पास पेट भर खा सके इतना और काया से, धन और शक्ति से समाज के उत्कर्ष में लग जायें तो उन्होंने जैन समाज को केवल उपदेश देने में ही अपने कर्तव्य की अन्न नहीं है और न पहनने के लिए पूरे कपड़े ही। बीमार की दवा समाज की संस्कार प्रवृत्तियों का सर्वोदय रूप प्रगट होगा। पूर्ति नहीं समझी पर ऐसे रचनात्मक कार्यों को उत्तेजित किया करने या बालकों को शिक्षा देने के लिए पास में पैसा नहीं है। खंडनात्मक मानस रचनात्मक कामों में लगा रहेग। कार्यकर्ताओं जिससे समाज विकास की ओर बढ़े। आज हमारे मध्यम श्रेणी के भाई-बहन दःखों की चक्की में पिस का जो समूह आज खड़ा हुआ है, उसका बल यदि सामाजिक ऐसे विशिष्ट महापरुषों का जीवन किसी खास मिशन के रहे हैं। भाईयों के पास थोड़े बहुत जेवर थे, वे बिक गये, अब परिवर्तन करने में सैनिक की तरह अनशासनबद्ध विद्यार्थियों के लिए होता है। जब हम आचार्य श्री के जीवन का गहराई से बर्तन के बेचने की नौबत आ गई है। कुछ तो बुःख और आफत के समान प्रगतिशील रहेगा तो ये भाई समाज परिवर्तन की नींव के अध्ययन करते हैं तो उनका मिशन भगवान महावीर के 'पढम मारे आत्महत्या की परिस्थति तक पहुँच गये हैं। वे जो हमारे पत्थर बनकर भव्य भवन निर्माण करने में समर्थ होंगे। नाण तओ दया' के सूत्र के अनुसार समाज में ज्ञान का प्रसार का भाई बहिन है और उनकी दशा सुधारना जरूरी है। यदि मध्यम कितनी यथार्थ बात कही थी आचार्य श्री ने जो आज भी था। उन्होंने पंजाब से लगा कर राजस्थान, गुजरात और बम्बई वा माज कर आर अपना सा वर्ग मौज करे और अपने साधर्मी भाई भूखों मरे यह सामाजिक हमारा दिशा-दर्शन करती है। में अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कर शिक्षा-क्षेत्र में अदभत न्याय नहीं है कित अन्याय है।" आज जब सभी राष्ट्र परस्पर मित्रता करने की बातें सोचते काम किया। ज्ञान का प्रचार किया और शिक्षा के क्षेत्र में समाज "क्या हम अपने बेकार भाई-बहिनों को रोजी-रोटी नहीं हैं। और विश्वशांति की बातें चल रही हैं ऐसी स्थिति में यह छोटा को जागति लाना व उससे लाभान्वित करना आपका मुख्य ध्येय देंगे? यदि यह भी न कर पाये तो समाज का उत्कर्ष कैसा होगा? सा, कित शक्तिशाली व समाज सम्पन्न फिरकेबन्दी से था इस समय आचार्य श्री ने जैन शासन के लिए जो किया वह और बिना समाज के उत्कर्ष के धर्म की ज्योति कैसे चलेगी?" निकल कर चारों फिरकों का संगठन करे तो जैन समाज इनके समकक्ष अन्य आचार्यों ने किया हो ऐसा दिखाई नहीं देता। अपनी इसी प्रभावना के फलस्वरूप आचार्य श्री के संकल्प से में नवीन प्राण-प्रतिष्ठा हो। और चारों फिरके नेता एक नई पीढ़ी को शिक्षा देकर उसकी मौलिक जरूरतों को पूरी समाज के उत्साही वर्ग ने आचार्य श्री के आहवान को स्वीकारा जगह यदि बैठकर समाज उन्नति की योजना बनावे तो यह करना तथा आध्यात्मिक भावना जगने का प्रयत्न हआ वैसे ही जो और श्रावक श्राविकाओं के उत्कर्ष के लिए जैन गह उद्योग की कार्य भी कठिन नहीं होगा। लोग पढ़े लिखे नहीं हो उनकी भौतिक सांसारिक समस्याओं को स्थापना की गई। इस उद्योग की प्रारम्भ पूंजी 5 लाख रुपये थी, उन्होंने कहा था कि-मेरी अन्तिम बात सुन प्रयत्न कर सुलझाने की जरूत को भी आचार्य श्री ने समझा। जो आचार्य श्री का लक्ष्य था। लो-आत्मकल्याण के लिए साध धर्म स्वीकार करने वाले मेरे खासकर मध्यम स्थिति के तथा निचली श्रेणी के लोगों की बढ़ती 29 मार्च 1953 को गलालवाड़ी में सभी सम्प्रदाय के जैनियों समान आत्माओं के लिए जीवन-मरण समान ही होता है। मैंने जो हुई महंगाई में स्वाभिमानपूर्वक सहायता मिल सके इसलिए की सभा बलाई गई जिसमें आचार्य श्री ने कहा कि, जैन समाज के जाना, विचारा, हृदय में धारण किया उसके अनुसार उसका शिक्षा प्रचार के साथ-उद्योगगृहों की स्थापना को प्रेरणा भी दी चारों सम्प्रदायों को भगवान महावीर के झण्डे के नीचे जमा होकर मूल्यांकन कर उसका आचरण कर अनसरण करें। मेरी यही गई। सारे संसार में अहिंसा और सत्य की सगन्ध फैलाने का प्रयत्न कामना है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 समाजोत्थान के मल तत्त्व विजय वल्लभ सूरि समाजोत्थान की नींव कुछ मूल तत्त्वों पर आधारित है। समाजोद्धार की बातों में एक दसरे के प्रति वात्सल्य होने पर ही . जिनको अपनाए बिना समाजोत्थाम का काम ढीलाढाला और लोग दिलचस्पी लेंगे। समाज में पिछड़े-पददलित, असहाय, कच्चा रहेगा। उन मूल तत्त्वों पर हम क्रमशः विचार करेंगे:- अनाथ, अपाहिज एवं निर्धन व्यक्तियों के प्रति वात्सल्यभाव से प्रेरित होकर ही सम्पन्न लोग सामाजिक कप्रथाओं को सधारने के (1) धर्ममर्यादा पर चलना-शुद्ध और व्यापक धर्म समाज लिए प्रयत्नशील होंगे और वे उनकी सेवा करने की भावना में का प्राण है। उस धर्म की मर्यादाओं पर समाज का हर सदस्य चले। वृद्धि करेंगे।साधर्मी-वात्सल्य का मतलब है-समाज के पिछड़े, तभी समाज स्वस्थ और सुखी रह सकता है। जिस समाज में असहाय, निर्धन और बेरोजगार लोगों को रोजगार धंधे दिला धर्म-मर्यादाओं (नियमों व्रतों आदि) का पालन नहीं होता है, उसमें । कर, नौकरी दिला कर, सहयोग देकर अपनी बराबरी के बनाना। शीघ्र ही अव्यवस्था और अशान्ति फैलने लगती है। अपनी नामवरी और वाहवाही के लिए समाज के भाइयों को एक आज व्यवहार और धर्म को बिलकुल अलग-अलग मानने के रोज के लिए खिला देना और कभी मुसीबत पड़ने पर वे उन कारण समाज निर्जीव और धर्म निर्वीर्य हो गया है। धर्म को अपना सम्पन्न भाइयों के पास आ जाएँ तो भोजन कराना तो दूर रहा, पराक्रम दिखलाने का क्षेत्र तो समाज ही है। अकेले व्यक्ति के धक्के देकर या टका-सा जवाब देकर निकाल देना, उन्हें जीवन में धर्म हो और सारे समाज के जीवन में धर्म का वातावरण अपमानित कर देना क्या वास्तव में साधर्मीवात्सल्य है? न हो तो वह व्यक्तिगत धर्म भी तेजस्वी नहीं बनता, रूढ़िग्रस्त हो साधर्मीवात्सल्य का प्राचीन जवलन्त उदाहरण मांडवगढ़ का जाता है। इसलिए सामाजिक व्यवहार में हर कदम पर, हर मोड़ । दिया जा सकता है, वहाँ बसने के लिए जो कोई भी भाईजाता उसे । पर धर्म का पट होना चाहिए। धर्म से विरुद्ध कोई भी सामाजिक फी घर से एक-एक ईंट और एक-एक रुपया दिया जाता। इंटों कार्य या व्यवहार नहीं होना चाहिए।तभी समाजोत्थान की नींव से उसका रहने का मकान तैयार हो जाता और रुपयों से मजबूत होगी व्यापारधंधा चल जाता। इस प्रकार का समाजवात्सल्य प्राप्त (2) परस्पर संघ बना रहे-संघ ही समाज में संपत्ति की करने वाले आगुन्तक व्यक्ति भी समाज के उत्थान के कार्यों में वृद्धि कराने वाला होता है। समाज में संघ न होने पर आपसी दिल खोल कर देते थे। कलह, मनमुटाव, मतभेद और संघर्ष के कारण समाजोन्नति के हाँ, तो वात्सल्य का परस्पर आदान-प्रदान समाजोत्थान के कई महत्वपूर्ण काम ठप्प हो जाते हैं। समाज के सदस्यों की शक्ति कार्य को बहुत ही आसान और सुलभ बना देता है। संघ न होने से तितर-बितर होजाती हैं, जहाँ अच्छे कामों में शक्ति (4) सहयोग का आदान-प्रदान-समाज में विविध प्रकार की लगनी चाहिए. वहाँ नहीं लगती और व्यर्थ के कार्यों में लगेगी। शक्ति वाले लोग होते हैं। किसी के पास श्रम की शक्ति होती है, इसलिए संघ समाजोत्थान में एक महत्वपूर्ण कड़ी है। किसी के पास धन की। किसी के पास विद्या (ज्ञान) की और किसी (3) वात्सल्य का परस्पर आदान-प्रदान-समाज में परस्पर के पास शारीरिक बल होता है। परन्तु परस्पर सहयोग न होने से वात्सल्यभाव होगा तभी समाजोत्थान भलीभांति चल सकेगा। ये शब्द समाजोत्थान के कामों में कोई भी अपनी शक्ति का दान Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देने को तैयार नहीं होता। नतीजा यह होता है कि समाज निर्बल और कायर बन जाता है। कोई भी व्यक्ति उस समाज को दबा सकता है, हरा सकता है और उस पर हावी होकर उसे गुलाम बना सकता है। प्रगति की घुड़दौड़ में ऐसा कमजोर और दब्बू समाज पिछड़ जाता है। समाज में परस्पर सहयोग के अभाव में तुच्छस्वार्थी और प्राणमोही लोग कितना भारी नुकसान कर बैठते हैं, इसके लिए एक उदाहरण लीजिए 500 घरों की बस्ती वाला एक गाँव था। सभी कौम के लोग उसमें रहते थे। सभी अपनी-अपनी आजीविका के कामों में मशगूल रहते थे। गाँव की उन्नति, सुरक्षा या सुव्यवस्था की किसी को खास चिन्ता न थी। अपने-अपने तुच्छस्वार्थ में सब लीन रहा करते थे; खास मौके पर भी कोई किसी को मदद न देता था। चार डाकुओं के एक दल ने एक बार गाँव की जनता को चेतावनी दी कि "हम फलाँ दिन तुम्हारे गाँव पर हमला करेंगे और लूटेंगे।" यह खबर सुन कर गाँव के लोगों में खलबली तो मच गई, लेकिन झटपट कहीं एक जगह इकट्ठे होकर इसके उपाय का विचार न कर सके। जिन लोगों के पास ज्यादा धनमाल था, वे लोग सारे दिन प्रत्येक आदमी के पास घूम-घूम कर एक जगह इकट्ठे होने के लिए मिन्नतें करने लगे। तब जाकर कहीं थोड़े-से लोग इकट्ठे हुए निहितस्वार्थी लोगों ने जोशीले भाषण देकर गाँव के युवकों को डाकुओं का सामना करने के लिए तैयार कर लिया। उन्होंने सभी नौजवानों को हथियार भी दे दिए। किसी तरह कमर कस कर हथियारों से लैस हो कर गाँव के कोई 100 युवक शाम को गाँव की सीमा पर डेरा डाल कर नंबरवार बैठ गए। सबने सोचा- "डाकू आएँगे तो इसी रास्ते से! हम बारी-बारी से पहरा देते रहेंगे।" प्रति घंटे 8-8 युवकों की टुकड़ी ने पहरा देने का तय कर लिया। युवकों का पड़ाव गाँव से काफी दूर था। लेकिन जिस आगे वाली टुकड़ी का पहरा होता, वह यही सोचता-"यार, हम क्यों आगे रह कर व्यर्थ में अपने प्राण खोएँ! आगे रहेंगे तो सबसे पहले डाकुओं का हमला हम पर होगा।" अतः जो टुकड़ी सबसे आगे और सबसे पहले पहरे पर थी, वह एकदम सबसे पीछे और गाँव के किनारे पर आकर सो गई। उससे पीछे वाली टुकड़ी को भी ऐसा ही तुच्छस्वार्थी विचार आया। वह भी सबसे पीछे आकर लेट गई। यो क्रमशः आठों ही टुकड़ियों ने किया। सबेरा होते-होते तो वे सब युवक गाँव के अन्दर घुस आए। डाकुओं के दल ने मौका देख कर सबेरा होते-होते आकर हमला किया। सभी पहरेदार खर्राटे भर रहे थे। डाकुओं ने सारे गाँव को अच्छी तरह लूटा और जिसने सामना किया उसे मारापीटा और जान से भी मार डाला। डाकू अपना काम करके भाग गये। जब वे जवान पहरेदार लोग उठे तो गाँव में कोहराम मचा हुआ था। युवकों की समझ में तो आ गया कि "हमारी लापरवाही और खुदगर्जी के कारण ही ऐसा हुआ है। नहीं तो, 4 डाकू हमारे गाँव को क्या लूट जाते"? पर अब क्या हो सकता था, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत! सज्जनों! प्राणमोही स्वार्थी लोगों के स्वार्थीपन से सारे ग्राम (समाज) ने नुकसान उठाया। इसलिए सहयोग समाजोत्थान के लिए आवश्यक तत्त्व है। सहयोगी रूपी खंभों के बिना समाजरूपी महल टिक नहीं सकता। हमारे शरीर के सभी अवयवों में परस्पर कितना सहयोग है? अगर पैर में काँटा चुभ जाय तो आँख उसे देखने के लिए आतुर होगी, अधिक पीड़ा होने पर आँसू बहाएगी। हाथ उस काँटे को निकालने का प्रयत्न करेंगे। जीभ दूसरे व्यक्ति से काँटा निकालने के लिए मदद करने को कहेगी मस्तिष्क में यह विचार करने में लगेगा कि कैसे इस काँटे को जल्दी से जल्दी निकाला जाय; कान काँटे की आवाज को सुनकर उसके निकालने का उपाय दूसरों से सुनने में जुट पड़ेंगे। यानी सभी अवयव अपनी-अपनी योग्यतानुसार काँटा निकालने में सहयोग देने को जुट पडेंगे। इसी प्रकार समाज में विविध प्रकार की शक्ति वाले लोगों को परस्पर सहयोग के लिए और समाज पर कोई आफत या मुसीबत आए तो एकमत होकर दूर करने के लिए जुट पड़ना चाहिए। तभी सामाजोत्थान के काम में चार चाँद लगेंगे। (4) योग्य को योग्य काम में लगाना-समाज में योग्य पदों, योग्य व्यवस्थाओं और कार्यों में उनके योग्य व्यक्तियों को नियुक्त करने पर ही सामाजिक सुख-शान्ति व व्यवस्था बनी रह सकती है। अयोग्य व्यक्तियों को योग्य पदों, कार्यों या व्यवस्थाओं पर नियुक्त कर देने पर सारी व्यवस्था व सुख-शान्ति चौपट हो जाती है। अयोग्य व्यक्ति ठीक ढंग से विधिपूर्वक काम करना नहीं जानता, इसलिए लोगों में सामाजिक कामों से असन्तोष पैदा होता है और असन्तोष का परिणाम कभी बगावत में भी आ जाया करता है। इसलिए 'योग्यं योग्येन योजयेत्' यह मंत्र समाजोत्थान के लिए बहुत जरूरी है। संस्कृत भाषा में एक कहावत है - नहि वारणपर्याणं वोढुं शक्तो वनायुजः । 'हाथी का पलान गधा कभी सहन नहीं कर सकता।' जो काम जिसके योग्य ही, वही काम उसे सौंपा जाना चाहिए। भारतीय समाज की प्राचीन चातुर्वर्ण्यव्यस्था में यही भावना थी। इससे समाज की सुव्यवस्था दीर्घकाल तक टिकी रही। आज वर्णव्यवस्था की गड़बड़ी के कारण भारतवर्ष की बड़ी हानि और अव्यवस्था हो रही है। शरीर में भी प्रत्येक अवयव अपने उचित स्थान पर ही शोभा देता है। हाथ की जगह पैर हों और पैर की जगह हाथ हों तो न हाथ का काम होगा, न पैर का ही। इसी प्रकार भुजाओं का काम सिर से और सिर का काम भुजाओं से लेना चाहें तो असम्भव होगा। सभी अंगों को अपनी जगह होने में ही शोभा और शरीर-सुन्दरता है। सभी अंग अपना-अपना काम न करें तो वे स्वयं निकम्मे हो जायेंगे। इसी प्रकार समाज - शरीर में भी विभिन्न वर्गों या योग्यताओं वाले व्यक्तियों को उनके योग्य काम सौंपा जाना चाहिए और उन्हें भी अपने जिम्मे काम करना चाहिए। अन्यथा, समग्र समाज की व्यवस्था चौपट हो जायेगी। इस विषय में एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए बाबर बड़ा मेहनती था। एक बार चढ़ाई करके भी वह हिन्दुस्तान को न जीत सका पर उसके दिल में हिन्दुस्तान को जीतने की महत्त्वाकांक्षा थी। इसी इच्छा से प्रेरित होकर उसने ईरान के बादशाह को दूत भेज कर सन्देश कहलाया- "बाबर हिन्दुस्तान को जीतना चाहते हैं, उन्हें आपकी सहायता की जरूरत है। " ईरान के बादशाह ने कहा- "मैं सहायता देने को तैयार हूँ, लेकिन पहले यह बताओ कि बाबर पहले हारे क्यों?" दूत बड़ा होशियार था। उसने जवाब दिया- "योग्य पदों पर योग्य व्यक्तियों को नियुक्त न करने से उन्हें हार खानी पड़ी। जो पद अक्लमंदों के लायक था, उस पर मूखों को और जो पद मामूली आदमियों के लायक था, उस पर अक्लमंदों को नियुक्त कर दिया गया। कामों को मूर्ख नहीं कर सकते थे और साधारण कामों में बुद्धिमानों का जी नहीं है, इस बार ऐसा नहीं होगा।” फलतः ईरान के बादशाह ने बाबर की मदद के लिए अपनी सेना भेजी। बाबर ने फिर भारत पर चढ़ाई की और इस बार अपनी जीत का डंका बजा दिया। 27 निष्कर्ष यह है कि समाज में जो व्यक्ति जिस योग्य हो उसे वैसा ही काम सौंपा जाने पर सुव्यवस्था रहने से समाजोत्थान का काम आसानी से हो सकेगा। समाज में नारी का स्थान काफी ऊँचा library ord Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और महत्वपूर्ण था, लेकिन जब से वह नीची व घृणास्पद समझी वाली वस्तुएँ संभव हो रही हैं, राजनैतिक, आर्थिक आदि क्षेत्रों में लेकर अपनी कन्या देना। इसके पीछे आशय तो यही था कि कोई जाने लगी, तब से समाज में विषमता फैलीस समाज का पतन क्रांति हो रही है, वैसे सामाजिक क्षेत्र भी क्रान्ति के असर से अछता कन्या वाला निर्धन हो तो उस पैसे से लड़की की शादी का खर्च हुआ। नहीं रह सका। लेकिन यह कहना होगा कि सामाजिक क्षेत्र में चला सके। लेकिन उस पैसे को कोई अपने घर में रखता न था। संतोषजनक सुधार नहीं हो पाये हैं। कई सामाजिक प्रथाओं में जो शादी के खर्च के लिए लाचारीवश लेते हुए भी शर्म महसूस होती (6) देश, काल, परिस्थिति देखकर कर हितकर सुधार का सुधार नये जमाने के अनुसार हुए हैं, वे धर्म को नजरअन्दाज थी। उलटे कन्यादान किया जाता था। लड़की के घर का पानी तक शुभ संकल्प करना-जमाना बदल रहा है। अगर समाज भी करके हुए हैं। कोई जगह पुराने रीति-रिवाजों के अहितकर होने नहीं पिया जाता था। मगर बाद में कई पैसे के लोभी लोग कन्या जमाने के अनुसार नहीं बदलता है तो जमाने की तेज रफ्तार उसे पर भी उनके साथ धर्म को ऐसा चिपका दिया गया है कि लोग उसे का हिताहित न देखकर कन्या के रुपये गिना कर उसे बूढ़े, बीमार बदल देगी। लेकिन अपनी इच्छा से देश, काल और परिस्थिति छोड़ने में हिचकिचाते हैं। वास्तव में, उन रीति-रिवाजों का धर्म अपाहिज या दुजबर के गले मढ़ने लगे। कन्या बेचने का व्यापार देख कर समाज का हित सोच कर युगानुसार समाज की प्रथाओं में से कोई खास सम्बन्ध नहीं है। बल्कि ऐसे अहितकर और समाज चल पड़ा। कुछ समाज-हितैषियों का ध्यान इस पाप की ओर परिवर्तन करना और काल के थपेड़ों के कारण बलात् विवश हो के पिछड़े वर्ग के लिए त्रासदायक रीति-रिवाजों से चिपटे रहने से गया, उन्होंने इस कुप्रथा को बन्द करने का विधान बनाया। अब कर परिवर्तन करने में बड़ा अन्तर है। जैसे एक आदमी घोड़े पर अधर्म हो होता है। जैसे छुआछूत की मान्यता। हरिजन को छु तो कन्याविक्रय लगभग समाप्त-सा है। कहीं कोई प्रसंग बनता है, सवार होकर चलता है, दूसरा घोड़े की पूँछ के साथ बँध कर जाने से धर्म चला जाता है, यह कुप्रथा कितनी भयंकर, युगबहा वह भी समाज की आँखें चुरा कर। घिसटता हुआ चलता है। मुकाम पर दोनों पहुँचते हैं। मगर दोनों और असमानता के पाप को बढाती है? अपने मत सम्बन्धी के और असमानता के पाप को बढ़ाती है? अपने मृत सम्बन्धी के बरविक्रय-आज तो वरविक्रय का रोग कन्याविक्रय के बदले के चलने और पहंचने में जैसा अन्तर होता है, वैसा ही अन्तर इन पीछे कई महीनों तक रोने और छाती कूटने की कुप्रथा भी समाज लगा हुआ है। यह रोग इतना चेपी है कि समाज इस भयंकर दोनों परिवर्तनों में है। एक बीमार बन कर सोता है, दूसरा थक का पिछड़ापन सूचित करती है। ऐसी कुप्रथा को चुन-चुन कर टी.बी. के रोग के कारण मतप्राय बन रहा है। जहाँ देखों वहाँ कर सोता है, थक कर सोने वाला गाढी नींद लेकर ताजगी बन्द कर देना चाहिए। लड़के नीलाम हो रहे हैं। लड़की वालों से बड़ी-बड़ी रकम प्राप्त करता है, बीमार बन कर सोने वाला विवशता से सोता है। कई नई हानिकर प्रथाएँ पाश्चात्य सभ्यता के प्रवाह में बह तिलक-बींटी के रूप में माँगी जाती हैं सोना या सोने के जेवर माँगे परिवर्तन तो हमारे अन्दर आज भी हो रहा है, परन्तु वह होता है कर कहीं-कहीं समाज में प्रचलित की गई हैं। जैसे लड़के-लड़की जाते हैं, घड़ी,रेडियो, सोफासेट, स्कूटर या अन्य फर्नीचर की माँग की शादी होने से पहले उनका एकान्त में मिलना, दोनों का साथ तो मामूली बात है। विदेश जाने और पढ़ाई का खर्च तक मांगा घूमना, साथ में सिनेमा देखने जाना, प्रेम-पत्र लिखना, आदि। ये जाता है। इस प्रकार पराये और बिना मेहनत के धन पर गुलछरें अत्यन्त खर्चीली, अहितकर या अनर्थक हो गई हैं, उन्हें देश, कप्रथाएँ भारतीय संस्कृत और नीति के विरुद्ध होने से त्याज्य उड़ाये जाते हैं। युवकों के लिए तो यह बेहद शर्म की बात है। काल,परिस्थिति आदि को देखते हुए शीघ्र बदलने या सुधारने का होनी चाहिए। अतः जो रीति-रिवाज समाज के लिए हानिकारक, परन्तु उन जवान लड़कों के माता-पिताओं के लिए भी इस कुप्रथा शुभ संकल्प करना चाहिए। जो समाज अपनी अहितकर प्रथाओं अहितकर, खर्चीले, विकासघातक, भारतीय संस्कृति और नीति का पालन कम पापजनक नहीं है। बेचारे कन्या के मध्यमवर्गीय को बदलकर हितकर प्रथाओं को प्रचलित करता है, वही समाज । के विरुद्ध व युगबाहा बने हुए हैं, वर्तमान युग के लिए अनावश्यक गरीब पिता की स्थिति बड़ी नाजुक हो जाती है, जब एक ओर घर जिंदा कहलाता है, वही उन्नति और प्रगति कर सकता है। समाज हैं या जिनमें विकृति आ गई है; जो बिना मतलब के निरर्थक से हैं, में 20-25 साल की लड़की कुंवारी बैठी रहती है, दूसरी ओर के मूल सिद्धांतों में कोई परिवर्तन नहीं होता, लेकिन द्रव्य, क्षेत्र, उनमें अवश्य परिवर्तन करना चाहिए। तभी समाजोत्थान सच्चे वरपक्ष को मुँहसाँगे दाम देने की हैसियत नहीं होती। घर में रोटी काल और परिस्थिति के अनुसार उसके बाह्य ढाँचे में परिवर्तन अर्थों में हो सकेगा। के लाले पड़ रहे हों, व्यापार मंदा चलता हो, महँगाई बढ़ गई हो, करते रहना चाहिए। तभी समाजोत्थान का काम सतत स्थायी ऐसे मौके पर बड़ी उम्र की कन्या के पिता की स्थिति कितनी रहता है। पोशाक ऋतु के अनुसार बदलते रहने पर भी आदमी में समाज विकास में लगे हुए घुन दयनीय हो जाती है? वह कहाँ से इतनी रकम या साधन वरपक्ष के कोई परिवर्तन नहीं होता। इसी प्रकार समाज की प्रथाओं में लोगों को लाकर दे? फलतः इस चिन्ता के मारे कई माता-पिता तो द्रव्यक्षेत्रकालभावानुसार परिवर्तन होने पर भी समाज तो वही वर्तमान समाज की परिस्थिति को देखते हुए कुछ सामाजिक आत्महत्या कर लेते हैं। यह भयंकर पाप यहीं तक समाप्त नहीं रहता है। बल्कि समाज का जीवन उन्नत बनता है। इसलिए कुप्रथाओं की ओर मैं आपका ध्यान खींचना चाहता है, जो समाज होता। अगर लड़की के पिता ने आशा से कम दिया तो उसकी समाजोत्थान के लिए यह तत्त्व तो अनिवार्य है। ऐसे शुभ संकल्पों के विकास में लगे हुए धुन हैं। समाज की उन्नति में ये कसर लड़की पर निकाली जाती है। ऐसी लड़की जब बह बन कर के बल पर ही समाज सुदृढ़ बनता है। कुरीति-रिवाज रोड़े बने हुए हैं। इसलिए शीघ्र ही इनमें परिवर्तन ससुराल में आती है तो उसे सास-सुसर और ननदों के ताने मिलते वर्तमान युग क्रान्ति का युग है। इस युग में मानव-जीवन के करने की आवश्यकता है। कुछ कुप्रथाएँ ये हैं हैं, गालियाँ मिलती हैं, पति द्वारा हैरान किया जाता है, विविध सभी क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं। असंभव प्रतीत होने (6)कन्याविक्रय-कन्याविक्रय का अर्थ है, वरपक्ष से धन यातनाएँ दी जाती है और कई जगह तो जान से मार भी डाला | Jain Educanam Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमृत कण जाता है। क्या ऐसा पापकर्म, इतनी भयंकर हिसा किसी भी धर्म में डालता हैं। नतीजा यह होता है कि वह घर में भरपेट खाना नहीं को मानने वाला, आस्तिक पुरुष कर सकता है? परन्तु समाज में खा सकता, बालकों को परा पढ़ा-लिखा नहीं सकता, अपने व ऐसी कप्रथा को सरेआम प्रचलित होते देखकर भी सहन किया परिवार के लिए परे कपड़े नहीं बना सकता। चूंकि समाज में वह जाता है, बल्कि धनिक लोग अपनी लड़कियों को अपनी बराबरी रीतिरिवाज प्रचलित है, अभी तक बन्द नहीं किया गया है, धार्मिक शिक्षा का महत्त्व के ठिकाने में देने के लिए बड़ी-बड़ी रकम वरपक्ष को देते हैं और इसलिए उसे समाज में अपनी आबरू सहीसलामत रखने के लिए इस कुप्रथा को चाल रखते हैं, इसलिए इस भयंकर पापी रिवाज खर्च की चक्की में पिसना पड़ता है। अतः शीघ्र ही ध्यान देकर धामिक शिक्षा तो माता के दूध के समान है। जैसे माता का को भी पण्यवानी का मलम्मा चढ़ा कर चलाते रहते हैं। उस समाज में प्रचलित ऐसी कुप्रथाओं का अन्त कर देना चाहिए। दव शरीर को पुष्ट करता है, वैसे ही धार्मिक शिक्षा मन बद्धि समाज का अधःपतन क्यों नहीं होगा, जहाँ लड़के-लड़की महमांगे मृत्युभोज की कप्रथा भी इतनी भयंकर है कि वह कहीं-कहीं तो और आत्मा के प्रदेशों को एष्ट करती है। दामों में बेचे जाते हों? इस कप्रथा को तो जितना शीघ्र हो सके । समाज के प्रतिष्ठित लोगों द्वारा मतक के कम्बियों पर ताने समाज से धक्का देकर निकालना चाहिए। मार-मार कर, दबाव डाल कर जबरन पालन कराई जाती है। विरोध नहीं सहयोग बालविवाह और बुद्धविवाह-ये दोनों अनिष्ट समाज के विकास में घातक हैं: समाज को निर्वीर्य और निर्बल बनाने वाले कर्तव्यनिर्देश कोई द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखकर समाज हित का मरे हैं। इनके दुष्परिणाम आप सब जानते ही हैं। बालविवाह से एक ओर ऐसी निरर्थक और खर्चीली कप्रथाओं में समाज के । नजर रखते हा नधार या परिवर्तन किया जाए तो उसे देखकर असमय में कच्चा वीर्य नष्ट होने से कई रोग लग जाते हैं, असमय लाखों रुपये बर्बाद किये जाते हैं, दूसरी ओर हमारी सन्तान प्राचीनता के मोहवश अथवा ईष्यांवश विरोध करना उचित नहीं में ही बढ़ापा, पंस्त्वहीनता आदि आ जाते हैं। संतान भी निर्वीय अनपढ़, अज्ञानी और अशिक्षित रहती है। शिक्षा के मामले में | होता। जबकि उन्हीं महान भावा ने पगनी कई परम्परा, जा पैदा होती है और वृद्धविवाह तो कन्या के जीवन में जानबूझ कर हमारी समाज दुसरी समाजों में बहुत ही पिछड़ी हुई है। जो समाज दसगे ने बदली थी अपानाई थी अपना । तब फिर हमार वाय आग लगाने जैसा है। इससे कन्या को वैधव्य, असहायता. शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पिछड़ी रहती है, वह उद्योगधंधा, नई परम्परा को चलते देखकर विराध करना बदता व्यापात पराधीनता आदि दःख घेर लेते हैं। कई माँ-बाप जानबूझ कर पैसे आधुनिक यंत्रों आदि के ज्ञान-विज्ञान में प्रगति नहीं कर सकती। सी बात है। के लोभ में आकर, अथवा अपनी लड़की को बहत जेवर व समाज का यह पिछड़ापन नई पीढ़ी के विकास को रोक देता है। सखसामग्री मिलेगी, इस प्रलोभन में आकर बढ़े के गले मढ़ देते विद्यादान में दिया गया पैसा व्यर्थ नहीं जाता। 'महावीर विद्यालय' । | सत्य का पुजारी हैं। इसे भी समाज के सधारकों को शीघ्र ही रोकना चाहिए। का उदाहरण आपके सामने मौजूद है। शुरूआत में लोग लकीर के दहेजप्रथा-दहेजप्रथा भी समाज के लिए बड़ी घातक है। फकीर बनकर विद्यादान का कितना विरोध करते थे? इतने जोर जो लोग बिराध बढ़ जाने के डर से या अपने सम्प्रदाय की का अन्धड़ समाज में आया कि वह महावीर विद्यालय को उड़ा देने पकही हई बात को, चाहे वह आज अहितकर हो. छोड़ने में कन्या वाला अपनी लड़की को अपनी इच्छा से चाहे जो कछ दे, पर उसका दिखावा न करे और न वरपक्ष वाले उस पर दबाव डालें कि को तत्पर था। लेकिन समाज के भाग्य प्रबल थे। समाज के प्रतिष्ठा जाने का खतरा महसुस करके शरमाने है या देख-देखी अगओं ने मेरी बात पर ध्यान देकर इस विद्यालय को पनपाने की परानी घातक परम्पराओ के बदलने में स्वयं संकोच करत है। इतना दहेज तो देना ही पड़ेगा। नहीं तो हम तुम्हारी लड़की नहीं ओर ध्यान दिया। आज उसका मधुर फल आप चख रहे हैं। | अथवा दसरा कोई हितेची किसी परम्परा को बदलता है तो उने लेंगे। दहेज दानव ने भी लाखों लड़कियों का खून पिया है, जीवन महावीर विद्यालय के निमित्त से हजारों युवक विद्या प्राप्त करके | ठीक समझते हा भी सच्ची बात कहने में हिचकिचाते हैं वे सत्य का सत्यानाश कर दिया है। अतः इस पाप को भी जितना जल्दी हो आज अपना जीवन सुखपूर्वक व धर्मयुक्त बिता रहे हैं। 'बूंद-बंद के पुजारी नहीं, कड़ियों के पुजारी है। सके, विदा करो। से सरोवर भर जाता है इस कहावत पर ध्यान देकर आप समाज खर्चीले रीति-रिवाज-आजकल महंगाई के जमाने में से उत्कर्ष के कार्यों में यथाशक्ति अपनी सम्पत्ति और साधन लगा अन्याय का धन विवाह, जन्ममरण के प्रसंग, उत्सव या किसी खास अवसर पर कर मानव-जीवन सार्थक करें। अन्याय-अनीति या हिसा आदि से जो भी वस्त-से सत्ता कई खर्चीले रीति रिवाज चाल हैं। मध्यमवर्ग की कमर खर्च के सज्जनों! समाजोद्धार के इन मलमंत्रों के कार्यों में आप अपनाया और कह चीज प्राप्त की जाती है. आसीनि पक्क साचत का बोझ से इतनी टूट चुकी है कि अब वह और बर्दाश्त नहीं कर तन-मन-धन लगायेंगे तो आपके पुण्य में वृद्धि तो होगी ही, साथ जाती है वह उस व्यक्ति का ही नहीं बल्कि जिस व्यक्ति कपास सकता। बेचारा कर्ज करके, मकान, गहने आदि गिरवी रख कर ही समाज में भी धर्म की वृद्धि होगी, सर्वांगीण विकास का द्वार | वह चीज जाती है, उसकी भी यदि बिगद डालता हा लाचारीवश समाज में अपनी इज्जत बरकरार रखने के लिए ऐसे खुलेगा, जो समाज को मोक्षमार्ग पर ले जायेगा, इसमें कोई सन्देह अवसरों पर रीति-रिवाजों के खप्पर में हजारों रुपये खर्च के रूप नहीं। -श्री वल्लभ सरी For Pavanes Purnorsat the only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमने भगवान महावीर को खोया है हमारी आपसी फूट के कारण ही हम जैन-धर्म के सिद्धान्तों को विदेशों में फैलाना तोदर रहा.हिन्दस्तान के भी कई प्रान्तों में नहीं फैला सके। कई प्रान्त भारतवर्ष में ऐसे भी हैं, जहां जैन-धर्म का नाम तक लोग नही जानते। जैन धर्म के जीवन निर्माणकारी सुन्दर सिद्धान्तों और वृत्तों से भी वे लोग अपरिचित हैं। साधु-साध्वियों से भी वे बिलकुल अज्ञात हैं। जैन-धर्म का देश-विदेशों में प्रचार-प्रसार न होने में सभी फिरकों की एकता का न होना भी एक बड़ा कारण है। एकता के बिना हमने क्या-क्या खोया है? इसका सही जवाब यदि मुझसे पूछे तो मैं यही कहूँगा कि हमने भगवान् महावीर को खोया है, जैन-धर्म को लज्जित किया है। आज दुनिया के अधिकांश लोग भगवान बुद्ध को जानते हैं, ईसामसीह के नाम से परिचित हैं, हजरत मुहम्मद का नाम जानते हैं, लेकिन जिन्होंने मानव जाति के सामने अहिंसा का उच्चतम प्रयोग स्वयं व संघ के माध्यम से करके रखा था, जिन्होंने स्त्री-पुरुष दोनों का समाज में नहीं, बल्कि धर्म-साधना और मोक्ष में भी समान अधिकार दिया था, शूद्र कहलाने वाले लोगों को उच्च-साधक तक बनने का अवसर प्रदान किया था, उन भगवान् महावीर से सभी बहुत ही कम परिचित हैं। इसका कारण जैनों की आपसी छिन्न-भिन्नता ही तो है। जैनों की संख्या एकदिन करोड़ों तक थी, वह आज घट कर लाखों तक आ गई है, इसका कारण हमारी फूट ही है। श्री विजय वल्लभ सूरि Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 एकता के उपदेशक भारत भूमि आदिकाल से ऋषि भूमि के नाम से प्रसिद्ध है। यह देश कभी धनधान्य से पूर्ण था, इसे विदेशी सोने की चिड़िया कहते थे। शास्त्रों में लिखा है कि ऐसी भूमि पर जन्म लेने के लिये स्वर्ग में रहने वाले देवता भी लालायित रहते हैं। फिर भी यहां के साध्वी सुमंगला श्री निवासी ममत्व और आसक्ति के दास नहीं थे। उनकी अभिलाषा समय-समय पर संसार में दिव्य विभूतियों का अबतरण रहती थी कि ऐसा सुख प्राप्त किया जायें जो अमर और अनश्वर होता रहता है। जब संसार में हिंसा का प्राबल्य हुआ, तब भगवान हो। भारतीय जनता ऐसे ऋषियों और महात्माओं की सदैव पूजा महावीर ने अहिंसा का प्रचार कर संसार को एक नई दिशा की करती आई है। यह सन्त-परम्परा अविच्छिन्न रही है तथा इस ओर मोड़ा। जहां महात्मा गांधी ने मनुष्यों के मन में समाई हुई देश के प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय में ऐसे अनेक ऋषि-मनि हए हैं दीनहीन भावना को मिटाकर अपूर्व आत्मबल की जागृति कर जिन्होंने स्वार्थ को लात मारकर परहित-साधना को अपने जीवन अन्याय के प्रति असहयोग करने की कला सिखाकर समूचे विश्व का एकमात्र लक्ष्य बनाया है। को एक नई प्ररेणा दी, धर्म के नाम पर फैली संकीर्ण भावनाएँ, उन्नीसवीं शताब्दी के जैन समाज में ऐसे ही महान रुढ़िया, प्रथाएँ एवं भ्रातं धारणाएं मिटाकर संसार को प्रगतिशील संत-रत्न का जन्म हआ जो जैन-समाज में विजय मरीश्वरजी सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। महाराज के नाम से प्रख्यात हुए। विक्रम संवत 1953 में "विवेगे धम्म महिए" अर्थात विवेक में ही धर्म है - इस गुजरांवाला में श्री विजयानन्द सूरीश्वरजी महाराज कालधर्मको आगम-वाक्य को जीवन-सूत्र बनाकर श्रीमद् विजयवल्लभ प्राप्त हुए। अन्तिम समय अपने मेधावी शिष्य को जगाकर सूरीश्वर जी महाराज ने अपने कदम आगे बढ़ाये। वे निरर्थक उन्होंने संदेश दिया, "पंजाब में देवमंदिरों की स्थापना का रुढ़ियों व धर्म के नाम पर आडम्बर व गलत प्रथाओं के सख्त श्रीगणेश हो चुका है। अब इन मंदिरों के सच्चे पुजारी पैदा करने विरोधी थे और उन्हें मिटाने के लिये लोकोपवाद व निन्दा स्तुति के लिए सरस्वती-मंदिरों की स्थापना की ओर ध्यान देना; साथ की परवाह किए बिना जैन धर्म का झंडा बुलंद किया। उनका ही पंजाब में नवस्थापित जैन-संघ की रक्षा और उसके जीवन कमल से कोमल और साथ ही वजवत कठोर भी था। सिंचन-परिवर्धन का उत्तरदायित्व भी तुम्हारे मजबूत कन्धों पर उनकी दृष्टि में मानवमात्र समान है। चाहे वह किसी सम्प्रदाय का हो उनके मन में एक ही तड़प थी कि वे सभी धर्मों के बीच आपसी पूज्य गुरुदेव ने इस वचन को अपना जीवन मंत्र मानकर प्रेम, सद्भाव और सहिष्णुता की सरिता बहावें। उनका दृष्टिकोण धुवलक्ष्य बना लिया। उसकी पूर्ति के लिये अपना जीवनसमर्पित मानवतावादी था। उनके शब्द थे, "न मैं जैन हं, न बौद्ध, न कर दिया। जीवन के अन्तिम श्वास तक अहिंसा, संयम व साध वैष्णव हूँ, न शैव, न हिन्दु, न मुसलमान: मैं तो परमात्मा को धर्म के नियमों का पालन करते हुए उन्होंने सामाजिक उत्कर्ष के प्राप्त कराने वाले मार्ग का पथिक एक मानव है।" कितना उदार कार्यों की उपेक्षा नहीं की। निवृत्ति और प्रवृत्ति का सुन्दर समन्वय भावना थी उनमें? करते हुए, उन्होंने साधुत्व का एक नया आदर्श समाज और देश आज भी उनकी उदार भावना के कारण जन-जन का मन के सम्मुख उपस्थित किया। गुरुवल्लभ की सबसे बड़ी देन शिक्षा बल्लभ के नाम लेते ही नाच उठता है। उन्होंने देशकाल और प्रचार के क्षेत्र में थी। वे मानते थे कि शिक्षा के प्रचार के बिना परिस्थितियाँ समझकर धर्म के मल उद्देश्य की रक्षा करने के लिये समाज और देश की प्रगति की कल्पना निराधार है। सारे कार्य विवेकपूर्वक किये, जिससे भावी पीढ़ी उन्हें सरल तरीके इसी शिक्षा प्रचार को लेकर उन्होंने नारी जीवन को आगे से कर सके। बढ़ाने पर जोर दिया। आज उन्हीं की परम कृपा का फल हमारे ऐसे पूज्य गुरुदेव विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज की सामने है दिल्ली स्थित वल्लभस्मारक। गुरु वल्लभ रूपी दिव्य अन्तर भावनाओं को साकार रूप देने वाला वल्लभ स्मारक की प्रकाश फैलाता स्मारक हमें प्रगति पथ पर आरूढ़ रहने की प्रेरणा विजय-पताका दशों दिशाओं को प्रकाशित करे, यही शासनदेव युग-युगों तक देता रहें यही कामना। से शुभकामना है। On se chy युगवीर - विजय वल्लभ साध्वी पीयुषपूर्ण श्री Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंग-परिमल मुनि नवीनचन्द्र विजय,राघव प्रसाद पाण्डेय -RAMER in Education Intematon Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान सदी के जिन धुरंधर आचार्यों ने जैन धर्म की उन्नत और गौरवशाली बनाया उनमें आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सरीश्वर जी म.सा. का नाम सदा अमर, अशेष और अविस्मरणीय रहेगा। उनका जीवन, कार्य और व्यक्तित्व, सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय था। महापुरुष जब तक जीवित रहते हैं तब तक तो अपने विशिष्ट गुणों, अनुकरणीय कृत्यों से प्रख्यात रहते ही हैं किन्तु उसके बाद भी उनके द्वारा दिखाया गया मार्ग एक आदर्श मार्ग बन जाता है उनके जीवन की प्रत्येक घटना किंवदन्ती बन जाती है, उनके जीवन का प्रत्येक दिन एक इतिहास बन जाता है। उन्हीं गुरुदेव की पनीत स्मृति में नवनिर्मित अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विजय वल्लभ स्मारक गुरुदेव के जीवन की हर घटना को ताजा कर दे रहा है। यहाँ ऐसे ही प्रसंगों का संकलन है जिनसे गुरुदेव के व्यक्तित्व को समझने में सुलभता होगी। चित्र : सुमंत शाह SEdubindrufirst PrnviteBITYspindiansenig Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृ-शिक्षा गया। जीवन का एक अमूल्य अवसर था। उस समय उनके जैसा प्रतापी की निर्वेद भावना जागृत होती है। पंचममहाभूतों से बना शरीर वक्ता कोई न था। उनकी अस्खलित वाणी की धारा रुकी और जब चिता में जलता है तब लगता है-यह संसार असार है। जीवन प्रवचन समाप्त हो गया। आनंदित चेहरे बिखर गये। उपाश्रय की यही नियति है। मनुष्य कितना ही भागदौड़ कर रुपये, धन, खाली होगया। आनंदित चेहरे बिखर गये। उपाश्रय खाली हो सम्पत्ति एकत्र करें आखिर उसे सब कुछ छोड़कर श्मशान में संध्या का समय था। सूर्यास्त हो रहा था और उसके साथ ही जलकर राख बन हवा में उड़ जाना पड़ता है। इस माया मोह में माता इच्छाबाई के जीवन का भी अन्त हो रहा था। भय, शोक फंसने से तो अच्छा है धार्मिक जीवन यापन किया जाए आदि और चिन्ता में डबा, परिवार माता के पलंग को घेर कर बैठा हुआ एक कोने में एक किशोर अभी भी बैठा कुछ चितन कर रहा विचार आते रहते हैं। पर यह विचार या भाव श्मशान तक ही था। छगन माता के चरणों में बैठा रो रहा था। माता की बंद आँखें था। उसके कर्ण पटल में मधुर वाणी का रव अभी भी गुजित हो सीमित होते हैं। श्मशान से बाहर निकलने के बाद वही मार्केट की खुली धीरे-धीरे सब को देखा। छगन को भी देखा वह रो रहा था। रहा था। आचार्य श्री की वैराग्यपूत वाणी ने किशोर के व्यक्तित्व चर्चा, शेयर बाजार की चर्चा, ऑफिस की चिन्ता, घर की याद उसे रोता देखकर माता ने लड़खड़ाती आवाज से पूछा-"बेटा को झकझोर दिया था। उसकी नस-नस में स्नायु-स्नायु में प्रारंभ हो जाती है। क्यों रो रहा है?" रोएं-रोएं में वैराग्य का बास हो गया। गुरुदेव की अमृत वाणी ने माता इच्छाबाई, जो छगन का एकमात्र सहारा थी। जिसके उसकी माता की अंतिम शिक्षा याद दिला दी'दू अरिहंत की शरण यह वैराग्य परिस्थिति जन्य है और क्षणजीवन है। पूर्वजन्म वात्सल्य सागर में छगन का निर्दोष बचपन बीत रहा था। वही में चले जाना।' के सुकृत, माता के जीवन व्यापी धर्मोपदेश और साधओं की उसे नहलाती, मंदिर ले जाती, पजा करना सिखाती थी। और। संगति इन तीनों ने मिल कर छगन में चिरस्थायी वैराग्य पैदा कहानियां भी सुनाती थी। वह थोड़े दिन बीमार रही और इस आचार्य श्री की दृष्टि उस किशोर पर पड़ी। उन्होंने प्रेम से । किया। उसने निश्चय कर लिया कि मैं दीक्षा लूंगा संसारी हरगिज संसार से विदा हो रही थी। अपने करीब बुलाया। पूछाः 'क्यों, सब घर चले गये तुम्हें घर नहीं नहीं बनूंगा। छगन के चार साथी थे उन्हें धार्मिक मित्र कहा जा जाना?' किशोर: नहीं। आचार्य श्रीः 'नहीं, तो तुम क्या चाहते क्यों रो रहा हैं इस प्रश्न ने छगन को और रुला दिया। माता सकता है। प्रत्येक धार्मिक क्रिया में वे सम्मिलित होते थे। उन हो?' किशोरः 'धन'। आचार्य श्रीः 'धन!...भोले बच्चे हम अपने से लिपटते हए उसने सिसकियां भरते हए बस इतना ही चारों के मन में वैराग्य भाव आता था। पर उनका वैराग्य पास धन नहीं रखते हैं। किशोर :'आप के पास धन है, वैसा धन कहा-मां...मां...तू मुझे किसके सहारे छोड़ कर जाती है? क्षणजीवी होता था। कोई तीस वर्ष का था कोई पच्चीस वर्ष का किसी के पास नहीं है। मुझे धर्मधन, संयमधन चाहिए' जो था। सभी को कोई न कोई किसी न किसी प्रकार का दुःख था। . माता के मुख से अविराम 'अरिहंत...अरिहंत...' की रटन आपके पास है।" किसी को पत्नी का दुःख था। किसी को माता-पिता का दुःख चल रही थी। उसने कहा-"बेटा, मैं तुझे अरिहंत की शरण में आचार्य श्री को उसकी विस्मयकारी याचना सुन कर बड़ा तो किसी को दुकान का झगड़ा। और किसी को घर से दीक्षा छोड़कर जा रही हूं। वे ही शाश्वत शरण हैं। तू अरिहंत की आश्चर्य हुआ। और साथ ही इतनी छोटी अवस्था में उसकी लेने की अनुमति मिल नहीं रही थी। एक दिन पांचों ने मिलकर शरण में चले जाना। वे अनाथ के नाथ, बल के निर्बल विकसित प्रतिभा देखकर हर्ष भी हुआ। घर से चुपचाप दीक्षा लेने के लिए चले जाने की योजना हैं।" इतना कहकर माता ने एक गहरी सांस ली। ततक्षण आचार्य श्री ने कहा-'तथास्तु' बनायी। कई दिनों तक पांचों की बन्द किवाड़ों में गप्त मातृ-भक्त छगन ने इस आज्ञा को शिरोधार्य कर लिया। माता ने आशीर्वाद दियाः तेरा मार्ग प्रशस्त हो। और माता की आंखें मंद। वे आचार्य थे पंजाब देशोद्धारक आचार्य श्रीमद् विजयानंद मंत्रणाएं होती रहीं। अन्त में तारीख,वार, और समय निश्चित गयीं सदा सदा के लिए। सूरीश्वर जी म.सा. और वह किशोर था छगन आचार्य विजय किये गये। सब ने तैयारी कर ली। किसी को कानोकान पता वल्लभ सूरीश्वर जी म. सा. न चला। दूसरे दिन प्रातःकाल तड़के जना निश्चित हो गया। वे पांच मित्र थे छगन, हरिलाल, सांकलचंद, खूबचंद खंभाती, वाडीलाल, गांधी और मगन लाल। एक किशोर की याचना श्मशान वैराग्य बड़ौदा जानीशेरी का उपाश्रय खचाखच भरा हआ था। सारा नगर उनकी धर्मवाणी-सुधावाणी सुनने के लिए उमड़ पड़ा था। indu आचार्य श्री की ओजस्वी, गहन, एवं मधुर वाणी का श्रवण करना रात हुई, अंधेरा बढ़ा। हरिलाल का वैराग्य जवाब दे गया। । उसका मनोबल टूट गया। साधु के दैःसह जीवन की कल्पना से ही वैराग्य के तीन-चार प्रकार हैं। उसमें एक प्रकार श्मशान वह कांप गया। चुपके से उठा और शेष चार मित्रों के घरों में । वैराग्य है। इसका अर्थ है, किसी आप्त जन का निधन हो जाने पर जाकर उनके परिवार वालों को सचेत कर आया। षड्यन्त्र खुल उसे श्मशान लेजाकर जलाले समय मनुष्य के मन में एक प्रकार गया। योजना निष्फल गयी। घरों के द्वार बंद हो गये। rayan Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल में कमल हृदय में पहली बार विचार आया कि मैं कब तक इसे रोके रहंगा? और इतिहास का दिग्दर्शन कराने का विनम्र प्रयास है। खीमचन्द भाई ने पूछा-"क्या बिस्तर नहीं थे जो जमीन पर यद्यपि आचार्य विजय वल्लभ शास्त्रार्थ में विश्वास नहीं सो रहा है? लोग मझे क्या कहेंगे? रखते थे। वे समन्वय के इच्छुक थे। पर अगर सामने वाला पक्ष खीमचंद भाई के लिए यह बात असहयथी कि मेरा छोटा भाई छगन ने जवाब दिया-"लोग क्या कहेंगे? इसी के डर से मैं उसके लिए ललकारता था तो वे पीछे नहीं हटते थे। छगन वैराग्य के पथ पर बढ़े। छगन को दीक्षा की अनुमति वे अपना नियम कैसे तोड़ सकता हूं?" समाना शहर पंजाब का एक प्रमुख शहर है। यहां स्वप्न में भी न दे सकते थे। वे छगन को येनकेन प्रकारेण संसारी इतने में छगन से बड़ी रुक्मणी बहन भी संथारा लेकर वहां बनाना चाहतेथे। पर छगन की रूचि धार्मिक कार्यों में अधिक आ पहुंची। और अपने लाड़ले छोटे बेटे भाई को ऐसी अवस्था में संख्या में थे। आचार्य विजय वल्लभ का वहां पधारना हुआ। थी। वह दिन भर धर्म-कर्म-अध्ययन में ही लगा रहता था। सोता देख उसका भगिनी हृदय दयार्द हो गया। भाई का वात्सल्य आत्मारामजी म. के स्वर्गवास के बाद उनका नाम विद्वान वक्ता खीमचंद यही सोचा करते थे कि कोई ऐसा प्रसंग उपस्थित हो आंखों से आंसू बनकर बह निकला। उसने आँसू पोंछते हुए संथारा के रूप में प्रसिद्ध हो गया था। और हो रहा था। धूमधाम से नगर जिससे छगन के भाव बदल जायें। बिछाया आर प्रेम से छगन को लिटा दिया। वह खीमचंद की ओर प्रवेश हुआ। प्रवचन हुआ। वाणी का जादू फैला और दिनोंदिन श्रोताओं की भीड़ बढ़ने लगी। कई स्थानकवासी भी आकर्षित ऐसा अवसर भी आया। उनके मामा जयचंद भाई के लड़के देखकर बोली भाई! क्यों इसे दःखी करते हो उसे अपने रास्ते जाने टोज। सीमचंट ने लंबी मांग बींचकर काट मोचते हा जला हुए। वहां एक "अधं पंडित" सरजनमल नाम के स्थानकवासी नाथालाल के विवाह का प्रसंग उपस्थित हुआ। खीमचंद भाई ने दो न। खीमचंद ने लंबी सांस खींचकर कुछ सोचते हुए उत्तर छगन को इस अवसर पर ले जाने का निश्चय किया। उनके मन में दिया- हां, बहन मैं भी यही सोच रहा हूँ। श्रावक थे। वे एक दिन आचार्य श्री के पास आए और विवादास्पद यह विश्वास बैठ गया कि लग्नोत्सव का वह मादक वातावरण, दूसरे दिन बरात पालेज पहुंची। जब वर-कन्या का चर्चा करने लगे। दो-चार प्रश्नोत्तर में ही उनका ज्ञान घट खाली हो गया। तब उन्होंने आचार्य विजय वल्लभ से कहा-'यदि आप शहनाइयों के हवा में गूंजते स्वर, बैंड बाजों की उत्तेजक धुने, हस्तमिलाप हो रहा था, जब शहनाइयों के सुर हवा में तैर रहे थे, महिलाओं के वे मधुर गीत और वर-वधू का भव्य ठाठ देखकर जब बाजे मादक संगीत में वातावरण प्रसन्नता भर रहे थे और हमारे पूज्य श्री सोहनलाल जी म. से शास्त्रार्थ करने को तैयार हो निश्चित छगन का मन पलट जाएगा। छगन ने विवाह में जाने से जब महिलाएं अति उत्साह में मधुर गीत गा रही थीं, तब छगन तो मैं उन्हें बुलाऊं। यदि वे हार जायेंगे तो मैं भी मूर्तिपूजक बन इन्कार कर दिया। खीमचंद भाई ने कहा-'अगर छगन नहीं पालेज के मंदिर में पूजा कर रहा था। जाऊंगा और यदि आप हार जाएं तो आप स्थानकवासी हो जाएं। जाएगा तो मैं भी नहीं जाऊंगा। अन्त में सब के अनुरोध पर छगन विजय बल्लभ ने मुस्कराते हुए कहा-"अच्छा ठीक है। जैसी ने बरात में जाना स्वीकार किया। तुम्हारी इच्छा। शास्त्रार्थ लाला सुरजनमल और दो चार प्रमुख श्रावक कैथल गांव गए रात को भोजन के बाद बरात मामा की पोल में रुकी। स्टेशन जहां सोहनलाल जी म. थे। उन्हें सारी बातों से अवगत कराया वहां से पास था और प्रातःकाल जल्दी ही प्रस्थान करना था और अपनी प्रतिज्ञा भी सुनाई। इसलिए सभी बराती वहां आ रहे थे। वह जमाना शास्त्रार्थ का था। विद्वान लोग शास्त्रों के नचाहते हए भी चौदह साधओं के साथ सोहनलाल जी म. छगन को इस स्थान का पता था। अतः सब से पहले ही वहां विरोधाभासों पर बहस करते थे। 'मुण्डे-मुण्डे मतिभिन्ना' के समाना पधारे। सारे शहर में "शास्त्रार्थ" होने की खबर हो पहुंच गया और एकान्त कोने में प्रतिक्रमण करके दुपट्टा बिछा कर अनुसारला अनुसार लोगों में मत-पंथ-और विचार में साम्य नहीं होता। जब गयी। स्थान-स्थान पर उसी की चर्चा होने लगी। सो गया। लोगों के विचार साम्य न होंगे तो शास्त्र कैसे साम्य हो सकते हैं? उसको बनाने वाले कुछ समझदार लोग ही तो थे। विद्वानों के दो लाला सरजनमल ने सोहनलालजी म. से कहा-"महाराज! पूरी बरात आयी। सब लोगों ने अपने सोने का प्रबन्ध किया। पक्ष हो जाते थे और युक्ति प्रयुक्ति के द्वारा दूसरे पक्ष को झूठा अब शास्त्राथ का तयारा हाना चाहिए। खीमचन्द भाई जो अब तक व्यवस्था में लगे थे, सोने लगे तो बताने का प्रयत्न चलता था। इसमें सत्य का विवेचन तो कम होता सोहनलालजी म. ने कहा-"श्रावक जी। शास्त्रार्थ किस के छगन की सुधि आई सोचा, अवसर पाकर कहीं भाग तो नहीं था। पर ईष्या, द्वेष और बैर का नम्रता पूर्वक प्रदर्शन ही अधिक साथ करेंगे जब इसके गुरु आत्माराम जी ने भी हमारे प्रश्नों का गया। बहुत खोजने के बाद एक कोने में गठरी सी पड़ी दिखाई दी। होता था। अब उसका समय नहीं रहा और न कोई महत्व रहा उत्तर न दे पाये तो यह कैसे दे सकता है।" करीब जाकर देखा तो छगन सिकड़कर हाथों पर सिर रखे निर्चित गया है। पर उस समय उसका बड़ा महत्व था। अब समन्वय का श्रावक जी ने प्रसन्न होकर कहा-तब तो और अच्छी बात होकर सो रहा है। हाय! मेरा प्यारा भाई इस दशा में पड़ा है। समय आया है। अनेकता में एकता का सिद्धान्त चमका है जो होगी, जब वह हार जाएंगे तो तत्काल स्थानकवासी हो जाएंगे। खीमचंद ने उसका संथारा (ऊनी बिस्तर) छिपा दिया था। पर यह मानवजाति के लिए वरदान है। निम्नलिखित प्रसंग द्वारा किसी बात बड़ी मनोरंजक थी और कुतूहल पैदा करती थी। पर वह उसके बिना भी सब से सो रहा था। तब खीमचंद भाई के कठोर को नीचा दिखाने का प्रयास नहीं है, पर उस समय के वातावरण जितनी सरल लगती थी उतनी असंभव भी थी। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 महावीर का संदेश सोहनलालजी म. अपनी स्थिति समझते थे। वे मन से पहले निजानंद की अनोखी मस्ती से बढ़े जा रहे हैं। ही हार चुके थे। आचार्य विजय वल्लभ की विद्वत्ता, प्रतिभा और राजस्थान का वह अशिक्षित पिछड़ा इलाका था। 'बेड़ा गावं गहरायी से वे भलीभांति परिचित थे। से आज प्रातः काल आचार्य विजय वल्लभ ने अपने शिष्यों के साथ उन्होंने श्रावकों से कहा-"एक प्रश्न है जाकर वल्लभ धर्मपुरी बडौदा नगरी में एक भव्य ऐतिहासिक महोत्सव बीजापुर के लिए बिहार किया। साथ में एक पथनिर्देशक राजपूत विजयजी से पूछो। वे इसका उत्तर नहीं दे पायेंगे। प्रश्न यह है । सम्पन्न हुआ था। प्रसंग था महावीर जयंती का। निश्रा थी प्रवर्तक ___था। आधा रास्ता कट गया, इतने में घनी झाडियों में से पांच-छह कि-आत्माराम जी म. ने "जैन तत्त्वादर्श' के बारहवें परिच्छेद श्रीकांति विजयजी म. सा. की। मुख्य प्रवचनकार, वक्ता थे। मुंह ढके व्यक्ति निकले। हाथ में तलवार भाले और छुरे के साथ। में महानिशीथ सूत्र के तीसरे अध्ययन का पूजा विषयक जो पाठ आचार्य विजय वल्लभ सूरि। वैसा भव्य महोत्सव बडौदा के निःसंदेह वे लुटेरे थे। एक ने आगे बढ़कर कहा-खबरदार! आगे दिया है। वह सूत्र में कहां है? बताइए, वे पाठ बता न सकेंगे क्योंकि इतिहास में न हुआ था न भविष्य में होने की कोई संभावना है बढ़ने की कोशिश मत करो। जो कुछ हो तुम्हारे पास हैं सूत्र में वह पाठ है ही नहीं? बस लोगों से कह देना कि इन की सारी सैंकड़ों लोगों की उपस्थिति में आचार्य विजय बल्लभ ने जो प्रवचन हमारे हवाले कर दो।' बातें इसी प्रकार की मनगढ़त हैं। और वे तत्काल स्थानकवासी दिया था, अत्यन्त मार्मिक, मौलिक, प्रेरणाप्रद और व्यावहारिक आचार्य विजय वल्लभ ने समझाया-'हम साधु हैं। हमारे सम्प्रदाय के समर्थक हो जाएंगे। था। विषय था "महावीर का संदेश"। कुछ अंश उद्धृत हैं। पास कुछ नहीं है? पैसे को छूते नहीं। भिक्षाचारी हैं।' जो इस शास्त्रार्थ की मुख्य भूमिका निभा रहा था वह • तत्त्वज्ञान का अभ्यास करो और अपने विचारों को निर्मल लुटेरों पर उसका कोई प्रभाव न पड़ा, और क्रुद्ध होकर सूरजनमल इस बात को सुनकर उछल पड़ा। और कल्पना में ही रखने का प्रयत्न करो। उन्होंने कहा-"बहाने मत बनाओ। जल्दी जो कुछ हो रख दो, देखने लगा कि विजय वल्लभ हार गए हैं और स्थानकवासी हो रहे • इस बात का निर्णय करो कि जीवन में छोड़ने योग्य क्या है? वर्ना ये तलवार किसी की शर्म नहीं करेगी।" स्वीकार करने योग्य क्या है? और जानने योग्य क्या है? __साथ में राजपूत सिपाही था अपने गुरुओं का अपमान होते वे सीधे विजय बल्लभ के पास पहुंचे। प्रवचन चल रहा था। अपनी शक्ति का विचार करो और शक्ति के अनुसार देख कर वह आपे से बाहर हो गया। उसने भी अपनी तलवार विशाल संख्या के सभी धर्मों के लोग तन्मय होकर वाणी का श्रवण उन्नतिपथ पर आगे बढ़ो। निकाल ली। पर अफसोस! तलवार का वार करने से पहले ही एक कर रहे थे। सूरजनमल आदि लोग इतने खुश थे कि-किस तरह उद्धार दूसरे लुटेरे ने उसके सिर में छरे का वार कर जमीन पर गिरा विवेक से बात करनी चाहिए वह भी भूल गये और आते ही केवल तम्हारे विचार, पुरुषार्थ और उद्योग पर निर्भर है। दिया। लुटेरों ने उसकी तलवार और कपड़े छीन लिए। सोहनलालजी म. का दिया हुआ ब्रह्मास्त्र छोड़ा। • यश, प्रतिष्ठा, सम्मान और इह लोक तथा परलोक की आशा आचार्य विजय वल्लभ ने परिस्थिति की गंभीरता देखते हए श्रोताओं के श्रवण में व्यवधान पड़ा। सभी को उनका न करते हुए जितना श्रेष्ठ काम कर सकते हो करो। अपने तन पर ओढ़ी कंबली, दूसरे छोटे बड़े वस्त्र मात्र चोलपट्टेको व्यवहार अखरा। आ. वि. वल्लभ ने प्रवचन रोका शांति और हम क्या कर सकते हैं? इस प्रकार के निरर्थक विचार छोड़ो। छोड़कर सभी उतार कर दे दिये। अन्य शिष्यों ने भी पुस्तकें और स्वस्थता पूर्वक मुस्कराते हुए जवाब दिया-'भाग्यशाली श्रावक! पुरुषार्थ के लिए कटिबद्ध बनो। एक बड़ी सभा करो। सभी धर्मों के बड़े-बड़े विद्वानो को बुलाओ। यदि गृहस्थ धर्म और साधु धर्म के मार्ग पर द्रव्य और भाव से पात्र को छोड़कर सब कुछ दे दिया। उसमें हम वह पाठ दिखायेंगे यहां दिखावे से क्या लाभ? शक्ति के अनुसार प्रयास करोगे तो मुक्तिपुरी में पहुंचे बिना न जब वे चले गये तो आचार्य विजय वल्लभ ने उस राजपूत को रहोगे। श्रोताओं ने भी कहा-"ऐसा ही होना चाहिए। देखा जो बेहोश जमीन पर पड़ा था। उसके सिर से खून बह रहा वीरता के कार्य कर हमें वीरपुत्र नाम सार्थक करना चाहिए। था। उन्होंने अपनी तर्पणी में जो पानी था, उस सिपाही के सिर पर समय और दिन निश्चित हुए। नगर के विशाल चौक में यदि हम वीरता के कार्य न करें तो महावीर के चरित्र से हमें डाला। उसे होश आया। आंखें खोली और बोला-महाराज, शास्त्रार्थ होना निश्चय हुआ। आ. विजय वल्लभ यथा समय कोई लाभ नहीं। आपने मुझे बचा लिया वरना यहां मेरा कौन था।' पहुंच गये। सोहनलालजी स्वयं नहीं आए। अपने शिष्य को भेजा। आचार्य विजय वल्लभ ने उठकर उनका स्वागत किया। तुम किसी प्रकार की चिन्ता न करो। हम तुम्हारे ही हैं। और सामने पाट पर बैठने के लिए विनती की। वह शिष्य उनकी विजय वल्लभ ने सान्त्वना दी। शिष्टता से अत्यन्त प्रभावित हुआ और उनकी महानता के आगे ___ सबने मिलकर उसे उठाया। खून साफ किया गया। उसे पीड़ा उसका सर झुक गया। शिष्य ने शास्त्रार्थ करने से इन्कार कर राहत मिली। सहारा लेकर वह धीरे-धीरे चला। दिया और लज्जित होकर चला गया। सूर्य के सामने जुगनू की क्या प्रातः काल का समय था। शीत ऋतु और ठंडी हवा। निर्जन जाड़े का मौसम था। ठंडी हवा चल रही थी। तीर की तरह हस्ती? पथ। पथ के दाएं बाएं धनी झाड़ियां। पांच अणगार उस पथ पर हवा शरीर को चुभती थी। नंगे बदन। लुटेरों ने नग्नता ढंकने के। For Personale Jain toucation international Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 धर्म उद्योत लिए केवल एक ही वस्त्र रहने दिया था। इसी स्थिति में ठिठुरते ओर अशिक्षा, असंस्कार, कुसंस्कार, अधिविश्वास और रूढ़ियों प्रभावित हुए थे। उनके जीवन और कार्यों के अनन्य प्रशंसक थे। हुए बीजापुर पहुंचे। इस प्रकार के वस्त्रहीन, मात्र चोलपट्टाधारी का साम्राज्य फैला हुआ है। इसे दूर करने का आप लोगों ने कया जब मुनि ज्ञान सुन्दर जी को पता चला कि आचार्य विजय साधुओं को देखकर गांव वालों को बड़ा अचरज हुआ। जब वे गांव उपाय किया है? ज्ञान प्रचार के बिना यह भक्ति खोखली है। मुझे वल्लभ गोड़वाड़ क्षेत्र में विचरण कर विद्या प्रचारार्थ एक शिक्षण के बीच पहुंचे तो सेठ जवेरचंदजी ने आचार्य विजय वल्लभ को दूर अपनी भक्ति अपने नाम और यश की कामना नहीं है। मेरे समाज संस्था खोलने जा रहे हैं तब उनके हर्ष का ठिकाना न रहा। इस से ही पहचान लिया। वे दौड़ते हुए आए और चरणों में गिर पड़े में फैली अविद्या को मुझे दूर करना है। जैन समाज का एक भी कार्य के लिए सादडी संघ विशेष रूप से सक्रिय था। तन, मन, धन पूछा-'गुरुदेव, आपकी यह हालत।' बच्चा अशिक्षित न रहना चाहिए। मेरे लिए सभी स्थान और से पूर्णतया अर्पित। उस समय मुनिश्री ज्ञानसुंदर जी ने सादडी के उन्होंने मुस्कराते हुए कहा-कर्म सब कुछ करा सकता है। श्रावक एक से हैं। धर्मज्ञान का प्रचार, प्रसार एवं उद्योत अवश्य प्रबुद्ध धावकों पर एक प्रेरक पत्र लिखकर उत्साह बढ़ाया। जो पहले उपाश्रय बताओ। वहीं सब हाल सुनाएंगे। होना चाहिए अगर आप मेरे विचारों के अनुसार कार्य करना। आज भी उतना ही सामयिक, उपयोगी, प्रेरक एवं पठनीय है। उपाश्रय पहुंचे। सबसे पहले उस घायल राजपूत की दवा की चाहते हैं तो मैं यही चातुर्मास करने के लिए तैयार हूं।" पा प्रत्येक संघ एवं व्यक्ति के लिए यह पत्र अनुकरणीय और गयी। घरों में जाकर कपड़े बहोर लाए। आहार के बाद पूरा गांव आचरणीय है। पत्रांश उद्धत है। श्रावकों ने प्रसन्नता के साथ कहा "हम आपकी आज्ञा के पालन के लिए कटिबद्ध हैं। कृपया निर्देश दें हम क्या करें?" "यह अत्यन्त हर्ष का विषय है कि आपके संघ के प्रबल वल्लभ ने सारी घटना संक्षेप में सुना दी। पुण्यदेय से शासन दीपक, ज्ञान प्रचारक, अनुपमेय वक्ता, सर्वगुण आचार्य विजय वल्लभः "गोडवाड में एक महाविद्यालय की सम्पन्न पूज्य श्री जगद्ववल्लभ विजय जी म. सा. पधारे हैं। जो अत्यन्त आवश्यकता है। गोड़वाड़ के सभी छोटे बड़े गांवों और मरुभूमि में कल्पवृक्ष के समान हैं। जिसका इच्छित फल आप शहरों में उसकी शाखा एक पाठशाला के रूप में हो। उसमें अपने लोगों ने लिया है। उस महात्मा की जय ध्वनि आज भारत भूमि के बच्चों को धार्मिक एवं व्यावहारिक शिक्षा दिलाना प्रारंभ कोने-कोने में गूंज रही है।" कीजिए।" "कुछ समय पहले जगत् प्रसिद्ध, जगतोपकारी, आचार्य आचार्य विजय वल्लभ का चतुर्मास बीकानेर में लगभग सादड़ी के श्रावकों ने उनकी आज्ञा को शिरोधार्य किया। श्रीमद विजयानंद सूरीश्वर जी म. सा. राजस्थान, पंजाब आदि निश्चित हो गया था। कुछ साधुओं को उन्होंने आगे भेज भी दिया तत्काल सभा बुलाई गई और साठ हजार रुपये एकत्र कर दिये अनेक प्रान्तों में ज्ञान का बीज बो गए थे। आज उन्हीं के पदचिन्हों था। गये। उन्होंने आचार्य विजय वल्लभ से साठ हजार रुपये एकत्र पर चलते हुए उक्त महात्मा उस ज्ञान बीज को पल्लवित, पष्पित सादडी संघ के अत्यन्त आग्रह पर वे वहां पधारे। स्थानीय होने की बात कही और कुछ दिनों के बाद एक लाख पूरा करने की और फलित करने के लिए भगीरथ प्रयत्न कर रहे हैं।" श्रावकों ने चातुर्मास की आग्रहपूर्ण विनती की। जिम्मेदारी ली और जब चतुर्मास यहीं करने की प्रार्थना की। "आज जैन समाज में हजारों, लाखों ही नहीं बल्कि करोड़ों आचार्य विजय वल्लभः "बीकानेर में चातुर्मास कराने के आचार्य विजय वल्लभ सादड़ी के श्रावकों का इतना उत्साह रूपये धर्म के नाम पर व्यय हो रहे हैं पर जिससे समाज की उन्नति लिए सेठ सुमेरमलजी आदि बहुत वर्षों से आग्रह कर रहे हैं। वहां देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। कहा-'तथास्तु। हो, देश की उन्नति हो, धर्म की प्रभावना, हो, विद्या का प्रचार हो, जाने से विद्या प्रचार के विशेष कार्य होने की संभावना है। आगे सुसंस्कारों का सिंचन हो, ऐसा एक भी कार्य दष्टि गोचर नहीं हो मुझे पंजाब भी जाना है। पंजाब के संघ पांच वर्षों से विनती कर रहा है। ऐसी स्थिति में पूज्य श्री विजय वल्लभजी म.का कार्य एवं विचार महान एवं सामयिक है। उनके कार्यों एवं विचारों से श्रावकः "क्या आप को बीकानेर और पंजाब के श्रावक ही समाज में नयी जागृति आई है कुछ चेतना का संचार हुआ है। अधिक प्रिय हैं। हमारी उपेक्षा तो आप इस प्रकार कर रहे हैं मानो इससे निस्संदेह भविष्य में समाज को महान लाभ मिलेगा। हम श्रावक ही न हों। हमें अपने धर्म और गुरुओं के प्रति मानों "आप लोगों को हृदय से धन्यवाद देता है कि उनके कोई अनुराग ही न हो" राजस्थान के जोधपुर और गोड़वाड़ क्षेत्र में एक महान समयानुरुप उपदेशों को क्रियान्वित कर अपनी चंचल लक्ष्मी का आचार्य विजय वल्लभः "यह तो आप लोगों का आग्रह ही प्रतिभा उदित हुई थी। इतिहास वेत्ता, और जैन दर्शन के प्रकाण्ड शासन सेवा में उपयोग कर रहे हैं। आशा है आप का उत्साह बता रहा है कि आप लोग देव गुरु के कितने अनन्य भक्त हैं। फिर विद्वान कवि, लेखक साहित्यकार मुनि ज्ञान सुंदरजी का व्यक्तित्व चिरंजीवी होगा। शास्त्रकारों ने भी दानों में ज्ञान दान श्रेष्ठ भी मैं कहना चाहंगा कि आप लोग अविद्या के पोषक हैं। आज बहु आयामी था। सब से बढ़कर वे समयज्ञ थे और आचार्य विजय कहा है। मोड़वाड़ समाज में विद्या प्रचार की कितनी आवश्यकता है। चारों वल्लभ के समकालीन थे। उनके विचारों और कार्यों से वे अत्यन्त "अन्त में एक उपयोगी सूचना करना चाहूंगा, उत्साह में Forte Segnale Only प्रेरणा स्रोत www.jainelibrary.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 आकर लोग कार्य तो प्रारंभ कर देते हैं पर उत्साह मंद होने पर या हो। ऐसी फीस लेकर मैं कभी नहीं आ सकता।" स्वीकृति न हुई तो श्रावक-श्राविकाएं निराश होकर घर लौट कुछ विघ्न विरोध होने पर कार्य छोड़ देते हैं। कुछ लोगों का काम सेठ जी बड़े चक्कर में पड़े। उनका चेहरा उदास हो गया। गये। उन्हें बहुत दुःख हुआ, इस बात का कि हमारे परम पूज्य केवल विरोध करना होता है, वे विरोध के लिए विरोध करते हैं। उत्साह मंद हो गया। रुलाई लिए स्वर में बोले-"अगर भूल हई साधु-साध्वी हमारे कारण आहार नहीं ले रहे हैं। इन्हें इतना कष्ट समाज उससे बिखरता है। आप लोग सब को समाहित करते हुए, हो तो क्षमा करें। मेरे कहने का आशय यह नहीं था। परंतु मैं भोगना पड़ रहा है। विघ्नों और विरोधों को पार करते हुए आगे बढ़े, बढ़ते रहें। आपसे यह स्पष्ट निवेदन कर देता हूं कि यदि आप नहीं पधारेंगे तो इस समाचार से देसुरी गावं में हलचल मच गयी चारों ओर हमारा सहयोग, आशीर्वाद आपके साथ है।" संघ भी नहीं निकलेगा।" साधु-साध्वियों के सत्याग्रह की चर्चा होने लगी। लोग सेठ जी को एक छोटे बच्चे की तरह रूठते देखकर उन्हें उन मुकदमेबाजों को फटकारने लगे। अनेक भावनाशील युवक, पर दया आ गई। और अन्त में उन्होंने विवश होकर सेठ जी की महिलाएं, बच्चे, वृद्ध, वृद्धाएँ श्रावक-श्राविकाएँ अनशन पर विनती स्वीकार कर ली। दस हजार की फीस उतर गई। झगड़ा मिटाने का एक जबर्दस्त अनोखा अभियान प्रारंभ हुआ।पूरा गांव एकत्र होकर हाय तोबा मचाने लगा। अपने गुरुओं का उपवास देखकर गांव और संघ के लोग बेचैन हो गए। सत्याग्रह घर-घर में गली-गली में सभाएँ होने लगी। झगडालुओं के घर जिस समय आचार्य विजय वल्लभ राजस्थान, गोड़वाड़ क्षेत्र जाकर लोगों ने उन्हें समझाया। के सादड़ी गांव में बिराजमान थे उस समय शिवगंज के सेठ गोमराज फतहचंद आए और वंदन कर सम्मुख बैठ गये। सेठ शिवगंज से निकला छरीपालित यात्रा संघ राणकपुर की अन्त में शाम चार बजे समझौता हो गया। दोनों पक्षों के गोमराज जी मोड़वाड़ के एक प्रसिद्ध व्यापारी थे। इनका कपूर का यात्रा कर देसुरी गांव में पहुंचा। देसुरी में किसी धार्मिक कार्य को लोगों ने आचार्य विजय वल्लभ एवं अन्य साधु-साध्वियों से अपनी व्यवसाय था और बम्बई, कलकत्ता, रंगून और बर्मा में पेदियां लेकर थावकों के बीच उग्र कलह चल रहा था। मामला कोर्ट तक धृष्टता, अविनय के लिए आंखों में आंसू भरे क्षमा मांगी और चलती थीं। पहुंच चुका था। भविष्य में कभी कलह न करने की प्रतिज्ञा ली। जब पूर्ण फसैला हो गया तब सब ने अन्न-जल ग्रहण किया। हाथ जोड़कर बाले-"गुरुदेव आपश्री जी की पावन निश्रा में आचार्य विजय वल्लभ शांतिप्रिय आचार्य थे। श्रावकों के केसरियाजी का पैदल संघ निकालना चाहता हूं कृपया आप अनुज्ञा बीच हो रहे अनेक टकरावों को उन्होंने बड़ी कुशलता से सुलझाया था। उनका मानना था कि धर्म समस्या या झगड़े को आचार्य विजय वल्लभः "तीर्थ यात्रा करना बहुत उच्च कार्य मिटाता है। धर्म को समस्या में उलझा देना मनुष्य की सब से बड़ी है। उसमें भी पैदल संघ निकालना तो अत्यन्त भाग्योदय से होता घृष्टता है। जो व्यक्ति धर्म को लेकर लड़ता है वह धार्मिक नहीं हो है। तीर्थ यात्रा से मन अधिक पवित्र होता है। अशुभ विचार एवं सकता। धर्म आचरण की वस्तु है। विवाद की नहीं। राजस्थान के एक गांव में आचार्य विजय वल्लभ पधारे। वह कार्य रुकते हैं, कर्म निर्जरा भी होती है। इससे आत्म कल्याण एवं उन्होंने देसुरी संघ में हो रहे कलह को भी सुलझाने का प्रयत्न गांव तेरापंथ सम्प्रदाय के विचारों का समर्थक था। तेरापंथियों में आत्मसुधार का मार्ग सरल होता है। फिर भी मैं इस गोड़वाड़ क्षेत्र किया। अनेक युक्तियुक्त दलीलें देकर श्रावकों का भ्रमजाल स्वभावतः कट्टरता का जहर फैला रहता है। इसलिए उन्हें गोचरी से बाहर जाने की स्थिति में नहीं हूं। क्योंकि मैंने इस क्षेत्र में विद्या मिटाने का अथक प्रयत्न किया पर ओवर कोट की तरह वे गीलेन पानी भी कठिनता से उपलब्ध हुए। प्रचार करने का कार्य हाथ में लिया है। जब तक यहां विद्या प्रचार हए। कुछ जड़मति श्रावक ऐसे थे जिन्होंने उस विवाद को निजी आचार्य विजय वल्लभ जहां भी जाते चाहे शहर में चाहे गांव कार्य व्यवस्थित रूप से प्रारंभ नहीं हो जाता तब तक गोड़वाड़ को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। जब सभी ओर से सुलह-मेल के में। वह गांव-शहर किसी भी धर्म को मानने वाला हो वे लोगों को छोड़ने की मेरी इच्छा नहीं है।" द्वार बंद हो गये तो आचार्य विजय वल्लभ ने अपने साधु और एकत्र कर प्रवचन अवश्य देते थे। उनके प्रवचन में ऐसा सम्मोहन सेठ जी ने अत्यन्त आग्रह के साथ प्रार्थना की: "आप कृपा कर साध्वियों को निर्देश दे दिया कि गांव से न पानी लाया जाए न था कि प्रवचन सुनने के बाद लोग उनके अनन्य प्रशंसक एवं भक्त अवश्य पधारें। मैं इस कार्य में यथाशक्ति दान दूंगा। दस हजार मैं गोचरी। जब तक गांव का झगड़ा नहीं मिटता गोचरी-पानी बंद बन जाते थे। वे व्यक्ति को क्षुद्र अवस्था एवं क्षुद्र विचारों के अभी देने को तैयार है। इसी प्रकार दूसरों से भी अच्छी रकम कर दो। इस संघ में सत्ताईस साधु और छियासठ साध्वियां थीं। धरातल से ऊपर उठाकर मनुष्यता की विराट और समतल भूमि दिलाऊंगा।" नवकारसी का समय हुआ। गांव के श्रावक श्राविकाओं ने पर ले आते थे। सांप्रदायिक विभेद से परे। उनके प्रवचन में मानव आचार्य विजय वल्लभः "इसका अर्थ क्या यह नहीं होता कि आकार गोचरी-पानी की विनती की। साधु-साध्वियों ने आचार्य धर्म का शाश्वत संदेश का घोष होता था परिणामतः वह सब के तम दस हजार रुपये इस फंड में मुझे ले जाने की फीस देना चाहते श्री जी की आज्ञा सुना दी। अत्यन्त आग्रह करने पर भी विनती हृदयों को छू जाता था। मन के जीते जीत Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस गांव में भी दो प्रवचन हुए। प्रवचन के बाद एक श्रावक ने पूछा - "स्थूलिभद्र जी कोशा वेश्या के महल में चार महीने रुकते हैं फिर भी वे अखण्ड ब्रह्मचारी रहे। यह बात कैसे संभव हो सकती हैं?" आचार्य विजय वल्लभ उत्तर दिया 'मन एवं मनुष्याणां कारण बन्धमोक्षयों:' मन ही मनुष्य के बन्धन और मुक्ति का कारण है। मन के साधे साध है, जिसने मन को जीत लिया वह साधु है। स्थलिभद्र जी ने अपने मन को साध लिया था। और जिन्होंने मन को साध लिया है ऐसे योगियों के लिए कोई नियम लागू नहीं होता। मैं तुम से ही पूछता हूं कि तुमने कभी उपवास किया है?" श्रावकः "हां, किया है, और अनेक बार किया है।" विजय वल्लभः "तो जिस दिन तुम उपवास करते हो उस दिन घर, परिवार, खाने-पीने की चीजें छोड़ कर किसी पहाड़ी गुफा में चले जाते हो? जहां न घर है न परिवार है न मिष्टान्न है। " श्रावकः "नहीं, मैं उस दिन कहीं नहीं जाता, अपने घर में ही रहता हूं?" "विजय वल्लभः "उपवास कर के तुम अपने घर ही में रहते हो, खाने-पीने की चीजों के बीच रहते हो फिर भी तुम उपवासी बने रहे यह कैसे संभव है?" श्रावकः "यह संभव है क्योंकि मैंने उन खाने-पीने की चीजों से मन हटा लिया है। जब मेरा मनोबल स्थिर है तो वे चीजें मेरा कुछ नहीं कर सकतीं। " विजय वल्लभः "यही बात काम विजेता स्थूलिभद्रजी की है। ' उन्होंने अपने मन को जीत एवं स्थिर कर वहां चातुर्मास किया था। संत और श्रोता पंजाब के एक प्रतिष्ठित नगर समाना में आचार्य विजय वल्लभ एक मास तक रुके थे। हर स्थान की भांति यहां भी उनकी वाणी का जादू फैला था। सिख, ईसाई, मुसलमान, हिन्दू आदि विविध धर्म, मत, पंथ, संप्रदाय के लोग एकत्र होते थे। एक ain Education international 1 मुसलमान प्रोफेसर मुंशी शहे हुसेन जो समन्वयवादी एवं सत्यानवेषी थे प्रतिदिन आते थे और प्रवचन के बाद नाना शंकाओं एवं जिज्ञासाओं का समाधान पाते थे विजय वल्लभ ने एक-दो पुस्तकें भी उन्हें पढ़ने को दी थीं। जब वे समाना से विहार कर होशियारपुर पधारे तब मुन्शी हुसेन ने पत्र लिखकर अपने मनोभावों का दिग्दर्शन कराया था। पत्रांश उद्धृत है, उन्हीं की भाषा में। "पीरे तरीकत, राहे हिदायत श्रीमुनिवल्लभ विजय जी म! बाद अजाए अदब व तस्लिमात बजा लाकर अर्ज खिदमात आलीजाह हूं। बंदा खैरियत और खैरों आफियत हजूर अन्वर नेक मतलूब। हजूर की मुलाकात से जो, कुछ फायदा उठाया बयान से बेरुं। दोनों किताबें जेर मुताला हैं। जहां तक मेरे इन्साफ ने फैसला दिया है। मसलन दया और अहिंसा का जेर तालीम में फौकीयत रखता है। दास की निहायत अदब से अरदास है, दयादृष्टि फर्माएं। बंदा बारह तेरह रोज बाद हाजिर खिदमत होकर कदमबोसी हासिल करेगा। बराए परवरिश एक किताब जिसमें जैन पुरुषार्थ का लबेलबाबयानी रियाजत या तप ध्यान या मशरुबा ज्ञान या मारफत के असूल उर्दू में हों तो बेहतर हैं, नहीं तो फिर किसी भी भाषा में हों जरूर तलाश करके रख छोडें। हजूर की दया से बंदे को इस वक्त किसी किताब या ग्रन्थ की जरूरत नहीं। लेकिन धर्म के फूल सूंघने का निहायत शौक है। बाकी सब की खिदमत में सलाम कबूल हो ज्यादा आदाब फक्त खादिमुल फकीर मुन्शी शहे हुसेन समानवी नारी मुक्ति अम्बाला में विहार कर आचार्य विजय वल्लभ देवबन्द पधारे। यहां श्वेतम्बरों का एक भी घर न था। दो सौ पचास घर दिगम्बरों के अवश्य थे। उस समय दिगम्बरों का कोई महोत्सव चल रहा था। जिस दिन आचार्य विजय वल्लभ पधारे उस दिन रथ यात्रा का जुलूस भव्य रूप से निकल रहा था। जुलूस की समाप्ति पर वहां के श्रावकों ने आचार्य श्री से प्रवचन करने की विनती की। हजारों लोगों की उपस्थिति में 'जैन धर्म की विशालता' विषय पर उनका प्रभावशाली प्रवचन हुआ। लोग अत्यन्त प्रभावित हुए। एक सप्ताह यहीं रुकने का अति आग्रह किया गया। इस आग्रह वश एक दिन और अधिक रुके। दूसरे दिन भी प्रवचन हुआ, विशाल धर्मशाला का प्रांगण छोटा पड़ने लगा। संध्या के प्रतिक्रमण के बाद कुछ अध्यनशील श्रावक शास्त्र चर्चा हेतु आए। दो घण्टे तक शास्त्र चर्चा होती रही। उनका अगाध ज्ञान देखकर श्रावकगण अचरज में पड़ गये। अन्त में एक श्रावक ने प्रश्न किया-"महाराज श्री, क्या स्त्री की मुक्ति होती है? और केवल ज्ञानी भोजन कर सकता है ?" आचार्य विजय वल्लभ ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया- 'देखो भाई! इस पंचमकाल, कलियुग में न तो मुक्ति है और न केवलज्ञानी का अस्तित्व। अगर इस समय मोक्ष होता और केवल ज्ञानी भी विद्यमान होते तो हम प्रत्यक्ष दिखा देते कि स्त्री की मुक्ति है और केवल ज्ञानी भोजन भी कर सकता है। अब जब वे प्रत्यक्ष नहीं हैं तो उनकी चर्चा कर विवाद के जाल में उलझना व्यर्थ है । शास्त्रों में तो स्त्री की मुक्ति और केवल ज्ञानी के भोजन की बात है ही, अब मानना न मानना अपनी इच्छा की बात है।' " गरीबों के मसीहा सूर्यास्त की तैयारी थी। दिन भर चला सूर्य श्रमित होकर विश्राम हेतु अस्ताचल पहुंचने के लिए शीघ्रता कर रहा था। गोधूलि उड़ रही थी। पक्षी अपने नीड़ों की ओर लौट रहे थे। आचार्य विजय वल्लभ बिनौली गावं से बाहर निकले। जहां एक कुआं था। बहुत सी महिलाएं पानी भर रही थीं। उसी कुएं के पास रास्ता से आचार्य श्री जी गुजरे। वहां दस ग्यारहवर हरिजनों के भी थे। कुआं पार कर जैसे ही वे हरिजन बस्ती से गुजरने लगे। बीस-पच्चीस हरिजन दौड़ते हुए आए और साष्टांग दण्डवत करने के बाद हाथ जोड़कर बोले- "महाराज, हमें सच्चा मार्ग बताइए।" 39 आचार्य श्री: "आप लोग क्या चाहते हैं?" हरिजनः 'हम मेघवाल हरिजन हैं। हम हिन्दू रहें या www.jainalibrary.org Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 मुसलमान बन जाएँ?' आचार्य श्री जी: "हम लोग लाला कीर्तिप्रसाद जी के मकान में क्या आज्ञा है?" हरिजनों का यह अटपटा प्रश्न सुनकर आचार्य श्री अचरज में ठहरे हुए हैं। कल दो बजे वहां उपदेश होगा। गांव के प्रायः सभी विजय वल्लभः "ऐसे कामों में हम आज्ञा क्यों दें? यह तो पडे। कछ समझ में नहीं आया कि ये लोग कहना क्या चाहते हैं। लोग आएंगे। उस समय तुम भी वहा आना। आशा है कि तुम्हारी तुम्हारा कर्तव्य है। हमारा काम है तम्हें कर्तव्य का भान करना।" उन्होंने फिर पूछाः "मैं तुम्हारे प्रश्न का आशय समझ नहीं समस्या का हल हो जाएगा।" उसी समय तत्काल कुआं बनाने का निर्णय किया गया रूपये पाया। तुम कहना क्या चाहते हो?" दूसरे दिन ठीक दो बजे प्रवचन प्रारंभ हो गया। मकान का एकत्र हुए। और हरिजनों से कह दिया गया कि एक महीने के हरिजनः "हम मूलतः हिन्दू हैं, गौ माता की रक्षा करते हैं विशाल प्रांगण भर गया था। गांव के सभी छोटे-बड़े लोग भीतर तुम्हारे लिए कओं तैयार हो जाएगा। और रामकृष्ण का भजन करते हैं। परंतु जीना मुश्किल हैं। अगर उपस्थित थे। आचार्य विजय वल्लभ की अस्खलित वागधारा हम मुसलमान बन जाते हैं तो हमारी पानी की समस्या बड़ी प्रवाहित हो रही थी। सभी तन्मय होकर प्रवचन श्रवण कर रहे दरसन बिन अटके प्राण सरलता से हल हो सकती है। अब आप ही बताइए कि हम हिन्दू रहकर पानी-पानी करते हुए प्यास से तरसते प्राण छोड़ दें या अचानक पीछे के लोग उठने लगे। आवाज आने लगी। मुसलमान बनकर सुखी हो जाएँ।" आठ-दस हरिजन भाई आ गए थे। आचार्य श्री जी ने उन्हें देखा वे गोड़वाड़, राजस्थान क्षेत्र में जो आज शिक्षण संस्थाएँ, ___ आचार्य श्रीः "यहां पानी का अभाव कहां है वह सामने कुआं लोग एक कोने में जगह पाकर बैठ गए। सभी हैरत की नजर से विद्यालय, कॉलेज, छात्रालय आदि विद्यमान हैं, उन्हें उस समय है। फिर पानी का कष्ट तुम्हें कैसे है?". देख रहे थे। फिर ग्राम वासियों संबोधित करते हुए कहा-"गांव बनाया गया था जिस समय वहां अज्ञानता का व्यापक साम्राज्य हरिजनः "पानी तो बहुत है, परंतु हिन्दू लोग हमें कुएं के पास के प्रतिष्ठित महानुभावों, रईसों, आज ये तुम्हारी सेवा करने वाले फैला हुआ था। जब कोई साधन सरलता से उपलब्ध नहीं होता भी आने नहीं देते और छीटें उड़ने के डर से हमारे बरतनों में पानी सेवक हरिजन भाई तुम से यह पूछने आए हैं कि हम हिन्दू रहें या था, और न लोग इस कार्य में दान देते थे। ऐसी विकट भी नहीं डालते। पर मुसलमान पानी भरने आते हैं तो हिन्दू लोग । मसलमान बन जाएं। इसका उत्तर आज तुम्हें देना है। ये तुम्हारे परिस्थितियों से जझते हए जिन्होंने शिक्षण संस्थाएँ निर्मित उनके लिए जगह देते हैं। वे लोग हमारे बरतनों में पानी भी डाल ही गांव में रहने वाले तुम्हारे ही गांव घर और गलियों को साफ करवाई होंगी उन्होंने कितना परिश्रम किया होगा, यह देते हैं । इसलिए हम सोचते हैं कि हम मुसलमान बन जाएंगे तो स्वच्छ रखने वाले, तुम्हारी ही सेवा करने वाले, तुम्हारे ही धर्म का कल्पनातीत है। इन शिक्षण संस्थाओं की नींव में अनेक नामी हमारा पानी का कष्ट दूर हो जाएगा। परंतु बाप-दादाओं का धर्म पालने करने वाले हरिजन भाई कितने दुःखी हैं। धर्म की ओट अनामी कार्यकर्ताओं के खून का सिंचन हुआ है। इस ज्ञान यज्ञ में छोड़ते हए मन को दुःख होता है, हम इसी समस्या में उलझे हुए लेकर तम उनका कितना अनादर, शोषण और अपमान करते अपने प्राणों की आहुति देने वाले एक गोड़वाड़ के प्रखर हैं। इसलिए आपसे मार्ग पूछ रहे हैं।" हो। वे आज पानी की एक बूंद के लिए तरस रहे हैं। पानी न मिलने कार्यकर्ता अनन्य गुरुभक्त की यह विरल कहानी है। के कारण वे आज अपने धर्म, सम्प्रदाय, गुरु और भगवान को आचार्य श्री: "यदि तुम्हारी पानी की समस्या हल हो जाती है आचार्य विजय वल्लभ पंजाब से विहार कर गोड़वाड़ में छोड़ने के लिए विवश और लाचार हुए हैं। उनकी विवशता और तब तो मुसलमान नहीं बनोगे न।" पधार रहे हैं। उनके प्रमुख शिष्य आचार्य विजय ललित सूरि जो लाचारी का कारण तुम लोग हो। क्या हरिजन होने से वे पानी पीने हरिजनः "महाराज, पानी मिल जाये तो फिर मुसलमान के भी अधिकारी नहीं रहे। गोड़वाड़ में अनेक कष्टों, परिसहों और उपसर्गों को सहते हुए घूम घूम कर शिक्षा प्रचार कर कार्य कर रहे थे, उन्हीं के अनन्य बनने की जरूरत ही क्या?" | एक मानव के नाते तुम लोग आज उनका दर्द दुःख और पीड़ा सहयोगी गोड़वाड़ के रत्न, श्रावक घाणेराव निवासी जसराज आचार्य श्रीः "तुम्हारा दुःख कैसे दूर हो सकता है?" सुनो। तुम्हारे गांव में रहने वाला प्रत्येक भाई चाहे वह किसी भी संघवी थे, जिन्होंने इस कार्य के लिए अपना तन, मन और धन हरिजनः "हमारे लिए यदि एक अलग कएँ की व्यवस्था हो । जाति का हो तुम्हारा भाई है। उनका दुःख, तुम्हारा दुःख है। अर्पित कर दिया था। वरकाणा के पार्श्वनाथ जैन विद्यालय बनाने जाए तो न हिन्दुओं का मुंह ताकना पड़ेगा न मुसलमानों से आशा उनकी समस्या तुम्हारी समस्या है। आज उन्हें एक कुएँ की के लिए उन्होंने रात-दिन एक कर खून का पसीना बहाकर इतना रखनी पड़ेगी।" आवश्यकता है। जैन धर्म, हिन्दू धर्म, मुस्लिम धर्म इन सभी अत्यधिक परिश्रम किया कि वे अस्वस्थ हो गये। शरीर किसी का आचार्य श्रीः "तुम्हारी ऐसी योजना है तो क्यों नहीं नया धर्मों से ऊपर एक धर्म है मानव धर्म। तुम्हारा पहला धर्म यह है सगा नहीं होता। दिन प्रतिदिन उनका स्वास्थ्य गिरता गया। यहां कुआं बनवाते?" कि तुम दुःखियों के दुःख को दूर करो।" तक कि अब अन्तिम समय भी आ गया। उनकी यह हार्दिक इच्छा हरिजनः "हमारे पास जमीन है, पर कुआं खोदने का कोई आचार्य विजय वल्लभ के इस ओजस्वी मार्मिक प्रवचन को थी कि अन्तिम बार मैं अपने आराध्य गुरु आचार्य विजय वल्लभ सुनकर सभी में हलचल मच गयी। सभी के सिर शर्म से झुक गये। के दर्शन कर मृत्यु को सफल करूं। lan to: सामान खरीद सकें।" बाब कीतिप्रसाद जी खड़े हए। हाथ जोड़कर बोले: 'गुरुदेव, एक दिन उन्होंने आचार्य ललित सूरि जी म.से जांखों में आंसता Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भर कर कहाः ऐसा जान पड़ता है कि अब इस जन्म में मुझे प्रज्वलित करने के लिए अपने शरीर के रक्त की एक एक बूंद उनके भक्त वर्ग के संयम का बांध टूट गया। और उत्तेजन में आचार्य गुरुदेव के दर्शन न होंगे। मेरा यह कितना दुर्भाग्य है। मुझे बहाई। उनके ही अथक प्रयत्नों के सफल से यह विद्यालय जवाबी हैंडबिल छपवा डाला। आप लोग गुरुदेव के चरणों में क्यों नहीं ले जाते?" स्थापित हुआ। ज्योति जली। विद्यालय कायम हुआ। पर उसको वह हैंडबिल छपकर जब आचार्य विजय बल्लभ के देखने में आचार्य ललित सूरि जी म. ने उन्हें आश्वासन देते हुए स्थाई रखने के लिए वे धन न जुटा सके। उनकी आशाअधूरी रह हुए स्थाई रखने के लिए वे धन न जुटा सके। उनकी आशाअधूरी रह आया तो उनके दुःख की सीमा न रही। दूसरे दिन प्रवचन में कहा-"संधवी जी, आपकी बीमारी जल्दी ही मिट जाएगी। आप गयीं। वे जीवन के अन्तिम समय तक कार्यरत रहे। अपने जीवन अत्यन्त ही होगा अपने बारे अत्यन्त दुःखी होकर अपने हृदय के भावों को व्यक्त करते हुए न करें। आपकी अस्वस्थता के समाचार गुरुदेव को का उन्हान आहात दकर जावन-सफल कर दिया। उनका कमठ कहा-"शांति में सुख है, आराधना है और धर्म है। अशांति में पहुंचा दिये गए हैं। अभी आपका प्रवास करना भी ठीक नहीं है। जीवन हमारे लिए एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करता है। अब दःख, विराधना और अधर्म है। इसलिए व्यक्ति को प्रत्येक केवल अरिहंत... का स्मरण चाल रखें। सब ठीक होगा।" यह आपका कर्तव्य है कि उनका जलाइ हुइ ज्ञान का ज्याति म तल परिस्थिति में शांति का मार्ग अपनाना चाहिए।" इतने में समाचार आए कि आचार्य विजय बल्लभ रघुनाथगढ़ भर कर उसे 'अखण्ड ज्योति बनाए रखें और उसकी किरणों से पधार गए हैं, जो वरकाणा से थोड़ी सी दूरी पर था। समस्त राजस्थान आलोकित करें। "अगर तुम सही रास्ते पर चले रहे हो, तुम्हारी आत्मा उस रास्ते को स्वीकार करती है तो निर्भय होकर चलते रहो। अगर जसराजजी को अश्वासन देकर आचार्य ललित सरि जी म. कोई उस रास्ते को गलत कहता है, या तुम्हारे पर मूठे आक्षेप अपने शिष्यों के साथ अगवानी के लिए रघुनाथगढ़ पहंचे। वंदन करता है तो तनिक भी विचलित मत होओ। दुर्जनों का तो काम के बाद उन्होंने आचार्य श्री जी से प्रार्थना की: 'गरुदेव, जसराज ही यह होता है कि यदि कोई सुपथ पर चल रहा है तो उसके पांव जी का जीवन दीपक बुझ रहा है। आप के दर्शन की लालसा से खींचने का हर संभव प्रयत्न करते हैं। जब दुर्जन अपनी कुटिलता अब तक प्राण टिकाए हए हैं। कृपया पधार कर दर्शन देने का कष्ट नहीं छेड़ता तब हमें अपनी सज्जनता क्यों छेड़नी चाहिए। क्षमा और सहिष्णुता करें।" ___आचार्य विजय वल्लभ ने तत्काल बरकाणा के लिए विहार "और यह भी ध्यान रखें कि आग में घी डालने से आग और कर दिया बीच में बिजोवा गांव पड़ा। हजारों लोग उनके स्वागत तेल होता है। मुझे दुःख है कि हमारी ओर से किसी ने जवाबी आचार्य विजय वल्लभ के विचारों एवं कार्यों से बम्बई के संघ के लिए एकत्र हुए थे। उन्हें मांगलिक सनाकर तेज कदमों से हैंडबिल छपवाया है। विरोधियों के निदात्मक हैंडबिलों से मुझे अत्यन्त प्रभावित हुए। बम्बई ने उनके विचारों को 'महावीर जैन वरकाणा पहुंचे। जैसे ही उन्होंने जसराज जी के कमरे में प्रवेश तनिक भी दःख नहीं है। पर इस हैंडबिल ने मुझे अस्वस्थ कर किया, चारों ओर मृत्य का सन्नाटा छाया हुआ था। एक यात्रिक विद्यालय' जैसी संस्थाओं को स्थापित कर क्रियान्वित भी किया। दिया।" संसार की यात्रा से थक कर विश्राम के लिए किसी अनंत लोक की उनके समयानुरूप विचारों को स्वीकार करने वाला विशेषतः शिक्षित, बद्धिजीवी यवावर्ग था। बम्बई में उनको मानने और "क्या आप लोग नहीं जानते हैं कि हम मैत्री, करूणा. स्नेह. ओर जा रहा था। हाथ-पांव ठंडे हो रहे थे। सांस जारों से चल रही थी आचार्य विजय वल्लभ ने उनके ललाट पर हाथ रखा। उनका पूजनेवाला विशाल भक्त वर्ग खड़ा हुआ। जैसे जैसे उनके भक्तों सद्भाव, प्रेम और क्षमा के उपासक हैं। इस प्रकार हैडंबिलबाजी प्रशंसकों एवं शिष्यों की संख्या बढ़ने लगी। साथ ही उनके ईर्ष्यालु से समाज के हजारों रुपये बरबाद होते हैं। समाज के आपसी पावन स्पर्श पाते ही निश्चेष्ट शरीर में पुनः चेतना लोट आयी। विरोधियों की भी संख्या बढ़ने लगी। सौजन्य, आपसी ऐक्य को संकट पैदा होता है। मैं यह स्पष्ट जसराजजी ने आंखें खोली। जिसके तारक दर्शन के लिए प्राण अटके थे उन्हें अपने सम्मुख पाकर वे भाव विह्ल हो गए। चरण शब्दों में कह देना चाहता हूं कि मेरी ओर से मेरे अनुयायियों, बम्बई चातुर्मास में उनसे ईष्या करने वाले वर्ग ने उनके छूने के लिए हाथ बढ़ाकर जैसे ही बैठने का प्रयत्न किया। एक विचारों एवं कार्यों के विरोध में सैंकड़ों हैंडबिल छपवाये। उनके कार्यकर्ताओं और शिष्यों की ओर से यदि कोई हैंडबिल ओर लुढ़कर गये। हंस उड़ गया। निकलेगा तो वह मेरे महान दुःख का कारण होगा। हम उन हैंडबिलों में विजय वल्लभ पर ऐसे कल्पनातीत मिथ्या दोषारोपण महामना पूर्वाचायों के अनुयायी हैं जिन्होंने प्राणांत पीड़ा पहुंचाने उनका मुख प्रसन्नता से खिला हुआ था और ओठों पर मृद किये जाते हैं जिसे पढ़कर विजय वल्लभ का भक्त वर्ग उत्तेजित वाले को भी कभी शाप नहीं दिया था।" मुस्कराहट थी जो अन्तिम दर्शन की प्रसन्नता की साक्षी रूप थी। हो उठता था। पर विजय वल्लभ अपना घोर विरोध होने पर भी शोकमग्न एकत्र जन समूह को संबोधित करते हए आचार्य धैय शांति क्षमा और सहिष्णुता का ही रास्ता अपनाते। वे उनके आचार्य विजय बल्लभ की इस महान उदारता, सहिष्णुता, विजय वल्लभ ने कहा-"आज अपने समाज का एक निष्ठावान, हैंडबिल देखकर बस सहज ढंग से मुस्करा देते। क्षमा और मैत्री का संदेश पाकर श्रद्धानत मस्तक और भी नत सच्चा सेवक चला गया। उसने गोड़वाड़ में ज्ञान की ज्योति एक हैंडबिल उनके विरोधियों ने ऐसा निकाला जिसे पढ़कर हो गये। . For Private & Personal use only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंजाब केसरी के पांच आदर्श ऋषभदास जैन किसी भी हरे भरे सुन्दर उद्यान या उपवन में हम प्रवेश पड़ता है और तत्फलस्वरूप संसार के काराग्रह में अनंत काल तक "समकित दायक गुरुतणो पच्चवयार न थाय, करते हैं तो स्वाभाविक रूप से हमारी दृष्टि उसमें रहे हुए अनेक उसे भटकते हुए अनेक दुःख सहन करने पड़ते हैं। भव कोडा कोडे करी करता सर्व उपाय" प्रकार के फूलों फलों शीतल, छायादार वृक्षों के पुञ्ज तथा रंग जीवन में विजय प्राप्त करने की विद्या को ही धर्म कहते हैं अर्थात् करोड़ों जन्म तक सर्व उपाय करने से भी समकित बिरंगी, पुष्पों से शोभायमान लताओं और मनोरंजक बल्लियों की जिसके द्वारा हम सकल दःख से मुक्त हो सकते हैं। इसलिये दाता के उपकार का बदला देना दुष्कर है। यह अमूल्य आप्तवचन आर्यावर्त जैसी आध्यात्मिक भूमि आज भी 'सा विद्या या बास्बार मेरी स्मृति में आता रहता था। इसलिये जिस महाभाग्य यही अनुभव होगा कि उस सारी सुन्दरता का आधार उस फलद्रूम विमक्तये" की ध्वनि से गंज रही है। जैसे वृक्ष के जड़, तना और ने लोक वल्लभ बनने में अपने पवित्र जीवन का सदुपयोग करके भूमि के अन्तःस्थल में रहे हुए जल की पुष्कलता पर है। उसी शाखा आदि प्रधान अंग है वैसे ही धर्म के सम्यगदर्शन, सम्यग् वल्लभ नाम सार्थक किया है, ऐसे स्वनामधन्य पूज्यवर आचार्य तरह से दिव्य दृष्टि से देखा जाये तो यही अनुभव होता है कि हमारे ज्ञान और सम्यक चारित्र आदि अंग हैं। जैसे जड़ बिना वृक्ष नहीं भगवान् की सेवा में कुछ-कुछ समयांतर से उपस्थित होता रहता लौकिक या लोकोत्तर जीवन की सकल सुखसमृद्धि एवं ऐश्वर्य का टिक सकता उसी तरह से सम्यग दर्शन बिना धर्म नहीं टिक था, क्योंकि मुझे और मेरे सारे कुटुम्बी जनों को धर्मानुरागी बनाने । मूल केवल धर्म पर निर्भर है। इसीलिये शास्त्रकार महर्षियों का सकता। गजराती में कहावत है कि "अकडा विनाना मींडानी का सौभाग्य प्राप्त होना उन श्री के उपदेशामृत का ही फल है। मन्तव्य है कि किसी भी जीव को धर्मप्राप्ति कराने जैसा संसार में किंमत नथी" उसी तरह सम्यगदर्शन बिना ज्ञान और चारित्र का अर्थात् आज से 35 वर्ष पूर्व मेरे पूज्य पितामह और चाचाजी आदि कोई उपकार नहीं। कदाचित् चक्रवर्ती अपनी छः खण्ड की ऋद्धि मल्य नहीं। पज्यवर उपाध्यायजी महाराज श्रीयशोविजयजी ने पूज्यवर आचार्य भगवंत के उपदेश से ही दो हजार यात्रियों को सिद्धि दान में दे देवे, तो भी वह जीव को धर्माभिमुख करने वाले की श्रीनवपदपूजा ढाल में फरमाते हैं लेकर श्री केसरियाजी तीर्थ की संघयात्रा निकाली थी जिसमें स्वयं तुलना नहीं कर सकता। वैसे तो मातापिता को अत्यंत उपकारी आचार्य भगवंत अपने शिष्य परिवार सहित दो महीने साथ में ही माना जाता है - परन्तु धर्मदाता के उपकार के सामने उनका _जे विण नाण प्रमाण न होवे चरित्र तरून विफलियो, थे और उस यात्रा मार्ग में उनश्री के सत्संग का और अमृतवाणी उपकार भी समुद्र में बिन्दमात्र है। क्योंकि मातापिता जीव के सख निर्वाण न जे विण लहिये. समकितदर्शन बलियो। सनने का अवसर प्राप्त हुआ था और जैन शासन की अपूर्व केवल जन्मदाता हैं, परन्तु जन्म प्राप्त होने से उसे जीवन के महिमा का बोध होने से तब ही से उनके दर्शनार्थ आता जाता संग्राम में उतरना पड़ता है और उसे संग्राम में विजय प्राप्ति की शास्त्र में सम्यग्दर्शन को धर्मवृक्ष का मूल, मोक्ष नगर का रहता था। विद्या का पुष्टावलम्बन न मिले तो जीवन की हार मानकर द्वार, भवसमुद्र का पुल और सकल गुण का भाजन आदि उपमाएँ गत वर्ष जब आप बंबई चातुर्मास के लिए बिराजमान थे। चिन्तामणि रत्न समान अमूल्य मानव जन्म निरर्थक गंवाना दी हैं। पूज्यवर उपाध्यायजी महाराज ने यहां तक लिखा है कि- तब उनके स्वास्थ्य सम्बन्धी कुछ चिन्ताजनक समाचार सुनने में For One any Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आये। तब उनश्री की अन्तिम सेवा करने की तीव्रोत्कंठा जागी सब ही सेवा धर्म का ही समर्थन करते हुए नजर आते हैं। एक समय था कि नगर की शोभा जैन समाज पर निर्भर थी और और where there is will there is way -जहां उत्कंठा होती है "सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः" यह जैसी पूर्व की प्रत्येक नगर में प्रायः नगरशेठ के आदर्श स्थान पर जैन ही वहां मार्ग मिलता ही है - इस कहावत के अनसार मैं बंबई ध्वनि है वैसी ही उसकी प्रतिध्वनि पश्चिम में व्यापक है कि There अधिष्ठित होता था और सारी जैन समाज के लोग नगर के मखिया पहुँचा। दस पंदरह रोज ठहरने पर ज्ञात हुआ कि पूज्यवर के is no greater religion than service अथात् 'सेवा से बढ़कर कोई निर्यामक एवं सूत्रधार समझे जाते थे। हमें चाहिए कि चाहे देश या स्वास्थ्य में सुधार होता जा रहा है और पंजाब से पधारे हए प्रसिद्ध धम नहीं है। विदेश में, प्रान्त या ग्राम में जहाँ कहीं भी हम रहते हों, चाहे वैद्यराजजी भी पुरस्कारपूर्वक विदा किये गये हैं, इसलिये मैंने भी उद्योग, व्यवसाय या अमलदारी के लिये स्थायी या अस्थायी रूप वापिस मद्रास लौटने का निश्चय किया। लेकिन विधि के कार्यक्रम "परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय दहन्ति गावः। से निवास करते हो, वहाँ की प्रजा के हित के लिये अपने तन मन और धन का विवेकपूर्वक भोग देना चाहिए और भातृभाव और में उनथी की श्मशानयात्रा में सम्मिलित होने का विधान था उस परोपकाराय वहन्ति नद्यः परोपकाराय सतां विभूतयः।।" वात्सल्यभाव इतना बढ़ाना चाहिए कि हम प्रजा के प्राण बन जावें भावी को कौन मिटा सकता था। अर्थात् एक पीछे एक सामाजिक अर्थात् उनके सुखदुःख में सम्पूर्ण सहयोग और सहानभूति रखनी वधार्मिक कार्य सामने आते ही गये और पूज्यवर आचार्य भगवंत सर्य, चंद्र, सितारे जल, तेज, वायु एवं वनस्पति आदि सारे चाहिए ताकि हमारी तरफ प्रजा के हदय में प्रेम बढ़ता जाये। इस का मझे ठहरने के लिये संकेत होता ही गया और जाने जाने के पदार्थ परोपकार अर्थात् सेवा के लिये प्रवृत्ति करते हुए नजर आ प्रकार की प्रवत्ति से हम केवल अपने समाज की ही प्रतिष्ठा बढ़ा विचार में ही और 25 दिन व्यतीत हो गए।अंतिम दिन उनकीनिश्रा रहे हैं और आधुनिक विज्ञान भी इस बात की पुष्टि कर रहा है कि सकेंगे, यही बात नहीं, परन्तु जैन शासन की सच्ची मार्गप्रभावना में ईश्वरनिवास में पौषध किया और प्रतिक्रमण करते हुए Every action has got reaction - प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया भी कर सकेंगे। प्रजा में जैन धर्म के आदर्श सिद्धान्तों की तरफ संसार-दावानल की स्तति का आदेश पज्यवर ने स्वयं श्रीमख से अवश्य है-इसलिये यह निश्चय हकि दूसरा का सुख देकर ही स्वाभाविक आकर्षण पैदा होगा और उनका अनसरण करने की मझे दिया। अर्थात श्रावक के तौर पर उनके साथ अंतिम हम सुख ले सकते हैं, दूसरे को दुःख देकर सुख की आशा रखना उनकी बत्ति बरती जायेगी। टलिये प्रतिक्रमण करने का और उनकी निश्रा में पौषध करने का मझेही भयंकर भुजंग के मुख से अमृत की आशा रखने के समान है। प्रथम उपाय सौभाग्य प्राप्त हुआ। उदाहरणार्थ अगर हम वृक्ष के मीठे फल खाने की आशा रखते हैं। तो उससे पहिले हमें उसके मूल में अमृतजल का सिंचन करना ही स्वावलम्बन उन दिनों में मेरा सोना बैठना प्रायः इश्वरानवास म हा हान पड़ेगा। अगर गौरस के सेवन से हम अपना स्वास्थ्य सुन्दर बनाना चाहे व्यक्ति हो, समाज हो, या देश हो, अपनी उन्नति की से समय पाकर मैं पूज्यवर के साथ सामाजिक, दार्शनिक एवं चाहते हैं तो गौपालन का सर्वोत्तम तरीका अपनाना ही पड़ेगा। साधना में स्वावलम्बन नितान्त आवश्यक है। जब तक हम धार्मिक विविध विषयों पर वार्तालाप करता रहता था और अनेक अगर हम अपने पैरों को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो मार्ग को स्थायी न बनेंगे तब तक जीवन आकल व्याकुल बना रहेगा और प्रश्नोत्तर भी चलते रहते थे। एक रोज मैंने पूछा कि पूर्वकाल में निष्कंटक बनाने के लिये परिश्रम उठाना ही पड़ेगा। कहावत है बिना निराकलता के जीवन का विकास हो नहीं सकता। इसलिये जैन लोगों के प्रति आम प्रजा में बड़ा प्रेम और आदर था। इतिहास कि As you sow so you reap - जैसा बोवेंगे वैसा काटेंगे। हमारे जहाँ तक बने वहाँ तक आवश्यकताएँ कम करते जाना चाहिये उसका साक्षी है, परन्तु आज हमारी प्रतिष्ठा इतनी नीचे गिर गई पूज्य धर्माचार्यों ने इस विधि के ध्रुव सिद्धांत को यथार्थ रूप में ध्यान और जितनी आवश्यकताएँ अनिवार्य हैं उनकी पूर्ति अपने आप है कि प्रजा हमें तिरस्कार की दृष्टि से देखती है और हमारे समाज में रखकर जीवन में सेवा एवं परोपकार पर बहुत ही भार दिया है। करने का प्रयत्न करना चाहिए। समाज के लिये भी यही बात है में भी संकीर्णता, स्वार्थपरायणता और विवेकशन्यता दिन यागशास्त्र मश्रावका कालाकाप्रय हान कालय श्राहमचन्द्राचाय कि अपनी उन्नति के लिये कार्यबल,बद्धिबल,धनबल,विद्याबल प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। इसलिये कौनसे ऐसे उपाय हैं जिससे ने आदेश दिया है। उसी तरह से श्री हभिद्रसूरि ने धर्मबिन्दु में या राजतंत्रबल आदि जितनी भी शक्तियों की जरूरत है, उनकी अपनी सामाजिक उन्नति साध सकें और आम प्रजा के हृदय पर लोकवल्लभ बनने का उल्लेख किया है। लोकप्रिए एवं पर्ति के लिये समाज में हर प्रकार के मनुष्यों को तैयार करना लोकवल्लभ बनने के लिए स्वार्थ त्याग और सेवा उपासना को प्रभाव डाल सकें। पूज्यवर ने इसके समाधान में सुन्दर शैली से चाहिये। हमें हमारी देह, कुटुम्ब, धन, धर्मस्थान आदि के रक्षण आदर देना ही पड़ेगा। प्रतिपादन करते हुए ऐसे अमूल्य पांच विषय बताये जिन पर मनन के लिये दूसरों के भरोसे रहना अथवा अन्य की गरज़ करना या मुंह करने से मुझे दृढ़ निश्चय हो गया कि वास्तव में ये हमारे उन्नति प्राचीन काल में जैन समाज की प्रतिष्ठा इतनी बढ़ी चढ़ी थी, ताकना पड़े, इससे ज्यादा क्या भूल हो सकती है। आज हमारे के उत्तमोत्तम उपाय हैं। वे पांच उपाय ये हैं - (1) सेवा, इसका खास कारण सेवा और परोपकार था। सारी समाज को समाज को विकट परिस्थिति का कटु अनुभव करना पड़ता है, महाजन और श्रेष्ठ (शेठ) का पद प्राप्त था, इतना ही नहीं परन्तु उसका कारण यही है कि हम स्वावलम्बी नहीं हैं। अर्थात् सिवाय (2) स्वावलम्बन, (3) संगठन, (4)शिक्षा, (5) साहित्य, यवनों के शासन में भी उनकी भाषा के मुताबिक सर्वोपरि पद व्यापार के और किसी क्षेत्र में हम लोग जैसी चाहे वैसी प्रगति "शाह" का खिताब जैन समाज को प्राप्त था। इसी जैन समाज के साधते नहीं, इसलिये इस स्वराज्य प्राप्ति के सुन्दर समय में भी सुपुत्र जगडुशाह,भामाशाह,पेथड़शाह,समराशाह,खेमादराणी, हमारी आवाज कोई सुनता नहीं। उलटे हमारे सामाजिक व सेवा में ही मानव जीवन का सार है। आगम, उपनिषद्, वस्तुपाल, तेजपाल, विमलशाह आदि नररत्नों की अमर धार्मिक अधिकारों पर कई स्थानों में बलात्कार हो रहा है, परन्तु पुराण, कुरान एवं बाईबल आदि जितने भी संसार में धर्मशास्त्र हैं कहानियाँ आज भी भारत के इतिहास में गाई जा रही हैं। वह भी किसको कहें। हम यदि जीवन के उपयोगी सब ही क्षेत्रों में आगे orayan सेवा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा बढ़े हुए होते तो अपनी अहिंसा प्रधान जैन संस्कृति को सर्वत्र क्या जगत् के कदाग्रह और क्लेश का अन्त कर सकेंगे। यह तो का प्रचार करना समाजोन्नति के लिये अत्यंत लाभकारी है। व्यापक बना सकते और शांति का संदेश सारे विश्व को सुना ऐसी बात है कि जिस बीमारी का जो डाक्टर स्वयं शिकार बना है सकते। शास्त्र में 'श्रावकों को अदीन मन से रहना चाहिये' ऐसा उसके शर्तिया इलाज का वह विज्ञापन कर रहा है। इसलिये हमें साहित्य लिखा है। इस अमूल्य सिद्धान्त को तब ही चरितार्थ कर सकते हैं स्याद्वाद का नयवाद की विशालता और सुन्दरता समझ कर जितना प्रचार हम प्रवचन, व्याख्यान या संभाषण से कर जब कि हम अपने जीवन को स्वावलम्बी बनावें। इसलिये आपस में संगठन साधना चाहिये। सकते हैं, उससे हजार गुणा ज्यादा काम साहित्य के द्वारा हो स्वावलम्बन को समाजोन्नति का अमूल्य उपाय मानना कोई सकता है। जो लोग अपने धर्म या संस्कृति का प्रचार कर रहे हैं वे अत्युक्ति नहीं है। सब भिन्न-भिन्न भाषाओं में साहित्य प्रकाशन द्वारा ही कर रहे हैं | जैसे यंत्रवाद के युग में चाहे प्रकाश करना है, चाहे पंखा और उसमें सफल होते हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं। श्रीकृष्ण, राम, संगठन चलाना है, चाहे टेलीफोन से बात करना है या किसी भी प्रकार बुद्ध और क्राईस्ट के जीवन चरित्र की पुस्तकें सैकड़ों भाषाओं में बच्चा भी जानता है कि एक एक धागे को मिला कर जब मशीन को चलाना है तो बिजली का उपयोग करना आवश्यक संसार के कोने-कोने में बांटी जा रही हैं और हम लोग तो ऐसे रस्सा बनाया जाता है तब हाथी भी उसके बंधन के सामने अपने समझा जाता है। वैसे ही चाहे सामाजिक, व्यावहारिक, अथवा बेपरवाह हैं कि प्रति वर्ष जब श्रीभगवान् महावीर स्वामी का जन्म बल का उपयोग नहीं कर सकता। आज हमारे समाज में न धन की धार्मिक प्रगति साधना है तो शिक्षा के बिना कुछ भी नहीं हो महोत्सव मनाते हैं तब बड़े-बड़े मन्त्री लोगों को, न्यायाधीशों को कमी है न उदारता की, परन्तु आपस में संगठन न होने से लाखों सकता। आज आधुनिक शिक्षा से लोग घबराते हैं कि शिक्षा से और राज्याधिकारियों को निमंत्रित करते हैं, परन्तु जब वे रुपये खर्च करते हुए भी हम अपने धर्म का प्रभाव फैला नहीं संस्कृति का नाश होता है। परन्तु मैं तो उसको वैसी ही भांति भगवान् के आदर्श जीवन और उनके अमूल्य सिद्धान्तों की सकते। हमारी वर्तमान परिस्थिति पर एक सुन्दर दृष्टान्त याद मानता हूं जैसे कि बिजली जला देती है इसलिये बिजली के रूपरेखा (Outlines) दर्शानेवाली कोई पुस्तक या निबन्ध अपने आता है। कुछ जैन यात्री प्रवास में निकले हुए थे। रास्ते में सूर्यास्त उपयोग से दूर रहना चाहिये। इस तरह से यंत्रवादी घबराए होते बोलने के लिये या पढ़ने के लिये मांगते हैं, तब एक संचालक दूसरे के समय सब को चउविहार करना था और पानी के लिये कोई तो सारे संसार में यंत्रवाद का साम्राज्य स्थापित नहीं कर पाते। संचालक का मुंह ताकने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकता। उपाय था नहीं। आखिर वे एक सूखी नदी पर पहुंचे। तब एक जिस काल में जिस प्रकार की शिक्षा प्रचलित हो, उसको प्राप्त मतलब यह है कि अंग्रेजी जैसी प्रचलित भाषा में एक सुन्दर और अनुभवी ने कहा कि सब एक छोटी कुंइयां खोदो तो अभी पानी किए बिना हम अपना हित साध ही नहीं सकते। बौद्धों तथा सारगर्भित पुस्तक बाहर के आये हुए विद्वान् लोगों को देने के निकल जाएगा। परन्तु आपस में संगठन था नहीं, इसलिये सब के वेदान्तियों ने अपना प्रचार संसार के कोने कोने में फैलाया, इसका लिये हमारे पास तैयार होवे ऐसा देखने में बहुत कम आया है। बड़े सब अलग कंइयां खोदने बैठ गये। किसी ने दो हाथ किसी ने तीन कारण यही है कि उनके प्रचारक आधुनिक शिक्षा में आगे बढ़े हुए खेद की बात है कि हजारों रुपये ध्वजापताका, सभामण्डप बनाने और किसी ने चार हाथ खोदा और पानी किसी से भी निकला नहीं थे। आज काँग्रेस ने अंग्रेजी शासन का सामना करके स्वराज्य कैसे में खर्च कर लेते हैं परन्तु इस तरफ क्यों ध्यान नहीं जाता? जब और रात पड़ गई। सबको प्यासे ही रहना पड़ा अगर सबने लिया? इसीलिए न कि हमारे नेता आज की प्रचलित शिक्षा में बौध धर्म वालों ने Light of Asia - जंबज्योति-नाम की पुस्तक मिलकर एक कुंइयां खोदी होती तो सबकी प्यास बुझती। ई.स. निष्णात बने हुए थे। दरअसल शिक्षा का बुरा असर जो हमें एक महान् विद्धान द्वारा तैयार करवाई, उन्हीं दिनों में हमने भी 1893 के चिकागो (अमेरिका) की (Parliament of Religions) अपनी संस्कृति पर नजर आता है, उसका कारण तो यह है कि हम एक अत्युत्तम ढंग से महावीर का जीवन चरित्र प्रकाशन करने में सर्वधर्मपरिषद् में जैन धर्म के प्रतिनधि श्रीमान् वीरचन्द राघवजी अपनी संस्कृति-रक्षण के पाये पर शिक्षा के साधन खड़े नहीं करते कुछ रकम खर्च कर दी होती तो आज महावीर भगवंत के प्रति भी गांधी गये थे। हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि स्वामी विवेकानंद गये थे। हैं। आज हमारे कितने ही शिक्षालय खुले हुए नजर आते हैं परन्तु प्रजा में सर्वत्र पूज्यभाव बढ़ता और सभा में जैसे बुद्ध को बार-बार दोनों की प्रशंसा अमेरिका में खूब हुई और उनके व्याख्यानों का आदर्श शिक्षकालय दो चार भी देखने में नहीं आते। अगर हम विद्वान लोग अपनी जिह्वा पर लाते हैं वैसे भगवान् महावीर का अपूर्व प्रभाव वहां की प्रजा पर पड़ा। परंतु हमारे समाज में संगठन शिक्षक ही संस्कृति के उपासक तैयार नहीं करते और पवित्र नाम भी अपने मुंह पर लाते। हर एक कार्य समयोचित होने न होने के कारण सुचारू रूप से अपना कार्य आगे न बढ़ा सके और संस्कृतिघातक शिक्षकों के द्वारा हम अपने बालकों को शिक्षा में ही शोभा है। खेती भी समयोचित नहीं हो. तो मेहनत व्यर्थ स्वामी विवेकानंद ने जो रामाकृष्ण मिशन (Ramakrishna दिलाते हैं तब सुन्दर परिणाम कैसे आ सकता है ? बनाना है गोली जाती है। जैन धर्म ने तो स्थान-स्थान पर शास्त्र में द्रव्य क्षेत्र काल Mission) स्थापित किया उसको आगे व्यवस्थित ढंग से चलाते और मशीन है टीकडी की तब क्या टीकडी(Tablet) की मशीन में और भाव पर जोर दिया है। शायद ही किसी दूसरे धर्म में इतना गये। आज सारे संसार में उनका प्रचार जारी है और देश-देश में गोली कैसे बनेगी। हमारी संस्कृति को लक्ष्य में रख कर शिक्षा के जोर द्रव्य क्षेत्र काल भाव पर हो। परन्तु आज उस तरफ न तो उसकी शाखाएं चल रही है और विदेशी लोग भी संन्यासी बन केन्द्र खोले नहीं जाते और न शिक्षक खास संस्कृति पोषक शिक्षा हमारा लक्ष्य है और न उसका बहुमान है। इसलिये जैन साहित्य कर उनके मिशन का काम आगे बढ़ा रहे हैं। हमारे पूर्वाचार्यों ने देने वाले तैयार किये जाते हैं। शिक्षा को दोष देना और उससे दूर संसार का एक सर्वोत्तम साहित्य होते हुए भी जगत् में उसे चाहिए तो संसार को संगठित करने के लिये सुंदर से सुंदर स्याद्वाद न्याय रहना समाज की उन्नति में बाधा पहुंचना है, इसलिये शिक्षा सेन वैसा उचित स्थान प्राप्त नहीं। इसलिये अब शीघ्र ही संसार की का निर्माण किया जिसको विदेशी विद्वान् Unifying force संसार घबराते हुए उसके लिये सुन्दर आयोजन करके, आदर्श प्रचलित भाषाओं में जैन धर्म के रहस्य को समझाने वाले की संगठन शक्ति कहते हैं। उनके अनुयायी आपस में संगठन नहीं शिक्षालय और शिक्षकालय स्थापित करके, आदर्श शिक्षकों को छोटे-छोटे निबन्ध, पुस्तिकाएँ और पुस्तकों का प्रकाशन करना साध सकते तो संसार को क्या संगठन का सबक सिखा सकेंगे और जीवनभरण पोषण की चिन्ता से मुक्त करके उनके द्वारा शिक्षा हमारी उन्नति का अपूर्व साधन है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व की विराट् विभूति विजय वल्लभ सा. यशोभद्रा श्री वल्लभ-महिमा भारत की भूमि जैसे प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से सुदरतम है संबंध बना रहे यह गुरु वल्लभ का ध्येय था। स्वावलंबी जीवन वैसे ही यह धरा बड़े-बड़े ऋषियों, मुनियों और सज्जन पुरुषों के उनका निजी जीवन था। वाणी, वर्तन और विचार की सरलता द्वारा की गई आराधना और साधना से पवित्र है। वीरबल और और शुद्धता उनके जीवन का मुख्य गुण था। वास्तवमें "सादा अभयकमार जैसे बद्धिशाली, राम जैसे परुषोत्तम, शालीभद्र जैसे जीवन उच्च विचार" इस उक्ति से उनका सारा जीवन गुंथा हुआ -राघव प्रसाद पाण्डेय पुरुषोत्तम, बाहुबली जैसे बलशाली, स्थूलभद्र जैसे परम तेजस्वी था, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं। उनके जीवन का एक-एक महापुरुषों ने इसी धरती पर जन्म लिया था। सीता, द्रौपदी, गुण और प्रत्येक घटना कोई अनूठा दरवाजा खोलती है, कोई सुलसा, रेवती, चन्दनबाला आदि महासतियां भी तो इसी अनोखा मार्ग दिखाती है और कोई अनमोल स्थान पर ले जाती गरुवर! तम्हारी महिमा से दर मेरा क्रन्दर। भारतभूमि की देन हैं। तेरे चरणकमल में है बार-बार वन्दन।। महान पुरुष इस संसार में जन्म लेकर स्व-पर उपकार का विजयवल्लभ ने अपने जीवन में जो भी कार्य किये वे जब भक्त हो भंवर में तेरा ही है सहारा, ही महान् कार्यकरते हैं और इसीलिए कहा भी है कि "परोपकाराय आबलवतों के लिए आजीवन हितकारी हैं। उन्होंने किसी समाज, तव नाम जपते-जपते मिल जायेगा किनारा सतां विभूतयः" सज्जनों की सम्पत्ति परोपकार के लिए होती है। राष्ट्र या देश को नहीं किन्तु जन जन को अपने पैरों पर खड़ा आश्रय तुम्हारा पाकर कट जाएं सारे बन्धन। तेरे चरण.. मोमबत्ती स्वयं जल कर दूसरों को प्रकाश देती है, फूल दूसरों किया। यवकों को आगे बढ़ाया। नारी जाति भी अपनी शक्ति सबके हदय के वल्लभ सबके हदय के प्रेमी. के पैरों तले कुचलाकर अपनी सुगंध फैलाता है, वृक्ष स्वयं गर्मी, द्वारा समाज में अपना स्थान उन्नतकर प्रभु शासन को चमका सके सब मानते थे, तमको जैनी हो अजैनी, सर्दी और हवा के झोंकों को सहन कर पथिकजनों को फल देता है और स्व-पर कल्याण कर सके ऐसी दिव्य और दीर्घ दृष्टि से ऐसी सुवास तुझमें जैसे परागचंदन। तेरे चरण .... । और शीतल छाया भी। उसी प्रकार महापुरुषों का जीवन स्वयं विचार कर साध्वीवृंद को भी पुरुषों में व्याख्यान देने की आज्ञा दी। अज्ञान देख जग में विद्या के दीप जलाए दुःख और कष्टों को सहन कर दूसरों को सुख देने वाला होता है। इस प्रकार भावीयग को समझने की अनेक दिव्य और दीर्घ दृष्टि लगभग 118 साल पहले गुजरात की पुण्यभूमि ने भी एक ऐसे उनके पास थी। इसीलिए वे युगद्रष्टा कहलाये। आज आपके भटके हुए जो पथ से उन्हें रास्ते दिखाए, ही गौरवशाली व्यक्ति को जन्म दिया था और वह थे हमारे समुदाय में साध्वियां भी आगे आगे बढ़ चढ़ कर शासन की शोभा हमारे समदाय में साध्वियां भी आगे आगे बढ़ चढ कर शासन की शोभा जो ज्ञानबीज बोए वे आज रम्य नन्दन। तेरे चरण आदर्श वल्लभ। जिन्होंने भरे यौवन में संसार के सुखों को बढ़ा सकती हैं, यह आप की ही तो देन है। प्रभु के समक्ष जब भी गुरु भावना में डूबे, ठुकराया, इच्छा माता की अंतिम इच्छा की पूर्ति के लिए गुरु फुटपट्टी से क्या कभी सागर का माप निकाला जा सकता है? संगीत पुण्यसलिला से शब्द बन के फूटे, आतम के चरणों में जीवन समर्पित करके संयम सरिता में स्नान थर्मामीटर से क्या कभी सूर्य कीगर्मी को मापा जा सकता है? भक्ति भरे अनूठे ये छंद दुःख भंजन। तेरे चरण.....। कर मातृभक्ति का एक बड़ा सुंदर जगत् के समक्ष प्रस्तुत किया आकाश के तारे क्या कभी गिने जा सकते हैं? इसी प्रकार क्या करते हैं आज अर्पण श्रद्धा-सुमन विनय से, और दीपचन्द पिता के कल में दीपक जैसे प्रकाशित हुए। वे कभी बल्लभ के गुणों का वर्णन लिखा जा सकता है? नहीं! हजार सब कष्ट दूर होंगे युगवीर तेरे जय से, आधुनिकता से दूर न रहे और न प्राचीनता के निकट। पंजाब, मुख और हजार जिह्वा से भी यदि उनके गुणों का वर्णन करना | शत-शत शताब्दियों तक होगा तेरा अभिनन्दन। मारवाड़ या गजरात को लेकर उन्होंने अपने विचार प्रकट नहीं चाहें तो भी अशक्य है फिर लिखने की बात ही क्या? तेरे चरण .....। किये अपितु सार्वभौम को लेकर। शिक्षा और संस्कार का जीवन में सचमुच विश्व की विराट् विभूति थे विजयवल्लभ। For Private & Personal use Only Horrintersanone A minorary.org Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 Jain Education Internationa Private & Perional Use Only भिखारी की शिक्षा भिखारी या रंक आपके दरवाजे पर आ कर पुकार करता है, तब वह आपको एक शिक्षा देता है। वह कहता है- हमने पुण्यार्जन नहीं किया। इससे हमारी यह दशा हुई है। यदि तुम भी हम गरीबों पर दया नहीं करोगे तो तुम्हारी भी यह दशा होगी। हम ठकरा लेकर घर-घर फिरते हैं, इसी प्रकार तुम्हें भी फिरना पड़ेगा। क्षमा यथाशक्ति तपस्या तो करनी ही चाहिये। पर तपस्या के साथ क्षमा धारण करना भी अत्यन्त आवश्यक है। तप का अर्थ सिर्फ शरीर को सुखाने का नाम ही तप नहीं है। शरीर के साथ जो अपराध करने वाले रागद्वेष हैं - उनको सुखाने की जरूरत है। और तप का सही अर्थ भी यही है। सुधार यथार्थ बात कोई नहीं कहता। तुम्हारा लिहाज साधु करते हैं और तुम साधु का। यही कारण है कि सुधार नहीं हो पाता। जहां "तिन्नाणं तारयाणं" था वहां अब "डुब्बाणां डोबिया'" हो गया। - विजय वल्लभ सूरि Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 श्री विजयवल्लभ सूरीश्वर जी महाराज मेरी दृष्टि में के समान अंकरित हो गई। और वह कल्प-बेल पुष्पित होकर अक्षय सुगन्ध से उसके जीवन को सुवासित करने लगी। फलस्वरूप विरक्त किशोर छगन ने वि. सं. 1944 (गजराती 1943) वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को परम पूज्य न्यायाम्भोनिधि आचार्य श्री के करकमलों द्वारा राधनपर (गजरात) में दीक्षा ली। उनका मुनि नाम बल्लभ विजय रखा गया। उस समय उनकी आयु केवल सत्रह वर्ष की थी। वे मुनिराज श्री हर्षविजय जी के शिष्य हुए। अपने गुरू के चरण-कमलों में बैठकर उन्होंने जैन दर्शन एवं अन्य दर्शनों का विशद अध्ययन किया। मुनि पुंगव श्री हर्ष विजय जी म. सा. वि. सं. 1947 चैत्र शुक्ला 10 (दिनांक 21 3-1890 ई.) में स्वर्गवासी हो गये। तत्पश्चात मनि श्री वल्लभ -डा. जवाहरचन्द्र पटनी विजय जी महाराज ने प. पू. न्यायाम्भोनिधि आचार्यदेव के सान्निध्य में काव्यशास्त्र, आगम-शास्त्र आदि का गहन 30 अक्टूबर 1987 का मंगल-प्रभात मेरे लिए एक जन्म गुजरात प्रान्त के बड़ौदा नगर में वि. सं. 1227 कार्तिक अध्ययन किया। वे विद्याविभूषित होकर फलों से लदे हुए आम्रतरू सर्वोत्तम उपहार लेकर आया। उस दिन जोधपुर विश्वविद्यालय शुक्ला द्वितीया (भाई दूज) को जैन श्रीमाली कुल में हुआ था। के समान झुक गये-विनम्र हो गये। "विद्या ददाति विनयम" की ने मुझे मेरे शोधप्रबन्ध'कलिकाल कल्पतरू श्रीमद् वल्लभ सूरि उनके पिता श्रेष्ठ दीपचन्द भाई एवं माता इच्छाबाई के धार्मिक उक्ति उनके जीवन-दर्शन में सार्थक हो गई। जी की कृतियों में काव्य, संस्कृति और दर्शन' पर पी.एच.डी. की संस्कारों ने बालक छगन पर अमिट छाप छोड़ दी। अत्यन्त न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य श्रीमद् आत्मारामजी म. सा. उपाधि प्रदान की। उस प्रसंग पर एक साहित्यकार मित्र ने लाड़-प्यार से बालक दूज के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगा, परन्तु विलक्षण, अलौकिक ज्योतिर्धर महर्षि थे। देश और विदेश के हर्ष-विभोर होकर मुझे कहा: "आधुनिक युग में हीरक लेखनी से पिताश्री स्वर्गवासी हो गये। माता इच्छाबाई भी रूग्ण हो गई और महान् विद्वान् उनके चरण-कमलों में विद्याध्ययन करने के लिए स्वर्ण-पत्र पर लिखने योग्य यदि कोई दिव्य कथा है तो वह मरणासन्न अवस्था में अपने लाड़ले को अपने समीप बुलाया और आते थे। वे अपनी शंकाओं का समाधान पाकर परितृप्त है-करूणामूर्ति गुरुवल्लभ की जीवन-कथा।" अश्रुपूरित नेत्रों से वात्सल्य वाणी में छगन को कहा : "बेटा! मैं प्रफुल्लित हो जाते थे। एशियारिक सोसायटी के मानद निस्सन्देह, गुरुवल्लभ जन-वल्लभ थे, निस्पृही सन्त, तुझको करुणासागर वीतराग परमात्मा की अविनाशी शरण में मंत्री डॉ. ए.एफ. सडोल्फ हॉरनेल महोदय ने अपने संपादिन ग्रथ उदारमना आचार्य, लोकमंगल के विराट् कवीश्वर और वात्सल्य सौंपकर इस नश्वर संसार से विदा हो रही हूँ। तू अविनाशी "उपासकदशांग" को इन ज्योतिर्धर को अत्यन्त श्रद्धा भक्ति से सखधाम में पहुँचाने वाले धन को प्राप्त करने और जगत का समर्पित किया। अपने "समर्पण-वक्तव्य" में उन्होंने गरुदेव को के महासागर। कल्याण करने में अपना जीवन बिताना। "बड़ी कठिनाई से यह "अज्ञान तिमिर भास्कर" के अलंकरण से विभूषित किया। वे प्रेम का मंगल-कलश लेकर इस धराधाम पर धन्वन्तरी के मंगल वचन करुणामूर्ति माता कह सकी और अर्हत् शब्द की समान अवतरित हुए। इस मंगल कलश में समता रस की ऐसे महर्षि की चरण-सेवा से मुनि बल्लभ विश्व-वल्लभ बन मंगल ध्वनि के साथ ही उसके प्राणहंस उड़ गये। संजीवनी औषधि का अमृत भरा हुआ था। वे जीवन भर प्रेमामृत गये। उनके देवलोक गमन के पश्चात् मुनि श्री उनके पट्टधर छगन हतप्रभ सा बैठा रहा। नयन-मुक्ता से माता का पिलाते रहे, पीडित, दुखी प्राणियों को जिलाते रहे, निराशा और दीनता के मरुस्थल में आशा और समृद्धि की गंगा-धारा प्रवाहित अभिसार किया। माता के ये शब्द उसकी तंत्री पर निनादित करते रहे। हए-"बेटा! अविनाशी सुखधाम में पहुँचाने वाले धन को प्राप्त संवत 1981 के लाहौर चातुर्मास में उनको आचार्य पदवी करने ओर जगत का कल्याण करने में अपना जीवन बिताना।" प्रदान की गयी। "आचार्य वह है जिसके चरित्र का अन्य जन उसके पास अक्षय निधि थी। वह थी करुणा सागर वीतराग और वह शुभ दिन भी आया जब संवत् 1942 में सुप्रसिद्ध अनुकरण करने लगे।" सचमुच उनके परम पावन चरित्र का परमात्मा महावीर की वाणी। उस अहिंसा और प्रेम की वाणी से वे जैनाचार्य न्यायाम्भोनिधि श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी म.सा. प्रभाव जनता पर अत्यन्त प्रबलता से पड़ा। फलस्वरूप अनेक जगत् के सताप को मिटात रहे-सूर्य और चन्द्र की तरह निष्पक्ष श्रीमद आत्माराम जी म. सा.) बडौदा नगर में पधारे। उनके पथभले मनुष्य मानवता के मंगल-मार्ग के यात्री हो गये। अनेक भाव से। प्रवचनों का प्रभाव अचूक था। छगन के जीवन में संसार के प्रति सेवा-पथ के अनुगामी हुए। सप्तव्यसन-मांस, मदिरा, जुआ, जीवन-प्रभा-जैनाचार्य श्रीमद् बल्लभ सूरिजी माहाराज का विरक्ति और वीतराग भक्ति में अनुरक्ति की भावना कल्प-बेलि चोरी, शिकार, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, का परित्याग कर Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक लोग निर्मल जीवन से अलंकृत हो गये। गुरुदेव की "आचार्य श्री बहुत कोमल, संवेदनशील एवं सहृदय व्यक्ति थे। वल्लभ संस्कृति मन्दिर नामक संस्था स्थापित की गई है। संस्कृति वीतराग वाणी का अमृत पान कर जनता के मानस-मंदिर में उनके अन्तर का कण-कण उज्जवल मानवीय गुणों से ज्योतिर्मय मंदिर का विशाल परिसर दिल्ली से 20 किलोमीटर दर मानवता के मंगल दीप प्रज्वलित हो गये। था। वे करुणा के जीवंत प्रतीक थे।" दिल्ली- अमृतसर राष्ट्रीय पथ पर स्थित है। यह संस्था न केवल गुरुदेव के जीवन में सेवा की सवास भरी हई थी। वे कहा हा समाज सेवा-पूज्य गुरुदेव ने सामाजोत्थान के लिए"उत्कर्ष सांस्कृतिक उत्थान के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी, वरन करते "सेवा के पथिक का पाथेय है-विनय भाव"। उन्होंने एक फंड" की योजना चालू की। मध्यम एवं निर्धन वर्ग के उत्थान के स्वच्छ नागरिक निर्माण हेतु अत्यन्त उपयोगी उद्योगशाला सिद्ध विज्ञप्ति प्रसारित की थी : "सर्व सज्जनों से विज्ञप्ति है। मुझे कोई लिए उद्योगशालाएं स्थापित करवाई। दर्भिक्ष, अति वृष्टि एवं होगी। जैन दर्शन के अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह के आचार्य, कोई जैनाचार्य, कोई धर्माचार्य, कोई शास्त्र विशारद, . प्राकृतिक तथा मानवकृत विपक्ष से पीड़ित प्राणियों की सेवा के सिद्धान्तों के प्रचार और प्रसार की यह सशक्त माध्यम होगी। गुरु कोई विधावारिधि, कोई भू-भास्कर इत्यादि मानवांछित पदवियाँ लिए ये महर्षि सदा तत्पर रहते। श्रीमन्त इनके उपदेशों से वल्लभ की सन्देश वाहिका के रूप में इस संस्था की कीर्ति-पताका लिखकर भारी बनाते हैं। यह बिल्कुल अन्याय है। अतः उत्प्रेरित होकर धन की थैलियों खोल देते। यों कि बहिनें भी अपने सर्वत्र फैलेगी। राष्ट्र की अखंडता और एकता, धर्म-सद्भाव और स्वर्गवासी जैनाचार्य, श्रीमद् विजयानन्द सूरि जी महाराज द्वारा स्वर्ण-हीरक आभूषण दान में दे देती थी।। जगत मैत्री के सिद्धान्तों से नागरिकों को विभषित करने के लिए प्रदत्त "मुनि' उपाधि के सिवाय अन्य उपाधि मेरे नाम के साथ इनकी सेवा, उदारता, करुणा और वात्सल्य भाव के अनेक इस संस्था की महत्वपूर्ण उपयोगिता होगी। कोई भी महाशय न लिखा करे।" प्रसंग उनके जीवन चरित्र और उन पर रचित शोध प्रबन्ध श्री वल्लभ सूरि जी ने जिस महान् स्वप्न को संजोया था, "कलिकाल कल्पतरु" में वर्णित है। उन्होंने बिनोली (मेरठ) में उसको मूर्तिवंत करने के लिए पट्टालंकार राष्ट्रसंत जिनशासन (आदर्श जीवन, पृ. 236) प्यासे हरिजनों के लिए पानी की व्यवस्था करवायी। इस पर रत्न आचार्य श्रीमद् समुद्र सूरि जी म.सा. तथा उनके स्वर्गवास के इतना होने पर भी जनता ने अत्यन्त भक्ति भाव से उनको रिजन समाज पश्चात् जिनशासनरत्न जी के पट्टविभूषण आचार्य श्रीमद् भारत दिवाकर, कलिदास कल्पतरू, अज्ञान तिमिर तरणि, पंजाब अवतार"-कहा। आभा (पंजाब) के जीर्ण-शीर्ण गुरुद्वारे का विजयेन्द्र दिन्न सूरीश्वरजी म. सा. एवं महत्तरा साध्वी जी श्री केसरी आदि अलंकरणों से विभूषित किया। आध्यात्मिक जीवन जीर्णोद्वार करवा कर सिख भाई-बहिनों का दिन जीता, पपनाखा मृगावती जी महाराज का योगदान अविस्मरणीय रहेगा। उनका - आचार्य श्री तपस्वी महर्षि थे। वे ज्ञान-ध्यान में रमण करते (गजरांवाला) ग्राम में मसलमान भाइयों को मस्जिद के लिए जैन ध्वल यश शुभ ज्योत्सना के समान जन-मानस को उज्जवलित हुए जन-कल्याण में सन्नद्ध रहे। भाईयों से जमीन दिलवाई। इस पर मस्लिम समाज ने उनको करता रहेगा। आचार्य श्री इन्द्रदिन्न जी इस संस्था के विकास हेतु उनको गोचरी में जो कुछ सूखा-सूखा मिलता, उसमें संतोष "अल्लाह का नूर" कहा। उन्होंने अज्ञान-तिमिर को दूर करने के भागीरथ प्रयत्न कर रहे हैं। यह शुभ है। रखते। पैदल-विहार में उन्हें कहीं चने, कहीं छाछ, कहीं रोटी के लिए राष्ट्र के कोने-कोने में सरस्वती मंदिरों की स्थापना करवाई। देश प्रेम-श्री गुरुवल्लभ का देश प्रेम स्वर्णक्षरों में लिखा टुकड़े मिलते-उनको पानी में भिगो कर खाते। वे दिन भर में इन विद्यामन्दिरों में उल्लेखनीय हैं:-श्री महावीर जैन विद्यालय गया है। उन्होंने जीवन भर खादी पहनी। यहाँ तक कि आचार्यपद गिनती की चीजें ही भोजन में लेते। वे प्रातः काल बह्म मुहूर्त में बम्बई, श्री पार्श्वनाथउममेद जैन कालेज फालना, श्री पार्श्वनाथ जैसे महान् प्रसंग पर उन्होंने पंडित हीरालाल शर्मा के हाथों से चार बजे उठते और प्रभु-भक्ति में लीन हो जाते। वे पर्व-तिथियों जैन विद्यालय वरकाना, श्री आत्मानंद जैन कालेज अम्बाला, एवं कती हुई और कातते-कातते अति पावन नवस्मरण के मंगलपाठ में बेला, तेला, उपवासादि व्रत का पालने करते। अपने संकल्प की लुधियाना आदि। गुरुदेव ने अनेक कन्याशालाएँ खुलवाई। से मंत्र सिक्त सूत्र से बनी खादी की चादर ओढ़ी थी। उन्होंने पूर्ति के हेतु वे मिष्ठान्न, दूध आदि का भी परित्याग करते। गुरुदेव ने धार्मिक शिक्षण को नैतिक जीवन के लिए "माता के दूध स्वदेशी आन्दोलन का प्रबल समर्थन किया क्योंकि यही "अग्निशिखा के समान प्रदीप्त एवं प्रकाशवान रहने वाले के समान' पुष्टिकारक बताया। उन्होंने व्यावहारिक शिक्षा को अहिंसात्मक क्रान्ति का एक मात्र मार्ग था। उनकी दृष्टि से अन्तर्लीन साधन के तप, प्रज्ञा और यश निरन्तर बढ़ते रहते हैं।" जीवनोपयोगी कहकर उसके प्रचार-प्रसार के लिए उपदेश मशीनीकरण से लोग बेकार होगें। पश्चिम के अंधानकरण से (आचारांग सूत्रः 2/4/16/140) गुरुवल्लभ के धवन यश का दिया। समाजोत्थान एवं सांस्कृतिक विकास के लिए गुरुदेव "जैन आत्मप्रधान भारती संस्कृति का विनाश होगा। उन्होंने यही रहस्य था। विश्व विद्यालय" की स्थापना करना चाहते थे। उनके अन्तिम सप्तव्यसत मुक्त समाज की रचना के लिए ग्राम-ग्राम, वे हितकर और संशयहीन वचन बोलते। उनकी वाणी में उपदेश में भी यही मंगल संदेश था। हमें प्रसन्नता है कि गुरुदेव नगर-नगर पैदल विहार कर प्रवचन किये। उनका उद्देश्य था आक्रोश नहीं होता। भाषा संयत और सन्तुलित होती। उनके का स्वपनसाकार करने हेतु श्री आत्मवल्लभ जैन स्मारक शिक्षण कि स्वतन्त्र भारत का नागरिक मानवीय गुणों से विभूषित होकर जीवन में परम विराग, परम तत्व की परख और प्रभु-भक्ति में निधि दिल्ली में एक सुन्दर प्रायोजन प्रारम्भ की है। इसके राष्ट्र, समाज और जगत का मुक्ताहार हो। पतित, अष्ट नागरिक समर्पण भाव था। उनके नेत्रों से अमृत झरता था। ऐसा प्रतीत अन्तर्गत श्री आत्म वल्लभ संस्कृति मन्दिर नामक संस्था स्थापित से राष्ट्र का विनाश होता है। गुरुवल्लभ देश के विभाजन के होता था मानों उन्हें करुणासागर परमात्मा का साक्षात्कार हो करने हेतु श्री आत्मवल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि दिल्ली में समय रक्त-पिपासु लोगों को अहिंसा और प्रेम का सन्देश फैलाने Annouc गया हो। राष्ट्रसंत कवि श्री उपाध्याय अमर मुनि जी के शब्दों में: एक सुन्दर प्रायोजना प्रारम्भ की है। इसके अन्तर्गत श्री आत्म के लिए अशान्त और रक्तरंजित पंजाब की धरती पर पैदल । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहार करते रहे। फलस्वरूप प्रेम का पीयूष पीकर अनेक हिंसक "गुरु गुण आत्मराम वल्लभ सब जग को। वल्लभ सूरि के अन्तर का उल्लास ही वह वस्तु हैं, जो उनकी लोग प्रेम के पथिक बने। महाकवि के रूप में गुरुदेव विलक्षण सत् चित् आनन्द रूप, करण कारण सुध मग को।। कविताओं में सर्वत्र दिखायी देती है। उनकी नीति एवं हित प्रतिभा सम्पन्न महाकवि थे। उनका काव्य लोकमंगल के सर्वोत्तम (श्री विजयानन्द सूरि चरित्रः ढाल पहली) शिक्षा-विषयक कविता-सप्तव्यसक त्याग पदावली, शिखर को छु गया है। उन्होंने श्री महावीर चरित्र श्री पार्श्वनाथ उन्होंने अपने काव्य में प्रभुमय बनने का संदेश दिया। उनके बाहरमासा-1-2, कामदार-स्वरूप आदि में नीति, समाजसुधार, चरित्र, श्री शान्तिनाथ चरित्र, श्री आदिनाथ चरित्र आदि अनुसार-"जीवन एक दिव्य लीला है, अनन्त की महिमा की एक मानवोत्थान तथा जगत् की सुख-समृद्धि पर विशद प्रकाश डाला संक्षिप्त महाकाव्य रचे जो पाश्चात्य और भारतीय काव्य अभिव्यक्ति है। यह एक साधन है जिससे अगणित रूपों और गया है। वे समन्वयवादी कवि हैं। उनका काव्य अनेकान्तवाद का शास्त्रीय के सिद्धान्तों की कसौटी पर खरे उतरते हैं। अनेक जीवनों के द्वारा प्रकृति में विकसित होता हुआ जीव प्रेम, अमृत कलश है। उन्होंने राम-रहीम, जिनेश्वर और कृष्टा की ज्ञान, श्रद्धा, उपासना और कर्मगत ईश्वरोन्मुख संकल्प के बल एकता बताकर धर्म-सदभाव का सन्देश दिया। उन्होंने कर्म की महाकवि वल्लभसूरि के काव्य-सृजन का प्रयोजन प्रीति है। पर अनन्त के साथ एकत्व स्थापित कर सकता है। आत्मोपलब्धि प पर अनन्त के साथ एकत्व स्थापित कर सकता है। आत्मोपलब्धि प्रधानता बताकर जाति और वर्ण के आधार पर उच्च और निम्न वे अपने प्रेम-रंग में सबको रंगना चाहते हैं, इसलिए उनका और ईश्वरोपलब्धि विचारशील मनष्य का महान कार्य है। मानव-समुदाय के भेदभाव को विध्वंस किया। इस प्रकार उन्होंने काव्य, लोक-मंगल से अभिमंडित है। इसी लिए उन्होंने "सम्यग् समस्त जीवन और विचार अन्ततोगत्वा आत्मापलब्धि और समस्त मानव समाज को एकता के स्वर्ण सूत्र में गूंथा। दर्शन पूजा" काव्य में यह स्पष्ट किया है: ईश्वरोपलब्धि की ओर प्रगति करने के साधन हैं। आत्म उन्होंने पर्यावरण-प्रदूषण को मिटाने के लिए जैविक और बंदी वीर जिनंद को, गौतम धर के ध्यान। साक्षात्कार ही एकमात्र आवश्यक वस्तु है : अन्तरस्थ परमात्मा वानस्पतिक संरक्षण पर बल दिया। उन्होंने बताया कि जीवित आतम आनन्दकारणे, रचुं पूजा भगवान।। की ओर खलना, अनन्त में निवास करा, सनातन को खोजना और रहने के लिए विश्व शान्ति के लिए पाणी-मैत्री अत्यन्त "शिवमस्तसर्वजगतः" की उदात्त भावना से अभिप्रेरित उपलब्ध करना, भगवान के साथ एकत्व प्राप्त करनान्यहाधम आवश्यक है। "जो प्राणि-मित्र नहीं, वह मानव नहीं।" यह होकर उन्होंने जैन वाडमय के पौराणिक आख्यानों को लेकर का सर्वसामान्य विचार और लक्ष्य है, यही आध्यात्मिक मोक्ष का काम काव्य-रचना की है। कवि के काव्य विषय हैं-भक्ति और नीति। अभिप्राय है। यही वह जीवन्त सत्य है जो पूर्णता और मक्ति प्रदान महाकवि वल्लभ सूरिजी "जिनवरवाणी भारती" अर्थात् भक्ति के आलम्बन हैं-करुणासागर वीतराग परमात्मा जो __करता है।" उनके काव्य में भारत माता की महिमामयी संस्कृति हिन्दी के महान् कवि हैं। उन्होंने हिन्दी में उर्दू, फारसी, समस्त जगत् के रक्षक और पालक हैं: "जग उपकारी नाथ, नहीं का उज्जवल दिग्दर्शन हुआ है। संस्कृत-प्राकृत, गुजराती, पंजाबी, राजस्थानी, अंग्रेजी. ब्रज, कोई जग में तुम तोले"। उनके नीति-काव्य में मानव को मानवीय गुणों से अलंकृत अवधी आदि शब्दों का सरस प्रयोग किया है जिससे राष्ट्र भाषा (श्री आदिनाथ चरित्र, पृ. 258) करने का सचोट उपदेश है। उन्होंने "राजमती रहनेमि समद्ध हई है। संक्षेप में, भारतेन्दजी ने "निज भाषा उन्नति अहे समस्त जगत् को सुख प्रदान करने वाले दीन के रक्षक दीनानाथ जम्बूस्वामी" आदि गीत-नाट्यों के माध्यम से नारी के उज्ज्वल सब उन्नति को मूल" का और वल्लभ सूरिजी ने हिन्दी को लोकनायक हैं जिनके अरिहंत, जिनेश्वर, वीतराग, ब्रहमा, हरि, रूप को प्रतिष्ठित किया है। उनके अनुसार नारी मंगल-विधात्री, "जिनवरवाणी भारती" कहा तो उन्होंने पराई भाषा अर्थात हर, सीताराम, रहीम, अल्लाह, ईश्वर आदि अनन्त नाम हैं। समाज की कल्प-बेली और करुणा और वात्सल्य की साकार विदेशी भाषा से होने वाले खतरों से सावधान किया है। भगवान विश्वानन्द के प्रणेता, विश्व-ऐक्य के मंगल-विधाता प्रतिमा है, अतः उसकी शिक्षा दीक्षा का पूर्ण प्रबन्ध करना उनकी कविता-सुन्दरी का सहज संगीत कर्ण पुटों में अमृत जगवत्सल और जगदीश हैं। उनके लोकमंगलकारीउ अत्यावस्यक है। उसके प्रति सम्मान और सात्विक भाव रखना घोलता है। उसका नृत्य हृदय को पुलकित करता है और जगहितकारी स्वरूप को प्रगट करने के लिए महाकवि ने अपने समाज के विकास का मंगल सूत्र है। वह भोग्य नहीं सुयोग्य है, अनिर्वचनीय आनन्द की सृष्टि करता है: काव्य का सृजन किया। पावनता की प्रतिमा है। अण प्रण रण के नेडरा, धुंधरिया छनकंत। भक्त कवियों की तरह उन्होंने अपने उद्धारक गुरु की महाकवि का काव्य नैसर्गिक है। उनके लिए यह उचित । ठुमक ठुमक कर नाचती, सुवनिता सहकंत। प्रशस्ति में "श्री विजयानन्द चरित्र" की रचना की। इसमें खरी उतरती है-"कविता हृदय का उद्गार है। बाद तो बदलते विविध तुरधुनि गावती, अनुभव अमृतधार। कवीश्वर ने गुरुदेव की प्रशस्ति में लिखा है: "इस महर्षि ने रहते हैं, पर कविता में एक हृदयवाद होता है, जो बदलता नहीं जिन गुण गावत तार से, नटन करे नरनार।। अपनी संयम-विभूषा जीवन को दीपशिखा के समान उज्जवल है।" बना दिया, उन्होंने अपने सम्यग्र ज्ञानालोक से न केवल अपने (मुकटधर पाण्डेय, कवि से कविता तक पृ. 11) (श्री वल्लभसूरि रचित इक्कसी, प्रकारी पूजा) अन्तराल को ज्योतित किया, वरन् विश्व को भी प्रकाशित किया। उनके काव्य में दर्शन, नीति, उपदेश आदि विषयों का समावेश निसंदेह इस कविता सुन्दरी के भक्ति भावपूर्ण नर्तन और उन्होंने गोविन्द के अनिन्द्य अकलुषित एवं विश्ववत्सल स्वरूप हुआ है, परन्तु उन सबमें कविता का रंग चढ़ा हुआ है। जीवन के संगीत से कौन अमरानन्द में लीन नहीं होगा? को प्रकट करके गुरुपद को गौरवान्वित किया।" विविध विषय कविता रस में भीगकर रसमय बन गये हैं। श्री जय जय आत्म वल्लभ brary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 जैन संत-कवि जैन समाज में कलिकाल-कल्पतरु, अज्ञान-तिमिर-तरणि, रचनाएँ पद्य में गीत, स्तवन, समायादि तथा गद्य में भवि जाग तू गई रात रे, भगवन्त सूरज चढ़ियो। युगवीर आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि जी का नाम बड़े आदर प्रवचन-संग्रहों के रूप में उपलब्ध हैं। यहाँ केवल उनके कर ख्याल सद्गुरु केरा, मोह जाल में क्यों पड़ियो।। और सम्मान के साथ लिया जाता है। वे बालब्रह्मचारी तथा सच्चे संत-भक्ति, कवि-रूप को ही प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया नगरी अज्ञान अंधेरी रे, जिसकी नहीं है आदि। अर्थों में कर्मठ जैनाचार्य थे। उन्होंने अपने युग की परिस्थिति तथा गया है। मिथ्यात्व महल सोहे, मोह रात भारी मोहे।। सामायिक परिवर्तन को समझ लिया था। वे वेश-भूषा से जैन परमाद जहां पलंग रे गति चार बाही अंग। साधु, मन से मुनि तथा वाणी से कवि थे। जैन संत श्री विजय वल्लभजी का काव्य मुक्तक काव्य की पावे कवाय चारों, अति वाण काम विकारो।। कोटि में रखा जा सकता है। छोटे-छोटे गुटकों के अतिरिक्त इनकी तृष्णा तुलाई बिछाई रे, महा गर्व है रजाई। गुजरात में जन्में इस जैन संत ने जैन धर्म को पंजाब के मुक्तक रचनाएँ स्तवन सज्झाय "श्री चरित पूजा," "पंचतीर्थ गति भंग गाल मसूरी शय्या कुमति भारी।। श्रावक-श्राविकाओं तक पहुंचाने का जो गुरुतम कार्य-भार अपने पूजा," "पंच परमेष्ठी पूजा." "वल्लभ काव्य-सुधा' आदि में रंग राग लालटेन रे, उल्लोच मद ऐन। कंधों पर लिया उसे गुरुभक्ति के फरमान से मनसा, वाचा, संकलित है। प्रायः इनके सभी पद गेय हैं। सत्य तो यह है कि मोहनी मदिरा पान, नहीं शुद्धि सुमति सान।। कर्मणा पूर्ण करने के लिए वे रात-दिन लगे रहे। बालक छगन अन्तस्तल से निकली भक्त की गुहार ही तो प्रभु को रिझाती है। संत-महात्मा भविष्य द्रष्टा होते हैं। उनके उपदेश-वचन (प्रथम नाम) के मन में विरक्ति-भावना प्रारम्भ से ही संजोई हुई अतः इसके द्वारा रचित भक्ति-गीतादि प्रायः आत्मसमर्पण, त्रिकाल-व्यापी एवं चिरसत्य होते हैं। उनकी दृष्टि अनुभूति का थी। न्यायांभोनिधि श्री विजयानंद सूरि महाराज (आत्माराम)जी प्रभस्मरण (जिन भगवान्) की प्रेरणा से प्रेरित विनय, जागरण, अजन लगा कर इतनी पैनी हो जाती है कि भावी समाज की से दीक्षित होने तथा उनके पट्टधर होने का सौभाग्य प्राप्त कर श्री अनुराग एवं उपदेश के सहज उद्गार ही हैं। भगवान के दरबार कल्पना कर वे आने-वाली पीढ़ियों के लिए अपने वचनामृत के । विजय वल्लभ का अन्तर्मन अग्नि में तपे स्वर्ण के समान स्वच्छ में तो "भाव अनूठे चाहिएँ भाषा कैसी होय"-बाली उक्ति ही रूप में जीवन को ऊँचा उठाने की ऐसी अनेक उक्तियां उपलब्ध हैं एवं पवित्र हो गया। वैसे तो श्री वल्लभ जी के स्वरचित अनेक चरितार्थ होती है। जो न केवल जैन समाज के लिए ही अपितु सर्वसाधारण के लिए पद्यों में गुरु-स्मरण उपलब्ध है कित निम्नलिखित दोहे में भी अनुकरणीय है। उदाहरणार्थ एक प्रस्तुत है:गुरु-महिमा-गान, श्री गुरु महाराज को ज्ञान और क्रिया (कर्म) कूड़ा तोला कूड़ा मापा, कूड़ा लेख न करिये। मोह की रात्रि में प्रगाढ़ निन्द्रा के वशीभूत होकर आज का रूपी वृषभों द्वारा खींचे जा रहे रथ का सारथी मानते हुए किया गया है: मानव सो रहा है। उसे अज्ञान की नगरी में अपने गगनचुंबी और खोटे जन सुंवयण न माणे, मूठ गवाही न भरिये।। सर्वसुख-सामग्री-सम्पन्न महलों में प्रसाद के पलंग पर भोग कैसी विडम्बना है कि आज के युग में प्राणी अकेला ही धन का विलास का जीवन व्यतीत करते हुए आभास ही नहीं हो रहा है कि संचय करता है किंतु इस अपवित्र कमाई से सुखी रहता है उसका ज्ञान क्रिया बलिव रथ, शील सहस्त्र अठार। सवेरा होने जा रहा है। तृष्णा की तुलाई बिछाए और गर्व की परिवार। परन्तु जब उस पाप कर्म का कुफल भुगतना पड़ता है तो सारथी कर गुरु आतमा, वल्लभ मोक्ष पहुँचार।। रजाई ओढ़े राग-रंग की रोशनी में वह स्वप्न देखता हुआ सा उस पापकर्मी का साथ कोई नहीं देता। ऐसे अनमोल उपदेश दीक्षित होने के उपरान्त तप और साधना की कसौटी पर अपने जन्म को व्यर्थ गंवा रहा है। परन्तु गुरुदेव वल्लभ की कितनी सरल एवं सहज भाषा में संत कवि वल्लभ जी ने दिये हैं कसकर श्री बल्लभ जी का तन प्रकाशपुंज के समान दैदीप्यमान इस मोह-निन्द्रा को भंग करते हुए कहते हैं-"जाग, देख ज्ञान इसकी एक वानगी:हो गया। उनकी कवि-गिरा जैन भक्तों को भाव विभोर एवं रूपी भगवन्त सूर्य उदित हो गये हैं। अब अवसर है कि तू गुरु धन संचय पाप से, भोगत स्वजन समाज। गद्-गद करने के लिए जिन भगवान की लीला गाने लगी। इनकी भगवान की वाणी का अनुसरण कर अपना जन्म सुधार ले।" पाप भागी बब एकला, नहीं किसी को तस लाज। jain Education interme Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विजयवल्लभ सूरि जी महाराज -प्रो० रूपलाल वर्मा संसार की नश्वरता के बखान से ग्रन्थ-पुराण भरे पड़े हैं। सुविधा हो जायेगी। दर्शन शस्त्रों के इन दुर्बोध्य तत्वों को कितनी होरी खेले रे भविक मन थिर करके होरी।। कवियों ने लक्ष्मी चंचलता की भर्त्सना "पुरुष पुरातन की वधु, सरल एवं लोक भाषा में कवि वल्लभ जी ने अपने शब्दों में ढाला है भविक जन खेलने के अरथी, क्यों न चंचला होय" कह कर भी की है। किंतु इस मिट्टी की इसके लिए उनकी गागर में सागर भरने की कला सराहनीय है: निज गणं संग को लेकर के।। काया, लक्ष्मी और जवानी की चंचलता की तुलना भक्त कवि ज्ञान क्रिया रस्ता कहा, मुक्ति पुरी का सार। सील तनु सजी केसरी जामा, वल्लभ जी ने पीपल के पत्ते से तो की ही है, साथ में हाथ के चंचल इक लूला इक आंधला, पावे नहीं भव पार।। समता सन्मुख होकर के, कानों से भी करके सांसारिक प्राणियों को संदेश दिया है कि वे यह क्रिया और ज्ञान दो सुखकारा।। भावना शुभ पिचकारी डारो, सब कान खोलकर सुन लें तथा तन, धन और यौवन का गर्व न करें उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़कर शैवदर्शन से प्रभावित हिन्दी के समता रस से भर-भर के।। क्योंकि ये सभी चंचल हैं: ज्ञान रस और अबीर उड़ाओ, महाकवि जयशंकर प्रसाद की निम्नलिखित पंक्तियाँ बरबस कर्म उड़ाओ भवि रज कर के।। तन धन जीवन आऊखा, जैसा कपटी ध्यान। आ जाती हैं: मादल किरिया निज गुण गायो। चंचल पीपल पात जिम चंचल गज कान।। ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है आतम निज वल्लभ करके।। युगद्रष्टा वल्लभ जी ने भटकती हुई आज की युवा पीढ़ी को इच्छा क्यों पूरी हो मन की। ऊपर लिखित पद्य को पढ़कर गिरधर के रंग में रंगी प्रेम संदेश दिया कि विषयवासनाओं पर विजय प्राप्त करो, अन्यथा एक-दूसरे से न मिल सके दीवानी मीरा का निम्नलिखित पद सहज ही प्रत्येक साहित्य प्रेमी विनाश के गर्त में गिरने के लिए तैयार हो जाओ। इस बात को यह विडम्बना है जीवन की।। की जिहा से प्रस्फुटित हो उठेगाःसोदाहरण समझाते हुए उन्होंने कहाः सत्य भी यही है कि केवल ज्ञान की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी पर फागुन दिन चार रे होरी खेल मना रे, मीन शलभ मृग श्रृंग करी, इक इंद्री वस नास। चलकर आज के भौतिकवादी युग में संसार-यात्रा करना सील संतोख की केसर चोली प्रेमप्रीत पिचकारी। पोवे इन्त्री पांच को, क्या जाने क्या आस।। लूले-लंगड़े की तरह घिसटते रहने वाली बात है। उधर कर्म मार्ग उड़त गुलाल लाल भयो अंबार बरबस रंग अपार रे, इसी प्रकार की मानवीय त्रुटियों का आख्यान मात्र करना ही द्वारा विश्वासी होकर बिना ज्ञान के लकीर के फकीर बने रहने से घट के सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डर रे। कवि श्री वल्लभ का लक्ष्य नहीं था अपितु इन्द्रिय दमन का उपाय भी सत्य की अथवा परम तत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। ऐसी होरी खेल पिय घर आये सोई प्यारी पिय प्यार रे, बताते हुए उन्होंने कहाः दश में श्री वल्लभ जी के अनुसार जैसे लंगड़ा और अंधा यदि मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरण कंवल बलिहार रे।। चरण करण ऋज नम्रता, बहाचर्य गुण रंग। एक-दूसरे के पूरक हो जाएँ तो गन्तव्य तक पहुंच जाते हैं। ठीक ____ कवि श्री विजय वल्लभ जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। ज्ञान ध्यान हथियार से, करो मोह से जंग।। उसी प्रकार ज्ञान और कर्म दोनों को साथ-साथ अपना कर आज अपने सभी मतों अपने सभी मुक्तकों के साथ उन्होंने उनकी ताल-लय, अज्ञान सिमिर की उपाधि से विभूषित आचार्य प्रवर वल्लभ हम जीवन सुधार सकते हैं। राग-रागनी व तर्ज का उल्लेख किया है। इससे उनके संगीतप्रेमी जी ने मुक्ति प्राप्त करने के लिए ज्ञान और कर्म मार्गों को एक दूसरे भक्ति कवि-कवियित्रियों के त्योहार-पर्व, राग-रंग, सभी एवं संगीतकला पारंगत होने परिचय मिलता है। इतना ही नहीं का पूरक माना है। उनके मत में केवल ज्ञान लूला है और मात्र कर्म कुछ अपने इष्ट देव के गुणों की छाप लिये होते हैं। श्री वल्लभ वाद्य-यंत्रों का भी उन्हें पूर्ण ज्ञान था। एक शब्द चित्र में कुछ अधा। अतः इन दोनों मार्गों की सीमाओं को एकाकार करके यदि अपने श्री संघ की श्रावक-श्राविकाओं को किस प्रकार होली खेलने वाद्य-यंत्रों की ध्वनि को बांधने का सफल प्रयास उन्होंने मध्यवर्ती मार्ग को जिज्ञासु अपना ले तो भव सागर से पार उतने में के लिए देशना देते हैं-इसे उनकी वाणी में सुनिए:- निम्नलिखित पद्य में बड़े सुन्दर ढंग से किया है। नाद सौन्दर्य की For Prvate & Personal Use Only ___ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपना बना लो प्रभु इस काव्यमयी कृति को पढ़कर कोई भी संगीतज्ञ आचार्यप्रवर की भूरि-भूरि प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकेगा: वों त्रों त्रिकत्रिक वीणा बाजे, धौं धौं भप धुन ढक्कारी, दगड़ दंड दगड दंड दुंदुभि बाजे, ता थई ता थई जय जय कारी।। भाषा की दृष्टि से कवि श्री की कविता में तत्सम संस्कृत शब्दों, पंजाबी शब्दों, गुजराती शब्दों तथा उर्द की शब्दावली का सफल प्रयोग पाया जाता है। यत्रतत्र अंग्रेजी के प्रचलित शब्द भी मिल जाते हैं जैसे:तुम मूर्ति मुझ मन कैमरा, फोटू सम स्थिर एक विपल में। इसके अतिरिक्त श्री विजय वल्लभ जी ने सरल संस्कृत भाषा में भी गीत लिखकर जहाँ अपने संस्कृत ज्ञान का परिचय दिया है वहाँ इससे यह भी सिद्ध होता है कि वे बहुभाषाविद् तथा एक प्रकाण्ड विद्वान् थे। इनके रचे तीर्थंकरों के स्तवनों में इनके विस्तृत अध्ययन एवं ज्ञान की स्पष्ट झलक मिलती है। "श्री शान्तिनाथजिन स्तवन' शीर्षक से "कव्वाली" की तर्ज पर लिखी उनकी संस्कृत रचना की कुछ पंक्तियाँ प्रमाण स्वरूप यहाँ उद्धृत हैं: देवस्त्वमेव भगवन, जातं मयोति सम्यक, अन्यो न त्वत्समानो ज्ञातं मयेति सम्यक्।। देव०.... भत्तेभसिंहदलने शूरा न मारहनने कन्दर्पदर्पहरणे शूरस्त्वमेव सम्पक्।। देव०..... आत्मानमात्मना सह साम्यं कुरु ममार्हन्। देशातमलक्ष्मीहवं वल्लभदेव! सम्यक्।। इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि जैन संत कवि श्री विजय वल्लभ सूरि जी की काव्यतरंगिणी का अवगाहन करने वाला निश्चय ही जहाँ एक ओर आत्मज्ञान रूपी शीतलता एवं निर्मलता प्राप्त कर सकता है वहाँ उसे जैन-धर्म संबंधी विविध पूजा-अर्चना की विधि का ज्ञान भी सहजरूप में उपलब्ध हो जाता है। इस जैन संत का मुक्तक काव्य भगवान् तीर्थंकरों के स्तवनों का मुक्तागार तो है ही, साथ में उपदेश की बूंदों से भरा एक ऐसा अमृत-कलश है जिसके वचनामृत का पान तथा गानकर साधु-साध्वियाँ तथा श्रावक-श्राविकाएं अपनी ज्ञान-पिपासा शान्त कर सकती हैं एवं पुण्य लाभ प्राप्त कर सकती हैं। . प्रम मोहे अपना बनाना होगा बनाना होगा बनाना होगा प्रभ० शरणागत वत्सल में आया है शरणे सेवक निजानी निभाना होगा प्रभु० शरण न तुम बिन मोहे किसी का अब तो अपना कहना होगा प्रभु जला रहा है मोहे क्रोध वावानल मा-वर्षा से बुझाना होगा अनु० मान अहि, मोहे खाय रहा है नम्रता देके बचाना होगा प्रमु० माया प्रपंच मोहे उलझा रहा है देके सरलता छुड़ाना होगा प्रभु० लोभ-सागर में मैं डूब रहा हूँ सन्तोव नावा तिराना होगा प्रमु० काम, सुषट मेरे पीछे लगा है वे बह्मचर्य हटाना होगा प्रभु ज्ञाता के आगे अधिक क्या कहना आखिर पार लगाना होगा प्रभु० आतम लक्ष्मी सहर्ष मनाया वल्लभ अपना बनाना होगा प्र० आचार्य विजय वल्लभ सूरि Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्लभ की अमोघ शक्ति और भक्ति - प्रो. राम जैन "बल्लभ" यह नाम स्मरण आते ही मुझे तो ऐसा लगता है कि आत्मा का कर्मों के साथ अठारह दिन का महाभारत का युद्ध हो रहा है। पीला (केसरिया बाना पहने गुरुदेव न्यायाम्भोनिधि माधव का रूप धारण कर अपने पार्थ वल्लभ को समझा रहे हैं। हे वल्लभ । महाभारत का युद्ध अठारह दिन चला था। आत्मा और कर्मों का युद्ध भी अठारह दिन में समाप्त हो सकता है। क्योंकि मुख्य दोष भी तो अठारह ही हैं। यदि संयम और तप तथा ज्ञान की तीन अमोघ शक्तियाँ तेरे पास हैं तो कौरवों की अठारह पापों की महान अभिग्रहसेना अवश्य परास्त होगी। वल्लभ उठ, जाग, आत्मा का पुरुषार्थ जगा । - न्यायाम्भोनिधि-माधव ने फिर कहा- हे वल्लभ तू मेरा सर्वप्रिय शिष्य है। मैं तुझे एक अमोघ शक्ति देता हूँ। उसे हस्तगत कर कभी पराजय का मुख नहीं देखेगा। वह अमोघशक्ति है "सम्यग्ज्ञान" क्या मैंने तुझे पहले आगम का सन्देश नहीं सुनाया कि "पढभंणाणं तओ दया"। गीता का भी यही सन्देश है "ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मासात्कुरुतेऽर्जुनः । ज्ञानयोगवाला प्राणी (भक्त भगवान को सर्वाधिक प्रिय होता है। गीता में यह स्पष्ट उल्लेख है)। लिए राधनपुर दे दिया। वैराग्य की जो बेल बड़ौदा उपाश्रय में बोई गई, अश्रुजल से सींची गई, राधनपुरी में पल्लवित एवं पुष्पित हो गई। तभी से छगन का वल्लभ का वल्लभत्व प्रस्फुटित होता गया। सौरभ प्रसारित हो गया उस सौरभ ने सभी विश्वभ्रमरों को मोहित कर लिया उस समय की इतिहास पीठिका से जो दृष्य उपस्थित हुए वे प्रायः सर्वविदित हैं। बस फिर क्या था । महाभारत पानीपत में हुआ। यह महाभारत राधन पुरी में आरम्भ हुआ। क्योंकि अठारह दोष तो आराधना से ही परास्त हो सकते हैं। अतः प्रकृति ने अराधना के mocational महाराज श्री ने कल्याणकारी कार्यों की सिद्धि के लिए लगभग सात बार कठिन अभिग्रह धारण किये। आत्मा तप कर कंचन बन गई। तब मेरी दृष्टि उन्हें सच्चा स्थितप्रज्ञ मानने लगी। उनकी पारदर्शी दृष्टि इस दृष्टि ने ही हमें श्री समुद्रगुरु श्री इन्द्रसूरि महाराज दिये। जिन्होंने शासनोपकार कर उन्हीं की परिपाटी को अविच्छिन्न रखा। तुम्हारी मेहर जिस पर हो गई वह महान बन गया तुम्हारी नजर जिस पर पड़ी, गौरव बन गया। अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। इस मंगल प्रार्थना को गुरुदेव ने साकार किया। लगभग 200 ज्ञान संस्थाओं की उन्होंने स्थापना की। वे भारतीय उपमहाद्वीप के प्रकाश स्तम्भ बन गये। विद्धन्ता की प्रांजलता - अनके शास्त्रार्थ तथा अहमदाबाद साधु सम्मेलन इसके साक्षी हैं। चरित्राचार के चक्रवर्ती गुरुराज की संयम चादर पर कहीं भी दाग नहीं। वे श्री महावीर स्वामी की पद परम्परा पर 74 वें क्रम पर शोभायमान हैं। श्री विजया नन्द गुरुराज का साधु परिवार सबसे बड़ा है और उसमें "वल्लभ नाम सबका मुकुटमणि है।' " छगन तथा वल्लभगुरु, से दो प्यारे नाम, सुधा भरे दो पात्र हैं या अमृत के जाम। विश्व वल्लभ "नहि माने न सदृशं पवित्रमिह विद्यते" प्रसिद्ध तीन वल्लभ हुए पुष्टिमार्ग वैष्णव सम्प्रदाय के महान् हे वल्लभ ! रत्नत्रय में ज्ञान को मध्य में क्यों रखा है। क्योंकि ज्ञान भरिव को सम्बत्वारिच दगाता है। दर्शन को सम्यग्दर्शन असतो मा सद्गमय के प्रतीक नाचार्य परन्तु एक ही सम्प्रदाय के आधार। दूसरे बल्लभ भाई चरित्र बनाता है। अतः गुरुकुल बनाना, ज्ञानप्रसार करना, ज्ञान द्वारा शासन की ध्वजा फहराना। पटेल के कर्णधार परन्तु कूटनीति के भी अवतार। तीसरे वल्लभ गुरु विश्ववल्लभता के प्रत्यक्ष अवतार न मैं हिंदू हूँ, न बौद्ध जैन ईसाई) केवल शुद्ध निर्मल आत्मा, मौक्ष का राहगीर वास्तव ही शुद्ध निर्मल, मानवता के ही अवतार। विराटू में व्याप्त अनन्त, असीमित अपार्थिव दिव्याकार गुरुदेव । तुम्हें कोटि कोटि वंदना । ● गुरु की निष्ठा में लगभग 24 प्रतिष्ठा महोत्सव हुए। ज्ञान मंदिर, मन्दिर गुरु मन्दिर, अंजनशलाका आदि की गणना अपरिमित है। एक छोटे जीवन में इतने काम। आश्चर्य हैं इस कर्मवीरता पर गुरुवर । तेरे कार्य तेरे ही उपमान। पाकिस्तान में संघरक्षक वह कौन सा करिश्मा था कि खूँखारों के हाथ काँपे । हिले खंजर हुए जर्जर, कि भाले साथ साथ काँपे । जैन के एक तवांर ने जालिमों के जुल्म रोके। कि इस रूहानी ताकत से, लाख जल्लाद थे कांपे। वल्लभ स्मारक का एक पाषाण तुम्हारा इतिहास वर्णन करेगा। तुम्हारा उपकार ईथर बनकर आकाश में फैल जायेगा। 53 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 गुरु बल्लभ और संक्रान्ति महोत्सव रघुवीर कुमार जैन गुरू आत्माराम महाराज की सेवा में पहुंच कर असीम ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा को उद्धृत किया और ज्ञान के विशाल कोश के गुरू चरणों में स्थिर रहकर पाने की चेष्टा प्रकट की प्रार्थना की। जिससे आत्म कल्याण हो सके। आत्मसाधना हो सके। समाज को सच्चा ज्ञान दे सके। सच्ची राह दिखा सके और भवसागर से पार हो सके। लेख क्यों लिखे जाते हैं, लेख लिखने का तात्पर्य क्या होता है, लेखों का लेख माला में क्यों पिरोया जाता है। क्यों संजोया जाता है। क्यों स्मारिकाओं में प्रकाशित किया जाता है। सिर्फ इसलिये, ताकि लेखों के माध्यम से तीर्थों (चाहे स्थावर तीर्थ हो या जंगम तीर्थ) का इतिहास एवं महिमा की तस्वीर सामने आ सके, तीर्थंकर भगवन्तों के गुणों एवं उपकारों की गाथा का बखान किया जा सके। महापुरुषों एवं उपकारी सद्गुरुओं की जीवन झांकी, उनके समाज के प्रति कृत्यों उनके सचरित्र पर प्रकाश डाला जा सके। जिससे उन द्वारा दर्शाये मार्ग पर चलने की प्रेरणा समाज को मिलती रहे, उनके विचारों से कुछ प्राप्त किया जा सके, कुछ ग्रहण किया जा सके। जैन जगत में एक ऐसे ही युग पुरुष के गुणों का प्रसार जिनका जीवन सरिता के समान आरम्भ में लघु, फिर विराट और अन्त में असीम और अनन्त हो गया, देखने में आया, पढ़ने में आया, लेखों के माध्यम से लिखने में स्तुति करने में आया। जिन्होंने समाज को नवीन दिशा, नवीन चेतना, नवीन विचार, नवीन चिन्तन और नवीन संदेशों की अनुभूति कराई। ऐसे उस युग पुरुष, महान विभूति का नाम था "विजयवल्लभ सूरीश्वर"। जिन का जन्म संवत् 1927 कार्तिक शुदी द्वितीया के पावन दिवस बड़ौदा नगरी में हुआ। माता इच्छाबाई और पिता दीपचन्द जी बालक का नाम रखा "छगन"। ने द्वितीया का चांद किस प्रकार बढ़ता पूर्णिमा की सम्पूर्ण कलाओं से विकसित ही संसार को शीतलता एवं चांदनी प्रदान करता है और रात के अंधेरे में भटके जीवों को राह दिखाता है। उसी प्रकार द्वितीया को जन्म लेकर कुमार छगन ने माता पिता के वियोग से खिन्न हो कर विश्व की क्षणभंगुरता एवं असारता को परखकर, जानकर आत्मधन की खोज में बड़ौदा में ही जैनाचार्य गुरू आत्मा राज जी ने बालक के ज्ञान गर्भित विचारों एवं उत्कृष्ट ज्ञान पिपासा को अपनी अंतर्दृष्टि से भांप कर संवत् 1944 में भागवती दीक्षा दे छगन का उद्धार किया और मुनि वल्लभ विजय जी महाराज के नाम की उद्घोषणा पर शास्त्राध्ययन के लिये अपनी निश्रा में आश्रय दिया। शास्त्राध्ययन एवं गुरूचरण सेवा से परिष्कृत हो वल्लभ विजय जी का जीवन साधना की भट्ठी में तप पर और निखर गया और समाज के सामने उभरने लगा। न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य श्री आत्मारामजी महाराज ने सुयोग्य ज्ञानवान, शुद्ध विचारक दूरदर्शी, प्रज्ञा वाले अपने प्रशिष्य विजय वल्लभ सूरीश्वर जी को अपना पट्टधर बना समस्त जैन जगत विशेषतया पंजाब की भूमि पर सत्य, अहिंसा, सदाचार एवं मूर्तिपूजा का बीजारोपण कर पंजाब के जैन भाइयों की रक्षा एवं उनके उद्धार के लिये प्रशस्त किया और उनके उत्थान के लिये आदेश दिया। आचार्य विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज ने गुरू देव के आदेशों को शिशोधार्य कर समाज की स्थिति को परखने हेतु, समाज की उठी आवाज को सुनने की खातिर पंजाब, मारवाड़, राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात एवं सौराष्ट्र के ग्राम ग्राम विहार कर समाज की रीढ़ की हड्डी मध्यवर्ग पर दृष्टिपात किया और जाना कि जब तक मध्यवर्ग का उद्धार न होगा जब तक इसको खाने की रोटी, पहनने को कपड़ा और रहने को मकान न होगा, समाज उन्नत नहीं हो सकेगा। इसके लिये दृढ़ संकल्प किये। आत्मानन्द जैन महासभा के माध्यम से पंजाब में बढ़ रही सामाजिक कुरीतियों की रोकथाम की जिसके अन्तर्गत मध्यवर्ग पिस रहा था। बम्बई जाकर 5 लाख की धनराशि मध्यवर्ग की सहायतार्थ एकत्र की और उनकी स्थिति को उभारा। जगह-जगह मध्यवर्ग के उत्थान के लिये प्रचार करते रहे। आचार्य विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज बाल्यावस्था से ही ज्ञानोपार्जन में रुचि रखते थे। शस्त्राध्ययन कर समाज को ज्ञानप्रकाश देते हुए ज्ञान की ज्योति जलाई उनका एक ही ध्येय था कि समाज में कोई बच्चा, किशोर अनपढ़ न हो इसके लिये जीवनभर प्रयास किया। और शिक्षा प्रसार के लिये बम्बई में श्री महावीर विद्यालय, पंजाब में गुरूकुल, कालिज, एवं शिक्षालय, राजस्थान में बालाश्रम आदि जगह-जगह सरस्वती मन्दिरों की स्थापना की। इसके लिये कई कष्ट सहने पड़े। कई बाधाओं से जूझना पड़ा, "कई विरोध सामने आये। कई प्रण करने पड़े। पर अपने लक्ष्य पर डटे रहे। अपने संकल्प में पूरे उतर कर जैन यूनिवर्सिटी के लिये विचार व्यक्त किया। जैन संस्कृति को कायम रखने हेतु जगह-जगह नवीन जिन मन्दिरों का निर्माण कराया। पंजाब में जहां मूर्तिपूजा लुप्त हो चुकी थी स्थान-स्थान पर हर क्षेत्र में जिन मन्दिरों का निर्माण करा जैन समाज का कल्याण किया और प्रभु मूर्ति, प्रभु पूजा, प्रभु दर्शन में आस्था को बढ़ावा दिया। आचार्य विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज ने न केवल जैन जगत का कल्याण करने हेतु देश के कोने कोने में भ्रमण किया बल्कि समस्त मानवजाति के कल्याण के लिये जनता को जगाया। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश की स्वतन्त्रता और स्वदेशी खादी को अपनाने (जिस को पहनने का जीवन पर्यन्त, प्रण लिया) और विदेशी कपड़े एवं लाडोरानी जैन, वस्तओं के बहिष्कार के लिये जनता को न उत्साहित किया। संक्रान्ति महोत्सव कैसे भूले हम उन गुरुओं के उपकारों को जिन्होंने समाज में पैदा होंगे। भगवान के सामने जाकर बैठेंगे तो भगवान के वैराग्य क्रान्ति लाकर एक सच्ची राह पर चलकर सच्चा रास्ता अपनाया। का ही ध्यान आवेगा। भगवान ने कितने-कितने कष्ट सहे। मोक्ष आज से लगभग 48 वर्ष पूर्व गुजरांवाला के एक सुथावक अपना कल्याण तो किया ही मगर उन्होंने जनता का भी कल्याण मिलना कोई आसान नहीं मन में फिर भगवान के लिए श्रद्धा पैदा ला० छोटे लाल जी (ला० माणेक चन्द छोटे लाल) की विनती पर किया। धर्म का जो बीज पंजाब में उन्होंने बोया था, उसी का हम होती है और मस्तक अपने आप झुक जाता है। यह सब हमारे पूज्य आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरीश्वर जी महाराज ने संक्राति (जो फल ले रहे हैं। क्या-क्या कठिनाइयाँ सही थी। गुरु आत्माराम जी महाराज के बोये बीज का फल है। देसी माह की पहली तिथि को कहते हैं) जिस दिन सूर्य एक राशि से दुसरी राशि में प्रवेश करते है, का प्रकाश प्रारम्भ किया। । जैसे एक माली जमीन को तैयार करने में कितनी मेहनत वल्लभ सूरीश्वर महाराज जी ने धर्म का खूब डंका बजाया करता जमीन खोदता है खाद मिलाकर जमीन तैयार करता है, और अपने गुरु का नाम चमकाया। गुरु वल्लभ निडर गुरूदेव ने अपनी दिग्दृष्टि में देखा कि यह संक्राति, जिस का बीज डालता है पानी देता है। रोज पानी देता है। हर रोज पानी क्रान्तिकारी थे जिस वक्त गुरु महाराज ने लाऊडस्पीकर पर भले ही आज चन्द महानुभाव लाभ ले रहे हैं परन्तु आगे चल कर देना फिर उसकी रखवाली करता है कहीं उसके डाले बीज को व्याख्यान दिया तो जैन समाज में हलचल मच गई। साधु साध्वियों यह एक महोत्सव का रूप लेगी। इस महोत्सव के माध्यम से कोई रोंद ना दे फिर उस जमीन में अंकुर फूटते हैं और उसकी ने घोर विरोध किया मगर गुरु महाराज किसी से डरते नहीं थे वह समाज को बहुत लाभ मिल सकता है। समाज के अधूरे कार्य इस रखवाली के लिये माली को तैयार करता है। इसी प्रकार गुरु आने वाले कल की सोचा करते थे। कोई भी साध्वी जी महाराज संक्रान्ति के माध्यम से परिपूर्ण हो सकेंगे और नई योजनाएं जो महाराज ने भी सोये जैनियों को उठाया समझाया, उन्हें तैयार पाट पर बैठ कर व्याख्यान नहीं दे सकते थे ऐसी ही परम्परा थी। समाज के हर वर्ग के लिये हर क्षेत्र के लिये उपयोगी होगी प्रारम्भ किया क्रान्ति लायें। ऐसा बीज बोया जो कि आज है वहीं बीज एक मगर गुरु वल्लभ सूरि जी ने साध्वी महत्तरा श्री मृगावती को हो सकेंगी। गुरूदर्शनों, जिससे समाज काफी देर तक बंचित रहता बड़ वृक्ष बन कर आपके सामने है। फिर माली भी ऐसे तैयार किए आदेश दिया कि पाट कर बैठकर व्याख्यान करो। वह भी गुरु की था, के लाभ के साथ साथ गुरूवाणी का श्रवण कर जीव अपने जो कि बड़ वृक्ष की छाया में जनता को बढ़ाते रहें उनकी तरह निडर थे उन्होंने पाट कर बैठकर व्याख्यान दिया गुरु आप को पावन बना सकेगा। तीर्थयात्रा का लाभ मिल सकेगा। शाखाओं को भी सींचा। अगर माली बीज को बहुत होशियारी से महाराज फरमाते थे कि स्त्री में बहुत भारी शक्ति है। उसी शक्ति आत्मगुरू के पट्ट के रखवाले गुरूदेवों से वासक्षेप रूपी | डालता है तो ही वह बीज एक बहुत बड़ा पेड़ बन जाता है। इसी को महत्तराजी ने दिखा दिया स्त्री भी किसी से कम नहीं है। आज आर्शीवाद प्राप्त कर कुछ फंड में डालकर जीव आध्यात्कि, प्रकार हमारे गुरु न्यायम्भोनिधी जैनाचार्य विजयानन्द सूरीश्वर हमारी साध्वी वर्ग (स्त्री वर्ग) का गर्व से सिर ऊंचा हो गया है। सामाजिक, व्यवहारिक, एवं धार्मिक एवं धार्मिक क्षेत्र में सफलता जी महाराज ने जगह-जगह शहर-शहर, गाँव-गाँव, घर-घर अपने गुरु का ऐसा विशाल स्मारक बनवाना कोई मामूली बात की चोटी पर पहुंच सकेगा। और इसी वासक्षेप फंड से विधवाओं, घूम कर नसों में धर्म की लहर का जोश भरा। जनता में क्रान्ति नहीं है। अबलाओं, बेसहारा और शिक्षार्थियों को सहायता मिल सेगी। लाए सोई जनता को जगाया कितने दूरदर्शी थे। उन्होंने गुरु समुद्र सूरीश्वर जी महाराज ने शान्त स्वाभावी रोबदार आपसी मेल मिलाप से सभी सम्प्रदाय जैन, जैनेत्तर एवं प्रांतीय शहर-शहर में मन्दिर बनवाये और अपने माली विजय वल्लभ आज्ञा जब महत्तराजी को दी कि अब गुरु के उपकार के उऋण समाज एकता के सूत्र में बंध जायेगी। सूरीश्वर जी महाराज को कहा कि तुम सरस्वती मन्दिर बनवाना, होने का मौका है उनके नाम को चार चांद लगा दो। स्मारक के इसी दृष्टिकोण से आचार्य देव ने संक्रान्ति महोत्सव का | स्कूल खुलवाना, कालेज खुलवाना, गुरुकुल बनवाना उनकी रक्षा काम में महत्तरा जी जुट गये। उसी स्मारक की प्रतिष्ठा करवाने संचालन किया और समाज को एक बहत बड़ी उपलिब्ध प्रदान के लिये माली भी तैयार करना। गुरु वल्लभ चाहते थे कि समाज आचार्य श्री समद्र सूरीश्वर जी महाराज के पद्रधर गच्छाधिपति को कोई बच्चा शिक्षा विहीन न रहे इसके लिये गुरु वल्लभ ने श्री विजेन्द्र सरिजी महाराज अपने छोटे-छोटे शिष्यों को लेकर गुरू विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज ने 84 वर्ष की दीर्घ । | मीठा छोड़ा, चावल छोड़ा, दूध छोड़ा, और ना मालूम किस-किस उग्र गर्मी में कठिन विहार कर गुरु के स्मारक पर पधारे। विशाल अवस्था तक समाज के सातों क्षेत्रों का सींचन करने हेतु सभी का | चीज का त्याग किया। जब कोई शिक्षा लेगा तो पता चलेगा कि प्रतिमा के दर्शन किये फिर धन्य हो गये। हमारे ऊपर कितने ध्यान आकर्षित किया और समाज में नई चेतना डाली। जिससे हर मन्दिर किस लिए बनाय जात ह। उपकार किये है सभी गुरु महाराजों ने। आज महत्तराजी होते तो पहलू में समाज को जागृति मिली। गरूदेव ने समाज के लिये कई ____बह यह जान सकें कि धर्म क्या है मन्दिर में क्यों जाना फूले नहीं समाते उनके किये कार्य को सराहने वाले उनके गुरु काय किये परन्तु कहीं भी अपना नाम नहीं दिया। हर संस्था गरू । चाहिए। मन्दिर जी में बैठे कर शुद्ध भाव पैदा होते हैं, कहावत है पधारे हैं। मगर विधाता को तो कुछ और ही मंजूर था यद्यपि के नाम से ही प्रचलित की। और गुरू के पैगाम को भुला कर हर | जैसा बोईये, वैसा पाइये, जैसे में बैठेंगे वैसे ही बनेंगे। अगर हम महत्तरा मृगावती जी महाराज नहीं रहे किन्तु सब साधु साध्वी Smm वक्त जस का प्रचार किया। . मन्दिर जी में जाकर बैठेंगे तो हमारा मन शुद्ध होगा शुद्ध भाव भाई-बहन स्मारक को देख कर गद्-गद् हो रहे हैं। .. mod की। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 श्रद्धांजलि गीत गुरुदेव का चमत्कार घनश्याम जैन रतन चंद जैन (गुरुभक्त संगीतकार लाला घनश्याम जी के यों तो कई गीत (प्रस्तुत संस्मरण गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ अच्छा न होगा कि हम उनके पास चलें। लाला शांतिस्वरूप जी गुरुप्रेमियों की जबान पर हैं किन्तु प्रस्तुत गीत सर्वाधिक सूरीश्वर जी म.सा. के जीवन काल की उस चमत्कारिक घटना से महाराज साहब के पास जाकर बैठ गए। महाराज श्री सो रहे थे सामयिक मार्मिक एवं प्रसिद्ध है जिसे उन्होंने बम्बई के आजाद जुड़ा है जो समस्त गुरु भक्तों को एक कहानी के रूप में ज्ञात है। जब करवट बदली तो बोले कौन है। शांति स्वरूप जी ने सारी मैदान में पूज्य गुरुदेव विजय वल्लभ सूरि जी म.सा. के उस घटना के भुक्त भोगी लाला घनश्याम जी हैं और उसका घटना बताई और कहा कि हम इनके माता-पिता को क्या उत्तर स्वर्गारोहण के बाद आयोजित विशाल श्रद्धांजलि सभा में गाया वर्णन प्रत्यक्षदर्शी लाला श्री रतनचंद जी जैन कर रहे हैं।) देंगे। घनश्याम जी पहली बार ही महाराज साहब के दर्शनों के था)-सम्पादक -सम्पादक लिए गए थे। महाराजजी उठकर बैठ गए और कुछ क्षण ध्यान यह सन् 1949 की बात है। आचार्य विजय वल्लभ सूरि जी लगाकर वासक्षेप दिया और कहा-"इसमें से कुछ सिर पर व कुछ जाएं तो जाएं कहाँ ? गुरु दर्शन बिना चैन नहीं, महाराज साहब की चातुर्मास पालीताणा में था। हम सब मित्र मुंह में डाल दें, जो गुरु महाराज करेंगे ठीक होगा।" तेरे बिना कौन यहाँ? ज्येष्ठ शुदि अष्टमी को विजयान्द सूरि जी महाराज की वासक्षेप लाकर घनश्याम जी के सिर पर और मुंह में डाल दिया गया और आश्चर्य की बात कि घनश्याम भाई के शरीर में स्वर्गारोहण तिथि मनाने गए हुए थे। वहां अचानक जो घटना गुजरात से मिला था लाल यह प्यारा पंजाबियों की आंखों का तारा। हमारे सामने घटी उसे मैं रतन चंद अर्ज कर रहा हूँ। हलचल होने लगी। हम लोगों में भी उस गमगीन माहौल में एक खुशी की लहर दौड़ गई। गुरुदेव की ऐसी मेहरबानी देख मस्तक समारोह के पश्चात् लाला रतनचंद बरड़ जो नाहर बिल्डिंग कहाँ है वो देव महान? आप ही आप झुक गया आँखों में खुशी के आंसू आ गए। हमने | में रहते थे। उन्होंने अपने यहाँ चल कर दूध पीने का आग्रह किया आतम रुठे वल्लभ रुठे, जैन धर्म के दो मोती लूटे उस समय लगभग 11.30 बजे थे। हम सब मित्र उनके यहाँ जाने तुरंत डाक्टर से कहा कि इसमें तो अभी प्राण बाकी है आप वीर हमारा कौन यहाँ?.. लगे। रास्ते में मारवाड़ी धर्मशाला बन रही थी और बहुत कोशिश कीजिए। वह उनको आपरेशन थियेटर में ले गया जहाँ वल्लभ गरु तेरा नाम है प्यारा, तम बिन मेरा कौन सहारा कूड़ा-कचरा बिखरा हुआ था। उस समय हल्की बूंदा-बांदी हो उनको उल्टी हुई इस पर डाक्टर ने कहा कि अब कोई खतरा नहीं तुम ही तो थे देव महान। . रही थी। उस ढेर में एक साँप बैठा था। घनश्याम भाई का पांव है। थोड़ी ही देर पश्चात् उनको होश आ गया। आतम के थे तुम दीवाने, वल्लभ के हैं हम परवाने कड़े के ढेर पर पड़ा और उस सांप ने डस लिया घनश्याम रोने जब तक घनश्याम भाई बेहोश थे हमारे प्राण अधर में लटके ढूढ़े कहाँ और जाए कहाँ।... लगा। मैंने कहा-भाई हमें रोकर मत डराओ. चलो डाक्टर के रहे उनके होश में आते ही सारी चिंता दूर हो गई। हमने घनश्याम छोड़ गए हमें वल्लभ प्यारे, अब हम जियें किसके सहारे? पास चलते हैं मैंने टांग का ऊपर का हिस्सा कस कर रुमाल से भाई से पूछा-"क्या आप अस्पताल में रहेंगे या गुरु महाराज के किसको सुनाएं गमे दास्तां।. बांध दिया ताकि जहर ऊपर न चढ़े, और हम मित्र उनको पास चलेंगे।" उन्होंने कहा-"मैं अब बिल्कुल ठीक है मैं गुरु किसको सुनाएं गम का फसाना, याद में रोए सारा जमाना, उठाकर अस्पताल की तरफ ले चले। डाक्टर ने अपना इलाज चरणों में ही रहूँगा।" बरबाद है अब सारा जहां।।... करने के बाद अपनी असमर्थता जाहिर की कि अब कुछ नहीं हो सुबह घनश्याम भाई का पांव सूजा हुआ था जरा सा भी छूने वल्लभ आओ वल्लभ आओ, इक बार फिर दर्श दिखाओ। सकता और उन्हें बरामदे में डाल दिया। बाहर बहुत लोग इकट्ठे पर चिल्लाते थे। हमने पूछा कि क्या आप दादा के दरबार में तुम थे यहाँ और हम थे वहाँ।।... हो गए थे। किसी ने कहा कि यहाँ से लगभग 20 मील की दूरी पर चलोगे तो उन्होंने कहा कि अवश्य चलूँगा। हमने डोली की और जब तक सूरज चांद सितारे, अमर रहोगे वल्लभ प्यारे। सांई बाबा है उन्हें ले जाकर दिखाओ वह जहर उतार देगा। हमने उसमें उनको बिठा कर ऊपर ले गए। उसके बाद घनश्याम भाई घनश्याम को ले लो अपने वहाँ।... श्री फूलचन्द तम्बोली की गाड़ी निकलवाई तो इतने में ध्यान दो तीन साल तक अस्वस्थ रहे परन्तु गुरुनाम को जपते रहे और आया कि जब हमारा साई बाबा यहाँ उपस्थित है तो क्या यह स्वस्थ हो गए।. www.jainelibrary.orm Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवता के प्रेरक बल्लभ को हम सभी जानते हैं। जिन्होंने जनता के हित के लिए बड़ी सुंदर और सरल तथा मधुर वाणी से प्रभु महावीर की वाणी को जन-जन तक पहुंचाया। कई जीवों को संशय रहित किया, -खरतरगच्छीय मुनिश्री जयानन्द प्राणिमात्र के प्रति ऐसा वात्सल्य बरसाया कि जो व्यक्ति एक बार सन्त हृदय नवनीत समाना, कहा कबिन पै कहा न जाना। भला यदि कोई आदमी आकृति से मनुष्य है मगर उसके कर्म उन्हें देख लेता था वह उन्हीं का बन जाता था।अपनी नजरों में ही निज संताप दवै नवनीता, पर दुःख द्रवहि सुसन्त पुनीता।। पश से भी हीन हैं तो उसे मानव कौन कहेगा? वह तो एक तरह का नहीं, दिल में बसा लेता था। उनकी वाणी का जाद तो हर किसी को उनका दीवाना बना देता था। संसार के ताप से संतृप्त हुआ महापुरुष यह नहीं कहते हैं कि ऐसे चलो, इस प्रकार कर्त्तव्य दानव है, असम्ब और असंस्कृत है। जब तक हमारे भीतर, मानव व्यक्ति उनकी गंभीर मखमुद्रा देखकर शान्त हो जाता था। और पालन करो बल्कि, स्वयं कर्तव्य पालन कर आर्दश प्रस्तुत करते आकृति में सदाचार की प्रकृति प्रगट नहीं होगी, तब तक हमारा शान्ति का अनुभव करता था। हैं, जिसका अवलोकन कर समाज उस ओर अपने कदमों को जन्म सार्थक नहीं होगा। मनुष्य जन्म यदि सार्थक करना है तो प्रत्येक आत्मा के साथ आत्मीयतापूर्वक व्यवहार करना बढ़ाने लग जाता है। ऐसे वीर पुरुष आचार्य श्री विजय वल्लभ हमारे भीतर मनुष्यत्व का भी होना जरूरी है। इस प्रकार आचार्य सूरि थे। जिन्होंने अपने आचरण और उपदेशों से समाज का श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी. म. सा. ने मानव जाति को उनका असाधारण गुण था। नीचे गिरते को ऊपर उठाना किसी मार्गदर्शन किया। मार्ग बताया। विरले का ही काम है। जब ऊपर उठते हुए को नीचे गिराने में हर आचार्या श्री जी ने जन-जन में प्रेम एकता तथा सदाचार का कोई साथ देता है। उन्होंने अपने जीवन में सबसे अधिक महत्व आशा का दीपक कभी बुझने न दें अन्यथा जीवन भटक दिया था साधर्मिक भक्ति को। साधर्मिक सुखी होगा तो देव और जाएगा यदि इच्छा आशा निरंतर मन में दुहराये जायें, उन्हें दढ खूब प्रचार किया। अपने जीवन में साधर्मी भाइयों के उत्कर्ष के गुरु की भक्ति प्रेम से कर सकेगा। क्योंकि मानव को सुख में ही बलवती और पृष्ट बनाने की प्रतिक्रिया जारी रहे तो मनुष्य के लिए अथक प्रयत्न किया। जगह-जगह विद्यालय एवं धार्मिक प्रभु भजन करने का आनंद आता है और चित्त की एकाग्रता सुख व्यक्तित्व को उसकी कार्य करने की शक्ति,बल मिलेगा, अपना पाठशालाएँ खुलवाकर शिक्षा का बहुत प्रचार किया। के समय में ही होती है। दुःख में प्रभ का स्मरण होना स्वाभाविक है उद्देश्य प्राप्त करने में सफलता मिलेगी। मन में कभी श्री "वल्लभ स्मारक' आपकी भावना के अनुसार आपका लेकिन चित्त की स्थिरता मुश्किल है। हीन-भावना नहीं आने पाए। मन कभी पतन की ओर न जाय, कार्य आगे बढ़ाने में दिनो-दिन उन्नति के शिखर पर पहुँच रहा है, उसे ऊँचे आदर्शों की ओर ले जाकर उदान्त भावनाओं से मुक्त जिससे जैन समाज को सही दिशा प्राप्त होगी। प्रत्येक जीव के प्रति उनकी उदारता, विशालता और प्रेम रखना चाहिए। मन में सदैव यह दढ़ निश्चय होना चाहिए कि मैं की भावना बड़ी सराहनीय हैं। लक्ष्य की ओर बढ़ता जा रहा हूँ निरन्तर उन्नति के पथ पर आज का मानव दुनिया की पदार्थों की ममता के कारण अग्रसर हो रहा हूँ। यदि अपना कार्य पूर्ण होता न दिखाई दे तो उसे अपने आप को भूलता चला जा रहा है और अल्पसुख में रचा-पचा छोड़ना नहीं चाहिए, देखना यह चाहिए कि कार्य साकार करने के जा रहा है। इसी कारण वह दःखी और अशांत होकर बरबाद हो प्रयत्न में क्या त्रुटि, क्या कमी रह गई है, उस ओर ध्यान देना रहा है। फिर भी अजान और मोह के वश होकर अपने अपराध चाहिए। उन त्रुटियों को दूर करते ही सफलता हमारे चरण और भूलों को भूलता चला जा रहा है।ऐसे मानवों को सुधारने के चूमेगी। - सा० प्रमोद श्री लिए अध्यात्म ज्ञान के जानकार अध्यात्म निष्ठ उत्तम साधु, आचार्य श्री विजय वल्लभ सरिम.सा. ने अपने साधक जीवन धर्म के पालक, आत्मज्ञान रूपी बगीचे में हमेशा रमण करने वाले को साधा एवं जन-जन में वीर वाणी की गूंज फैलाई। धर्मज्ञ : धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः। विजयवल्लभ एक ही थे। मनुष्य जीवन पाना दुर्लभ है। वह बड़े ही परिश्रम से प्राप्त सत्वे य: सर्वशास्त्रार्थेदेशको गुरुरुच्यते।। गुरु की अमरता के संदेशों का और उसके परमपावन पवित्र होता है। गुलाब का फल कितना संघर्ष करके कितनी निश्चिन्तता गुणों का वर्णन करना मेरे जैसे साधारण व्यक्ति का कार्य नहीं है। से खिलता है और पता नहीं किस समय वह मुरझा जाएगा। फूल जो धर्म को जानने वाला हो, धर्म करता हो, सदा धर्म में वे तो असाधारण पण्यात्मा थे। असाधारणता उसी की होती है जो खिला है तो मुरझायेगा ही, मगर मुरझाने से पहले हमें फल की तत्पर रहता हो और प्राणियों को सर्व शास्त्रों का उपदेश देता हो खुद जगत को जीना सिखाये। वल्लभ गरु ने जगत को जीना खुशबू तो लेनी चाहिए, फल का मधुपान तो कर लेना चाहिए। उसे गुरू कहा जाता है। सिखाया, निडर बन कर। अपने जीवन में उन्होंने कभी स्वयं के मनुष्यत्व और मनुष्य जन्म के लिए संघर्ष कर मानव को जीवन गुरु वल्लभ में इन सभी का समावेश था। उस हरी भरी नाम की ख्याति नहीं चाही किन्तु जहां-तहां स्वयं काम करवा कर सफल बनाना चाहिए। और धर्म से सुसज्जित गुजरात की धरती के लाडले गुरू विजय आतम गुरू का नाम रोशन किया। दुःखियों का मसीहा 0 For Private the Only www.jainelibrary.orm Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु वल्लभ के तीन उपदेश साध्वी अमित गुणा श्री वन्दना -रमेश पंवार भिन्न-भिन्न युगों में जिन शासन में अनेक धुरंधर जैनाचार्य शिक्षा की महत्ता बताई। गुरुदेव के इस पुनीत स्मारक उद्घाटन हुए। जिससे आज तक जिनशासन जयवंत है। आचार्यों की उस अवसर पर हमें इस ओर ध्यान देना नितांत आवश्यक है। महान परम्परा में पंजाबकेशरी युगदिवाकर आचार्य श्री विजय गरुदेव ने एक बार ज्ञान मन्दिर का उद्घाटन करते हुए कहा विश्व की बगिया में। वल्लभ सूरिश्वर भी हए। जिन्होंने समाज उत्थान में अपना था"डिब्बे में बन्द ज्ञान द्रव्यश्रुत है, जब यह आत्मा में प्रादुर्भूत हो मुस्कराते फूल हों।। महान योगदान दिया। समाज व शासन को उनकी अनेकों महान तभी भावश्रत बनता है। बिजली का कार्य रोशनी का है। प्रकाश न किसी से बैर हो। देन है। उन्होंने शासन सेवा में अपनातन - मन सर्वस्व समर्पित का है। शिक्षा भी जीवन में रोशनी और चमक लाती है। शिक्षा सत्य-शील व्यवहार हो।। कर दिया। जीवन की अन्तिम सांस तक वे इस कार्य में जुटे रहे। और ज्ञान से जीवन में विकास सम्भव है।" मानवता के वास से। आर्चाश्री के जीवन के प्रमुख तीन आदर्श थे। जीवन के ये तीन अंग थे। तृतीय आदर्श था मध्यम वर्ग का उत्कर्ष। इस बात की ओर फूलों का उद्धार हो।। भी पूज्य गुरुदेव ने समाज का ध्यानाकर्षित किया। वे कहा करते प्रथम आदर्श था। आत्मसंन्यास, आत्मसाधना, इस लक्ष्य के सुमनों की गंगा में थे- दस हजार रुपये खर्च करके एक दिन का जीमन देने की बिना आत्मोन्नति संभव नहीं और स्वयं का उत्थान नहीं कर अपेक्षा उन्हीं दस हजार रुपयों से अनेकों परिवारों को सुखी मानवता संचार हो।। सकता, वह दूसरों का क्या कल्याण कर सकता है। कहा भी गया है। बनाना उत्तम कार्य है। सच्ची स्वामी भक्ति यही है कि हम उन्हें सद्गुरु की प्रेरणा से। कि "तिन्नाणं तारयाणं, जो स्वयं तैर सकता है, वहीं दूसरों को अपने पांव पर खड़ा करें। दूर अंधकार हो।। तिरा सकता है। उन्होंने स्व पर कार्याणि साधनोति इति साधः की । धर्म के आचरण से। उक्ति को पूर्णरूप से चरितार्थ किया। सात क्षेत्रों के श्रावक और श्राविका ही मुख्य आधार स्तम्भ शान्ति का प्रचार हो। दूसरा आदर्श था। ज्ञान प्रचार-शिक्षा प्रचार। उनका कथन है। इनकी अपेक्षा मानो सभी की उपेक्षा है। इन क्षेत्रों की पुष्टि है, था कि शिक्षा के अभाव में जीवन शून्यमय है। शिक्षा के बिना यदि इनको पोषण न मिला तो यह हरे-भरे कैसे रह पायेंगे। अतः सुख, शान्ति, आनन्दमयी। जीवन ज्ञानालोक की उपलब्धि नहीं कर सकता। अज्ञान अंधकार आज की महती आवश्यकता यही है कि हम इनको अधिकाधिक जन-मानस के कर्म हों।। है, जबकि ज्ञान प्रकाश है। ज्ञान स्वतः प्रकाशमान है. उसे अन्य प्रयत्न कर पुष्ट करें, इसकी पुष्टि से अन्य क्षेत्रों को सहज ही बल तेरे ही सब हों। प्रकाश की आवश्यकता नहीं है। अतः ज्ञान का प्रकाश सर्य के मिलेगा, वे सहजता से बलवान व फलवान बनेंगे। सब के तुम हो।। प्रकाश से भी श्रेष्ठ है। वल्लभ स्मारक उनकी महानता का जीवंत प्रतीक है। महान | सभी कष्ट दूर हों। पक्षी दोनों पंखों से ही गति कर सकता है। रथ दो पहियों से गुरु देव के अनुरूप ही भारत भर में एकमात्र अनूठा एवं महान है। । हे दयाल परमात्मन्।। एवं मानव दो पैरों से ही चल सकता है। इनमें एक का भी अभाव यह स्मारक उनके आदशों को अनागत में और भी गति देगा। इसी ज्ञान की ज्योति से। हो तो पक्षी उड़ान नहीं भर सकता रथ और आदमी चल नहीं उनके ये आदर्श हम सभी के लिए पथ प्रदर्शक बनें। जिससे सभी प्रकाशित धरा-धाम हो।। Ho सकता। अतः गुरुदेव ने व्यावहारिक शिक्षा के साथ आध्यात्मिक का कल्याण एवं मंगल हो। 00000 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59 SHRI VIJAYVALLABH SURISHWAR JI MAHARAJ renounced worldly life at the tender teen age Integration. His voyage of peace and messages and imbibed learning and practical wisdom for during the highly disturbed conditions preceda decade at the feet of his revered preceptor, ing and following the partition of the country Jain Acharya Shri Atamaramji Maharaj. He in 1947 proved of immense value in mastered Jain scriptures and studied contem assuaging the aroused feelings and restoring porary philosophies. By dint of his wide communal harmony and goodwill. This reliknowledge, hard work and scholarly preach- gious tolerance is seen in his literary work, as ings, he soon rose to the heights of an well. Acharya. A SUPPORTER OF FREEDOM AN ERUDITE SCHOLAR MOVEMENT A SPIRITUALIST Acharya Shri was a great scholar of The Acharya Shri aroused people from theosophy, philosophy, history and meta- slumber and inertia, wherever he went during "The Hindus, the Sikhs, the Muslims, the physics. He was a renowned orator, author the Freedom Movement. He delivered to them Christians, the Jains, the Buddhists and and poet. In addition to many works in prose, the message of love for the country and the people of all religious faiths constitute the he wrote about 1600 poems, songs and people and equated the same with love to God. great progeny of Mother India. Ours is a great hymns in Hindi. The poetry is rich both in He moved masses with his scholarly and family and it is our duty to serve all. Service and language and content with an occasional use deeply appealing discourses. He was an service alone is true worship today". These are of typical words from Urdu and Persian. apostle of peace and advocated Non-Violence. the sterling words of Acharya Shri Vijay Accent has been laid on Bhakti Rasa He said, "Freedom is life, slavery is death" Vallabh Suriji whose Diksha (Renunciation of (devotion) which is easily comparable to the The words which he spoke in the wake of the normal wordly life and becoming a Sadhu/ works of Surdas, Kabir, Rahim, Meera and Freedom Movement move us even today, as Monk) Centenary is being celebrated with Anand Ghan. He lays stress on right karma they spell out an eternal truth. gusto and appropriate solemnity in the action) to achieve the ultimate goal. The Acharya Shri came into contact with great country. These words bear testimony to his AN EXPONENT OF HINDI patriots of the nation like Mahatma Gandhi noble mission of life for eradicating discri Though a Gujarati by birth, he always Pandit Madan Mohan Malaviya, Pandit Motilal mination of race, class, creed and religion, and promoted Hindi as National language. He Nehru and other stalwarts of the Freedom thereby inculcating an awareness of universal delivered his sermons in Hindi and all his Movement. He spoke inspiringly to people to brotherhood. works in prose or poetry are in Hindi. Through sacrifice wealth and their life for the India, the land of saints, prophets and his inspiration, huge funds were raised for independence of the Motherland. philosophers, has since ages produced a promoting Hindi and for the establishment of SWADESHI-HIS CREED chain of spiritual luminaries who placed the Benares Hindu University. Acharya Shri also pleaded the cause of before mankind, both by practice and precept, A CRUSADER OF PEACE AND NON- Swadeshi, Khadi. Satyagraha and Non-cothe highest moral and spiritual values of life VIOLENCE operation movements launched by Mahatma and led the society from darkness to light, He travelled lacs of kilometres barefoot as is Gandhi in pre-independence era. To leaders from ignorance to knowledge, from scepticism enjoined on Jain Sadhus (Monks), all over the and social workers, he advised "one should to faith, from cruelty to kindness and from country to spread the message of non- first light the lamp of service in one's ownself hatred to love and compassion. Acharya Shri Vijay Vallabh Suriji was one of such violence and peace love and compassion, before preaching and thereby set on example" celebrated spiritual apostles who radiated life tolerance and brotherhood. His meetings soon because he considered service as a great and transmitted the divine spark of compassion became congregations of men, women, and instrument for success. He himself practiced and truth for posterity. children of all castes, creeds and communities. whatever he preached. He completely took to He was equally respected and adored by the khadi and stuck to it till his last. To his A SANYASI AT SEVENTEEN Hindus, Muslims, Sikhs and others. His followers, he advised discarding foreign Born at Vadodra in 1870, Vijay Vallabh Suriji sermons were always aimed at National clothing and goods. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 ADVOCATE OF TRUSTEESHIP burns someone the fault lies with the user and guided its destiny for almost a decade till her Acharya Shri advocated the principle of passing away. The construction of the Trusteeship and advised the rich to put a not with electricity" Memorial Building is now almost complete. restraint on possessions and part with their HIS LOVE FOR RESEARCH The structure itself, rich in oriental art, with a wealth for opening schools and for the general Through his inspiration and ceaseless efforts, Through his inspiration and ceaseless efforts, 64 feet dia high dome, all built in stone and the welfare of mankind. His services in this field thousands of volumes of priceless hand only one of its type in Northern India will be only on were identical to those of Mahatma Gandhi- written manuscripts and books on Indology unique in many respects. The Granth Bhandar the father of Nation. were collected at Mahavir Vidyalaya Bombay left in Pakisatn has since been retrieved and A PROGRESSIVE EDUCATIONIST and S.A. Jain Gurukul Gujran Wala (now in handed over to the Smarak Trust. A modern Pakistan) for research work. He was eager to Acharya Shri was a great educationist and it is Reference Library and Research Institute on start a modern Research Institute to bring to in this role that he is remembered most Indology have since been set up in the Smarak light the valuable storehouse of knowledge precincts. A medical centre has started reveredly today. He preached and worked for and our cultural heritage. He had firm belit, eradication of illiteracy and superstition and functioning and a public school as also a that such an Institution would bring to limem laid special emphasis on education of women. museum are in the offing. light the universal message of Ahimsa, peace To him social backwardness and stagnation and brotherhood propounded by Lord Mahavir HIS DEEKSHA SHATABDI were due to ignorance, apathy and lack of over 2500 years ago. He inspired the entire After the completion of 100 years of his education and he considered education as the community to undertake this task for the Deeksha (renunciation), the Centenary celeonly panacea. He established a large number renaissance of ancient values. brations are being held in 1988-89, throughof schools and colleges, academic research out the country with a variety of socio-religious centres and libraries in many parts of the A GREAT SOCIAL REFORMER/ projects. It has, however, been planned to hold country. Opening of Mahavir Jain Vidyalaya as RELIGIOUS PREACHER the finale thereof at his magnificient multifar back as 1915 and its subsequent branches He discouraged the vulgar display of wealth purpose Smarak Complex in Delhi on 9th and for needv students of higher studies is just one and extravagance on social occasions, dowry 10th February 1989 on the auspicious but the most glaring example. As a result of his and such other evils. Acharya Shri disap- Occasion of the Pratishtha Mahotsava of his education movement. lacs of boys and girls proved fanaticism and bigotry, lust for money Memorial which will be attended by atleast have been educated and thousands have and power and addiction of all sorts. Thus, in 100 Jain Munis and Sadhvis (Monks and reached the pinnacles of various professions the social, and cultural fields, he rendered the social, and cultural Telas, ne rendered Nuns) and thousands of his devotees, admirers Nu and occupations in India and Overseas. equally valuable services and came to acquire and students of Indology from all parts of the the same stature as that of Shri Ramakrishna The aim and object of education, observed the country and overseas. It will be a grand socioParamahans, Swami Dayanand Saraswati and Acharya Shri, is character-building and deve religious and cultural festival. Swami Vivekanand. loping the mental processes. Education should HIS LIFE-THE PRIDE OF NATION teach students simple living and high thinking A MEMORIAL IN DELHI The study of his life and achievements amply and develop in them the virtues of love, On his demise in 1954 at Bombay, the entire on his demise in 1954 at bombay, the entire reveal that the Acharya Shri apart from being a compassion and austerity. Their thought, economic activity of the business capital and great Sanyasi, devoted his entire life for the speech and conduct should always inspire most other centres came to a stand still. On the welfare of mankind, the upliftment of women others. Only then, they will shine in society. sole inspiration of Jain Sadhvi Mahattra and weaker sections of society, as a versatile Besides the need for moral education, Acharya Mrigavati Ji Maharaj, the Jain Community Social-Reformer. Shri emphasized modern education, but some decided to erect a Memorial (Smarak) in Delhi, people were sceptical that it would spoil in his cherished memory befitting the dignity Vijay Vallabh Memorial, a marvel of stone culture. To dispel their doubts and apprehen- and high ideals of this noble soul and to structure and a seat of learning, storehouse of sions he gave a beautiful example by saying establish a multipurpose institution in con- knowledge and centre for welfare activities, "In this developing age, if one wants to light sonance with his preachings. She laid its especially of the rural vicinity, will become the the room or move the fan or start a machine, foundation stone and was also instrumental in pride of the Nation as a whole and the Jains in use of electricity is essential. And if electricity collecting ample funds for the same as also particular dimin Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAIN SAINT ACHARYA SHRI VIJAYA VALLABH SURIJI (1870-1954) He was a great reformer, fully conscious of the needs of the present day, and far beyond the confused atmosphere of dull convention. In fact, in the name of Jain religion he was propagating Indian Culture. He tried his best to help preserve the ideals of Indian culture for all time. The educational institutions that he founded are eloquent witnesses of this. The famous Atmanand Jain College of Haryana, (Ambala City). Mahavir Jain Vidyalaya of Bombay, and schools and college for boys and girls as well as hostels for them in different parts of the country are educating about 50 thousand children. He actively encouraged non-violence and the wearing of home-spun Khadi that were formulated by Mahatma Gandhi, not merely in A famous religious teacher of the 20th words but actually in his own life; he thus century, Acharya Sri Vijaya Vallabh Surish supported the great national leader. He warji was born in Baroda (Gujarat). He was as pleaded with the people, especially Jains, to the son of Dipchand Bhai and Iccha Bai, very give up wearing garments that were prepared devout Jaina householders. He renounced lay by unrighteous methods, and his lectures life and became a monk under the guidance of were very effective. He served the nation the celebrated Acharya Sri Vijayanada Suriji admirably well. In the history of Indian freedom Maharaj (also known popularly as Sri Atma struggle, his name will be immortal. He was ramji), who was a contemporary of Maharishi always wearing pure Khadi. Dayanand Saraswati (founder of Arya Samaj) and Sri Ramakrishna Paramahamsa. Sri Social Reformer Atmaramji was well known in the country as He was witness to the birth of Indian National well as outside for his great scholarship, and Congress, to the Bengal partition, to the he had been invited to participate in the Champaran Satyagraha and to the JallianChicago Conference of World Religions in walla massacre. He was not outside the 1893, and he had been honoured by the Royal stream of national revolution; he was filled Asiatic Society with patriotism and he persuaded, with success, people to give up the use of foreign Reared up under the care of his great Master, gods, and devote themselves through body, Vijay Vallabh Suri (whose child name was mind and money, to the service of nation. Chhaganlal) took the vow of life long celibacy. and dedicated his life for selfless work. He vork He He rebelled against meaningless customs and mastered all the scriptures and became a unhealthy practices. It was his desire to see forceful exponent of Jaina religion and the country become a model to the whole philosophy. He had an engaging and persua world, and he wanted it to be progressive. sive style, and his preachings came to be Here and there he started schools and greatly appreciated by the people. He brought colleges, and he passionately preached to brava brary.com about an awakening in the country. make the future generations national-minded. aton International Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 The association of the great national leaders of that time with these educational institutions was close. For instance, The Atmanand Jain Gurukul, (now in Pakistan), was praised by Dr. Rajender Prasad, Pandit Jawanarlal Nehru, Sardar Vitthal Bhai Patel, Dr. Kichlew, Lala Lajpat Rai, Dr. Satyapal, Sri Manilal Kothari and other leaders who had visited this institution and got acquainted with its work. NATIONAL ACTIVITIES (a) Khilafat Movement: He wholeheartedly supported this movement which was launched by Mahatma Gandhi; and roused public opinion in its favour. (b) Banaras Hindu University: At the time of the starting of this University he was in close touch with its founder Pandit Madan Mohan Malaviyaji and collected funds for the cause. (c) Swadeshi and Khadi: He himself used all his life only pure Khadi, and encouraged others to adopt it. (d) Hindu-Muslim Unity: The great teacher emphasised the need for unity among the two communities despite their religious differences. This is why Hindus and Muslims alike respected him and listened to him. The Nawabs of Malerkotla and Palanpur were great devotees of him. (e) Bengal Relief Found: When in 1942 Bengal was in great distress, he was engaged in this cause day and night, and raised a huge Relief Fund. . (f) Propagation of Hindi: Although his own mother language was Gujarati he recognised that Hindi was the country's national language. He wrote in his lifetime 1,600 poems, songs, hymns and prayers in Hindi, and thereby achieved a high position among Hindi writers. (g) National Integration: He travelled on foot many times in Maharastra, Gujarat, Jain Education t Rajasthan, Uttar Pradesh, Madhya Pra (h) desh, Punjab and Jammu and attempted to bring all these areas with a common thread by founding in different places institutions with the same names. Propagation against Meat eating and drinking: He preached throughout his life that people should give up meat-eating and taking alcoholic drinks, and adopt vegetarian diet. PARTITION OF COUNTRY When the country was partitioned into India and Pakistan, he was staying at Gujaranwala. A hand-bomb was thrown at him, but it did not burst: the man who threw the bomb was himself killed by a bullet from his own associate. The Muslims of the area considered this as a miracle, and announced that they would protect him as long as he stayed there. He illustrated there his spirit of self-sacrifice. The Indian devotees of Acharya Shri requested Qaid-e-Azam Md. Ali Jinnah to send their teacher to India in safety. The Pakistan Government thereupon planned to escort Acharya Shri to the Indian area. But Acharya Shri proclaimed "I shall live with the Sangha and die with the Sangha. As long as arrangements for transporting brothers and sisters of the Sangha, more than 500, to India in safety are not made, I shall not go there myself alone". AUTHOR He served the cause of Indian religion, philosophy and history in a conspicuous manner. He was devoted to literature all his life. He was interested in collecting ancient manuscripts and printed books on all subjects and pertaining to all religions. In his collection are 9,500 manuscripts and 6,000 printed books. This great collection which is a national treasure was left in Gujaranwalla (Pakistan) at the time of the help of Sri Dharmavira (then. secretary in the Central Govt.) it was brought to India. It is now in Delhi. HELP FOR MIDDLE CLASS The Acharya gave thought to the problem of the people belonging to middle class, which were getting poorer. Towards the close of his life, for four or five years, he was actively considering plans for the improvement of their lot. He roundly declared that if the middle class got weak, no society and no nation can hope to prosper. His programme for the relief of the middle class is still being pursued. More than hundred students have gone abroad for higher study with his help. The famous historian Padmashri Jina Vijayji and the great writer Padmashri Pandit Sukhlalji owe their eminent positions to the Acharya, Late Shri Punya Vijayaji, director of the Prakrit Text Society founded at the instance of late Dr. Rajendra Prasad, was also indebted to the Acharya. Padmabhushana Seth Kasturbhai Lalbhai holds the Acharya in highest esteem as his religious preceptor. The Acharya, who gave to the country the mantras of love amongst the people, unity, cooperation and progress of the middle class, breathed his last in Bombay on September 22, 1954 at the age of 84. The Bombay Government, by a special order arranged for his last rites on a private ground. The All India Radio broadcast the news of his passing away. The Offices of Corporation of the Bombay were I closed in his honour, and all business in the city was suspended. In the Azad Maidan, Bombay a huge condolence meeting was held under the presidentship of Sir Purushottam Thakur Das, to pay homage to Acharya Suriji and 150 organisations belonging to all the communities and traditions participated in this function. Towards the end of 1970 the birth centenary celebrations of Acharya Vijaya Vallabh Suri. were held over the country in order to propagate his teachings. Now a suitable and grand memorial in his sacred memory is being built in Delhi by Shri Atma Vallabha Smarak Shikshan Nidhi Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर से (पट्ट-परम्परा) 1. श्री सुधर्मा स्वामी जी (अनगार निर्ग्रन्थगच्छ) 2. श्री जंबूस्वामी जी 3. श्री प्रभव स्वामी जी 4. श्री शय्यंभव सूरि जी 5. श्री यशोभद्र सरि जी 6. श्री संभूतविजय जी तथा श्री भद्रबाह स्वामी जी 7. श्री स्थल भद्र स्वामी जी 8. श्री आर्य महागिरि और सुहस्ति सूरि जी 9. श्री सुस्थित सूरि तथा श्री सुप्रतिबद्ध सूरि जी (कोटिकगच्छ) 10. श्री इन्द्रदिन्न सूरि जी 11. श्री दिन्न सूरि जी 12. श्री सिहगिरि सूरि जी 13. श्री वज स्वामी जी 14. श्री वज्रसेन सूरि जी 15. श्री चन्द्र सूरि जी (चन्द्रगच्छ) 16. श्री सामन्त भद्र सूरि जी (वनवासीगच्छ) 17. श्री वृद्धदेव सूरि जी 18. श्री प्रद्योतन सूरि जी 19. श्री मानदेव सूरि जी 20. श्री मानतुंग सूरि जी 21. श्री वीर सूरि जी 22. श्री जयदेव सरि जी 23. श्री देवानंद सूरि जी 24. श्री विक्रम सूरि जी 25. श्री नरसिंह सरि जी 26. श्री समुद्र सूरि जी 27. श्री मानदेव सरि जी 28. श्री बिबुधप्रभ सूरि जी 29. श्री जयानंद सूरि जी 30. श्री रविप्रभ सूरि जी 31. श्री यशोदेव सूरि जी 32. श्री पद्युम्न सूरि जी 33. श्री मानदेव सूरि जी 34. श्री विमलचन्द्र सूरि जी 35. श्री उद्योतन सरि जी 36. श्री सर्वदेव सूरि जी (बड़गच्छ) 37. श्री देव सूरि जी 38. श्री सर्वदेव सूरि जी 39. श्री यशोभद्र सूरि जी तथा नेमिचन्द्र सुरि जी 40. श्री मुनिचन्द्र सूरि जी 41. श्री अजितदेव सूरि जी 42. श्री विजयसिंह सूरि जी 43. श्री सोमप्रभ, तथा श्री मणिरत्न सूरि जी 44.श्री जगच्चन्द्र सूरि जी (तपागच्छ) 45. श्री देवेन्द्रप्रभ सूरि जी (2) श्री विजयचन्द्र सूरि जी 46. श्री धर्मघोष सूरि जी 47. श्री सोमप्रभ सूरि जी 48. श्री सोमतिलक सूरि जी 49. श्री देवसुन्दर सूरि जी 50. श्री सोम सुन्दर सूरि जी 51. श्री मुनिसुन्दर सूरि जी 52. श्री रत्नशेखर सूरि जी 53. श्री लक्ष्मीसागर सूरि जी 54. श्री सुमति साधु सूरि जी 55. श्री हेमविमल सूरि जी 56. श्री आनन्द विमल सूरि जी 57. श्री विजयदान सूरि जी 58. श्री अकबर बाद० प्रतिबोधक जगद्गुरु श्री विजयहीर सूरि जी 59. श्री विजयसेन सूरि जी 60. श्री विजयदेव सूरि जी 61. श्री विजयसिंह सूरि जी 62. श्री सत्यविजय सूरि जी गणि 63. श्री कर्पर विजय गणि 64. श्री क्षमाविजय जी गणि 65. श्री जिनविजय गणि 66. श्री उत्तम विजय जी गणि 67. श्री पद्मविजय जी गणि 68. श्री रुप विजय जी गणि 69. श्री कीर्ति विजय जी गणि 70. श्री कस्तुर विजय जी गणि 71. श्री मणि विजय जी गणि 72. श्री बुद्धिबिजय जी (बूटेराय) जी गणि 73. न्या० श्री विजयानन्दसूरि (आत्माराम) जी महाराज 74. श्री विजयवल्लभ सूरि जी महाराज 75. श्री विजय समुद्र सूरिजी महाराज 76. श्री विजय इन्द्रदिन्न सूरिजी महाराज विजयइन्द्र तक international For Private & Personal use only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દાવાનળ જગાવવામાં આવ્યો છે ત્યારે પંજાબની શીખ ૧૯૧૨ માં એમણે અમદાવાદ આવીને મણિવિજયજી મહારાજ પરંપરાનુસારી કોમ તરફથી જૈન ધર્મને મળેલી બે મહાન પાસે નવેસરથી સંવેગી દીક્ષા ધારણ કરી. એમનું નામ વ્યતિઓની ભેટનો સણ-સ્વીકાર અવશ્ય કરવો જોઇએ. જો બુદ્ધિવિજયજી રાખવામાં આવ્યું, પરંતુ બુદ્ધિવિજયજી કરતાં કદાચ પોતાની પરંપરામાં રહ્યા હોત તો જેઓ કદાચ મહાન બુટેરાયજી મહારાજ તરીકે જ તેઓ વધુ જાણીતા રહ્યા. શીખ ધર્મગુરુ બન્યા હોત તે બે મહાત્માઓ સંજોગોનુસાર | પંજાબથી તેઓ ગુજરાતમાં આવ્યા ત્યારે પોતાના બે પંજાબી મહાન જૈનાચાર્ય બન્યા. તેમનું પ્રેરક ક્રાંતિકારી જીવન શિષ્યોને પણ લઇને આવ્યા હતાં. (૧) મૂલચંદજી મહારાજ અને નિહાળવા જેવું છે. એ બે મહાત્માઓ તે સ્વ. પૂજય શ્રી | (૨) વૃદ્ધિચંદ્રજી મહારાજ. તેઓ બંનેએ પણ મૂર્તિપૂજક બુટેરાયજી મહારાજ અને એમના શિષ્ય સ્વ. પૂજય શ્રી સમુદાયમાં ફરીથી દીક્ષા ધારણ કરી અને તેઓના નામ અનુક્રમે આત્મારામજી મહારાજ. મુકિતવિજય અને વૃદ્ધિવિજય રાખવામાં આવ્યાં. પરંતુ એમના - પૂ. આત્મારામજી મહારાજના જીવનનાં સંસ્મરણો એટલે ગુરુની જેમ તેઓ પણ પોતાના મૂળ નામથી ‘મૂલચંદજી આજથી સવાસો-દોઢસો વર્ષ પહેલાની પંજાબની ધરતી ઉપર મહારાજ’ અને ‘વૃદ્ધિચંદ્રજી મહારાજ તરીકે વધુ જાણીતા રહ્યા. જૈન ધર્મના ક્ષેત્રે જે થોડો ખળભળાટ મચ્યો તેના ઐતિહાસિક પોતાના ગુરુ મહારાજ સાથે તેઓ ગુજરાતમાં વિચરતા રહ્યા. સંસ્મરણો. ને પોતાના માર્ગે ભવિષ્યમાં આત્મારામજી નામના એક સમર્થ આત્મારામજી મહારાજના ગુરુનું નામ હતું બુટેરાયજી પંજાબી સાધુ મહારાજ આવશે એવી ત્યારે એમને સ્વપ્નમાં પણ મહારાજ. તેઓ જન્મે શીખ હતા. એમનો જન્મ વિ.સં. કલ્પના નહોતી. ૧૮૬ ૩માં લુધિયાના નજીક દુલવા ગામમાં થયો હતો. એમનું - આત્મારામજી મહારાજ જન્મે કપૂર બ્રહ્મક્ષત્રિય જાતિના નામ બુટ્ટાસિંહ હતું. એમની માતાનું નામ કદ અને પિત્તાનું હતા. એમનો જન્મ વિ.સં. ૧૮૯૨ ના ચૈત્ર સુદ-૧ને નામ ટેકસિંહ હતું. બાલ્યાવસ્થાથીજ એમને સંન્યાસ લેવાની મંગળવારના રોજ પંજાબના જીરાનગર નજદીક લેહરા નામના તીવ્ર ભાવના થયા કરતી હતી. એકનો એક પુત્ર હોવાના કારણે ગામમાં થયો હતો. એમનું નામ દિત્તારામ રાખવામાં આવ્યું માતા-પિતાની મરજી બુટ્ટાસિંહને સંન્યાસ લેવા દેવાની ન હતી હતું. એમના પિતાનું નામ હતું ગણેશચંદ્ર અને માતાનું નામ પરંતુ બુટ્ટાસિંહ પોતાના નિર્ણયમાં અચલ હતા. રૂપાદેવી. એમનો પરંપરાથી પ્રાપ્ત થયેલો કુલધર્મ તે શીખધર્મ આત્મારામજી મહારાજ સંન્યાસ કોની પાસે લેવો ? બુટ્ટાસિંહનું મન શીખ ધર્મ | હતો. નાનામોટા રાજ્યોની સત્તા માટેની ઉથલપાથલનો એ ગુરુઓ કરતાં તે વખતે તે બાજુ વિચરતા જૈન સ્થાનકવાસી જમાનો હતો. અંગ્રેજી સલ્તનત પણ દેશી રાજ્યોને લડાવવામાં | ડૉ. રમણલાલ ચી. શાહ સાધુઓ તરફ ખેચાયું હતું. પંદર વર્ષની વયે એટલે કે વિક્રમ જાતજાતના કાવાદાવા કરતી હતી. નાનપણમાં માતા-પિતા જેઠ સુદ આઠમને રવિવારનો દિવસ સ્વ. પ. પૂ. મહાન સં. ૧૮૮૮માં દિલ્હીમાં આવી એમણે સ્થાનકવાસી સાધુ ગુમાવનાર અશકત ગણેશચંદ્ર થાણેદાર તરીકે નોકરી કરી. ત્યાર જૈનાચાર્ય ન્યાયભોનિધિ શ્રી આત્મારામજી મહારાજ એટલે કે મહારાજ પાસે દીક્ષા લીધી, અને એમનું નામ બુકેરાયજી પછી મહારાજા રણજિતસિંહના સૈનિક તરીકે કામ કર્યું. શ્રી વિજય આનંદસૂરિ મહારાજની પુણ્યતિથિનો દિવસ એ રાખવામાં આવ્યું. લહેરાના જાગીરદાર અત્તરસિંધ શીખ ધર્મગુરુ હતા. દિવસે દિક{ીમાં પ. પુ. મહત્તરા સાદેવી શ્રી મગાવતી શ્રીજીની મૂકે રાયજી તેજસ્વી સાધુ હતો; ક્રિયાકાંડમાં ચુસ્ત હતા, ગણેશચંદ્રના. જોતાંજ મનમાં વસી જાય એવો પત્ર દિત્તાને શીખ નિશ્રામાં પૂ. આત્મારામજી મહારાજના ગુણાનુવાદનો એક અભ્યાસ કરવામાં નિપુણ હતા. એમણે સંસ્કૃત અને અર્ધમાગધી ધર્મગુરુ બનાવવા તેઓ ઇચ્છાતા હતા. પરંતુ પોતાના પુત્રને કાર્યક્રમ, સંક્રાંતિના કાર્યક્રમ સાથે યોજવામાં આવ્યો હતો. એ ભાષાનો ઘણો ઊંડો અભ્યાસ કર્યો. શાસ્ત્રોનું અધ્યયન કર્યું. ધર્મગરબનાવવાની ઇચ્છા ગણેશચંદની ન હતી અનધિને પ્રસંગે મારે ત્યાં ઉપસ્થિત રહેવાનું તથા પૂ. આત્મારામજી વિશે શે સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયને માન્ય એવા બત્રીસ આગમોનું સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયને માન્ય એવા બત્રીસ આગમોનું આ વાતની ગંધ આવતાં ગણેશચંદ્રને કેદમાં પૂય તો પણ બોલવાનું પ્રાપ્ત થયું હતું. આ પશ્યતિથિ નિમિતે આપણો એ ઝીણવટપૂર્વક વારવાર પરિશીલન કર્યું, પાચક વર્ષ કરતા ગણેશચંદ્ર દિત્તાને સોપવાનું કબૂલ કર્યું નહિ. એક દિવસ દિગવત મહાન જૈનાચાર્યના જીવન અને કાર્યનું સ્મરણ કરવાના આગમોના અધ્યયનને કારણે મૂર્તિપૂજાનો વિરોધ એમના જેલમાંથી ભાગી જઈ અત્તરસિંધ સામે તેઓ બહારવટે ચડયા એક સુંદર અવસર સાંપડયો હતો. મનમાંથી નીકળી ગયો. જેમ જેમ શાસ્ત્રના મૂળ પાઠોનું વધુને એમ કરવામાં અગ્રેજ કંપની સરકાર સાથે પણ સંઘર્ષમાં આવ્યા; આજે પંજાબમાં જયારે રાજદ્વારી પરષોના કાવાદાવાને કારણે વધુ ચિંતવને તેઓ કરતા ગયા તેમ તેમ મૂર્તિપૂજામાં તેમની પકડાયો; દસ વર્ષની જેલ થઈ. આગાની જેલમાં રાખવામાં સંપથી રહેતી શીખ અને હિન્દુ કોમ વચ્ચે ધાર્મિક વેરભાવનાનો શ્રદ્ધા વધુને વધુ દૃઢ થતી ગઈ. અને એક દિવસ, વિ.સ. આવ્યા. એક વખત ઉપરીઓ સાથે બંદુકની ઝપાઝપીમાં ગોળી Inn Education in manona For Pre & Pemanale Only www.jainelibrary.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાગવાથી તેઓ મૃત્યુ પામ્યા. એક બહાદુર સરદાર મળતા. તે વાંચતાં તેમાંની બધી વિગતો એમને યાદ રહી જતી. સત્તર સાધુઓ સાથે પંજાબથી વિહાર કરી ગુજરાતમાં ગણેશચન્દ્રના જીવનનો આમ કરુણ અંત આવ્યો. જેમણે જૈન આગમ ગ્રન્યો ઉપરાંત વેદો, ઉપનિષદો, પુરાણો, અમદાવાદમાં પધાર્યા. ત્યાં બુટેરાયજી મહારાજને મળ્યા અને એક બહ્મક્ષત્રિય બંડખોર યોદ્ધાનો પુત્ર દિત્તારામ (અથવા ભગવદ્ગીતા, રામાયણ, મહાભારત, ભાગવત, શાંકરભાષ્ય પોતાની સંવેગ પક્ષની દીક્ષા ધારણ કરવાની ઇચ્છા વ્યકત કરી. દેવીદાસ અથવા આત્મારામ) તે જ આપણા આત્માંરેમજી ઇત્યાદિ હિન્દુ ધર્મના પણ ઘણા બધા ગ્રન્યો વાંચી લીધા હતા. સ્થાનકવાસી સમૂદાયના બાવીસ વર્ષના દીક્ષા પર્યાય પછી મહારાજ. પિતા કેદમાં જતાં પિતાના મિત્ર જોધમલ ઓસવાલને કુરાન અને બાઇબલનો અભ્યાસ પણ તેમણે કરી લીધો હતો. એમણે ફરીથી સંવેગ પક્ષની દીક્ષા ધારણ કરવાની ઇચ્છા વ્યકત ત્યાં દિત્તાનો ઉછેર થયો. જોધમલના એક ભાઈનું નામ જૈન ધર્મના આગમો અને તેની ચૂર્ણિ, ભાષ્ય, ટીકા વગેરે અન્યો કરી. સ્થાનકવાસી સમ્પ્રદાયના બાવીસ વર્ષના દીક્ષા પર્યાય દિત્તોમલ હતું એટલે નામમાં ગોટાળો ન થાય માટે દિત્તાનું નામ ઉપરાંત બીજા ઘણા મન્થોનું એમણે પરિશીલન કર્યું હતું. એથી પછી એમણે ફરીથી સવેગ પક્ષની દીક્ષા ટેરાયજી મહારાજ દેવીદાસ રાખવામાં આવ્યું. જોધમલને ઘરે જૈન સાધુઓ આવતા પ્રતિમા પૂજન તથા અન્ય બાબતો વિશે તેમના મનમાં કેટલાક પાસે લીધી. એમનું નામ આનંદવિજય રાખવામાં આવ્યું. હતા. એમના સતત સંપર્કને કારણે સામાયિક-પ્રતિક્રમણ વગેરે પ્રશ્નો ઊઠતા હતા, પરંતુ તેમના મનનું સમાધાન કરાવી શકે એમની સાથે આવેલા બીજા ૧૭ સાધુઓએ પણ નવેસરથી ધર્મક્રિયાઓ કરવી અને સૂત્રો કંઠસ્થ કરવા ઇત્યાદિ પ્રકારના તેવી સમર્થ જ્ઞાની એવી કોઇ વ્યકિત દેખાતી ન હતી. દીક્ષા લીધી. એ જમાનામાં આ એક મહાન ઐતિહાસિક ઘટના સંસ્કાર બાળક દિત્તાના મન ઉપર પડયા. એ દિવસોમાં ઇ.સ. ૧૯૨૦માં આગ્રામાં એમણે ચાતુર્માસ કર્યું તે વખતે બની. લહેરામાં આવેલા બે સ્થાનકવાસી સાધુઓ ગંગારામજી સ્થાનકવાસી સમાજના વૃદ્ધ પોંડિત, વ્યાકરણશાસ્ત્રના નિષ્ણાત વિ.સં. ૧૯૩૨ માં સંવેગી દીક્ષા ધારણ કર્યા પછી એક - મહારાજ અને જીવનરામજી મહારાજની છાપ દિત્તાના મન રત્નચંદ્રજી મહારાજનો તેમને મેળાપ થયો. પોતાની શંકાઓનું ચાતુમસ એમણે ભાવનગરમાં કર્યું. ત્યાર પછી તેમણે ઉપર ઘણી મોટી પડી. એણે એની પાસે દીક્ષા લેવાનો સંકલ્પ સમાધાન કરાવી શકે એવી સમર્થ વ્યકિતનો આ મેળાપ હતો. રાજસ્થાનમાં જોધપુરમાં ચોમાસુ કરી પંજાબ તરફ વિહાર કર્યો. કર્યો. પોતાના પુત્રની જેમ ઉછેરનાર જોધમલને પણ, નામરજી આત્મારામજી મહારાજના પ્રશ્નો અને સત્યશોધનની સાચી વિહારમાં એમને ઘણી તકલીફ પડતી, વિરોધીઓ તરફથી છતાં દિત્તાને દીક્ષા માટે છેવટે સંમતિ આપવી પડી. દિત્તાએ લગની જોઇને રત્નચંદ્રજી મહારાજને પણ થયું કે પોતે ખોટા ઉપદ્રવ થતા, પરંતુ તેઓ હંમેશા સમતાભાવ રાખતા. પાંચ વર્ષ વિ.સં. ૧૯૧૦માં અઢાર વર્ષની વયે માલેરકોટલામાં દીક્ષા અર્થો કરી ખોટે માર્ગે આત્મારામજીને દોરવા ન જોઇએ. એટલે પંજાબમાં લુધિયાના, ઝડિયાલાગુર, ગુજરાનવાલા, હોંશિયાપુર લીધી. અને જીવણરામજી મહારાજના એ શિષ્ય બન્યા. એમનું એમણે મૂર્તિપૂજા અને મુહપતિ વિષે આત્મારામજી મહારાજના અને અંબાલામાં ચાતુર્માસકરી એમણે સનાતન શુદ્ધ જૈન ધર્મનો નામ આત્મારામજી રાખવામાં આવ્યું. મનનું સાચું સમાધાન કરાવ્યું. અને કહ્યું, ભાઇ આપણે ડંકો વગાડયો. | આત્મારામજી મહારાજને જોતાં જ કોઇ કહી શકે કે આ સ્થાનકવાસી સાધુ ભલે રહ્યા, પણ જિનપ્રતિમાની પૂજાની તું પંજાબમાં પાંચ વર્ષ વિચર્યા પછી આત્મારામજી મહારાજે તેજસ્વી નવયુવાન સાધુ છે. એમની મુખમુદ્રા એવી પ્રતાપી હતી. કયારેય નિંદા કરતો નહિ’ આત્મારામજીએ રત્નચંદ્રજીને વચન ગુજરાતમાં અમદાવાદ, સુરત, પાલીતાણા, રાધનપુર અને એમની ગ્રહણ શકિત અને સ્મરણશકિત અજોડ હતી, રોજની આપ્યું અને એમનો ઘણો ઉપકાર માન્યો. ‘મહેસાણામાં ચાતુર્માસ કય: આ વખતના એમના આગમનથી ત્રણસો ગાથાઓ તેઓ કંઠસ્થ કરી શકતા. ભાષા ઉપર તેમનું શાસ્ત્રોનું અધ્યયન-મનન આ સંદર્ભમાં ફરી એકવાર તેઓ આ પ્રખર મેધાવી પંજાબી જૈનાચાર્યને નજરે નિહાળવા અને અસાધારણ પ્રભુત્વ હતું. પોતાના ગુરુ મહારાજ સાથે તેમણે ઝીણી નજરે કરી ગયા. એવામાં એમને શીલાંકાચાર્ય વિરચિત એમની ઉપદેશ - વાણી સાંભળવા ગામેગામ હજારો લોકો પંજાબ, રાજસ્થાન અને ઉત્તર ભારતમાં જયપુર, પોલી, ‘શ્રી આચારાંગ સૂત્ર વૃત્તિ’ નામની એક પોથી એક યતિના એકત્રિત થતાં. ઠેર ઠેર બહુ મોટા પાયા ઉપર એમનું શાનદાર હોશિયારપુર, જીરા, લુધીના, દિલડી, આગ્રા વગેરે સ્થળે સંગ્રહમાંથી મળી આવી. એ વાંચતાં એમની બધી શંકાઓનું | સ્વાગત થતું. સંઘના, મહાજનના આગેવાનો પાંચ દશ માઇલ વિહાર કર્યો હતો. અર્ધ માગધી ઉપરાંત સંસ્કૃત ભાષા અને બરાબર સમાધાન થઇ ગયું. જેમ જેમ સ્થાનકવાસી સમુદાયમાં સામે પગે ચાલીને એમનું સ્વાગત કરવા જતા. પાલીતાણામાં વ્યાકરણનો અભ્યાસ થતો ગયો તેમ તેમ આગમના કેટલાક અન્ય સાધુઓ સાથે તેઓ આ વિષે નિખાલસ ચર્ચા કરતા ગયા એમને આચાર્યની પદવી આપવામાં આવી ત્યારે પ્રવાસના પાઠોના ખોટા અર્થ વિશે તેમના મનમાં સંશય થવા લાગ્યો. તેમ તેમ તે તે સાધુઓ એમની સાથે સહમત થતા ગયા. પરંતુ અમનો સાથ સહમત થતા ગયા, પરંતુ અલ્પતમ સાધનોના એ જમાનામાં ગુજરાત, રજીસ્થાને અને એમને પોતાના સમ્પ્રદાયની જે પોથીઓ વાંચવા મળતી તેમાં તે સમયના પંજાબના મુખ્ય સ્થાનકવાસી સાધુ અમરસિંધજીને પંજાબમાંથી પાંત્રીસ હજારથી વધુ માણસો એકત્ર થયા હતા. કેટલીક જગ્યાએ હરતાલ (પીળા રંગનું દ્રવ્ય) લગાડી શબ્દો ભય પેઠો કે રખેને આત્મારામજી જેવા તેજસ્વી મહારાજ પાંચ વર્ષ ગુજરાતમાં વિચયા પછી આત્મારામજીએ ભૂંસી નાખવામાં આવ્યા હતા. આથી એમની શંકા ઊલટી વધતી બુટેરાયજીની જેમ સંપ્રદાય છોડીને ચાલ્યા જાય. ખળભળાટ તો જોધપુરમાં ચોમાસ કર્યું ત્યાંથી પાછા પંજાબ પધાયાં. હતી. ચારે બાજુ ચાલતો હતો અને ઉત્તરોત્તર આત્મારામજી સાથે અમદાવાદના શ્રેષ્ઠિઓ સાથે વાત થઈ હતી તે મુજબ પૂ. તાત્મારામજી મહારાજની અધ્યયન ભૂખ ઘણી મોટી હતી. સહમત થાય એવા સાધુની સંખ્યા વધતી જતી હતી. મહારાજશ્રીની ભાવના અનુસાર આણંદજી કલ્યાણજીની પેઢીએ તીવ્ર ગ્રહણશકિત અને સ્મરણશકિતને લીધે કોઇ પણ પ્રત્યે પોતાને જે સત્યનું દર્શન થયું તે અનુસાર પોતે ધર્મ-જીવન અમદાવાદથી અને પાલીતાણાથી દોઢસોથી વધુ જિનપ્રતિમાઓ તેઓ ઝડપથી વાંચી લેતા. ત્યારે છાપેલા મન્થો ભાગ્યે જ જીવવું જોઇએ એમ સમજી આત્મારામજી મહારાજ બીજા પંજાબના જિનદિરોના નિર્માણ માટે મોકલી આપી. પંજાબનાં , FPV Poe Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કેટલાંક મુખ્ય નગરોમાં એમના હસ્તે જિન પ્રતિમાની પ્રતિષ્ઠા થયા, પંજાબમાં પોતાની તબિયત બગડી તે વખતે આત્મારાજીને કરવામાં નિપુણ હતા. એમણે કહ્યું, ‘ભાઈ, હું કુસ્તીબાજ છું' થઇ. પંજાબમાં આનંદોલ્લાસનું એક મોજું ફરી વળ્યું. બેશુદ્ધ અવસ્થામાં લુધિયાનાથી અંબાલા લઇ જવામાં આવ્યા એ વાત સાચી છે. પરંતુ હું દેહ સાથે નહિં, પણ ઇન્દ્રિયો સાથે | વિ.દા. ૧૯૪૭ થી ૧૯૫૩ સુધીનાં સાત વર્ષમાં પંજાબમાં ત્યારે શુદ્ધિ આવતા તેમણે શાસ્ત્રજ્ઞાતા હોવા છતાં, મુલચંદજી કસ્તી લડી રહ્યો છું, અને તેમાં વિજય મેળવવાની મારી તેઓ વિર્યા અને લોકોના ધાર્મિક તેમજ સામાજિક જીવનમાં મહારાજને પત્ર લખીને એમની પાસે આલોયણા મંગાવી. આકાંક્ષા છે. સાચી કુસ્તી એ છે.'' ઘણી જાગૃતિ આણી. આત્મારામજી ઉદાર દષ્ટિના હતા, બીજો પ્રસંગ ગરબંધુ વૃદ્ધિચંદ્રજી મહારાજ સાથેનો છે. આત્મારામજીનો જવાબ સાંભળી પેલો કુસ્તીબાજ શરમિંદો સર્વજીવો પ્રત્યે સમભાવ ધારણ કરનારા હતા. એટલે એમણે શારીરિક અશકિતને કારણે વૃદ્ધિચંદ્રજી ભાવનગરમાં સ્થિરવાસ | બની ગયો. પંજાબમાં મૂર્તિપૂજક અને સ્થાનકવાસી સમુદાય વચ્ચેના કરીને રહ્યા હતા. ત્યારે તેમને મળવા. વંદન કરવા ઇ.સ. ૧૮૯૩માં અમેરિકાના ચિકાગો (શિકાગો) શહેરમાં વિખવાદને દૂર કર્યો. એટલું જ નહિ જૈન, હિન્દુ, મુસલમાન આત્મારામજી ગયા હતા. તે સમયે તેઓ પોતે પાટ ઉપર બેઠા વિશ્વ ધર્મ પરિક્રુ ભરાવાની હતી. એમાં જૈન ધર્મના પ્રતિનિધિ અને શીખ એ ચારે ધર્મના લોકો વચ્ચે પણ પ્રેમ અને બંધુત્વ, નહિ. સામે નીચે બેસી ગયા. પરંતુ વૃદ્ધિચંદ્રજીએ આજ્ઞા કરી તરીકે ભાગ લેવાને આત્મારામજી મહારાજને નિમંત્રણ મળ્યું સંપ અને સહકારની ભાવના ઠેરઠેર વિકસાવી. પરિણામે એમના ત્યારે જ પાટ ઉપર બેઠા અને એમની આજ્ઞા થતાં તેમણે લોકોને હતું. કારણ કે તેઓ આંતરરાષ્ટ્રીય ખ્યાતિ ધરાવતા થયા હતા. ભકતજનોમાં માત્ર જૈનો જ ન હતા. હિન્દુ, મુસલમાન અને શીખ પરંતુ જૈન સાધુઓ સમુદ્ર પાર જતા ન હોવાથી આત્મારામજી કોમના કેટલાય માણસો એમના ચુસ્ત અનુયાયી બન્યા હતાં. આત્મારામજીના વિનય ગુણના પ્રસંગો એમના મહારાજે એ પરિષદમાં મોકલવા માટે મહુવાના યુવાન પંજાબ અને રાજસ્થાનમાં એ દિવસોમાં જૈન સાધુઓ કરતા શિષ્યોપ્રશિષ્યોએ પણ નોંધ્યા છે. પોતાનાથી દીક્ષા પર્યાયમાં જે બેરિસ્ટર શ્રી વીરચંદ રાધવજી ગાંધીને તૈયાર કર્યા. વીરચંદ જૈન યતિઓનું જોર ઘણું મોટું હતું. રહસ્થાશ્રમી યતિઓ જુદા કોઇ મોટા હોય (પછી ભલે પદવીમાં નાના હોય) તો પણ રાધવજીએ પરિષદમાં મહત્વનો ભાગ લીધો, એટલું જ નહિ જુદાં રાજયોમાં આશ્મ પામવાને કારણે જયોતિષ, આયુર્વેદ, આત્મારામજીએ તેમને વંદન કરતા. સામી વ્યકિત વંદન અમેરિકામાં બીજાં અનેક સ્થળોએ જૈન ધર્મ વિષે મનનીય મંત્ર-તંત્ર ઇત્યાદિ વડે રાજાઓના મન જીતી લઇને એમની પાસે કરવાને ના પાડે તો પણ પોતે વંદન કર્યા વગર રહેતા નહિ, વ્યાખ્યાનો આપ્યાં. • ધાર્યું કરાવતા. કેટલાક નગરોમાં યતિઓની આજ્ઞા વગર આત્મારામજી મહારાજ સમયપાલનના ચુસ્ત આગ્રહી હતા. શિકાગો પરિષદ નિમિત્તે ‘શિકાગો પ્રશ્નોત્તર' નામનો ગ્રન્થ સાધુઓથી ચાતુમસ થઇ શકતું નહિ, યતિઓના નિવાસસ્થાન સાઠ વર્ષના જીવનકાળમાં તેઓ આટલું બધું કાર્ય કરી શકયા આત્મારામજીએ તૈયાર કર્યો હતો. અને એમાં ઈશ્વર સંબંધી પાસેથી પસાર થતાં સાધુઓએ યતિઓને વંદન કરવા જવું પડતું. તેનું કારણ એમણે એક પળ પણ નકામી જવા દીધી નહિ તે જૈન ધર્મની માન્યતા બીજા ધર્મોની માન્યતા કરતાં કેવી રીતે સામૈયા કે ઉજમણાના પ્રસંગો માટે પણ યતિઓની આજ્ઞા છે, સ્વ. સુરચંદ્રબદામીએ સુરતના ચાતુર્માસના સમયનો એક અને શા માટે જુદી પડે છે તે સમર્થ દલીલો સાથે સમજાવ્યું છે. મેળવવી પડતી અથવા રાજની આજ્ઞા યતિઓની સમ્મતિ મળ્યા પ્રસંગ વર્ણવતાં લખ્યું છે કે સંવત્સરી પ્રતિક્રમણ નિર્ધારિત સમયે પૂ. આત્મારામજી મહારાજના સમયમાં એમના જેટલો પછી જ મળતી. આત્મારામજી મહારાજે પોતાના પ્રકાડ ચાલુ કરવામાં વિલંબ થતાં મહારાજશ્રીએ સંધના આગેવાનોને શાસ્ત્રાભ્યાસ અને એમના જેટલી વિદ્વત્તા અને તર્કપટુતા ભાગ્યે વિદ્રત્તાથીનીડરતાથી, લોકોના પ્રેમભયાં સહકારથી; અને કહી દીધું કે હવે જો મોડું થશે તો અમે અમારું પ્રતિક્રમણ કરી જ કોઇની હશે. જૈન, હિંદુ વગેરે ગ્રન્થોના હજારો શ્લોક એમને રાજાઓની સમ્મતિથી યતિઓનો સામનો કરી એમનુ‘જોરથ લઈશું. તમે તમારું પ્રતિક્રમણ તમારી મેળે કરી લેજો.' કંઠસ્થ હતા. પાશ્ચાત્ય વિદ્વાનો પણ જૈન ધર્મ વિષે કંઈ જાણવું નરમ કરી નાખ્યું હતું. સાધુઓને માથે ચડી બેઠેલી મહારાજશ્રીની આ ચેતવણી પછી પ્રતિક્રમણ રોજ નિશ્ચિત હોય તો અથવા કંઈ શંકાનું સમાધાન મેળવવું હોય તો એમની પતિ-સંસ્થાનો પાયો આત્મારામજીએ હચમચાવી નાખ્યા હતા. સમયે જ ચાલુ થઇ જતું. | પાસે આવતા. રૂડોલ્ફ હર્નલ નામના પાશ્ચાત્ય વિદ્વાને પોતાનો આ પણ એમની જેવી તેવી સિદ્ધિ નહોતી. પૂ. મહત્તરા સાધ્વીજી મગાવતી શ્રીજીની શિષ્યા પૂ. ગ્રી આત્મારામજી મહારાજને અર્પણ કર્યો છે અને એની આત્મારામજી મહારાજનો વિનયનો ગુણ કેટલો મોટો હતો. સાધ્વી શ્રીજી સુત્રતાશ્રીજીએ આત્મારામજી મહારાજ વિષે કહેલો અપંણ પત્રિકા સંસ્કૃત ભાષામાં બ્લોક રચના કરીને મૂકી છે. તે વિષે ભાવનગરના તે સમયના સુપ્રતિષ્ઠિત ધર્માનુરાગી શ્રાવક આ એક પ્રસંગ પણ સરસ છે. આત્મારામજી એક સરદાર | આત્મારામજી મહારાજે સંવેગી દીક્ષા લીધા પછી પંજાબમાં શ્રી કુંવરજી આણંદજી કાપડિયાએ ત્રણેક પ્રસંગો નોંધ્યા છે. યોદ્ધાના પુત્ર હતા. એટલે એમનો દેહ કદાવર, સશકત, | જુદે જુદે સ્થળે જે વિહાર કર્યો અને શુદ્ધ સનાતન જૈન ધર્મનો બુટેરબજી મહારજ પાસે સંવેગી દીક્ષા લેતી વખતે બુટેરાયજીના ખડતલ, ઊચો, ભરાવદાર હતો. દેખાવે તેઓ પહેલવાન જેવા, બોધ આપ્યો તેના પરિણામે પંજાબના જૈનોમાં મૂર્તિપૂજાનો શિષ્ય મૂલચંદજી મહારાજના શિષ્ય થવાની ઇચ્છા મુલ્લ જેવા લાગતા હતા. એક વખત તેઓ એક ગામમાં કોઇ વિરોધ ઘણો ઘટી ગયો. સ્થાનકવાસી અને મૂર્તિપૂજક સમુદાય આત્મારામજીએ વ્યકત કરી. પરંતુ મૂલચંદજી મહારાજનો પણ એક અખાડા પાસેથી પસાર થતા હતા તેમને જોઇને એક વચ્ચે સુમેળ સ્થપાયો. તે સમયે રાજસ્થાનમાં આર્ય સમાજના વિનય ગુણ એટલો મોટો હતો. આત્મારામજી બુટેરાયજીના જ કુસ્તીબાજે બીજા કુસ્તીબાજને કહ્યું, ‘આજે આપણા અખાડા સ્થાપક. સ્વામી દયાનંદ સરસ્વતી પધાર્યા હતા. કેટલાક લોકો શિષ્ય થાય તે વધુ યોગ્ય છે એવો આગ્રહ એમણે રાખ્યો હતો. ત૨ફ આ કોઇ એક નવો કુસ્તીબાજ આવી રહ્યો છે,' એમ ઇચ્છતા હતા કે સમકાલીન, સમવયસ્ક જેવા, દેખાવે પણ આથી મૂલચંદ મહારાજ એમના ગુરુ નહિ પણ વડીલ ગુરબંધુ આત્મારામ જી એ એ મજાક સાંભળી. તેઓ પણ નિદોંષ મજાક એક બીજાને મળતા આવે તેવા આ બંને મહાપુરુષો એકબીજાને wwwb Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67 મળે તો સારું. આત્મારામજીએ દયાનંદ સરસ્વતીને જોધપુરમાં તે દર્શાવી છે. ‘સમ્યકત્વ શલ્યોદ્ધાર' નામના ગ્રન્થમાં જૈન ધર્મ એમણે પોતાના ગુરુ આત્મારામજીનું નામ અનેકરીતે રોશન કર્યું. મળવાનો સમય આપ્યો. તેઓ વિહાર કરીને જોધપુર પહોંચ્યા, મૂર્તિપૂજામાં શા માટે માને છે તે એમણે આગમગ્રન્યો અને સાઠ વર્ષના આયુષ્યકાળમાં આત્મારામજીએ અનેક પરંતુ ત્યાં તો સમાચાર આવ્યા કે દયાનંદ સરસ્વતીનું અકાળ ઇતિહાસમાંથી પુરાવા આપી સિદ્ધ કરી બતાવ્યું છે. તેઓ કવિ ભગીરથ કાર્યો કર્યો. લોકોમાં અભુત જાગૃતિ આણી. શિક્ષણ અવસાન થયું છે. આમ આ બંને મહાપુરુષો મળવાની ઇચ્છા હતા, એટલે એમણે વિવિધ પૂજાઓ અને સ્તવનોની રચના અને સંસ્કારના ક્ષેત્રે પણ અનેક સમાજોપયોગી કાર્યો તેમણે હોવા છતાં એક બીજાને મળી શકયા નહિ. જૈન ધર્મ ઉપરાંત હિન્દી ભાષામાં કાવ્યમાં કરી છે. આ પ્રકારનું પૂજા-સાહિત્ય કર્યો. પોતે જયાં જયાં વિચર્યા ત્યાં ત્યાં કેટલીય વ્યકિતઓ, હિન્દુ ધર્મશાસ્ત્રોમાં પણ પારંગત એવા આત્મારામજીને દયાનંદ | હિન્દી ભાષામાં સૌ પ્રથમ તેમના તરફથી આપણને સાંપડે છે. કુટુંબો, સંસ્થાઓ સંધો વગેરેના વ્યકિતગત કે સામૂહિક પ્રશ્નોનાં સરસ્વતી મળ્યા હોત તો કદાચ કંઈક જુદું જ પરિણામ આવ્યું આત્મારામજી મહારાજે જે સાહિત્યનું નિર્માણ કર્યું છે તે નિરાકરણ કરાવી આપ્યાં. અનેક શુભ કાર્યો માટે લોકોને તેમણે હોત. સાહિત્ય દ્વારા પણ તેમણે જૈનશાસનની બજાવેલી અનન્ય પ્રેરણા આપી. પરિણામે એમની હયાતી દરમિયાન અને એમના આત્મારામજી મહારાજે પંજાબ, રાજસ્થાન અને ગુજરાતમાં સેવાની સુવાસ અનેક વર્ષો સુધી મહેકતી રહેશે. કાળધર્મ પછી પંજાબ, રાજસ્થાન, ગુજરાત અને અન્યત્ર એમના ઉગ્ર વિહાર કર્યો. વ્યાખ્યાન પ્રવૃત્તિ ઉપરાંત અનેક ધાર્મિક, આત્મારામજી પંજાબમાં વિચરતા હતા હવે તેમની ઇચ્છા નામથી અનેક સંસ્થાઓ સ્થપાઇ. ‘આત્મારામજી' અને સામાજિક પ્રવૃત્તિઓ થતી. અનેક વ્યકિતઓ વહ્ન, દર્શન કે રાજસ્થાન અને ગુજરાત તરફ વિચરવાની હતી. પરંતુ વિ.સં. ‘વિજયઆનંદસૂરિ' એ બંને નામોનો સમન્વય કરી મુલાકાત માટે આવતી પોતાની દૈનિક ધાર્મિક ક્રિયાઓ કરવ ૧૯૫૩નું ચાતુર્માસ ગુજરાનવાલા (જે હાલ પાકિસ્તાનમાં છે) ‘આત્માનંદ'ના નામથી શાળાઓ, કોલેજો, પાઠશાળાઓ, ઉપરાંત અને પોતાના શિષ્યોને રોજ નિયમિત તેઓ શાસ્ત્રાભ્યાસ માં નકકી થયું હતું. તેઓ વિહાર કરતાં ગુજરાનવાલા આવી પુસ્તકાલયો, દવાખાનાઓ, ધર્મશાળાઓ વગેરેની સ્થાપના થઈ. કરાવતા. શિષ્યોને પણ સંસ્કૃત ભાષામાં એટલા સરસ તૈયાર પહોંચ્યા પરંતુ માર્ગમાં એમની તબિયત બગડવા લાગી હતી. પંજાબમાં તો જયાં જઇએ ત્યાં આત્માનંદનું નામ ગુંજતું હોય. કર્યા હતા કે કેટલીક વખત તેઓ બધા સંસ્કૃતમાંજ ચર્ચા કરતા. પહેલાં જેટલો ઉગ્ર વિહાર એમનાથી હવે થતો ન હતો. તરત એમના નામ અને જીવનકાર્યને બિરદાવતાં અનેક પદા, ભજનો આટલી બધી પ્રવૃત્તિઓ છતાં તેઓ સમય કાઢીને પોતાનું લેખન થાક લાગી જતો; હાંફ ચઢતો. ગુજરાનવાળામાં ૧૯૫૩ના જેઠ કવિઓએ લખ્યાં છે, જે આજે પણ પંજાબમાં ઉલટભેર ગવાય કાર્ય પણ કરતા રહ્યા હતા. સંસ્કૃત અને અર્ધમાગધી ભાષા ઉપ૨ સુદી સાતમના રોજ સાંજે પ્રતિક્રમણ કર્યા પછી રાત્રે તેઓને છે. જૈન સમાજ ઉપર, વિશેષત: પંજાબના લોકો ઉપર એમનું એવું અસાધારણ પ્રભુત્વ હતું કે પોતે ધાર્યું હોત તો એકદમ શ્વાસ ચડયો. એમની નિદ્રા ઊડી ગઇ. તેઓ આસન આત્મારામજી મહારાજનો ઉપકાર ઘણો મોટો રહ્યો છે. પોતાના બધા સભ્યો સંસ્કૃત કે અર્ધમાગધી પ્રાકૃતમાં લખી પાસે દોડી આવ્યા. આસન પર બેસી અહેવુ, અહંતુ, અહમ્ આત્મારામજી મહારાજ જેવી મહાન જૈનપ્રતિભા છેલ્લા શકયા હોત. પરંતુ પોતાના વિચારોને લોકો સુધી પહોંચાડવાની એમ ત્રણવાર મંત્રોચ્ચાર કરી તેઓ બોલ્યા: ‘લ્યો ભાઈ, અબ' દોઢ-બે સૈકામાં બીજી કોઈ જોવા નહિ મળે ગુજરાત રાજસ્થાન ભાવનાને લક્ષમાં રાખી એમણે પોતાના ગ્રન્થો હિન્દી ભાષામાં હમ ચલતે હે, સબકો ખમાતે હે' આટલું વાકય બોલી તેમણે અને પંજાબ ઉપર એમનો પ્રભાવ ઘણો મોટો રહ્યો છે, એમના લખ્યા હતા. આંખ મીચી દીધી. થોડીક ક્ષણોમાં તેમના ભવ્યાત્માએ દેહ કાળધર્મ પછી એમની પ્રતિમાની કે પાદુકાની સ્થાપના અનેક એમણે લખેલા ગ્રન્થો આ પ્રમાણે છે: જૈન તત્વદર્શ છોડી દીધો. એમના કાળધર્મના સમાચાર સમગ્ર ભારતમાં સ્થળે કરવામાં આવી છે. શત્રુંજય તીર્થ અને ગિરનાર તીર્થ ઉપર અજ્ઞાનતિમિરભાસ્કર, તત્વનિર્ણયપ્રસાદ, સમ્યકત્વશલ્યોદ્ધાર, સેંકડો તાર દ્વારા પ્રસરી ગયા. . પણ એમની પ્રતિમાની સ્થાપના કરવાનું એ સમયના ભકતોએ શ્રી ધર્મવિષયક, પ્રશ્નોત્તર, નવતત્વ તથા ઉપદેશ બાવની, જૈન આત્મારામજી મહારાજના બધા શિષ્યોમાં પૂ. વલ્લભસૂરિ- નકકી કર્યું એ એમના તરફની લોકભકિત કેટલી બધી દઢ અને મતગૃહ, ચિકાગો પ્રશ્નોત્તર, જૈન મતકા સ્વરૂપ, ઈસાઈમત મહારાજનું નામ સૌથી મહત્ત્વનું છે. વડોદરાના આ છગને મોટી હતી તેની પ્રતીતિ કરાવે છે. સમીક્ષા, ચતુર્થસ્તુતિનિર્ણય: ભા. ૧લો અને ૨ જો. આ ઉપરાંત નામના કિશોરને રાધનપુરમાં દીક્ષા આપ્યા પછી વલ્લભવિજય છેલ્લા બે સૈકામાંથયેલા બહુશ્રુત પ્રભાવક આચાયોંમાં તઓએ સ્નાત્રપૂજા, અષ્ટપ્રકારી પૂજા, વીશસ્થાનક પદ પૂજા, એવું નામ રાખવામાં આવ્યું. ગુરુએ એમની કુશાગ્રબુદ્ધિ, દઢ આત્મારામજી મહારાજનું સ્થાન મુખ્ય છે. એમને અંજલિ સત્તરભેદી પૂજા, નવપદ પૂજા તેમ જ સંખ્યાબંધ સ્તવનો, પદો ચારિત્રપાલન તથા વ્યવહારદક્ષતા પારખી શિષ્યને શાસ્ત્રા- આપતાં પડિત સુખલાલજીએ લખ્યું છે, ‘આત્મારામજી પરમ અને સજઝાયોની રચના કરી છે. ભ્યાસમાં સારી રીતે તૈયાર કર્યો. અને એમની સમજશકિત, બુદ્ધિશાળી હતા, શકિતસંપન્ન હતા અને તત્ત્વપરીક્ષક પણ હતા. - આ બધા ગ્રન્થોમાં એમણે જૈનનધર્મ અને તત્વદર્શનના જવાબદારી વહન કરવાની શકિત, સમુદાયને જાળવવાની પરંતુ એ બધા કરતાં વિશેષ તો એ છે કે તેઓ ક્રાન્તિકાર પણ વિવિધ પાસાંઓની ઘણી વિગતે છણાવટ કરી છે. જૈન તત્વાદર્શ આવડત વગેરે જોઇને આત્મારામજી મહારાજે પોતાના હતા. એમણે સંપ્રદાયબદ્ધતાની કાંચળી ફેંકી દેવાનું સાહસ કર્યું નામનો એમનો માત્ર એક દળદાર ગ્રન્થ વાંચીએ તો પણ સમુદાયની ધૂરા વલ્લભસૂરિને સોપી. ‘મારી પાછળ વલ્લભ હતું તે જ બતાવે છે કે શાંત ક્રાન્તિકારની પ્રેરણાએજ એમને જૂના નવમેનો સમગ્ર સાર એમાં આવી ગયેલો જણાશે. પંજાબને સંભાળશે’ એવા એમના કથનને વલ્લભસૂરિએ ચીલે ચાલવાની ના પાડી. રૂઢિ યા ચીલા એમણે ભૂસ્યા ત્રીસેક માત્મારામજી મહારાજે જૈન ધર્મની અન્ય ધર્મો સાથે પણ પંજાબમાં ઘણાં વર્ષ વિહાર કરીને અનેક ધાર્મિક તેમજ વર્ષ વધુ જીવ્યા હોત તો ક્ષત્રિયોચિત ક્રાન્તિવૃત્તિ એમને કઈ હસ્ય, તુલનાત્મક સમીક્ષા કરીને જૈન ધર્મની વિશેષતા શી છે સમાજોપયોગી કાર્યો કરીને સર્વ રીતે સાર્થક કરી બતાવ્યું. ભૂમિકાએ લઇ જાત તે નથી કહ્યાતું.' an Education Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગુરૂદેવ સમાજઉધ્ધારક સંધ સેવા શાસન ઉન્નતિકારક ભગવાનનો ભકત ભોળા આશયથી ભગવાન રામને પૂછે છે કે બન્યા: કરુણાર્ક હૃદયથી સમાજનો ઉધ્ધાર કર્યો. બુદ્ધિ અને આપને રાજય ન મળ્યું અને વનવાસ મળ્યો તેનું મહાન દુ:ખ સહનશીલતાના બળથી સંધની હિતચિંતા કરી, સાધુતા, તપ આપને આવી પડયું. ત્યારે ભકત અને રામચંદ્રજી જવાબ આપે ત્યાગના માધ્યમથી જિન શાસનની જાહોજલાલી કરી. છે કે મને અયોધ્યાની રાજ ગાદી ન મળી તેનું જરાપણ દુ:ખ | આચાર્ય વિજયવલ્લભસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબ પૂ. નથી. ચૌદ વર્ષનો વનવાસ મળ્યો તેનું જરા પણ દુ:ખ નથી. પણ આચાર્ય આત્મારામજી મહારાજ સાહેબના કૃપાપાત્ર બન્યા માતા કૈકયીનું વચન પાલન કર્યું તેનો મને અતિશય આનંદ છે. હતા. તેઓના આદેશથી શિક્ષણના પ્રચાર માટે સરસ્વતી મંદિરો ભકત આ જવાબ સાંભળીને આશ્ચર્યમુગ્ધ અને આનંદવિભોર શુધ્યા. તેથી જ્ઞાનની પ૨મ ઉપાસના-સાધના તેઓશ્રીના બની ગયો અને ભગવાન રામચંદ્રજીના ચરણમાં મસ્તક ઝુકાવી જીવનમાં પ્રાપ્ત થઈ, તથા પંજાબ દેશના વિલાસી અને મોજીલા દીધું. એવી જ રીતે ગુરુવર્ય વલ્લભસૂરિ મહારાજના જીવનમાં જીવનવાળા જૈન ભાઇ બહેનોમાં દેવ-ગુરૂની ભકિત તથા સંસ્કાર પણ આવુંજ જોવા મળે છે. તેઓને પણ જયારે ગુરૂભકતો કહે આવ્યા તે બધોજ ઉપકાર પૂ. વલ્લભસૂરિ મહારાજનો જ છે. કે સાહેબ આપનો જે વિરોધ કરે છે તેમનો અમે બદલો લઇશું. જેવી રીતે જંગલમાં રહેવા માટે એક સિંહજ સમર્થ છે તેવી રીતે ત્યારે વલ્લભસૂરિ મહારાજ કહે કે જે મારો વિરોધ કરે છે તેના પંજાબી જૈન ભાઇ બહૅનોમાં ધર્મિકવૃત્તિ લાવવા માટે પૂ. પ્રત્યે મને જરા પણ નારાજી નથી. અને વિજ્ઞ કતઓ દ્વારા માં મ.સા. શ્રી વિજય વલ્લભસૂરીશ્વરજી . વિજયવલ્લભસૂરિ મહારાજ જ સમર્થ હતા. કામ અટકવાનું નથી કે બગડવાનું નથી. મને તો એ જ વાતનો મોજશોખ અને એશઆરામમાં ગળાડૂબે ડૂબેલા જૈનાઓને સંતોષ, આનંદ અને ગૌરવ છે કે પૂ. વડિલ ગુરૂ મહારાજે T સાધ્વી સુમતિશ્રી સ્વયંના શ્રીમુખે અંતિમ આદેશો આપ્યા છે કે સરસ્વતીના શ્રાવક-શ્રાદ્વ કા બનાવવા, જિન-શાસન પ્રત્યે રાગ અને ભકિત જગતમાં અનેક આત્માઓ જન્મ લે છે તેને કોઇ જાણતું ઉત્પન્ન કરાવવી એ સામાન્ય કામ નથી. વિલાસી જનતાના મંદિરોની સ્થાપના કરજે અને પંજાબની રક્ષા કરે છે. આ બે નથી. કેટલાએક આત્માઓ જન્મ લે છે. જીવન જીવે છે ત્યાં | દિલમાં મૂર્તિ માટે પ્રેમ અને ગુરૂ માટે ભકિત જગાવવાનું મહાન આદેશો પ્રાણના સાટે પાયાનો મને પરમ સતોષ છે. કેટલી સુધી દુનિયા તેને જાણે છે. દુનિયામાંથી ગયા પછી કોઇ યાદ અને કઠિન કાર્ય ગુરૂદેવે પોતાના તપ, ત્યાગ અને બહ્મચર્યના ઉદાત્ત, ઉમદા ભાવના કાર્ડ વાય .' આથીજ ગુરૂદેવે પંજાબ કરતું નથી. ત્યારે કેટલાએક મહાન બીજા આત્માઓને સહાયક બળથી કરી બતાવ્યું છે. માટેજ ગુરૂ વલ્લભ વિરલ વિભૂતિ દેશવાસીઓનો ઉધ્ધાર કર્યો પણ રાજસ્થાન, ગુજરાત, મહારાષ્ટ્ર બને છે, અને દુનિયા તેને જાણે છે અને પૂજે છે. તથા પરલોકની વિશ્વની છે એવું કહેવામાં અતિશયોકિત નથી. સત્ય વાત છે. આદિ દેશોમાં પણ ધર્મનો પ્રચાર, શિક્ષણનો પ્રચાર અને સમાજ વાટે ગયા પછી પણ તે અમર બની જાય છે, લોકો સ્મરણ કરે | આચાર્ય વિજયવલ્લભસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબ ઉદ્ધારના કાર્યો કર્યા. આજે પણ હિંદુસ્તાનભરમાં પૂ. છે અને આદર્શરૂપે પોતાના જીવનમાં ધારણ કરીને સ્વયંને સહનશીલતાની મૂર્તિ હતા. તેમના જીવન કાર્યોને નિહાળતા વલ્લભસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબના વિચારો સમાજસેવાના કાર્યોને અપનાવતા જોવા મળે છે. જે લોકો ગુરૂવલ્લભની નિર્મળ બનાવે છે. તેવા આત્માને મહાત્મા સંત, મહંત કહેવાય સહજ જણાય છે કે ગુરૂદેવે સમાજ ઉદ્ધારના, શિક્ષણ પ્રચારના પેટભરીને ટીકા, નિંદા, વિરોધ કરતાં હતાં તે જ લોકો ગુરૂ છે. જધન્ય, મધ્યમ અને ઉત્તમ કોટિના આત્મા મહાન બને છે. જે પણ કાર્યો કર્યા તેમાં વિરોધીઓએ ઘણા પ્રત્યાઘાતો કર્યો. વલ્લભના સિધ્ધાંતને વળગીને કાર્ય કરી રહ્યા છે. વિશ્વમાં ચંદન અત્યંત શીતળ છે. તેનાથી વધુ શીતળ ચંદ્રની તેમની ટીકા નિંદા કરી અને તેમને કાર્ય કરવામાં ઘણી બાધાઓ ચાંદની છે, અને તેનાથી પણ વધારે શીતળ સંત મહાત્માના ઉભી કરી. છતાં ગુરૂદેવે એ બધાજ પ્રત્યાઘાતોને જોયા પણ નથી ધર્મની ઉન્નતિ અને સમાજનું ભાવિ ઉજ્જવળ બને તે માટે દર્શન, સાન્નિધ્યતા હોય છે. આવા સંતોથી ભારત ભૂમિ વિશેષ - તથા પ્રત્યાધાતો કરનારની પ્રત્યે દ્વેષ ધારણ કર્યું નથી, તથા જીવનભર અથાગ પ્રયત્નો કરતા રહ્યા, સંકટોને હંસતા મુખે પાવન બની છે. વિરોધીઓનો સામનો કર્યા વગર પોતાના કાર્યને આગળ સ્વીકારતા રહ્યા. જીવન અપ્રમત્ત બનાવી સંયમની સાધનામાં આપણાને આજે અત્યંત ગૌરવ થાય છે કે આપણા ગુરૂદેવ વધારતાં રહ્યા. જગતનો નિયમ છે કે જેમની પાસે બુદ્ધિ, કાર્ય બહ્મચર્યની સુવાસ મેળવીને આત્માના વૈભવને પ્રાપ્ત કર્યો. પૂજય વિજયવલ્લભસૂરિજી મહારાજ પણ વિશેષ ગુણોને ધારણ કરવાની શકિત જેટલી વધારે તેટલા જ તેમના દ્વેષી, વિરોધી આવી વિભૂતિ વિશ્વમાં કોઇક જ જોવા મળે છે. માટે વિશ્વની, કરનાર ઉત્તમ કોટીના સંત મહંત હતા.. અને ઇર્ષ્યાળુ વધારે હોય છે. પણ મહાન તે જ બને છે જે વિરલ વિભૂતિ વિજય વલ્લભ છે. આજે તેઓ નશ્વરદેહરૂપે આપણી પાસે નથી, પરંતુ તેમના સામેના કેપ વિરોધ જોયા વગર સદ્વિચાર અને સભાવનાથી અમારું પરમ સૌભાગ્ય છે કે આવા ગુરૂને મેળવીને કાર્યો, તેમની સદ્ભાવના તેમના વિશેષ ગુણોરૂપે આપણી સમક્ષ પોતાના કાર્યને વેગ આપી આરંભેલા કાર્યને પૂર્ણ કરે છે. તેઓશ્રીની શિષ્યા બનવાનું પુણ્ય પ્રગટ થયું. તેઓના ગુણોનું જ છે. તેમના જીવનને યાદ કરીએ છીએ ત્યારે અંતરમાં નવી ' જેવી રીતે રામચંદ્રજી જયારે વનવાસ જવા નીકળે છે અને કીર્તન કરી, જીવનમાં આત્મસાત કરવાની મનોકામના સાથે જેવી રીતે રામચંદ્ર જી જયારે વનવાસ જવા નીકળે છે અને તાજગી, નવો જોશ આવે છે. ઘર છોડી જંગલમાં પહોંચી જાય છે ત્યારે કોઇક રામચંદ્ર ગુરુદેવના ચરણકમલમાં શ્રદ્ધાના સુમન અર્પણ કરું છું. o Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओ मेरे गुरु तेरी जय हो -मुनि धर्मधुरन्धर विजय विजेसमुद्रस्त इस वर्ष मेरा चातुर्मास पालीताणा था। जिस उद्देश्य को निर्धारित करके मैंने दादा की भूमि पर चातुर्मास का निश्चय किया था वह था आगम संशोधन का कार्य सीखना। प्रख्यात आगम संशोधक विद्वद्वरेण्य मुनिपुंगव श्री जम्ब विजय जी महाराज साहब के पास प्रतिदिन जाकर आगम अध्ययन और संशोधन का कार्य सीखता रहा। यह आगम संशोधन का कार्य यों तो बड़ा ही कठिन, नीरस और समय साध्य है। किंतु यदि कोई तत्परता और जिज्ञासा के साथ लगे तो उसे बड़ा रस मिलता है। चातुर्मास के बीच पूज्य आचार्य श्री जी का पत्र आया और वल्लभ स्मारक के सर्वाधिक सक्रिय कार्यकर्ता राजकुमार जी वहाँ आए और दिल्ली आने की विनती की। मैंने उनसे एक ही बात कही-इस स्मारक के पीछे मेरे पूज्य गुरुदेव समुद्र सूरीश्वर जी म. सा. की प्रेरणा और आदेश है अत: अवश्य ही आऊँगा। और अपने शरीर तथा स्वभाव के विपरीत तेज गति से विहार करता हुआ मैं आज पाली पहुंचा हूँ। आज प्रातः काल ही समुद्र विहार पहँचा वहाँ अपने वयोवृद्ध शिक्षक पं. रामकिशोर जी पाण्डेय से मिला तत्पश्चात् "समुद्र हॉल" में जाकर पूज्य गुरुदेव आचार्य समुद्र सूरि जी म. की प्रतिमा के दर्शन करते ही सारा अतीत जीवन्त हो उठा For Pit o nline only www.jainelibrary.orm Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह वही पावन नगरी पाली है जहाँ मेरे गुरुदेव का वि. सं. चार्तुमास बाद मैं भी उधर आ रहा हैं। दिल्ली में गुरुदेव की ऐसी अपना पूरा जीवन ही स्मारक के निर्माण में लगा दिया किन्तु धन 1948 में मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी को जन्म हुआ था। गुरुदेव अमिट निशानी बनवाई जाये कि जिसे देखकरलोग युगों-युगों तक संग्रह के लिए वर्तमान गच्छाधिपति चारित्रचूड़ामणि आचार्य श्री के बाल्यजीवन के प्राप्त प्रसंगों से ज्ञात होता है कि प्रारम्भ से ही वे गुरुदेव का नाम याद रखें। जब गुरुदेव साध्वी श्री जी ये बातें कर विजय इन्द्र दिन्न सूरि जी म. सा. नूतन आचार्य जनक चन्द्र सरि अत्यन्त गम्भीर,शान्त, एकान्तप्रिय, साधु सन्तों की सेवा करने रहे थे तब मैं देख रहा था कि साध्वी श्री जी कितने ध्यान से सारे जी, गणि जगच्चन्द्र विजय जी, गणि नित्यानन्द विजयजी तथा वाले धर्म के प्रति अगाध आस्था रखने वाले बालक थे। आप श्री आदेशों को सुन रहींथी उनके चेहरे पर एकदढ़ संकल्प और आत्म प्रमुख साध्वी मण्डल ने समाज को स्मारक निर्माण के लिए खले की प्रवृत्ति से यह पता चलता था कि एक न एक दिन आप पूरे जैन विश्वास की आभा झलक रही थी। बाद में साध्वी श्री जी ने अपनी हृदय से दान देने की प्रेरणा दी। जब पूज्य गुरूदेव विजय वल्लभ समाज के लिए प्रेरणा श्रोत व आदर्श बनेंगे। गुरुदेव पंजाबकेसरी शिष्याओं के साथ दिल्ली की ओरविहार किया वल्लभ स्मारक के सूरीश्वर जी म. सा. की दीक्षा शताब्दी का समापन समारोह आचार्य श्रीमद् विजय बल्लभ सूरि जी म.सा. के सम्पर्क में आए निर्माण की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर वहन करने के लिए। स्मारक पर हो रहा था उस समय मैं पालीताणा में था। मुझे सारे और 19 वर्ष की अवस्था में ही भागवती दीक्षा ली और उसके बाद महत्तरा जी ने स्मारक के महान कार्य को प्रारम्भ करने के समाचार कार्यकर्ताओं से, पत्रोंसे, समाचार पत्रों से मिलते रहे। शनैः शनैःज्ञान ध्यान की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए आपने आत्मोत्थान लिए समाज को प्रेरित किया, अपने प्रभावशाली व्याख्यानों में वर्तमान गच्छाधिपति जी के प्रेरक आशीर्वचनों से स्मारक के कार्य किया साथ ही पूज्य गुरुदेवों के आदेशों का अक्षरशः पालन पूज्य गुरूदेवों के प्रति अनन्य भक्ति और निष्ठा का परिचय दिया पज्य गदेवों के प्रति अनन्य भक्ति और निष्ठा का परिचय दिया को तेजी से आगे बढ़ने के लिए जो धन वर्षा (विशेषकर श्री अभय करना अपना परम कर्तव्य समझा, गुरुदेव द्वारा संस्थापित की और स्मारक देत जमीन ले ली गई। इसी बीच सन 1974 में पज्य और स्मारक हेतु जमीन ले ली गई। इसी बीच सन् 1974 में पूज्य ओसवाल द्वारा एक करोड़ की राशि जो उन्होंने गुरूदेव के दीक्षा देख-रेख करना अपना दायित्व माना और मुरादाबाद में वि. सं. गुरूदेव समुद्र सूरि जी म. सा. का जन्म महोत्सव दिल्ली में बड़े शताब्दी के उपलक्ष्य में दिए थे) हुई ऐसी तो कभी नहीं हुई थी और 2035 में ज्येष्ठ वदि अष्टमी को प्रातःकाल अखण्ड समाधि से पूर्व धूमधाम से मनाया गया। गुरूदेव के साथ व्यतीत समय को मैं आगे भी शायद ही हो। दरअसल यह सब पूज्य गुरुदेवों के प्रति तक अपने उद्देश्यों को पूरा करने में लगे रहे। अपने जीवन के सर्वाधिक भाग्यशाली समय मानता हैं अनगिनत असीम भक्ति का परिणाम था जो प्रत्येक गरूकल के मन को. हम तीनों भाई-मुनि जयानन्द विजय जी,मैं और गणि श्री यादें जुड़ी हैं किन्तु दिल्ली में आयोजित प्रभु महावीर के 2500 वें भाव-विभोर किए हुए थी। नित्यानन्द विजय जी अभी बालक थे। पुज्य गरुदेव हमें साध निर्वाण महोत्सव में आप श्री को सकल श्री संघ की ओर से कोई भी महान कार्य किसी एक के प्रयास से पुरा नहीं हो योग्य क्रियाओं को बड़े स्नेह से सिखाते हैं, पढ़ाने की व्यवस्था जिनशासनरत्न की उपाधि से विभूषित कर विभिन्न जैन पाता। वल्लभ स्मारक को इन ऊँचाईयों तक पहुँचाने में जहाँ । करते, छोटी से छोटी बात समझाते। कभी हमसे किसी प्रकार की सम्प्रदायों के साधुमण्डल के बीच प्रधान पद पर आसीन करने का पूज्य गुरुदेव की प्रेरणा रही, महत्तरा जी के समाधिपर्यन्त गलती हो जाती तब लगता इन्हें शान्त तपोमूर्ति कहना कितना प्रसंग अविस्मरणीय है। हम रूपनगर उपाश्रय में ही ठहरे थे। सफलीभूत प्रयास रहे। पूज्य आचार्य श्री जी का आशीर्वाद रहा सार्थक है। गरुदेव जरा भी क्रोध किए बिना बड़े ही प्यार से सधार उसके बाद पंजाब की ओर बिहार करते हुए गुरूदेव स्मारक की वहाँ राजकुमार जी जैसे समाज के समर्पित कार्यकर्ताओं के कराते। मुझे सन् तो ठीक से याद नहीं आ रहा शायद 1972 की जमीन देखते गए। दिल्ली से बाहर एकदम निर्जन स्थान था एकनिष्ठ योगदान को भी भुलाया नहीं जा सकता। इसके बात हैं। गुरुदेव का चातुर्मास बड़ौदा था वहाँ एक विशाल किन्तु, मैं देख रहा था कि गुरूदेव पूरे गम्भीर थे। उन्होंने नींव के अतिरिक्त साध्वी मृगावती श्री जी की शिष्यागण जिन्होंने स्मारक साधु-साध्वी सम्मेलन रखा गया था। इस सम्मेलन में साध्वी चारों ओर परिक्रमा की वासक्षेपलेकर मुंह में ही कुछ मंत्र पढ़े और में स्थिरता कर वहाँ के कार्य को अपना कर्तव्य मान कर गति दी। मृगावती श्री जी भी सम्मिलित हुई थी। इससे पहले गुरुदेव वासक्षेप नींव में डाल दिया। वे क्षण आज भी मेरी स्मृति में वे भी कम अनुमोदनीय नहीं हैं। यदा-कदा समुदाय की चर्चाओं के बीच कहा करते थे कि पूज्य तरोताजा हैं। साध्वी मृगावती श्री जी म. के साथ विभिन्न बल्लभ स्मारक पूज्य गुरूदेव विजय वल्लभ का एक ऐसा गुरुदेव विजय बल्लभ सूरीश्वर जी म. सा. ने नारी उत्थान एवं योजनाओं पर विचार किया। निर्माण कार्य में आने वाली बाधाओं बाग हैं जिसमें कहीं प्रभमंदिर कल्पवृक्ष के समान, भोगीलाल समाज में इनकी सम्मानित स्थान देने की बात कहकर इस समाज को जाना किन्तु साध्वी श्री जी के उत्साह और जोश को देखकर लेहरचंद शोधपीठ एक सरभित ज्ञानपुष्प के समान, उपासना गृह पर बड़ा उपकार किया है। आज साध्वी-समदाय में मुगावती श्री गुरूदेव का मन प्रफुल्लित हो उठा। आज जब वल्लभ स्मारक की तप, त्याग और साधना पुष्प के समान, औषधालय, दया और जी एक कर्तव्यनिष्ठ साध्वी हैं। इनकी कार्यकशलता.जिनशासन प्रगति और प्रतिष्ठा की बात सुन रहा हूँ तो मन में अत्यन्त आनन्द करूणा पष्प के समान, खिलकर अपनी सगंध फैला रहे हैं। अब प्रभु एवं पूज्य गरुदेवों के प्रति भक्ति देखकर मझे लगता है कि ये का अनुभव हो रहा है और लगता है कि पूज्य गुरूदेव का नींव में वहीं प्रभ की अजनशलाका प्रतिष्ठा एवं पज्य गम्टेवों की पर्ति एक दिन गुरुदेवों का नाम रोशन करेंगी सम्मेलन के बाद गुरुदेव वासक्षेप डालना ही स्मारक के विकास एवं अभ्युदय की निर्णायक स्थापना आदि भव्य कार्यक्रम आचार्य श्री जी की निश्रा में होने जा ने उन्हें बुलाया और कहा कि दिल्ली श्री संघ की साग्रह विनती है। घड़ी थी। रहे हैं। मेरा मन तो कब का स्मारक में पहँच चका है और शरीर अतः पूज्य गुरुदेव विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म. सा.का स्मारक महत्तरा साध्वी श्री मृगावती श्री जी ने स्मारक के निर्माण कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए तीव्र गति से विहार कर रहा का जो कार्य अभी कल्पना में है उसे साकार रूप देने के लिए आप कार्य को आगे बढ़ाया किन्तु अर्थ संकट किसी भी योजना को हैं। noun दिल्ली की ओर विहार करें और चार्तुमास करें, एक क्रियान्वित करने में सबसे बड़ी बाधा है। साध्वी जी महाराज ने तो ओ मेरे गुरू ! तेरी जय हो! . Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य इन्द्रदिन्न सूरि : सर्वगुणसम्पन्न जैनाचार्य - अ०ना० धर द्विवेदी भारतीय इतिहास सन्त-महात्माओं की गाथाओं का साक्षी है। वे समय-समय पर अवतरित होकर युग की आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। जन-साधारण को सन्मार्ग दिखाना, प्राणियों के दुख से विगलित होकर उनका लौकिक-परलौकिक कष्ट निवारण in Education internat उनके जीवन का प्रमुख उद्देश्य होता है। इसीलिये विश्वकवि के बाद माँ पुनः महात्माजी की सेवा में उपस्थित हुई और दवा तुलसीदास ने मानस में अंकित किया: बताने के लिए उसने प्रार्थना की। महात्माजी ने उस बच्चे से कहा "बच्चा, गुड़ खाना छोड़ दो।" माँ ने कहा, "यह तो उस दिन भी आप बता सकते थे, एक महीने का समय क्यों बरबाद किया। " महात्माजी ने माँ से कहा "उस दिन मैंने स्वयं गुड़ खाया था, इसलिए गुड़ छोड़ने की बात कैसे कर सकता था?" यह है भारतीय चारित्र का आदर्श, जो आचार्य श्री इन्द्रदिन्न सूरि में दृष्टिगत होता है। इसीलिये जालना श्री संघ ने आपश्री को चारित्र चूड़ामणि पदवी से विभूषित किया। सन्तहृदय नवनीत समाना, कहा कविन पै कहा न जाना। निज परिताप द्रवै नवनीता, परदुख वै सुसन्त पुनीता । । अर्थात् कवियों ने सन्तों का हृदय नवनीत (मक्खन) के समान कहा है पर उन्हें ठीक-ठीक कहना नहीं आया। क्योंकि नवनीत को जब स्वयं गर्मी लगती है तब वह पिघलता है। परन्तु सन्तों का हृदय दूसरे के ताप दुख से द्रवीभूत हो जाता है, करुणार्द्र हो उठता है। आचार्य श्री इन्द्रदिन्न सूरि को मैंने ऐसे ही सन्तों के रूप में देखा है। किसी की पीड़ा देखकर वे अपनी पीड़ा भूल जाते हैं। पर दुख-कातरता से उनका हृदय तत्काल दयार्द्र हो उठता है, उदाहरण के लिए अपना ताजा अनुभव सुना रहा हूँ: हस्तिनापुर में चातुर्मास के समय मस्तिष्क ज्वर से मैं पीड़ित था, ज्वर के समय मस्तिष्क काम नहीं कर रहा था। उस समय मुरादाबाद के श्रावक श्री डिप्टीचंद आचार्य श्री की सेवा में उपस्थित हुए। वे प्राय: चमेली के तेल की मालिश कर गुरुदेव की थकावट दूर करते रहते हैं। किन्तु उस दिन आदेश के स्वर में आचार्य श्री ने उनसे कहा "हमारे पंडित जी बीमार हैं, उनकी सेवा करो, मेरी रहने दो।" तदनुसार श्री डिप्टीचंद मेरी सेवा करने लगे। पहले तो मुझे बड़ा संकोच हुआ। किन्तु आपद्धर्म समझकर मैंने उनकी सेवा स्वीकार कर ली। ज्वर कम हुआ। राहत मिली। यह घटना जितनी छोटी है, उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। आचार्य श्री स्वयं भी मेरे पास आए। आपश्री ने मेरे सिर पर कोई दवा लगाई। पानी की पट्टी बंधवाई। इतने अधिक व्यस्त रहते हुए भी मेरी बीमारी की हालत में ही नहीं अन्य अवसरों पर भी मेरा विशेष ध्यान रखते हैं। आचार-व्यवहार, खान-पान, रहन-सहन शुद्ध रखने के लिये प्रेरणा देते रहते हैं, जबकि मेरे सुहृद् और आत्मीय जन इसके लिए मेरी आलोचना करते हैं। चारित्र भारतीय संस्कृति का मूलाधार है। विद्वान् होने पर भी यदि चारित्र और आचरण ठीक नहीं है तो वह पांडित्य व्यर्थ है। कहते हैं एक माँ अपने बच्चे को किसी महात्मा के पास ले गई। "निवेदन किया इसके पेट में कीड़े हैं, कोई दवा बताइए।" एक महीने के बाद आओ।" महात्माजी ने उस माँ से कहा। एक महीने भारतीय ग्रन्थों में तप की महत्ता विस्तारपूर्वक बताई गई है। बहुत दूर न जाकर गोस्वामी तुलसीदास से पूछिये। उनका उत्तर इस प्रकार हैं: तपबल रचइ, प्रपंच विधाता, तपबल बिस्नु सकल जगत्राता, तपबल संभु करहि संहारा, तपबल सेष धरहिं महिभारा। तप अधार सब सृष्टि भवानी, करहि जाहि तपु अस जिय जानी। तप की महिमा सभी धर्मों और शास्त्रों में कही गई है। आचार्य श्री इन्द्रदिन्न सूरि का अधिकांश समय तप में व्यतीत होता है। अगर वे गच्छाधिपति नहीं होते, चतुर्विध संघ का उत्तरदायित्व उनके सबल कन्धों पर न होता, योगोद्वहन की क्रियाएँ नहीं करानी पड़तीं, जैन शासन की अभ्युन्नति का स्वप्न उनकी आँखों में नहीं मँडराता, जैन-मन्दिरों और उपाश्रयों की स्थापना, अंजनशलाका प्रतिष्ठा को महत्त्व नहीं देते, प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार करा तीर्थ की पूर्व गरिमा स्थापित करने की भावना की उपेक्षा करते, मध्यम वर्गीय साधर्मिकों की सुख-सुविधा के लिए चिंतित न होते तो निःसंदेह उनकी प्रत्येक सांस के साथ तप जुड़ा रहता और ये सभी काम भगवान के हैं, जो तप की श्रेणी में आते हैं। अतः यह कहना कि आचार्य श्री अहर्निश जप-तप में संलग्न रहते हैं तो उसे अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता। आचार्यश्री स्वयं तो जप-तप करते ही हैं दूसरों को भी इसके लिए प्रेरणा देते रहते हैं। लोगों को जप-तप करते देखकर उन्हें परम प्रसन्नता होती है। एक दिन आचार्य श्री की वर्धमान तप की अड़तालीसवीं ओली की पारणा के निमित्त अनुमोदना सभा का 71 www.jamnelibrary.omg Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्यक्रम रखा गया था, लोग आचार्य श्री की तपस्या का बखान निःसंदेह सभी गच्छों (सम्प्रदायों) का मार्ग-दर्शन करेगा। असंभव कार्य श्री ओसवाल की गुरुभक्ति का अनुकरणीय और कर रहे थे। किन्त आचार्यश्री ने इसके उत्तर में स्पष्ट कहा कि तपस्या और सेवा में बहत कम अन्तर है, सच पछा जाय तो । श्लाध्य नमूना है। मेरी तपस्या की वास्तविक अनुमोदना तप करना है। आप मेरी सेवा भी तपस्या है। आचार्य श्री इन्द्रदिन्न सरिजी ने सेवा का इस दृष्टि से आचार्य श्री स्वयं ऐसे प्रकाश-पुज हैं, जो प्रशंसा न कर, तप करें तो वह मेरे तप की सच्ची अनुमोदना आदर्श गुरुजनों से प्राप्त किया है। गुरुसेवा के पश्चात् साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका चतुर्विध संघ को अपने अपर्व होगी। कठिन तप न हो सके तो आयंबिल कीजिये, वह भी तप है। जनता-जनार्दन की सेवा सर्वोपरि है। अर्थात् जनता की सेवा प्रकाश से प्रकाशित कर रहे हैं। अतः हस्तिनापुर तीर्थ ने आपश्री हस्तिनापुर तीर्थ चातुर्मास के अवसर पर श्री रघुवीर जैन ने जनार्दन-भगवान की सेवा है। श्रमण जीवन के प्रथम प्रहर में को जैन-दिवाकर पदवी से अलंकृत किया तो इससे कौन असहमत उपधान के साथ इकतालीस उपवासों की तपस्या की थी, जो ऐसी आचार्य श्री ने परमार क्षत्रियों की, जो सेवा की वह जैन-इतिहास हो सकता है? तपस्या का कीर्तिमान है। श्री रघुवीर जैन प्रतिदिन यही कहा में स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है। कीचड़ में कमल के समान इन्हीं कारणों से जैन-समाज में कहीं भी कोई आवश्यकता करते थे कि मैं यह तपस्या गुरु महाराज की कृपा के बल और उत्पन्न होकर दर्गति के गर्त में गिरी परमार जाति को आचार्य श्री पड़ती है तो लोग आचार्य श्री की शरण में आकर गहार लगाते हैं। उनके आशीर्वादों के सम्बल पर कर रहा हूँ। ने ऊपर उठाया, उसे संस्कारी ही नहीं वरन् उसमें से कइयों को आचार्य श्री ऐसे औढर दानी हैं कि अपने पास एक कौड़ीन गुरु-शिष्य का यह भाव देखकर-महर्षि भरद्वाज और श्रीराम मुनि और गणि के गौरवास्पद पद पर प्रतिष्ठित भी किया। यही रखकर दूसरों को जब चाहें तब करोड़पति बना देने की क्षमता की स्थिति सामने आ जाती है: नहीं अब तो कुछ पुण्यवान् गणि पंन्यास के प्रतिष्ठित पद पर । रखते हैं। प्राणों की बातें सनी जाती हैं कि भगवान् शंकर स्वयं मनि रघुवीर परस्पर नवहीं बचन अगोचर सुख अनभव ही। विराजमान हो रहे हैं। परमार जाति में साधु-साध्वी तो हुए ही दिगम्बर हैं, भांग-धतूर भोजन मिल जाय तो बहुत है। पर भक्तों श्री रघुवीर के 41 दिनों का उपवास देख इस बात पर सहज श्रावक भी ऐसे हैं जो प्रतिक्रमण-उपधान आदि धार्मिक क्रियायें। के आठों सिद्धियाँ और नवों निधियाँ दे डालते हैं। देवताओं का ही विश्वास हो जाता है कि भगवान् आदिनाथ के 400 दिनों का सम्पन्न करते-कराते रहते हैं। यह सब आचार्य श्री विजय कोषाध्यक्ष कबेर उनका दास ही तो है। पर यहाँ प्रत्यक्ष देखा जा उपवास किया होगा। आज के युग में ऐसी तपस्या सामान्य नहीं है, इन्द्रदिन्न सरि की महत्ता का अमृतमय फल है। आप श्री ने सकता है कि आचार्य श्री स्वयं आयबिल-रूखा-सूखा भोजनकर जबकि समय पर चाय न मिलने से लोगों के प्राण संकट में पड़ जाते गाँव-गाँव, घर-घर, डगर-डगर चलकर परमार-भाई-बहनों भगवान् के गुण-गान में निमग्न रहते हैं। पर दूसरों को देने के हैं। अतः यह मानने में आगा-पीछा नहीं करना चाहिये कि यह को प्रतिबोधित किया। उनके बीच पावागढ़ तीर्थ का उद्धार कर लिए, धार्मिक कार्य सम्पन्न कराने के लिए, लाखों रुपयों को तपस्या गुरु-सान्निध्य का परम पुनीत फल है। उनके लिए भजन-पूजन का स्वर्ण अवसर प्रस्तुत किया है। लोष्टवत् समझते हैं। जिससे जो कह दिया,दे दिया निहाल हो गया। भगवान महावीर स्वामी को भली भाँति ज्ञात था कि मेरा यह अतः यदि जैन-जगत ने आप श्री को परमार-क्षत्रियोद्वारक अन्तिम भव (जन्म) है, वीतराग तीर्थकर का मैं जीव हूँ। फिर भी कह कर अपने को धन्य बनाया तो वह सर्वथा उचित है। गुरुदेव राष्ट्रसन्त आचार्य समद्र सरि भारत पर चीनियों के बारह वर्षों तक "काउसग्ग" मुद्रा में उनके घोर तप का क्या अर्थ आक्रमण से जिस प्रकार विक्षुब्ध हो उठे थे, घायल भारतीय है? यही कि पूर्व जन्मों के कर्मबंध तपों से ही छुटते हैं, किसी का आचार्य श्री विजय इन्द्रदिन्न सूरि ने साध-साध्वी-समाज का । सैनिकों को रक्त दान करने के लिए प्रस्तुत हो गए थे, उसी प्रकार व्यक्तित्व भले ईश्वरीय हो उसके लिए भी तप अनिवार्य है। स्तर ही ऊँचा नहीं उठाया वरन् श्रावक-श्राविकाओं की आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि प्यारे पंजाब के निरपराधियों की इसीलिए महावीर स्वामी के क्रमिक पट्टधर आचार्य श्री सुख-सुविधा का भी वे पर्याप्त ध्यान रखते हैं। आपके आशीर्वादों हत्या देखकर विचलित हो क्षत्रियोचित शौर्य को ललकार रहे हैं। जगच्चन्द्र सूरि ने उग्र तप किया, फलस्वरूप वे "तपागच्छ" के से कितने श्रावक लखपति ही नहीं, करोड़पति और अबखर्बपति वे आचार्य हेमचन्द्र सूरि के कथनानुसार स्पष्ट घोषणा करते हैं कि संस्थापक और प्रवर्तक हुए। यह घटना इस ओर भी संकेत करती बन गए हैं। मध्यम वर्गीय सार्मिकों के लिए देश के विभिन्न निरपराध लोगों की हत्या करने वाले आततायी वध के योग्य हैं। है कि "तप" सभी श्रमणों के लिए अत्यावश्यक है, विशेषकर नगरों में आवास-योजनाएँ कार्यान्वित हो रही हैं। बम्बई में, जहाँ यह हिसा नहीं, अहिंसा-व्रत का पालन है। "तपागच्छ" के लिए तो आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। आवास की सबसे बड़ी समस्या है, कई आवास-कालोनियां बन इस प्रकार आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि सर्वगुण सम्पन्न । क्योंकि उसका नाम "तपागच्छ" जो है। अत: चरम तीर्थंकर गई हैं। जैनाचार्य हैं जो आज जैन-जैनेतर सभी भारतीयों के श्रद्धा केन्द्र भगवान् के क्रमिक पट्टधर और 13 वीं शती में तपागच्छ के आचार्य श्री के श्री वल्लभ स्मारक-प्रवेश के समय धर्म के प्रवर्तक आचार्य जगच्चन्द्र सूरि महाराज के क्रमिक गच्छाधिपति सातों क्षेत्रों के सिंचनार्थ श्री अभय कुमार ओसवाल ने सौ लाख का आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि का आदर्श सम्मुख रखकर, आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि का मन सदैव तप में रमा रहता है तो दान किया, यह आचार्य श्री की तपः पूत-प्रेरणा का परिणाम है। उनके क्रमिक पट्टधर आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि के सान्निध्य में यह स्वाभाविक और परंपरागत प्रधान कर्तव्य है। इसीलिए श्री ओसवाल जी ने लुधियाना में करोड़ों की लागत से सम्पन्न होने श्री विजय वल्लभ स्मारक की अंजनशलाका-प्रतिष्ठा हो रही है, आपश्री सुयोग्य तपागच्छाधिपति हैं-और "तप" पर विशेष बल वाली विजय-इन्द्रनगर आवास-योजना की घोषणा कर बह जैन-समाज के लिए अत्यन्त गौरव और गर्व की दिया करते हैं। ऐसे तपोनिधि का सान्निध्य प्राप्त कर तपागच्छ जैन-जगत् ही नहीं सारे देश को आश्चर्य चकित कर दिया है। यह अविस्मरणीय घटना है।. aninEdunite www.dainelibrain Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागे भाग हमारे मानव सद्भावना के महान् संत श्री विजय इन्द्रदिन्न सूरि -सुशील "रिन्द" - श्री अविनाश कपूर जागे भाग हमारे, जागे भाग हमारे गुजरात प्रांत की पावन धरती पर श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न "नरसंडा" गांव जिला खेड़ा (गुजरात) में इनकी दीक्षा हर्षोल्लास इन्द्र सूरि के रूप में मिल गए हमको वल्लभ प्यारे। सूरीश्वर का जन्म बड़ौदा से 70 कि.मी. दूर, बोड़ेली के पास से सम्पन्न हुई। इस प्रकार परमार क्षत्रियों में सर्वप्रथम जैन मुनि बाल बहन रणछोड़ भाई का दीपक बन कर आया। सालपुरा गांव में संवत् 1980 में कार्तिक कृष्णा नवमी को परमार होने का गौरव मुनि इन्द्र विजय जी को प्राप्त हुआ। आचार्य विजय सालपूरा गुजरात देश का, हीरा वह कहलाया क्षत्रिय श्री रणछोड़ भाई के घर हुआ। उनका बाल्यावस्था का बल्लभ सूरीश्वरजी के आचारों-विचारों और आदर्शों का इनके कौम क्षत्रिय जन्म लिया, पर जैन धर्म अपनाया नाम मोहन था। जीवन पर अमिट प्रभाव पड़ा। नाम था मोहन, मोह ले सबको ऐसा रूप था पाया संवत् 2027 में आचार्य की पदवी प्राप्त करने के बाद गत छोटी उमर में दीक्षा लेकर बन गए सबके प्यारे...... आचार्य भगवान को बचपन में ही माता-पिता से धार्मिक 18 वर्षों में जैनाचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वरजी ने भगवान् कोमल दिल था, देख न पाए जीवों की कुर्बानी सस्कार मिल। चाचा या साता भाइ क सामाप्यस्प्रातभाशाला महावीर के सिद्धांतों का प्रचार करने, जैन तीर्थों, मंदिरों का कठिन तपस्या, प्रभु भक्ति के अर्पण हुई जबानी की बोध हुआ कि जीवन का उद्देश्य परमतत्व की प्राप्ति है। जीणोद्धार एवं प्रतिष्ठा करवाने, शिक्षण संस्थाएं, अस्पताल, आत्म जैसी काया इनकी, बल्लभ जैसी वाणी विचारा आर पूर्वजन्म क सस्काराक कराण माहन भाइमवराग्य कन्या-छात्रावास आदि अनेक संस्थाएं स्थापित करने के लिए समुद्र जैसे गंभीर हैं यह, चेहरा नूराणी भाव दृढ़ होने लगा। प्रेरणा देने का सराहनीय कार्य किया है। विनय विजय गुरु की सेवा से हो गए हिन्द के तारे..... 17 वर्ष की अल्प आयु में ही इच्छा न होते हुए भी इनकी संवत् 2034 में आचार्य समुद्र सूरीश्वरजी का मुरादाबाद में कुबेर जैसे इनके खजाने, जो मांगो मिलता है शादी सम्पन्न हो गई। मगर मन न लगा। आत्मा इस सांसारिक । TRA समाधिपूर्वक देवलोकगमन हुआ तो आचार्य विजय इन्द्रदिन्न इनकी शरण में बदकिस्मत भी, भाग्यवान बनता है जाल को काटने का अवसर खोजने लगी। एक रात स्वप्न देखा कि सूराश्वर जा आचार्य समुद्र सूरीश्वर जी के पट्टधर हए। बहार हो जिस फल से रूठी, वह भी यहाँ खिलता है। एक महात्मा उन्हें संकेत करके कह रहे थे कि बेटा, मोहन, कब श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी का मानना है कि प्रभु कोई समस्या कैसी हो उलझन पल में ही हल मिलता है | तक सोते रहोगे। क्या तुम्हें ऊषा का आलोक प्रिय नहीं है? म तक सोते रहोगे। क्या तुम्हें ऊषा का आलोक प्रिय नहीं है? महावीर भगवान का मुख्य उपदेश अहिंसा है। अहिंसा मनुष्य को आत्म वल्लभ समुद्र के भी इनमें हैं गुण सारे........ तत्काल ही वह उठे और मुनि विनय विजय जी के पास पहुंचे। ही नहीं, जीव जंतुओं, दृश्य अदृश्य प्राणियों, पेड़ पौधों व समुद्र सरि की थी यह भावना. वल्लभ स्मारक बनाएँ | स्वयं दीक्षित होने का आग्रह किया। मुनि जी उनके वैराग्य भाव से वनस्पतियों की भी होनी चाहिए। इसका प्रचार और पालन गुरू भक्ति पंजाब की क्या है, कर के तो दिखलाएँ | परिचित थे। अतः संतव् 1998 फाल्गुन शुक्ल पंचमी के दिन प्राणिमात्र का धर्म है। मृगावती ने सबको जगाया, कहा कि देर न लाएँ आज्ञा गुरु की सर आंखों पर धर्म की शान बढ़ायें मनुष्यता का निवास इन्द्र सूरि की हुई जब कृपा, लग गई नइया किनारे... जहां आकृति से भी मनुष्य हो, प्रकृति से भी वहीं मनष्यता का निवास होता है। ऐसी मानवता पैसे से, कौम के आज्ञावानों आओं आया समय सुहाना सत्ता से, बल से या बद्धि से नहीं मिलती. ऐसी मानवता मिलती है देश, वेश, धर्म, सम्प्रदाय, जाति, कर लो योजनाएं सब पूरी खली है अब तो खजाना धन की वर्षा करने आया सेठ बड़ा मस्ताना । कौम, प्रान्त, भाषा आदि की दीवारों को लांघ कर दनियां के हर मानव के साथ मानवता का व्यवहार मंदिर, गुरुकुल कालेज बनाओ जैसा कहे जमाना करने से ही। देवी देवता सेवक हैं "रिन्द" चलते हैं इनके इशारे...... -विजय वल्लभ सरि Santonhimanon जागे भाग हमारे... mainlairers.org Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 सर्वधर्म समन्वयी, प्रशान्ततपोमूर्ति, योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् विजय जनक चन्द्र सूरीश्वर जी म. का जन्म गुजरात के ऐतिहासिक नगर जम्बूसर में वि.सं. 1982 में हुआ था। उनका बचपन का नाम सुरेन्द्र कुमार था। अट्ठारह वर्ष की वय में उन्होंने वि. सं. 2000 में वरकाणा में दीक्षा ली। दस वर्ष तक निरंतर वे आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी म. के. पावन सानिध्य में रहे। स्वर्गीय गुरुदेव की क्रांतिपूत विचार धारा उन्होंने आत्मसात की। यद्यपि उनकी जन्म भूमि गुजरात है फिर भी उनका कार्यक्षेत्र उत्तरी भारत रहा है। आचार्य श्रीमद् समुद्र सूरीश्वरजी म. ने उन्हें सूरत में सं. 2011 में गणि पद से अलंकृत किया। उन्हीं की आज्ञा लेकर उन्होंने पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रवेश के छह सौ गांवों में अहिंसा एवं शाकाहार का प्रचार दस वर्षों तक किया। इसके साथ-साथ पंजाब को तो उनकी और भी महती देन है। गुरुभक्तों की युवा पीढ़ी को संस्कारी एवं धर्मनिष्ठ बनाने के लिए "जैन दर्शन शिक्षण शिविर" का आयोजन किया। आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी म. की जन्मभूमि 'लहरा' में चातुमांस कर पूरे गांव को अहिंसा प्रेमी बनाया स्थानकवासी और मूर्तिपूजकों के आपसी मतभेद एवं मन-भेद को दूर कर दोनों को एकता सूत्र में बांधने का भी महत प्रयत्न किया है। उन्हीं के प्रयत्नों का फल है कि आज पंजाब में उक्त दोनों संप्रदायों के लोग कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करते हैं। उनकी महती शासन सेवा एवं मानवता के उदात्त कार्यों को देखते हुए आचार्य श्रीमद् विजयेन्द्र दिन सूरीश्वरजी म. ने उन्हें सं. 2039 में आचार्य पदवी से विभूषित किया। 'विजय बल्लभ स्मारक' को भी समय समय पर उनका सहयोग, मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद मिलता रहा है। गत पंद्रह वर्षों से मानव निर्माण के बुनियादी कार्यों के साथ-साथ अन्तमुर्ती आत्मसाधना में भी वे लीन रहे हैं और 'सामायिक ध्यान साधना शिविर का आयोजन कर आन्तरिक उपलब्धि के नवनीत को आतं जनता में मुक्तहस्त से वितरित करते आ रहे हैं। इस ध्यान साधना के द्वारा अनके लोगों को आध्यात्मिक अनुभूति सम्पन्न बनाया है। आज के तनावग्रस्त, भयभीत और अशान्त मानद के लिए उनकी यह पद्धति वरदान सिद्ध हुई है। आचार्य श्री विजय जनक चन्द्र सूरीश्वरजी म. का विश्वास ठोस, रचनात्मक एवं पारिणामिक कार्य में रहा है। जीवन सुधार और मानव निर्माण ही उनका ध्येय है। उनका मानना है कि भगवान महावीर की परंपरा के प्रत्येक श्रमण को सर्वोदयी होना चाहिए। उन्होंने जो कार्य किए हैं और कर रहे हैं वे केवल जैन समाज के लिए ही नहीं, पर मानव मात्र के लिए कर रहे हैं। उनके कार्यों में न जाति बाधक बनती है न संप्रदाय न ही देश काल की सीमा। इस प्रकार भगवान महावीर के सर्वोदयी विचार को क्रियान्वित कर जैन समाज एवं उसकी श्रमण परंपरा के लिए उन्होंने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनके विशाल कार्यों और विराट् व्यक्तित्व को सीमित शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। इस समय इस अवस्था में भी वे महाराष्ट्र के सुदूर क्षेत्रों में अहिंसा, शाकाहार, मद्यनिषेध आदि सर्वोदयी मानव सेवा का सराहनीय महान् कार्य निष्काम भाव से कर रहे हैं। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वधर्म समन्वयी, जिनशासन प्रभावक योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् विजय जनक चन्द्र सूरीश्वरजी महाराज सौजन्य - श्री कस्तुरीलाल जैन शाहदरा, दिल्ली Jan Eoesmorn international Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational For Prvate & Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atmavallabh आत्मवल्लभर આત્મવલભ जैन तीर्थ एवं कला वैभव सकल तीर्थ वंदं कर जोड़, जिनवर नामे मंगल कोड़। पहिले स्वर्गे लाख बत्रीश, जिनवर चैत्य नमुनिश दीश। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F or vi ETA CORO Isor CO SUNWHKUMMUM WMS AMAT DIMCIS WOOOOOOOO 1 MIL WISE BAENIDRACEI ALE NEW DELHE10008 OOO OO DOBRORISO900etosti Forvete Sobalse Only WWW .Org Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE TEMPLES OF INDIA and a temporary shelter for the participants erected. This was the period of the Vedas, the primary texts of Hinduism, which give details of the religious ceremonies but do not refer to temples. Although Indian civilisation is very ancient its early history is still obscure. We know that four thousand years ago and more an advanced culture was present in the north, in the valley of the Indus. Excavations of two cities, Mohenjodaro and Harapps, have revealed to us some details, tantalisingly incomplete, of the material remains of the Indus valley civilisation. The lower walls of brick-built dwellings and some larger buildings have been uncovered by the archaeologists. Perhaps some were for religious use but we cannot yet be certain. The architecture, so far as the surviving remains can show, was functional and plain. If decorated at all, the decoration, perhaps, of carved wood, has long since perished. We cannot look for the origins of Indian temple architecture in the utilitarian buildings of Mohenjodaro. The Indus valley civilisation came to an end early in the second millennium BC as the nomadic Aryan tribes moved in from what is now Afghanistan and Baluchistan. Historical research is only very slowly uncovering the early story of India and our knowledge of the long ages before the seventh century BC is very patchy. If there were temples in this period they have long since vanished: made of wood or mud-brick they would not have survived the ravages of time. Probably there were no temples: the daily rituals would be performed in a little sanctified place in the home. Communal or public sacrifices would take place in a sacred enclosure out of doors where the altar was set up according to the prescriptions in the sacred texts. Indian religious architecture, if such we can call it at this stage, comes into focus around 250 BC with the emperor Ashoka who made Buddhism the state of religion all over his wide dominions, which took in most of sub-continent except the extreme south. Ashoka caused to be erected in various places tall stone pillars, sometimes fifty feet high, crowned by a Buddhist symbol: the triple lions and wheel of the law on the pillar at Sarnath have been taken as the state emblems of modern India. At about the same time the stupa, a hemispherial mound over a grave or over sacred relics came to be faced in stone and became, in various forms, a characteristic Buddhist monument wherever Buddhism spread. In India the stupa stood on a round or squared base, it was faced with worked stone on a foundation of stone rubble. A mast at the top bore an umbrella-shaped finial. A stone railing with one or more entrance gates formed an enclosure around the stupa and steps led up to a circumambulatory processional path at a higher level. Some stupas were of great size, others were sufficiently small to be enclosed within a building or chaitya hall. The word 'chaitya was occasionally used to designate a stupa but more generally can refer to a shrine or temple or any sacred place. Here we have something which can be looked apon recognisably as a temple. From around 200 BC temples cut into rock faces appear in various parts of India. The chaitya hall at Bhaja near Bombay dates from the first century BC: it is high-arched and is cut deep into the rock with a stupa carved from solid stone at the inner end. A still grander example is at Karli, also near Bombay. Constructed some two hundred years later, like the earlier one it has a line of columns on each side of the main hall separating it from side aisles: the columns are beautifully carved. Cave temples continued to be constructed for over a thousand years. Perhaps the most famous of all are at Elura in Hyderabad. Here there are no fewer than thirty-four temples, chaitya hall and monastic quarters cut into the rock. The earliest are Buddhist but from the early sixth century AD some seventeen Hindu temples were constructed. Perhaps the most astonishing is the Kailasa temple which is carved from a solid mass of rock 276 feet long and a hundred feet high left standing after the hillside had been trenched on three sides around this rock mass. This incredible structure took a hundred years to complete. This is a unique example, the remaining temples, including five Jain ones, are true cave temples, cut into the rock of the hillside. The cave temples vary considerably in plan but basically consist of a large hall with a small shrine at the end for the sacred image of the particular cult. Other smaller rooms may open off. or sometimes two wings give a cruciform plan. The five Jain temples are among the latest and probably were begun early in the ninth century AD though the images could have been completed www.jainelibrary.om Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 later. Each of the Jain temples has the basic plan of a main hall and shrine, with a few exceptions. Most notable amongst the exceptions is a temple in the caumukha tradition with four seated images in a central position facing the four directions. The earliest Hindu temples which survive today do not date any earlier than 400 AD. Indian temples, both Hindu and Jain, are usually classified on the basis of their architectural style into two main groups. In the south the so-called 'Dravidian' style developed on different lines from the 'nagara' or 'Indo-Aryan' style of the north. A third style is also identified, described as the 'intermediate' style, or (from the ruling dynasty) the 'Chalukya' style, which flourished in the Deccan from the eleventh century AD. The term 'intermediate' is not completely satisfactory for the basic characteristics of this style were nearer to those of the southern temples than the northern, though with certain characteristics of plan and decoration which distinguish it. In particular the rich ornamentation of this style suggests the dominance of the sculptor rather than the architect. It is not possible to draw a firm line across the map between the different styles: although the Dravidian style is mainly confined to the southernmost fifth of the sub-continent there are some examples much farther north, while examples of the northern style may be seen in the south. In the broader architectural features there is no major difference between the temples of the main branches of Hinduism, nor between those of the Hindus and the Jains. The distinctions become apparent only on examination of the images and other sculpture. In its fully developed form the temple is entered through a porch which leads into the main hall, the mukhashala or mandapa, a more or less spacious pillared area where the faithful can assemble for worship. Sometimes there may be side wings giving a cruciform plan. A vestibule, antarala, will connect the hall with the vimana, the sanctuary area within which is the garbha griha, the shrine containing the holy image. The vimana is usually continued upwards as a pyramidal or Jain Education spire-shaped sikhara which may be of considerable height and which is often the dominant feature from the exterior view. Often an ambulatory way allows the worshipper to pass around the garbha griha and the image within. The Indian temple is essentially the house of God: the image in the garbha griha (which is frequently a small dark cell) is the focal point, the raison d'etre for the temple, its location clearly marked from outside by the high-rising sikhara tower. Whilst the architecture of the temple developed over the centuries, it developed within the broad framework of the rules of architecture laid down in the ancient traditional Vastusastra which formed the basic textbook for the architect and builder. The techniques of the Indian temple builder were simple. Arches and domes were constructed from horizontal overlapping slabs of stone kept in place by the weight of those above. Thus the Indian temple is weighty, resting solidly on the ground, not free and loose like the later Gothic cathedral in the West with precisely calculated stresses in its keystone arches and minimal columns and buttresses. The solidity of the Indian temple is concealed by its decorative treatment with its walls and columns, outside in, often richly carved into a breathtaking splendour. The most noticeable difference between the northern and southern styles of temple architecture lies in the treatment of the sikhara tower. The northern temple commonly has the sugar-load shaped tower, tapering with gentle convex vertical curves to a rounded finial or cap stone at the top. Basically square in plan, such a tower can have smaller shorter versions of the same shape protruding from the sides, giving a star-shaped plan and, where there are several levels of these smaller elements, producing an elegant curved cone with vertical emphasis which leads the eye upwards. It has been suggested that the shape of this tower developed from an early shelter for an image the framework of which has made by setting four bamboo rods vertically in the ground and then bending and tying them together at the top. This derivation sounds fanciful but certainly the resultant form is very pleasing to the eye. Over the main hall, the mukhashala, of the northern temple the roof may be flattened or pyramidal, or may perhaps have a low dome. In some examples two or three pyramidal roofs rise from the porch to the main hall and led the eye up to the overtowering sikhara tower. In the Dravidian style the tower rests on a square base and is pyramidal in form, commonly with two sides steeper than the others so that the top of the pyramid is a ridge, not a point. Marked horizontal emphasis is given by lines of ornament and figures repeated around the sides of the tower so that it seems to rise in a series of horizontal bands. The straight lines (although broken by ornament) of these towers are not so pleasing to the eye as the magnificently proportioned convex-sided towers of the northern style. It is probably safe to say that the finest gems of Indian temple architecture, whether Hindu or Jain, are the northern style. Another characteristic of the southern temples is the development after around 1000 AD of magnificient gate towers to the temple enclosure, sometimes exceeding in size the sikhra itself. Temple building continues in India today. Families of hereditary temple architects still design temples on traditional lines. Indeed construction and endowment of temples has always been seen as a pious religious work: many of the finest examples, both Hindu and Jain, were built in relatively recent times. The Indian temple may be tiny building or a vast edifice of cathedral-like proportions. It is highly stylised, traditional and conventional, but nonetheless usually beautiful. What does seem to be lacking is any really innovative modern style comparable with that of some of the more successful modern churches in the West. One thing we must not forget. The temple is not constructed as a museum piece, as a work of art pure and simple. It is the locus of the god whose images is found within the inner shrine. It is religious building and its artistic qualities are there at the service of and subsidiary to its spiritual functions. www.jailb Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ men, have caused to be built the Jain temples which are an important feature of Indian religious architecture. In this they follow the example of Bharata, son of the first Tirthankara, Rsabha, who is traditionally said to have erected the first temple. dedicate to his father. Not only individuals but also a whole community may take the initiative in the construction of a temple. Jain temple come within the wider tradition of Indian temple building and their architecture follows the style of the region and era in which they are built. The finest temples are found in those areas where the nagara or northern style of temple architecture was dominant. The Jain temples of the areas of the Dravidian style in the south are generally less splendid and simpler in concept than the most magnificent examples of more northern parts. The focus of the temple is the shrine or garbha griha in which the Jina image is placed. There will normally be space around the garbha griha for the circumambulation of the image in the rituals of worship. Above this the dome or spire (sikhara) will rise. Before the shrine there may be a vestibule and then the main hall. The exact layout may vary but basically the temple needs a hall where the worshippers may assemble and the shrine at one end. One variant found in some Jain temples is the caumukha or caturmukha layout. An especially splendid example is the temple at Ranakpur dating from the fifteenth century AD. The shrine holds a grouping of four images (at THE JAIN TEMPLES OF INDIA In the middle world of Jain cosmography is the continent of Nandisvaradvipa, the island of the gods. Here, according to Jain tradition, are situated the fifty-two eternal temples which figure frequently in Jain art as stylised buildings on a plaque or conventionally represented by fifty-two Jina images around a stone or metal pyramid. The temple is central to Jainism and these representations indicate its importance as the building which houses the image of the Jina Meditation on the Jina and reverence to the Jina image is a fundamental part of the religious life of the Jain: this may be before a small shrine in the home, or it may be in the temple. The building of temples is highly meritorious act. In past times ruless, and more recently wealthy merchants and business. FPV P ony Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ away to the west, near the town of Junagadh, stands the notable collection of temples at Girnar. They are not so numerous as those at Satrunjaya but at least one, dedicated to Neminatha, the twenty-second Tirthankara, dates back before the thirteenth century. Very interesting and unusual is the Vastupala temple. An inscription claims that the wealthy minister Vastupala and his brother Tejpala had erected a crore of temples in various places. Allowing for considerable exaggeration, the brothers were certainly very generous patrons of temple building and restoration in the thirteenth century. The Vastupala temple is unusual in having a central shrine leading from the east side of the main hall, dedicated to Mallinatha, whilst two further shrines on the north and south sides of the hall contain massive representations of the sacred mountains Sumer and Sametsikhara, Although the temples of Girnar, Satrunjaya and Mount Abu follow the style of the northern or nagara temples of the Hindus, they are built of marble which the wealthy Jain businessmen who founded many of them were able to afford. Moreover it was usual to establish a committee to see to the upkeep of the Jain temples so they are often kept in particularly good repair. Mount Abu, just on the Rajasthan side of the boundary with Gujarat, rather more than fifty miles west of Udaipur, is noted for the famous Delwara temples. One of the large temples there was founded by the Ranakpur they are of Rsabha, the first Tirthankara) facing the four directions. In the caumukha temple the group of images will be centrally situated facing towards four entrances to the temple. Sometimes, as at Ranakpur, the images are of the same Tirthankara, sometimes of different ones. Whilst Jain temples are often situated in town and villages where they serve as places of Worship for the local Jain community, many other are located at places associated with events in the lives of the twenty-four Tirthankara, or having other sacred associations. Often the sacred location, or tirtha, is on the top of a mountain or hill, frequently in a location of wild and secluded natural beauty. From the medieval period at least pilgrimage to these places has been an important feature of Jain piety. On some of these holy hills veritable temple cities have been erected containing hundreds of temples and smaller shrines, not laid out on any ordered plan but constructed wherever a level or potentially level space presents itself. With few exceptions the temples as they stand today date from the fifteenth century AD or later and most of the earlier ones have been reconstructed. Strong walls surround these aggregations of temples, and also the inner tuk or courts within which groups of shrines stand, a precaution against vandalism and destruction, perhaps, in earlier troubled times. One of the most famous temple cities is Satrunjaya, south of Palitana in Kathiawar, Gujarat, the place where the first Tirthankara achieved nirvana. The ridges of the two hills, two thousand feet above sea level, are crowded with an incredible collection of temples and shrines of very varied description and size. The holiest part of the mountain tops is occupied by the Sri Adisvara temple, a particularly ornate building dating from 1530 AD but situated on the site of a very much earlier temple dating from the tenth century and perhaps before. There is a fine caumukha temple dedicated to Rsabha, built in 1618, also on the site of an earlier one. The eastern entrance to the vimana, sanctuary, leads from the main hall, whilst the other three open through elegant two-storied porches into the courtyard. About a hundred miles www.jainelibrar Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ brothers Veatupala and Tejpala mentioned above. The temple has a large outer hall or rangamandapa. To keep a wide space clear of pillars the low dome has pushed to the extreme the technique of constructing such a dome with overlapping stone slabs and the technique of support which has allowed the structure to stand for many centuries is something of a puzzle to modern architects. Mount Abu was already the site of a temple erected two hundred years earlier by Vimala Shah, a minister of the king of Gujarat. It is said that he built it as penance for the blood shed when he was sent as a military commander to quell a rebellion. The oustanding feature of the Mount Abu temples is the extraordinary intricacy of the marble carving. Practically every surface and every structural detail is covered with figures and delicate tracery. Jainism has made a considerable contribution to the architectural heritage of India, not only in the splendours of the great temple cities but also in countless other edifices, great and small through Education onl For Private & Personal Line Only out the length and breadth of the sub-continent. New temples, some of them very splendid, keeping to the traditional forms, are still being erected. Unhappily there are old temples in areas where the Jain population has declined which have fallen into decay. In a way, though, this shows that the Jaintemple is a vital living institution, not simply an artistic museum piece. The temples of the great pilgrimage centres attract throngs of the devotees. But the smaller less well-known temples as well are centres for active religious life, it is right to beautify the edifice which houses the Jina image, as a sign of pious devotion and because the beauty of the surroundings can lead people to a spirit of religious worship. Some, it is true, prefer to worship in plain surroundings: they are, or should be, respected by those who prefer more elaborate outward forms. The object of Jain worship is not really confined within walls, but the temple, hallowed by the presence of the Jina image and by the prayers of devotees is a most important institution of the living faith of the Jains. www.ainelibrary.o Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ancient tirtha of the Jainas. In the Jnatadhar. makatha, a Jaina canonical text, it is referred to as Pundarikagiri. In later Jaina literature, this place is associated with some auspicious events in the life of Rsabha, the first Tirthankara. It is also said that a temple was dedicated to Rsabhanatha, on this mountain, Pundarikasvami, the first Ganadhara of Rasbha, obtained emancipation on this sacred mountain and a memorial to him, in the form of a shrine with his image, was raised here. Since then, the mountain came to be called Pundarikagiri. We shall now refer to a few images and inscriptions which throw more light on the art and antiquity of this site. Fig. 1 illustrates a beautiful marble image of Pundarikagiri installed in the first cell adjacent to the staircase, beside the main entrance to chief shrine of Rsabhanatha (Adinatha) on this moun. tain. This sculpture, fortunately well-preserved, is about 2.5 feet in height and about 1.5 ft. broad at base. The pedestal or the lowermost part of the sculpture has an inscription in four lines. A big lotus with an ornamental long stalk springs from the top of the pedestal, and divides the whole sculpture into two sections. The upper section shows a figure of Pundarikagiri, sitting in the padmasana, dhyanamudra, on a cushion-like seat placed on the full-blown lotus. There is a back-rest whose two ends show lions supporting the horizontal bar resting on two pillars. Above are two divine garland-bearers, and on top the chatra or the umbrella. The figure of the Ganadhara could easily be mistaken for that of a Tirthankara, if the inscription had not specifically shown that it represented Pundarikagiri. VEJENTA Some Inscriptions and Images on Mount Satrunjaya AMBALAL PREMCHAND SHAH The age of antiquity or ancient monuments is temples-site of Delvada, Mount Abu. I generally inferred from the styles of architec- One can see several streets and rows of temples ture and sculpture and on the basis of available and images on Mount Satrunjaya. A common man inscriptions. Since the temples at Satrunjaya were can hardly make any distinction between the renovated from time to time through many earliest and the latest specimens of art among the centuries very little evidence of antiquity has been hundreds and thousands of images in this templeleft for us. For want of published old inscriptions, city, where no human habitation is allowed. But sculptures in temples, scholars came to believe the searching eye of a historian is on the look ou that the temple-city of Satrunjaya could hardly for all stray old inscriptions and specimens of art. claim to be earlier than or even as old as the Jaina. According to literary traditions, Satrunjaya is an in Euro Below the lotus, the two sides of the stalk further form two sections, the centre being occupied by the sthapana. To the right of the sthapana sits a Jaina monk, a Guru, in the act of giving a discourse to the two disciples sitting in front, with folded hands, on the other side of the sthapana. This is one of the finest examples of sculptural art of Gujarat in V.S. 1064/= 1006 A.D.), the date of TO Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the inscription. Unfortunately part of the beauty of a work of superior workmanship, full of life and vigour and beautiful modelling, glass eyes, and studded metal pieces on different parts of the body of Pundarikagiri and the two smaller figures. This is a practice which has undermined the beauty of many a Jaina sculpture, old or new. The inscription reads as under Narayana in the anjalimudra (with folded hands) in the lalita-posture, ie, with his right-foot hanging and the left fucked up. He wears ornaments like armlets, bracelets, anklets, an ornamental broad girdle, necklaces and big circular ear-rings. He has a long beard, whether or not he had moustaches in the original is difficult to ascertain on account of the modern black paint, but it is probable that the paint is on the original moustaches. His hair are tied into a small top-knot on the head, on each side of which is a divine garland-bearer. This is unusual. since a lay. worshipper is not known to have been accompanied by heavenly attendant maladharas. The marble sculpture is a beautiful specimen of secular sculpture of the eleventh century AD. In her right hands, the goddess shows the sword, the disc, the trident, the arrow and the varada-mudra, while in the left ones she holds the shield, the vajra-ghanta, while in the left ones she holds the shield, the vajraghanta, (combination of thunderbolt and bell), the mace, the conch, the bow and the head of the personified demon (placed on the buffalo-demon) (१) श्रीमयुगादिरेवस्य पंडरीकस्य च क्रमौ। ध्यात्वा शत्रुजय शुद्धयन् सल्लेखाध्यानसंयमैः।।१।। श्रीसंगमसिद्धमुनिर्विद्याय )रकलनभस्तलमृगांकः। दिवसैतभिरधिकं मासमपोष्याचलितसत्त्वः।।२।। वर्षे सहस्त्रे षष्टयां चतन्वितयाधि के दिवमगच्छत। (-)सोमदिने आग्रहायणमासे कृष्णाद्वितीयायां।३। अम्मेयक: शभ तस्य श्रेष्ठिरोधेयकात्मजः। पंडरीकपदासंगि चैत्यमेतदचीकरत।।४।। चतर्भिः कलापकं।। The ornaments and the modelling deserve comparsion with the famous Sarsvati from Pallu in old Bikaner State, now preserved in the National Museum, New Delhi. The sculpture must be assigned to a period c. 1000-1050 AD The Two-line inscription on the pedestal reads as follows: (2) W om f ortere frafrater थे. नारायणम्य मूर्ति (6) निवेमि (शि) ता मिद्ध-वीरंम्या सं. 9938 According to the inscription, Muni Sangamasiddha, moon of the firmament of the VidyadharaKula, meditated on mount Satrunjaya, before Yogadideva (Adinatha) and Pundarika. Having purified himself by the practice of austerities and sallekhana, observing dauntlessly his fast for a month and four days, attained to Heaven on Monday the second day of the dark half of the month of Margairsa in V.S. 1064 Sresthi Ammeyaka, son of Rodheyaka, caused to build this shrine and consercrate) the image for his own merit. The small figure of a female worshipper on the lower end of the left pillar deserves notice as a fine specimen of miniature figure and on account of the mode of representing the scarf or odhani covering the head and the back. According to the inscription, this statue of Sresthi Narayana, the younger brother of Jajanaga, and father of Kapardi, was set up by Siddha and vira in (Vikrama) Samvat 1131 (e. 1075 A.D.) The inscription on the pedestal reads as follows This Muni Sangamasiddha is probably the grandteacher of Padalipta, the author of Nirvanakalika. Fig. 3 represents a twelve-armed Goddess who is well-known as Mahisa-mardini in Hindu traditions and as Saccikadevi in Jaina traditions. This is the earliest known inscribed and dated image available at Satrunjaya. It is important also as a fine specimen of art. (३)संवत् १३७१ वर्षे माहसदि १४ सोमे श्रीमदकेशवंशे बेसटगोत्रीय सा०सलषणपत्र सा०आजडतनय सागोसल भा०गुणमतकुक्षिसंभवने संघपति सा०आशाधरानुजेन सा० लूणसिहाग्रजेन संघपतिसाधुदेसलेन पुत्र सा०सहजपाल मा०साहणपाल सा०सामंत सासमरा सा०सांगणप्रमुखकुटंबसमदायोपेतेन निजकुलदेवीश्रीसच्चिकामूर्ति कारिता। यावेद व्योम्नि चन्द्राकों यावद् मेरुमहीधरः। तावत धीमच्चिकामतिः Fig. 2, preserved in a cell on the right side of the northern part of the circumambulatory passage of the main shrine, represents a householder, i.e. a Sravaka, a Jaina lay worshipper. The inscription on its pedestal shows that this is a statue (a portrait Sculpture?) of Sresthi Narayana It is a beautiful marble sculpture of the goddess in bold relief, the back showing a trefoil-like arch surmounting two pillars and thus suggesting that the Goddess is placed in a miniature shrine. On top of the sculpture, in the central part of the arch, is a miniature shrine with a Jina sitting in it. The Mahisa-demon is an excellent specimen of animal-sculpture. The figure of the goodess, with her one foot trampling on the buffalo-demon pierced by her long trident, is The inscription shows that this image of Saccikadevi was set up by Samghapati Sadu Desala, the elder brother of Lunasimha, and younger brother of Asadhara. He was son of Ajada and grandson of Salaksana and belonged to Vesata-gotra of Ukesa lineage He, along with other members of the family on a raised cushion, surmounted by a design looking like petals of a full-blown lotus, sits Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ and his sons Sahajapala, Sahanapala, Samanta, and Sangana, set up this image of the family deity Saccikadevi, in the year 1371 V.S. (=1314 A.D.) There is a shrine of Saccikadevi at Osia in Rajasthan. The Ukesa lineage is named after this ancient town which was known as Ukesa-pura. The Oswala banias are named after this Osia and are supposed to have hailed from this town. At Osia, also, the Saccikadevi image represents the form of Mahisamardini. Fig. 4 represents statues of Minister Samarasimha and his wife Gugan. This is important sculpture of the famous "Samara-saha" who renovated, in V.S. 1371, the various shrines at Satrunjaya. A detailed account of this minister, his lineage and his family is available in Nabhinandana-jinoddhara-prabandha. The minister stands with folded hands, while his wife carries a purse (money-bag) inher right hand and a cup or bowl containing sandal wood and saffron-paste for worship is held in her left hand, Unfortunately the present whereabouts of the The name of Hemacandra, the great scholiast and bronze are not known, but the present writer had monk whomboth the above rulers highly respected, once seen it in one of the temples on Mt. is also associated with this era. Hemacandra Satrunjaya. A new photograph of the whole figure himself, in his Abhidhanacintamani (6.171) comis thus not possible and only this photograph of a posed in V.S. 1207-8, mentions this era in the part of it, obtained from the Sheth Anndji Kalyanji's following way while explaining 9= :Pedhi Ahmedabad, is reproduced here. It will , RBHCHI however be seen that the bronze is a beautiful The metal image should thus date from V.S. specimen of metal sculpture in Western India. 1203. No other inscription to this era is yet known We have noted above four inscriptions from this but one would not be surprised if some more site. A few more inscriptions ranging from V.S. inscriptions dated in this era are discovered in 1207 to c. 1405 A.D. are noted below. future. It seems, however, that the era ceased to be in use, soon after the deaths of Hemacandra and Inscription no.5 is on a mental image in Shrine No. Kumarapala since no other inscriptions posterior 302 situated on the left side of the chief gate of the in age to these personalities are known to have main temple of the Caumukha Tunk. The referred to it. On the contrary almost all such inscription reads as under: inscriptions refer to the Vikrama era, or in a few cases to the Saka era. Even in colophons of old manuscriptre we do not find any dates in this era. (५) श्री सिद्धहेमकमार सं०४ वैशाषन० २ गुरौ भीमपल्लीसत्क(? गच्छ) व्यवहरिचंद्र-भार्यागणदेवियोथें श्रीशांतिनाबबं । Inscription No. 6, from Shrine No. 280, reads as follows: According to this inscription, this image of Sri (६) सं० १२२८ ज्येष्ठसुदि १० शनी श्रीदेवनंदकीयगच्छे पहदेवेन Santinatha was installed for the spiritual benefit of I T 48 fantafeti Gunadevi, wife of merchant Hariscandra belong. The image was caused to be made by Pahudeva of ing to the Bhimapalli-gaccha. The image was the Devanandakiyagaccha , on Saturday, the tenth consecrated on Thursday the 2nd day of dark day of the bright half of the month of Jyestha, in fortnight of the month of Vaisakha in the year 4 of V.S. 1228, for the spiritual merit of his father Pala. the Siddha-Hema-kumara Samvat Inscription No. 7 is on a mutilated image stored in This is a very important inscription, first noticed by one of the underground chambers. The inscription Muni Sri Punyavijaya and published by him in the reads as follows: Jaina Satya Prakasa, Vol. VII, No. 1 (Ahmedabad, 1943), pp. 259-261. The metal image must be very (७) संवत् १२७३ वर्षे कार्तिकशुदि १ गुरौ श्रीधंधुक्के carefully preserved, being the only known inscrip- arg o -YHT: orie : tional evidence of the Siddha-Hema-Kumara Era. afar w o T ATT : TII There great personalities of the history of Gujarat According to this inscription, this image of Pandita are associated in the name of this Samvat (Era). Yasovarddhana, disciple of pandita Asacandra and One is Siddharaja Jayasimha, the second is Acarya Padama of Vayatiya gaccha and hailing from Hemacandra and the third is king Kumarapala of belonging to the town of Dhandhukaka, was set Anahillapura-Patan. The era seems to have started up by Padmacandra, the (spiritual) son of his with the death of king Siddharaja Jayasimha and brother (ie the disciple of his monk brother), on the accession of his successor Kumarapala in Thursday, the first day of the bright fortnight of the Vikrama Samvat 1199 month of Kartika in V.S. 1273. The dress and ornaments of both the figures deserve notice Desala, referred to in the inscription on fig. 3 above, is the father of this Samarasimha. The inscription on fig. 4 runs as follows: (४) संवत् १४१४ वर्षे वैशाषसु० १० गुरौ। संघपति-देशलसुतसमरा तत्पत्नीगुगां सा०-सालिग - सा-सजनसिहाभ्यां कारितं प्रतिष्ठितं श्रीकक्कसूरिशिष्यैः भ०देवगुप्तरिभिः। y Hall Fig. 5 shows a part of a beautiful metal sculpture representing one figure of a Jaina in the centre, and two smaller Jina-figures on two sides above the halo of the bigger Jina. A two-armed Kubera like Yaksa sits on a lotus to the right of the main figure, while on the corresponding left end we find a two-armed Yaksi, sitting in the lalita posture. There is no inscription on this image, but on stylistic grounds it can be assigned to c. tenth century A.D. or a little earlier. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE INTERIORS OF SOME FIFTEENTH CENTURY JAINA TEMPLES OF RAJASTHAN M.A. DHAKY The end of the 13th century witnessed augmented, the zeal for building temples is wanton defilement and destruction of some once more and everywhere in evidence in 300 or odd Jaina temples in Western India that those territories were founded between the eighth and the 13th In Saurastra the architectural activity was century A.D. From the desecrated Jaina temple mainly concentrated on Ujjayantagiri (Mt. complexes, vast quantities of material, Giranar) and in Läta on Mt. Påvå (Pavagadh). particularly the decorated columns and Some of the larger centers in Northern Gujarat ceilings, were purloined to build the many were Antarsuba Polo and Samalaji. In mosques of the post-conquest and Sultanate Rajasthan, in the kingdom of the Guhilas, the periods in Gujarat and Rajasthan. The opening foremost sites were Citrakuta (Citaud). years of the 14th century saw the destruction of Karhetaka (Karhada). Devakulapátaka the most haloed of the Jaina tirthas of the (Dalvada). Kelvada. Kumbhalameru mediaeval times, Satrunjaya-giri. While under (Kumbhalner). Ränakapur, Hammirpur, special circumstances the reconstructions and Varakana, and Deulvada-gråma (Delvada) on new additions at these sacred hills did begin Mt. Abu. In the Bhatti region the most notable after A.D. 1313, rather timidly and on puny temples were built on the plateau of Jesalmer. scale, the process failed to gather momentum By inherent limitations of space available for, and for the rest of the 14th century there and time devotable to the preparation of the virtually followed a lull in the building activities. present Souvenir, this article is restricted to From the first quarter of the 15th century AD focus briefly on the highlights of some of the less known architectural splendours of the Socio-religious conditions improved in selected Jaina temples at only four places, namely areas in Western India, for example in the Hammirpur. Varakana, Kelvada, and Jesalmer. territories of the independent Rajaprata The 15th century is perhaps the least chieftains and monarchs such as the investigated, and hence less discussed for its Cudasamas of Jirnadurga (Junagadh) in architecture. The existing buildings, despite a Saurastra and the Ravalas of Pavagadh in the gap virtually of 75 years between the preceding Lätadeśa, both in Gujarat, and even more phase, apparently carries over the main importantly within the powerful monarchy of the schema.known forms and associated Guhilas of Medapata (Mevāda) as well as in decorative elements. And these doubtless the principality of the Bhattis of Jaisalameru show signs of progressive decadence in art. (Jesalmer). With stability returned and However, this century also is innovative in opulence of the Jaina communities matter of the configurations of plans, structural forms, decorative ideas, as in the manipulation of them all. For example the valánaka assumes greater importance and correspondingly also the scale and richness; so also is case of the bhadra-pråsådas which are usually disposed at the transversals of the rangamandapas-halls for the theatrical purposes - and in similar situations sometimes also with the gudhamandapas or closed halls. Also, the bhadraprasadas are sometimes provided with their own partial or fuller mandapas harmonized with and enhancing the over all effects of the interiors. The jala-lattice of the sikhara changes in its minutae, and the rathika-panels of the Sikhara are replaced by purely decorative, and hence unfunctional, balconies. The pillars of the halls manifest new varieties and oftener the emphasis of the earlier periods on figurative in their ornamentation is shifted to geometric and vegetal, this apparently was due to the impact of, or concession to the influence of Islam. The ceilings now are less rich in variety and their components and elements are further hardened. However, the lambana-pendant of the great central ceilings of the halls show a new development, of the filigree like treatment of the triangular crest of their component kola cusps and coffers. The most famous, just as the most impressive building of this period for its scale is the Caturmukha Dharanvihára (A.D. 1449 ff.) at Ranakpur. It is relatively well illustrated and MY Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 also has been discussed at some length. Some of the less known contemporaneous buildings are therefore selected for the present article. Hammirpur, Jaina temple (Plate 1) The late mediaeval township of Hammirpur (also called Mirpur), Sirohi District, no longer exists. The few residential buildings are largely connected with the upkeep of the temples. The most important here is the Jaina temple in marble which faces west and is built against the slope of the hillock. Consequently, the west front of the jagati-platform of the temple, as at Ranakpur, is considerably higher than at the east end. As originally intended, it was to have a surround of the devakulika sub-shrines. But, for some reason, the work stopped after progressing well with some subshrines at the west side. As it is, the complex consists of a mülapräsäda or main shrine with its gudhamandapa (closed hall). What follows next is not the customary navacauki-vertibule but a mukhamandapa. Three staircases from its western edge lead to the rangamaṇḍapa. The rangamandapa is not articulated with the pratoli-gateway further west, which is plain and interposed between the left and right wings of the devakulikās. A stairway from the pratoli, in turn, leads down to the valanaka or entry-hall from which in turn, a steep staircase leads out to the outside ground. The mulaprasada is the shapliest building of its age, handsomely proportioned and complete in décor (Plate 1). Its rich ornamentation includes the usual schema of base courses, the jangha section of the wall shows the apsaras and the Dikpäla figures at positions as ordained in the standard mediaeval västusastras of the Maru-Gurjara tradition. The three bhadra-niches, which once must have sheltered seated Jina figures, are vacant. The sikhara is beautiful both for its form in Education interiotional and details. Each of its three projecting bhadra-balconies have graceful phamsana or stepped pyramidical roof. The guḍhamandapa follows the style of the mulaprāsāda. Its two pillared pārsvacatuṣki-porch at the north as well as at south side illumines its well-proportioned interior. The gudhamandapa has a domical central roof, and is without the usual samvarana or bell-roof covering. The end-pillars of the mukhamandapa are like those at Ranakpur; middle pairs of columns at the three sides of the mukhamandapa atypically include ghata-pallava (vase-and-foliage) member, an insertion which aesthetically does not seem incompatible or irrelevant. The sopänamālā-stairways descending into the rangamanḍapa have flanks faced with posts in relief which carry stylized but beautiful vegetal designs (sometimes with vyäla figures) and also geometric patterns. The rangamandapa pillars with their uccalaka or attic member and tall bases look gracefully slender. The great karotaka ceiling of the Sabhämandäraka class here, as in the mukhamandapa, agrees more with the earlier rather than the 15th century conventions, but is somewhat dry in workmanship. While the devakulikäs are relatively simpler, the valanaka is a finely formed structure. Its short marble columns (Plate 3) are elegant and its decorative details are in accord with those in the pillars of the two halls discussed in the foregoing. All in all, the temple, with its staggered levels of its different halls and the way in which its pillar forms and their ornamentational enrichment interect and harmonize, is one of the scintillating gems of the 15th century building art in Western India. Varakāṇā, Pāršvanatha temple (Plate 4) For Prva & Pamonald Ony From some standpoints the Pārsvanatha temple complex at Varakaṇā, District Bali, is even more interesting than the Hammirpur temple. It is complete in its plan and structuring and possesses several singularly handsome features. The temple is of the 52-Jinalaya type on plan with the two prominent poly-buttressed bhadra-präsädas. The main complex is situated in a präkāra provided at the north with a fine columnar valänaka which also has an upper storey. It likewise has a small but storied dvara-mandapa or entry-hall at the east, with entry-porches on both ends. Unlike the valanaka it is located coaxially to the main complex. Among the unusual features of the main complex is a large columnar mukhamandapa hall having also an upper storey. Its Miśraka or composite pillars rival the Ranakpur temple columns in beauty (Plate 4) and, like the ancient Egyptian columns at Karnak, excel them for the effects generated in their groupings. Not so much for its scale, which is modest, but for the pleasure of the charismatic vistas it offers, the interior of the Varakānā temple is the most notable in that age in all Western India. Its special effects are due to its graceful meghamandapa which is conjoined at the north and south with the halls of its two large bhadraprasadas, and with the elegantly proportioned and neatly structured trika at the west. The slender, delicate looking but graceful columns of the meghamandapa support a false storey whose dwarf columns are spanned with carved grilles. It is indeed difficult to capture in camera the beauty of the composition of this part of the building on account of the tightly articulated groupings in shorter space of its four sections. which now seem to recede and now telescope, particularly at the longer axes. The Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. Hammirpur. Jaina temple complex, valanaka, columns 4. Varakāņā. Pārsvanatha temple complex, valánaka-mandapa, interior. W ITH WARGA Hammirpur (Mirpur). Rajasthan. Jaina temple complex, mulaprasada. Late Maru-Gurjara style, C. mid 15th century A.D. 2. Kelvādā. Mevada, Rajasthan. Abhinandanasvami temple complex, mulaprasada with gudhamandapa. Late Maru-Gurjara style. c. mid 15th century A.D. SI BLICO 0000 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 SHON ORDING 2017 URBE MANDO KEE axsetch S NOVAY 5. Jesalmer. Candraprabha-svāmi temple complex, meghamandapa, interior. 6. Jesalmer. Candraprabha-svāmi temple, Sabha-mandāraka karöṭaka central ceiling. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ karotaka-ceiling of the meghamandapa as well as of the upper storey of the mukhamandapa, and of the upper storey of valánaka have each an impressive central pendant which are somewhat dry for their detailing. The nature and type of the minor ceiling can be adjudged from a Padmaka ceiling located in the trika The mülaprasada and the güchamandapa are in the best formal tradition of that period in this part of the country, seeming though somewhat dry due in part to the texture and pale colouration of the white stone of Sonänä employed here. The Sikhara, though not so shapely as at Hammirpur, has jala which, at least on the faces of its mulamanjari or central spire, harks back to the 11th century. Varakana was known as Varakanaka in the late mediaeval times as is gleaned from the hymns of pilgrims and from other hymnic compositions. It was, and still is a famous Jaina tirtha of that region. Kelvādā, Abhinandanasvami temple (Plate 2, Kelvada, Udaipur District, has a temple sacred to the fourth Jina Abhinandana, though there is no certainty as to which Jina it originally was dedicated in absence of the original inscriptions and inscribed images in this temple. Stylistically, the temple seems of a date not later than the 15th century. The temple complex consists of a mulaprasada, gudhamandapa, trika and rangamandapa. A nali below the valánaka leads from outside to the threshold of the rangamandapa. The devakulikās had begun to be added but the work was at some point stopped and the surround is today in an incomplete state. The temple (Plate 2) is in the best traditions of the 15th century with most of its typical ornamentation including the madala- modillions beneath the khuracchadya-eve present. The columns of the rangamandapa are slender and graceful. But it is the trika ornavacauki which is the loveliest sight inside the shaped toranas thrown across temple. The peripheral columns of this the columns that form the central octagonal. beautifully proportioned structure are relatively The beauty of the central karotaka-ceiling is simpler. It is the three richly ornate central pairs destroyed by the garish oil paints and the electrically illuminated modern chandelier of columns which determine the dazzling hanging from its central pendant aspect of the composition. And there too, it is Jesalmer, Candraprabha-svami temple (Plates the highly inventive character of the front pair 5-6) which arrests most attention. The singularity of The interior of the temple of Jina the two octagonal pillars of this pair lies in their Candraprabha (which lay close by but to the shafts above the jangha which is fashioned as north-east of the Cintamani) is as glorious as an eight-pointed star with faces made up of its exterior In the available space, seven superimposed and totally articulate belts which doubtless was short, the architect has of tumalapatra-leaves. This imaginative and worked out a mircale, a masterly design of a original design must receive careful attention, very handsome meghamandapa surrounded for its designer must be an artist of profound by closely set devakulikäs. The inner sanctum, sensibility in the field of ornate architecture of astonishingly, is of the caturmukha or his times. four-doored conception. The temple was Jesalmer, Cintamani Parsvanátha temple founded in A.D. 1453 and hence is later by 35 Jesalmer, ancient Jaisalmeru, today is years than the Parsvanātha building. But it is famous for its ornate palatial mansions loaded far more ingenious in its plan and more comely with rich and fine carving alongwith the in proportions. The beauty of the delicately worked window and balcony grilles, meghamandapa cannot be adequately as well as for the group of its five late illustrated. However, even the aspects, one mediaeval Jaina temples. Of these temples the such as shown in Plate 5. are sufficiently earliest and the largest, the Cintamani corroborative to the marvel of the design. Its Parsvanátha, is a 52-Jinalaya class of building. richly wrought central karotaka ceiling (Plate The work started on the building in A.D. 1412 6) has an unusual feature of showing 12 and most of the devakulikäs were already rasika-rasikā mithunas in lieu of the usual added by A.D. 1417 single näyika figures. The central intricate The temple, as usual, has a mülaprasada, a pendant surrounded by lumas looks like the gudhamandapa, a mukhamandapa in lieu of huge cobweb and reminds of the parallel the navacauki, and an ample rangamandapa examples in the Kharatara-vasahi and which, however, looks stunted because it was Purnasimha-vasahi, both of c. A.D. 1437, on built at the same level as of the Ujjayantagiri and here in the Sitalanātha mukhamandapa. A richly decorated torana temple which lies adjascent to the Cintamani confronts the finely rendered mukhacatuski at Parsvanatha temple. the entrance of the temple. (The photographic illustrations in this article The best part of the interior is the are reproduced by the courtesy and assistance rangamandapa with columns that follow the of the American Institute of Indian Studies, mediaeval mould for its design. Its Center for Art & Archaeology. Ramnagar, effectiveness is heightened by the gracefully Varanasi.) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 The Jain temple is sanctified by the presence of the Jina image. The image of the Tirthankara is the focus of worship by the faithful, approached with reverence, treated almost (but not quite) as a living god. An image which has undergone the ritual consecration is highly venerated and must receive daily worship and care. Such an image is a great responsibility for the guardians of the temple: if the services of a permanent pujari, a temple custodian, are not available the community must make arrangement for the daily attention to the image the ritual bathing, offerings and worship, and the arati ceremony of waving lights before it. HODOD05 9.09.09 12 DE The Jina image is most commonly depicted in a seated position. Usually the full lotus' (padmasana) posture is shown, the right foot on the left knee and the left foot on the right knee, the hands laid in the lap, right over left. The 'half-lotus' posture with the right foot under, not over, the left knee is sometimes seen, more often with images from south India. Although, according to Jain tradition, twenty-one of the twenty-four Tirthankara achieved enlightenment in the standing posture of meditation (kayotsarga), this is not so frequently depicted in Jain iconography. Standing figures are, however, by no means rare: when shown standing the Jina figure is in a natural rather relaxed, position, indicative of meditative detachment, with the feet slightly apart and the arms hanging by the sides. The sculptural convention makes the arms rather long and the shoulders (as with the seated figure) broad. The Digambara image is completely naked in the tradition of Digambara monks): the Svetambara often show the Jina clothed in a simple garment and the image may be adorned with a crown and jewels. Usually, but not always, there is a diamond-shaped, four-petalled Srvatsa symbol on the chest of the Jina image, this symbol and the absence of a dot on the forehead, as well as the total nudity of many Jain images, distinguish these from the Buddha images with which they can sometimes be confused Conventionally the ear lobes are elongated, the hair of the head is carved THE IMAGES OF THE TEMPLE Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in close stylised curls. Only Rsabha, the first Indra, god of the heavens, to serve the Jina: they venerated in Jain rituals. The siddha, the liberated Tirthankara, is shown with pendent locks of hair: are sometimes explained as originating from the soul, has form but no material substance and is in an account of his renunciation he is said to have principal male and female disciples of the depicted as a blank outline or sometimes as an desisted from pulling out the last locks of hair on Tirthankara. Each Yaksa and Yaksini has his or her empty cut-out shape in a metal sheet. The the intervention of a follower distinctive characteristics and emblems held in Digambara especially, but also the Svetambara, two or more hands. pay great honour to Bahubali, the son of Rsabha The nineteenth Tirthankara, Mallinatha, is belie. who was the first Tirthankara. It is believed that ved Ithough not by the Digambara) to have been a Many other divine beings are depicted in the Jain Bahubali was the first individual to achieve total woman but this is rarely indicted in sculpture. temple but they are, of course, regarded as liberation in the present cycle of time. Although Indeed the conventional representations of the subsidiary to the Tirthankara. The outer wall of a this is not universally accepted, his noble sancity twenty-four Tirthankara may usually only be temple may be adorned with the figures of the ensures the respect of all Jains. He is shown, most distinguished by the accessory emblems and Dikpala, lords of the directions, east, south-east, notably in the great monolithic statue at Sravana figures. Parsva, the twenty-third Tirthankara, has a south and so on, the last two governing the upper Belgola, as standing in such deep meditation that canopy of seven hooded snakes, an allusion to the and lower regions respectively. The nine planets plants are growing over his limbs unheeded. account of his having saved a snake from fire. As are given iconographic form and are usually the immediate predecessor of Mahavira, though depicted as a group, often over the entrance door of The images of a Jain temple are rich, varied and some two and a half centuries earlier, Parsva is a Jain temple. They receive respect in certain Jain beautiful. However the simple figure of the one of the most commonly represented Tirthan- rituals. Particular regard is paid by the Jains to two Tirthankara is the prime focus of Jain worship. In kara in Jain iconography. However, images of the Indian goddesses, Sarasvati, or Sruta-devi, the spite of the austere simplicity of basic Jainism the seventh Tirthankara, Suparsva, also show a goddess of learning, and Laksmi, or Sri, the worshipper's respect can wander nevertheless canopy of snakes (leading sometimes to wrong goddess of wealth. Jains have always placed freely across the regions of the gods. But central to identification of ancient images). Suparsva's emphasis on learning and Sarasvati is honoured the worshipper's faith is the Jina, as an example to canopy has, however, one, five or nine snakes, not on certain days with special devotions and fasting. be followed, not as a donor of gifts or a judge of the seven which is the (almost) invariable She is depicted by the Svetambara riding on a merit and demerit, still less as the awesome bearer number shading the head of Parsva. swan, the Digambara show a peacock. It may seem of divine retribution. In the final resort the at first a little incongruous that a religion of individual has no external gods to grant him or her Clear identification of each several Tirthankara is austerity should honour the Indian goddess of salvation but must strive onward by individual provided by the distinctive emblem on the pedestal wealth. As a largely mercantile community the There are a few variants in these in one or two Jain laity have seen nothing improper in riches it cases the Svetambara and Digambara traditions properly applied and honestly acquired. Indeed the differ. The bull of Rsabha, the deer of Shantinath. Jain temples and charitable foundations show the Parsva's snake (appropriately) and Mahavir's lion, proper application of wealth. Laksmi is especially to give a few examples only, are accepted in both revered at Divali, the festival of Mahavira's traditions. (The full list is conveniently available in nirvana. She appears as the fourth of the fourteen Marett, Jainism Explained, page 84). dreams of Mahavira's mother. The Kalpa Sutra has a beautiful description of her as she appeared in The Jina image will probably be placed in more or the dream, seated on a lotus. The lotus is a less elaborate setting or shrine. It may be seated on particular emblem of Laksmi. a stylised lotus, supported by lions, escorted by elephants, protected by a carved triple umbrella. Often depicted in Jain art and sculpture are the the Dharmacakra, wheel of the law, flanked by two Panca Paramesthin, the five specially revered bulls or two deer, is often shown. Worshippers, beings, the liberated soul, the enlightened soul, musicians and attendants, depicted smaller than the religious teacher, the religious leader and the the main image, throng around. Each Jina may monk. They are commonly depicted as five seated have his attendant Yaksa and Yaksini, male and figures in a group, as on the siddhacakra, a lotusfamale demi-gods, on either side, appointed by shaped disc or other representation which is Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 TEMPLE WORSHIP is the exterior aspect of inner purity: bad, coarse, irrelevant thoughts should be kept away. The surroundings of the image should be kept clean Worship is of two kinds. It can be worship in the and swept. The objects used in worship and offered presence of an image or alternative worship of the before the God should be pure and fresh and good, God without any image. The latter is regarded as a purchased with money honestly earned. Lastly, the higher form of worship but for most people it is ceremonies of worship should not be interrupted valuable to have a physical representation of the or distracted by worldly affairs or cares God before their eyes. It focuses attention and the mind and spirit are immediately directed to the The process of formal worship may be summed up object of worship instead of wandering loosely in ten group of triple actions or considerations around failing to centre in on the object and act of First there is the triple utterance of the word worship. Some deride this as mere idolatry but that nisihi. It symbolises the putting aside of former is to mistake the whole nature of worship of a holy activities. On entering the temple one leaves image. The slump of stone is not itself God but is sacred symbol of the God. The Tirthankara or shrine even the activities concerned with the outer shrine even the act siddha is far beyond our reach, but, in a way temple are set aside. Thirdly, the word marks the difficult to explain in words, the Tirthankara is completion of the physical acts of worship before present in the holy image for the worship of the faithful. The focal point of the temple is the holy Second comes the triple circumambulation of the tion of the image of God and the temple is a place for the image from right to left. Third is the reverence to med reverence to worship of the God the image with folded hands and the words Namo Many ancient writings, and modern ones too, Jainism, with a deep bow and with complete describe the rituals of worship. The rituals put obeisance. Then, as the fourth set of actions, come order and structure into worship, again focusing the three kinds of puja, anga puja with water, the devotions of the faithful. The beauty of the sandalwood paste and flowers, agra puja with words and music, with the beauty of the image and incense, lights, the swastika symbol in rice grains. its setting, inspire in the devotee the beauty of with sweets and with fruit, and bhava puja or religious faith and worship, hence worship should chaitya vandan, worship with songs and prayers be performed with due and proper ceremony, with which follows the others. Then the fifth trio proper preparation and with full understanding consents of contemplation during the puja on three The first requirement for the devotions in the stages of the Tirthankara's lite, childhood, kingship temple is purity. This is a rather vague word. What and the ascetic life. Restraining the gaze from ning the gaze from it means here is first of all actual physical wandering in any of three directions away from the cleanliness of the body and clothes. One should Jina image, and gently brushing tiny creatures to bathe before worship and it is right to keep special safety in threefold action, constitute the sixth and clothes, simple and clean: a dhoti and scarf are seventh. ideal for a man, simple clothing for a woman. This Eighthly, during the prayers and hymns of the chaitya vandan three things should be borne in mind, to enunciate them clearly rather than rushing over them, whilst following the meaning with understanding, and keeping gaze and contemplation on the image. Three mudras, positions of the hands, are appropriate during the chaitya vandan, firstly the ten fingers folded in lotus form, secondly the hands hanging loosely whilst standing, and then the hands brought together, hollow, against the forehead. The tenth point for attention is that the chaitya vandan is followed with triple concentration of mind, voice, action If the previous paragraphs are re-read it will be seen that the ordered tenfold sequence leads the worshippers through from entrance into the temple to reverence of the image, then into the ritual acts and offerings, and lastly into the prayers and hymns and to the conclusion of worship. Jain rituals can be very beautiful and very moving The actions and words become familiar to the devotees so that the whole flows graciously from one stage to the next. Ritual can get mechanical, however and it is necessary to keep the mind fixed on the object and purpose so that the familiar does not degenerate into the mindless repetition of sterile and token obeisance. hymns lead the faithful onwards in spiritual development. These are not the final stages of the spiritual training Beyond a certain stage the Jain will find that he or she has less and less need for external aids to devotion and worship will reach that higher level when the God is present in abstraction, not in physical image. This stage is not, yet, for everyone and the temple and its worship are there to help the aspirant onwards on the path SAM69 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु दर्शन की शुभ-भावना तीर्थकर परमात्मा की स्थापना निक्षेप रूप जिन प्रतिमा के दर्शन-पूजन का एक मात्र ध्येय श्री तीर्थकर के स्वरूप को प्राप्त करना है, अत: घर से प्रयाण पूर्व श्रावक विचार करे कि मेरे देवाधिदेव राग-द्वेष से मुक्त बन कर अजरामर पद को पाये हैं, अतः संसार-भ्रमण के हेत-भूत राग व द्वेष से मुक्त बनने हेतु, साक्षात तीर्थकर के अभाव में, जिन प्रतिमा ही मेरे लिए परम आधारभूत हैं, प्रभु-प्रतिमा मेरे लिए तो साक्षात् प्रभ ही है..! इत्यादि शुभ-भावनाओं से मन को स्वासित कर जिन मन्दिर दर्शनार्थ प्रयाण की तैयारी करे। जिन-मन्दिर यह परम पवित्र स्थल है, अतः राग को उत्पन्न करने वाले उम्दटवेश का त्याग करना चाहिये और स्वच्छ व शुद्धा वस्त्रों को पहनना चाहिये। जिसके बाद यदि मात्र दर्शन हेतु ही जाना हो तो दर्शन के योग्य सामग्री (वासक्षेप पजा हेतु-वासक्षेप, अग्र पूजा हेतू-धूप दीप-अक्षत नेवेद्य-फल-रुपये आदि) साथ में ले जावें और यदि प्रभु-पूजा के लिए जाना हो तो पूजा के योग्य स्वच्छ और सुन्दर कपड़े पहनकर पूजा की सामग्री (केसर, चंदन, कटोरी, धूप, दीप, नेवेद्य, फल, फूल, चावल, आगी की सामग्री-वरक, बादला, आभूषण इत्यादि) यथा शक्ति साथ में लेकर जावें। केसर, चंदन, धूप-दीप की सामग्री तो मन्दिर में होती ही है फिर घर से ले जाने का क्या प्रयोजन? श्रावक को मंदिर में रही केसर आदि सामग्री से प्रभ-पूजा करना योग्य नहीं है। प्रभु की द्रव्य-पजा तो धनादि पर की मच्छा को उतारने के लिए ही है, अतः वह मच्छां तभी उतर सकती है, जब श्रावक अपने स्व-द्रव्य से प्रभु पूजा करे। स्वयं की शक्ति होते हुए भी मंदिर में रही सामग्री अथवा अन्य व्यक्ति को सामग्री से प्रभु-पूजा करना, यह तो स्व-शक्ति को छुपाने की ही प्रवृत्ति है, जिसके फलस्वरूप धनादि द्रव्य की मच्छा उतरने के बजाय बढ़ने की ही है। सार यही है कि यदि मोक्ष की तीव्र उत्कंठा हो और धनादि की मच्छा उतारनी हो तो स्व-सामग्री से ही प्रभ पजा करनी चाहिए। यदि स्वयं शक्ति-हीन हो तो मंदिर के अन्य कार्यादि करके भी व्यक्ति प्रभ-भक्ति का लाभ ले सकता है, अतः श्रावक को यथाशक्ति प्रभ-पूजा में स्व द्रव्य को खर्च कर ही लाभ लेना चाहिये। जिन मंदिर विधि -मुनि विनोद विजय www.jaire Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 जिन मन्दिर दर्शन तथा प्रवेश-विधि श्रावक अपने घर से निकलने के बाद मार्ग में यतना पूर्वक ( जीव रक्षा, ईर्या समिति पालन) तथा शुभ भावों से भावित होता हुआ आगे बढ़े और ज्योंही दूर से जिन मन्दिर का शिखर दिखाई दे, त्योंही उल्लसित हृदय से मस्तक झुकाते हुए 'नमो जिणाणं' बोले। मंदिर के निकट आते आते तो सांसारिक विचारों का भी त्याग कर दे, और ज्योंही जिन मन्दिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करें, त्योंही उच्चारण पूर्वक निसीही' बोले। इन 'निसीही' के द्वारा व्यक्ति सांसारिक समस्त प्रवृत्तियों के त्याग का नियम करता है। इस 'निसीहि' बोलने के बाद मन्दिर में किसी भी प्रकार की बातचीत न करे और प्रभु भक्ति के अतिरिक्त संसार के विचार भी न करें। प्रदक्षिणा व मुख्य द्वार प्रवेश जिन मन्दिर में प्रवेश के बाद बायीं ओर से (मूल गंभारे के चारों ओर) रत्नत्रयी की प्राप्ति हेतु तीन प्रदक्षिणा दें। प्रदक्षिणा के अन्तर्गत यदि जिन मन्दिर सम्बन्धी पुजारी आदि को सूचना करनी हो तो सूचना करें और उसके बाद मुख्य गंभारे के द्वार पर पुनः 'निसीही' बोले। इस 'निमीही' द्वारा मन्दिर सम्बन्धी कार्यों का त्याग किया जाता है। उसके बाद प्रभु के दर्शन होने के साथ ही मस्तक झुकाकर, 'हाथ जोड़कर शुभ भावपूर्वक, प्रभु के गुणों की तथा आत्मदोष को प्रकट करने वाली स्तुतियों द्वारा प्रभु की स्तावना करें। तदुपरांत यदि मात्र दर्शनार्थ ही आये हो तो शुद्ध वस्त्रधारी श्रावक अष्टपटक मुखकोश बाँध प्रभुजी की वासक्षेप पूजा करे, उसके बाद अग्रपूजा कर चैत्यवंदन करना चाहिये। और यदि प्रभु प्रजा करे, उसके बाद अग्रपूजा कर चैत्यवंदन करना चाहिये। और यदि प्रभु-पूजा हेतु आये हो तो पूजा के योग्य सामग्री को तैयार करना चाहिये। प्रभु-पूजा के पूर्व अपने भाल पर तिलक करना चाहिये (तिलक हेतु प्रभु-पूजा से अतिरिक्त कैंसर का उपयोग करे) भाल पर तिलक कर पूजक प्रभु की आज्ञा को सिर पर चढ़ाता है। - प्रभ सन्मुख बोली जाने वाली कुछ स्तुतियां दर्शनं देवदेवस्य दर्शनं पापनाशनम् । दर्शनं स्वर्गसोपानम्, दर्शनं मोक्षसाधनम् ।।१।। कमठे धरणेन्द्रे च स्वोचितं कर्म कुर्वति । प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः, पार्श्वनाथः श्रिये स्तुवः । । २ । । आदिमं पृथिवीनाथ - मादिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च ऋषभस्वामिनं स्तुमः ।। ३ ।। अर्हन्तो भगवन्त इन्द्र महिताः सिद्धाश्च सिद्धिस्थताः । आचार्या जिनशासनान्नतिकराः, पूज्या उपाध्ययकाः श्री सिद्धान्तसुपाठका मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः पञ्चै ते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु वो मंगलम् । । ४ । । सरस शान्तिसुधारससागरम्। 'शुचितरं गुणरत्नमहागरम् । भविककबोधिचि प्रतिदिनं प्रणमामि जिनेश्वरम् ।। ५ ।। - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग-पूजा विधिः पूजा समय निम्नोक्त दोहा बोलें 8 हृदय पूजा हृदय कमल उपशम बले, बाल्या राग ने रोष। जे दृष्टि प्रभुदर्शन करे, ते दृष्टि ने पण धन्य छे, जे जीभ जिनवरने स्तवे, ते जीभने पण धन्य छे, पीये मुदा वाणी सुधा, ते कर्णयगने नित धन्य छे, तुज नाम मंत्र विशद धरे, ते हृदयने नित धन्य छे।।6।। सुण्या हशे पूज्या हशे, निरख्या हशे पण को क्षणे, हे! जगत् बंधु! चित्तमा, धार्या नहि भक्तिपणे; जन्म्यो प्रभु ते कारणे, दुःख पात्र हूँ संसारमा, हा! भक्ति ते फलती नथी जे भाव शून्याचारमा।।7।। हिम दहे वन खंड ने हृदय-तिलक संतोष।। प्रभ जी को स्पर्श कर,की जाती हई पूजा अंग-पूजा कहलती शीतल गुण जेहमा रहोल,शीतल प्रभु मुख अंग है। जल-चंदन-केसर-पुष्प तथा आभूषण आदि द्वारा प्रभुजी की आत्म शीतल करवा भणी, पूजा अरिहा अंग।। अंग-पूजा की जाती है। चन्दन-पूजा ब अंग-रचना के बाद प्रभुजी की केसर से नवागी पूजा करें। नवागी पूजा करते समय निम्नोक्त दोहे बोलेंप्रभजी के मुख्य गभारे में प्रवेश पूर्व ही अष्टपटक वाला मखकोश । बांधना चाहिये। सर्वप्रथम प्रतिमाजी पर रहे पुष्पों को उतार कर | चरणांगुष्ट पूजा। जलभरी संपट पत्रमा, युगलिक नर-पूर्जत। मोर पिछी से यतनापूर्वक प्रभाजना करती चाहिये। उसके बाद ऋषभ चरण अंगुठडे, दायक भव जल अंत।।। कार के स्वच्छ व छाने हुए जल से प्रभजी का अभिषेक करनी 2 जानु पूजाचाहिये। जलाभिषेक के बाद गत दिन की आंगी (बरक-केसरादि) जान बले काउसग्ग रह्या, बिचर्या देश विदेश। को साफ करना चाहिये। प्रभुजी के किसी भाग में केमर आदि रह खड़ा खड़ा केवल लघु, पूजो जान नरेश।। गया हो तो उसे बहुत ही कोमल हाथ से व धीरे धीरे से साफ करना 3 हस्तकांड पूजाचाहिये। लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसी दान। सामन्यतः केसर आदि के साफ हो जाने पर दध आदि । कर-कांडे प्रभु-पूजना, पूजो भवि बहुमान।। पञ्चामृत से प्रभजी का हर्षोल्लास के साथ प्रक्षालन करना 4 स्कंध पूजाचाहिये। प्रक्षालन समय अपने शुभ-भावों को व्यक्त करने वाले मान गयं दोय अंसथी, देखी वीर्य अनंत। निम्नोक्त दोहे भी बोले भूजा बले भवजल तर्या, पूजो खंध महंत।। जल-पूजा जगते करों, मेल अनादि विनाश। 5 सिर-शिखर पूजाजल-पजा फल मज होजो. मागो एम प्रभ पास।। सिद्धशिला गण उजली, लोकाते भगवंत। ज्ञान कलश भरी आतमा, समता रस भरपूर। 'बसिया' तेणे कारण भवि, शिर शिखा पूर्जत।। श्री जिनने नवरांवता कर्म थाये चकचर।। 6 भाल पूजा तीर्थंकर पद पुण्यथी, त्रिभवन जल सेवंत। दुध आदि पञ्चामृत से प्रक्षालन के बाद पन: जल से त्रिभवन-तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत।। प्रक्षालन करें। इतना ख्याल में रक्खें किन्हवण का जल भमि पर 7 कंठ पूजाइधर-उधर बिखरे नहीं और पैर में आवे नहीं। इस हेतु बाल्टी सोल प्रहर प्रभु देशना, कठे विवर वरतुल। आदि की समुचित व्यवस्था पूर्व से ही कर दें। मधुर ध्वनि सुरनर सुने, तिणे गले तिलक अमल।। नाभि पूजा रत्नत्रयी गुण उजली, सकल सुगुण विश्राम। नाभि कमलनी पूजना, करता अविचल धाम।। इस प्रकार भक्तिरसपूर्ण हृदय से उपरोक्त अथवा पूर्वाचार्य कृत अन्य स्तुतियों द्वारा प्रभु की स्तवना करने के बाद प्रभ की छद्यस्थावस्था, केवली, अवस्था तथा सिद्धावस्था का भावन करना चाहिये। मन्दिर में रहे समस्त जिन-बिम्बों की पूजा करने के बाद पुनः मूल-नायक अथवा अन्य जिन-बिम्ब के समक्ष अग्र-पूजा करनी चाहिये। (अग्र-पूजा समय मन्दिर में इस प्रकार बैठे कि जिससे दूसरों को आने-जाने में तकलीफ न हो और अपनी एकाग्रता में भी भंग न हो) SKAR Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 अग्र पूजा विधिः प्रभु के सन्मुख धूप-दीप-अक्षत आदि द्रव्य पदार्थों से की जाती हुई पूजा अग्र-पूजा कहलाती है। अग्र-पूजा का क्रम निम्न प्रकार से है 1. धूप पूजा धूप-पूजा सुगंधित धूप को जलाकर प्रभुजी की करनी चाहिये। द्रव्य-पूजा स्वद्रव्य से करनी चाहिये, अतः धूप आदि भी अपना ही लावें। यदि स्वयं की शक्ति न हो अथवा धूप नहीं लाये हो तो इतना ध्यान रक्खें कि यदि धूप-दानी में अगरबत्ती जल रही हो तो नई नही जलावें । धूप पूजा के समय निम्न दोहा बोलें ध्यान घटा प्रगटावीये, वाम नयन जिन धूप। मिच्छत दुर्गंध दूर टले, प्रगटे आत्म स्वरूप ।। धूप-पूजा के बाद 2. दीपक-पूजा: शुद्ध घी के दीपक को जलाकर दीपक पूजा करें दीपक-पूजा के समय निम्न दोहा बोलें। ब्रव्य-दीप सुविवेकथी, करता दुःख होय भाव दीप प्रगट हुए, भासित लोका-लोक दीपक-पूजा की समाप्ति के बाद दीपक को इस प्रकार ढंक दें कि दीपक भी जलता रहे और उसमें अन्य सूक्ष्म जन्तु भी न गिरें। उसके बाद 3 अक्षत पूजा: कंकड़ आदि से रहित तथा अखंड अक्षत से स्वस्तिक आदि की रचना कर अक्षत पूजा करें। अक्षत अथवा चावल अक्षत पूजा का ध्येय आत्मा को अक्षय पद प्राप्त कराने का है। अक्षत शब्द अक्षय-पद का सूचक है। अक्षत द्वारा की गई (स्वस्तिक की रचना स्वस्तिक की रचना कर व्यक्ति परमात्मा के समक्ष अपना आत्म-दर्द प्रस्तुत करता है। स्वस्तिक के चार पक्ष (देवमनुष्य- तिर्यञ्च व नरक) चार गति के सूचक है। उसके ऊपर की गई तीन ढगलियाँ सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शन व सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रयी की सूचक हैं तथा सबसे ऊपर अर्ध चन्द्राकार की आकृति सिद्धि-शिला तथा उसके ऊपर अक्षत श्रेणी सिद्ध भगवंतों की हैं। सूचक इसके द्वारा साधक परमात्मा से प्रार्थना करता है कि है परमात्मन्! इस चार -गति रूप भयंकर संसार में अनादि काल से मैं भटक रहा हूँ। आपकी इस पूजा द्वारा मुझे रत्नत्रयी की प्राप्ति हो, कि जिसके पालन से मैं भी सिद्धि गति को प्राप्त कर संसार से मुक्त बन जाऊँ । फ्र स्वस्तिक रचना समय उपरोक्त भाव को व्यक्त करने वाले दोहे: चिह्न गति भ्रमण संसार मां, जन्म मरण जंजाल । अष्ट कर्म निवारवा, मागुं मोक्ष फल सार ।। अक्षत-पूजा करता थका, सफल करूं अवतार। फल मांगु प्रभु आगले, तार-तार मुज तार।। दर्शन ज्ञान चारित्रना, आराधनथी सार । सिद्ध - शिलानी उपरे, हो मुज वास श्रीकार ।। उपरोक्त भाव पूर्वक अक्षत-पूजा के बाद नैवेद्य-पूजा: अनादि काल से आत्मा में रही हुई आहार की मूच्छों को उतारने के ध्येय से नैवेद्य-पूजा करने की है। नैवेद्य अर्थात् मेवा-मिष्टान इत्यादि । स्वस्तिकादि के ऊपर नैवेद्य रख कर नैवेद्य पूजा करनी चाहिये। नैवेद्य के समय निम्नोक्तर दोहा बोलें-पूजा अणाहारी पर में कर्णा, विग्गहईय अनंत। दूर करी ते दीजियें, अणाहारी शिव-संत। भावार्थ::-आत्मा एक गति से दूसरी गति में जाते समय यदि विग्रत गति में गई होवे तब (मात्र एक दो या तीन समय) सम्पूर्ण आहार का त्याग करती है, अर्थात् विग्रह-गति के सिवाय समस्तकाल में आत्मा आहार ग्रहण करती ही है, इस स्तुति द्वारा पूजक परमात्मा से यह प्रार्थना करता है कि हे परमात्मा! विग्रह गति के अन्तर्गत तो मैंने अनंतबार अणाहारी अवस्था को प्राप्त की है, परन्तु यह क्षणिक अवस्था तो मेरी आत्मा को कैसे आनन्द दे सकती है, अतः उस अणाहारी अवस्था को छोड़कर शाश्वत मोक्ष रूप अणाहारी अवस्था मुझे प्रदान करें। फल पूजा : नैवेद्य-पूजा के बाद अंग-पूजा की अंतिम पूजा फल-पूजा है। अग्र पूजा की समाप्ति समय फल की याचना स्वरूप यह पूजा है। सुगंधी, ताजे व कीमती फलों से फल-पूजा कर परमात्मा से सर्व अनुष्ठान के फल रूप-पद और तत्साधक संयम रूप फल की याचना करने की है। इन्द्रादिक- -पूजा मणी, फल लावे धरी राग । पुरुषोत्तम पूजा करी, मांगे शिव फल त्याग ।। चामर व नृत्य पूजा: अष्ट प्रकारी पूजा की समाप्ति के बाद पूजक का हृदय हर्ष से भाव-विभोर हो उठता है, अतः उस भक्ति भाव से पूजक का देह भी नाच उठता है। 'मुक्तिथी अधिक तुज भक्ति मुज मन वशी'-भाव को व्यक्त करने वाली चामर व नृत्य पूजा करनी चाहिये। मस्तक झुका कर चामर विझते हुए नृत्य सहित यह पूजा करनी चाहिये। www.img Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ श्रद्धाणं समग्रदर्शनम् पंच परमेष्ठि 1. अरिहंत 2, सिद्ध 3. आचार्य 4. उपाध्याय 5. साध सात क्षेत्र अंग व अग्र पूजा की समाप्ति स्वरूप आरती तथा मंगल-दीपः अनंत उपकारी श्री तार्थकर परमात्मा की अत्यंत उल्लासपूर्वक अंग व अग्र स्वरूप अष्ट प्रकारी पजा की समाप्ति के बाद भाव-मंगल की प्राप्ति हेत आरती व मंगल दीप करना चाहिए। आरती समय बोले जाने वाले दोहे: जय-जय आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवी को नंदा; जय०।।।।। पहेली आरती पूजा कीजे, नरभव पामीने लाहो लीजे. जय०।।।।। दूसरी आरती दीन - दयाला, धलेवा नगरमा जग अजवाला: जय०।।3।। तीसरी आरती त्रिभवन - देवा, सुरनर इन्द्र करे तेरी सेवा. जय०11411 चौथी आरती चउगति चरे, मन वांछित फल शिवसुख परे. जय०।।5।। पंचमी आरती पुण्य उपाया, मलचन्द रिखव गण गाया. जय०।।6।। 1. जिन प्रतिमा 2. जिन मंदिर 3. जिनाणम 4. साधु 5. साध्व 6, श्रावक 7, श्राविका चौबीस तीर्थंकर 1. श्री आदिनाथ 4. श्री अभिनंदन 7. श्री सुपार्श्वनाथ 10. श्री शीतलनाथ 13. श्री विमल नाथ 16. श्री शान्तिनाथ 19. श्री मल्लीनाथ 22. श्री नेमिनाथ 2. श्री अजिनाथ 5, श्री सुमतिनाथ 8. श्री चन्द्रप्रभ 11. श्री श्रेयांस नाथ 13. श्री अनंतनाथ 17. श्री कुंथुनाथ 20. श्री मुनि सुव्रत स्वामि 23. श्री पार्श्वनाथ 3. श्री संभवनाथ 6. श्री श्री पद्मप्रभु 9. श्री सुविधिनाथ 12. श्री वासुपूज्य स्वामि 15. श्री धर्मनाथ 18. श्री अरनाथ 21. श्री नमिनाथ 24. श्री महावीर स्वामि : मंगल दीप के दोहे: पंच कल्याणक I. olirauljvja 2. जन्म कल्याण 3. दीक्षा कल्याणक 4. केवल ज्ञान कल्याणक 5 मोक्ष कल्याण नव तत्त्व 1. जीव 2, अजीव 3. पुण्य 4. पाप 5. आस्रव 6. संवर . निर्जरा 8, बंध 9. मोक्ष दीवा रे दीवो प्रभु मंगलिक दीवा, आरती उतारो ने बह चिरंजीवो. सोहामणी घेर पर्व दीवाली. अम्बर खेले अमरा बाली. दीपाल भणे अणे कुल अजुआली, भावे भगते विघन निवारी. दीपाल भणे अणे कलिकाले, आरती उतारी राजा कमार पाले. अम घेर मंगलिक तम घेर मंगलिक, मंगलिक चतर्विध संघने होजो. दीवो रे दीवो.... 45. आगम 11-अंग, 12-उपांग, 6-छेद सूत्र, 4-मूल सूत्र, 10-पयन्ना, 44-अनुयोग द्वार, 45-नंदिसूत्र। arlorary.or Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Education internationa जैन स्थापत्य और शिल्प Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल पर गहराई से दृष्टिपात करने से भारत का सांस्कृतिक इतिहास भव्य गुफामंडपों, मंदिरों और शिल्पों के रूप में प्रकट होता है। यह इतिहास हमारे धर्म, संस्कृति, मानव जीवन की भावना, श्रद्धा, मान्यता और रूढ़ियों की झांकी प्रस्तुत करता है। - प्राचीन काल के वैदिक, जैन और बौद्ध धर्मों के अवशेष हमें देश में ही नहीं अपितु बृहत्तर भारत जावा, सुमात्रा, बर्मा आदि में भी देशकाल और शैली के अनुरूप पूजा योग्य सुन्दर मंदिरों और भग्न लेकिन भव्य खंडहरों के रूप में दिखाई देते हैं। इन्हें देखने से मालूम होता है कि सभी धर्मों के समय-समय पर अपनी स्थापत्य और शिल्प-शैलियों से एक दूसरे को प्रभावित किया है। फिर भी धार्मिक मान्यता, विचारों और तत्वों के अनुसार अपनी-अपनी विशेषताएँ कायम रखी हैं जो उनके अध्ययन से समझ में आ सकती हैं वरना स्थापत्यों और शिल्पों के सामान्य रूप को देखकर उन्हें अलग करना कठिन है। जैन धर्म ने वैदिकों और बौद्धों के साथ-साथ स्वतन्त्र रूप से भी अपनी धार्मिक मान्यता और भावना के अनुरूप स्थापत्य और शिल्प का निर्माण किया है। हम यहाँ उनकी विशेषताओं पर विचार करेंगे। प्राचीन नगर :- प्राचीन जैन साहित्य में कौशम्बी, चम्पा, वैशाली, श्रावस्ती आदि कई नगरों का उल्लेख मिलता है। कई नगरों के अवशेष भी हमारे सामने हैं। ये अवशेष प्राचीन स्थापत्यों और मानव जीवन के मूल्यों की झांकी प्रस्तुत करते हैं। उत्तर प्रदेश के बलरामपुर गाँव के पास श्रावस्ती नगर के अवशेष विद्यमान हैं जो आज सहेठ-महेठ के नाम से जाने जाते हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग के अनुसार यहाँ बौद्ध और जैन धर्म प्रचलित थे। आज भी जैन और बौद्ध दोनों इसे पूज्य मानते हैं। जैन मान्यता के अनुसार श्री संभवनाथ जी और श्री चन्द्रप्रभु जी इन दोनों तीर्थकरों की यह जन्मभूमि है। श्री संभवनाथ जी का मंदिर आज भी वहाँ मौजूद है। स्तूपः स्तूपों का नाम सुनते ही हमारे मन में बौद्धों की याद आती है और सांची, भरहुत, अमरावती, नागार्जुन, कोण्डा आदि के स्तूप हमारे स्मृति पटल पर आ जाते हैं। लेकिन मथुरा के कंकाली टीले से निकले बौद्ध स्तूप के अवशेष उसे जैन स्तूप होने की संभावना प्रकट करते हैं। यहाँ की छोटी-बड़ी सभी शिल्पाकृतियाँ सराहनीय हैं। गुफा मंडप :- मानव-भावना के मंदिर, गुफा मंडप भारत भर में जगह-जगह देखे जा सकते हैं। बौद्ध, जैन और वैदिक धर्म के पथदर्शन के साथ-साथ उस समय की स्थापत्य कलाओं का भी इजहार करते हैं। उड़ीसा में भुवनेश्वर के पास उदयगिरी, खण्डगिरी की प्राचीन जैन गुफाएँ स्थापत्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। यहाँ की दो मंजिली रानी गुफा स्थापत्य की अनोखी मिसाल है। इस गुफा की दीवारों पर बनी कलाकृतियां चित्राकृषक हैं। मंदिर:- प्राचीन काल से लेकर वैदिक और जैन धर्म के गगनचुम्बी शिखरों वाले मनोहर मंदिर जगह-जगह नजर आते हैं। कोई अति प्राचीन खण्डहर है तो कोई सुरक्षित सुंदर पूजा योग्य मंदिर, जो अपने समय के राज्याश्रय, लोक-भावना, भव्य स्थापत्य और शिल्प शैलियों की यशोगाथा कहते हुए हमारे सामने प्रस्तुत हैं। वैदिक स्थापत्य के मूर्धन्य मंदिर, भुवनेश्वर, कोणार्क, खजुराहो, भोढ़ेरा, वैलूर, आईहोले, पत्तादिकल, महाबलीपुरम् आदि हैं। जैन धर्म के प्रभावशाली मंदिर शत्रुंजय, गिरनार, आबू, राणकपुर, सेवाड़ी, सिरोही, ओसिया, घाणेराव और गोमतेश्वर आदि हैं। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण जैन तीर्थों और मंदिर की संक्षिप्त सी-झांकी प्रस्तुत की जाती हैं। शत्रुंजय:- शत्रुंजय पर्वत की शिखाओं पर कभी ऊपर कभी नीचे पहाड़ों की छोटी-छोटी चट्टानों पर किलों में सुरक्षित सैकड़ों छोटे-बड़े शिखरों पर ऊँची-ऊँची ध्वजाएँ फहराती हैं। इस धर्मनगरी को प्रभात के हल्के धुंधले वातावरण में कोई ऊँचे स्थान से देखे तो हवा में उड़ती हुई इन्द्रपुरी-सी मालूम होती है। गुर्जर स्थापत्य शैली के साथ मुगल स्थापत्य का प्रभाव भी यहाँ लक्षित होता है। चौकोने शिखरों के ऊपर चारों ओर की अर्द्ध प्रस्फुटित शिखरों से मुख्यशिखर की शोभा बढ़ती है। शिखर और आम्लासार के बीच चारों ओर मानव या यक्षों के चेहरे बने हैं। शिखरों के बीच के भाग में सिंह की मूर्तियाँ स्थापित हैं। ये शोभा के लिए हो या धार्मिक मान्यता के लिए हों प्रत्येक वैदिक-जैन मंदिर में देखे जा सकते हैं। ऊँचे और सुन्दर कलाकृति वाले तांबा, पीतल या चांदी के पात्रों से मढ़े हुए ध्वज दंड के ऊपर लगी लम्बी ध्वजाएँ जैन मंदिरों की मुख्य विशेषता है। For Private & Personal Line Oply 23 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ interGINE ELLINSIDE KolapDTABRAPRADESH HRIES STATION गिरिनार :-दुनिया में बब्बर शेरों का घर अर्थात् गिरी के घने जंगल और वहां खड़ा गिरिनार पर्वत, शत्रुजय से सौ मील दूर है। उसके ऊपर बने जैन मंदिर अत्यन्त संदर और कलात्मक हैं। मंदिर में भगवान नेमिनाथ पदमासन मुद्रा में विराजमान हैं। इस मंदिर का जीर्णोद्वार तेरहवीं शती में हुआ था। इसका मंडप चौकोना है। वस्तुपाल, तेजपाल का बनवाया हुआ भगवान मल्लिनाथ का सुंदर मंदिर भी यहाँ हैं। आबू:-राजस्थान, गुजरात की सीमा पर खड़े गिरिराज आबू के मनोहर दृश्य दर्शकों को आश्चर्य में डाल देते हैं। ग्यारहवीं शती में सेठ विमलशाह के बनवाये जैन मंदिरो के संगमरमर रंगमंडप के गुम्बजों में सुन्दर झम्मर, उसके ऊपर कई प्रकार की डिजाइनों में निर्मित सोलह विद्या देवियों की आकर्षक मतियाँ, उत्कृष्ट शिला वाले रंगमंडप के खंभे आदि कला वैभव और प्रकृति के वातावरण को देखकर मानव को ऐसा महसम होता है। कि हे प्रभो। अगर तू कहीं है तो यही है। यहीं है। Enical Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राणकपुर जैन मंदिर:- राजस्थान के मेवाड़ प्रदेश में सादड़ी के पास राणकपुर आदिजिनेश्वर का चौमुखजी मंदिर है। इस प्रकार की रचना हमें केवल जैन मंदिरों में ही मिलती है। कारण, जैन विचारधारा में केवली तीर्थंकर चौमुखी जग-कल्याणक वाणी की प्रभावना करते हैं तो इन्द्र उनके लिए समवशरण की रचना करते हैं। यहाँ एक पर्वताकार उच्चासन पर चार दिशाओं में मुख कर के या अलग-अलग तीर्थंकरों की चार मूर्तियाँ रखी जाती हैं। इसलिए यहां मुख्य मंदिर के चार द्वार बनाए जाते हैं और सभी मंदिरों की रचना हो जाती हैं। चतुष्कोणीयः- चारों और घूमती दीवार के साथ-साथ शिखरों वाली देवकुलिकाएँ हैं। चारों दिशाओं में चार प्रवेश हैं जो हमें सीधे चौमुखी जी के मंदिर में ले जाते हैं। चार कोनों में शिखरबद्ध चार मंदिर हैं। यहां गुम्बज वाले 29 कक्ष हैं। ये कक्ष 420 खंभों पर खड़े हैं प्रत्येक खंभे की डिजाइन अलग-अलग है। फिर भी यह मंदिर संतुलित स्थापत्य का एक सुंदर नमूना है। धरणशाह और रत्नशाह का बनवाया हुआ गगनचुम्बी सुंदर शिखर वाला यह जैन मंदिर देखने योग्य है। यह चौमुखी मंदिर मुख्य मंदिर की चारों दिशाओं और प्रवेशद्वार- झरोखों से सुशोभित हैं। शिखर पर और छोटे बड़े शिखर के आवरण लगे हैं। जालीदार डिजाइनें भी यहाँ नजर आती हैं। चारों कोनों पर ऊपर तक जाने वाले देवगवाक्ष नजर आते हैं। अम्लासार और शिखर के बीच चारों दिशाओं में यक्ष के मुख हैं। सबसे ऊपर के झरोखे पर सिहाकृतियाँ बनाई गई हैं। रंगमंडप के खंभे बेलबूटे, भूमितिमय पक्षियों की आकृतियाँ, विविध प्रकार की डिजाइनों से भरपूर हैं। वैसे यहाँ की छतें भी कलामय हैं। मुख्य मंदिर के बाहर की दीवारों पर देव देवियाँ, यक्ष-यक्षिणियों और कायोत्सर्ग मुद्रा में साधु या तीर्थंकरों की मूर्तियाँ सप्रमाण सुंदर भाव मुद्राएँ, आभूषण और दूसरे उपकरणों के साथ शिल्पकला की सुंदर शैली प्रकट करती है। गोमतेश्वर :- दक्षिण भारत के चंद्रगिरि और इंद्रगिरी के बीच श्रमण बेलगोला में गोमतेश्वर अर्थात् बाहुबली की कायोत्सर्ग मुद्रा में एक ही पत्थर से 56 फीट की विशालकाय प्रतिमा भारतीय शिल्प कला का सुंदर उदाहरण है। खुजराहो:- नौवीं, दसवीं शती के चंदेल राजाओं के राज्यकाल में शिल्प- महारथियों के हाथ से बने हिन्दू और जैन सम्प्रदायों के मंदिर अपनी शैली में स्थापत्य कला की पराकाष्ठा हैं। एक डेढ़ मील के क्षेत्र में बने विविधमतों के छोटे-बड़े तीस मंदिर हैं, जिनसे हमें लगता है कि चंदेल राजाओं की वहाँ प्रवृत्ति सर्वधर्ममतों में समभाव की रही होगी। जैन सम्प्रदाय के यहाँ छह मंदिर हैं। श्री पार्श्वनाथ का मंदिर कला का सुंदर नमूना है। इसका शिखर प्रायः अन्य सम्प्रदायों के समान जैसा हैं। लेकिन अन्य मंदिरों में छज्जे बाहर निकाले गए हैं जो इस मंदिर में नहीं है। मंदिर की बाहरी दीवारें सुंदर शिल्पायोजनों से संबलित हैं। इस क्षेत्र में घंटाई जैन मंदिर के अवशेष स्थापत्य कला के सुंदर उदाहरण हैं। इसके खंभों की शिल्पकारी अति सुंदर है। चितौड़गढ़:- इ:- राजस्थान में मेवाड़ के विख्यात चितौड़गढ़ के ऊपर बना जैन मंदिर के सामने कीर्ति स्तम्भ स्थापत्य कला का सुंदर नमूना है। 30 फुट ऊँचे इस कलामय स्तंभ की आठ मंजिलें हैं। ऊपर जाते हुए यह मंजिलें कहीं चौड़ी तो कहीं संकरी हो जाती हैं। सभी मंजिलों के बाहर की दीवारें स्थापत्य और सुंदर शिल्पकारी से परिपूर्ण हैं। ऊपर आखिर में खंभों पर बना मनोहर विश्रामगृह है। पहली मंजिल पर बाहर की ओर कायोत्सर्ग मुद्रा में बनी तीर्थंकर की प्रतिमा और उसकी दोनों ओर यक्षों की मूर्तियाँ हैं। उसके ऊपर के भाग में पद्मासन मुद्रा में तीर्थंकरों की छोटी मूर्तियों की माला बनी हुई है। कीर्ति स्तम्भ, विजय स्तम्भ और रुद्रमाल आदि को देखकर लगता है कि हमारी धर्मभावना और कला प्रदर्शन केवल मंदिर स्थापत्यों के रूप में ही नहीं अपितु अन्य रूपों में भी उपलब्ध हैं। सुमंत शाह 25 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राणकपुर सौजन्य - श्री जैन संघ सादड़ी-श्री आत्मवल्लभ जैन सेवामंडल सादड़ी (राणकपर)। Jan Educaton International For Prvie & Personal use only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 श्री आदिनाथ भगवान-मांगा वार्षिक यात्रा विधिवत प्रारम्भ हुई। गुरु वल्लभ के इस कांगड़ा प्राप्त इतिहास से पता चलता है कि कटौच राजवंश तीर्थ की शोभा में अभिवृद्धि करने तथा तीर्थोद्वार के अनेकों शताब्दियों तक जैनधर्म का श्रद्धालु रहा। राजा रुपचंद्र, राजा महत्वपूर्ण कार्यक्रम सम्पन्न हुए। अनेक महान विभूतियों, नरेंद्रचंद्र, राजा संसारचंद्र जैसे प्रतापी राजा जिन भक्ति करते भाग्यशाली महानुभावों ने अपने योगदान से इस महान् तीर्थ की रहे। राजा रुपचंद्र ने तो नगरकोट कांगड़ा में भगवान महावीर का सेवा की। इतिहासज्ञ श्री अगरचंद नाहटा न बीकानेर के अपने संदर मंदिर भी बनावाया तथा उसने शत्रजय तीर्थराज के ज्ञान-भंडार से, कांगड़ा तीर्थ सम्बन्धी अनेकों महत्वपूर्ण दर्शन-हेत अभिग्रह धारण करके अपने प्राणों का भी बलिदान ऐतिहासिक पत्र खोज निकाले, जिनसे पता चला कि पूर्वकाल में कर दिया। कांगड़ा नगर में पांच जैन मंदिरों का होना, जैनों के महामनिराज तथा विशाल यात्रा संघ इस पावन तीर्थधाम की गौरव का साक्षी है। कांगड़ा जैन नगरी कहलाती थी। राजा एवं यात्रा के लिए आते रहे तथा इस के सौंदर्य एवं इतिहास उजगार प्रजा पर जैनधर्म की गहरी छाप थी। परन्तु भाग्य की विडम्बना! करते रहे। सभा कांगड़ा तीर्थ का श्रृंगार, प्रभ आदिनाथ की वर्तमान विशाल इन पत्रों तथा "विज्ञप्ति-त्रिवेणी” जैसे महा-निबंध से प्रतिमा, क्रूर काल के हाथों से बची रही। एक ब्राह्मण-पुजारी स्पष्ट है कि कांगड़ा तीर्थ पांडव काल में, कटीचवंश के शूरवीर परिवार चिरकाल तक भैरवदेव के रूप में तैल-सिंदूर से इसके राजा श्री सुशचंद्र के कर-कमलों से किला कांगड़ा में स्थापित प्रतिमा का पूजन करता रहा। अंतत: भाग्योदय से गुरुवल्लभ ने हुआ और मूलनायक भगवान आदिनाथ वेदिका पर शोभायमान इसे खोज निकाला और सन् 1923 में होशियारपुर से विशाल हुए। भगवान श्री नेमिनाथ के परम उपासक होने के कारण थी यात्रा संघ के साथ, इस तीर्थ के बंद द्वार खोलने का गौरव प्राप्त सश चंद्र ने श्री नेमिनाथ की अधिष्टायिका माता अम्बिका को किया। 'वंदे युगादि जिनवरम-आत्म-वल्लभ सद्गुरुम'। 'जय जिन मंदिर से संलग्न वेदिका पर विराजमान कर अपनी कुलदेवी भगवती चक्रेश्वरी अम्बिके मातेश्वरी' की ध्वनि से आकाश गँज के रूप में मान्यता प्रदान की। उठा। गुरु वल्लभ और कांगड़ा तीर्थ -शान्तिलाल नाहर इतिहास प्रत्येक संस्था की जीवन-झांकी है। अत: इतिहास की खोज और सुरक्षा परम आवश्यक है। सन् 1916 में मान्य इतिहासविद श्री मुनि जिन विजय जी ने पाटन के भंडार से, कांगड़ा तीर्थ के विशाल ऐतिहासिक-पत्र "विज्ञप्तित्रिवेणी' को खोज निकाला और पुस्तकाकार में उसे प्रकाशित किया। सन् 1923 में, श्रद्धेय जैनाचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि जी, इस पुस्तक को पढ़ कर, लप्त-प्राय कांगडा महातीर्थ को पन: प्रकाश में लाये और समाज के प्रतिष्ठित महानुभावों तथा महासभा पंजाब के माध्यम से तीर्थोद्वार में संलग्न हुए। सन् 1949 में कांगड़ा तीर्थ की Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 पावन तीर्थ श्री हस्तिनापुर निर्मल कुमार जैन प्रातः स्मरणीय कलिकाल कल्पतरू युगवीर जैनाचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म. ने उत्तरी भारत के अपने श्रावकों को पावन तीर्थ श्री हस्तिनापुर जी के ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्वों का बोध कराते हुए इस पवित्र भूमि के जीर्णोद्धार एवं व्यापक विस्तार के लिए सउपदेश दिया था। जिसके फलस्वरूप यह पुण्य भूमि आज इस रूप में निखर कर आई है। हम सब इसके लिए आचार्य भगवन्त के सदैव ऋणी रहेगें। उत्तरी भारत के शत्रुंजय समान इस पावन तीर्थ पर आज से हजारों वर्ष पूर्व आदि तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव जी ने 400 दिन के निराहार तप का पारणा अपने प्रपौत्र श्री श्रेयांश कुमार के करकमलों से अक्षय तृतीया के शुभदिन पर कर इसे इस अवसर्पिणी काल का अपने जीवन काल में स्वयं प्रथम तीर्थ बनाया तथा सुपात्र दान की परम्परा को प्रारम्भ किया। इसी पवित्र भूमि पर 16वें तीर्थंकर भगवान श्री शांतिनाथ जी, 17 वें तीर्थंकर भगवान श्री कुन्युनाथ जी तथा 18वें तीर्थंकर श्री अरनाथ जी भगवन्तों के च्यवन (गर्म), जन्म, दीक्षा तथा केवल ज्ञान (प्रत्येक के 4-4 ) अर्थात् कुल 12 कल्याणकों के होने का सौभाग्य प्राप्त है। इसी धर्म भूमि पर 19 वें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ भगवान का समोसरण रचा गया। अभी तक की जानकारी के अनुसार 20 वें तीर्थंकर भगवान श्री मुनिसुव्रत स्वामी, 23वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी तथा वर्तमान चौबीसी के अन्तिम तीर्थंकर भगवान श्री महावीर स्वामी की विचरण भूमि होने के कारण इसकी रज का कण-कण शिरोधार्य है। 12 चक्रवर्तियों में से 6 चक्रवर्तियों की कर्म भूमि तथा उनमें 3 चक्रवर्ती श्री शान्तिनाथ, श्री कुन्युनाथ तथा श्री अरनाथ के अतिरिक्त श्री सनत कुमार, श्री सुभूम, तथा श्री महापदम नाम के चक्रवर्ती राजाओं के जन्म एवं कार्य क्षेत्र होने का सौभाग्य भी हस्तिनापुर को प्राप्त है। इतिहास प्रसिद्ध कौरवों पांडवों का नाम भी इस पुरातन नगर के साथ ही जुड़ा हुआ है। इस शास्त्रोक्त आगमोक्त पावन पवित्र भूमि की यात्रा हेतु समय-समय पर आचार्य भगवन्त एवं सुश्रावक पधारते रहे हैं। विक्रम सं. 386 वर्ष पूर्व से लेकर वि. सं. 480 तक आचार्य श्री यक्षदेव सूरि जी म., आचार्य श्री सिद्धसूरि जी म. आचार्य श्री " रत्नप्रभ सूरि जी म., आचार्य श्री कक्कड सूरि जी म. इस पावन तीर्थ की यात्रा के लिए पधारे, ऐसे प्रमाण मिलते हैं। वि.स.1199 में कुमारपाल राज ने कुरूदेश को जीतकर यहां की यात्रा की थी। वि.सं. 1390 में आचार्य श्री जिनप्रभ जी म., वि.सं. 1627 में खरतरगच्छीय आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरि जी म., वि.सं. 1664 में विजय सागर गणि ( उन्होंने लिखा है कि उस समय वहां 5 जिन मन्दिर तथा 5 स्तूप विधमान थे)। वि.सं. 1778 में आचार्य श्री जिन शिवचन्द्र सूरि जी म., तत्पचात् जगत गुरु आचार्य श्री हीर विजय सूरि जी म., वि.सं. 1750 में मुनि श्री सौभाग्य विजय जी म., वि.सं. 1900 के लगभग मुनि श्री बुद्धिविजय (बूटेराय जी) म., वि.सं. 1939 में श्री विजयानन्द सूरि जी (आत्माराज जी ) म., वि.सं. 1953 व 1965 में आचार्य श्री विजय कमल सूरि जी म., वि.सं. 1964 व 1981 में आचार्य श्रीमद् विजय वल्ल्भ सूरि जी म. तत्पश्चात् विभिन्न आचार्यों ने समय-समय पर इस तीर्थ की यात्रा की तथा देश के विभिन्न प्रान्तों एवं नगरों से इस पावन तीर्थ पर यात्रा हेतू संघ लेकर पधारते रहे है। पिछले लगभग 80 वर्षों से तीर्थ का प्रबन्ध श्री हस्तिनापुर जैन श्वेताम्बर तीर्थ समिति की देखरेख में चल रहा है। लगभग 110 वर्ष पूर्व कलकत्ता निवासी श्री प्रतापचन्द जी पारसान द्वारा श्री शान्तिनाथ भगवान के जिनालय का निर्माण जीर्णोद्धार के रूप में हुआ था। इस मन्दिर का पुनः जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठा की आनन्द जी कल्याण जी पेढ़ी के प्रमुख सेठ श्री कस्तूर भाई लालभाई की संरक्षता तथा राष्ट्रसन्त जैनाचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीवर जी म. की निश्रा में सन् 1964 में कराई गयी थी। इसी श्रृंखला में श्री हस्तिनापुर तीर्थ के इतिहास को मूर्तरूप देने के लिए पारणा एवं कल्याणक मन्दिर का निर्माण हुआ। जिसमें श्री ऋषभदेव भगवान की प्रतिभा अपने प्रपौत्र श्री श्रेयांश कुमार के द्वारा इक्षुरस ग्रहण करती हुई मुद्रा में भारत में प्रथम बार प्रतिष्ठित की गई। इस मंदिर की प्रतिष्ठा जैन दिवाकर, परमार क्षत्रियोद्धारक वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी की निश्रा में सन् 1978 में सम्पन्न हुई। श्री हस्तिनापुर जी आदि तीर्थकर भगवान श्री ऋषभदेव जी के पारणे का मूल स्थल है। इस पवित्र भूमि पर प्राचीन स्तूप आज भी विद्यमान है। तीर्थ पर पधारे तपस्वी अपने वर्षोतप पारणे के प्रसंग पर इस पवित्र स्थान की पूजा अर्चना सुविधा एवं भावनापूर्ण कर सके, इसी उद्देश्य से इस पवित्र स्थान पर विशाल कलात्मक चौमुख चरण मंदिर का निर्माण किया गया है, जिसमें श्री आदीश्वर भगवान् ने चारचरण मुख्य स्तूप के चारों दिशाओं में प्रतिष्ठित किये जायेगें। पाठकों को जानकार प्रसन्नता होगी कि तीर्थ के महत्व को दृष्टिगत रखते हुए इस धर्म भूमि पर देश के प्रथम 108 फुट ऊँचे विशाल कलात्मक जैन शिल्प कला के अनुरूप (अष्टापद) की निर्माण योजना विचाराधीन है। तीर्थ पर तपस्वियों एवं यात्रियों की बढ़ती हुई संख्या को दृष्टिगत रखते हुए पुरानी धर्मशाला के लगभग 174 कमरों का जीर्णोद्धार तथा निर्माण किया गया है। श्री जे. एस. जवेरी (क्राउन टी.वी.) के सक्रिय योगदान से धर्मशाला का निर्माण कर पाये हैं। श्री किरन कुमार के. गादिया हाल ही में हम आधुनिक सुविधापूर्ण 108 कमरों वाली 3 मंजिली बंगलौर निवासी के सहयोग से एक और 108 कमरों की नई धर्मशाला का शीघ्र ही शुभारम्भ होने जा रहा है। यात्रियों को शुद्ध भोजन मिल सके, इसके लिए तीर्थ पर एक विशाल भोजनशाला का निर्माण किया गया है। जिसमें यात्रियों को सदैव निःशुल्क भोजन की व्यवस्था आज भी उपलब्ध है। इस तीर्थ का जो स्वरूप आज निखर कर हम सबके सम्मुख आया है तथा इसकी जो बहुमुखी उन्नति हुई है वह सब आचार्य श्रीमद् विजयवल्लभ सूरि जी म., आचार्य श्री विजय समुद्र सूरि जी म. एवं वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी के आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन तथा चतुर्विध श्री संघों के योगदान से ही सम्भव हो पाई है। जिसके लिए हम उनके अत्यन्त आभारी हैं। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SP Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की जन्मभूमि क्षत्रियकुंड -हीरा लाल दुग्गड़ जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर की लछवाड़ (जमई) के निकट क्षत्रिय कण्ड को भगवान महावीर की राजा नहीं था मात्र उमराव था। यही कारण था कि सिद्धार्थ जन्मभूमि मगध जनपद के कंडग्ग (कंडग्राम) में हुआ था। इसकी जन्म भूमि माना है। 2. दिगम्बर सम्प्रदाय मगध जनपद में और त्रिशला को क्षत्रिय और क्षत्रियाणी कहा है। त्रिशला का पुष्टि अर्द्धमागधी भाषा के प्राचीन जैनागम आचारांग, कल्पमत्र, नालंदा के निकट बड़गांव को कंडपुर मानकर महावीर का जन्म देवी रूप से कहीं उल्लेख नहीं है। आदि अनेक जैनागम शास्त्र करते हैं। एवं प्राचीनकाल में स्थान मानता है। 3. डा. हानले ने चंड का प्राकृत व्याकरण और जैनों के उपासक अनेकानेक यात्री या यात्रीसंघ-यात्रा करने के लिए आज तक वहाँ दशांग सूत्र का अंग्रेजी अनुवाद किया है और जैने आते रहते हैं। कंडग्राम दो भागों में विभाजित था। 1. क्षत्रिय 3. आधुनिक कुछ पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वान क्षत्रिय कण्ड को पट्टावलियां भी प्रकाशित की हैं। उसने ई.सं1968 में कुण्ड और 2. ब्राह्मण कण्ड। कुछ वर्ष पहले तक तो उपर्यक्त विदेह जनपद की राजधानी वैशाली का एक मोहल्ला मानते हैं। बंगाल ऐशियाटिक सोसायटी की वार्षिक सभा में प्रधान पद क्षत्रिय कण्ड को ही भगवान महावीर के च्यवन (गर्भावतरण) ऐसा मानते हुए भी वे इस मुहल्ले के लिए एक मत नहीं। से जो भाषण दिया था। उसमें कहा कि - भगवान महावीर जन्म, दीक्षा इन तीन कल्याणकों की भमि निर्विवाद रूप से मान्य के पिता सिद्धार्थ मात्ह जाति के ठाकर थे। वह वैशाली के थी। परन्त पाश्चात्य अन्वेषकों ने जब बसाढ़ (प्राचीन वैशाली) कछ पाश्चात्य विद्वानों की मान्यताएँ कोल्लागसन्नि वेश (मुहल्ले) में रहता था। इसलिए भगवान की खोज की और भगवान महावीर के लिए प्रयक्त-वैशालिक, महावीर को वैशालिक कहा जाता है। वैशाली वर्तमान काल विदेहदिन्ना, विदेहदिन्न, विदेहजच्चा आदि शब्द पढ़ने से कुछ । सर्वप्रथम जर्मन स्कालर हर्मन जेकाबी तथा जर्मन डा. का बसा है। पटना के उत्तर में 27 मील दूर है। कोल्लाग में पाश्चात्य विद्वानों ने यह धारणा बना ली कि भगवान महावीर का ए.एफ.आर. हारलने ने इन नई मान्यताओं को जन्म दिया। ज्ञान क्षत्रियों का दुतिपलाश नामका चैत्य धर्मस्थान था। यह जन्मस्थान वैशाली ही है। और उसके एक मोहल्ले को ही पाश्चात् उनका अनुकरण कछ भारतीय विद्वानों ने भी उपासक दशांगसूत्र के भाषांतर प्र० तीसरे की टिप्पणी कुडग्राम मान लिया। इनका समर्थन कछ भारतीय विद्वानों ने भी किया। इस नये शोध के कारण यह मत बहत विश्वासपात्र (footnote) में लिखता है कि-वैशाली में वैशाली कुंडपुर, कर डाला। बन गया। अब इनके मत के विषय में विचार करें। वणियाग्राम का समावेश होता है। जिनके अवशेष रूप आज दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के साहित्य ने कंडपर के स्थान पर 2. डा. जेकोबी ने "Sacred Book of the East" इस नाम बसाढ, वासुकंड और वाणिया हैं। इसलिये कंडपर वैशाली कुंडलपुर को माना। नालंदा के निकट जो बड़गांव है उसको ही की ग्रंथमाला के बाइसवें भाग में आचारांग सूत्र एवं कल्पसूत्र का ही नाम है। इसलिये महाबीर की जन्मभूमि वैशाली होने कुंडलपुर की संज्ञा दी। और यहाँ महावीर भगवान के दिगम्बर का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया है उसमें लिखा है कंडग्राम से वे वैशालिक कहलाये। एक बौद्ध कथा में वैशाली के तीन मंदिर की स्थापना की। विदेह जनपद संस्था और वह विदेह की राजधानी वैशाली नाम कहे हैं। वैशाली के आगे कंडपुर और उसके आगे का एक गांव अथवा मोहल्ला था। इस कारण से सूत्रकृतांग में कोल्लाग मोहल्ला था, इसमें क्षत्रिय रहते थे। जिस जाति में इसलिए भगवान महावीर का जन्म स्थान कहाँ है? यह प्रश्न भगवान महावीर को वैशालिक कहा है। क्योंकि कंडग्राम महावीर ने जन्म लिया था वहां कोल्लाग के पास दतिपलाश उठ खड़ा हुआ । अतः क्षत्रिय कंड के लिए इस समय तीन वैशाली का एक मोहल्ला है, इसलिए वैशाली भगवान चैत्य यानि उद्यान था। यह ज्ञात कल का ही था। इसलिये मान्यताएं प्रचलित है।।. प्राचीन मान्यता मागध जनपद में महावीर का नाम वास्तविक सिद्ध होता है। सिद्धार्थ वहाँ का आचारांग सूत्र और कल्पसूत्र में णायवण खंड उज्जणे लिख Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ca For Prvate & Personal Use Only www.ainelibrary.org Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 है। कुंडपुरे के साथ नगर शब्द जुड़ा हुआ है जो वैशाली और के घर जाकर किया खीर से। जैन सूत्रों के अनुसार कोल्लाग थान क्षत्रिय कुंड है (2) वासुकुंड को पिदेह को राजधानी वैशाली कुंडपुर को एक होना सत्यसिद्ध करता है। कुंडपुर के साथ सन्निवेश दो है। एक बाणिज्य ग्राम के पास और दूसरा राजगृही के का एक मोहल्ला माना है। 5 प्रो० योगन्द्र मिश्र ने भी वैशाली के सन्निवेश शब्द का भी प्रयोग हुआ है। यह कुंडपुर के लिये पास। ये स्थान लछवाड़ से चालीस मील से अधिक दर है। वहां निकट कुंडग्राम को माना है। 6 इन सबके अतिरिक्त इनका नहीं किंतु उत्तर तरफ के क्षत्रियकुंड के लिए तथा दक्षिण पहुंच कर दूसरे दिन पारणा करना असंभव है। अतः भगवान ने अन्धानुकरण करने वाले अनेक हैं। तरफ के ब्राह्मण कुंड के भेद के लिये ही है। अर्थात् सिद्धार्थ वैशाली के पास क्षत्रियकुंड के ज्ञातवंत खंड में दीक्षा ली और दूसरे वैशाली नगर के कोल्लाग महल्ले का क्षत्रियों का मुख्य दिन वाणिज्य ग्राम के निकट कोल्लाग में जाकर पारणा किया था। प्राचीन जैनागम और श्वेताम्बर जैनों की सरदार था इससे स्पष्ट है कि महावीर की जन्मभूमि 4. भगवान ने दीक्षा के वर्ष में क्षत्रियकुंड से विहार कर कुमार मान्यता कोल्लाग ही थी। ग्राम मोराक सन्निवेश आदि स्थलों में विचर कर अस्थिग्राम में जात वंश के क्षत्रियों ने अपने गरु को ठहरने के लिये चौमासा किया। दूसरे वर्ष मोराक, वाचाल, कनखल, आश्रमपद, अर्द्धमागधी भाषा के प्राचीन जैनागम आचारांग, कल्पसूत्र दुतिपलाश चैत्य की स्थापना की थी। जब महावीर ने संसार का श्वेदांबी होकर राजगृही आकर चौमासा किया। ऐसा उल्लेख आदि मूल, उन पर लिखी गयी नियुक्ति, चर्णि, टीका, भाष्य आदि त्याग किया, तब प्रथम कुंडपुर के निकट ज्ञातकल के इसी उधान मिलता है, इसके अनुसार भगवान (पहले) चौमासे के बाद सब ने एकमत से भगवान महावीर का जन्म स्थान मगध जनपद में जाकर निवास किया था। एक बौद्ध कथा के अनुसार वैशाली के श्वेताम्बी आते हैं और वापिस लौटते हुए गंगा नदी पार करके में कंडग्गाम (कंडग्राम) बतलया है। यह ग्राम छोटा नहीं था। तीन नामों में 7000 सोने के कलश वाले, मध्यवाले भाग में 1000 राजग्रही पधारते हैं। (श्वेतांबी गंगा के उत्तर में है चादी के कलश वाले और 1000 तांबे के कलश वाले घर थे। और राजग्रही दक्षिण में इससे निश्चित है कि लछवाड अपितु महाग्राम (नगर) था। इसके लिए ग्राम, नगर, पुर, शनिवेश आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। इसके दो मुख्य उनमें उत्तम, मध्यम और नीच वर्ग के लोग रहते थे। अन्तभाग वाला क्षत्रियकुंड असली नहीं है। वहां से राजग्रही जाते विभाग थे। दक्षिण में महाणकुंडग्गाम (ब्राहमणकंडग्राम) एवं में जैन सत्र में वाणियग्राम के लिये उच्च, नीच और मंजिझम समय गंगा पार नहीं करनी पड़ती। मानना पड़ता है कि क्षत्रियकुंड उत्तर में खत्रियकंडग्गाम (क्षत्रियकुंडग्राम) यह ब्राह्मण और लिखा है। जिसका उक्त वर्णन के साथ मेल खाता है। गंगा के उत्तर में बिहार (विदह जनपद) में था। वह वैशाली के क्षत्रियों का सम्मिलित महानगर था। भगवान महावीर के जीवन अतः हार्नल ऐसा मानता है कि ।. कोल्लाग वैशाली का पास था। जहां भगवान महावीर का जन्म हुआ था। 5 वैशाली के चरित्र में इस महानगर के दोनों भागों को समान रूप से स्थान मोहल्ला ही क्षत्रियकंड है। वासुकंड वर्तमान में उसका अवशेष पश्चिम में गंडकी नदी थी। उसके पश्चिम में ब्राह्मण कुंड, दिया गया है। कंडग्राम के भौगोलिक परिवेश में आने वाले रूप है। 2. ज्ञातवनखंड और दतिप्रलाश चैत्य एक ही उद्यान क्षत्रियकंड, वाणिज्यग्राम, कमारग्राम और कोल्लाग सन्निवेश आसपास के कुछ स्थानों का विवरण भी प्राचीन जैनागमों में था। वह वैशाली में था, जहां महावीर ने निवास (दीक्षा) ली थी। आदि उस (वैशाली) के मुहल्ले थे। ब्राह्मण कुंड एवं क्षत्रियकुंड, मिलता है। क्षत्रियकुंड के बाहर ईशानकोण में णायवणखंड नाम 3. सिद्धार्थ कोल्लाग के ज्ञात क्षत्रियों के सरदार थे। पन्यास वाणिज्यग्राम, कुमारग्राम और कोल्लाग सन्निवेश आदि उस का एक उद्यान कुण्डपुर के णाय (ज्ञात) क्षत्रियों का है। कल्याण विजय जी अपनी पुस्तक श्रमण भगवान महावीर में (वैशाली) के मुहल्ले थे। ब्राह्मण कुंड एवं क्षत्रियकुंड एक दूसरे गृह-त्याग के बाद वर्द्धमान महावीर चंद्रप्रभा नामक पालकी में लिखते हैं कि ( भगवान महावीर का जन्म लछवाड़ के निकट के पश्चिम पूर्व के मोहल्ले थे। मध्य में बहुशाल चैत्य था। इन बैठकर क्षत्रियकुंड नगर के मध्य से होते हएणायवण खण्ड उद्यान क्षत्रियकुंड में हुआ था, मैं इसे सच्च नहीं मानता। क्योंकि सूत्रों में दोनों मोहल्लों में उत्तर और दक्षिण ऐसे दो भाग थे। दक्षिण कुंड भगवान महावीर के लिये पिदेह, पिदेहदिन्न, पिदेहजच्चे में बाह्मणों के अधिक घर थे जबकि उत्तर कुंड में क्षत्रियों के में आये और वहां पर उन्होंने मुनि दीक्षा ग्रहण की। उसी दिन एक पिदेहसमाले तीस वासाइ निकट यह पाठ है और बेसाली नाम भी अधिक घर थे। सिद्धार्थ राजा उत्तर क्षत्रिय कुंड के नायक थे। मुर्हत (48 मिनट) दिन रहते हुए वे कमार ग्राम में स्थलमार्ग से गये। उसी दिन वहाँ से मोराक सन्निवेश में गये। कोल्लाक मिलता है। इससे मानना पड़ता है कि भगवान महावीर का जन्म ज्ञात क्षत्रियों के स्वामी थे और वह जैन था। अतः आपका मानना सन्निवेश में ज्ञातृकल की पौषधशाला थी। इस विवरण से पता स्थान पिदेह जनपद में वैशाली के एक मुहल्ले में हुआ था। है कि । विदह में वैशाली के निकट एक मोहल्ला ही क्षत्रियकुंड चलता है कि यहाँ नायकल के क्षत्रियों का विस्तार था और वे (2) क्षत्रियकुंड एक बड़ा नगर था तो भी भगवान महावीर के भगवान महावीर का जन्म स्थान है। 2. लछवाड़ के निकट एक भी चौमासा करने का उल्लेख नहीं मिलता। क्षत्रियकुंड में भगवान ने कोई चौमासा एवं विहार नहीं किया जैनधर्मानुयायी थे। जबकि भगवान ने 12 चौमासे वैशाली और वाणिज्य इसलिये यह भगवान का जन्म स्थान नहीं हो सकता है 3 ग्राम में किये। इससे लगता है कि क्षत्रियकुंड एवं ब्राहमण श्वेतांबी से राजग्रही जाते हुए भगवान को गंगा नदी पार करनी जनागमा म भागाालक अवास्थात कंड वैशाली के पास के ही मोहल्ले थे। इससे 12 चौमामों का पड़ी थी इसलिये वैशाली का एक मोहल्ला ही सच्चा क्षत्रियकंड लाभ उन्हीं को मिला था। 3. भगवान महावीर दीक्षा के दूसरे है। 4. आचार्य विजयेन्द्र सरि-वैशाली नामक पुस्तक लिखते हैं जम्बद्वीप से भारतवर्ष के भरतक्षेत्र में दक्षिणार्द्ध भरतखंड में । दिन कोल्लाग सन्निवेश में जाकर छठ का पारणा बाहूल बाहमण (1) वासुकंड या आत्रिक अथवा वैशाली या कोटिग्राम का कोइ दक्षिण दिशा में ब्राह्मण कण्डपुर नगर सन्निवेश था। जैन Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल्पना के अनुसार भरहर भरत का विस्तार 526 योजन है। यह चुल्ल हेमवन्त के दक्षिण में तथा पूर्वी और पश्चिमी सागर के मध्य में है। दो बड़ी नदियों गंगा और सिन्ध तथा वैतादय पर्वतमाला से यह क्षेत्र छ: विभागों में विभाजित हो जाता है। यह सूत्र कुंडपुर के भौगोलिक की पहचान के लिए अत्यन्त सहायक सिद्ध होता है। इस भौगोलिक विवरण से पता लगता है कि भरतक्षेत्र चुल्ल हेमवन्त के दक्षिण और पूर्वी एवं पश्चिमी सागर के मध्य था। और उस भरत के दक्षिणार्द्ध भरतखण्ड में दक्षिण दिशा में ब्राह्मण कुंडपुर सन्निवेश था। ध्यानीय है कि भरतक्षेत्र की विभाजन रेखाओं में गंगा सिन्धु और वैतादय पर्वतमाला हिमवन्त या हिमालय पर्वत को माना जाता है जिसके द्वारा यह क्षेत्र छह खण्डों में विभाजित हो जाता है। अतः ऐसी स्थिति में दक्षिणार्द्ध भरतखण्ड भूभाग ही माना जा सकता है। उत्तर भाग नहीं। इसलिए दक्षिण मुंगेर के लच्छवाड़ के समीप का कंडग्राम ही भगवान महावीर का जन्म स्थान है अन्य नहीं। यही कारण है कि श्वेताम्बर जैन परम्पराप्राचीन काल से ही इसी कुंडग्राम को भगवान महावीर का जन्म स्थान मानती आ रही है। HS SS CUDA किन्तु श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों परम्पराओं से सर्वथा भिन्न कुछ वर्तमान विदेशी तथा उनसे प्रभावित भारतीय इतिहासकारों के मत से-वैशाली ही भगवान महावीर की जन्म और पित भूमि है। ऐसा होने से कुंडग्राम को वैशाली का एक महल्ला मान लिया गया है। इस मत की स्थापना के काफी बाद वैशाली संघ नामक स्थापित संस्था के प्रयासों के फलस्वरूप सर्वप्रथम 29 अप्रैल 1948 ई. स. में कुछ जैनों ने वैशाली को जन्मभूमि मानकर वहाँ भगवान महावीर की पूजा आराधना की। डा. पी.सी.आर. चौधरी का कथन है कि यद्यपि ये लोग वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि होने का दावा करने लगे हैं भगवान तथापि विवाद रूप से वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि नहीं माना जा सकता। खेद का विषय है कि पाविदों और इतिहासकारों ने भगवान महावीर की जन्मभूमि के संबंध में गम्भीरतापूर्वक गवेषणा नहीं की। वैशाली के पक्ष में उनकी सारी युक्तियां सारहीन एवं अटकल मात्र है। विश्लेषण करते ही इनका वास्तविक स्वरूप प्रगट हो जाता है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 दिल्ली के जैन मंदिर जैन लाल मंदिर - लाल किले के सामने BAG छोटी जैन दादावाड़ी - मोट मस्जिद हसी स्थल - महरोली & Personal Use Onlyश्री जैन श्वेताम्बर नौघरा मंदिर - चांदनी चौक rary.org Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AUSINESIASNASATNISESESEAENDAR ACTRE श्री जैन मंदिर रूपनगर दिल्ली के जैन मंदिर जैन दादाबाड़ी - मा pain Education International For Phive & Personal use on Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2atma Vallabh आत्मवल्लभ આત્મવલભ Ceiling painting Sittannavasal Jain Caves Tamil Nadun जैन दर्शन और इतिहास अनेकान्त दर्शन की छाया सुखमय करती रहे विकास, शांति, अहिंसा, प्रेम, दया ही जिन-शासन का है इतिहास। courtesy Lalit Kala Akademi New Delhi Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ With Sest Compliments From ARIHANT BUILDERS & INDUSTRIES (PROJECT OFFICE) 810, HEMKUNT HOUSE RAJENDRA PALACE NEW DELHI-110008 PHONES: 5730232 5737023 5270953 (CORPORATE OFFICE) 51. RANI JHANSI ROAD NEW DELHI - 110055 NEW DELHI-110055 PHONES: 527735, 777599 527599, 527781 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार क्षत्रियोद्धारक, चारित्र चूड़ामणि जैन दिवाकर आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वरजी महाराज का देश के लिए संदेश नीचे से ऊपर तक देश के लोगों में नीति और न्याय का नितान्त अभाव हो गया है। लोग दूसरों को गिराकर स्वयं ऊपर उठना चाहते हैं। मनुष्य आज इतना आत्म केन्द्रित हो गया है कि उसे और किसी का ध्यान ही नहीं रह गया है। जाति, धर्म, समाज सर्वत्र संकीर्णता और साम्प्रदायिक भावना दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। उपर्युक्त कारणों से घर, परिवार, देश, संसार जहां देखिए वहाँ अशांति, कलह, हिंसा और उत्पीडन का साम्राज्य छाया हुआ है। सभी नागरिक अशांत और व्याकुल होकर शांति पाना चाहते हैं, पर वह दिन प्रतिदिन और दूर चली जाती है, ऐसी दशा में समस्या सुलझाने के लिए ज्यों ज्यों प्रयास किए जा रहे हैं त्यों त्यों स्थिति और बिगड़ती जा रही है, कुछ लोग तो हिंसा के बल पर अपनी समस्या का समाधान खोज रहे हैं। किन्तु यह निश्चित है कि जब तक लोगों में अहिंसा, प्रेम, परोपकार और त्याग की भावना विकसित और संबधित नहीं होगी तब तक सुख-शांति की स्थापना के सारे प्रयास व्यर्थ होंगे। सभी समस्याओं को सुलझाने के लिए भगवान महावीर स्वामी के उपदेश अहिंसा, प्रेम और अनेकान्तवाद पूर्ण रूपेण समर्थ हैं। 'शांति और सुख के लिए यही एक आदर्श मार्ग है। विजयन्द्रदिन सदि . Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विश्वशान्ति • आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि आधुनिक युग में विज्ञान ने जहां अनेक भौतिक जैनदर्शन का अपरिग्रह-सिद्धान्त-धन-सम्पत्ति के प्रति सुख-सुविधाएं प्रदान की हैं, वहाँ परमाणु आयुधों की निरन्तर आसक्ति (मूर्छा) नहीं रखना है। मनुष्य अपने भौतिक अभिवृद्धि के कारण जगत् विनाश के कगार पर खड़ा है। विश्व के सुख-साधन जुटाने में दिन-रात एक कर रहा है, छल-कपट राष्ट्र पारस्परिक भय के कारण अपनी सुरक्षा हेतु विनाशकारी करता है। दूसरों को दुःख पहुँचाता है। यदि अपरिग्रह-सिद्धांत को शस्त्रास्त्र पर खरबों रुपये खर्च कर रहे हैं। साथ ही विश्वशान्ति अपनालें तो वह धन-सम्पत्ति को नीति-न्याय से अर्जित करेगा, की बात भी कर रहे हैं। ऐसे भयाक्रान्त विश्व को शान्ति की जितनी आवश्यकता होगी, उतनी ही सामग्री संचित करेगा, 'शेष अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि इसके बिना अभावग्रस्त, सम्पत्ति को दानादि परोपकार में व्यय करेगा। धन-सम्पत्ति क्षुधापीड़ित करोड़ों मनुष्य दरिद्रता की चक्की में पिसे जा रहे हैं। समाज की है-इसका स्वामित्व केवल धन-स्वामी का ही नहीं है, विश्वशान्ति की स्थापना के लिए जैनदर्शन के अहिंसा. क्योंकि इसकी प्राप्ति में दूसरों का भी सहयोग है-'परस्परोपग्रहो अनेकान्त और अपरिग्रह सिद्धान्त महत्वपूर्ण हैं। अहिंसा से जीवानाम् (श्रीतत्त्वार्थसूत्र-5,21)। अपरिग्रह सिद्धान्त के विश्व-मैत्री का विकास होता है, इससे समस्त संसार प्रेम के अपनाने से जमाखोरी मिटेगी, काले धन की समाप्ति होगी स्वर्णसूत्र में बंध जाता है। अहिंसा से प्राणिमात्र के लिए स्नेह और नाति-न्याय की स्थापना होगी। फलस्वरूप पारस्परिक वैमनस्य, सम्मान की भावना आती है, जिससे सम्प्रदाय, जाति, धर्म आदि परिस्पद्धा और स्वार्थ के मिटने से संतोष फैलेगा। इससे का भद-भाव नहीं रहता, अखण्ड मानवता का बोध होता है। यही विश्वशान्ति की स्थापना होगी। सूत्र विश्व-समाज की रचना करता है। अहिंसा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की आधारशिला है। अहिंसा का पालन अनेकान्तदर्शन से ही सम्भव है। जैनदर्शन का दूसरा नाम अनेकान्तदर्शन है। किसी के प्रति कोई दुराग्रह नहीं, कोई हठ नहीं। सत्य के अनेक पक्ष हैं-समग्र दृष्टिकोणों से सत्य को परखने से सही स्वरूप प्रकट होता है. यही अनेकान्त दर्शन की खूबी है। इस विश्व में अनेक मत-मतान्तर हैं, अनेक धर्म हैं, सम्प्रदाय और जातियाँ हैं, सबके प्रति सद्भाव रखना अनेकान्त दर्शन का वैशिष्ट्य है। अनेकान्त दर्शन दराग्रह को दर कर शाश्वत सत्य को उजागर करता है। यदि जगत के लोग एकान्तवाद (हठवाद) को छोड़कर अनेकान्तवाद अपनावें तो विश्वशान्ति निश्चित है| vate & Personal One Only on Education intamaton Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म -गणि जगच्चन्द्र विजय आंखों में अगर मुस्कान है तो इंसान तुमसे दूर नहीं पाँवों में अगर उड़ान है तो आसमान तुमसे दूर नहीं शिखर पर बैठकर विहग ने यही गीत गाया श्रद्धा में अगर जान है तो भगवान तुमसे दूर नहीं जैन धर्म ने दो प्रकार के धर्म बताए हैं साधु धर्म और गृहस्थ दुखी होता है। शास्त्रकारों ने यम-नियम का विधान इसलिए धर्म। दोनों रास्ते अलग-अलग हैं; परंतु लक्ष्य दोनों का एक ही है। किया है कि मनुष्य अपने कर्तव्य-पथ पर चलता रहे और लक्ष्य को और यह भी सत्य है कि साधु हो या गृहस्थ बिना धर्म के आचरण प्राप्त करे। गृहस्थों के लिए बारह व्रतों का विधान इसलिए है कि के किसी का कल्याण नहीं होता। साधु सांसारिक प्रपंचों को छोड़ उनकी लोभवृत्ति कुछ कम हो, आधि-व्याधि-उपाधि के बीच देता है इसलिए न तो उसे द्रव्य की आवश्यकता है न घर-परिवार भी वह सुखी जीवन बिता सके। इन व्रतों का यही लक्ष्य है। की अतः उसके लिए हिसा, झूठ, चोरी, मैथन, परिग्रह आदि बारह व्रतों के नाम इस प्रकार हैं:सर्वथा त्याज्य होते हैं।यह जब कि गृहस्थ के लिए सर्वथा त्याज्य 1. स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत। नहीं है। इसीलिए जैन धर्म ने दो प्रकार के धर्म बताए हैं। 2. स्थूल मूषावाद विरमण व्रत। जो लोग जैन धर्म का पालन करते हैं उन्हें जैन परिभाषा में 3. स्थल अदत्तादान विरमण व्रत। "श्रावक" और "श्राविका" कहा जाता है। इसका अर्थ यह नहीं 4. स्थूल मैथुन विरमण व्रत। कि जैन धर्म का पालन केवल बनिये ही कर सकते हैं। इसका 5. स्थूल परिग्रह विरमण व्रत। पालन किसी भी जाति का या वर्ग का व्यक्ति कर सकता है चाहे 6. दिगव्रत। वह ब्राहमण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शुद्र हो। वे भी "श्रावक" 7. भोगोपभोग विरमण व्रत। और "श्राविका" कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं। भगवान 8. अनर्थदंड विरमण व्रत। महावीर स्वामी के मुख्य दस श्रावक थे उनमें कुछ कंभकार थे 9. सामायिक व्रत। कछ कणबी थे। श्रावक का अर्थ है श्रवण करना, हितकर वचन 10. देशावकासिक व्रत। सनना अर्थात कल्याण के मार्ग पर चलने के लिए जो तत्पर रहता 11. पौषध ब्रत। है वह श्रावक है। और वह कोई भी हो सकता है। 12. अतिथि संविभाग व्रत। साधुओं के लिए जैसे पांच महाव्रत हैं वैसे ही श्रावकों के लिए इन बारह व्रतों में प्रारंभ के पांच व्रतों को "अणवत" कहा बारह व्रत हैं। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि संसार आधि जाता है। "अण' का अर्थ है छोटा। गृहस्थों की अपेक्षा से साधुओं (मानसिक कष्ट) व्याधि (शारीरिक कष्ट) और उपाधि के महाव्रत छोटे और अल्प होते हैं। छह से आठ तक के व्रतों को (सांसारिक कष्ट) से भरा हुआ है। उसमें फंस कर मनुष्य दुख गुणवत" कहा जाता है क्योंकि वे पांच अणुव्रतों के सहायक होते झेलता है और दुख भूलों का परिणाम है। मनुष्य जब अपने कर्तव्य हैं। और अन्तिम चारको शिक्षाव्रत कहा जाता है क्योंकिवे प्रतिदिन से पतित हो जाता है तब पाप या भूल करता है और इसीलिए वह अभ्यास करने योग्य होते हैं। For Private &Personal use only Education international Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत यहाँ बारह व्रतों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। 1. स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत। इसमें स्थूल प्राण अतिपात विरमण व्रत शब्द हैं। इसका अर्थ यह है कि स्थूल जीवों की हिंसा से दूर रहना। जीवों के दो भेद हैं (1) त्रस और (2) स्थावर पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय इन पांच एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से गृहस्थ बच नहीं सकता। इसलिए उसे स्थूल त्रस जीवों की हिंसा से बचना चाहिए। गृहस्थ को संकल्प पूर्वक कोई हिंसा नहीं करनी चाहिए। 2. स्थूलमृषावाद विरमण व्रत। न दी हुई चीज वस्तु को ग्रहण करना अदत्तादान है। व्यावहारिक भाषा में इसे "चोरी" कहा जाता है। सूक्ष्म चोरी का त्याग न करने वाले गृहस्थ को कम से कम स्थूल चोरी का त्याग करना चाहिए। रास्ते में पड़ी हुई चीज उठा लेना, जमीन में गड़े हुए धन को निकाला लेना, किसी की रखी हुई वस्तु को बिना पूछे प्रयोग करना, दान चोरी (कस्टम चोरी) कम लेना, अधिक देना, अधिक लेना कम देना ये सभी चोरी के स्थूल प्रकार हैं गृहस्थ को इससे बचना चाहिए। - 4. स्थूल मैथुन विरमण व्रत । गृहस्थ को स्वदारा संतोषी होना चाहिए और परस्त्री का सर्वथा त्याग करना चाहिए। अपनी विवाहिता स्त्री को छोड़कर, वेश्या, विधवा या किसी कुमारी से शारीरिक संबंध नहीं रखना चाहिए। इन्हें अपनी माता और बहन तथा पुत्री मानना चाहिए। इसी प्रकार श्राविकाओं को भी अपने पति को छोड़ कर किसी अन्य पुरुष से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। "स्वदारा संतोष" का अर्थ यह है कि अपनी स्त्री से भी मर्यादित ही सम्बन्ध रखना चाहिए। अपनी स्त्री के साथ भी मर्यादा का भंग होता है तो व्यभिचार गिना जाता है। इसलिए गृहस्थ को स्वदारा संतोषी और परस्त्री का त्याग होना चाहिए। होना तो यह चाहिए कि श्रावक को सूक्ष्म असत्य भी नहीं बोलना चाहिए परंतु व्यवहार जगत में यह संभव नहीं इसलिए गृहस्थ को स्थूल मृषावाद असत्य का त्याग करना चाहिए। क्रोध, लोभ, भय और हास्य के कारण व्यक्ति झूठ बोलता है और इन चारों को छोड़ना कठिन है। इसीलिए व्यक्ति को सदा जागृत 6. दिग्व्रत। रहना चाहिए। 3. अवत्तावान विरमण व्रत । 5. स्थूल परिग्रह विरमण व्रत। सांसारिक पदार्थों के प्रति जितना ममत्व अधिक होगा उतना ही असंतोष, अविश्वास और दुःख होगा। अत्यधिक ममत्व ही दुख का कारण है। इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है। इन असीम इच्छाओं को सीमित कर देना, मर्यादित करना ही अपरिग्रह है। गृहस्थ को चाहिए कि वह परिग्रह सीमित करें। इससे समाजवाद को बल मिलता है। जितना परिग्रह कम होगा उतना ही जीवन सुखी और संतोषी होगा। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि दिशाओं में जाने की मर्यादा रखना अर्थात् एक हजार, पांच हजार आदि मील से अधिक न जाना, दिग्व्रत है। यह व्रत लोभवृत्ति को भी अंकुश में रखता है और अनेक प्रकार की हिंसा से बचाता है। 7. भोगोपभोग परिमाण व्रत । आता है। इच्छाओं का निरोध होता है चित्त की चंचलता कम होती है। 8. अनर्थ दंड विरमण व्रत । बिना प्रयोजन के पाप लगने की क्रिया को अनर्थ दंड विरमण व्रत कहा जाता है। व्यर्थ ही दूषित विचार करना, दुर्ध्यान करना, पापोपदेश देना, अनीति, अन्याय असत्य की प्रवृत्ति करना, किसी हत्यारे को प्रोत्साहन देना, तमाशा देखना, मजाक उड़ाना ये सब अनर्थ दंड अर्थात् निरर्थक आचरण के कार्य हैं। गृहस्थ को इन से दूर रहना चाहिए। 9. सामायिक । सामायिक का अर्थ है किसी एकान्त स्थान में अड़तालीस मिनिट समतापूर्वक बैठना। इस सामायिक में बैठकर व्यक्ति को आत्मचिंतन करना चाहिए, स्वाध्याय और मनन करना चाहिए, मोह और ममत्व को दूर करना चाहिए, समभाव वृत्ति को धारण करना चाहिए। चाहे कितना ही उपद्रव हो पर उद्विग्न न होना चाहिए। संक्षेप में कहें तो मन, वचन और काया को अशुभ वृत्तियों से हटाकर शुभ ध्यान में लगाना चाहिए। 10. देशावकासिक व्रत। "दिग्व्रत" में दिशाओं का जो परिमाण किया गया है वह यावज्जीवन का है। उसमें क्षेत्र की विशालता रहती है। परंतु "देशावकासिक व्रत" में क्षेत्र की सीमितता रहती है। दस मील जाना या पांच मील जाना या दो मील जाना या पांच सात घंटे तक एक ही स्थान पर बैठकर ज्ञान-ध्यान करना। इस प्रकार की प्रतिज्ञा करना "देशावकासिक व्रत" कहा जाता है। * भोगोपभोग में दो शब्द हैं: भोग और उपभोग जो वस्तु केवल एक ही बार काम में आती है वह भोग्य वस्तु है और जो 11. पौष धव्रत। अनेक बार काम में आती है उसे उपभोग कहा जाता है, जैसे अन्न, - पानी, विलेपन आदि ये चीजें भोग हैं और दूसरी बार काम में नहीं आती। घर, वस्त्र गहने आदि उपभोग है क्योंकि ये बार-बार काम में आती हैं। इन चीजों का परिमाण निश्चित कर लेना चाहिए। इन चीजों का परिमाण हो जाने पर तृष्णा पर अंकुश धर्म को जो पुष्ट करता है उसका नाम पौषध है। बारह, चोबीस, या जितनी इच्छा हो उतने घण्टे तक सांसारिक प्रवृत्तियों को छोड़कर धर्मस्थान में धर्म क्रिया करते हुए साधुवृत्ति में रहना पौषध माना जाता है। जितने समय का पौषध हो उतने समय तक www.jainelibrary.omg Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, स्नानादि श्रृंगार का त्याग चीजों को चौदह भागों में विभक्त किया गया है। प्रातः काल उठते 9. शयनः पलंग, बिस्तर, कुर्सी, गद्दी, तकिया आदि की संख्या करना चाहिए, प्रासुक पानी का प्रयोग करना चाहिए और ही मनुष्य को उन चीजों को निश्चित कर देना चाहिए कि आज मैं निर्धारित करना। यथाशक्ति उपवासादि तप करना चाहिए। इतनी चीजों का प्रयोग करूँगा, शेष का त्याग। वे चौदह नियम 10. विलेपनः तेल, अत्तर, क्रीम, चंदन, साबुन आदि की संख्या इस प्रकार हैं: निश्चित करना। 12. अतिथिसंविभाग व्रत। 1. सचित्तः मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीव हैं। 11. बह्मचर्यः स्वस्त्री और स्वपति के लिए भी मर्यादा निश्चित जिसमें जीव होता है उसे सचित्त कहा जाता है। इसीलिए करना। जिन्होंने लौकिक पर्व-उत्सवादि का त्याग कर दिया है निश्चित करना चाहिए कि आज मैं कितनी मिट्टी का प्रयोग 12. दिशिः अलग-अलग दिशाओं में जाने के लिए मील की वे अतिथि हैं अर्थात् जिन्होंने आत्मा की उन्नति के लिए करूँगा? संख्या निश्चित करना। गृहस्थाश्रम का त्याग कर दिया है, स्व पर कल्याणकारी संन्यास पीने या स्नान करने के लिए कितने पानी का प्रयोग करूँगा? 13. स्नानः दिन में कितनी बार स्नान करेंगे। मार्ग का जिन्होंने ग्रहण किया है ऐसे मुमुश्रु महात्माओं का चूल्हा, गैस, हीटर आदि का कितना और कितनी बार प्रयोग 14 14. भत्तः भोजन, पानी, दूध और शरबत आदि कितने प्रमाण में अन्न-पानी और वस्त्रादि आवश्यक चीजों से स्वागत-सत्कार लेंगे। करूंगा। करने का नाम अतिथि संविभाग व्रत है। इस व्रत में ऐसी पंखे आदि कितने और कितनी बार प्रयोग करूंगा। प्रतिज्ञा की जाती है कि जब तक अतिथि अर्थात् साध या साधर्मिक हरी वनस्पति का सब्जी के लिए एक या दो से अधिक प्रयोग गृहस्थ का दिनकृत्य भाई खाद्य पदार्थ ग्रहण नहीं करेगें तब तक मैं भी ग्रहण नहीं नहीं करूंगा। करूंगा और उतनी ही चीजें खानी चाहिए जितनी की साधु 2. द्रव्यः खाने पीने की चीजों की संख्या निश्चित करना। गृहस्थाश्रम सभी आश्रमों का आधार है। इसलिए यह महाराज बहोरते हैं। प्रातः काल उठते ही इस व्रत को धारण कर । 3. विगयः मांस, मदिरा, शहद और मक्खन ये चार महाविगय जितना संस्कारी, सदाचारी, पवित्र और सुदृढ़ होगा उतना ही लेना चाहिए। और किसी को बताना नहीं चाहिए। हैं। इनके सेवन से इन्द्रियों में विकार उत्पन्न होता है। अतः व्यक्ति सुखी और संतोषी होगा। उपर्युक्त पांच अणुव्रतों को चार मास, एक मास, बीस दिन या इनका सर्वथा त्याग करना चाहिए। घी, तेल, दूध,दही और सूर्योदय से पहले जगना चाहिए। देवदर्शन, गुरुवंदन, एक रात के लिए भी ग्रहण किए जा सकते हैं। गड या शक्कर तथा इनसे बनी चीजें मिष्ठान एवं तली हुई प्रतिक्रमण और सूर्यास्त से पहले भोजन कर लेना चाहिए। रात्रि इन बारह व्रतों के पालन से गृहस्थ अनेक बुरे कार्यों से चीजों का एक-दो-तीन या चार यथाशक्ति त्याग करना भोजन कभी नहीं करना चाहिए। अहिंसा की दृष्टि से और पापाचरण से बच जाता है। इन बारह व्रतों को अंगीकार करने से चाहिए। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी प्रत्येक व्यक्ति को रात्रि भोजन का सर्वथा पहले सम्यक्त्व प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक होता है। 4. वानहः चप्पल, जूते, सैंडल, बूट और मोजे की संख्या त्याग करना चाहिए। गृहस्थ को प्रतिदिन का कार्यक्रम इस प्रकार सम्यक्त्व देव गुरु और धर्म पर पूर्ण और अटल श्रद्धा विश्वास निश्चित करना। निर्धारित करना चाहिए कि उसकी व्यावहारिक दुनिया को और रखने पर ही प्राप्त होता है। आत्मा दोनों का लाभ हो। 5. तंबोलः पान, सुपारी, इलायची, मुखवास आदि की संख्या निर्धारित करना। गृहस्थ के छह कर्तव्य इस प्रकार हैं। इन्हें प्रतिदिन करना 6. बस्त्रः कपड़े की संख्या निश्चित करना। चाहिए। चौदह नियम 7. कुसुम फूलों की संख्या का परिमाण करना। 1. देवपूजा 4. संयम 8. वाहनः गड्डी, कार, स्कूटर, तांगा, हवाईजहाज आदि की 2. गुरुसेवा 5. तप बहुत सी चीजें मनुष्य को प्रतिदिन काम आती हैं। उन सब संख्या निश्चित करना। 3. स्वाध्याय 6. दान Tuin Education intemanonal For Fate & Percoal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वगत आगमों की परम्परा डा० गोकुलचन्द्र जैन जैन परम्परा के अनुसार प्राचीन जैन सिद्धान्त द्वादशांग नाम से प्रसिद्ध थे। बारहवें अंग का एक भेद पूर्वगत था। इसके अन्तर्गत चौदह पूर्व समाहित थे। ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वी का स्वतन्त्र उल्लेख भी प्राप्त होता है। द्वादशांग दीर्घकाल तक गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा मौखिक रूप से चलते रहे। इस कारण इन्हें " श्रुत" के नाम से भी अभिहित किया जाता है। परम्परा के अनुसार सर्व प्रथम बारहवाँ अंग ग्रथित हुआ। उसके बाद ग्यारह अंग ग्रथित हुए। कालान्तर में द्वादशांग को मौखिक परम्परा द्वारा सुरक्षित नहीं रखा जा सका। तब उन्हें पुस्तकारूढ़ करने के उपक्रम हुए। वर्तमान दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय उक्त तथ्यों को समान रूप से स्वीकार करते हैं। दोनों परम्पराओं में द्वादशांग के नाम और उनकी विषय वस्तु की समान जानकारी प्राप्त होती है। किन्तु वर्तमान में उपलब्ध आगम और आगमिक साहित्य दोनों परम्पराओं में स्ष्ट रूप से विभक्त है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार सम्पूर्ण श्रुतज्ञान में से मात्र बारहवें अंग के कुछ अंशों का ज्ञान सुरक्षित रहा, जिसके आधार पर उसे पुस्तकारूढ़ किया गया। भगवान् महावीर के निवार्ण के लगभग एक हजार वर्ष बाद वलभी में जिन ग्यारह अंगों को पुस्तकारूढ़ किया गया, उसे दिगम्बर परम्परा मूल आगम नहीं मानती । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार बारहवाँ अंग पूर्णतया लुप्त हो गया। ग्यारह अंगों का जो ज्ञान श्रुत परम्परा द्वारा सुरक्षित रह सका, उसे वलभी में पुस्तकारूढ़ कर लिया गया। इसी परम्परा में अन्य ग्रन्थों को भी लिपिबद्ध किया गया। अध्ययन अनुसन्धान की दृष्टि से यह विशेष महत्वपूर्ण है कि बारह अंगों का ज्ञान दिगम्बर परम्परा के अनुसार सुरक्षित रहा तथा श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार ग्यारह अंगों को पुस्तकारूढ़ कर लिया गया। इस दृष्टि से दोनों परम्पराओं का उपलब्ध आगम और आगमिक साहित्य समग्रता में परस्पर पूरक है। इसीलिए जैन परम्परा विषयक अध्ययन-अनुसन्धान के इन समग्र स्रोतों का सामाजिक रूप में उपयोग अधिक महत्वपूर्ण है। उपर्युक्त पृष्ठभूमि के साथ हम चौदह पूर्वो की परम्परा का विचार करेगें। इस दिशा में डां० हीरालाल जैन ने षट्खंडागम की प्रस्तावना में पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने "जैन साहित्य का इतिहास पूर्व पीठिका" में तथा पं० दलसुख मालवाणिया ने "आगम युग का जैन दर्शन" पुस्तक में जो जानकारी दी है, वह पाथेय का कार्य करती है। जर्मन विद्वान् बेवर ने 'सेक्रेड लिटरेचर आफ द जैनाज" के अन्तर्गत जो जानकारी और अध्ययन प्रस्तुत किया है, उसकी उपयोगिता को पूर्णतया नकारना उपयुक्त नहीं होगा। चौदह पूर्वो के नाम दोनों जैन परम्पराओं में समान रूप से उपलब्ध हैं। दोनों में प्रत्येक पूर्व का जो परिमाण बताया गया है, वह प्रायः समान है। दोनों परम्पराओं के साहित्य में प्रत्येक पूर्व की विषय वस्तु का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। पूर्वो का मूल स्वरूप क्या रहा होगा, यह कह पाना कठिन है। जब आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भी उन्हें मूल रूप में सुरक्षित नहीं रखा जा सकता तब आज उनके यथावत् स्वरूप गठन की बात भी नहीं सोची जा सकती। किंतु पूर्वो की विषय वस्तु तथा उनके सम्बन्ध में प्राप्त विवरण के आधार पर निःसंदेह पूर्वो की विषय वस्तु के अध्ययन-अनुसन्धान के उपक्रम किये जा सकते हैं। इस प्रकार के प्रयत्नों से जैन श्रमण परम्परा की सांस्कृतिक विरासत के कई नये आयाम उजागर होंगे। श्वेताम्बर परम्परा में बारहवें अंग को शेष ग्यारह अंगों का मूल आधार माना गया है। विशेषावश्यक तथा बृहत्कल्प भाष्य में कहा गया है कि यद्यपि इस अंग में सम्पूर्ण ज्ञान का समावेश हो जाता है तथापि अल्प बुद्धि वालों को तथा स्त्रियों को वह अम्य है। इसलिए उसके आधार पर शेष ग्यारह अंगों की उनके लिए रचना की गयी। यहाँ बारहवें अंग को भूतवाद कहा गया है। गाथा इस प्रकार है... 11 "जइ वि भूखावाये सव्वस्य वयोगयस्य ओहारो । निज्जूहणा तहा वि य दुम्बेहे पप्प इत्थी य।। नंदिसत्त में द्वादशांग का पर्याप्त विस्तार के साथ विवरण दिया गया है। बारहवें अंग दिट्ठिवाय के पांच भेदों के अन्तर्गत पूर्वगत के चौदह प्रकारों का विवेचन है। यहाँ पूर्वो के जो चौदह नाम गिनाए गये हैं, वही नाम सर्वत्र यथावत् उपलब्ध होते हैं। नंदिसुत्त में कहा गया है..... "पुव्वगते चौदसविहे पण्णेत्ते । तं जहा उप्पादपुव्वं । अग्गेणीयं 2 वीरियं 3 अत्थिणत्यिप्पवादं 4 पाणप्पवादं 5 सच्चपवादं 6 आदप्पवादं 7 कम्मपवादं 8 पच्चक्खाणप्पवादं 9 विष्णाणुष्पवादं 10 अवंज्ञं 11 पापाएं 12 किरियाविशालं 13 लोगविदुसयारं 141" दिगम्बर परम्परा में ।। वें अवंज्ञ के स्थान पर "कल्लाणणाम धेख” आता है। - श्वेताम्बर परम्परा में अंगों और उपांगों पर प्राकृत और संस्कृत में अनेक टीकाएं और व्याख्याएं लिखी गयीं। इनमें द्वादशांग के विषय में विस्तृत जानकारी है। हरिभद्र, अभयदेव और मलयगिरि ने अपने टीमा ग्रन्थों में चौदह पूर्वो के विषय में पर्याप्त जानकारी दी है कि यह सब लुप्त हो गया है तथा उनका विवरण परम्परा पर आधारित है। आचारांग नियुक्ति में कतिपय ग्रन्थों या उसके अध्याय विशेष जिस पूर्व के आधार पर लिखे गये हैं, उसका निम्न प्रकार विवरण दिया गया है. 1. आचारांग का निशोथ अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय आचार वस्तु के बीसवें पाहुड पर आधारित है। 2. दशवैकालिक के विभिन्न अध्ययनों का आधार इस प्रकार है. धर्मप्रज्ञप्ति आत्मप्रवाद पूर्व Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयन पिहेषणा कर्मप्रवादपूर्व क्षेत्रवीर्य, कालवीय, भववीर्य, और तपवीर्य, रूप सामर्थ्य का 13. क्रियाविशाल पूर्व वाक्शुद्धि सत्यप्रवाद पूर्व वर्णन करता है। क्रियाविशाल पूर्व नृत्य, गीत, लक्षण, छन्द, अलंकार शेष अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व 4. अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व तथा नपुंसक स्त्री और पुरुष के लक्षणों का वर्णन करता है। 3. दशाश्रुतस्कन्ध कल्प और व्यवहार प्रत्याख्यान पूर्व पर अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व जीव और अजीव के अस्तित्व 14. लोकबिंदुसार पूर्व आधारित हैं। और नास्तित्वका वर्णन करता हैं। लोकबिन्दुसार पूर्व परिकर्म, व्यवहार, रज्जराशि, कला, 4. उत्तराध्ययन का परिषह अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व पर 5. ज्ञानप्रबाद पूर्व सवण्ण, गणकार, वर्ग, धन बीजगणित तथा मोक्ष के स्वरूप का आधारित हैं। ज्ञानप्रवाद पूर्व पाँच ज्ञानों तथा तीन अज्ञानों का वर्णन वर्णन करता है। अन्यत्र उपलब्ध इस प्रकार की समस्त सूचनाएँ अध्ययन करता है। यह विवरण एक प्रकार से मूल विषय का स्थूल शीर्षक रूप की दृष्टि से पर्याप्त लाभदायक सिद्ध हो सकती हैं। 6. सत्यप्रवाद पूर्व है। दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थों में प्रत्येक पूर्व के विषयों की दिगम्बर परम्परा में उपलब्ध प्राचीन प्राकृत ग्रन्थों का ___सत्यप्रवाद पूर्व सत्य का सभी भेदों और प्रतिपक्षों सहित सूची पर्याप्त विस्तार के साथ दी गयी है। उससे यह भी ज्ञात होता आधार बारहवाँ अंग माना जाता है। कसायपाहुड तथा वर्णन करता है। है कि किस विषय से सम्बद्ध और विशेष सामग्री किस पर्व के षट्खंडागम के आधार का उनमें उल्लेख किया गया है। 7. आत्मप्रवाद पूर्व अन्तर्गत रही होगी। कसायपाहड का आधार ज्ञानप्रवाद नामक पांचवे पूर्व की दशमी आत्मप्रवाद पूर्व आत्मा का वर्णन करता है। उपर्युक्त विवरण को देखने पर जैन विद्या का अध्येता सहज वस्तु का तीसरा पेज्ज पाहुड है। षट्खंडागम का आधार द्वितीय 8. कर्मप्रवाद पूर्व रूप में समझ सकता है कि उक्त विषयों में से अधिकांश विषयों से अग्रायणीय पूर्व की पंचम वस्तु का चतुर्थ पाहुड है। कर्मप्रवाद पूर्व कर्म का वर्णन करता है। सम्बद्ध सामग्री उपलब्ध ग्रन्थों में भी पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होती कसायपाहुड को जयधवला तथा षट्खंडागम को धवला 9. प्रत्याख्यान पूर्व है। विशेषकर तत्वज्ञान, कर्मसिद्धान्त तथा आचार शास्त्र टीका में चौदह पूर्वो के परिमाण और विषय वस्तु का विस्तृत प्रत्याख्यान पूर्व प्रत्याख्यान का वर्णन करता है। विषयक सामग्री उपलब्ध ग्रन्थों में संकलित है। निःसंदेह विवरण दिया गया है। अकलंक कृत तत्वार्थवार्तिक तथा 10. विद्यान प्रवाद पूर्व लोकविज्ञान, जीवविज्ञान, भौतिकविज्ञान, मन्त्र तन्त्रविद्या आदि गोम्मटसार जीवकाण्ड को तत्वप्रबोधनी टीका में भी समान विद्यानुप्रवाद पूर्व अंगुष्ठप्रसेना आदि अल्पविद्याओं तथा अनेक विषय ऐसे हैं, जिनके विषय में सामग्री अत्यल्प है। कतिपय विवरण निबद्ध है। रोहिणी आदि महाविद्याओं का वर्णन करता है। उल्लिखित विषयों में सम्बद्ध सामग्री बौद्ध तथा अन्य परम्पराओं उपर्युक्त सामग्री के आधार पर चौदहपूर्वो को विषय वस्तु का 11. कल्याणप्रवाद पूर्व में उपलब्ध है। प्रारम्भिक विवरण निम्न प्रकार तैयार किया जा सकता है:- ___ कल्याणप्रवाद पूर्व सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तथा तारागण के इस दिशा में अध्ययन को आगे बढ़ाने के लिए यह आवश्यक 1. उत्पादपूर्व में जीव, काल और बुद्धल के उत्पाद, व्यय और चारक्षेत्र और अष्टांग महानिमित्त का तथा तीर्थकर, है कि वर्तमान दिगम्बर तथा श्वेताम्बर साहित्य का समग्रता में धौव्य का वर्णन किया जाता है। चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चक्रधर आदि के महाकल्याणों अनुशीलन किया जाये तथा अध्ययन से प्राप्त तथ्यों का 2. अग्रायणी पूर्व का वर्णन करता है। समसामायिक साहित्य एवं अन्य अनुसन्धान सामग्री के आलोक अग्रायणी पूर्व सुनय, दर्नय, पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य, 12. प्राणवायप्रवाद पूर्व में पूर्वाग्रह मुक्त होकर परीक्षण किया जाये। ऐसे सप्ततत्व तथा नव पदार्थ रूप द्वादशांग की अग्र-प्रधान प्राणवायप्रवाद पूर्व प्राणों की हानि-वृद्धि का वर्णन करता अध्ययन-अनुसन्धान से ज्ञान-विज्ञान की अनेक विद्याओं को नया वस्तु का वर्णन करता है। है। इसमें कायचिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म, आलोक मिलेगा। भारतीय मनीषा की उपलब्धियों का यह 3. बीर्यानुप्रवाद पूर्व जांगगलि प्रक्रम तथा प्राणधान विमान का वर्णन किया जाता सामायिक मूल्यांकन लोक कल्याण के लिए एक दिव्य वरदान वीर्यानप्रवाद पूर्व आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीर्य, सिद्ध होगा। आपका धर्म मैं आप लोगों से पूछता हूं-"आपका धर्म क्या है?" क्या जैन, वैष्णव, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम आदि आपके धर्म हैं? नहीं। ये आपके धर्म नहीं। आपका धर्म वही है जो आत्मा को पतन से बचाये। -विजय वल्लभ सरि Iain Education International For Private &Personal use only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का अनेकान्तवाद वीतराग प्रभु का धर्म स्याद्वादमय है। प्रभु के धर्म में कोई आग्रह नहीं। स्याद्वाद जैसे अनुपम सिद्धांत को लघु लेख में योग्य-उचित न्याय नहीं मिल सकता। मुझे तो केवल प्रासंगिक बात करनी है। एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनीनीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ।। (श्री अमृतचन्दाचार्य) से तुम भी सच्चे हो'' '' अमुक अपेक्षा से मैं भी सच्चा हो सकता हूँ" "तुम कह रहे हो अमुक अपेक्षा से वह भी सत्य के नजदीक है अत: इसकी भी बात मानी जानी चाहिये "इनको भी अमुक अधिकार मिलना चाहिए"। यह भाषा अनेकांतवाद की है। यहां समाधान है, शान्ति है, प्रेम है, सद्भाव है, सत्य है, स्वर्ग है, कर्मनिर्जरा का मूल कारण और अपवर्ग का सोपान है। अगर यह सिद्धांत हमारे दिलों में बस जाय संघ, समाज, देश, राष्ट्र और विश्व में व्यापक बन जाय तो यह धरती नन्दनवन बन जाय । जनसाधारण की भाषा में "ही" एकान्तवाद है और "भी" अनेकान्तवाद है। "मैं ही ठीक हूँ" "मेरी बात ही ठीक है" "मैं जो कहता हूँ, वही सत्य है" "मुझे ही अधिकार मिलना चाहिए" "मेरी ही बात मानी जानी चाहिए" यह भाषा एकान्तवाद की है। यहीं पर लड़ाई है, झगड़ा है, क्लेश है, विग्रह है, तनाव है, युद्ध है, कर्मबन्धन है, तमाम मानसिक, शारीरिक बीमारियों का घर है, आत्मविकास को रोकने वाला है। परन्तु "भी" "कुछ मेरी बात भी ठीक है, कुछ अंश तक तुम्हारी भी ठीक है। 'अमुक अपेक्षा ऐसा उदार - सार्वभौम सिद्धांत गुरु वल्लभ के जीवन को स्पर्शा था। वे सदा सत्यगवेषक रहे। अनेकान्तवाद उनके कार्यों में, उनके लेखों में, उनकी वाणी में सर्वत्र उपलब्ध होता है। जब-जब उनको जैसा लगा तब-तब उन्होंने "सर्वसंघहिताय" वैसा उपदेश दिया। कहीं आग्रह नहीं किया। होवे कि न होवे, मेरी भावना, मैं क्या चाहता हूँ मैं सम्प्रदायों में संगठन, साधर्मिक सेवा, शिक्षा प्रचार जैसे सर्वहित कर शुभ कार्यों में भी उनका आग्रह नहीं। जब भी मुझे विचार आता है तो यही ख्याल आता है कि वास्तव में प्रभु का धर्म जिन्हें स्पशां था, साधु सन्तों में मैंने अपने जीवन में ऐसे निराग्रही सन्त विरले ही देखे। ऐसे स्याद्वाद सिद्धांत को जीवन में स्थान देने वाले परम पावन, निराग्रही महासन्त के चरणों में मेरा सविनय सादर सबहुमान कोटि-कोटि वन्दन, नमन । गोपी मथनी द्वारा जिस नीति तरीके से मक्खन निकालती है, वही नीति स्याद्वाद-अनेकांतवाद है। नवनीत मक्खन तब - साध्वी मृगावती श्री मिलता है जब एक हाथ आगे बढ़ता है और दूसरा हाथ पीछे सरकता है। दोनों नेत्रों- रस्सियों को एक साथ खींचने से नवनीत नहीं निकलेगा। एक ढीला छोड़ा जाता है, दूसरा खींचा जाता है- -यह जैनदर्शन का नय है। इस अपेक्षानीति से सत्य उपलब्ध होता है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति में जैन धर्म - साध्वी ओंकार भी मानव जीवन एक विशिष्ट कोटि का मानव है। इसकी प्रत्येक क्षण की त्वरित वाणी से सर्वथा अगोचर है। आज का मानव घड़ी के कांटें और मशीनी गति जैसा भागता जा रहा है, सोचता नहीं कि मैं कहां जा रहा हूं। मेरी जीवनरूपी ट्रेन किस स्टेशन पर ठहरेगी। मानव की आशा, इच्छाएं समुद्र में तरंगों के समान है, उठती है। और कितने आनंदविभोर बन जाते हैं, परंतु उन तरंगों को महसूस नहीं होता की मान अभिमान से मेरा जीवन समाप्त हो जाएगा, वैसे ही मानव की आशा, इच्छाएँ नष्ट हो जाती है। मानव की आशा सूरजमुखी कमल के समान है। सूर्योदय के साथ विकास होना, और सूर्यास्त के साथ उसका नष्ट होना। फिर भी मानव यह नहीं सोचता है कि आर्य संस्कृति में मानव जन्म मिला, उसका मूल्यांकन क्या हो सकता है ? आज भारत में धर्मध्वज लहरा रहा है, उसका करण है आर्य संस्कृति संस्कृति में आचार विचार और वर्तनत्रिवेणी समागम हुआ है। भारतीय संस्कृति आचार को प्रदान मानती है। आचार और आहारशुद्धि से विचारशुद्धि होती है और विचारशुद्धि से जीवन को विकासदृष्टि मिलती है, इसलिये भारतीय संस्कृति में जैन धर्म मंगलकारी है। आर्यावर्त की एक भूमि में जो सात्विक अणुओं की प्राधान्यता है, वह सात्विकता अन्य देशों की भूमि में शायद नहीं होगी। भारत में अनेक धर्म हैं, उनमें जैन धर्म प्राचीन धर्म है। जैना की साहित्यकला, वास्तुकला, स्थापत्यकला आदि कलाओं से जैन Pain Education International धर्म की प्राचीनता का दर्शन होता है। धर्मद्वारा समाज में नैतिक, सामाजिक या सांस्कृतिक विकास का मूल्यांकन करने पर ही उसकी प्राचीनता श्रेष्ठ मानी जाती है। विश्व में तमाम धर्म का मूल है आत्मा और परमात्मा । विश्व में कोई-कोई धर्म आत्मा के साथ ईश्वरवाद को मानते हैं। ईश्वरवाद याने ईश्वर, भगवान को ही कर्ता-धर्ता और हर्ता मानना ईश्वर को कर्ता मानने वाले कहते हैं कि विश्व में जब धर्म का नाश होता है तब ईश्वर पृथ्वी का संरक्षण करने के लिये पृथ्वी ऊपर जन्म लेकर दुर्जनों का नाश करता है यह प्रथम परंपरा है। अन्य परम्परा है जो कर्म को कर्त्ता भोक्ता मानता है। ईश्वर को कर्त्ता, हर्ता नहीं मानते है उसको निरीश्वरवादी कहते हैं, यह परम्परा भारत देश में ही है। इसी भारत देश में शील, प्रतिभा और संस्कार से विश्व में लोककल्याण परायण ऐसे तीर्थकरो, चक्रवर्तियों, वासुदेवों, प्रतिवासुदेवों, बलदेवों आदि महान विभूतियों का सृजन हुआ है, जिन्होंने मानव संस्कृति के विकास में और धर्मनीति को विस्तृत करने की प्रेरणा दी। भारत के ऊपर बाहरी आक्रमण बहुत हुए लेकिन महान विभूतियों के भाग्योदय से तथा भारत की धार्मिक संस्कृति के कारण उसके ऊपर कोई भी प्रत्याघात नहीं हुआ। भारत देश आर्थिक संपत्ति की अपेक्षा से और वैज्ञानिक अपेक्षा से अन्य देशों से पीछे है, लेकिन धार्मिक For Private Personal Use Only संपत्ति और धार्मिक संस्कृति में अन्य देशों से अग्रसर है। उसमें भी जैन धर्म की सांस्कृतिक संपत्ति अखूट, अमूल्य, अलौकिक है। जैनधर्म परम्परागत धर्म जैन धर्म कोई प्रस्थापित या व्यक्तिवाचक धर्म नहीं है, अपितु गुणवाचक धर्म है। मुहम्मद पैगम्बर के नाम से इस्लाम धर्म, ईसा के नाम के क्रिश्चयन धर्म, बुद्धि के नाम से बौद्ध धर्म प्रचलित हुआ, लेकिन जैन धर्म किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम से प्रस्थापित नहीं हुआ है। "जैन" शब्द की व्युत्पत्ति जिन शब्द से हुई है। जिन - जिसने राग-द्वेष पर संपूर्ण विजय प्राप्त की हो उनको जिन कहते हैं, उनके अनुयायी जैन कहलाते हैं। इसी कारण से जैन धर्म परम्परागत धर्म है। प्रत्येक मानव धर्म की साधना से आत्मा का संपूर्ण विकास करके वीतरागता को प्राप्त कर सकता है, जैन धर्म स्वतंत्र धर्म है। जैन धर्म वैज्ञानिक धर्म है, वैज्ञानिक धर्म हम इसलिये कहते हैं की जो खोज वैज्ञानिकों ने आज की उसे प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा भगवान महावीर ने अनेक वर्षों पहले ही कहा था और पदार्थों की गहनता, सूक्ष्मता समतायी थी, करोड़ों के खर्चे से जिस अणुबम की शोध वैज्ञानिकों ने कर ली अणुबम को ज्ञानियों ने अणु का समूह बताया है, अणुबम से विश्व का कोई कल्याण नहीं हुआ, लेकिन विनाश हुआ है। जैन धर्म पृथ्वी, पानी, वनस्पति आदि एकेन्द्रिय को सजीव कहा है। विज्ञान भी पानी में और वनस्पति में जीवसिद्धि बतायी है, सर जगदीशचंद्र बोस ने भी इस बात को सिद्ध कर बतायी है। जैन धर्म को श्रमण संस्कृति के नाम से सम्बोधित किया है। श्रमण याने श्रम, समता और विकारों का शामन जिस संस्कृति में किया जाता है उसे श्रमण संस्कृति कहते है। हिन्दु संस्कृति में ईश्वर के 24 अवतार मानते हैं वैसे ही जैन संस्कृति में 24 तीर्थकर होते हैं। भगवान महावीर के समय में निग्रंथ प्रवचन कहते हैं, पार्श्वनाथ भगवान के समय में श्रमण धर्म, भगवान नेमनाथ के समय में अर्हत धर्म से प्रचलित था। श्रमण संस्कृति के इतिहास में इस प्रकार नाम का परिवर्तन होने पर भी धर्म की संस्कृति, संस्कृति का मूल और सिद्धांत में तनिक मात्र भी परिवर्तन नहीं हुआ। पूर्वकाल में जो सिद्धांत थे वो सिद्धांत आज भी विद्यमान हैं। सत्य का निर्बंधरूप प्रकट करने वाली हरेक महान कृतिओं के सामने संप्रदायवादी समाज पंख हिलाता हुआ अनेक प्रकार का Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 कोलाहल कर रहा है। तब हेमचंद्राचार्य महाराज महादेव की स्तुति करते हुए बोले की कहते है की एक पदार्थ को अनेक दृष्टि से देखना। आचार धर्म की शांतिप्रिय जैन समाज "जो राग-द्वेष आदि अट्ठारह दूषणों से रहित ऐसे चाहे ब्रह्मा, सूक्ष्मता के कारण जैन धर्म की महानता है। विष्ण, महेश्वर सबको मेरा नमस्कार हो" इस प्रकार महादेव की जैन समाज अत्यल्प समाज है, लेकिन वह शांतिप्रिय समाज स्तति करके सिद्धराज को जैन धर्म के तत्वों की झलक दिखाकर राजकीय क्षेत्र में जैन है। जब कभी भारत विपत्ति बादलों से घिरा, तब उन बादलों को प्रभावित किया। राजकीय क्षेत्र में भी जैनों का महान योगदान है. राजकीय दूर हटाने के लिये अनेक प्रकार के शांति कर्म करता रहता है। क्षेत्र में प्रवेश करते हुए भी अपना आचार, अपना सिद्धांत में अति भगवान महावीर और गौतम बुद्ध दोनों समकालीन थे, वर्षों तक निश्चल रहा। सम्राट चंद्रगुप्त, परमार्हत कुमार पाल, खारवेल, राजगृही में निवास करने पर भी धर्म के नाम पर कभी । जैनाचार सेनापति चामुंडराज, मंत्री वस्तपाल-तेजपाल, विमल मंत्री, वाद-विवाद नहीं किया। हिन्दुओं के साथ रहने पर भी जैनों ने जैन जैनों का आचार अहिंसा प्रधान है। अहिंसा अर्थात किसी पेठडशाह आदि महापुरुषों ने राजकीय क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य धर्म की मौलिकता को तिलांजलि नहीं दी। उनकी भाषा में, वेश में परिवर्तन हआ, लेकिन सिद्धातों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ यही जीव विशेष की हिंसा मन, वचन, काया से न करना, दुसरे का किये थे। परमार्हत कुमारपाल महाराजा ने देश में अहिंसा का दुःख देखकर हम स्वंय के जीवन में पीडा दुख को निमंत्रित करते पालन कराया। अहिंसा का पालन के विषय में कुलदेवी सच्ची मौलिकता है। जैन धर्म शांति का परम उपासक है। है, जैसा बोते है वैसा ही फल पाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी शक्ति कंटकेश्वरी का अनेक प्रत्याघात सहन किया था। राजकरण के वीतराग के अनुयायी होने से शांति समता, और समाधि की जीवन में अति आवश्यकता है। जैनों का भगवान की मूर्ति में किसी प्रकार अनुसार जीवन में साधना कर सकते है। जैनों की मुख्य संस्कृति में साथ अपना धर्म का विस्मरण कभी नहीं हुआ था। वस्तुपाल, - चारित्र बलवान है, अहिंसा, संयम और तप इस त्रिवेणी संगम पर तेजपाल ने भारतीय संस्कृति को आबूजी का अद्भुत, अलौकिक का श्रृंगाररस की पूर्णतया प्रतीति होती है। लोक में कहावत है की "जैसा संग वैसा ही रंग" होता है। वीररस आदि रस की तनिक निर्भर है, जिस संस्कृति में संस्कार की झांकी नहीं है, तप का स्थान मंदिर बनवाकर अमूल्य भेंट दी, उनका विद्वत्मंडल भी महान् था, भी प्रतीति नहीं होती है, किन्तु शांतरस नहीं होता है, वह संस्कृति अमर नहीं बन सकती। पांचों इन्द्रियों साहित्य का भी अत्यंत शौक था। इसी तरह राजकीय कार्य के का दमन किये बिना विकारों का शमन नहीं होता। इसी कारण से साथ-साथ धार्मिक कार्य में भी महान योगदान दिया। जैनसमाज का उत्कर्ष तप की आवश्यकता है। ज्ञान के माध्यम से परमात्मा ने आहार, विश्व में प्रत्येक क्षेत्र में जैन समाज का महान योगदान है। निहार, विहार आदि अनेक विषयों पर प्रकाश डाला है। क्या पथ्य जैनों की संपत्ति प्रत्येक समाज के साथ आदान-प्रदान की प्रक्रिया करने पर भी है? क्या अपथ्य है? कैसे चलना? कैसे बैठना? कैसे बोलना? जैनों की संपत्ति विश्व में अमल्य है। रल, मणिक, सवर्ण किसी समाज, राष्ट्र के संघर्ष में नहीं हआ। साहित्य क्षेत्र में 20 आदि हरेक विषयों से परिपूर्ण जैन फिलोसफी है। रात्रि भोजन आदि ही मल्यवान प्रतिमा मन्दिर पत्याचा महात्मा गांs लाख से अधिक हस्तप्रतियां है, जिसको देखने से ही मन प्रफल्लित नहीं करना चाहिये, रात्रि भोजन करने से शरीर में अजीर्ण गैस ने देश के स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कहा था कि भारत देशा होता है, जैसलमेर,खंभात.पाटण आदि अनेक शहरों में बडे-बडे आदि रोगों की संभावना होती है। सूर्यास्त के बाद सूक्ष्म जीवाणुओं गरीब देश है। इस शब्द के ऊपर इंग्लैंड के एक प्रोफेसर ने कहा ज्ञान भंडार है। किसी भी विषय की पुस्तक ज्ञान भंडारों से प्राप्त की उत्पत्ति होती है, वह भोजन में मिश्रित होकर शरीर का की कौन कहता है कि भारत गरीब देश है? भारत देशगरीब नहीं होती है, यह हमारा सांस्कृतिक खजाना है। कला क्षेत्र में जैनों की आरोग्य नष्ट करते हैं। है लेकिन अत्यंत समृद्धिशाली देश है। जैनों की अध्यात्मिक वास्तुकला बेजोड़ मानी जाती है। कला संस्कृति का मापदंड है। आचार धर्म का दो विभाग है। श्रमणाचार और संपत्ति इतनी विशाल है कि उस संपत्ति को बांटकर इंग्लैंड की आबु, राणकपुर जैसे महान तीर्थों के दर्शन के साथ उनकी श्रावकाचार। श्रमण माने साध जो अहिंसा का परिपर्णपालनकर सपूर्ण जमीन को खरीद सकते हैं। इस कथन से ज्ञात होता है भारत वास्तुकला का भी दर्शन होता है, मंदिरों की स्वच्छता, सौम्यता । महाव्रतों को आत्मसात करना। श्रावक माने गृहस्थ जीवन अर्थात देश में धार्मिक सम्पत्ति कितनी महान है? और नैसर्गिक सुंदरता अतिरमणीय होती है। अणुव्रतों का पालन करना। श्रावकाचार धर्मसाधक बनने की जैन साहित्य में प्रत्येक शास्त्र का जैसे कि भूगोल शास्त्र, प्राचीन और अर्वाचीन समय की मूर्ति में कोई भेद नहीं है। प्रेरणा देता है। साधुओं का आचार अति दुष्कर है, मन संयम, रसायनिक शास्त्र आदि सबका ज्ञान प्राप्त होता है। जैन साहित्य ऋषभदेव भगवान के पुत्र भरत महाराजा की अंगूठी से निर्मित वचन संयम, का संयम कर जीवन व्यतीत करते है। काया का में जो ऐतिहासिक साधन सामग्री अन्य साहित्य से नहीं प्राप्त माणिक्य स्वामीजी की मूर्ति तथा संप्रति महाराजा की आज्ञा से संयम अत्यंत महान है। जैन धर्म का समस्त आचार आत्मलक्षी होती। कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य महाराज ने कुमारपाल निर्मित मूर्तिओं में और अर्वाचीन मूर्तिओं में अद्वितीय समानता है। है, जब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी, तब तक मंदिर में जाना, के लिये अनेक ग्रंथों का निर्माण किया। पूज्य श्री का साहित्य प्रति प्रत्येक मुर्ति पदमासन, अर्धपद्मासन अथवा कार्योत्सर्ग मुद्रा में अन्य क्रिया द्वारा आत्मशुद्धि करना यह आचार धर्म की विशेषता अमूल्य योगदान है। जिससे 900 वर्ष व्यतीत होने पर उनके होती है, उसमें कोई अन्तर नहीं है। महाराजा सिद्धराज कलिकाल है। जैन धर्म का अंतिम वीतरागता के विज्ञान की प्राप्ति वह साहित्यों को भूल नहीं सकते। जैन साहित्य के अध्ययन से अनेक सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य महाराज को महादेव के मंदिर में ले गये अनेकांतदृष्टि बिना प्राप्त नहीं होती है। अनेकांतदृष्टि उनको भाषाओं का ज्ञान मिलता है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद पं गिरिजादत्त त्रिपाठी इतने नरम मत बनो कि लोग तुम्हें खा जाये! इतने गरम मत बनो कि लोग तुम्हें छू भी न सके ! इतने सरल मत बनो कि लोग तुम्हें मूर्ख बना दे! इतने जटिल भी मत बनो कि लोगों में तुम मिल न सको ! इतने गंभीर मत बनो कि लोग तुमसे ऊब जाय! इतने छिछले मत बनो कि लोग तुम्हें छू भी न सके! इतने सस्ते भी मत बनो कि लोग तुम्हें नचाते रहे! स्मरणातीत काल से यह उलझन उपस्थित है कि क्या धर्म बहुत बड़ी गलत फहमी फैली हुई थी। कुछ पाश्चात्यविद्वान् यह (Religion) और दर्शन (Philosophy) परस्पर सहकारी हैं मानते थे कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से निकला हुआ है। यह मानने का या अहिनकुलवत् इनमें विरोध है? कुछ पात्रात्य विद्वानों ने इन कारण यही है कि इन दोनों में कुछ समानता दीख पड़ती है। कुछ दोनों को बिलकुल भिन्न भिन्न माना है। वे धर्म को एक सीमित भारतीय विद्वान् भी जैन धर्म सम्बन्धी ज्ञान न होने के कारण यही परिधि के अन्दर रखना चाहते हैं और दर्शन को इस से बाहर। मान बैठे थे कि यह कोई स्वतन्त्र धर्म नहीं हैं अपितु बौद्ध धर्म की एक धार्मिक व्यक्ति कुछ ऐसी रुढ़ियों के भार से दबा है कि उसे ही एक शाखा हैं। इन दोनों तरह के विद्वानों के मत सर्वथा निर्मूल उससे बाहर निकलने का अवकाश ही नहीं है। वह न तो कुछ सिद्ध हो गये हैं और आज के वर्तमान संसार में इस बात की पुष्टि स्वतन्त्रतापूर्वक शोच सकता है और स्वतन्त्रतापूर्वक आचरण ही हो गयी हैं कि यह जैनधर्म उतना ही पुराना है जितना बौद्धधर्म। कर सकता है। लेकिन एक दार्शनिक व्यक्ति यदि उस सीमित यह निर्विवाद सिद्ध है कि महावीर बुद्ध के समकालिक थे। इस के परिधि के अन्दर रहने के लिये बाध्य किया जाय तो उसकी सारी साथ ही साथ यह भी सर्वसिद्ध बात है कि महावीर न तो किसी धर्म कल्पना और विचारशक्ति विलीन हो जाय। इस लिये उन विद्वानों के जन्मदाता थे और न किसी सम्प्रदाय के। वे तो केवल एक साधु ने इन दोनों के लिये दो भिन्न-भिन्न क्षेत्र नियत किये हैं। लेकिन थे जिन्होंने जैनधर्म का आलिङ्गन कर उस सच्चे तत्त्व के द्रष्टा भारतीय विचारशील विद्वानों ने इन दोनों को भिन्न-भिन्न न हो गये थे जिसके लिये इस धर्म की प्रवृत्ति है। वे चौबीस तीर्थकरों मानकर दोनों को साथ-साथ चलाने का प्रयत्न किया। हां, यह में अन्तिम तीर्थंकर थे।सभी तीर्थकरों ने उपदेश द्वारा इस धर्म की ज़रूर है कि इन दोनों के उद्देश्य में कुछ अन्तर पड़ता है, परंतु इन बनियाद कायम रखने की भगीरथ चेष्टा की है और इसीलिये ईसा थोड़ी-सी विषमताओं के सिवा इन में पूर्ण एकता है। के कम से कम 800 वर्ष पहले से लेकर आजतक इस की हस्ति जब राजनैतिक और आर्थिक वातावरण के प्रलयकारी झंझावात कायम हैं। अब यहां पर इस थोड़े से ऐतिहासिक परिचय के बाद से मनुष्य की मनोनौका विषम परिस्थिति के अथाह सागर में जैन दर्शन की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ विचार किया जाता है। डांवाडोल होने लगती है और शान्तिदायक सच्चे मार्ग का पता इंढ इस में सन्देह की गुंजाइश नहीं है कि जैन दर्शन के बहुत पहले निकलना कठिन हो जाता है उस समय दर्शन ही वेलातट के उपनिषदों का ही एकमात्र साम्राज्य था। वस्तुओं के स्वभाव के में प्रकाश का काम करता है। इस प्रकार यह दर्शन भी अन्तःकरण उपनिषदों के विचार यह हैं कि किसी वस्तु में प्रतीयमान में उसी शान्ति का बीज बोता है जिसके लिये धर्म की प्रवृत्ति होती नामरुपादि सब मिथ्या है। सत्य केवल वही है जिस के आधार पर है। इसी विचार के फलस्वरुप भारतीय सभी दर्शन अपने मज़बूत नामरुपों की विविध कल्पना की जाती है। दृष्टान्त के लिये एक पैरों पर खड़े हुए। यह जैन दर्शन भी इस नियम का अपवाद नहीं सुवर्ण पिण्ड को लीजिये। एक ही सुवर्णपिण्ड से कभी कुण्डल रहा। यद्यपिबाह्यपर्यालोचन मात्र से इन दोनों के दृष्टिकोण में बनाया जाता है, कभी वलय बनाया जाता है तो कभी कोई दूसरा कुछ अन्तर की झलक दीख पड़ेगी लेकिन यदि इसका सूक्ष्म भूषण।एक ही सुर्वण की भिन्न-भिन्न अवस्थायें बदलती जाती हैं विवरण किया जाय तो यह स्पष्ट हो जायगा कि वास्तव में इनके लेकिन वह सुवर्ण ज्यों का त्यों अपने स्वभाव के साथ वर्तमान उद्देश्य में कोई भेद नहीं है। इसी भाव से प्रेरित हो कर मैं पाठकों रहता है। उसके रुप और अवस्थाओं का परिवर्तन सिर्फ के सामने जैन धर्म तथा दर्शन के सम्बन्ध की कुछ बातें उपस्थित प्रतीतिमात्र हैं वस्तुसत् नहीं। उस वस्तु की सत्ता के सिवा और करता हूँ। किसी चीज की सत्ता नहीं है। जिन्हें हम स्थिरता, दृश्यत्व या और जैन धर्म के सम्बन्ध में पाश्चात्यतथा भारतीय विद्वानों में किसी नाम से पुकारते हैं उन की वास्तविक सत्ता नहीं है। जो Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोध और क्षमा the ह . 12 विचार उपनिषदों ने रखे हैं ठीक उनके विपरीत बौद्धों के सिद्धान्त pluralism कहते हैं। इस सिद्धान्त का आविष्कार इस संप्रदाय थे। बौद्ध यह कहते थे कि हरेक चीज प्रतिक्षण में बदलती रहती को प्राचीनतम उपनिषद् तथा बौद्धों से पृथक् करने के लिये ही है: 'प्रतिक्षणं परिणामिनों हि सर्व एव भावाः'। कोई भी ऐसी वस्तु हुआ है। किसी वस्तु में स्थिरता का दम भरना उसकी कुछ नहीं है जो किसी भी रूप में स्थिर रह सके। जब मनुष्य सुवर्णपिण्ड विभिन्न अवस्थाओं को लेकर होता है। सुवर्णपिण्ड एक दृष्टिकोण को देखता है उस समय उस सवर्ण के गुण के अलावे और कुछ भी से द्रव्य है और दूसरे दृष्टिकोण से कुछ दूसरी ही वस्तु। उसे हम नहीं देखता। इस के अतिरिक्त कोई गुण रहित चीज दृष्टिगोचर उसी हालत में द्रव्य कह सकते हैं जब उसे अनेक परमाणुओं का नहीं होती जिसे उपनिषद स्थिरता या अपरिवर्तनशील शब्द से संघात माना जाय। यदि उसे हम काल या दिक् के दृष्टिकोण से व्यवहत करते हैं। बौद्धों का कहना है कि किसी वस्तु की स्थिरता विचारें तो वह द्रव्य नहीं कहा जा सकता। इस लिये वह सत्य हैं। दूसरी ओर बौद्ध दर्शन सबों की अस्थिरता की विगुल सुवर्णपिण्ड एक ही काल में द्रव्य और द्रव्यमान भी कहा जा सकता फूंकता है। ऐसी परिस्थिति में एक ऐसे संप्रदाय की नितान्त है। यह परमाणु-निष्पन्न भी कहा जा सकता है और उससे भिन्न आवश्यकता थी जो इस असामज्जस्य को दूर करे। इसी विषम भी। यदि हम उसे पृथ्वी परमाणु से नहीं बना है इस लिये उससे परिस्थिति को संभालने के लिये बीच में जैन दर्शन खड़ा होता है भिन्न भी है। उस सुवर्णपिण्ड से जो कुण्डल तैयार किया गया वह जो दोनों की बातों का खंडन कर एक नये मार्गका जन्म देता है, जो भी अनेक स्वभाववालाहै। वह द्रवीभूत सुवर्ण से बने रहने पर भी भारतीय साहित्य में एक अपना स्थान रखता है। ठोस सुवर्ण से नहीं बना है। राल से बने रहने पर भी श्याम से नहीं यह हम पहले बता चुके हैं कि जैन संप्रदाय बौद्ध संप्रदाय का बनाया गया है। इस प्रकार वस्तुस्वरूप की परीक्षा करने पर यही क्रोध आग समकालीन था; इतना ही नहीं किन्तु कुछ उपनिषद् भी ऐसे थे सारांश निकलता है कि वस्तुओं का स्वरूप दृष्टिकोण पर निर्भर क्षमा पानी जिनका समकालिक जैन दर्शन था। उपनिषद् और बौद्धों के रहता है जिसे हम Conditional कहते हैं। परस्पर झगड़े का निपटारा करने के लिये जैन दर्शन यह कहता है इस अनेकान्तवाद की नींव पर जैनदर्शन का नयवाद तथा क्रो जलन है, कि यह कहना ठीक नहीं है कि केवल वस्तु का स्वरूप ही सत् हैन स्याद्वाद अबलम्बित हैं। किसी वस्तु के स्वभाव के सम्बन्ध में जब क्षमा ठंडक एकान्त प्रतिक्षण में परिणमनशील। अनुभव इसी सत्यता को हम कोई निर्णय देने को तैयार होते हैं उस समय दो बातें हमारे क्रोध रोग है, प्रकाशित करता है कि गुणों के कुछ समवाय ऐसे हैं जो सामने आती हैं। पहली बात तो यह है कि 'यह मनुष्य है। इस क्षमा उपचार अपरिवर्तनशील हैं, कुछ नये गुण पैदा हो जाते हैं और कुछ पुराने वाक्य का उच्चारण हम करते हैं उस समय हमारे ध्यान में उसके क्रोध अंधकार है, धर्म नष्ट हो जाते हैं। जैन दर्शन का कहना है कि बौद्धों का यह अनेक गुणों का चित्र खिंच जाता है लेकिन वे गुण सामूहिक रूप से सिद्धान्त कुछ अंशों में ठीक है कि प्रतिक्षण में वस्तुओं का परिणाम उस चीज में हमारे सामने आते हैं। उस वस्तु के गुणों को उस वस्तु क्षमा प्रकाश है! हुआ करता है। लेकिन यह कहना बिलकुल गलत है कि वस्तुओं से पृथक् हम नहीं देखते हैं उस समय उस के गणों को ही देखते हैं. क्रोध कमजोरी है। के सभी गुणों में परिवर्तन होता है। वस्तुस्थिति तो यह है कि कुछ वस्तु तो उस जगह केवल मायानगर की भांति असत् मात्र है। क्षमा ताकत है! धर्म परिवर्तित होते हैं और कछ नहीं। जब सुवर्णपिण्ड का कुण्डल इन्हीं दो प्रकार के दृष्टिकोणों को जैन दर्शन में द्रव्यनय तथा कोशका -कचरा बना दिया गया तो उनका पिण्डभाव नष्ट हो गया, एक पर्यायनय शब्दों में व्यवहृत करते हैं। जिस प्रकार इस क्षमा रत्नों का ढेर है! कुण्डलभाव पैदा हो गया और सुवर्णभाव ज्यों का त्यों बना हुआ अनेकान्तवाद के सिद्धान्तने नयवाद का जन्म दिया उसी प्रकार है। इस प्रकार वस्तुओं और उन के धर्मों का पृथक्ककरण यदि इसने स्याद्वाद को भी पैदा किया। यदि अनेकान्तवाद की सत्ता क्रोध में दुत्कार है, किया जाय तो यही सिद्ध होगा कि हरेक चीज अनेक स्वभावों को स्थिर न हो तो स्याद्वाद टिक ही नहीं सकता। इसलिये संक्षेप में यह क्षमा में पुचकार है! अपने अन्दर रखती है। वस्तुओं की अनेक स्वभावता की नींव पर कहा जा सकता है कि अनेकान्तबाद की सत्ता स्थिर न हो तो क्रोध काली स्याह रात है ही सारे जैन दर्शन की इमारत खड़ी की गयी है। वस्तु के इस स्याद्वाद टिक ही नहीं सकता। इस लिये संक्षेप में यह कहा जा क्षमा स्वर्णिम प्रभात है! स्वरूप को देखकर ही 'अनन्तधर्मकं वस्तु' यह कहा गया है। सकता है कि अनेकान्तवाद के सभी जैन दार्शनिक सिद्धान्तों का वस्तुओं के स्थिर तथा परिवर्तनीय रूप विरुद्ध धर्मों का सम्बन्ध मूल स्रोत है जिसने समय समय पर अनेका विषयों के द्वारा इस ही हमें अनेकान्तवाद का मार्ग दिखाता है जिसे हम Relative दर्शन की काया को पूर्ण किया है। है! Jain Education international ForPrivates.Permonaleonly, Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य -साध्वी प्रफुल्ल प्रभा श्री प्रभु वीर के शासन में कलिकाल-सर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचन्द्र श्रद्धालु होने के कारण नवस्मरण का पाठ होने पर उसने मुंह में आचार्य श्री ने कहा कुछ नहीं, मुझे इस बालक की आवश्यकता है, सूरीश्वर जी महाराज हुये। कहावत है पानी तक नहीं डाला। आज मानो पाहिनी की परीक्षा हो रही थी। जो अपनी माता के साथ हमेशा नवस्मरण कापाठ सुनने आता है। एक दिन नहीं तीन दिन बीत गये। जब चांगदेव ने अपनी माता को अग्रगण्य श्रावकों ने पता लगाया कि यह बालक कौन है। पूत के पैर पालने में नहीं, बिना खाये-पीये देखा तो पूछा, माँ क्या हो गया है? तू खाना क्यों दूसरे दिन आहार के समय आचार्य श्री दो-चार धावकों के साथ पेट में ही पहचाने जा सकते हैं। नहीं खाती? मां पाहिनी ने कहा बेटा, तुझे पता नहीं हम दोनों पाहिनी देवी के घर गये। श्राविका पाहिनी ने अचानक श्रावकों के जननी अपनी होनेवाली संतान के लक्षण अपने पेट में ही हमेशा गुरु महाराज के पास पाठ सुनने जाते हैं, लेकिन इस वर्षा साथ आचार्य श्री को अपने घर की ओर आते देखकर हर्ष से नाच जान लेती है कि भविष्य में मझे कैसी संतान प्राप्त होने वाली है। के कारण मेरी वह प्रतिज्ञा पूरी नहीं हो पारही है। बेटा, अपने गुरु उठी। उसने पूछा, गुरुदेव आप श्री को क्या द? आचार्य श्री बोले. माँ चेलना ने कौणिक के गर्भ में आते ही जान लिया था कि यह होने महाराज के पास अब कैसे जाया जाये? माँ के इन शब्दों को मुझे कुछ नहीं चाहिये, मात्र अमिट निशानी के रूप में जिनशासन वाली संतान कलदीपक नहीं कुलविनाशक बनेगी। सचमुच वह सुनकर चांगदेव बोला, क्या माँ यह गुरु महाराज के मुख से ही की रक्षा के लिये यह बालक चाहिये। इस समय पाहिनी के पतिदेव कौणिक कुलदीपक नहीं, कुलविनाशक निकला, जो अपने पिता सुनना जरूरी है ? माँ ने जवाब दिया नहीं बेटा, मैं तो अनपढ़ हूँ। बाहर गये हए थे। फिर भी माता पाहिनी अपने प्यारे पुत्र चांगदेव श्रेणिक महाराज का हत्यारा बना। माता चेलना को संतान के गर्भ तब चांगदेव ने कहा क्या मैं सुना दूं? मुझे यह पाठ कंठस्थ है। से कहती है, बेटा तुझे गुरु महाराज के साथ जाना है, उन्हीं के में आते ही उसे खराबदोहद हए सदा मन में मिथ्या विचार आने माता विचारों में खो गई। कित चांगदव अपनामा का प्रातजा पूर्ण चरणों में अपना जीवन समर्पित करना है। धर्म पर परम श्रद्धा लगे। लेकिन ससंस्कारी संतान के गर्भ में आते माता को अच्छे करने के लिये ध्यानपूर्वक नवस्मरण का पाठमों को सुनाने लगा। रखने वाली माता पाहिनी ने गुरुवचन को मंत्ररूप मानकर पति दोहद उत्पन्न होते हैं. उत्तरोत्तर धर्म-भावना बढ़ती जाती है. सुनने के बाद माँ पाहिनी ने पूछा, बेटा, तूने यह सब पाठकब याद की बिना आज्ञा के अपने एक मात्र कलेजे का टकडा सदा-सदा के जिससे माता स्वयं इस बात का अनुभव कर लेती है कि संतान वैसी किया? चांगदेव ने निवेदन किया, मां यह तो मुझे गुरु महाराज के लिये जिनशासन को समर्पित कर दिया। धन्य उस माँ की कक्षि होगी माता "पाहिनी' को पत्र के गर्भ में आने पर अच्छे दोहद मुख से सुनते-सुनते याद हो गया है। को, जिसने पुत्र के लक्षण पेट में ही पहचान लिये थे। उत्पन्न होने लगे। उत्तरोत्तर धर्मधद्धा बढ़ने लगी। माँ माँ पाहिनी अपने पत्र की बद्धि एवं स्मरणशक्ति देखकर वही चागदेव मुनि दीक्षा अंगीकार करने के बाद हेमचन्द्र "पाहिनी" को विश्वास हो गया कि मेरी भावी संतान कुलदीपक हर्ष-विभोर हो गई और अपने मन ही मन कहने लगी मेरा पुत्र मनि कहलाए, जो आगे चलकर कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ही नहीं, धर्मदीपक बनेगी। मेरी कक्षि को सफल करेगा। एक दिन माता पाहिनी अपने बेटे के सूरीश्वर जी महाराज के नाम से विख्यात हुए। आपने अठारह कार्तिक सुदी पूर्णिमा के दिन माता पाहिनी ने चन्द्रमा के साथ व्याख्यान श्रवण करने बैठी थी, बालक चांगदेव पर आचार्य देशों के राजा कुमार पाल को प्रतिबोधित कर जैन शासन की समान तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया।गुण और सौन्दर्य से उस पुत्र का श्री देवचन्द्र सूरीश्वर जी महाराज की दृष्टि पड़ी। शोभा-वृद्धि की। ऐसी ही आचार्य-परम्परा में नाम आता है नाम चांगदेव रखा गया। चांगदेव ने अपने गुणों एवं बुद्धि रूपी चांगदेव के मुख की तेजस्विता देखकर आचार्य श्री सोचने युगद्रष्टा पंजाब केसरी आचार्य विजय वल्लभ स्रीश्वरजी कला के साथ द्वितीय के चन्द्र की भाँति बढ़ता हुआ पूर्णाचन्द के लगे इस बालक का भाग्य कितना प्रबल है। यदि यह बालक महाराज का, जिन्होंने अपनी माँ के अन्तिम शब्दों को मंत्ररूप समान पूर्णता प्राप्त की। जिनशासन के लिये मिल जाये तो वह धन्य-धन्य हो उठे। मानकर अपनी जीवन रेखा को मोड़ देकर प्रभ वीर के बताये हुये एक दिन माता पाहिनी मूसलाधार वर्षा के कारण अपने ___आचार्य श्री को विचार मग्न देखकर संघ के अग्रगण्य मार्ग पर अग्रसर हुए। अपनी मानवता की सुगंधि को चारों नवस्मरण पाठ सुनने की प्रतिज्ञा पूरी नहीं कर पा रही थीं। धर्म श्रावकों ने पूछा, गुरुदेव आप थी किन विचारों में डूबे हुए हैं? दिशाओं में फैलाया। . Jan Education international Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक श्री हीर विजय सूरि मुनि अरुण विजय यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। कथन करते हुए कहा कि ये बालक जैन शासन का महान् प्रभावक अकबर ने चंपा श्राविका ने घर शाही फरमान भेजा जिसमें अभ्युत्थानमधर्मस्य तवात्मानं सृजाम्यहम्।। होगा। अतः आप अपनी इच्छा से जैन शासन को समर्पित कर दो। लिखा था मैं आपका ब्रत देखना चाहता है। आप मेरेराजभवन में नाथीबाई ने भी गुरुदेव के कहने पर अपने प्राण प्यारे एकलौते पुत्र आइये, यहाँ आपको पूर्ण सुविधा मिलेगी। बादशाह अकबर का हे अर्जुन, जब जब इस पृथ्वी पर नास्तिक और अधर्मी धर्म को जैनशासन के लिए समर्पित कर दिया। गुरुदेव ने भी बालक फरमान पढ़कर एक बार परिवार के लोग चिन्ता में पड़ गये। की हानि करते हैं और अधर्म को बढ़ाते हैं तब-तब दुष्टों का दलन हीर के समझदार होने पर दीक्षा दी। उनका नाम हीर हर्ष मुनि कितु चम्पा ने सबको सान्त्वना देतु हुए कहा मुझे तो व्रत करना ही करने के लिए और पुनः धर्म स्थापित करने के लिए मैं संसार में रखा गया। दीक्षा के समय हीर की उम्र तेरह वर्ष थी। है चाहे यहाँ करूं या वहाँ, एक ही बात है। परिवार की आज्ञा लेकर अवतार लेता हैं। चम्पा राजभवन में गई। गरम पानी के सिवा यह और कुछ खाती अध्ययन पीती है या नहीं, यह जानने के लिए अकबर ने एक दासी को यह बात भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कही। किंतु आज से नियुक्त कर दिया। स्वयं अकबर भी नजर रखता था। किंतु एक ढाई हजार वर्ष पूर्व सुधर्मा स्वामी जंबू स्वामी स्वयं भूव सूरि गुरुदान सूरि ने हीर हर्ष मुनि को गुजराती, संस्कृत, प्राकृत महीना बीत जाने पर चंपा ने कुछ भी नहीं खाया, यह जानने के मानतुंगसूरि सिद्धसेन दिवाकर सरि, हेमचन्द्राचार्य हरिभद्रसरि आदि विभिन्न भाषाओं और जैनागमों का आद्योपान्त अध्ययन लिए स्वयं अकबर चंपा के पास आया और पूछा, आपके पीछे जैसे आदि महापुरुष भारत की आर्य भूमि पर जन्मे। अन्य धर्मों में कराया। यही हीर हर्ष मुनि आगे चलकर जैनशासन के एक महान कौन सी शक्ति है? कौन आपको शक्ति देता है जिसके बल पर भी समय-समय पर महापुरुष होते रहे। परन्त एक समय ऐसा भी धुरंधर विद्वान् आचार्य हीर विजय सूरीश्वर बने। आपने बिन खाये इतने दिन बिताये। हम तो रोजे के दिन यदि रात आया जिसमें जब धर्म का नाश करने वाले अधर्मी, अधर्म को एक टाइम नहीं खायें तो प्राण निकलने लगते हैं। स्थापित करने वाले जन्मे। जो भारत की पवित्र भूमि से सुधर्म का नाश करके अधर्म का साम्राज्य फैला रहे थे। चारों ओर हिंसा को चम्पा ने कहा मुझे शक्ति देने वाले मेरे आराध्य देव अकबर और चम्पा श्राविका आदिनाथ और गुरु श्री हीर विजय सूरीश्वर महाराज हैं। अकबर बढ़ावा मिल रहा था। ऐसे समय जैन शासन की जाज्वल्य मूर्ति, आचार्य हीर विजय सूरि की ख्याति संसार में तब फैली जब ने यह सोचा इस बहन में इतनी शक्ति है तो न जाने इनके गरु में प्रखर विद्वान जैनाचार्य श्रीमद् विजय हीर सूरीश्वर का जन्म हिन्दुस्तान के शासक बादशाह अकबर से उनकी भेंट हई। कितनी शक्ति होगी। उसने चंपा श्राविका से कहा मैं आपके गुरु हुआ। बादशाह अकबर और आचार्य हीर विजय सूरि की भेंट छह महीने को देखना चाहता हूं। वे इस समय कहाँ होंगे। चंपा ने कहा गुरुदेव उपवास करने वाली आगरे की चंपा नामक श्राविका के द्वारा हुई। इस समय गंधार (गुजरात) में हैं। जन्म और दीक्षा एक दिन बादशाह अकबर राजमहल के झरोखे पर बैठाहा अकबर का आमन्त्रण था। उसने बाजे गाजे के साथ जाते हुए एक जुलूस देखा। अकबर आचार्य देव का जन्म वि. सं. 1583 में मार्गशीर्ष सुदी नवमी ने बान सिंह नाम के जैन मंत्री से पूछा, यह जुलूस किस निमित्त बादशाह अकबर ने आचार्य हीर विजय सूरि को आगरा को गुजरात के पालनपुर शहर में हुआ था। निकाला जा रहा है? थान सिंह ने कहा जहाँपनाह, हमारे समाज में पधारने के लिए पत्र लिखा। पत्र पढ़कर आचार्य हीर सूरिने गंधार माता का नाम नाथीबाई था और पिता का नाम कराशाह चंपा नाम की श्राविका आज से छह महीने का उपवास करने जा श्री संघ से गंभीर परामर्श के बाद आगरा जाने का विचार किया। माता-पिता ने बालक का नाम हीर रखा। पूरा परिवार धर्म प्रवृत्ति । रही है। यह दिन में केवल एक-दो-बार प्यास लगने पर गरम में अधिक श्रद्धावान था। नाथीबाई बालक हीर को लेकर प्रतिदिन पानी पीयेगी। थानसिंह के मुख से यह सुनकर बादशाह अकबर सिह क मुख से यह सुनकर बादशाह अकबर शासन देवी का आगमन गुरुमख से धर्मोपदेश सुनने के लिए जाया करती थीं। एक दिन को बड़ा आश्चर्य हुआ और उसकी परीक्षा करने की इच्छा हुई कि आचार्य भगवन्त श्री दान सूरीश्वर ने नाथीबाई के पुत्र का भविष्य यह बात सत्य है या झूठ। आचार्य श्री हीर विजय सूरि ने आगरा जाने के लिए गंधार से Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदयात्रा शुरू की। रास्ते में "वटादरा" गांव आया। यहां एक दिव्य घटना घटती है। रात्रि के समय आचार्य देव जब अल्प निद्रा में थे तब उन्होंने स्वप्न देखा कि शासनदेवी एक स्त्री का रूप धारण कर आई है। वह गुरुदेव पर कुंकुंभ और मोती न्योछावर कर बोली, गुरुदेव आप अपने मन में किसी प्रकार की शंका न करें। आप खुशी से अकबर के पास जाइए और जिन शासन की शोभा बढ़ाइये। इससे आपकी कीर्ति फैलेगी। इतना कहकर देवी अदृश्य हो गई। उसके बाद आचार्य हीर विजय सूरि ने अहमदाबाद की ओर प्रस्थान किया। आचार्य देवका धूमधाम के साथ अहमदाबाद में प्रवेश हुआ प्रवचन के बाद अहमदाबाद श्री संघ को पता चला कि गुरुदेव बादशाह अकबर के पास आगरा जा रहे हैं। यह सुनकर अहमदाबाद का श्रीसंघ चिन्ता में पड़ गया और सोचने लगा गुरुदेव को अकबर ने क्यों बुलाया है। पता नहीं गुरुदेव का वहां क्या होगा। यह सोचकर आचार्य हीरविजय सूरि जी को आगरा जाने से रोका, तब आचार्य हीर विजय सूरि बोले, भाग्यवानो, अभी तो बादशाह सम्मान के साथ बुला रहा है और नहीं जायेंगे तो न जाने क्या करेगा। वहां जाने से शायद मेरे उपदेश से हिंसक अकबर अहिंसक बन जाये तो जैन धर्म की प्रभावना होगी। आचार्य हीर विजय सूरि की यह दीर्घ दृष्टि वाली बात सुनकर अहमदाबाद का श्री संघ ठंडा पड़ गया और आचार्य जी को जाने दिया। आचार्य हीर विजय सूरि जी उग्र विहार कर बादशाह अकबर के दरबार में पहुंचे। अकबर आचार्यदेव के सामने आया। वह हीर सूरि को देखकर इतना हर्ष विभोर हो गया कि वह आचार्य देव को आसन देना भूल गया। आचार्य देव को मंत्रणागृह में पधारने के लिए कहा। किन्तु आचार्य हीर विजय सूरि ने कहा, हम गलीचे पर नहीं चलते क्योंकि उसके नीचे जीव जन्त हों तो चलने से हिंसा हो सकती है। अकबर ने तुरन्त गलीचा उठवाया तो नीचे असंख्य चीटियाँ दिखाई दीं। अकबर विस्फारित नेत्रों से आचार्य देव को देखता रह गया। प्रथम मुलाकत में ही अकबर हीर विजय सूरि से बड़ा प्रभावित हुआ। श्रद्धा से अकबर का शिर आचार्य देव के चरणों में झुक गया जो आज तक किसी के सामने नहीं झुका था। एक दिन अकबर ने आचार्यदेव के चरित्र की परीक्षा करने के लिए एक प्रश्न पूछा जिसका उत्तर सुनकर अकबर प्रसन्न हुआ। आचार्य हीर सूरि के सदुपदेशों को सुनकर अकबर आचार्य देव का भक्त बन गया। अपने भव्य दरबार में आचार्य हीर विजय सूरि in Equussion international को जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की। हिंसक अकबर अहिंसक बना आचार्य हीर विजय सूरि प्रतिदिन बादशाह अकबर को जैनधर्म के सिद्धान्तानुसार उपदेश देते थे। उस उपदेश में ज्यादातर अहिंसा धर्म की महिमा और हिंसा से होने वाले अनर्थ समझाये जिसे सुनकर निर्दय कठोर हृदयी अकबर दयालु बन गया। अकबर राज और बाहुबल के मद में चूर होकर अपनी बहादुरी दिखाने के लिए शिकार खेलने जाता था। उसे बंद कर दिया। वह प्रतिदिन 500 चिड़ियों की जीभ खाता था, वह छोड़ दिया। बादशाह अकबर ने खुश होकर आचार्य हीर विजय सूरि जी के कुछ मांगने के लिए कहा, तब आचार्य देव ने कहा हमारा पर्युषण पर्व आ रहा है। उस समय आठ दिनों तक कत्ल खानों में जीवहिंसा बंद होनी चाहिए। अकबर आचार्य हीर विजय सूरि की निःस्वार्थ और परोपकारी की बात सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ और पर्युषण पर्व के आठ दिनों के स्थान पर 12 दिनों तक हिंसा बंद कर दी। इस प्रकार हिंसक, क्रूर, निर्दयी और मांसाहारी जैसे सम्प्रट के हृदय को भी कैसे अद्भुत परिवर्तन करा दिया। यह सारा प्रभाव आचार्य श्री हीर विजय सूरि का ही है। स्वर्गवास वि० सं० 1652 में जगद्गुरू देव श्री हीर विजय सूरि का चातुर्मास पूना (सौराष्ट्र) में था। तब आचार्य देव का स्वास्थ्य आचार्य देव ने औषध लेने से इंकार कर दिया तब श्रीसंघ न हीर अनुकूल नहीं था। शरीर अनेक रोगों से ग्रस्त हो गया था। जब सूरि के पास आकर कहा गुरुदेव जब तक आप औषध नहीं ग्रहण दिया यदि आप औषध नहीं लेंगे तो हम अपने बच्चों को स्तन्य करेंगे तब तक हम उपवास करेंगे। श्राविकाओं ने तो यहां तक कह (दूध) भी नहीं पिलायेंगी। श्रीसंघ के कठोर अभिग्रह ने आचार्य सूरि ने श्रीसंघ के आग्रह से औषध तो लिया किन्तु स्वास्थ्य में कोई भगवन्त को औषध लेने के लिए बाध्य किया। आचार्य हीर विजय सुधार नहीं आया। पर्युषण पर्व के बाद आचार्य हीर विजय सूरि का स्वास्थ्य और भी अधिक बिगड़ गया। जब बचने की उम्मीद नहीं रही तब आचार्य देव श्री हीर विजय सूरि ने सबसे क्षमापना की और नवकार महामन्त्र की आराधना करते हुए भाद्रपद सुदी एकादशी को अपने पार्थिव देह का परित्याग कर दिया। Quator 15 www.jainelibrary.on Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "तीर्थं तथा राष्ट्र प्रति जैन समाजस्य योगदानं" तीविचातीर्थे जगति विबुधा, साधवः सत्यतीखें। अडस तीर्थ फरी आवे पण, श्वानपुर्ण नहीं जाय" गौरव भावः अस्ति। गंगातीर्थे मलिनमनसः, योगिनः ध्यानती।। एतेन् श्लोकेन् ज्ञातुम् शक्यते यत् मदमात्सर्यादिदुर्गुण अस्मिन् अवसर्पिणि काले प्रप्रथमम् भगवतः ऋषभदेवस्य धारातीर्ये घरणिपतयः, वान तीर्ये धनाढयाः। युक्तत्वात् श्वान गंगा स्नानेनापि पवित्रः नैव भवति। काले राज्यव्यवस्थायाः आविष्कारः नूतनतया कृतः। (जैन लज्जातीये कलयुवतयः पातकं क्षालयन्ति ।। एतस्मिन् विचारे अन्येपि बहूनि महापुरुष वचनानि धर्मानसारेण महाकालस्य अवसर्पिणिकालः इति नाम दत्तम्) तत्र तीर्थ सूचकः शब्द । पवित्रता एवं च तीर्थ करोति अर्थात् प्रसिद्धानि सन्ति। यथा ऋषभदेवः एव प्रप्रथमः राजा। तेन प्रजाहितम् आधारिकृत्य पावित्र्यं उत्पादयति इति तीर्थकरः। एतादृशः तीर्थकरः अन्य स्थाने कृतं पापं, तीर्थ स्थाने विमुच्यते। राज्यव्यवस्थायाः, आचारव्यवहाराणाम्, नियमानाञ्च स्थापना लोकान्तिकदेवैः प्रायन्ते-'भगवन् कृपया तीर्थ प्रवर्तयताम्" तीर्थ स्थाने कृतं पापं, वजलेपो भविष्यति।। कता। एतस्मिन प्रयत्ने इहलोके सर्वरूपेण प्रजानाहित, कल्याण, इति। एषः तेषाम् देवानाम् आचार-नियमः। इत्यादीनी-नव्वाणु पूजाविधौ उच्यते - "तीरथनी आशातना सखशान्त्यादिकम् साधनीयम् तेन सहैव मोक्षसाधनं प्रधान तीर्थ शब्दस्य व्युत्पत्तिः एवमस्ति। -त-प्लवनतरणयोः. नवि करीये-" लक्ष्यम् आसित्। अनादि कालतः भारतीयानाम् कृते एतादृश इति धातो तरति पापादिकं यस्मात् तद् तीर्थ इति विग्रहाउणदि तथा च एतादृशः भवसागरतरणोपायसाधनेन तीर्थेनापि, मोक्ष-प्रधानसंस्कृत्याः निरन्तरधारा प्रवहन्ति अस्ति। सूत्रेण अत्र थक् प्रत्यय तृ+थक्, 'ऋतइत् धातोः' इति इत्वं, तरणं नैव भवति चेत् अन्येय केन वा भवेत् ? प्राचीनकाले मालवदेशे मांडवगढराज्यस्य महामंत्री रपरत्वं, उपधादीधः एवं रित्या तीर्थ इति शब्द समुत्पन्नः। राष्ट्र प्रति जैन समाजस्य योगवान: पेथडशाह महानदी, कुशलश्चासीत्। एतस्य जीवन चरितं तीर्थ द्विविध। 1. जंगमतीर्थ 2. स्थावर तीर्थ एतास्मिन् बृहत् विश्वे अनेकानि राष्ट्राणि, तेषु अन्यतमम् 'संस्कृते "सुकूत सागरः" नामके ग्रंथे वर्णितमस्ति। विशिष्ट 1. देहधारी सत्पुरुष-परमात्मा एव जंगम-तीर्थ। । भारतराष्ट्र अस्माकम् एतस्मिन् भारतराष्ट्र विविधाः समाजाः। पारिणामिकी बुद्धिमान् सः स्वीय जनहित कार्येषु सर्वरीत्या 2. परमात्मनः कल्याणक भूमयः, तपोभूमिः, विचरण- तेषु पुनः जैन समाजः एक श्रेष्ठः, सनातनः, जनोपयोगि, साफल्यं प्राप्तवान्। सः सर्वजनाहिताय-सुखाय च स्वीय राज्यतः स्थानानि, प्राचिनार्वाचि प्रतिमा शोभिताः चैत्यालयाः एतानि विश्वप्रियः समाजः। इदानीम् एतादृशः जैन-समाजस्य राष्ट्र देवगिरि राज्यपर्यन्तमार्गे भोजनशाला, पान्धशालाः, स्थावस्तीथानि। पुनः स्थावर तीर्थानि पञ्चविधानि सन्ति। यथा प्रति कदा आरभ्य, कैः, कीदृशं योगदानं समर्पितम् इति किञ्चित विश्रामगृहाणि निर्मापयित्वा तद्द्वारा राज्ययोः मध्ये परस्पर 1.सिद्धक्षेत्र 2. अतिशय क्षेत्र 3.पुण्य क्षेत्र 4.जलधारा क्षेत्र विचारयितम् अस्माकं प्रवृत्तिः। । सौहार्द्रम् स्थिरिकृतवान्। 5. भावक्षेत्रं च। जैन : जिनः उपास्यदेवता एषां ते, यद्वा जिनः उपास्यते यैः ते एवमेव गुजरातराज्यस्य वस्तुपालः तेजपालः द्वौ सचिवौ श्री नमस्कार महामंत्रस्य प्रत्येक अक्षरं तीर्थस्वरूपमस्ति। जैनाः। जिन अणु -जिनोपासकाः। समाज-सम् उपसर्गपूर्वकः अपि अतीव दूरदर्शीनौ आस्ताम्। गुजरात् देशस्य घोलका अर्थात् प्रत्येकस्मिन् अक्षरे परमात्मभावनायाः पवित्र ध्वनिः आज् धातोः घम प्रत्यय योजनेन निष्पन्नं पदं समाजः इति। नामकस्य प्रमुख नगरस्य राजा वीरधवलः पराक्रमी, सत्वशीलः, निहितः अतः एषः महामंत्रः तीर्थस्वरूप वर्तते। यथा-"अडसठ सम्मील्य अजन्ति अर्थात् गच्छन्ति इत्यर्थः। एवं च भारतराष्ट्रे महान्उदारी, विशालहृदेयी, दयालुः,विनीत: गंभीरयासित्। सः अक्षर ओना जाजो, अडसठ तीरथ सार' सर्व जैनः सह सौहार्द भावेन जैनानां व्यवहार सर्व कालेषु सर्वदा प्रजाहितचिंतकः। नगरस्य अधिष्ठातृ देवतायाः परामशन अभियुक्तः पूज्यैः एवमुक्तम् प्रसिद्ध अस्ति। आसितिति जैन समाजः इति नाम सार्थकम्, वैशिष्ठयं पूर्ण च अन्सत्य एव जिनेश्वरस्य उपासकाभ्यां तथा न्यायनिष्ठाया। "इवान होय ते गंगाजलमां, सौ जन वेला न्हाय राजते। अतैव अन्य धर्मीयानामपि जैन समाजप्रति भारते सर्वदा वस्तुपाल-तेजपालाभ्याम् मंत्री स्थानां नृपेण दत्तम्। An Educamorninternational P ARAPormonal the only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचीवस्थानस्य स्वीकारात् पूर्वम् नृपं प्रति वस्तुपालेन उक्तम् वचनम् अतीव मननीयमस्ति। प्रप्रथमम् सः राज्ञः गुणान् श्लाधयित्वा कलियुगस्य दुष्प्रभावाना वर्णनं कृत्वा अन्ते तेन उक्तम् "हे विचक्षण राजन् ।। भवतः अनुग्रहेण वयं आत्मानः धन्यान् मन्यामहे। परंतु वयं श्रमण भगवतः महावीर देवस्य धर्म शासने श्रद्धावन्तः श्रावकाः। जिनेश्वर देवः, निग्रंथ गुरूः, सर्वज्ञ प्रणितः धर्मश्च अस्माकम आराध्य तत्वानि। तथापि इहलोके निंदा यथा न भवेत, परलोके च दुःख न प्राप्स्यामः तथा राजनीति धर्मनीत्योः समतोलनभावेन जीवितुम् इच्छामः । न्याय रक्षाणार्थ सर्वत्र निस्पृह भावेन पक्षपात राहीत्येन् च प्रयत्नः करणीयः। शुत्र जनाः निग्रहितव्याः तथा प्रजानाम् क्षेमवृद्धि साधनीयाः इत्यादीनि अस्माभिः अवश्यम् कर्तव्य कर्माणीति। एतैः विवेकपूणैः मधुरवचनैः वीरधवलः तस्य पिता लवणप्रसादस्य नितरां संतुष्टौं। तथा वस्तुपालस्य प्रार्थना अंगिकृतवन्तौ। अनन्तरं वस्तुपालेन गुर्जरसाम्राज्यस्य मंत्रीमुद्रा स्वीकृता तथा सप्ताहाभ्यान्तरमेव राज्यस्य सुव्यवस्था साधीता, उचित कर ग्रहणादिभिः राज्यभंडारमपि सम्परितम्। समस्त राज्यस्य दायित्वं स्वयं स्वीकृत्य बहनि राष्ट्रोन्नति कार्याणि अकरोत्। सः आबू पर्वतस्योपरि बहधनव्ययेन, प्रयासपूर्वक जिनमंदिरम् निर्मापितवान्। तेन् सहैव सः मुस्लिम् जनानाकृते प्रार्थनामंदिराणि अपि स्थापितवान्। एतादृशः पक्षपातः रहितः, उदारि सः इतिहास प्रसिद्धः अस्ति। एवमरीत्याम् भामाशाः नामकः महाराणा प्रतापाय कष्टकाले अगणित प्रमाणकं द्रव्यराशि दत्वा तस्य सहाय्यं कृतवान्। प्रस्तुतकाले युगद्रष्टा आचार्यः विजय बल्लभसूरि महाराजोपि विश्वविद्यालय स्थापयितुम् इच्छन् महावीर विद्यालयः, अनेके रूग्णालयाः, उद्योगगृहाणि, शिक्षणसंस्थानि इत्यादिनि संस्थापितवान्। एतस्य महापरुषस्य स्मरणार्थमेव इदानीम् "बल्लभस्मारक" निर्मितमस्ति। एवं रीत्या एव अनेके महापुरुषाः जैन समाजे जन्मप्राप्त तीर्थोन्नतिम् राष्ट्रोन्नतिम् साधितवन्तः। साध्वी नयनानंद श्रीः Jain Education international FORPIVespersoamine-only www.jainelibrary.ord Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'लेश्याएं छह प्रकार की हैं: कशलेश्या, नील लेश्या. दर्पण के सामने खड़े होकर तुम अपने को देखते हो, वह कापोत लेश्या, तेजो लेश्या (पीत लेश्या), पद्म लेश्या और तुम्हारा होना नहीं है; तुम्हारे देह की छाया है। न तुम्हें अपना पता शुल्क लेश्या।' चलता है, न दूसरों की आत्मा का कोई बोध होता है। 'कृष्ण, नील और कापोत, ये तीनों अधर्म या अशुभ कृष्ण लेश्या उठे, तो ही आत्मदर्शन हो सकते हैं। लेश्याएं हैं। इनके कारण जीव विभिन्न दर्गतियों में उत्पन्न होता ऐसी महावीर ने छह पर्दो की बात कहीं है: कृष्ण लेश्या, फिर नील लेश्या, फिर कापोत लेश्या। क्रमशःअंधेराकम होता 'पीत (तेज), पद्य और शुक्ल: ये तीनों धर्म या शभ लेश्याएं जाता है। हैं। इनके कारण जीव विविध संगतियों में उत्पन्न होता है।' कृष्ण के बाद नील। अंधेरा अब भी है, लेकिन नीलिमा जैसा 'छह पथिक थे। जंगल के बीच जाने पर वे भटक गए। भूख है। फिर कपोत-कबूतर जैसा है। आकाश के रंग जैसा है। जैसे-जैसे पर्दे उठते हैं. वैसे-वैसे भीतर की झलक स्पष्ट होने सताने लगी। कुछ देर बाद उन्हें फलों से लदा एक वृक्ष दिखाई दिया। उनकी फल खाने की इच्छा हुई। वे मन ही मन विचार लगती है। लेकिन एक बात ख्याल रखना। महावीर कहते हैं, शुभ करने लगे। एक ने सोचा कि पेड़ को जड़मूल से काटकर उसके लेश्या भी पर्दा है। वह अंतिम लेश्या है जब तक रंग है, तब तक फल खाए जाएं। दूसरे ने सोचा कि केवल स्कन्ध ही काटा जाए। पर्दा है। जब तक रंग हैं, तब तक राग है। तीसरे ने विचार किया कि शाखा को तोड़ना ठीक रहेगा। चौथा राग शब्द का अर्थ रंग होता है। सोचने लगा कि उपशाखा ही तोड़ी जाए। पांचवां चाहता था कि विराग शब्द का अर्थ, रंग के बाहर हो जाना होता है। वीतराग शब्द का अर्थ होता है, रंग का अतिक्रमण कर फल ही तोड़े जाएं। छठे ने सोचा कि वृक्ष से टपककर फल जब जाना। नीचे गिरें तभी चुनकर खाए जाएं।' 'इन छह पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म, क्रमशः छहों अब तुम पर कोई रंग न रहा। क्योंकि जब तक रंग है, तब | तक स्वभाव दबा रहेगा। तब तुम्हारे ऊपर कछ और पड़ा है। लेश्याओं के उदाहरण हैं।' लेश्या महावीर की विचार-पद्धति का पारिभाषिक शब्द चाहे सफेद ही क्यों न हो, शुभ ही क्यों न हो। है। उसका अर्थ होता है: मन, वचन, काया की काषायुक्त हम तो काली अंधेरी रात में दबे हैं। महावीर पूर्णिमा को भी वृत्तियां। कहते हैं, कि वह भी पूर्ण अनुभूति नहीं है। अमावस तो छोड़नी ही । मनुष्य की आत्मा बहुत-से पदों में छिपी है। ये छह लेश्याएं है, पूर्णिमा भी छोड़ देनी है। कृष्ण लेश्या तो जाए ही, शुक्ल छह पर्दे हैं। लेश्या भी जाए। कृष्ण पक्ष तो विदा हो ही, शुक्ल पक्ष भी विदा पहला पर्दा है: कृष्ण लेश्या। बड़ा अंधकार, काला, हो। तुम पर कोई पर्दा ही न रह जाए। तुम बेपर्दा हो जाओ। कीण्हा णीला काऊ, तेऊ पम्मा य सक्कलेस्सा य ।। अमावस की रात जैसा। जिस पर कृष्ण लेश्या पड़ी है, उसे अपनी इसलिए महाबीर नग्न रहे। व्रत नग्न सूचक हैं। ऐसी ही लेस्साणं णिहेसा, छच्चेव हबंति णियमेण ।। आत्मा का कोई पता नहीं चलता। इतने अंधेरे मेंदबेहैं, प्राण कि आत्मा भी भीतर नग्न हो, तभी उसका अहसास शुरू होता है। कीण्हा णीला काऊ, तिषिण बि एयाओ अहम्मलेसाओ। प्राण हो भी सकते हैं, इसका भरोसा नहीं आता। स्वयं ही पता नहीं अ प्राण हो भी सकते हैं, इसका भरोसा नहीं आता। स्वयं ही पता नहीं और जब अपनी आत्मा का पता चले तो औरों की आत्मा का पता एयाहि तिहि बि जीबो, दुग्गइं उबबज्जई बहुसो।। चलती आत्मा तो दूसरे को तो पता कैसे चलेगी? चलता है। जितना गहरा हम अपने भीतर देखते हैं, उतना ही हमारा युग कृष्ण लेश्या का युग है। लोग अमावस में जी रहे गहरा हम दसरे के भीतर देखते हैं। तेऊ पम्हा सुक्का, तिण्णि बि एयाओ धम्मलेसाओ। हैं। पूर्णिमा खो गई है। पूर्णिमा तो दूर, दूज का चांद भी कहीं हमें तो अभी मनुष्यों में भी आत्मा है, इसका भरोसा नहीं। एपाहि तिहि बि जीवो, सुग्गई उबवज्जई बहुसो।। दिखाई नहीं पड़ती। इसलिए आत्मा पर भरोसा नहीं आता। होता। ज्यादा से ज्यादा अनुमान...होनी चाहिए। है, ऐसा पहिया जे छ प्पुरिसा, परिभट्टराण्णमादेसम्हि । भरोसा आए भी कैसे? पर्दा इतना काला है कि भीतर प्रामाणिकता नहीं मालूम होती। अंदाजन करते हैं- होगी। फलभरियरूक्खमंग, पेक्खित्ता ते विचितंति।। प्रकाश का स्रोत छिपा है, इसकी प्रतीति कैसे हो? जब तुम दूसरे तर्कयुक्त मालूम पड़ती है कि होनी चाहिए। लेकिन वस्तुतः है णिम्मूलखंधमाहु-बसाहं छित्तं चिणित्तु पडिदाई। को भी देखते हो, तब भी देह ही दिखाई पड़ती है। स्वयं को देखते ऐसा कोई अस्तित्वगत हमारे पास प्रमाण नहीं है। अपने भीतर हा खाउँ फलाई इदि, जं मणेण बयणं हबे कम्भं ।। हो, तब भी देह ही दिखाई पड़ती है। प्रमाण नहीं मिलता, दूसरे के भीतर कैसे मिले? जैन दर्शन में छः लेश्याएँ For Only dain Education international Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर कहते हैं, जैसे-जैसे पर्दे उठते हैं, वैसे-वैसे तुम्हें दूसरे में आत्मा दिखाई पड़नी शुरू होती है। एक ऐसी घड़ी आती है, जब पत्थर में भी आत्मा दिखाई पड़नी शुरू होती है। तेजोलेश्या से क्रांतिकारी परिवर्तन शुरू होता है। पहली तीन लेश्याएं अधर्म की बाद की तीन लेश्याएं धर्म की-तेजो, पद्म और शुक्ल । तेजोलेश्या के साथ ही तुम्हारे भीतरी पहली झलकें आनी शुरू होती हैं। ये रंगों के आधार पर पर्दों के नाम रखे महावीर ने यह जीवन का इंद्रधनुष है। है तो रंग एक ही वैज्ञानिक उसे कहते हैं श्वेत। बाकी सब रंग श्वेत रंग के ही खंड हैं। इसलिए प्रिज्म के कांच के टुकड़े से जब सूरज की किरण गुजरती है तो सात रंग में बंट जाती है। या तुमने कभी स्कूल में बच्चों के समझाने के लिए देखा हो तो एक चाक पर सात रंग लगा देते हैं। चाक को जोर से घुमाते हैं तो सातों रंग खो जाते हैं, सफेद रंग रह जाता है। सफेद रंग सातों रंगों का जोड़ है या सातों रंग सफेद रंग से ही जन्मते हैं। इंद्रधनुष पैदा होता है हवा में लटके हुए जलकणों के कारण जलकण लटका है हवा में, सूरज की किरण निकलती है, टूट जाती है सात हिस्सों में सूरज की किरण सफेद है। लेकिन महावीर कहते हैं, सफेद के भी पार जाना है। अधर्म के पार तो जाना ही है, धर्म के भी पार जाना है। अधर्म तो बांध ही लेता है, धर्म भी बांध लेता है। धर्म का उपयोग करो अधर्म से मुक्त होने के लिए। कांटे को कांटे से निकाल लो, फिर दोनों काटों को फेंक देना। फिर दूसरे कांटे को भी सम्हालकर रखने की कोई जरूरत नहीं है। बीमारी है, औषधि ले लो। बीमारी समाप्त हो, फिर औषधि को भी कचरे घर में डाल आना। फिर बीमारी के बाद औषधि ने छाती से लगाए मत घूमना। वह केवल इलाज थी। उसका उपयोग संक्रमण के लिए था। जैसे-जैसे शुभ लेश्याओं का जन्म होता है, जैसे-जैसे आदमी श्वेत की तरफ बढ़ता है, वैसे-वैसे दृष्टि की गहराई बढ़ती है। वैसे-वैसे दूसरों में भी परमात्मा की झलक मिलती है। 'श्वेत लेश्या की आखिरी घड़ी में जब पूर्णिमा का प्रकाश जैसा भीतर हो जाता है तो पत्थर में भी परमात्मा दिखाई पड़ता है। इसी अनुभव से महावीर की अहिंसा का जन्म हुआ। महावीर जो कहानी कहे हैं.... महावीर ने बहुत कम बोधकथाओं का उपयोग किया है। उन बहुत कम बोधकथाओं में एक यह है: Jain Education international "छह पथिक थे। जंगल के बीच जाने पर भटक गए। भूख लगी। कुछ देर बाद उन्हें फलों से लदा एक वृक्ष दिखाई दिया। फल खाने की इच्छा हुई। मन ही मन विचार करने लगे। पहले ने सोचा, पेड़ को जड़मूल से काटकर इसके फल खाए जाएं।' महावीर कहते हैं, यह कृष्ण लेश्या में दबा हुआ आदमी है। यह अपने छोटे से सुख के लिए, क्षणभंगुर सुख के लिए भूख थोड़ी देर के लिए मिटेगी, फिर लौट आएगी। भूख सदा के लिए तो मिटती नहीं। लेकिन यह पूरे वृक्ष को मिटा देने को आतुर है। इसे वृक्ष की भी आत्मा है, वृक्ष को भी भूख लगती है, प्यास लगती है, वृक्ष को भी सुख और दुख होता है, इसकी कोई प्रतीति नहीं है। यह आदमी अंधा है, जिसे वृक्ष में कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। सिर्फ अपनी भूख को तृप्त करने का उपाय दिखाई पड़ रहा है। और अपनी भूख की तृप्ति के लिए, जो फिर लौट आने वाली है, कोई शाश्वत तृप्ति हो जाने वाली नहीं है, वह इस वृक्ष को जड़ मूल से काट देने के लिए उत्सुक हो गया। यह आदमी बिलकुल अंधा है। ऐसे आदमी तुम्हें सब तरफ स्वयं के भीतर भी मिलेगा। कितनी बार नहीं तुमने अपने छोटे-से सुख के लिए दूसरे को विनष्ट तक कर देने की योजना नहीं बना ली। कितनी बार जो मिलनेवाला था वह ना कुछ था, लेकिन तुमने दूसरे की हत्या कर दी कम से कम हत्या का विचार किया। जमीन के लिए, दो इंच जमीन के लिए पद के लिए तुमने प्रतिस्पर्धा की। दूसरे की गर्दन को काट देना चाहा। इसकी बिलकुल भी चिता न की, कि जो मिलेगा वह ना कुछ है और जो तुम विनष्ट कर रहे हो, उसे बनाना तुम्हारे हाथ में नहीं तुम एक जीवन की समाप्ति कर रहे हो। एक परम घटना के विनाश का कारण बन रहे हो। एक दीया बुझा रहे हो। एक तुम जैसा ही प्राणवन्त, तुम जैसा ही परमात्मा को सम्हाले हुए कोई चल रहा है, तुम उस अवसर को विनष्ट कर रहे हो। और तुम्हें कुछ भी मिलनेवाला नहीं। तुम्हें जो मिलेगा, वह थोड़ी-सी क्षणभंगुर की तृप्ति है। घड़ी भर बाद फिर भूख लग जाएगी। कृष्ण लेश्या से भरा आदमी महत हिंसा से भरा होता है। जब भी तुम्हारे मन में अपने सुख के लिए दूसरे को दूख तक की तैयारी हो जाए तो तत्क्षण समझ लेना, कृष्ण लेश्या में दबे हो । पर्दा पड़ा है। इस पर्दे को अगर तुम बार-बार भोजन दिए जाओगे तो यह मजबूत होता चला जाएगा। 19 www.panelibrary.co Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 जागना। जब ऐसा मौका आए कि अपने छोटे सुख के लिए विचार आया। लेकिन महावीर कहते हैं, विचार आ गया तो बात क्या कर रहे हैं? क्या लोगों को मूल्यों का कोई भी बोध नहीं है? दूसरे को दुख देने का ख्याल उठे,तब सम्हलना। तब अपने हाथ हो गई। जहां तक तुम्हारा संबंध है, हो गई। जहां तक वृक्ष का बोध हो नहीं सकता इस काले पर्दे के कारण, जो आंख पर को खींच लेना। क्योंकि असली सवाल यह नहीं है कि तुमने अपनी संबंध है, अभी नहीं हुई लेकिन तुम्हारा संबंध है, वहां तक तो हो पड़ा है। महावीर कहते हैं, तुम अंधे नहीं हो, सिर्फ आंख पर पर्दा कृष्ण लेश्या पर पानी सींचा। उसकी जड़ों को मजबूत किया। गई। है। बुरका ओढ़े हुए हो-काला बुरका; कृष्ण लेश्या का। उसी में तुम्हारा आत्मतत्त्व खो गया है। उसी में खो गया जीवन जब तुमने सोचा किसी को मार डालें, ऐसी मन में एक हमारे छोटे-छोटे कृत्य में हमारी लेश्या प्रगट होती है। तम अभिप्राय। उसी से पता नहीं चलता कि जीवन में कुछ अर्थ भी है? कल्पना भी उठ गई तो बात हो गई। दूसरा अभी माना नहीं गया। उसे छिपा नहीं सकते। और अब तो इसके लिए वैज्ञानिक आधार उसी से पता नहीं चलता है कौन हूँ मैं? कहां जा रहा है? क्यों जा अपराध नहीं हआ, पाप हो गया। भी मिल गए हैं। रहा हूँ? पाप और अपराध में यही फर्क है। पाप का अर्थ है. तम्हें जो सोवियत रूस में, किरलियान फोटोग्राफी के विकास ने बड़ी तुम अंधे हो क्योंकि कृष्ण लेश्या की तुम अब तक सम्हाल करना था, वह भीतर तुमने कर लिया। अभी दूसरे तक उसके हैरानी की बात खोज निकाली है कि जो तुम्हारे भीतर चेतना की करते रहे। उसे खाद दिया, पानी दिया। उस पर्दे में कभी छेद भी परिणाम नहीं पहुंचे। परिणाम पहुंच जाएं तो अपराध भी हो दशा होती है, ठीक वैसा आभा-मण्डल तुम्हारे मस्तिष्क के हुआ तो जल्दी तुमने रफू किया, सुधार लिया। तुम जब-जब दूसरे जाएगा। अदालत अपराध को पकड़ती है, पाप को नहीं पकड़ आसपास होता है। और किरलियान की खोज महावीर से बड़ी पर नाराज होते हो, तब-तब तुम ख्याल करना, किसी अर्थों में वह सकती। पाप तो मन के भीतर है। अपराध तो तब है, जब मन का मेल खाती है। जिस व्यक्ति के मन में हिंसा के भाव सरलता से तुम्हारे कृष्ण लेश्या के पर्दे पर चोट कर रही है। तुम्हारे अहंकार विष बाहर पहुंच गया और उसके परिणाम शुरू हो गए। और उठते हैं, उसके चेहरे के पास एक काला वर्तुल.... को चोट लगाती है, तुम नाराज हो जाते हो। बाह्य जगत में तरंगें उठने लगीं। तब पुलिस पकड़ सकती है। संतों के चित्रों में तुमने प्रभामण्डल बना देखा है, ऑरा बना कल में एक कहानी पढ़ रहा था। अमरीका में टेक्सास प्रांत तब अदालत पड़ सकती है। देखा है। वह एकदम कवि की कल्पना नहीं है-अब तो नहीं है। के लोग बड़े अभद्र, हिसक समझे जाते हैं। एक सिनेमागृह में एक कानून तुम्हें तब पकड़ता है, जब पाप अपराध बन जाता किरलियान की खोज के बाद तो वह कवि की कल्पना बड़ा सत्य टेक्सास प्रांत का आदमी अपनी बंदूक सम्हाले इंटरवेल के बाद है। साबित हुई। किरलियान की खोज ने तो यह सिद्ध किया कि जो वापिस लौटा। बाहर गया होगा। अपनी सीट पर उसने किसी लेकिन महावीर कहते हैं, धर्म के लिए उतनी देर तक कैमरा हजारों साल बाद पकड़ पाया, वह कवि की सूक्ष्म मनीषा ने आदमी को बैठे देखा। उसने पूछा-टेक्सास के आदमी ने-कि रुकना आवश्यक नहीं है। जीवन की परम अदालत में तो हो ही बहुत पहले पकड़ लिया था। ऋषियों की मनीषा ने बहुत पहले महानुभाव! आपको पता है, यह सीट मेरी है। वह जो आदमी बैठा गई बात। तुमने सोचा कि हो गई। नहीं किया, क्योंकि करने में देख लिया था। था, मजाक में ही कहा, थी आपकी। अब तो मैं बैठा हूं। सीट किसी बाधाएं हैं, कठिनाइयां हैं, सीमाएं हैं। करना महंगा सौदा हो जब तुम्हारी दृष्टि साफ होने लगी तो जब तुम्हारे पास कोई की होती है? सकता है। सोच-विचार करने तुम रुक गए। हुशियार आदमी आता है, तो तत्क्षण तुम्हें उसके चेहरे के आसपास विशिष्ट रंगों बस. उसने बंदक तानी और गोली मार दी। भीड़ इकट्ठी हो हो, चालाक आदमी हो, मुस्कुरा कर गुजर गए लेकिन भीतर सोच के झलकाव दिखाई पड़ते हैं। अगर हिंसक व्यक्ति है. लोभी गई और उसने लोगों से कहा कि इसी तरह के लोगों के कारण लिया गोली मार दूंगा। पर जहां तक धर्म का संबंध है, बात हो व्यक्ति है, क्रोधी व्यक्ति है, मद-मत्सर, अंहकार से भरा व्यक्ति टेक्सास के लोग बदनाम हैं। गई; क्योंकि तुम्हारी कृष्ण लेश्या मजबूत हो गई। है तो उसके चेहरे के आसपास एक काला वर्तुल होता है। पर बहुत बार तुम्हारे मन में भी-चाहे तुमने गोली न मारी कृष्ण लेश्या को मजबूत करना पाप है। अब तो इसके फोटोग्राफ भी लिए जा सकते हैं। क्योंकि हो, यह कहानी अतिशयोक्तिपूर्ण मालूम होती है, लेकिन बहुत कृष्ण लेश्या को क्षीण करना पुण्य है। किरलियान ने जो सूक्ष्मतम कैमरे विकसित किए हैं, उन्होंने बार गोली मार देने का मन तो हो ही गया है। बहुत छोटी बातें शुक्ल लेश्या को मजबूत करना पुण्य है। और शुक्ल लेश्या चमत्कार कर दिया है। और ऐसा बर्तल लोभी, हिंसक, अंहकारी, पर-कि कोई तुम्हारी सीट पर बैठ गया है-गोली मार देने का के भी पार उठ जाना, पाप और पुण्य दोनों के पार चले जाना क्रोधी के आसपास होता है, और ठीक ऐसा ही वर्तुल जब आदमी मन तो हो ही गया है। मुक्ति है, निर्वाण है। मरने के करीब होता है, तब भी होता है। महावीर कहते हैं, मन भी हो गया तो बात हो गई। इस जब तुम्हारे मन में पाप का विचार उठता हैतबतुम दूसरे का जो आदमी मरने के करीब है, किरलियान कहता है, छह कहानी में वे यह नहीं कह रहे हैं कि पहले आदमी ने वृक्ष तोड़ा: नुकसान करना चाहते हो-अपने छोटे-मोटे लाभ के लिए। वह महीने पहले अब घोषणा की जा सकती है कि यह आदमी मर सिर्फ सोचा। भी पक्का नहीं है होगा। लेकिन यह संभव कैसे हो पाता है ? दुनिया जाएगा। क्योंकि छह महीने पहले उसके चेहरे के आसपास मृत्यु ...'भूख लगी, फल खाने की इच्छा हुई, वे मन ही मन में इतने युद्ध, इतनी हिंसा, इतनी हत्याएं, इतनी आत्महत्याएं, घटना शुरू हो जाती है। जो छह महीने बाद उसके हृदय में घटेगी, विचार करने लगे।' छोटी-छोटी बात पर कलह, यह संभव कैसे हो पाती है? क्या लोग वह उसके आभामण्डल में पहले घट जाती है। ऐसा कुछ किया नहीं है अभी; ऐसी भाव-तरंग आयी, ऐसा बिलकुल अंधे हैं? क्या लोगों को बिलकुल पता नहीं चलता कि वे इन दोनों का जोड़ ख्याल में लेने जैसा है। इसका अर्थ हुआ, JanEducation international Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो काला मण्डल है हिंसा का, अहंकार का, क्रोध का, मत्सर का, पहुंचता है। तृतीय नेत्र खुल गया। पूर्णिमा हुई। पूरा चांद कर सकोगे। मद का, वही मृत्यु का मण्डल भी है। इसका अर्थ हआ, जो काले निकला। दो का अर्थ है, भीतर खंड-खंड बंटे हैं हम। एक मन कुछ मण्डल के साथ जी रहा है, वह जी ही नहीं रहा। वह किसी अर्थ में और जिसकी पतंजलि सहस्त्रार कहता है-सहस्रदल कहता, दूसरा मन कुछ कहता। एक मन कहता है, अभी तो भोग मरा हुआ है। उसके जीवन का उन्मेष पूरा नहीं होगा। जीवन की कमल, सातवां चक्र, बही महावीर के लिए वीतराग स्थिति है। लो। एक मन कहता है क्या रखा भोगने में? छोड़ो। एक मन लहर, तरंग, पूरी नहीं होगी-दबी-दबी, कटी-कटी, टूटी-टूटी। रंग-राग सब गया। सब लेश्याएं गई। कृष्ण लेश्या तो गई ही, कहता है, मंदिर चलो-प्रार्थना की पावनता। दूसरा मन कहता है, जैसे जीते भी वह मुर्दे की तरह ढोता रहा अपनी लाश को। कभी श्वेत लेश्या भी गई। काले पर्दे तो उठ ही गए, सफेद पर्दे भी उठ व्यर्थ समय खराब होगा। घंटे भर में कुछ रुपये कमा लेंगे। जिया नहीं नाचकर। कभी उसके जीवन में बसंत नहीं आया। गए। पर्दे ही न रहे। परमात्मा बेपर्दा हुआ, नग्न हुआ, दिगंबर बाजार ही चलो। प्रार्थना बूढ़ों के लिए है, अंत में कर लेंगे। मरते कभी नई कॉपलें नहीं फूटीं। पुराना ही होता रहा। जन्म के बाद हुआ। आकाश के अतिरिक्त और कोई ओढ़नी न रही, ऐसा वक्त कर लेंगे। इतनी जल्दी क्या है? अभी कोई मरे नहीं जाते। बस, मरता ही रहा। निर्दोष हुआ। तुम्हें कभी ख्याल है? कि मन कभी भी निर्णित नहीं होता। काला पर्दा पड़ा ही आदमी के चित्त पर तो जीवन संभव भी तो जो छह चक्र पतंजलि के, वे ही छह लेश्याएं हैं महावीर अनिर्णय मन का स्वभाव है। छोटी-छोटी बातों में अनिर्णीत होता नहीं है। जीवन की किरण हृदय तक पहुंच पाए, इसके लिए खुले की। पहले तीन चक्र सांसारिक है। अधिकतर लोग पहले तीन है। कौन-सा कपड़ा आज पहनना है, इसी के लिए मन अनिर्णित द्वार चाहिएं। और जीवन का उल्लास तुम्हें भी उल्लसित कर सके चक्रों में ही जीते और मर जाते है। चौथा, पांचवां और छठवां चक्र हो जाता है। किस फिल्म को देखने जाना, इसीलिए अनिर्णित हो और जीवन का मृत्यू तुम्हें भी छू पाए इसके लिए बीच में कोई भी धर्म में प्रवेश है। चौथा चक्र है हृदय, पांचवां कंठ, छठवां आज्ञा। जाता है। जाना कि नहीं जाना इसी के लिए आदमी सोचने लगता पर्दा नहीं चाहिए। बेपर्दा होना है। हृदय से धर्म की शुरूआत होती है। हृदय यानी प्रेम। हृदय यानी है, डावांडोल होने लगता है जैसे तुम्हारे भीतर तो आदमी है, एक तुम जब बिलकुल नग्न, खुले आकाश को अपने भीतर करुणा। हृदय यानी दया। हृदय के अंकुरण के साथ ही धर्म की नहीं। निमंत्रण देते हो, तभी परमात्मा भी तुम्हारे भीतर आता है। शुरूआत होती है। जिसको हृदय चक्र कहा है पतंजलि के शास्त्र आज्ञाचक्र पर आकर तुम्हारा द्वंद्व समाप्त होता है, तुम एक आता है इक रोज मधुवन में जब बसन्त में, वही तेजोलेश्या है। हृदयवान व्यक्ति के जीवन में एक तेज बनते हो। इसलिए पतंजलि ने उसे आज्ञाचक्र कहा क्योंकि तुम तृण-तृण हंस उठता है, कली-कली खिल जाती है। प्रगट होता है। पहली दफा स्वामी बनते, मालिक बनते। जब तक आज्ञाचक्र न कोयल के स्वर में भर जाती है नई कूक कोंपल पेड़ों पर पायल नई बजाती है। शुक्ल लेश्या-योग की तृतीय आंख, या तंत्र का शिवनेत्र खुल जाए तब तक कोई अपना मालिक नहीं। महावीर की शुक्ल लेश्या है। जैसे तुम्हारे भीतर इन छह के बीच महावीर कहते हैं, छठवें केंद्र पर शक्ल लेश्या पूर्ण होती है। लेकिन कृष्ण लेश्या में दबे हुए आदमी के जीवन में ऐसा अमावस और पूर्णिमा का अंतर है। जब तुम्हारे जीवन की ऊर्जा पूर्णिमा की चांदनी फैल जाती है तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व पर। कभी नहीं होता। बसंत आता ही नहीं। कोयल कूकती ही नहीं। आज्ञाचक्र पर आकर ठहरती है तो तुम्हारा सारा अन्तर्लोक एक पूर्णिमा की चांदनी फैल जाने के लिए तुम्हें अंतर्यात्रा पर कोंपलें पायल नहीं बजाती। ऐसा आदमी नाममात्र को जीता प्रभा से मण्डित हो जाता है। एक प्रकाश फैल जाता है। तम पहली जाना होगा। और जो पर्दे तुम्हें बाहर रोकते हैं, उन्हें धीरे-धीरे है-मिनिमम। श्वास लेता है कहना चाहिए, जीता है कहना ठीक दफा जागरुक होते हो। तुम पहली दफा ध्यान को उपलब्ध होते छोड़ना होगा। नहीं। गुजार देता है कहना चाहिए। कृष्ण, नील, कापोत, इन्हें छोड़ो। लेश्याएं छह प्रकार की हैं। कृष्ण, नीले, कापोत, ये तीन इसलिए पतंजलि ने उसे आज्ञाचक्र कहा। आज्ञाचक्र का लोभ, मोह, घृणा, क्रोध, अहंकार, ईष्या छोड़ो। प्रेम, दया, अधर्म लेश्याएं महावीर ने कहीं। अर्थ है कि इस घड़ी में तुम जो कहोगे, कहते ही तो जाएगा। सहानुभूति जगाओ। परिग्रह छोड़ो, अपरिग्रह जगाओ। कृपणता पतंजलि के हिसाब में...पतंजलि ने मनुष्यों के सात चक्रों का तम्हारी आज्ञा तम्हारे व्यक्तित्व के लिए सहज स्वीकृत हो छाड़ा, बटना साखा। मागा मतादा तम्हारी आजा तम्हारे व्यक्तित्व के लिए सहज स्वीकत हो छोड़ो, बंटना सीखो। मांगो मत; दो। और अंतर्यात्रा शुरू होगी। वर्णन किया। ये तीन लेश्याएं महावीर की और पतंजलि के जाएगी। इतनी जागरुकता में जो भी कहा जाएगा, जो भी निर्णय चीजों को मत पकड़ो। चीजों का मूल्य नहीं है। चीजों को तान निम्न चक्र एक हा अथ रखते हैं। ये एक ही तथ्य को प्रगट लिया जाएगा, वह तत्क्षण परा होने लगेगा। क्योंकि अब कोई अपना मालक मत बननदा.चाजाकमालिक रहा। उपयाग करा करने की दो व्यवस्थाएं हैं। विरोधी नहीं रहा। अब तुम एक-सूत्र हए, एक-जट हए। अब साधन की तरह साध्य मत बनाओ। तो धीरे-धीरे पर्दे ट्टते हैं। जिसको पतंजलि मूलाधार कहता है-जो व्यक्ति मूलाधार भीतर दो आंखें न रहीं, एक आंख हुई। दो थीं तो द्वंद्व था। एक कुछ अगर ऐसा न किया तो जीवन में सब तो पालोगे, लेकिन जो में जीता है, वह कृष्ण लेश्या में जीता है। मूलाधार में जीने वाला कहती, दसरी कछ कहती। यही अर्थ है यह उस प्रतीक पाने योग्य था, बस उसी से वाचत रह जाआग। व्यक्ति अंधकार में जीता है, अमावस में जीता है। छठवां चक्र है, का-तृतीय नेत्र का। अब एक आंख हुई। तुम एक-दृष्टि हुए। वह कृष्ण लेश्या जब तक न हटेगी, काला पर्दा पड़ा रहेगा। आज्ञाचक्र है। जो व्यक्ति आज्ञाचक्र में पहुंच जाता है, वह ठीक जीसस ने अपने शिष्यों को कहा है, जब तक तुम्हारी दो तुम जाओगे भीतर तो तुम काला ही पाओगे। अक्सर तुम भीतर वहीं पहुंच गया, जो महावीर की परिभाषा में शुक्ल लेश्या में आंखें एक बन जाए, तब तक तुम मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश न आंख बंद करोगे, तो या तो विचारों का ही ऊहापोह मचा रहेगा। Jain Education international For PrivateLPersonal uie only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 या अगर कभी क्षण भर को विचारों से छुटकारा मिला तो अंधेरी रात, अमावस! घबड़ाकर तम बाहर निकल आओगे। जिस व्यक्ति की कृष्ण लेश्या गिरती है, उसे भीतर नीले आकाश का दर्शन होगा। बड़ा शान्त! जैसे कोई गहरी नदी हो और नीली मालूम पड़ती हो। फिर जो उसके भी पार जाएगा, उसके लिए महावीर कहते हैं, कापोत लेश्या । तब और भी हलका नीलापन; गहरा नहीं ऐसे क्रमशः पर्ते टूटती जाती हैं। 'तेजोलेश्या, पद्मलेश्य, शुक्ल लेश्या, इनमें पहली तीन अशुभ हैं। इनके कारण जीवन विभिन्न दुर्गतियों में उत्पन्न होता 'है।' यह भी समझ लेना जरूरी है। क्योंकि इस सूत्र की व्याख्या बड़ी अन्यथा की जाती रही है। वह व्याख्या ठीक है, लेकिन बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है। व्याख्या की जाती रही है कि इन तीन लेश्याओं में जो उलझा हुआ है, वह नर्क जाएगा; दुर्गति में पड़ेगा। पशु-पक्षी हो जाएगा कीड़ा -मकोड़ा हो जाएगा। यह व्याख्या गलत नहीं है, लेकिन बहुत महत्वूर्ण भी नहीं है। असली व्याख्या : जो व्यक्ति इन लेश्याओं में उलझेगा उसकी बड़ी दुर्गति होती है। वह कभी भविष्य में, किसी दूसरे जन्म में कीड़ा-मकोड़ा बनेगा, ऐसा नहीं है। वह यहीं कीड़ा-मकोड़ा बन जाता है। कीड़ा-मकोड़ा बनने के लिए कीड़े-मकोड़े की देह लेना जरूरी नहीं है। कभी कोई महावीर, कभी कोई बुद्ध वस्तुतः मनुष्य होता है - जब मन का बंदर नहीं रह जाता। अभी तुम देखो, मन के बंदर को तुम मुंह बिचकाते, इस झाड़ से उस झाड़ पर छलांग लगाते, इस शाखा से उस शाखा पर डोलते हुए पाओगे। तुम बंदर को भी इतना बेचैन न पाओगे, जितना तुम मन को बेचैन पाओगे। डार्विन तो बड़ी बाहर की शोध करके इस नतीजे पर पहुंचा; अगर भीतर जरा उसने झांका होता तो इतनी शोध बाहर की करने की जरूरत न थी। आदमी बंदर से निश्चित आया है। आदमी भी बंदर है। और इस भीतर के बंदर से छुटकारा जब तक न पाया जाए, तब तक मनुष्य का जन्म नहीं होता। मनुष्य की देह एक बात है; मनुष्य का चित्त बड़ी और बात है। महावीर का सूत्र है : "कृष्ण, नील और कापोत, ये तीनों ही अधर्म या अशुभ लेश्याएं हैं। इनके कारण जीव बड़ी दुर्गतियों में Jain Education Inter 11. उत्पन्न होता है।' और वैज्ञानिक अद्भुत आश्चर्यजनक निष्कर्षो पर पहुंचे है 'पीत, पद्म, शुक्ल, ये तीनों धर्म या शुभ लेश्याएं हैं। इनके कि एक वृक्ष को काटो तो सारे वृक्ष बगीचे के कांप जाते हैं, पीड़ित कारण जीव विविध सुगतियों में उत्पन्न होता है।' हो जाते हैं। और एक वृक्ष को पानी दो तो बाकी वृक्ष भी प्रसन्न हो' जाते हैं जैसे एक समुदाय है। 'पहले ने सोचा पेड़ की जड़मूल को काटकर, दूसरे ने कहा केवल स्कन्ध ही काटा जाए तीसरे ने कहा, इतने की क्या जरूरत? शाखा को तोड़ने से चल जाएगा। चौथे ने कहा, उपशाखा ही तोड़ना काफी है। पांचवें ने कहा, पागल हुए हो? शाखा, उपशाखा स्कन्ध, वृक्ष को करना क्या है ? फल ही तोड़ लिए जाएं।' भूख लगी है, फल की जरूरत है। भूख के लिए फल चाहिए। शाखाएं, प्रशाखाएं क्यों तोड़ी जाएं ? 'छठे ने कहा, 'बैठे; पके फल हैं, गिरेंगे। तोड़ने की जरूरत नहीं है।' छीनना भी क्या ? तो छटे ने कहा, हम बैठ जाएं। पके फल लगे हैं, हवा के झोंके आएंगे। फिर वृक्ष को भी तो दया होगी। फिर वृक्ष भी तो समझेगा कि हम भूखे हैं। फिर वृक्ष भी तो चाहता है कि कोई उसके फलों को चखे और प्रसन्न हो, आनंदित हो नहीं तो वृक्ष की भी प्रसन्नता कहाँ ? वृक्ष के पास जाओ कुल्हाड़ी लेकर, तो तुम्हें कुल्हाड़ी लेकर आता देखकर वृक्ष कांप जाता है। अगर तुम मारने के विचार से जा रहे हो, वृक्ष को काटने के विचार से जा रहे हो तो बहुत भयभीत हो जाता है। अब तो यंत्र हैं, जो तार से खबर दे देते हैं। नीचे ग्राफ बन जाता है, कि वृक्ष कांप रहा है, घबड़ा रहा है, बहुत बेचैन है, तुम कुल्हाड़ी लेकर आ रहे हो। लेकिन अगर तुम कुल्हाड़ी लेकर जा रहे हो, और काटने का इरादा नहीं है सिर्फ गुजर रहे हो वहां से तो वृक्ष बिल्कुल नहीं कंपता। वृक्ष के भीतर कोई परेशानी नहीं होती। यह तो बड़ी हैरानी की बात है। इसका मतलब यह हुआ कि तुम्हारे भीतर जो काटने का भाव है, वह वृक्ष को संवादित हो जाता है। फिर जिस आदमी ने वृक्ष काटे हैं पहले, बिना कुल्हाड़ी के भी निकलता है तो वृक्ष कांप जाता है। क्योंकि उसकी दुष्टता जाहिर है। उसकी दुश्मनी जाहिर है। लेकिन जिस आदमी ने कभी वृक्ष नहीं काटे हैं, पानी दिया है पौधों को, जब वह पास आता है तो वृक्ष प्रफुल्लता से भर जाता है। उसके भी ग्राफ बन जाते हैं कि कब वह प्रफुल्ल है, कब वह परेशान है। और महावीर कहते हैं कि ये भी छहों लेश्याएं है छठवीं भी इनके पार वीतराग की अरिहन्त की अवस्था है। उस अरिहन्त की अवस्था में तो कोई पर्दा नहीं रहा। शुभ्र पर्दा भी नहीं रहा। "इन छहों पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म क्रमशः छहों लेश्याएँ के उदाहरण हैं। छटवीं लेश्या को अभी लक्ष्य बनाओ। श्वेत लेश्या को लक्ष्य बनाओ। चांदनी में थोड़े आगे बढ़ो चलो, चांद की थोड़ी यात्रा करें। पूर्णिमा को भीतर उदित होने दो। हिंदू संस्कृति का सारा सार इस सूत्र में है: सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत्। सब सुखी हों, रोगरहित हों, कल्याण को प्राप्त हों। कोई दुख का भागी न हो। यह श्वेत लेश्या में जीने वाले आदमी की दशा है। इसके पार तो कहा नहीं जा सकता। इसके पार तो अवर्णनीय है। अनिर्वचनीय है। अनिर्वचनीय का लोक है। इसके पार तो शब्द नहीं जाते। छठवीं तक शब्द जाते हैं, इसलिए छठवें तक महावीर ने बात कर दी यद्यपि जो छठवें तक पहुंच जाता है, उसे सातवें तक जाने में कठिनाई नहीं होती। जिसने अंधेरी रातों के पर्दे उठा दिए, वह फिर आखिरी झोंके से पारदर्शी सफेद पर्दे को उठाने में क्या अड़चन पाएगा? वह कहेगा, अब अंधेरा भी हटा दिया, अब प्रकाश भी हटा देते हैं। अब तो हम जो हैं, जैसा है, उसे वैसा ही देख लेना चाहते हैं - निपट नग्न, उसकी सहज स्वभाव की अवस्था में। महावीर की व्याख्या में ये छह पर्दे तुम हटा दो, ये छह चक्र तुम तोड़ दो और तुम्हारी ऊर्जा सातवें चक्र में प्रविष्ट हो जाए तो तुम्हारे भीतर उस कमल का जन्म होगा, जो जल में रहकर भी जल को छूता नहीं। -आचार्य रजनीश www.jamelibrary.pc Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाति की सबसे श्रेष्ठ एवं अनुपम आध्यात्मिक निधि है। वेदों में स्तुति की गई है। योगी नित्य इनकी पूजा करते हैं। जैन योग साधना के मार्ग अनन्त हैं। भक्ति-योग, ज्ञानयोग, परम्परानसार योग के आद्य प्रवर्तक प्रथम तीर्थकर भगवान कर्मयोग, राजयोग, हठयोग, ध्यानयोग, उपयोग, मन्त्रयोग, ऋषभदेव थे। महापुराण में कहा गया है कि ऋषभदेव के अनेक तपयोग, लययोग आदि योग की अनेक शाखाएं हैं। बस्ततः ये नामों में एक नाम हिरण्यगर्भ है। वैदिक पुराणों के अनुसार सभी शाखाएँ एक दूसरे की पूरक हैं। विचार करने पर ज्ञात होता भगवान ऋषभदेव भगवान विष्णु के पांचवे परन्तु प्रथम मानव है कि प्रत्येक योग में भक्ति, ज्ञान, कर्म, ध्यान आदि साधनों का अवतार थे। श्रीमद्भागवत में एक स्थल पर भगवान ऋषभदेवों न्यूनाधिक उपयोग अवश्य होता है। परन्तु साधक योगीश्वरः" कहकर भगवान ऋषभदेव की प्रथम योगीश्वर के अज्ञानान्धकार से वशीभूत होने के कारण इनके गूढ़ रहस्यों को रूप में स्तुति की गई है और अन्यत्र हिरण्यगर्भको योगविद्या का समझ नहीं पाता। यही कारण है कि किसी एक मार्ग का अनुसरण आद्यप्रवर्तककहा गया है। जैन वाङ्मय में भीभगवान ऋषभदेवकी करने वाले साधक अपने आपको दसरों से पृथक समझने लगते हिरण्यगर्भ के रूप में स्तुति की गई है। उक्त विचारों के आधार हैं। यथा-भक्तिमार्गी लोगों का हठयोगियों से अथवा ज्ञानमार्गी पर यह कहा जा सकता है कि हिरण्यगर्भ और ऋषभदेव दोनों एक लोगों का कर्मयोगियों से विरोध स्पष्ट दिखाई देता है जबकि ही व्यक्ति के दो नाम हैं जो योग के आद्य प्रवर्तक हैं। ज्ञान, भक्ति, कर्म, जप, तप, ध्यान, ज्ञान, - इन सबकी समष्टि सिन्ध घाटी की सभ्यता से प्राप्त ध्यानस्थ योगी की ही सम्पूर्ण योग हैं। प्रत्येक की स्थिति-भेद के कारण इनके नग्नावस्था और (पद्मासन) में प्राप्त मूर्ति को देखकर साधना-मार्ग में अन्तर दिखाई पड़ता है। पुरातत्ववेता यह अनुमान लगाते हैं कि उक्त मूर्ति प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की है। चूंकि भगवान शिव का स्वरूप भी भारतीय संस्कृति तीन प्रमुख धाराओं में प्रवाहित रही है- दिगम्बर (नग्न) था इसलिए कुछ विद्वान उक्त मूर्ति को भगवान वैदिक, बौद्ध एवं जैन। इन सबकी चिन्तन-पद्धति एवं मौलिक शिव की मूर्ति बताते हैं। उनके इस तथ्य से ऋषभदेव और शिव विचारधारा में भिन्नता होने से इनकी मोक्ष-प्रापक की एकाकार की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट हुआ। इसी साधना-पद्धतियों में जो पार्थक्य दिखाई देता है उनकी ओर ध्यान आधार परथी रामचन्द्र दीक्षितार ने ई.3000 वर्ष पूर्वतथा उससे आकर्षित करने के लिए योग के साथ वैदिक, बौद्ध, जैन तथा अन्य भी प्राचीन भारतवर्ष में प्रचलित योग-साधना को पाशुपत सम्प्रदायों का नाम जोड़ा गया है। परिणामस्वरूप वैदिक योग, योग-साधना का प्रारम्भिक रूप माना है। उपर्युक्त मूर्ति चूंकि बौद्ध योग अथवा जैन योग आदि नाम प्रचलित हुए। योग का पद्मासन में उत्कीर्ण हैं। इसलिए कुछ विद्वान हठयोग का प्रारम्भ -अरुणा आनन्द किसी धर्म, सम्प्रदाय अथवा जाति विशेष से कोई सम्बन्ध नहीं भी प्रागैतिहासिक काल से स्वीकार करते हैं। हठयोग में है। "योग" एक व्यापक शब्द है जिसमें सभी साधना-पद्धतियाँ "आदिनाथ" को हठयोग का आद्यप्रवर्तक मानते हुए उनकी स्तुति भारतीय दर्शन का मुख्य उद्देश्य मानव जीवन को अभाव समाहित हैं। की गई है। आदिनाथ "ऋषभदेव" अथवा "हिरण्यगर्भ का ही एवं सांसारिक कष्टों से मुक्ति दिलाकर शाश्वत एवं चिरन्तन योग परम्परा का प्रारम्भ कब, कहां, और किसके द्वारा ऊपर नाम है। भिन्न-भिन्न साम्प्रदायिकों ने अपने-अपने आनन्द की प्राप्ति है। सभ्यता के आदिकाल से ही मानव ने हुआ? इसके सम्बन्ध में प्रामाणिक रूप से कछ कहना सम्भव मतानुसार अपने इष्टदेव को योग का आद्य प्रवर्तक मान लिया। सांसारिक विषय-वासनाओं से अपने आपको आबद्ध पाते हुए भी नहीं। योग के ऐतिहासिक परिपेक्ष्य पर विचार करने से इतना उससे निकलने का प्रयास जारी रखा है। प्राचीन कालीन ऋषियों कहा जा सकता है कि आत्म-विकास हेतु आध्यात्मिक साधना के प्राचीन काल में किसी भी विद्या का ग्रहण,धारण एवं एवं आधुनिक चिन्तकों ने समय-समय पर विविध उपायों का रूप में योग" का प्रचलन प्रागैतिहासिक काल से चला आ रहा पठन-पाठन गुरु-शिष्य-परम्परा द्वारा होता था। इसलिए अन्वेषण कर स्वानुभव द्वारा तत्वसाक्षात्कार कराने वाली है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के अवशेषों से प्राप्त ध्यानस्थ योगी ऋषि-परम्परा द्वारा ही इसका प्रचार हुआ। लेखन-परम्परा का व्यावहारिक पद्धतियों को धरातल पर उतारने का सफल प्रयास का चित्र उक्त तथ्य का पोषक है। अभाव होने से अन्य विद्याओं के समान योग विद्या भी शास्त्रबद्ध किया है। उनके द्वारा आत्म-विकास की पूर्णता और उससे प्राप्त योग के आद्य प्रवर्तक कौन थे. इस सम्बन्ध में वैदिक परम्परा न हो सकी। परिणामस्वरूप आज इसका क्रमिक व प्रामाणिक होने वाले प्रज्ञा-प्रकर्षजन्य पूर्णबोध की प्राप्ति हेतु अन्वेषित 'हिरण्यगर्भ' को योग का आद्य वक्ता मानती है। । 'महाभारत' इतिहास अनुपलब्ध है। उपायों में 'योग' एक विशिष्ट एवं अन्यतम उपाय है। 'योग' आर्य में प्राप्त उल्लेखानुसार यह द्युतिमान हिरण्यगर्भ वही हैं जिनकी योग विषयक अनेक महत्वपूर्ण प्रसंग, वेद, उपनिषद्, प्रमुख जैनाचार्यों की योगदर्शन को देन Jain Education international For Prve Lemonale Only www.janelibrary.com Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत, गीता, योगवासिष्ठ आदि अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होते ग्रहण किया है, प्राचीन जैन वाङ्मय में, आगम-साहित्य में वह सर्वप्रथम व सर्वाग्रणी आचार्य हरिभद्र हैं, जिन्होंने पातंजल हैं। परन्तु योग को व्यवस्थित एवं सम्यक् रूप प्रदान करने का श्रेय उस अर्थ में प्रचलित नहीं था। जैनागमों "योग" शब्द कायिक, योगसूत्र तथा उसकी योग-साधनासे सम्बन्ध सभी पक्षों को ध्यान सर्वप्रथम महर्षि पतन्जलि (ईसापूर्व द्वितीय शांती) को प्राप्त हुआ वाचिक एवं मानसिक प्रवृत्तियों के अर्थ में स्वीकृत है। जहां तक में रखते हुए उसी के समकक्ष जैन योग-साधना का विविध है। उन्होंने अपनी साधना-पद्धति का मूल अपनी परम्परा में ही मोक्ष-प्राप्ति का सम्बन्ध है वह दैहिक और भौतिक आसक्ति के परिप्रेक्षों में व्यवस्थित एवंसमन्वयात्मक रूप स्वरूप प्रस्तुत स्थापित करते हुए कतिपय संशोधन कर विभिन्न उच्छेद से ही संभव है। इसलिए भारत में विशेषतः जैन परम्परा किया। साधना-पद्धतियों को सूत्रबद्ध कर 'योगशास्त्र' का रूप प्रदान में, "तप' को मोक्षोपयोगी साधना के रूप में स्वीकार किया गया। आचार्य हरिभद्र (8वीं शती) के समय में देश में योग-साधना किया जो "पातंजल योग दर्शन' के नाम से प्रसिद्ध है। आगे चलकर 'ध्यान' रूप आभ्यन्तर तप की श्रेष्ठता स्वीकार विविध रूपों में प्रचलित थी। जहां एक ओर बौद्धों द्वारा मन्त्रयान, महर्षि पतञ्जलि कत योगग्रन्थ के प्रथम सूत्र करने पर ध्यान व समाधि की प्रक्रिया को योग" के अर्थ में तन्त्रयान और बजयान आदि की तीव्रता से प्रचार किया जा रहा था 'अथयोगानुशासनम' के आधार पर वाचस्पति मिश्र तथा मान्यता दी जाने लगी। जैनागमों में भी योग-साधना के अर्थ में वहीं दूसरी ओर सिद्धों ने "सिद्धयोग" का प्रचार करना आरम्भ विज्ञानभिक्ष आदि टीकाकार यह स्वीकार करते हैं कि पतंजलि "ध्यान" ही अधिक प्रयुक्त हुआ है। जैन परम्परा में ज्ञानयोग, कर दिया था। सामान्य जनता न तो मन्त्रों, विशेषकर वाममार्ग के योग के प्रवर्तक नहीं थे बल्कि एक संग्रहकर्ता थे। उनका मत है कि क्रियायोग एवं ध्यानयोग का सुन्दर समन्वय दृष्टिगोचर होता है, रहस्य को समझ पाने में समर्थ थी और नहीं सिद्धों के "सिद्धयोग" 'पातंजलि योग दर्शन' का विकास "हैरण्यगर्भशास्त्र" से हुआ है जो अन्यत्र दुर्लभ है। भक्ति को भी जैन-साधना में यथोचित से प्रभावित हो सकी थी। परिणामस्वरूप उनमें दुराचार व जो दभाग्य से अनपलब्ध है। पतंजलि कृत योग सूत्र में स्थान प्राप्त किया गया है। जैनतीर्थकर व प्राचीन ऋषि-मुनियों व्याभिचार फैलने लगा तत्कालीन जैन समाज की धार्मिक स्थिति चित्तवृत्ति-निरोध-हेतु वर्णित ईश्वर-प्राणिधान (भक्तियोग) की साधना में उक्त साधना के प्रयोगात्मक पक्ष का दर्शन किया भी अच्छी न थी। जैन परम्परा में जहां एक ओर चैत्यवास प्राणायाम (हठयोग) विषयवती प्रवृत्ति (तन्त्रयोग), विशोका जा सकता है। विकसित हो चुका था वहीं स्वयं को श्रमण अथवा त्यागी कहने प्रवृत्ति (पंचशिख का सांख्य योग), वीतराग विषयता (जैनों का यद्यपि जैनागमों में यत्र-तत्र ध्यान विषयक प्रचुर-सामग्री वाले वर्ग ने मन्दिर-निर्माण, प्रतिष्ठा, जिन पूजा आदि बाह्य वैराग्य) स्वप्न आदि का अवलम्बन (बौद्धों का ध्यान योग) आदि उपलब्ध होती है किन्तु उस पर व्यवस्थित व सर्वांगीण जैन क्रिया-काण्डों को अधिक महत्व देना प्रारम्भ कर दिया था। जिन विभिन्न साधना-पद्धतियां पतंजलि के पूर्ववतीं प्रचलित होने का योग-साधना पद्धति का भवन खड़ा नहीं किया जा सकता। क्योंकि प्रतिमा और जिन-मन्दिर तथाकथित श्रमणों की ध्यानभूमि या प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। पंजलि ने पूर्ववर्ती इन योग-प्रणालियों को प्राचीन जैन-परम्परा में "पातंजल योग सूत्र" की तरह साधनाभूमि न बनकर योग-भूमि बन रहे थे। साम्प्रदायिक केवल संकलित कर योग का समन्वित रूप जनता के समक्ष रखने योग-साधना का व्यवस्थित ग्रन्थ लिखा ही नहीं गया था। योग मतभेद वर्तमान युग की भांति चरमसीमा पर था। स्वयं आचार्य का प्रयास किया है। वर्तमान में योगदर्शन से तात्पर्य पतंजलि के (अध्यात्म-साधना का आधार "आचार"है। क्योंकि आचार से हरि (अध्यात्म-साधना) का आधार "आचार" है। क्योंकि आचार से हरिभद्र द्वारा जैन धर्म अंगीकार करने से पूर्व जिन-प्रतिमा का सूत्रों से ही माना जाता है। उक्त ग्रन्थ में दार्शनिक पक्ष (केबल ही योगी के संयम में वृद्धि होती है तथा समता का विकास होता है। उपहास करना, उनके शिष्यों का गुप्त रूप से बौद्ध मठों में जाकर तत्व-चिन्तन) की अपेक्षा साधना को आरै आत्मिक उन्नति के अतः प्राचीन ग्रन्थों में जैन योग-साधना का प्रतिपादन शिक्षा ग्रहण करना तथा रहस्य खुलने पर बौद्धाचार्यों द्वारा उनकी क्रमिक मार्ग को प्रधान रूप से प्रतिपादित किया गया है। आचार-शास्त्र (चारित्र) के रूप में हुआ है। बाद में गृहस्थ हत्या कराया जाना ये सभी घटनाएं ब्राह्मण, बौद्ध एंव जैन जहां तक जैन परम्परा का सम्बन्ध है, इसमें सैद्धांतिक पक्ष साधक के "आचार" को गौण मान कर मुनिचर्चा पर अधिक बल परम्पराओं में विद्यमान पारस्परिक द्वेष एवं घृणाभाव, की स्पष्ट की अपेक्षा आचार पक्ष को अधिक महत्व दिया गया है। जैन दिया जाने लगा और मुनिचर्या के प्रमुख अंग "वैराग्य" व झांकी प्रस्तुत करती हैं। उस युग में धार्मिक क्षेत्र की भांति तीर्थंकरों के जो उपदेश हैं, वे साधनामय जीवन में आगे बढ़ते हुए "ध्यान' की विशेष व्याख्या करनेवाले अध्यात्मपरक ग्रन्थों का दार्शनिक क्षेत्र भी खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति से अछूता न था। उच्चतम स्थिति पर तत्वों का साक्षात्कार करने के अनन्तर ही प्रणयन प्रारम्भ हुआ। ऐसी विषम परिस्थितियों का तत्कालीन साहित्य पर प्रभाव दिए गए हैं। इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि प्राचीन भारतीय ईसा की 7वीं शती तक जैन योग साहित्य में आगम-शता पड़ना स्वाभाविक था। यही कारण है कि इस युग में तुलनात्मक साधकों ने संकीर्णताकी सदा उपेक्षा की है और उदारपूर्वक विविध का ही प्राधान्य रहा। आगम युग से लेकर वर्तमान युग तक आगम अध्ययन की प्रवृत्ति भी प्रारम्भ हो गई थी। वैदिक एवं बौद्ध योग सम्प्रदायों में प्रचलित योग-क्षेमकारी सिद्धान्तों और साधना के साहित्य पर अनेक विद्वानों ने अपनी लेखनी चलाई, किन्तु जैन के साथ समन्वयात्मक सम्बन्ध रखना तथा उनके दृष्टिकोण को मार्गों को बिना किसी संकोच के स्वीकार करते हुए विचारों का योग-साधना केव्यवस्थित व सर्वांगीण स्वरूप को प्रस्तुत करने समक्ष रखकर अपने वैशिष्ट्य का उपस्थापन करना इस युग के आदान-प्रदान किया है। अतः स्वाभाविक है कि वर्णन-शैली में वाले स्वतन्त्र व मौलिक ग्रन्थ लिखने की परम्परा का सूत्रपात जैनाचार्यों की प्रमुख विशेषता थी। इतना ही नहीं, उनके भिन्नता होने पर भी "पातंजल योग" एवं "जैन योग" की लगभग 8-9वीं शती के आस-पास हुआ। सम्भवतः उक्त प्रयास पारिभाषिक शब्दों के समानान्तर शब्दों का अथवा उनके साधना-पद्धतियों में समानता या अविरोध हो। पातजल योग-सूत्र, तत्सम्बद्ध साहित्य व उसकी विचारधारा की पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग भी इस युग के जैनसाहित्य में महर्षि पतंजलि ने "योग" शब्द को जिस समाधिपरक अर्थ में लोकप्रियता से प्रभावित होकर किया गया हो। उक्त ग्रन्थकारों में उपलब्ध होता है। POP Posle Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा समन्वयवादी दृष्टिकोण की पक्षधर रही है और की सिद्धि के लिए ही हठयोग का उपदेश दिया गया है। उसके के अनुरूप जैनतत्वज्ञान और जैन आचार के समन्वित रूप के अनेकान्तवाद उसका मूल सिद्धान्त है। अतः यह कहना अनुचित उक्त कथन से सिद्ध होता है कि राजयोग और हठयोग एक दूसरे आधार पर जैनयोग का स्वतन्त्र एवं विशिष्ट स्वरूप प्रस्तुत करते न होगा कि समन्वयात्मक, उदार एवं व्यक्ति दृष्टिकोण आचार्य के पूरक हैं। हरिभद्र को जैन परम्परा की अनेकान्त दृष्टि से उत्तराधिकार में 11वीं शती में राजयोग (अष्टांगयोग), हठयोग और तन्त्रयोग आचार्य हरिभद्र की समन्वयात्मक शैली का मिले थे। परन्तु उन्होंने जिस सूक्ष्मता एवं सूझबूझ से इन गुणों को आदि योग प्रणालियों का प्राधान्य था। स्वाभाविक है कि इस युग अनुकरणकरनेवाले आचार्यों में प्रमुख स्थान उपाध्याय अपने जीवन में आत्मसात किया उसका उदाहरण जैन अथवा के आचार्यों पर इस प्रक्रिया का प्रभाव पड़ा हो। दिगम्बर जैन यशोविजय (18वीं शती) का है। उनके समय में योग-प्रणालियों जेनेतर किसी भी परम्परा में नहीं मिलता। परम्परा के प्रतिनिधि आचार्य शुभचन्द्र (11वीं शती) के समक्ष की विविधता में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि हो रही थी तथा उन्होंने प्रत्येक भारतीय दर्शन को परमसत्य का अंश पतञ्जलि का योगसूत्र, राजयोग, हठयोग, तन्त्रयोग तथा साम्प्रदायिक भेद भी चरम सीमा को छू रहे थे। दर्शन एवं चिन्तन बताकर उन सभी दर्शनों की परस्पर दूरी को मिटाने का प्रयास हारिभद्रीय योग साहित्य उपलब्ध था। अतः उन्होंने आचार्य के क्षेत्र में भीपरस्पर खंडन-मंडन की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही थी। किया है। उनके अभिमतानुसार भिन्न-भिन्न शब्दों में ग्रथित हरिभद्र के समन्वयात्मक दृष्टिकोण के अनुसार जैनयोग, इन विषम परिस्थितियों में उपाध्याय यशोविजय ने आचार्य सभी ग्रन्थ एक ही लक्ष्य व परमतत्वका प्रतिपादन करते हैं। पातंजल योग, हठयोग एवं तन्त्रयोग का समन्वयात्मक एवं हरिभद्र द्वारा प्रवर्तित चिन्तन-परम्परा को आगे बढ़ाते हुए जैन इसलिए सत्य के गवेषक और साधना के पथिक को पूर्वाग्रहों से व्यापक स्वरूप जनता के समक्ष रखा। उन्होंने अपने एकमात्र योग साधना का व्यापक व विस्तृत निरूपण किया। उनके द्वारा मुक्त होकर विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा करनी चाहिए तथा ग्रन्थ "ज्ञानार्णव'' में पातञ्जलयोग में निर्दिष्ट आठ योगांगों के प्रसूत योग-साहित्य मौलिक और आगमिक परम्परा से सम्बद्ध उनमें से जो युक्तिसंगत लगे उसे स्वीकार कर लेना चाहिये। क्रमानुसार श्रमणाचार का जैन शैली के अनुरूप वर्णन किया है। होने के साथ-साथ तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक दृष्टिकोण वाले अपनी इस उदार समन्वयात्मक दृष्टि के आधार पर उन्होंने जैन उनके उक्त निरूपण में आसन तथा प्राणायाम से सम्बन्धित अध्येताओं के लिए भी नवीनतम एवं उपयोगी सामग्री प्रस्तुत योग के क्षेत्र में उद्भावक के रूप में प्रवेश किया। उन्होंने अपने अनेक महत्वपूर्ण विषयों का प्रतिपादन हुआ है। चूंकि मुनिचर्या में करता है। जिस प्रकार सूत्र शैली में निबद्ध महर्षि पतञ्जलि कृत पूर्ववर्ती योग विषयक विचारों में प्रचलित आगम शैली की ध्यान को विशेष स्थान प्राप्त है इसलिए "ज्ञानार्णव' में भी ध्यान योगसूत्रों के गढ़ अर्थों को समझने के लिए महर्षि व्यास, भोज, प्रधानता को तत्कालीन परिस्थतियों एवं लोकरुचि के अनुरूप विषयक सामग्री प्रचर मात्रा में वर्णित है। आचार्य शुभचन्द्र ने वाचस्पति मिथ, विज्ञान-भिक्ष आदि अनेक आचार्यों ने भाष्य एवं परिवर्तित किया तथा जैन योग का एक अभिनव, विविधलक्षी एवं हठयोग एवं तन्त्रयोग में प्रचलित पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और टीकाओं की रचना की, उसी प्रकार उपाध्याय यशोविजय ने भी समन्वित स्वरूप जनता के समक्ष रखा ताकि लोग विविध रूपातीत ध्यान का विस्तृत व स्पष्ट विवेचन किया है। पंतजलि के योगसूत्र एवं आचार्य हरिभद्र के योग-ग्रन्थों को योग-प्रणालियों के भ्रमजाल में फंसकर दिग्भ्रमित न हो सके। समझाने के लिए अनेक व्याख्यापरक योग एवं अध्यात्मक ग्रन्थों इतना ही नहीं,उन्होंने अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा, चिन्तन पद्धति । आचार्य शुभचन्द्र कृत "ज्ञानार्णव" की विषय शैली श्वेताम्बर जैन परम्परा के प्रतिनिधि आचार्य हेमचन्द्र (12वीं शती) कत की रचना की।इनके योग-ग्रन्थों में सर्वाधिक वैशिष्ट्य यह है कि एवम् अनुभूति की अप्रतिम आभा के अनेकविद्य योगग्रन्थों की उनमें स्पष्ट शब्दों में हठयोग का निषेध किया गया है और रचना कर जैन योग साहित्य में अभिनव यग की स्थापना की। योगशास्त्र में भी द्रष्टव्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य चित्तकी बाह्याभिमुखी चित्तवृत्तियों को अन्तर्मुखी करने के हेमचन्द्र ने आचार्य शुभचन्द्र के विशालकाय "ज्ञानार्णव" में ही। आचार्य हरिभद्र ने जो सरणि प्रस्तुत की उसका परवर्ती जैनाचार्यों प्रयासों पर अधिक जोर दिया गयाहै। ने सोत्साह अनुकरण किया। कुछ मूल परिवर्तन कर उसका संक्षिप्त परिष्कृत एवं पारिमार्जित रूप उपस्थित किया है। उनके योगशास्त्र पर भी पातञ्जल योग, सपूर्ण रूप से विचार करने पर प्रतीत होता है कि उक्त चारों 10वीं शती में कुछ परिमार्जित एवं विचारवान् योगियों ने हठयोग, तन्त्रयोग तथा जैनयोग का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित जैनाचार्य जैनयोग के आधार-स्तम्भ हैं। इन सबकी सर्वाधिक "सिद्धयोग" में त्रुटियां देखकर उसके विरुद्ध नाथ सम्प्रदाय की होता है। यहां वह ध्यातव्य है कि आचार्य शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इन चारों आचार्यों ने अपने-अपने सृष्टि की। नाथ-सम्प्रदाय के प्रथम रत्न गोरखनाथ माने जाते हैं जहां साधु की आकार भूमि पर आधारित है वहां हेमचन्द्र कृत युग के प्रतिनिधि बनकर तत्कालीन योग-साधना का ऐसा जिन्होंने सारे भारत में परिमार्जित, शुद्ध एवं सात्विक हठयोग योगशास्त्र गृहस्थ जीवन की आधार शिला पर प्रतिष्ठित है और समन्वित व व्यापक स्वरूप प्रस्तुत किया जो सामान्य जनता को का प्रचार किया और हठयोग विषयक अनेक ग्रन्थों की रचना की। उसमें गृहस्थ व साधु दोनों के आचार का निरूपण हुआ है। दोनों दिग्भ्रमित होने से बचानेतथा साम्प्रदायिकभेद-भाव समाप्त करने हठयोग का उद्देश्य शारीरिक तथा मानसिक विकास करना ही आचार्यों के योग-ग्रन्थों को देखकरआश्चर्य होता है कि पूर्ववर्ती में उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करता है। अन्य आचार्य इन चारों का है। यद्यपि इसमें आचार-विचार की शुद्धि पर भी बल दिया गया जैन-जैनेतर योग की वर्णन शैली एवं भाषा शैली का अनुकरण किसी न किसी रूप में अनुगमन करते प्रतीत होते हैं। अनेक है तथापि आसन, मुद्रा एवं प्राणायाम द्वारा शरीर की आन्तरिक करने वाले उक्त दोनों जैनाचार्यों में अपने पूर्ववर्ती जैनाचार्य आचार्य इन्हीं चारों आचार्यों द्वारा उपस्थित विचारधारा के शुद्धि करके प्राण को सूक्ष्म बनाकर चित्तवृत्ति का निरोध करना हरिभद्र की योगविषयक अभिनव शैली का कहीं उल्लेख नहीं दृष्टिगोचर होते हैं। इसलिए जैन व जैनेतर समाज में इन्हें समाज इसका मुख्य लक्ष्य है। स्वात्माराम जी के अनुसार केवल राजयोग किया। दोनों के योग ग्रन्थ केवल हरिभद्र की समन्वयात्मक शैली प्रसिद्धि प्राप्त हुई है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-चित्त की शुद्धता अनुराधा, दिल्ली श्री बल्लभ स्मारक से हस्तिनापुर तीर्थ तक जो छरीपालित मानसिक विचार उच्च होना चाहिए। हमारे मन में इतनी शक्ति संघ यात्रा हुई थी उसकी साक्षी मैं भी थी। घर आने के पश्चात् है कि जीवन में यह सबसे बड़ा मित्र और शत्रु भी हो सकता है। अचानक मेरे मन-मस्तिष्क में यह चिन्तन शरू हुआ मैंने और क्षण भर में अच्छे विचारों से एवं अच्छे भावों से यह मन हमें मुक्ति दसरे भाई-बहनों ने इस पदयात्रा संघ में शामिल होने के लिए घर के प्रासार में ले जाकर शोभायमान कर सकता है। और दूसरे ही के पामार में ले जाकर प्रोभायमान कर ग की सुख-सुविधा छोड़ी वे सब पैदल चले। लू का सामना किया, क्षण यह मन हमें बुरे विचारों से पतन के गहरे गर्त में धकेल देता है। अतः मोक्ष की प्राप्ति के लिए अरोग्य तन के साथ ही, आरोग्य क्या सीखा और हमारी उपलब्धि क्या रही जो चिरस्थायी एवं मन का होना नितान्त आवश्यक है। आरोग्य मन में आरोग्य आत्मोत्थान की उन्नति को छूने वाली हो। क्या मैं व्यक्तिगत रूप आत्मा का निवास होता है। आरोग्य आत्मा का अभिप्राय है जो से वहीं की वहीं तो नहीं खड़ी हूँ। क्या हमारा नैतिक स्तर कुछ आत्मा राग द्वेष मोह-माया आदि सभी विकारों से विमुक्त हो। ऊँचे उठा? क्या हमने जीवन को रंचमात्र भी धर्ममय बनाया परन्तु अब हमारे सामने प्रश्न है कि इन सभी बातों का ज्ञान क्योंकि धर्म केवल पैदल चलने से नहीं है। धर्म तो जीवन जीने की कैसे हो। हम किस प्रकार अपने चरम लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। कला है। यदि इन सभी धार्मिक क्रियाकांडों के अभ्यास से जीवन आरोग्य तन के लिये संतुलित आहार क्या है?आरोग्यमन के लिए मूल्य ऊँचे नहीं उठते। हमारा लोक व्यवहार नहीं सुधारता तथा विचारों पर अंकुश कैसे रखा जा सकता है। और आरोग्य आत्मा हम अपने लिये और दूसरो के लिए मंगलमय जीवन नहीं जी के लिए कषायों से कैसे मुक्त हो सकते हैं। क्योंकि आज के भौतिक सकते तो ऐसा धर्म और धार्मिक क्रियाकांड व्यर्थ है। धर्म तो एक युग में इन सभी बातों के लिए किसी व्यक्ति के पास समय नहीं हैं। आदर्श जीवन की शैली है। सुख से रहने की पावन पद्धति है तथा इसके लिये हमारे साधु एवं साध्वी महाराज सहायक सिद्ध हो शान्ति प्राप्त करने की विद्या है। सकते हैं। आप पूछोगे कि वह कैसे अगर साध-साध्वी मंडल के इसके अतिरिक्त हमें ज्ञात है कि सभी का चरम लक्ष्य मोक्ष श्रावकों को दूसरे व्रतों के साथ-साथ स्वाध्याय करने का नियम प्राप्ति है। मोक्ष प्राप्ति के लिये हमें बाहरी क्रियाकांड में न पड़कर दिलायें तो श्रावकों के ज्ञान में वृद्धि होगी। अगर वे उस ज्ञान पर सम्यक्ज्ञान-दर्शन एवं चरित्र की प्राप्ति करनी है। इसके लिए चिन्तन-मनन करके जीवन में उतारें तो धर्ममय बन सकता है। आरोग्य तन,आरोग्य मन एवं आरोग्य आत्मा की आवश्यकता है। उससे मानव अच्छा इन्सान बन जाता है। आरोग्य तन का तात्पर्य है कि हमारा शरीर स्वस्थ होना चाहिये अन्त में दो पंक्तियाँ लिखती हुई समाप्त करती हूँ। क्योंकि कोई भी काम करने के लिए अच्छे स्वास्थ्य का होना नितान्त आवश्यक है। इसके लिए संतुलित आहार होना चाहिए। कर्मकांड न धर्म हउ धर्म न बाहघाचार। यह कहा भी गया है कि जैसा हम खाते हैं वैसा ही हमारा मन धर्मचित्त की शुद्धता, सेवा करुणा प्यार।। विचार बन जाता है। आरोग्य मन से तात्पर्य है कि हमारा मेरे पास रेडियो सेट है सोफासेट है कैसेट है डीनर सेट है अरे टी.वी. सेट भी है परन्तु हे युवक मेरी एक बात सुन इन सभी सेट के बीच तू स्वयं ही अपसेट है। क्यों? dainEducation internatio www.jainelibrarvor Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Chaturvidh Sangh Monks and Nuns in Jainism The monastic order plays a very important only work of a religious nature but also minimum of changes of clothing. In addition part in Jainism. Whilst society is divided into scholarship of great importance in science, he will possess a couple of pots for food and four groups forming the Chaturvidh Sangha, medicine, mathematics, logic, language and other uses, a walking staff and a soft brush laymen, lay women, monks and nuns, the lay other fields was, and is produced by the (more like a small mop) to dislodge insects life is seen as a lower stage, in a way monks. The tradition continues today. cer- gently from his path. He may have a few other preparatory for the monastic life. Whilst the tainly in the area of religious writing, though necessities, books, writing materials, speclaity have religious duties enjoined upon lay scholarship in Jain religion has developed tacles and the like. One other difference from considerably in recent times. the Buddhist monastic order is the far greater best, lead a life of devotion and religious In Buddhist countries the orange-robed proportion and importance of Jain nuns. observance, it is only when the interests and monk is a familiar sight. Jain monachism Although the writing on the discipline of the distractions of the world are set aside that the mendicants tend to be very largely malediffers from Buddhist in many aspects. Whilst individual can pursue his or her spiritual a Buddhist will often enter the order for a oriented, nuns have always made up a high development to the fullest extent. The proportionof the mendicantorder and take an short period, even as a sort of religious monastic life is hard, demanding the utmost active part in the religious instruction of the finishing school, the career of a Jaih monk or dedication from those who follow it. Whilst, laity. In this, indeed, they may be compared nun begins with the ceremony of renunciaindeed, the ideal of monastic renunciation is with Christian nuns. tion and acceptance of the obligations of the found in many religions, most notably in five great vows, and continues unbroken to Although the mendicant order is seen a Christianity and Buddhism there is probably the end of life. The monastic state is a unitary, it has for very many centuries been no harder religious discipline than that of the permanent commitment and those who leave divided into many stems or groups (gaccha Jainmonksornuns Hence monks and nuns are are few. The discipline of the Jain monastic gana), traditionally 84 in number. These may accorded a very high degree of respect by the life is in most ways harder and stricter than take their names from original geographical Jain Taity. A layman or woman will greet that of the Buddhist Frequent fasting is location, from association with a particular members of the religious order with the very enjoined, as well as other mortifications caste from their founders or from particular greatest deference, and ministering to their involving indifference to all bodily pains and points of doctrine or ritual. The gaccha may deeds is regarded as highly meritorious. The discomfort. The practice of ahimsa, non- be subdivided in different ways, most five greatly respected Beings, Panch Para violence or harmlessness, is governed for the commonly into groups studying under mesthin, saluted in the most widely-used Jain monk or nun by meticulous regulations particular teachers. References to these religious invocation, the Namaskara Mantra, to reduce to the minimum the possibility of divisions of the mendicant order are found include after the enlightened and the liberated harm to the least of living creatures. The around the eighth and ninth centuries AD and souls (arihant and siddha) the monastic monk or nun must be ever vigilant in walking, some of those existing today are undoubtedly leaders (acharya), the monastic teachers sitting, and indeed in every movement or very ancient. Fo (upadhyaya). and fifthly all monks of the action, to see that no minute creature will Gaccha, widespread in Gujarat and Rajasthan, world. suffer. Whilst non-possession is a normal rule is mentioned in an inscription of the late of monasticism in all religions, the monks of eleventh century AD. Some gaccha can trace the Digambarasect of Jainism practise this to the line of succession of their leaders back Throughout the centuries monks have the extreme, renouncing even the use of through quite a long history. The practice of been the scholars and teachers of the Jain clothing (whence the word 'Digambara' solitary religious retreat is known in Jainism faith. Nuns have been much less invoived in meaning 'clothed in the sky') A Svetambara but the Jain monk (or nun) is to be seen as scholarship but have also taken a prominent (white-clothed') monk will dress in three member of a group, attached to his or he) part in expounding the faith to the laity. Not pieces of white cloth and will have the spiritual director or guru. Although study, in Educnon internation For Pre monal the any Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ scholarship and preaching are important ritual act of confession to his or her senior. A only result in the protection of life but also has activities in the mendicant order, the primary Digambara monk takes food in his hand and its effects in the spiritual development of the aim of the monk or nun is the purification of eats it on the spot, standing. It is, of course, individual mendicant. During the rainy seahis or her own soul. To this end all the regarded as a meritorious act for a house- sons (chaturmas) the mendicant will stay in austerities and monastic discipline are direc- holder to provide food for the mendicants. one place so that the harm to the burgeoning ted. In this the Jain monastic life is closer to the afternoon will be filled with a rest, a life of this time, which might be occasioned that of the great Christian contemplative further examination of clothing and neces- by the monk or nun travelling around, is orders like the Carthusian monks or the saries a period of study, or perhaps lecturing minimised. Towns and villages seek mendiCarmelite nuns rather than to that of the to the laity. (There is no equivalent in Jain cants who are particularly respected for their active Christianorders the members of which monasticism to those Christian orders of piety and teaching to stay with them during devote their lives to running schools or monks who support themselves by manual chaturmas and give religious instruction. At hospitals or to social work for the needy and labour, indeed it is very difficult to make other times of the year the monks and nuns distressed. Charitable service to humanity is a comparisons between Jain and Christian travel in groups from one place to another (so virtue and duty of the Jain laity but themendi monasticism Jain monks partake of some of that they do not get attached to a particular cant is seen as a highly deserving object of the characteristics of those learned orders location) always on foot, for the use of any charity, not as the author of charity himself. like the Dominicians, whilst resembling in form of transport is forbidden. (For this The daily routine of the monks and nuns is other ways the hermit orders such as the reason Jain monks, unlike the Buddhists have Carthusians whose life is devoted to prayer not been able to spread their faith overseas). meticulously regulated. The first daily duty of and meditation. In their emphasis on the The greater danger of harm to small creatures the mendicant around sunrise is to examine strictest poverty, and in their lack permanent resulting from the use of wheeled vehicles is his clothing and necessaries carefully to settlement in a fixed monastery they resemble, the main reason for this prohibition. make sure that no small living beings are perhaps, the Franciscans). trapped or harmed. Afterwards he (or she) will The rigours of the mendicant life means go to the temple and bowing before the holy In a country like India, where insect life that relatively few people enter it. This is images, perform an act of mental worship. proliferates lights can be a danger to small particularly true of the Digambaras: the total (The elaborate rituals of bathing the images living beings for the avoidance of ahimsa number of Digambara monks had fallen a few and making offerings to them are performed (harm) monks and nuns use no lights, so they years ago to around 150. Hence some of the by the laity but not by monks or nuns). will retire to sleep early, taking care first to religious functions which in the Svetambara Frequently this will be followed by a lecture to examine the resting place for any tiny sect are carried out by monks, are undertaken the laity. for monks and nuns are the creature which may suffer harm. These among the Digambaras by religious 'ministers instructors and teachers in matters or meticulous rules emphasise the fact that, (the word 'priests' would not be accurate) religious doctrine. The word 'mendicant whilst a certain amount of ahimsa is called bhattarakas. Nowadays, of course, means one who begs, and there are detailed unavoidable for the lay person in ordinary with much greater opportunities for educarules regarding the daily tour to beg food. The daily life (though it will be avoided as far as tion for the laity, there are many distinguished Svetambara mendicant accepts food in a possible), the monk or nun should take lay scholars of Jain religion and practices, but bowl, brings it back to the monastic hall precautions far beyond those possible to the the tradition of monastic scholarship is still (upasraya) or monastery, and eats after a Taity. This constant watchfulness does not strong. धर्मचकचंदना P eny Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 STAND of Latin in Western Europe, indeed there was a task of producing a definitive written collection of serious proposal that Sanskrit should become the the old texts, and it is believed that this collection official language of the Republic of India, updated was the same as the Svetambra canon as it exists doubtless, with modern technical and other today vocabulary. Closely related to Sanskrit were the ancient languages spoken by the general populace The recension of the canon in the fifth century AD marked the end of the use of Ardhamagadhi as of northern India: these are known as Prakrit a language of literary composition and Jain writers languages. The early Buddhist writings are in one thereafter turned to writing in Sanskrit or in the such Prakrit, called Pall. The early Jain scriptures languages which were current by then. Much of are in the Prakrit which Mahavira is presumed to the earlier non.canonical literature of the Jainsis have spoken, Ardhamagadhi was the original in the regional Prakrits: the relationship of these to language from which all others descended, and Ardhamagadhi and to the later languages is too was understood by all the creatures to whom complicated for consideration here. Suffice it to Mahavira preached mention Maharastri, a western from of Prakrit, The earliest religious texts of Jainism, those which is used widely by the Svetambara writers in which make up the accepted canon of the of the the version known by scholars as Jain Maharastri, Svetambaras, were originally transmitted orally and Jain Sauraseni, a dialect from the central and were not written down until many centuries regions, used by Digambara writers. after their compilation. The Svetambara tradition is that the canonical works were preserved in the From around the seventh century AD a literary memory of the monks for many generations, being form of Prakrit developed, Apabhramsa, and Jain handed on by word of mouth in the Jain writers wrote extensively in this language community. There came a time when there was Apabhramsa came to connote the literary form of danger that the holy scriptures would be forgotten. the speech of the provincial cultured classes. By Accordingly a large council of monks was held at the twelfth century AD it had become crystallised Pataliputra (Modern Patna, in Bihar) to collect all as a classical literary language rather than a the scriptures and preserve the authentic text, the spoken varnacular as the various modern northern date of the council at Patliputra cannot be Indian languages,Hindi, Gujarati and others, determined with historical accuracy if it was developed out of Apabhramsa and began gradully indeed, as tradition holds, some 160 vears after to assume their modern forms. Once again Jain Mahavira's nirvana, that would place it in the early writers are found writing in these languages, and, fourth century BC Modern critics, however, are of course. fairly confident that at least parts of the ancient Output of Jain writings in Hindi, Gujarati and texts are of later date. At any rate, tradition holds other modern Indian languages is considerable at that the 12 texts known as the Anga texts were set the present day. However, we must not get the in order at this council. impression that Jain literature was composed The Digambaras do not accept this tradition: solely in the less learned Prakrits and vernacular they believe that the original 12 Anga texts have texts have tongues. The literary language, the language of long been lost and they revere a different collection scholarship par excellence in India, was Sanskrit, of sacred scriptures. Leaving these problems and Jain scholars wrote extensively in this aside, there is no doubt that the texts as they exist language. Sanskrit writings by Jain authors are of today are of very ancient origin. Although oral great importance and by the eighth century AD transmission long remained the norm it is Jain Sanskrit works were being written in both the probable that some texts at least were written North and South of India down by the first century AD. Setting in order, and Collectively the canonical works recognised as preserving the canon was not by any means a short such by the Svetambaras are knwon as Arama simple process two more councils were held at the number of these texts is not quite fixed but is Mathura and at Valabhi (in modern Saurashtra), taken by most as 45 (though the Sthankvasi, the before the final council, also at Valabhi, took on the non-image worshipping sect. recognises only 32) For Pr o use only M EGTART Jain Literature From very early times right up to the present century the scholarly language of India has been Sanskrit. As the language of serious communi- cation it has long occupied a position similar to that Junction n ation Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The oldest texts are the Angas, believed to have been originally 12, but only 11 survive. The word anga means a limbe, that is a part of the canon. The remaining 34 texts are called Angbahya, they are regarded as subsidiary to the Anga Collection. There are 12 Upanga texts which parallel the 12 Angas. Then there are 10 Prakirnas, Six Chedasutras four Mulasutras, and two Chulikasutras. Let us now look at the contents of the Angas. Needless to say, this is only a very sketchy summary. Extensive commentaries have been written by later writers on these texts, described as curni, nijjutti, bhasa, as well as various other explanatory writings. One difficulty is that the names of these scriptures take various different forms, as the title may be given in Sanskrit or Prakrit. Problems of Romanisation of Indian languages add to the complications. Modern critical scholarship. Jain and non-Jain (including the work of European scholars), has done much to elucidate the process of compilation of these texts, without detracting from their religious importance, and has importance, and has shown that they are generally made up of various sections brought into order and put together in many cases a considerable time after they were originally produced. Here, then, are the eleven surviving angas. They are, of course, in the Ardhamagadhi Prakrit, and they were transmitted for many centuries in manuscripts written on palm leaf strips often held together by cords. When paper came into use the same oblong shape was retained, and this indeed, continued, and this, indeed, continued in modern printed editions. Many of these have been translated into European languages, especially German and English, though the translated versions are not always easy to come by. 1. ACARANGA This is certainly one of the oldest texts, though it was not all composed at the same time. The contents are varied, dealing with, amongst other matters, ahimsa, the life of Mahavira, and rules for the conduct of monks. Much incidental detail of life in early India may be found in the text. 2. SUTRAKRTANGA This anga contains much detail on non-Jain philosophical systems. Like other texts it contains a variety of material: the different forms of life are described in one of Karma, respectively evil and good. (12 the section, the hells and their tortures in another. twelfth anga has been lost.) 3. STHANANGA is concerned not with the The next section of the Svetambara canon techings of Mahavira but with a miscellaneous comprises the text know as Upangas. Although collection of matters arranged in categories. these, like the Angas are 12 in number, there is no correspondence between the two sets of texts. As 4. SAMAVAYANGA (probably one of the latest) with the Angas, numerous commentaries on the is similar. Upangas have been written by Jain scholars 5. VYAKHYAPRAJNAPTI The most important through the centuries. anga, this gives a wide-ranging survey of the 1. AUPAPATIKA This is probably the most teachings of Mahavira, largely in the form of important work in this group. There is a answers to questions given by Mahavira to his description of the visit of Mahavira to the close disciple Gautama indrabhuti. There is a vicinity of the town of Campa where he great deal of incidental information on society delivered a sermon before the king Kunika and political history near the political history near the time of Mahavira. The life of Gosala, Ajatasatru, ruler of Anga-Magadha. Various other topics are dealt with in the second part of leader of the Ajivikas, is given. (The Ajivikas the text, mainly in the form of replies by were a rival religious group arising around the Mahavira to questions by his disciple Gautama time of Mahavira and the Buddha, and on subjects such as reincarnation and surviving at least to the twelfth century AD.) Moksha. 6. NAYADHAMMAKAHAO is more readable 2. RAJAPRASNIYA Much of this work consists than many Jain scriptures as it contains a lot of of a dialogue between a monk, Kesi, who is a improving stories. For example, Mahavira follower of the twentythird Tirthankara Parsva, expounds the virtue of patience by telling how and a king. Parsi by name, and it includes a as an elephant in a previous incarnation, he discussion on the nature of the soul. patiently protected a hare beneath his uplifted 3. JIVAIVABHIGAMA gives a detailed classififoot. cation, in the manner beloved of Jain scholars, 7. UPASAKADASA Ten (dasa) accounts of 2 of the different categories of animate beings. pious layman in Mahavira's time. that is being having a soul, Jiva. 4. PRAJNAPANA The longest of the upangas, 8. ANTAKRDDASA Various narratives, grouped written by, or at least based on the work of, one partly in tens, and referring in many cases to Arya Syama. It is a methodical collection, in the time of the twenty-second Tirthankara, question and answer form, of definitions or Aristanemi, said to have been the contempor- categories relating to a wide variety of ary of Krsna. subjects, eg, living and non-living things. 9. ANUTTAROPAPATIKADASA also in ten 8. speech passions, Karma, and many others. only are of real interest and 5. SURYAPRAJNAPTI starts in questions and originality, these concern persons reborn in answer form (but does not continue in this the highest heavens. style). Once again, Gautama and Mahavira are 10. PRASNAVYAKARANA The titles of the two the speakers. It is a treatise on astronomy, parts of this work are Asvra (inflow of Karma) dealing with the sun, moon, and stars. and Samvara (cessation of inflow). The five 6. JAMBUDVIPAPRAJNAPTI A description of great sins and the five great renunciations the geography of jambudvipa, the inhabited appear, together with much information on central part of the universe, social life of ancient times, crime and 7. CANDRAPRAJNAPTI This Upanga repeats punishment and other topics. (with minor variants) the latter part of the 11. VIPAKASRUTA TWO Groups of ten quite Suryaprajnapti (above), dealing with the moon readable stories illustrating the consequences and stars. in Education al FOR PELEFON Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. NIRAYAVALIKA forms, with the four follow ing Upangas, a single work in five parts. These contain various accounts, sometimes repetitive, of the lives and reincarnations of various people. The hells and heavens of Jain belief are mentioned, and there are references to historical events. The four remaining parts of this composite work, the last four Upangas, are as follows: 9. KALPAVATAMSIKA 10. PUSPIKA 11. PUSPACULIAK 12. VRSNIDASA The number of the predominantly metrical, compositions comprising the Prakirnas is not exactly settled, but it is generally taken as ten. The name signifies 'scattered pieces' or 'miscellaneous and these works give the impression of hasty compilation. The subject matter is very varied. Apart from ritual hymns, much of this collection is devoted to the preparation for holy death and to various aspects of monastic life and discipline. 1. CATUSHARANA is concerned with seeking protection with the enlightened ones, the liberated souls, the mendicants, and the religious doctrine (dharma), four refuges in all. 2. ATURAPRATYAKHYANA Renunciation of evil by the sick in preparation od death. 3. BHAKTAPARIJNA Ritual on giving up food. SAMSTARA Regarding the rituals and preparation for the death bed. TANDULAVAITALIKA A collection of varied material in prose and metre concerning, for example, the duration life, a discussion on physiology between Mahavira and Gautama, measures of capacity and time. 6. CANDRAVEDHYAKA Various questions re lating to monastic discipline and education, and to dying. 7. DEVENDRASTAVA concerns heavenly kings and praise of Mahavira, 8. GANITAVIDYA Propitious dates and omens for monastic life. 9. MAHAPRATYAKHYANA The great renun ciation at the time of death. 10. VIRASATVA Praise of Mahavira. The six surviving Chedasutras (one other has been lost) are concerned with monastic life and rules. The Buddhists have a rather similar collection dealing like the Jain collection with the collection de minutiae of the life of a monk, and making, it must be admitted, rather difficult reading. However, included in one of the Chedasutras are the rules for a monk's conduct in the rainy season. This section has been combined with a set of biographies of the Tirthankaras, and lists of religious leaders, to form a separate work, probably the best-known and loved religious, the Kalpa Sutra 1. NISITHA Deals with monastic transgressions and punishments. Contains much incidental information on the social and cultural life of early India. The longest of the Chedasutras. 2 MAHANISITHA Related to the Nisitha: this text contains some interesting stories, making it more readable. 3. VYAVAHARA This also contains rules for monks and nuns and it is similar to the Brithatkalpa (below). It is ascribed to Badrabahu. DASASRUTASKANDHA (OR ACARADASH) contains lists of monastic transgressions as well as the required qualities of a monastic leader and other matters of monastic life. This Kalpa Sutra forms part of this Chedasutra. BRIHATKALPA Another work detailing rules for monks and nuns. One interesting point is that the geographical limits beyond which monks should not travel are mentioned: these exclude the further western and southern parts of India, suggestion that the work was composed at a time before Jainsim had spread that far beyond its original homelands (PANCAKALPA This work does not survive in its original form and the present next under this name is apparently a much younger work.Details of the original Pancakalpa may be deduced from references in other works.) 6. JITAKALPASUTRA This text, compiled by Jinabhadra, is often regarded as a Chedasutra, making the number up to six (if the missing Pancakalpa is excluded). It deals with ten kinds of Punishment The Angabahya texts (those outside the Angas) are frequently arranged according to the decreas ing number of in the texts various groups (through this order is not inflexible). Hence, after six Chedasutras we pass on to four Mulasutras. Actually only three survive today though sometimes another text is brought in to make up the number to four. 1. UTTARADHYANA This is traditionally des cribed as the last sermon of Mahavira before he achieved moksa. However in its present form modern scholars believe it to be a composite work containing subject matter of various dates. Nevertheless it is a very important and well-known text. The contents are concerned with various topics. Matters discussed include temptations, chastity, daily duties, austerities, and nature of karma, and other subjects. 2 DASAVAIKALIKA The meaning of the title is 'Ten (lectures going) beyond (prescribed study hours). The chapters deal alternately with monastic life in detail, and monastic life in general, the former being the odd-numbered lectures, and the latter the even-numbered. 3. AVASYAKA Another very important work, loosely constructed around the six essential daily formulae of recitation, with a lengthy introduction which appears to have been intended to introduce a longer work of which the present text is the earlier part. (The fourth Mulasutra has been lost.) There are two other texts, not always regarded as canonical. These are sometimes called the Chulikasutra (meaning 'Appendix'), but commonly they are listed separately without any collective title. 1. NANDISUTRA in this text there is a study of cognition and a survey of the other texts of the Svetambara canon, together with other miscellaneous material. 2. ANUYOGADVARA ('Investigations'). Like the Nandisutra this work contain summaries of the other canonical works and other matters of Jain belief Finally, before leaving the Svetambara canonical works, mention may be made of the 14 Purvas. These are now lost, though references in other works give us an idea of the contains which included much early Jain belief on the nature of the Universe and of the soul. They are believed to have formed the twelfth Anga (now lost). www P onale Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 which are at home only in Jainism. Usually, no doubt, these two requirements will coincide, but they need not do so. STUDIES IN THE FOLK-TALES OF INDIA 3. Given that the inhabitants of the Nilgiris did on occasion descend to the plains, there need be posited only short and easy lines of communication between them and Jain communities. The Jain of South India, Karnataka, of the especially or Canarese, country, have long been known for their spectacular monolithic statues of their saint Gommata. Their history here is evidently a long one. Tradition assigns the southern foundation of the [2] religion to the 3rd century B.C., and a conservative estimate will M.B. Emeneau FOLK-TALES exceedingly and with much support from the Prof. M.B. Emeneau is emiritus professor JAIN LITERATURE AND KOTA certainly allow that it flourished here of Sanskrit, Indology and Linguisting at the University of California, Berkeley. U.S.A. He has devoted his entire life to India. There is no field of Indian studies that has not been touched by this master. By including this article in the Pratistha samarika we salute this master of Indology, Dravidology and linguistics. 1. That the Jains have played an important part in the development and transmission of story literature in India is by now well known. Almost as much has at times been claimed for th influence as was formly claimed for the Buddhist one. Yet clear cases of Jain influence on modern oral story repertories have not been easy to come by. What is needed to demonstrate such influence beyond question is, preferably, the presence in the stories told in some non-Jain community of motifs or tales which occur elsewhere in our records of Indic material only in Jain texts, or which contain elements, religious or therwise, ruling dynasties, from the first half of the first millennium A.D., until the end of that millennium, and with an ever decreasing importance, varied by temporary gains, from then down to the present day. During this period of almost two millennia, Jainism and its wealth of story literature must have left its mark upon the folklore of the Canarese country, and, vice versa, must have drawn from the latter. We can unfortunately not even begin to gague these interacting For Private Personal only www.jaslibrary 2. A body of new oral material is now at hand in my Kota texts. I have in several places given longer or shorter accounts of the community whose folklore is represented in part in this material. To place them with reference to possible Jain influence, it is necessary only to say that they are a small, low-caste community living on the Nigiri plateau in South India, in symbiosis with three other caste communities, the Todas, the Badagas, and the Kurumbas. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 influences since ourknowledge of floktales in living in different caves'. The long textment of customs by Rşabha, the first of the Canarese is almost nil and our knowledge of following, which is made up of a number of line of Jinas. Previously wishing-trees had provided people with all they desired. Now the content of the literature belonging to the somewhat loosely connected episodes, does these trees had become extinct and the Digambara sect of Jainism, which is the one not go on to tell of an invention or teaching of people ate all sorts of vegetable food. At first that flourished here, is little better. We do fire and its uses. That is part of the story of it was uncooked and indigestible. Rşabha have a considerable amount of Jain story Kiturrpayk, which seems to be the official hich seems to be the official instructed them to crush and skin the food, literature blonging to the Svetambara sect Kota origin story: see especially 1.4-6 and but it was still indigestible, then to wet it with water, but with the same result. Then he that flourished and flourishes mainly in North (only a mention) 2.2 end. I do not know only a mention) 2.2 end. I do not know instructed them again: "Follow the former India. And, if we find a kota story motif whether the motif of preparing food by procedure, put [3] the herbs in your hands occurring elsewhere in our Indic records means of one's bodily heat is ever told in and put them in the heat under the arms, then only in a Svetambara Jain literary text, it is connexion with the Kiturpayk origin story, eat them with pleasure". The food was still hardly digestible. At this time a fire started think, a fair inference that it is from the Jains but some of the details of the latter should be from the rubbing of tree-branches. The that it came to the Kotas, through the noted now for later reference. Sentence 1.6 people were told to cook their food in the fire, medium of the Digambara Jains of the connects closely the invention of fire-making but in their ignorance they burned it up. The lord then moulded clay on an elephant's Canarese country (Mysore State), with who by drilling and its use to cook food: 'With that forehead protuberance and instructed the knows what or how many Canarese and fire they roasted raw flesh and ate it'. people in cooking food in pots similarly perhaps Bedaga oral intermediaries. Sentences 1.7-8 immediately following tell of formed. the invention of pottery and its use in boiling This is so similar to the Kota motif of 4. Such a motif is that found in Kota Texts food: (8) 'In this pot he boiled flesh and made cooking by the heat of the body and also to 10.3 and 21.76. The first passage is place them eat it'. the sequence of the successive inventions of chronologically at about a thousand years fire and pottey and their use in cooking, that ago' but is clearly meant as part of a The motif in which we are now interested we may be sure that we have found appears again in 21.76 as a quite incidental something very near to the line of description of the remotest antiquity when detail in a long story of how a girl was carried transmission of the Kota motifs. This Jain the world and men had not yet settled down of and lived in the jungle with various account of origins is unlike anything in our into their present-day state. In my translation creatures including a semi-legendary jungle Hindu'and Buddhist literary sources, both in the pertinent passage is as follows: 'That followe: That man: that one shot and killed an ibex there its details and its general tendency. The with his sling and he cut it up with the knife Hindu epic and purana accounts of time was the period when people had not which he hade made of stone. He took all the successive stages in world history are only to discovered fire. They divided to each person fles of the hams and made it flat, and he the slightest degree interested in material the meat which they themselves had come joined his two knees and spread the meat up details and the invention of arts and crafts; to his thighs and joined them to his chest and bringing with them, and each person took as the brahman preoccupation is with social pressed them tight against it, and for a long structure and the stability of the caste much meat as he would eat, and made it flat. time he was holding it, and all that meat system, with some attention also to ethics. They took thin rope which comes from trees became as if he had roasted it. This is a fancy We have here material that not only occurs bark rope) and took leaves which were broad, picture of the contemporary 'primitive jungle only in Jaintexts, but that seems also to be at and joined the meat to their body and tied it man, with our motif as merely one home only in Jainism. corroborative detail. on. After much time had passed, they untied One detail that is significantly different in The Jain paralled that has been found is in the Kota and Jain material is the type of food it and tore it with their teeth and ate and each Hemacandra's Trišastišala-kápurusacaritra mentioned. The Jains are strict vegetarians - made his own belly to be full. They went on 1.2.924-994, the section on the establish- hence the food in the Jain account is Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vegetarian. The Kotas on the other hand are turned the dog into a leopard and the danger A.D. 1173. The panels are, in description at low-cast Hindu in their diet and it includes passed. This leopard was threatened in turn least, practically identical. The subject was much meat-hence the food in the Kota by'a tiger and was transformed into a tiger. It dubbed by Narasimhacharya the Chain of account is meat. In fact, the method of was thereafter successively transformed into destruction'. A gandabherunda (doublecooking by means of body heat would be a tiger. It was thereafter successively headed bird of prey) attacks a şarabha, which equally inefficacious for either kind of food, transformed into an elephant, a lion, and a is in the act of swallowing a rat (at Belur) or and it hardly seems worthwhile to attempt to nivore with eight an antelope (at Koramangala). In both the argue-in vacuo-whether the Jain account legs). At this stage it wished to kill the sage, chain is observed by a small figure of a man, might not be in origin a piously tendentious who, knowing that by his supernatural who in the plate accompanying the article adaption of oral motif that was more like powers, turned it back into its original shape stands at the antelope end of the chain. the Kota one in its use of meat. of a dog and drove it away. Narasimhacharya identified the man as a Hemacandra wrote the Trişasti between the similar story in the Hitopadesa (book Sage ( ascetic). the years 1160 and 1172 A.D. Other Jain 4, story 5 in Hertel's table in Das Pancatantra, Rudrabhatta composed his work in the works probably contain parallel material. seine Geschichte und seine Verbreitung, 41) reign of Ballala II, whose regnal dates are Johnson's translation of the Trişasti refers is well known; it is, for example, included in A.D. 1173 to 1220; E.P. Rice in A History of (p. 152, fn. 194) to such a passage in the Lanman's Sanskrit Reader, 40. An ascetic Kanarese Literature ventured the approxiAvasykasutra, which is not easily available to found a young mouse which had fallen from a mate date of 1180 to 1280 for the work. In any me. The Kalpasutra in its first section, the crow's mouth and [4] reared it. It was then case the poem is later than both the Jinacarita or 'Lives of the Jinas', has an transformed, because of danger from a dog. Sculptured panels. Lakshminarayan Rao's account of Rşabha teaching the arts, but this into a dog, and then into a tiger. The tiger translation of the passage in point is as contains none of the details in which we are planned to kill the ascetic because its follows: "The elephant caught the serpent interested. The story of the invention of feelings were hurt by the fact that everybody which had eaten the deer; the lion struck and pottery, however, was familiar in the 16th around knew that it was really a mouse. The tore asunder that serpent and that elephant, century, since it formed a cliche subject of ascetic knew this by his supernatural power with furious rage; the lion's enemy (ie. miniature painting in illustration of the and reconverted it into a mouse. sarabha) seized and pierced with its eight feet Kalpasutra. This may imply knowledge also A recent article by N. Lakshminarayan that serpent, that elephant, that lion and that of the story of difficulties with food, and even Rao in Indian Historical Quarterly, 20 (1944), lion's enemy in its beak and flew away'. We of the method of cooking by body heat. This 341-4 has presented two pieces of are told by the translator that it occurs in a however, adds nothing to our knowledge of decorative sculpture from the Mysore passage on the grandeur of the wild forest on the channels of transmission between the country in conjunction with a passage from the Jain motif and its occurrence in the Kota slopes of the Raivata mountain'. the Canarese poet Rudrabhatta's work Unfortunately, he does not say explicitly milieu. What is needed is investigation of the Jagannanthāvijaya. The sculptural panels whether or not there is an ascetic or sage in Digambara Jain literature in the monasteries were previously described by R. Narasi- the context; the work is not accessible. in Mysore State and collection of oral folk mhacharya in publications which are not Jain literature presents five times a story tales in the same area. accessible to me, the description in the that belongs here. The earliest datable 5. Another Kota story element-a tale journal article will serve our purpose. The version is in Haribhadra's Samaraiccakana type rather than a motif-is a little less panels are located, one on the Kesäva temple (written in Prakrit); this author's literary certainly connected with Jain material, since at Belur, the other on the Bucesvara temple at activity is placed in the third quarter of the 8th Hindu material is also at hand this time. A Koramangala, this later panel is presented as century A.D. The story also finds a place in complete presentation and analysis of the a plate in the journal article. The former the very rich story literature contained in the versions, however, will make Jain origin editice is a Hindu temple built by the great commentaries on the Uttaradhyayanasutra. probable for the Kota story. Hoysala king Vişnuvardhana in about A.D. Its earliest occurrence is in the Prakrit Nirykti, In the Mahabharata, book 12, chapters 1117, the other is a Jain temple consecrated The traditional ascription of which to 116-7, an ascetic was attended by a dog. It by the general Büciraja on the day of the Bhadrabahu, who died in 297 B.C., is false; was threatened by a leopard. The ascetic coronation of the Holysala king Ballála Il in the work is nevertheless very old and Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35 presumably older than Haribhadra. We are Charpentier's note (367): "This story is basis of the animals found in the chains, we not told by Charpentier whether the story shortly told in the Niry. 511-514, but with the are justified in thinking that Kamalasamyama occurs in the commentary Sisyahita by deviation that the serpent is there devoured borrowed directly from Devendra; the parallel Santisuri, who died in 1040 A.D., and not by an osprey (kulala) instead of a mungoose presentation of the two texts in appendix B copy of this work is available. Devendra's (so far "cat"). shows that the borrowing is very literal. Sukhabodha, composed in Prakrit in 1073 Laksmivallabha's version "is so shortened Similarly, it seems very probable that A.D., contains it. So also do Laksmivallabha's that without the other versions it would be Laksmivallabha went back for his chain,not to Sanskrit dipika and Kamalasamyama unintelligible. It is as follows: vårahasyam Devendra, but to the earlier Niryukti . It is a Upadhyâya's Sanskrit Sarvărthasiddhi, both dvijau yamalau bhratarau jayaghosavijay fair inference, then, that Devendra-Kamalaof uncertain date but later than Devendra. aghosau abhutam tayor eko jayaghośanama samyama's cat (majjaro-marjāra) is secongangayam The Haribhadra story is summarized by dary to Niryukti-Laksmivallabha's osprey snatum gatah kurarasarpamanJacobi in his edition (Xlvi). I give a summary dukagrasam drstvá pravrajitah. 'At Benares (kulala-kurara). It is not inferior also, thus almost forcing Charpentier to translate here and print the Prakrit text and a there were twin brothers, the brahmans translation in appendix A to this article. King Jayaghosa and Vijayaghoša. Of them the one 'mongoose' instead of 'cat'? Haribhadra's Simha, as he was marching against a rebel, called Jayaghosa went to the Ganges to bathe. version with its osprey (kurara) is presumably came to the bank of the [5] Indus. There he Heving seen the swallowing of an osprey, a chronologically later than the Niryukti, and observed a frog being swallwed by an osprey, also presumably based it is on useful, then in serpent, and a frog, he became a monk. further analysis to take frog--serpentwhich was being swallowed by a python. This Kamalasamyama Upadhyaya's version is occurrence became for him the cause of a in translation as follows the Sanskrit text in osprey as the original Jain chain. disregard of wordly objects, and during the appendix B): 'In Benares town there were born (6) Finally, there is a Kota version in 10.5following night he awoke and reflecting on twin brahmans,loving brothers, named 10. Two brothers-named Matn and Umatn the sight he determined to become an ascetic. and apparently culture-saw the swollen Jayaghosa and Vijayaghosa. One day Jayag corpse of a man and then a chain of creatures hosa went to the river of the gods (ie the devouring one another. The chain is wormDevendra's story is given in text and Ganges) to bathe. There he saw a frog seized myna bird-karl bird (possibly an owl)-kite. translation by Charpentier. I give his transla- suddenly by a snake; and the snake also was During the following night, the two, in tion with a few changes: 'In the town of violently attacked by a cat. But even so, that indentical dreams, heard a voice teaching Brahman twins called Jayaghosa and Vijay- snake ate the croaking frog. And the cat also that all men must die and become like the aghosa. Jayaghosa once went to the Ganges clung to the wriggling snake. When he had corpse, and that each' creature kills another to bathe. There he saw a frog being seen them thus devouring one another, he and is killed by still another, as they had seen. swallowed by a serpent; this later, again, was thought about living beings: "Alas for the In consequence they abandoned the world assaulted by a cat. Then the serpent swallows worthlessness and intransience of the rounds and dwelt in the jungle, making ascetic effort the croaking frog, while the cat chews the of mundane existence! One who has power to to 'arrive at god's feet'. wriggling serpent. When he saw this series of prevail over another, he the more greedily murders he thought; 'Fie upon the emptiness devours that wretched one. But death is All these stories are analyzable into two of life, for whosoever is the foremost (prevails, overwhelmingly potent to devour all without motifs each. That common to all, in one form is the stronger] he shall swallow the other exception. Hence the law is the protector from or another, is a chain of animals. Three one; but death is the foremost of [prevails danger". Having thought this, that best of airerent chain-types are found: over, is stronger than) all, and consequently it brahmans, Jayaghosa, was enlightened. (1) those of the Mahabharata, the Hitowill devour everything. That is why the true Having crossed the Ganges in agitation, he padesa, the two sculptured panels, and law is here the escape from all emergencies.' took the vows from (literally, beside) a holy Rudrabhatta, viz. - And so he was enlightened He crossed the man.' (a)in Mahabharata: dog, leopard, tiger, Ganges and took the vows in the presence of The versions in the Uttaradhyayana com elephant, lion, sarabha; a holy man.' mentaries are, like most stories in these texts, (b) in Hitopades'a: mouse, cat, dog, I know the Niryukti version only from borrowed directly from one another. On the tiger: Jain Education Interational www.ainelibrary.org Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 (c) in the panels: rat or antelope, snake, elephant, lion, Rsabha. gandabherunda; (2) those of the Jain writings, which we have analyzed out as: frog, snake, osprey; (3) that of the Kota story: worm, myna bird, karl bird, kite. These chains are combined variously with one of two motifs: [1] a sage transforms the first animal of the chain into the second and so successively through the chain; the final animal wants to destroy the sage; he transforms it back into the original animal. This is found in the Mahabharata and the Hitopadesa. [2] the first animal of the chain is devoured by the second, which is devoured by the third, and so through the chain; and man (or men) sees the chain of destruction and 'gets religion'. This is found in all but the Mahabharata and the Hitopadesa, the version in Rudrabhatta being defectively reported but presumably belonging here. That the two versions with [1] are connected the Hitopadesa being derived from the Mahabharata-is obvious. The chains are different in these two varsions(1a) and (1b). That of the Hitopadesa owes its beginning to the Pancatantra mouse-maiden transformation story, whose place it taken in the Hitopadesa by the story we are studying. In it a mouse is transformed to a maiden and back again, after it appears that only a mouse can be found as a suitor for the maiden. A crossing of the Pancatantra transformation having a mouse as the first member, with the Mahabharata transformation story, has yielded a new transformation story with the Mahabharata motif [1] but a chain beginning with a mouse. The cat is a natural second member in the chain, and then the old chain is linked on with its beginning dog. The remainder of the chain is violently curtailed. The leopard and the tiger of the Mahabharata chain are practically duplicates of one another, and the Hitopadesa keeps only are practically duplicates of one another, and the Hitopadesa keeps only the tiger. Can we find an underlying reason for this omission and for the further curtailment by the dropping of the three members following the tiger? Recent perusal of a number of Hitopadesa stories has given me the impression that its author in general compressed those Pancatantra stories that he adopted for his text-sometimes to the point almost of unintelligibility. The curtailment in this story taken in the main from the Mahabharata would then be another instance of the same process, possessing no further significance Motif [2]-the chain of destruction' instigates someone to 'get religion-is chronologically found [7] first in Jain texts. It is very much at home in the Jain milieu, and we can without further also consider it a Jain invention. Its fate in the Jain texts is a simple one of borrowing from author to author. Latter it appears in the sculptural panels and in Rudrabhatta (doubtful in the latter whether the observer is present) in conjunction not with the chain (2) of the Jain texts, but with a chain of the type (1) close to that of the Mahabharata. There has obviously been a crossing of the two sources. The inference that his is so is strengthened by the presence in the new sequence of animals of the snake of the Jain chain rather than the tiger of the Mahabharata-Hitopadesa chain. The rat of the Belur chain (has it been certainly identified) is not particularly appropriate as the victim of a snake large enough to be attacked by an elephant; the antelope or deer of Koramangala and Rudrabhatta is most appropriate as victim of a python. Note that these changes, together with the Hitopadesa author's changes and curtaliment, eliminate all vestiges of similarity between these two branches of the tradition. we The Kota form of the story has motif [2]. Yet if we should attribute chain [3] to completely independent invention, should, I think, be going too far. At least two other possibilities can be found. The first is a line of descent either from the Jain tradition or from the Mysore tradition, with so many changes taking place in successive steps in the transmission that attribution to one or the other tradition is very difficult. The second possibility is that there is descent from one or the other tradition for motif [2], while only the knowledge that there should be a chain of animals was diffused, with a new knowledge that there should be a chain of animals was diffused, with a new invention of the details taking place to fill in the chain (Kroeber's 'stimulus diffusion', Americal Anthropologist 42 (1940), (1-20). A very minute examination of the Kota details may suggest a probable solution. The chain (3) is essentially: wormbird(s). The only thing similar to this in the Mysore tradition is the final (mythical) bird. In the Jain tradition, however, we have: frogsnake-bird. Can we allow that snake and worm are essentially related? For our purpose, it seems to me probable that the historical solution for the Kota chain should follow our first alternative above. The Jain tradition is that from which the Kota version stems; changes in the course of transmission have been violent, but we can see that the sequence snake-bird his been converted into worm-bird, with probably simultaneous loss of the now inappropriate frog, and then the one bird has been elaborated into there. It is necessary to interpolate here a caution which was already uttered in Kota Texts, Part One, 7. Neither the Kotas, the Todas, nor the Badagas 'practise asceticism and withdrawal from the world as a form of religiosity'. They know of the Hindu-Jain institution, and stories containing reference to it are intelligible to them. As I said [8] Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WHAT IS LIFE? further in the passage referred to, we may see elephant, saw a crowd of people saying: 'Ah! in this adoption of story motifs the first step woe! When he had gone to that very place, he towards the embracing of Brahmanical Hindu saw an old serpent, large-bodied, with a very practices and motivations'. This caution dark body-color, swallowing a croaking frog seems necessary since both reviewers and that it had seized and glistening with the scholars writing to me privately have tended moisture from its distended? (starting) eyes, to find in the texts a reflection in all or most and with its face terrible and disagreeable to details of Kota beliefs and practices. the sight and its body very rapidly agitated References to these religious practices are on because it was being swallowed by a great all fours with Kota or any other peasant osprey, and the osprey also being swallowed references to kings-they are things that they by a great python hideous with its red eyes have merely heard of. and with a body as thick as the trunk of an 10. To conclude, then-for one Kota motif, elephant of the quarters of heaven. Even that of cooking by the heat of the body in while the python was swallowing the osprey, 'primitive times and milieus, a Jain origin has it was also swallowing the old serpent, and been demonstrated with no other possibility. the old serpent the croaking frog. When the For a kota tale type, the 'Chain of king saw this fatality, illustrating the innate destruction' whose observers 'get religion, a delusion in the world of the living, causing joy Jain origin is highly probable. In one other to the hearts of fools but disgust to the noble, case examined, Jain origin is possible but he was dejected. And he thought: 'Alas! Since unprovable: the story in question seems to be this is the way things are, what expedient, a representative of a pan-Indic story, which pray! is there in this world? The osprey is to be sure, has been populaarized in a form being swallowed by the python [12]. the that it took in the Jain literary tradition. In two serpent by the osprey and the frog by the other cases, Jain origin is possible, but the serpent! Even though they are thus on the context of the Kota stories rules it out. When point of death, they do not let one another go, Jain origin is spoken of, it is not meant that rather they proceed ever more violently and the Kotas were necessarily in this type of have not now gained release from one study is a good collection of folktale material another's destruction to enjoy life. Therefore, from Mysore, as well as one from the what am I to make of this affair that I have Badagas of the Nilgiris. And finally, in any seen, that admits of no remedy?' The furious folktale study which involves Jainism in elephant (ie the king) was terrified, went to South India, a most urgent need is knowl- his camping place, and camped with his edge of the contents of the Jain libraries in troops, and that which is fitting to be done Mysore and publication of the most important was done. Then when the night was half gone, and most popular of the Digambara Jain texts the king awoke from sleep. Remembering the with a large story-content. fatality involving the python and the, he proceeded to reflect as follows:... (3 vss.)... APPENDIX The world, which is a trifle, like the frog, is A. The chain of destruction in Haribhadra's here swallowed up by another, like the Samaraiccakaha (Jacobi's ed.), p. 121, line 8 serpent. It too (is swallowed) by another to p. 123, line 2 which is like the osprey. It also is not free here, At that time, as his march was carrying him since it is subject to the python, death. In a to the bank of the Indus, at no great distance world so constituted, devotion to the objects from the water, he sitting upon a fine of the senses is a mighty delusion. Education International Life is a Challenge -- Meet it. Life is a Gift Accept it. Life is a Sorrow Overcome it. Life is a Tradgedy Face it. Life is a Duty Perform it. Life is a Play Play it. Life is a Mystery Unfold it. Life is an Opportunity - Take it. Life is a Journey Complete it. Life is Promise Fulfil it. Life is a Puzzle Solve it. Life is a Spirit Realise it. Life is a Goal Achieve it. Life is a Love Enjoy it. Life is a Beauty Praise it. Life is an Adventure Dare it. Life is a Pleasure-Greet it." Life is an Ocean Dive it. Life is a Meal Eat it. Life is a Festival Celebrate it. Life is a Sea Sail on it. Life is a Book Read in Life is a Son's Sing it. www.atelibrary.org Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 THE VALUE OF A VEGETARIAN DIET Most of the Gujarati residents in Europe have remained vegetarians, inspite of the influence of non vegetarian persons on them. All the eastern religions put emphasis on vegetarian diet and the non vegetarian food is prohibited in temples, gurudwaras and other religious places. The Jains are usually vegetarians and are also expected not to eat root foods like potatoes, carrots etc. intheir diet. One may bea proud (fanatic!) Hindu, Sikh, Buddhist or Jain but when the question of observing the fundamental principles of their faith comes, lot remains to be desired. The mere fact of being born in Hindu, Sikh, Buddhist or Jain family, does not make one a Hindu, Sikh, Buddhist or Jain. It is the observance of fundamental principles makes them Hindus, Sikhs, Buddhists or Jains. What we observe and expect to observe in religious places, we should observe in the outside world, if we wish to be proud about our faith. One should eat what one is supposed to as laid down in one's faith.. It is a misnomer that non vegetarian food is essential to remain healthy in the Western world. On the contrary persons taking carefully selected Vegetarian diet are healthier than their nonvegetarian friends Followingquotations show that one can live a healthy life on a vegetarian diet. our primitive ancestors. There is nothing necessary or desirable for human nutrition to be found in meats or flesh which is not found in, and derived from vegetable products. Dr. J.H. Kellogg It must be honestly admitted that, weight for weight, vegetable substances, when they are carefully selected possess the most striking advantages over animal food in nutritive value. Sir Benjamin W. Richardson, M.D., F.R.S. We have given the following charts which I am sure would be quite useful to the readers of The Jain and vegetarians in general. Whilst planning a diet one should remember that a well balanced diet is essential in supplying all the body needs to keep it fit and healthy, and must contain all the following: Proteins, Carbohydrates, Fats, Mineral Salts and Vitamins 1 gram of Fat produces 9 calories, while 1 gram of Carbohydrate produces approximately 4 calories. sex, height, weight and activity (metobolic and Dietary requirements depend upon age, physical). The objective of a proper diet is to achieve and maintain the desirable composition. Diets require modification if you are suffering from a disease. For diets in different Flesh foods are not the best nourishment illnesses please consult your doctor. The for human beings and were not the food of Calorie Reckoner will help you to plan the diet. Proteins: Fats: Carbohydrates: Minerals: Vitamins: Proteins are needed every day to provide for the growth and repair of tissues: Proteins can be used for energy too, but surplus proteins are stored as fat. The main sources of protein are dairy products, nuts, pulses, especially Soyabeans. Fats provide heat and energy and surplus is, of course, stored as fat. The main sources are known to everybody. Carbohydrates provide one of the cheapest source of energy for the body, but surplus is quickly turned into.... you've guessed itmore fat to go into your waistline. Most of our food contains Carbohydrates. (Including calcium, phosphorus, iron, sodium, potassium and colbolt). Present in varying quantities in many foods and essential for the regulation of certain body processes and growth. Fruits, Vegetables, Milk and Cheese give us necessary minerals. Necessary to maintain health and to protect against specific dietary disorders. The main sources are carrots, green vegetables, cheese, butter (Vit. A), margarine, green peas, oatmeal, marmite. and cabbage, sprouts, cauliflower, watercress, lemons, oranges, blackcurrants (Vit. C). Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Table 1. DESIRABLE WEIGHTS FOR MEN AND WOMEN (According to height and frame, age 25 and over) Herghe Hergh Weight (lb) in Indoor Clothing Small Frame Medium Frame Large Frame Weight (lb) in Indoor Clothing Small Frame Medium Frame Large Frame in shoes 1-in heels, in shoes 112-120 115123 118-126 121-129 124-133 128--137 132-141 136-145 140-150 144-154 148-158 152162 156-167 160.171 164-175 Men 1181291 126-141 121-133 129-144 124-136 132148 127-139 135152 130-143 138156 134147 142161 138152 147166 142156 151-170 146160 155174 150-165 159-179 154170 164184 158-175 168-189 162-180 173_194 157-185 178199 172-190 182-204 92-98 94. 101 96104 99-107 102110 105113 109116 111119 114123 118-127 122-131 126-135 130-140 134144 138-148 Wonen 96107 98110 101-113 104-116 107119 110 122 113126 116130 120-135 124139 128-143 132-147 136--151 140155 144-159 104.119 106122 109125 112-128 115131 118_134 121-139 125-142 129–146 133150 137-154 141158 145-163 149-168 153-173 CALORIE RECKONER CALORIES RELATE TO 100 GRAMS WHERE QUANTITY NOT SPECIFIED For nude weight, Ceduct 5 to 7 tb (male) or 2 10 4 lb (female) Table 2 RECOMMENDED DAILY DIEITARY ALLOWANCES Bajra..... FAT-SOLUBLE MTAMINS MINERALS U HEIGHT CALORES PROTEIN ACTIVITY VITAMIN DU ACTIVITNU ASCORBIC ACID img FOLAON RHOFLAVIN THIAMINE VITAMIN VITAMIN B12 CALCIUM MAGNESIUM PHOSPIORUS ODINE 55 2212222 31 32 CEREALS AND CEREAL FOOD Calories 361 Barley .... 336 Wheat 346 Millets 334 Maize Flour 355 Maize Tender ...... 125 Weetabix, Shredded Wheat. 125 Corn Flakes, Rice Crispies 1 oz 104 Popcorn 50 gms 170 Ragi 328 Rice, Raw Milled ......... 345 Rice, Puffed 325 Rice, Cooked 3 Table Spoons (60 g). 70 Rice-Khichri 1 Vati (210 g)......... 250 Sago 351 348 Wheat Flour 341 Biscuits 1 small 16 gms ........ 129 Chapati (Thin) 40 Chapati (Small) 35 gms. 119 80 Bread, White 1 slice (375" x 4" x 0.4") 60 Bread, White 100 gms ...... 245 Bread, Brown 100 gms ........ 244 Bun 100 gms .......... 280 Oat Meat 1/3 cup 27 gms .......... 110 14 (31) ARRA $$8888*** 8888: atu Suji. 10-121 12-14 43 1952 1822 6714 22-35 70154) 175 4591 35-55 70 11173 581 55 751 70 (154) 171 182 8888888 16 gms .... 10 11 12 15 នននននននន នននននន 14 16 52(114157162 1618 54115116031 18 22 58 (12816316.45 22 01 58120 163 164 35 55 56 (128160 1631 5551 56 (12815752) Gooooooo Preg www.ebay.org Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 Dosa, Plain Medium (9" Diameter)....... 130 Dosa, Masala 100 gms... Idli Medium (31⁄2" Diameter). 210 100 Macroni 2/3 cup cooked Puri 1 Parotha 1 Chakali (Wheat Flour) 100 gms.. Chat Chevra (Fried) Dal Vada 11 Dhokla Gharvada Pakora Samosa 30 gms. 16 gms. 70 gms. Potato Kachori 100 gms. Potato Chips 10 pieces 20 gms. Upama 100 gms. 100 gms. 100 gms. 30 gms. 100 gms. 100 gms. 100 gms. 100 gms. Puri 1 16 gms. Parotha 1 70 gms. Chakali (Wheat Flour) 100 gms. Macroni 2/3 cup PULSES Bengal-Gram (Roasted, dehusked). Bengal-Gram, Chana Dal.. Rasam 1 Cup. Sambar 1⁄2 Cup. Black-Gram, Urad Dal Green-Gram, Whole (Moong or Mug). Red-Gram, Tuver Lentil (Masur).. Soya Bean... Dal (Cooked, Thick-consistency 1/3 cup 113 gms)... Dal (Cooked, Medium-consistency 1/3 cup 92 gms).. 115 70 250 550 474 420 200 122 364 200 256 166 110 230 70 250 550 Calories 369 372 347 334 335 343 432 145 92 12 105 VEGETABLES, LEAFY VEGETABLES Bengal Gram, Green (Channa). Brussels Sprouts Cabbage Colocasia Leaves (Arbi-ka-Patta). Fenugreek Leaves (Maithi). Mustard Leaves (Sarson) Redish Leaves (Moli-ka-Patta). Sarli Sag Spinach-Palak ROOTS Carrot-Gajar. Colocasia-Arvi. Lotus Root-Kamal-ki-Jarh. Onion... Potato Sweet Potato (Shakarkand). Tapioca-Mara Valli Cassava. Turnip-Shalgam. Yam-Kand. OTHER VEGETABLES Ash Gourd-Dudhi Bitter-Gourd-Karela Bottle Gourd-Toriya. Brinjal-Baingan... Broad Beans-Phansi. Cauliflower. Cardamom. Chillies-Green. Cloves-Dry. Corriander French Beans-Phali. Garlic-Dry... Ginger-Fresh. Ladies Finger-Bhindi Mushrooms. Mogra Papaya-Green Parval Peas-Matar Pepper-Dry. Pepper-Green. Plantain, Green-Kela. A.. Calories 66 15 45 56 49 34 28 86 26 Calories 48 97 63352522 97 26 145 SWEETS & SUGARS Badam Halva Balushahi 25 gms Burfi 1 Piece Fruit Jelly 120 Gulab Jambu 1 Piece 25 gms 157 Jalebi 29 79 Calories 10 Mysore Pak Nankhatai Penda 1 Piece Ras Gulla Shakarpara Sohan Halva Suji Halva 25 12 24 48 Gur (Jaggery) 229 30 Honey1 Teaspoon Jam 1 Teaspoon Sugar 1 Teaspoon Sugar 1 Cube. 29 285 288 67 65 Pumpkin-Kaddu Tindora Turmeric. Vegetable Marrow-Ghei. 42 25 27 18 93 304 98 64 Water Chestnut, Fresh Singhada Choli Guvar. Green Mangoes. Papdi... Cucumber. Tomatoes. Kothmir BISCUIT AND CAKES Biscuit Salted 1 Biscuit Sweet 1 Cheese-Tit Bits 10 Coconut-Macroon 1 Cake-Chocolate - 50 gms 30 gms 1 slice Cake-Fruit 1 slice Cake-Plain 1 slice 15gms 5 gms 5 gms 3 gms 4 gms 3.5 gms 13 gms 45 gms 30 gms 40 gms 146 MILK & MILK PRODUCTS Milk 1 Cup 100 gms ន៨៨ និង១៩ទី៩៩១៩ 25 115 Calories 570 469 100 75 100 412 357 584 83 100 570 ៧៩៩៩។៩និឫ Calories 15 24 20 80 165 117 Calories 100 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Milk Skimmed 1 Cup.. Milk Condensed 1 Cup (Sweetened). Milk Power. Butter Milk Skimmed 1 Glass. Cheese.. Curds (Yoghurt) Low Fat Ice Cream Kheer. Milk Cake Ghee Oil Cream 1 Tablespoon Butter Margarine Peanut Butter. NUTS Almond (10-12) Cashew Nuts (8-10) Coconut (Dry) Coconut Tender Chestnuts, Fresh FRUITS Apples Apricot. Banana Ground Nuts Walnuts (8-10 Halves) 15 gms Pista Jardalu Berries (Bor)-Dry ............................. 15 gms Jambu Lichis Lime.. Loquat 10 gms 10 gms Cape-Goose-Berry (Raspberry). Cherries. Dates (Dried) Figs (Tender Fresh). Figs (Dried). Guavas (Peru Jamfal) Grapes (Blue).. Grapes (Dried). Jackfruits (Ripe). 45 320 496 25 348 60 205 178 Papaya. Peaches. Pear 331 900 900 50 755 755 620 Calories 65 66 662 41 150 560 102 626 53 64 Malta Mandarine. Mangoes (Green). Mangoes (Ripe) Melon (White). Mulberry. Orange Calories Pineapple Plums Prune Pomme Granate (Red). Sapota (Cheeku).. Tomatoes (Ripe). Strawberry Sitafal. 88 47 61 59 43 SOUPS & BEVERAGES Clear Vegetable Soup Tomato Cream Soup Vegetable Soup Tea, Lemon no sugar-1 cup. Tea, milk no sugar-1 cup Cocoa, 1⁄2 milk with sugar-1 cup. Coffee-black with milk-1 cup. Coffee black-1 cup.... Coffee-Milk and sugar-1 cup 56 Cola drinks-8 fl oz 53 Fruit Juice (Unsweetened) 31⁄2 fl. oz 153 Orange Juice 31⁄2 fl. oz.... 53 Lemon, Grapefruit & Squashes 31⁄2 fl. oz 70 Chocolate drinks with milk 5 oz. 317 75 Horlicks Powder 115 gms 6 oz 1⁄2 oz 150 ml 150 ml 150 ml A. 36 you make yourself, make it sure that you have well balanced diet with sufficient amount of proteins, vitamins and minerals. 44 50 to 80 4888888 39 21 53 53 32 50 51 46 56 75 77 94 112 44 104 Calories 12 65 65 1 20 145 25 5 75 104 75 110 110 56 56 114 54 Lucozade 320 Ovaltine Powder 51 45 It is impossible to include all the food 290 substances available and details of different diet plans in this article. The calorie reckoner will be useful as a rough guide, in calculating the value of different diets, whether it may be overweight, underweight, high cholesterol in blood or different diseases, but whatever plan We have given two most common diet plans, which may be useful to our readers. Table-4 Diet plan for reducing weight To reduce weight it is essential to take well balanced diet with sufficient proteins, minerals & vitamins. One must take sufficient milk, yoghurt (curds), cheese, vegetables, fresh fruits. Avoid sugar, sweets, chocolates, jam, honey, biscuits, cakes sweet pickles, potatoes, nuts etc. Suggested daily intake Milk Rice & Wheat Flour Pulses Yoghurt-low fat Fruits Leafy vegetables Spices Butter, Ghee 600 g 100 g 50 g 250 g 2 pieces unlimited amount unlimited amount 15 g Table 5-Cholesterol-lowering food plans Many people have too much cholesterol in their blood. A large amount of cholesterolin blood indicates a greater than average risk of suffering from heart disease. The following food plan is designed to reduce blood cholesterol. If you are overweight, reduce yourweight.eat lots of vegetables. Substitute poly unsaturated margarine for butter and other margarines. Do this for both cooking and spreading. Eat Cottage cheese instead of hard and cream cheeses. Use skimmed milk instead of whole milk in drinks, on cereals and in cooking. Skimmed milk may be bought in both liquid and dried forms. Eat low fat yoghurt instead of cream. Cut down on fried foods. Dr. Natubhai Shah 41 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CONTRIBUTION OF THE JAINS IN THE FIELD OF COMMERCE, TRADE, INDUSTRY AND SOCIAL RESPONSIBILITY – - PRATAP BHOGILAL INTRODUCTION: "May God bring about in me friendship as to how it could be lived in a co-operative In the Modern era of sweeping techno- towards all living beings, Joy & Pleasure on and peaceful manner with the other members logical developments, making the world a meeting virtuous people, Compassion of the Society at large, we then release the "smaller" place continuously, talking in terms towards distressed and suffering people, importance of the sacred prayers, penance, of the contribution of a particular community balanced mental attitude in adverse state of religious austerity, true knowledge and in any field might sound anachronistic. The mind" meditation which enables a person to live in a over-zealous champions of national integra Our salutations to that Guru-preceptor manner wherein Dharma pervades throughtion could even be tempted to summarily dub who opened the eyes of (resorted vision to) out his daily life. the effort as "parochial" However, if we pause the persons who were blinded on account of for a while to think retionally, we will realise the darkness of ignorance with the help of the In the world at large and particularly in the that prima facie, there is nothing wrong in pencil of collirium of knowledge." tribal and the socalled less civilized world the such an evaluation. Every religion or sect lays down the basic concept of "dharma" is limited perhaps only norms of human behaviour. These norms are to ethical and good behaviour. To such The charm of a Federal Democrary like in an essence of the accumulated wisdom of the people, for their normal requirement, there India lies in its innate unity in the face of Founding Fathers as also the teachings of the are not many of the finer limitations of diversity. As we know Indian constitution undisputed leaders from generation to dharma, as we understand them in highly recognises 14 languages. The dialects of generation. The CHATUHSUTRI (meaning civilised societies.. For their living they kill the four basic tenets) as far as the Jains are these languages and tribal languages are animals and birds, they catch fish, they eat virtually innumerable. As one travels the concerned are ethics or morals niti good meat, drink intoxicating drinks etc. And all country from East to West and from North to conduct sadachar dharma (religion, duty and this is done without any qualms of South, one is literally astounded by the belief in the matter of morality) and conscience. Some other religions Tay degree of diversity in the way the people spiritualism adhyatma all these terms come particular stress on principles of dharma, in dress, the languages they speak, the customs very close to one another but there are subtle which they basically abhor stealing, they observe. And yet the fact remains that we differences in the connotation of each. When dishonesty etc. but in carrying out day to day all are Indians first and everything else we talk of dharma, it embraces a very wide activities, no holds are barred-particularly, thereafter. canvas in essence the purpose of life and those religions which do not believe in the living -- from the concept of good behaviour cycle of birth and re-birth, do not despise the to the ultimate goal of the release of the soul killing of animals and birds and do not bar Thus have a strong and convincing atma from the constant shunting amidst the consuming meat of any other kind. reason to share my thoughts. Let me begin worldly cycles of birth and re-births. When Jainism is really not a religion; it is with a Prayer: e think about our normal daily life and think basically a way of life. Even Mahatma Ganan Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 who was not born in a Jain family could be in the olden times also, some of these should put a limit of his own. There are a considered a true since he very largely commercial/industrial activities which led number of people in the legal profession, followed in practice, the principles of Jainism. either to considerable violence or which led medical profession, engineering profession, nguage what to supporting wrong conduct in society were accountancy, teaching and literary profeshe wrote: "Jainmatna mara Pakshapatne considered gainful and therefore, the people sion, andcomparatively in these professions lidhe ane jainona Satsanga lidhe Ketiak were advised to refrain from engaging the involvement of violence is minimal. Hence mane Jain mane chhe. Evu hu to jarur ichhu themselves in such business activities, and if these vocations are considered to be more ke a traimsk Jain Sahitaga dwara Jain mat je they were already involved in such activities, desirable. Furthermore, normally there is no atyare to jivdaya etle khoti jantu dayana name they were advised to relinquish them. limit to a person's greed for earning and vagovaychhe te jivdaye etle manushya wealth, but according to the jain tenets as sudhha pranimatra pratyena vishudhh As time passes business/industrial mentioned before, people should voluntarily activities also undergo changes or they are put a limit in regard to the extent to which they "Owing to my partiality towards the Jain not as wide-spread as before, and a number would continue business or vocation which philosophy and because of my intimate of new business activities come into being. In would enable them to progress through life contacts with Jains, quite a few people take these, the main principle sidhhanta is that a according to the various tenets of Jainism me to be a Jain. I Certainly believe that the true Jain, in order to make his living, should and thus practice Dharma to the maximum Jain tenet of non-violence which is often engage himself in such activities which are extent possible while going through life in the understood only in the narrow sense of not without blemish. As such, you will find that normal manner i.e. as a Grahasthi-apart killing even an inact, is not properly grasped manyJainsare engaged in business of Money engaged in business of Money from being a monk/nun or sadhu /sadhvi. in the true sense which is that non-violence lending, as gold and silver smiths, jewellers, The Jains have made important contributions should pervade through all strata of mankind cotton textiles etc, and very orthodox Jain in various fields of activity of business, trade and all living beings and I wish that in the pure even in these businesses keep a specific limit and industry and the different professions conduct of our daily life, this teaching should to their earning or retaining wealth after and have also discharged various social be properly understood." giving due consideration to the reasonable responsibilities very creditably. The fundamental tenet of Jainism is non- needs of life (Called Aparigraha) and after a . Our first Jain Tirthankar, Bhagwan violence. Jainism has gone to the minutest certain time they completely retire from Rishabhdev taught the people the art of extent possible in its espousing of non- business. At one time, amongst the Jains it fighting for self defence (asi), arithmetic and violence Ahimsa. As such, amongst the Jains, was common to have business in pearls writing script (masi) and agriculture (krishi understandably the avoidance of meat of any coming from the Persian Gulf and silk coming Bhagwan Rishabhdev, it is said went through kind is an absolute must. Further more, in mostly from China and people thought that his worldly life many thousands of years ago choosing vocations also, Jains would avoid this was a business that did not involve any and had two doughters-one was called those vacations which involves violence to an violence. However, when it came to be known sundari who was taught Ganit i.e. Arithmetic avoidable extent. In violence, the killing of life that in search for pearls and nurturing the silk and the other was called Brahmi who was with five senses is called gross violence and thread, violence is involved (i.e., killing or taught writing. Even today Brahmi Lipi is well thread, Violence is involved (.e., Killing or taug such, it is supposed to be the most sinful. That injury to corals and mulberry), it is known that known. He also weaned away people from is why the Jains would not go into the a number of jains gave up their businesses of business of killing animals and eating meat business requiring killing processing of pearls and silk. and instead led them into the business of animals or birds or catching of fish or poultry agriculture. projects. Even to raise a poultry farm is In the present times, jains are engaged in a If we think of the time from the first against Jain tenets. The Jain philosophers number of trades and industries such as dyes Thirthankar to the last. i.e. the 24th Acharya) has shown 15 types of activities and chemicals, yarns and textiles, engineer- Tirthankar Bhagwan Mahavir, werelease how which were leading to a lot of killing and ing, etc. However, in many of these vocations, from time to time the principles of real hence extremely sinful. These are very well violence of some nature or the other is dharma were instilled in the peoples and that stated in the Vanditasutra. I am not repeating definitely involved and, therefore, it is is how our ancient culture has been built up. them here. necessary that every person concerned brick by brick. For Prvate & Personal Use Only www.ainelibrary.org Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jains have made important contribu- Vimal Shah was a great warrior, builder of Visualisation of Nalini Gull aeroplane and he tions in various fields of life. At the time of temples and press of Jain culture. He has made his concept come alive in the famous Bhagwan Mahavir, Maharaja Shrenik, gone down into the history as one of the temples of Ranakpur. In those days. although a kshatriya, was observing jain great figures in annals of Jains. Ranakpur was a very prosperous town. Even practices. The main tenets of jainism are today this famous temple of Ranakpur is an Ahimsa non-violence, satya truth, Asteya not RAJA KUMARPAL epitome of architectural beauty, built of stone to steel or expect to get from somebody else, with 1,441 pillars. It is not only a important Brahmacharya celibacy, Aparigraha & place of pilgrimage for the Jains, but also is limiting one's possessions and anekantvada Our Venerable Acharya Shri Hemchan becoming a very popular tourist. trying to understand and accommodate views dracharya had impressed Raja Kumarpal of others to the extent possible in order to tremendously with the soul elevating estiblish harmony and peace. philosophy of Jainism. It was due to his PETHADSHAH inspiration that Raja Kumarpal built the famous temple of Shri laranga a temple SAMPRATI RAJA He was a Jain and Minister in the court of known for its architectural beauty. He also king of Mandavgadh (in present Madhya created many libraries for spreading the He was very much inspired by the Pradesh). At the young age of 32, he took the knowledge of Jainism and he gave his vow of celibacy and the famous temple of preachings of Sudatta Suri Maharaj. He built sustained support to Acharya Shri Hemchantemples, sent preachers to various parts of dracharya to create jain literature. During the Mandagarh of tirthankar Suparshwanath was Solanki period in Gujarat, Shantu Mehta, built by him. Apart from building He was very India for preaching Jain doctrines. He was a successful in commerce and was a famous great philanthrope. He built roads, water Udayan Mehta, Sajjan Mehta and several merchant temples, his charities to the cause tanks for the companies of travellers. He also other Jain Ministers contributed generously of humanity are also well known. created Jain libraries and his humanitarian towards the welfare of society. The Jains have been in the forefront in work has been quite well-known in all parts of philathrophy, and temple building. We many India. The idol sculptured under the VASTUPAL & TEJPAL mention the names of Jagadushah, Javapatronage of Samprati Maharaja are to be shah, Anand Shravak among others coming found in different parts of India. Who among the Jains, do not know these to comparatively recent times, i.e., about 150 two names? These brothers were persons to 175 years ago, we have the famous SHRI VIMALSHAH with multifaceted activities in the field of example of Seth Motishah who was a businessman of very high repute and he was field of literature, spreading of knowledge famous for his honesty, so much so that the He lived during the 11th century A.D. He and other religious activities. The famous English rulers were very much impressed by was a very religious minded Jain. He was very temples of Girnar and Mount Abu built of his upright behaviour. He was a highly brave, extremely intelligent and an marble with exquisite engraving are religious person who firmly belived and enthusiastic person. He was a Commander of testimony to their conception of beauty to practised the Jain tenets of Ahimsa (nonthe forces of Chalukya Maharaja Bhimdeo of give infinite solace to mankind. They were the violence). Satya (truth). Daya (mercy), Anhilpur, Patan. As a Commander of the Ministers of kind Veerdhaval. Karuna (compassion) and the urge for Forces, he had to fight Mohammed of service to humanity. He sustained all the Gaznavi, who attacked this part of India and destroyed many temples and mutilated Idols DHARNASHAH during his lifetime with his tremendous willpower and he was one of the topmost worshipped by the followers of various businessmen of his times. The temples that religions. Finally. Gaznavi was defeated. On He was a Minister in Ranakumma ate built in Bombay-Byculla, Godell: Mount Abu in the present Rajasthan, Vimal Ranakpur has got its name from Ranakumma. Chintamani Parshwanath, etc. and the temple Shah built Jain temples of exquisite The temple of Ranakpur which dates back to that he built on the Sharatunja Hills can craftsmanship, and unique beants. Shri 1446, was build on the basis of Dharnashah's Shri Motisha Tunk are all well-known." www.ainelibrary.org Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bombay Panjrapole (established for taking Similarly, the Sahu Jain family has also our more illustrious Cardiologists was Dr. care of maimed and disabled old animals) done remarkably well in various industries K.M. Bhansali whose son, Dr. Siddharth owes its existence to his initiative. such as newspaper, cement, plastic and Bhansali, is an eminent heart specialist These are but a few examples of the past chemicals. The head of this group is the well practising in U.S.A. There are a number of where lains have made tremendous mark in known veteran shri Shriyansprasad Jain, who other doctors both in India and abroad in different periods as Ministers, Commanders, was recently awarded by the president of various specialities of medicine and surgery. leaders of community and businessmen who India the very much coveted award of Padma Take the Accountancy profession. There spread the Jain tenets and enriched the life Vibhushana. are so many eminent Chartered Accountants of their time. The Present diamond cutting industry who are practising not only in India but also Coming to more recent times, we do find a and the large export trade in diamonds, gems abroad of Indians abroad, I am told there are number of outstandingjains in various trades, and jewellery, which is one of the foremost almost 100,000 Jains living in U.S.A., Canada, industries and professions. Seth Jeevanchand export earning industries is largely in the U.K., Europe, Japan, East Africa and other Jhaveri is also one of the famous hand of the Jains. There are so many names countries and they are occupying prominent businessmen of comparatively recent times. of dynamic businessmen in this trade and positions not only in various trades and gave up all his worldly industry that it would not be practicable for industries but also in various professions belongings and became a jain Sadhu and was me to mention them. such as medicine. surgery legal, called Muni Jinbhadravijayji and mainly lived Similarly, there are a number of Jains who accountancy, science, education as well as in in the backward tribal areas near Baroda are engaged in business both in India and Government service. I understand around (called Bodell). Where due to his preaching 50% of the Jains abroad are in business, trade abroad. Apart from the diamond trade of and his own example, the tribals were made and industry and they have made a mark by which I mentioned earlier there are out aware of the philosophy of jainism and were the manner in which they conduct their standing jain businessmen in fields such as elevated from their tribal status to the civilized business by their diligence, integrity and textile exports. world. He did a lot of work to improve their general serving minded attitude. About 25% Similarly, if we take the legal profession, worldly and spiritual life. are in the professions of medicine, surgery, the outstanding name that comes to my mind Other notables are Shri Walchand pharmacists, engineering, architecture etc. is that of a very eminent constitutional lawyer, Hirachand, an outstanding industrialist who and the rest about 25% are in Government, Dr. L.M. Singhvi, who is not only known in semi-Government departments, local authowas the pioneer in the construction industry. India but also all over the world apart from rities and other employment. Wherever they shipping industry, aircraft industry, automo many others in this profession. There are a are and in whatever situation they are in, they bile industry. number of Judges of the High Courts and a are amongst the higher strata of society in these foreign countries. In fact, I am told that in California, the Indians, which also includes member of such fraternity. He visualised Justice Dharmadhikari, Justice. Madhusudan the jains, have the highest per capita income. decades ahead of the independence the need Kenia and Justice. Tate Similarly, if you take our Jains abroad for independent India with a strong and Court, M/s Justices M.L. Jain and J.D. Jain. engaged in business and industry, two of the resilient industrial base. If you take the scientists. I can name two outstanding names that come to my mind is of Shri kasturbhai Lalbhai and Shri Ambalal outstanding scientists, viz., Dr. D.S. Kothari the Chandaria and Madhwani families who Sarabhai come to my mind next. They were who held, a very high position in the have business and industries in many the dovens of industries such as textiles, Government and retired as Adviser to the countries of the world, including India. There chemicals, dyestuffs, pharmaceuticals, Defence Ministry. Another outstanding are a number of other non-resident Indian polyester fibre and various others. Physicst was Dr. Vikram Sarabhai who held Jain who have also made a mark in the various Another name that occurs to me is that of the position of the Chairman of the Atomic businessee Atomic businesses that they are in and apart from Shri Abhaykumar oswal of Ludhiana who has Energy Commission and the main pace making their business a success, they have made tremendous strides in the last few years Research Organisation. brought fame and prestige to the Indian in the development of agro industries. If you take the medical profession, one of business as such. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 The Jain community, I may mention is in the forefront as far as charities are concerned - in the educational, religious, medical fields, relief to the needy and underprivileged and more particularly for animal and human relief at times of droughts and floods. However, it is a real pity that we Jains have not taken as much interest in the politics and administration of our mother country i.e. Bharat as the Jains in the past had done. I have discussed their contribution in the proceding passages feel confident that had we taken the interest that we ought to, the conduct of affairs of our country would have had a much higher footing in terms of wisdom, integrity and morality, because Dharma (religion, duty and belief in the matter of morality) would have had its spiritual effect in totality. The present crisis in the world is really crisis of character. The wide-spread violence and the degradation of moral values that we experience all around has taken place due to the proliferation of the acquisitive cultureboth for money as well as power. Even in the developed countries now, a disenchantment has set in about too much affluence and the consequential materialism and a search for spiritual solace is evident more and more. Similarly, in the underdeveloped countries, in the quest for better standards of living, we see the quest for more power and money. It is the need of the hour that everything possible is done to bring back the moral a better understanding of the needs of the developed and the underdeveloped nations and better cooperation between them which is so necessary for the continuance of this worldly civilisation. In these circumstances, Jainism can play an important role the widespread preaching and practical of tenets of Jainism can create a new, climate for the world as a whole and lead as to Moksa, the Sumum bonum of life. JAIN STUDIES IN GERMANY hundred years old and it is worth Jaina studies in Germany are more than a remembering how they began. It was Otto von Bohtlingk who first published a German version of Hemachandra's Abhidanacintamani followed by Albrecht Weber with parts of Satrunjayamahatmya in 1858 and Bhagavati, now called Viyahapannatti, in 1866. Vijayaji, saw marvellous collections of who, thanks to the liberality of Muni Punya manuscripts there. Georg Buhler, when locating manuscripts obtained permission from the Anglo-Indian Government to keep duplicates and hand them over to the Library in Berlin. Thus an extremely good and rich collection of Agama and other works came to Germany. They were taken care of by Albrechet Weber, the aforementioned leading indologist of his time. He, in many years of pinstaking work, was the first to penetrate into the then almost impassable jungle of the holy scriptures. Prakrit knowledge was then very limited and Jaina manuscripts practically unknown. He prepared a magnificent catalogue of these manuscripts constituting an almost complete survey of the canonical literature of the Svetambara sect. In the foreword he says, "a good deal of my eyesight is buried in them". Thus Albrecht Weber initiated Jaina studies in Germany together with Hermann Jacobi a In the sixties of the last century, there was German scholar, Georg Buhler, in the service of the then Anglo-Indian Government, who was sent out to collect manuscripts. At the same time, a very young German indologist, Hermann Jacobi, went to India for a tour of the country, and Buhler made him cancel all his plans and accompany him on his search for manuscripts. The two together went among other places to the famous Jaina Bhandar of Jaisalmer. They were the first Westerners to visit that town. The next after them was probably Ludwig Alsdorf in 1951 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ who edited the first texts. In the eighties particular he did splended spade-work on mastering the whole Svetamba Siddhanta Jacobi translated in two volumes of "The what he called the Avassaya literature. At his and working it into this exemplary opus which Sacred Books of the East" the Uttarajjhayana, time very few texts had been printed. He was later on translated into English, but will the Ayaranga, Suyagadanga and the Kalpa succeeded in getting to Strassburg, where he be retranslated because that first translation Sutra of which he edited the Ayaranga and was then teaching, a magnificent collection is considered imperfect. Schubring also the Kalpa Sutra as well. These were the first of manuscripts which the late Dr. A.N. translated parts of the Jaina Svetambara critical text editions made in Europe. They Upadhye, India's leading Prakrit scholar, was Canon into German under the title "wrote were real pioneers in a then almost unknown able to make use of in recent years. Leumann Mahavira's" (Words of Mahavira) field of studies. It must particularly be did what was almost unbelievable. He Another German scholar of the same recorded that Weber was still of the opinion explored a whole literature, then absolutely generation who wrote a fundamental work on that Jainism was but a sect of Buddhism. It unknown, only from manuscripts without the Jainism is Helmuth von Glasenapp whose was Hermann Jacobi who definitely proved help of any printed books. Unlike Jacobi he book "Jainism, an Indian Religion for that this was not the case, and that Jainism had no Indian Pandit to assist him. He Redemption" is considered a standard work. was an old religion, even older than prepared some very good text editions, but Worth mentioning is also his Ph.D. thesis Buddhism. could only begin his work-he had to leave it about the Jaina Karma, to the importance of Of Jacobi's work I have made mention unfinished. The personal papers and notes wh eu. ine personal papers and notes which Ludwig Alsdorf referred in his "Les only of a small fraction so far. He was left by Leumann when he died in 1930 are all Etudes", a programmatic study written in of preserved in the Sanskrit Department at French which should be translated into non-canonical later works, for example Hamburg University, many of them already English Haribhadra's famous Apabramsa novel, the used by now, still more awaiting to be taken Schubring in turn was the teacher of Sanatkumaracarita. Most of these were out of the big almarah which they fill Ludwig Alsdorf, my revered Guru who passed published in India with long introductions completely. They will give ample scope for away on march 25th, 1978. His first special and English summaries facilitating their use further research to a young generation of field of research was Apabramsa. He by Western scholars. Important is also scholars striving to uphold the old and • published a study on some Apabramsa tales, Hermann Jacobi's German translation of the famous tradition of Jaina studies in Germany. one of the works dealing with the Jaina King Sanskrit work Tattvartha-Sutra which was Continuing the work of Ernst Leumann Kumarapala of Gujarat. Later, he came to serialised in the Journal of the German was Walter Schubring, his pupil, whose name know Hermann Jacobi who entrusted him Oriental Society. This is a fundamental work is well known, in the Jain community in India with a manuscript on an Apabramsa work that which opened the doors towards the to this day. He published quite a number of had been sent to him from India. This was the understanding of Jaina philosophy and canonical works, foremost among them a Harivamsapurana, part of the Tisattimahadogmatics. The work which is kept in high disciplinary text, the Brhadkalpasutra. An purisakakalamkara of Pushpadanta, the great esteem by both, the Svetambaras and the edition and translation of this fundamentally epic. shortly afterwards in 1930, Alsdorf went Digambaras, is composed in Sanskrit in the important text formed his doctoral thesis in to India and was able to photograph there two Sutra style. It probably belongs to the first Strassburg. Afterwards he published more manuscripts of that work so that he was century BC. In 1948 the Jain community in Bhavabaravisiha He also made a critical in the position to edit for the first time India gratefully acknowledged its debt to edition of the first part of Ayaranga. His Apabramsa text with the help of several Hermann Jacobi by publishing a collection of monumental work, however, is a book manuscripts including a comprehensive his articles under the title "Studies in entitled in English "The Doctrine of the introduction dealing with the development of Jainism". Jainas", where he endeavoured for the first A contemporary of Jacobi was Ernst time to draw a complete picture and all this and so on. In India he was presented by the Leumann, a scholar of Swiss extraction who, entirely founded on first-hand knowledge of unforgettable Muni Maharaj Punya Vijayaji however, always worked and taught in the canonical texts. So far Jainism had been among other works with his edition of the Germany. He also did a lot of pioneering studied mostly with the help of medieval Vasudevahindi of Sanghadasa. When alsdorf work; for example he edited the Prakrit texts sources. But it was Schubring who examined this work after his return to Indian Aupapatika-Sutra and the Jitakalpa. In succeeded in not only reading through, but literature, namely the oldest version of the For Prvate & Personal Use Only www.ainelibrary.org Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 famous Brhadkatha of Gunadhya. An independent version with considerable changes but yet in some portions more faithful to the original than any other so far known. He began working on this text but was interrupted by the Second World War; he had hoped to be able to take it up again, but he was not permitted to live longe enough to do so. The last years of his life Prof. Alsdorf devoted to studying the older commentaries of the Sacred Writings, the Nijjuttis, Bhashyas and Curnis, and he suggested this as a fruitful field of research to several of his pupils. At a seminar in Delhi in October 1974 Ludwing Alsdorf was awarded, by the Jain Vishwa Bharati of Ladnun, the title "Jain Vidya Manishi" of Which he was particularly proud. Alsdorf's "Kleine Schriften" (Minor Articles) appeared in the same year. This compendium of his treatises on various aspects of indology is indispensable among the German publications on Jainism. The same applies to "Studies in Jainism and Buddhism", a volume dedicated in 1981 to the memory of Ludwing Alsdorf by scholars from Germany. India and a number of other countries. One of Prof. Alsdorf's students, Dr. (Mrs.) Adelheid Mette, now Professor and Head of the Department of Indology at Muenster University, published the first complete translation of a considerable portion of the Oghanijjutti. It is one of the more interesting disciplinary texts giving among others the rules for the begging practice of the monks. This text is extremly difficult to comprehend. but invaluable for the understanding of its canonical predecessors as also for the history of monkhood in medieval times; it also gives a lively picture of medieval Indian culture through descriptions of ordinary daily life. Another work of Prof. Mette deals with the very interesting Avashyaka tales on the Golden Age and successive ages of Bharaha, the first Chakravarti etc., comparing them not only with Brahmanical and Buddhist tradition but also with parallel or even related traditions from classical antiquity, namely from Greece and Rome. There are several doctoral dissertations which have been written under Prof. Alsdorf's guidance, two of them dealing with a Digambara text, the Mulacara by Vatakeracharya. Prof. Alsdorf was given the permission to photograph the oldest manuscript of these texts in Mudbidri in Southern India called "Jain Kashi", because it is holiest Jain Tirtha in the South. With regard to Digambaras it must be said that Western research was almost exclusively centered on the Svetambaras whose canonical scriptures attracted the greatest attention. The Digambaras, as a rule reluctant to open their libraries, were not so well known also. It was only Ernst Leumann who succeeded in obtaining a 'large number of Digambara manuscripts. He was the first scholar to thoroughly explore Digambara literature and compare it with Svetambara parallels which yielded extremely valuable results for the exploration of the history of canonical and other literature and also for the difficult chronological questions involved in Jaina literature as in all Indian literatures-a fact which is only too well known. I should like to make mention here of the oldest of Ludwig Alsdorf's pupils; he is Dr. Klaus Bruhn, now Professor and Head of the Department of the Indian Philology and History of Art at the Free University of Berlin. He did most valuable spade-work in India when he explored the magnificant collection of Murtis at Deogarh/Madhya Pradesh. The Deogarh Temples, one of the great temple cities of the Jains, were studied by him for many months. He published an impressive folio volume on the Jain sculptures of Deogarh giving them their proper place in the history of Indian art. Prof. Bruhn has now been engaged for years in a big project, a concordance of all metrical passages in Jain scriptures, i.e. in the canonical texts, the Agamas, as well as in younger texts and commentaries. The concordance, being a team work by several of Prof. Bruhn's colleagues, Indian and German, will provide an invaluable tool for research. It will enable scholars to find out parallel passages in different works and to trace verses back to their oldest form thus assisting them in establishing the history of canonical and post-canonical literature. A survey of German studies on Jainism would be incomplete without mentioning the research by Dr. Gustav Roth of the Department for Indology and Buddhist Studies at Goettingen University. His dissertation in 1952 was on the Mallijnata, the Eighth Anga in the Nayadhammakahao of the Svetambara Jaina Canon. It comprises the edited text, translation into German as well as comments. Among. Dr. Roth's numerous articles on Jaina studies are "The Woman and Tree Motif, Salabhanjika" in the Journal of the Asiatic Society, "Mohanagrha" in the WellerJubilee-Volume and "Namaskara Formula" in the Golden Jubilee Volume edited in Madras in 1970. A basic and very important contribution of his appeared in 1973 in the Journal of the Oriental Research Institute Sources Can Teach Us". In 1986, on the Baroda under the title "What the Jaina occasion of Dr. Roth's 70th birthday, a selection of his learned contributions to Indology including a number of articles on Jainism was published in Delhi under the title "Indian Studies". of Heidelberg University, in its wellknown In 1977 and 1988 the South Asia Institute publication series, brought out two significant volumes on Jainism, namely Suyagadamga Studies" (Studien zum Suyagada) by Prof. Dr. Willem B. Belle. (Magdalene Duckwitz] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ About an Aksayatrtiya vyakhyana by Dr. Nalini Balbir, Paris 15 II ations pertaining to Jaina festivals are Lord. The contrast between the people who available so far, I was prompted to collect are distressed because the Lord does not data on the history and contemporary take any of the gifts they propose since they process of Aksayatrtiya. are unacceptable for a monk, and the joy of the Lord deeply immersed in asceticism, was In 1988, a grant from the Central National strongly underlined. The arrival in Hastinade la Recherche Scientifique (France) pur, the dreams of Prince Sreyamsa who enabled me to take part in the life of the comes to remember his former births and. pilgrims and to witness this festival as it was finally, the gift of sugar-cane juice were celberated in Hastinapur (from 13th to 20th briefly sketched. In short, the main outline of Apirl). This tirtha was selected because, as the story as handed down from times have shown elsewhere, its place in the Jaina immemorial was told to the audience in a religious geography has increased consi- simple manner, without any reference to derbly in the last ten years, under the literary sources or quotation. auspices of the Shree Atma allabh Jain Smarak Shiskshan Nidhi, and this partly On the other hand, three details seem to thanks to the legendary connection with be specific of the vyakhyana-genre as Aksayatrtiya which was made to revive: in opposed to the traditional biographies of 1978 the Parana Mandir which contains the Rsabha (where they do not seem to occur) full images of Lord Rsabha and Prince and are worthy of note since they show how Sreyamsa was inaugurated for this purpose the use of a text for a living religious purpose inside the Svetambara comlex. could imply adjustments and insertion of popular elements. The always increasing (In all their festivals the Jainas read or importance given to 108 as a sacred number listen to special vyakhyanas (or prava could account for the mention of "108 pots" kathas) which are narratives made to remind of sugar-cane juice given by Sreyamasa in the audience of the celebrated mythological the vyakhyanas (see also Ksamakalyana events, so that a vast literature of this kind is etc.),whereasnonumberismentionedin other at our disposal. In what follows, as a personal sources. The search for an explanation to the tribute to Acarya Vijayendradinn Suriji fact that Rsabha could not find any suitable Maharaj, the present pontiff of the lineage alms during one whole year has led to a brightly illustrated by Acarya Vijay Vallabh courious by-story where the common motif Suriji Maharaj, I shall have an analysis of the of the previous birth and the law of karman Hindi vyakhyana which recorded when (antaraya-karman in the present case) are it was delivered by Him on the eve of the main made use of in his former existence Rsabha day (18th April 1988; about 30 minutes), and happened to see a farmer who was beating shall try to see how it takes its place in a his bulls. He asked him why he was doing so, continuous literary tradition (e.g. Aksaya advised him to block the animals mouths and triyakatha by Kanakakusala, 17th cent, A himself showed how to procede. Since this vyakhyana by Ksamakalyana, 19th cent). prevented the bulls from feeding themselves As all the available versions, the and led them to die, he acquired some bad vyakhyana mentioned how Lord Rsabha took Karman. In the Acarya's vyakhyana this initiation (diksa) along with other kings such incident (also narrated by Ksamakalyana) as Kaccha and Mahakaccha and how their was emphasised and served as a startingsons, Nami and Vinami, were granted point for a short generalization about sovereignty because they had served the Karman (supplemented by a Sanskrit quotarelibrary.org From the fundamental concept of dana, with which I started my studies in Jainism nine years ago, under the impulse of my guru, Prot. C. Caillat (see Danastakakatha. Paris, 1982 in Frenchl: "The 'micro-genre' of dana stories in Jaina Literature": Indologica Taurinensia 11.1983), it is but natural that I slowly came to be interested in Aksayatrtiya, since this annual Jaina festival commemo- rates Lord Rsabha's fast-breaking through the hands of Prince Sreyamsa and is thus the prototype of the monk-layman relationship of mutual solidarity. Since very few investig- Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tion), the all-pervading law of which nobody can escape. Similarly, whereas most literary vearsions only underline the fact that when Sreyamsa poured the juice into the Lord's hands, not even a drop fell down, the Acarya repeated this twice and explained that the Lord possessed a special labdhi which conferred this him power, viz. the Pravacanasaroddhara commentary, part 2. p. 43 1b). Finally, two developments of an apparently more general type were placed at the beginning and the end of the sermon. The first one dealt with the definition of a kalyank bhumi as Hastinapur is. This theme was tackled again in the end when the Acarya explained that Hastinapur is the only right place to accomplish the parana (as compared to Palitana) and offers all facilities to do so. The second development, as expected, was a India is a land of ancient spiritual heritage. emancipation of the Soul from the mundane rather insisting praise of dana which should Many eminent thinkers and philosophers of earthly clutches worldliness of and who have the first rank in the layman's dharma. In different faiths and religions have shown us stands as a spiritual saviour of the afflicted this part, the audience was often directly the way of elevation of Soul and higher values aggrieved and downtrodden human beings. called out and a simulated dialogue took of life for the uplift of the humanity. Religion is More than being a religious saint he place when the Acraya explained that when the sheet anchor of the Soul and the only commended a crusade for the elimination of monks receive gifts they lower their hands, refuge of mankind. The essence of religion is socio-economic evils and ills rampant in the instead of keeping them raised as they the perfection of Soul which leads to real present day society. He said once in his usually do in order to lift those who come spiritual progress. Jainism is one such discourse "I am not a Jain, Hindu, Muslim, close to them. religion which wages classless war against Buddha or Vaishya but a simple humble Thus we see how traditional Jaina worldliness and elevates the Soul from the pilgrim in search of God". He was a saint who legendary material, popular religious shackles of Karma to attain absolute salvation. never expected name and fame for himself. elements and personal invention were It is a universal religion in its true perspective There are so many monuments i.e. Jain combined and balanced to teach an inspire with no barriers of caste, creed or community Gurukuls, Mahavir Vidyalayas, Saraswati the audience. but preaches Truth incarnate non-violence in Mandirs, Hospitals Schools, Colleges and I wish to express my thanks to the Shree eternity and non-possession in toto. Udyog Gruhas in various states of India Atma Vallabh Smarak Shikshan Nidhi and its In this Thermo Nuclear age where the testifying his inner crave for the uplift of have organisers who kindly invited me to send a nots and downtrodden in society. He was a instruments of war far out pace the instrucontribution to the Smarika' published under sage, a devout Guru, a great Philosopher, an ments of peace, the teachings and sermons of eminent scholar, a spiritual leader, social their auspices, and wish all success to this Jain sages the last best hope for the survival academic and religious institution. reformer, and a humble servant of humanity. of mankind. To be frank in this war torn world express my deep sense of reverance and of today the principlesof Jainism are the only admiration for Puiya Yug-drasta. Acharya saving grace and saviour of afflicted Shree Vallabhsuriswarji May Shajhan Dev 32, rue des Bruyeres humanity. Here is one such Holy Acharya 92310 SEVRES saint Acharya Shree Vallabh Suriswar ji bless his soul. FRANCE whose sermons have shown us the way of Sudhakar M. Dalal For Prvate & Personal Use Only www.ainelibrary.org Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस ने राग द्वेष कामादिक, जीते सब जग जान लिया। सब जीवों को मोक्ष मार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया ।। बुद्ध वीर, जिन, हरिहर ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो। भक्ति भाव से प्रेरित हो, यह चित्त उसी में लीन रहो।। विषयों की आशा नहिं जिनको, साम्य भाव धन रखते हैं। निज पर के हित-साधन में जो, निश दिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं। ऐसे ज्ञानी साधु जगत के, दुःख समूह को हरते हैं ।। रहे सदा सत्संग उन्हीं का, ध्यान उन्हीं का नित्य रहे। उनके जैसी चर्या में यह, चित्त सदा अनुरक्त रहे ।। नहीं सताऊं किसी जीव को झूठ कभी नहि कहा करूं। पर-धन वनिता पर न लुभाऊं, संतोषामृत पिया करूं।। मेरी भावना अहंकार का भाव न रक्खूं नहीं किसी पर क्रोध करूं। देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईर्ष्या - भाव धरूं ।। रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार करूं। बने जहां तक इस जीवन में, औरों का उपहार करूं।। मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे। दीन दुखी जीवों पर मेरे, उर से करुणा स्रोत बहे ।। . दर्जन कर कुमार्ग रतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे । साम्य भाव रक्खूं मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे ।। गुणी जनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ आवे। बने जहां तक उनकी सेवा, कर के यह मन सुख पावे ।। होऊ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे। गुण ग्रहण का भाव रहे निन, दृष्टि न दोषों पर जावे ।। कोई बुरा कहो या अच्छा; लक्ष्मी आवे या जावे। लाखों वर्षों तक जीऊं या, मृत्यु आज ही आ जावे ।। अथवा कोई कैसा ही भय, आवे। लालच देने या तो भी न्याय-1 -मार्ग से मेरा, कभी न पद डिगने पावे। हो कर सुख में मग्न न फूले, दुख में कभी न घबरावे। पर्वत नदी श्मशान भयानक, अटवी से नहीं भय खावे ।। रहे अडोल अकंप निरन्तर, या मन दृढ़तर बन जावे। इष्ट-वियोग अनिष्ट योग में, सहनशीलता दिखलावे ।। सुखी रहें सब जीव जगत के, कोई कभी न घबरावे । बैर, पाप, अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावे ।। घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जायें। ज्ञान चरित उन्नत कर अपना, मनुज जन्म फल पायें ।। इति-भीति व्यापे नहि जग में, वृष्टि समय पर हुआ करे। धर्म-निष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करे।। रोग मरी दुर्भिक्ष न फैलें, प्रजा शान्ति से जिया करे । परम अहिंसा धर्म जगत में, फैले सर्व हित किया करें।। फैले प्रेम परस्पर जग में, मोह दूर ही रहा करे, अप्रिय कठोर शब्द नहि, कोई मुख से कहा करे ।। बन कर सब 'युगवीर' हृदय से देशोन्नति- -रत रहा करें। वस्तु स्वरूप विचार खुशी से, सब दुःख संकट सहा करें ।। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કલિકાલસર્વજ્ઞ શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય | ગુજરાતને ગુજરાતની પ્રજાને, પ્રજાની સંસ્કાર સમૃદ્ધિને અન નૈતિકતાને ઘડી, પાસા પાડયા, એના ઝંખવાયેલા ઓજને પં. શીલચંદ્રવિજયજી ગણિ પાણીને બહાર આણ્યું એની ચમકને અનાવૃત કરી અને આખું જગત એની સામે નીરખ્યા જ કરે એવા અનુપમ સૌન્દર્યથી એને હેમચન્દ્રાચાર્ય એક મહાન ગુજરાતી. એક મહાન સાધુ, સંસ્કારી આપી. એક મહાન વિદ્વાન એક મહાન સંસ્કારપુરૂષ. એકબાજુ એમણે સાહિત્ય સર્જનનો જ્ઞાનયજ્ઞ આરંભ્યો. - હેમચન્દ્રાચાર્ય: એક મહાન સર્જક: ગુજરાતી ભાષાના, પાણિનિ અને પતંજલિ, ઇન્દ્ર અને શાકટાયન અને કાત્યાયન ગુજરાતની સંસ્કારિતાના, ગુજરાતની અસ્મિતાના. આ બધા વૈયાકરણોનો જાણે કે એ પૂર્ણાવતાર બન્યા અને એક વીતરાગી નિઃસ્પૃહ શિરોમણી ફક્કડ સાધુ પણ એક એમણે સિદ્ધહેમ શબ્દાનુશાસન આપ્યું. પાણિનીય વ્યાકરણનું આખીયે પ્રજાના સંસ્કારપિંડનું, નૈતિક અને સાહિત્યિક કાવ્ય ભટ્ટીકવિએ આપેલું અહી હેમાચાર્યે જ એ કામ કરી સરૂચિંતત્રનું ઘડતર કેવી રીતે કરી શકે છે. તેનો. ગુજરાતને લીધું અને ‘એક પંથ દો કાજની જેમ દ્વયાશ્રય મહાકાવ્ય વાટે અને કદાચ સમગ્ર ભારતવર્ષને લાગેવળગે છે ત્યાં સુધી એમણે વ્યાકરણને અનુસરતું અને વળી સોલંકી- ચૌલુકય વંશના હેમચન્દ્રાચાર્ય સમો બીજો દાખલો મળવો દોહ્યલો છે. આ સમગ્ર ઇતિહાસને સુઘડ રીતે વણી લેતું મહાકાવ્ય આપ્યું. બીજે અર્થમાં હેમચન્દ્રાચાર્ય વસ્તુત: યુગપુરૂષ બની રહ્યા હતા. નામાલિંગાનુશાસન (શબ્દ કોશ) માટે અમરસિંહના આધ્યત્મિકતાનો સંબંધ વ્યકિત સાથે છે, તો નૈતિક મૂલ્યોનો અમરકોષનો આશરો લેવાતો હતો, અહિ એ ન્યૂનતાની પૂર્તિ અનુબંધ સમગ્ર સમાજ સાથે હોય છે. સમાજચેતનાના પ્રાણમાં માટે એમણે અભિધાનચિંતામણિકોષ અને લિગાનુશાસનની નૈતિકતાનું તત્વ સિંચવું, અને યુગોના યુગો સુધી એ સમાજને ૨ચના કરી. એક ડગલું આગળ વધીને એમણે દેશીનામમાળા ઉન્નત રાખી શકે તે રીતે સિંચવું અને છતાં પોતાની વૈયકિત ક પણ રચી, જે આવનારા સૈકાઓની ગુજરાતી ભાષા માટે પાયાના આધ્યાત્મ સાધનાના પવિત્ર ધ્યેયમાં મસ્ત-મગ્ન બન્યા રહેવું. પત્થર સમી બની રહેવાની હતી. ભગવાન વ્યાસે મહાભારત આ કામ માત્ર યુગપુરૂષથીજ, દેશ અને કાળ ઉપર પોતાનું અને પુરાણો આપ્યા હતા. અહી હેમચન્દ્રાચાર્ય સંપૂર્ણ અને તે પણ પ્રેમભર્યું આધિપત્ય સ્થાપી શકનાર ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષ ચરિત્ર મહાકાવ્ય આપ્યું, જે એક બાજુ યુગપુરૂષથી જ બની શકે. હેમચન્દ્રાચાર્યને આ સંદર્ભમાં પૌરાણિક સાહિત્યની ન્યુનતાની પૂર્તિરૂપ હતું, તો બીજી બાજુ મૂલવીએ તોજ ગુજરાત પરના તેમના અણભારનો અંદાજ આવી કાલિદાસ, માઘ, ભારવિ અને શ્રીહર્ષના મહાકાવ્યોની પણ શકે. હરોળમાં ઊભુ રહી શકે તેના કાવ્ય સાહિત્યરૂપ પણ હતું. હેમચન્દ્રાચાર્ય ગુર્જરગિરાની આધ ગંગોત્રી સમા મહાપુરૂષ મમ્મટના કાવ્ય, કાશની સામે એમણે કાવ્યાનુશાસન આપ્યું હતા. આજે ગુજરાતમાં બોલાતી ગુજરાતી બોલીનો પહેલો પાયો અને છંદોનુશાસન પણનિમ્ બૌદ્ધ આચાર્ય માતુચેટના એમણે નાખ્યો છે, એ હકીકત એક ઐતિહાસિક તથ્ય છે. સ્તોત્રોની સ્પર્ધા કરે તેવું સ્તોત્ર સાહિત્ય સજર્યુ. સિદ્ધિસેન હેમચન્દ્રાચાર્ય પૂર્વેનું ગુજરાત એ ભાષાની તેમજ સંસારની દિવાકર અને હરિભદ્રસૂરિની યશોજ્વલ તર્ક પરંપરામાં દ્રષ્ટિએ દરિદ્ર અને કંગાળ ગાતું ગુર્જરરાષ્ટ્ર હતું. એની પાસે સ્થાન લઇ શકવા સક્ષમ એવું વાદાનુશાસન પણ તેમણે આપ્યું. એનું પોતીકું કહી શકાય તેવું સાહિત્ય ન હતું કે ભાષાનું પોત અને છેલ્લે, યોગગ્રંથોના સમુદ્રનું મંથન કરીને મેળવેલા પશુ નહતું. બધે આ બાબતે એ સંપૂર્ણત: પરોપજીવી રાષ્ટ્ર હતું. અમૃતકુપા જેવું યોગશાસ્ત્ર આપીને ભગવાન પતંજલિની ખોટ તો સંસ્કાર વારસાની દ્રષ્ટિએ ગુજરાતની પ્રજા પાસે એની પણ તેમણે પૂરી આપી. તેમણે શું નથી આપ્યું ? ગુજરાતને, પોતીકી અને અંગતના ચોકમાં ઉન્નત મસ્તકે ઊભી રહી શકે ગુજરાતના સાહિત્યને, ગુજરાતની અસ્મિતાને તેમણે ખોબલે તેવી કોઇ સભ્યતા કે અસ્મિતા પણ નહોતી અણધડ રત્નપાષાણ ખોબલે આપ્યું છે. અક્ષય અને અમર. એમ જનકૃતિ છે કે એક જેવી એની સ્થિતિ અને કક્ષા હતી, એ રાહ જોતી હતી કોઈક લીંબુ હાથમાં લઇને ઊંચે ઊછાળવામાં આવે તે ઉછળે ને પાછું ઝવેરીની: જે એને પારખે અને પાસા પાડે. હાથમાં આવે એટલા સમયમાં હેમાચાર્ય છ નવા શ્લોકોની એને ઝવૈરી મળ્યા હેમચંદ્રાચાર્યના સ્વરૂપે. એમણે રચના કરી લેતા. સેંકડો લહિયાઓ હારબદ્ધ બેઠા હોય, અને VIIIIiiiiiiiiiiiim R Neeeee શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય www.ainelibrary.org Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ લહિયાઓની જુદી જુદી શ્રેણિ જુદા જુદા વિષયના ગ્રંથા લખ્યું જતી હોય. ત્યારે હેમાચાર્ય ક્રમશઃ એક પછી એક શ્રેણિની સમીપે જાય, જે શ્રેણિ જે વિષયનો ગ્રંથ લખતી હોય તેને તે વિષયના શ્લોકો કે પાઠ બોલી સંભળાવે, તે લોકો તેટલું યાદરાખીને લખતા થાય ત્યાં તો બીજી શ્રેણિ, ત્રીજી શ્રેણિ એમને દરેકની પાસે જઇ, તે તે વિષયનો પાઠ મનોમન નિર્માતો જાય તેમ બોલતા જાય અને પેલાઓ લખ્યું જ જાય. બધી શ્રેણિઓ પાસે ફરીને પાછા પહેલી શ્રેણિ જ પાસે જ પહોંચે ત્યારે તે લોકો માંડ પુરૂ લખી રહ્યા હોય, અને તે પૂરૂ થયે તરત જ તે વિષયનું સંધાન આગળ લંબાવાય. જ્ઞાનયજ્ઞ શું તેનાં આછો અંદાજ આપવા માટે આટલી હકીકત પર્યાપ્ત છે. તો બીજી તરફ, સિદ્ધરાજ જયસિંહ અને પરમાહત કુમારપાળ એમ બે બે સોલંકી અને વિક્રમી રાજાઓના શાસનકાળને આવરી લેતા વિશાળ સમયપટ ઉપર પોતાની જવલત કારકિર્દી પાથરનાર હેમચન્દ્રાચાર્યે, રાજા અને પ્રજાના સંસ્કાર વારસાને નિર્માણ કરવામાં ઘડવામાં, પુષ્ટ અને પલ્લવિત કરવામાં, ઓજસ્વી અને પ્રબળ બનાવવામાં કાય કયારેય પાછું વળીને જોયું નથી. . પરહિત તે ધર્મ અને પરપીડન તે અધર્મ આ છે જીવનધર્મનો પા. હેમચન્દ્રાચાર્યે આ પાયો રાજા પ્રજાના હૈયામાં યોગ્ય રીતે નાખ્યો. જીવદયા પાળવી તે. એમની ધર્મવ્યાખ્યાનું પહેલું ચરણ હતું. વ્યસન મુકિતએ એનું બીજું ચરણ હતું. માસ-મદ્ય નિષેધ એ કેટલાક પરપીડન પ્રેમીઓને કે નૈતિક મૂલ્યોની મહત્તા ન સમજનારાને વેવલાવેડા જેવો કે સાંપ્રદાયિકતાના આગ્રહ જેવો તે વખતે પણ જણાતો હતો, આજે પણ જણાય રે આજના આ ગુજરાતના શાસક કક્ષાના અમુક લોકો તો ઊઘાડે છોગે બોલતા થયા છે કે માંસાહાર મસ્ત્યાહાર નિષેધ એ તો મધ્યયુગના વહેમ અને અંધશ્રદ્ધા છે. હવેના વિજ્ઞાનયુગમાં એવા વહેમો ન ચાલી શકે. પણ ગુજરાતની પ્રજાના લોહીમાં અહિંસા, જીવદયા, વ્યસનમુકિત સ્વસ્થ જીવન, માનવતા, પરગજુ મનોવ્ાત્તે, પાપાચારથી ભય, ધર્મસહિષ્ણુતા વગેરે ઉમદા અને સ્પૃહણીય તત્વોનો જો પ્રવેશ અને ચિરનિવાસ થઇ શકયો હોય તો તે હેમચન્દ્રાચાર્યનો જ પ્રભાવ અને પુરૂષાર્થ છે. એમાં લેશ પણ ' શંકાનો સ્થાન નથી. . ગઇ કાલ સુધી ગુજરાતની પ્રજાએ આ સંસ્કાર સમૃદ્ધિને જાળવી રાખી હતી. અહીં એક બાજુ ગામે ગામે પાંજરાપોળો હતી.જીવાતખાના હતા.તો બીજી બાજ કોમી એખલાસ પણ મોમાં આંગળા નખાવે તેવો અનુપમ હતો. દારૂ મંદિરા તરફ ભારોભાર ધુણા હતી, તો મહાજનો અને મોટેરા સામે છાકટા થવામાં પણ નાનપ અનુભવાતી હતી. એકાદ મૂંગા મરતા જીવને બચાવવા માટે પ્રાણાર્પણની તત્પરતા હતી, તો સમયનો સાદ પડયે દેશ રાજયના ને પ્રજાના રક્ષણ માટે મરી ફીટવાની જિગર પણ જોવા મળતી. આ બધીયે પરિસ્થિતિનું મૂળ શોધવું હોય તો તે માટે આપણે ૯૦૦ વર્ષ ઓળગવા પડે. ત્યારે આપણને દેખાય એક તેજ છલકતો સંસાર નીતરતો પ્રેમા જાદુથી પારકાને પણ પોતીકા બનાવતો વીતરાગી યુગપુરૂષ ઘડીકમાં કવિડિતોના માન મુકાવતો હોય, ઘડીકમાં પ્રજા ધર્મ સહિષ્ણુતાના પાઠ પઢાવતો હોય, કયારેક સંસ્કા ગંગાના વહેણમાં રુકાવટ કરવાના કે કચરો નાખવાના પ્રયત્નોને પ્રેમથી અટકાવતો હોય તો કયારેક આત્મસાધનાની અનોખી અમીરીમાં નહાતો હોય. એ યુગપુરુષ હેમચન્દ્રાચાર્યે આપેલો અદ્ભુત સંસ્કાર વારસો હજી ગઈકાલ સુધી આ ગુજરાતને, અને નરવાઇ સમર્પતો જળહળી રહ્યો હતો, એ વારસો આજે જે ઝડપથી લુપ્ત થઇ રહ્યો છે તે ચિંતા પ્રેરે તેવું છે. આજે, ૯૦૦ વર્ષ પછી, માટે જ એ યુગપુરુષને અને એણે આપેલા વારસાને ફરી ફરીને યાદ કરવાની, તાજો કરાવવાની અને વાગોળવાની જરૂર ઉભી થઇ છે, અને એમને યાદ કરવાનું સબળ નિમિત્ત પણ એમની નવસોમી જન્મજયંતિના રૂપે-હાથવગું આવી લાગ્યું છે. આજથી બરાબર નવસો વર્ષ પૂર્વે, વિ.સં. ૧૧૪૫ના કાર્તક શુદિ પૂનમે આ યુગપુરુષનો જન્મ ધંધુક (ધંધુકા)ના એક મોઢ જ્ઞાતીય જૈન પરિવારમાં થયો. પિતાનું નામ ચાચિગ, માતાનું નામ પાહિણી. પાહિણીમાતાને સ્વપ્નું લાધ્યુ એમાં એણે આબો જોયો-રોપેલો. પણ પોતે એ આંબાને ત્યાંથી ઉખેડીને અન્યત્ર રોપ્યો, અને પછી એ ખૂબ ખૂબ ફળ્યો. આ સ્વપ્નનું મનગમતુ ફળ તે હેમચન્દ્રાચાર્ય. ચાંગદેવ તરીકે તેઓ પાહિણીની કખે જન્મ્યા અને તેમની પાંચ વરસની ઉમરે જ, ગુરૂવંદને મા સાથે ગયેલા ત્યારે ખાલી પડેલા ગુરૂના આસન ઉપર તેઓ ચઢી બેઠા, તે જોઇને વિશ્વળ બનેલી માતાને ગુરૂ દેવચન્દ્રસૂરિએ પેલું સ્વપ્નું યાદ દેવરાવ્યું. અને આ બાળક પોતાને સોંપી દેવાની માંગણી મૂકી. માએ સ્વપ્નાનો અર્થ યાદ કર્યો. આંબો ઉગ્યો ભલે મારે આંગણે, પણ તેને મારા હાથે હું જ બીજે રોપીશ તો જ તે ફળશે, અન્યથા નહિ, તેણે સ્વયંભૂ નિર્ણય લીધો, અને પોતાના લાડકવાયાને ગુરૂચરણે સમર્પી દીધો. હેમચન્દ્રાચાર્ય જરૂર મહાન, પણ એમને મહાન બનાવવા કાજે પોતાના હૈયાના ટુકડા સમો દીકરો અને તે પરની મમતાનો ત્યાગ કરનારી માતા તો તેથીય મહાન, એમાં સંદેહ કેમ થાય ? બાલ ચાંગાને ગુરૂએ કર્ણાવતી આજનું અમદાવાદમાં વસતા શ્રાવક ઉદયન મહેતાને સોંપ્યો. તેણે તેનું સંસ્કાર વાવેતર કર્યું. નવ વર્ષે, સંવત ૧૧૫૪માં ગુરૂએ તેને સ્તંભતીર્થ ખંભાતમાં દીક્ષા આપી, તેનું ઘડતર આદર્યું. ચાંગદેવમાંથી મુનિ સોમચન્દ્ર બનેલા એ પુણ્યાત્માએ જ્ઞાન અને ચારિત્રની એવી પ્રગાઢ અને અપ્રતિમ સાધના કરી કે તેથી રીઝેલા ગુરૂએ ફકત એકવીસ વર્ષની વયે, સંવત ૧૧૬૬ના અક્ષયતૃતીયાના પુણ્યદિને તેમને આચાર્યપદે સ્થાપ્યા અને હેમચન્દ્રાચાર્ય નામ આપ્યું આ પછીનો લગભગ ચોસઠ વર્ષનો સુદીર્ઘ સમયગાળો તે તેમની યુગપુરુષ તરીકેની જ્વલંત દીપ્તિમંત કારકિર્દીનો ગાળો રહ્યો. આ ગાળામાં તેમણે સારસ્વતમંત્ર સાધ્યો, લાખો શ્લોકોનું સાહિત્ય રચ્યું. રામચંદ્ર અને ગુણચંદ્ર જેવા પ્રકાંડ પંડિત શિષ્યો મેળવ્યા અને કેળવ્યા, બે બે રાજાઓને બોધ આપીને રાજાપ્રજાની પ્રીતિ પ્રાપ્ત કરી, અવસરે રાજાનો રોષ વહોરીને પણ સાહિત્યિક અને સાંસ્કૃતિક વારસો આપ્યો, ધાર્મિક સહિષ્ણુતા માનવતાના ધર્મના પ્રેર્યાં કુમારપાળને ઉગાર્યો, ગુજરાતને અને ઉદારતાના ઉચ્ચ આદર્શોનું આ પ્રજાને ગળથૂથીમાં વાવેતર કર્યું. અને આવા તો અસંખ્ય ધ્યેયો સિદ્ધ કર્યા. અને આવી લોકોત્તર કહી શકાય તેવી જાજરમાન કારકિર્દીના છેડે વિ.સ. ૧૨૨૯માં તેમણે ઇચ્છામૃત્યુ સમા સમાધિમય મૃત્યુ દ્વારા દેહનો ત્યાગ કર્યો. આ સંસ્કારપુરુષ, પ્રજ્ઞાપુરુષ અને યુગપુરુષના આદર્શો અને સંસ્કારોને તેમની નવમી જન્મ શતાબ્દીના આ પાવન અવસરે યાદ કરીએ, અને આપણા હાથે નષ્ટ થઇ રહેલા તેમના અહિંસાના અને ધર્મસહિષ્ણુતાના વારસાને પુનઃ જીવિત કરવા પ્રયત્ન કરીએ. 53 www.jainlitiqary.org Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4-प्रत्याहार .६.धारणा શ્રુતજ્ઞાન એ ધ્વનિશાન છે. જપ-સાધનાનું લક્ષ્ય સાધકને બિંદુસ્થાને છે. મુખ્ય કલાને સ્થાને છે. શબ્દ એટલે ‘અથી હ’ અનેક્ષર-ભાવ-કુતમાં લઈ જવાનું હોય છે. નામથી સુધીની વર્ણમાતૃકા વર્ણમાળાનું પરારૂપ અછું છે. અર્હમય નાદ નાદાનુસંધાન થાય છે અને રૂપથી જયોતિમાં જવાય છે. નાભિકમળમાં અવ્યકત રૂપથી વિદ્યમાન છે, અરિહંતનું નામ અને તેના શબ્દોરૂપી રૂપમાં પરમાત્મપ્રકાશ નાદ અમાત્ર છે અરૂપી છે. અને ઇષ્ટનો પ્રસાદ આપવાની સંપૂર્ણ શકિત છે. જપ-સાધનાની બિંદુ અર્ધમાત્ર સેતુ છે. અંતર્ગત જીવનમુકિતનો માર્ગ સ્પષ્ટ રીતે સાંપડે છે. કલા-ત્રિમાત્ર-ત્રિગુણાત્મક સંસાર છે. યોગની કઠિન પ્રક્રિયા, ક્રિયાયોગનાં જટિલ વિધાનો, એ પ્રકારે નાદ-બિંદુ-કેલા કવણાત્મક છે. ૩ કારમય છે, -नियम ३ आमन જ્ઞાનમાર્ગની વિચારબહુલ ગંભીરતા, ભકિતમાર્ગનો રસમય (અર્હમય છે.) નિશ્ચલ પરાવાક રૂપ પ્રણવાત્મક કુંડલિની શકિત ઉલ્લાસ, એ સર્વને માટે સુલભ નથી, જપ-સાધના સર્વને માટે એ જ પ્રકૃતિ છે. ઉચ્ચારણ થવા પૂર્વે આ નાદ પરપ્રણવરૂપથી અલ્પાયાસ સાધ્ય છે. જો સમ્યક્ શ્રદ્ધા, ભાવ અને સમજણથી નાભિમંડળમાં વ્યાપ્ત રહે છે. જયારે તે જાગ્રત થાય છે ત્યારે * RSS - મત્ર-સાધના થાય છે તો જ્ઞાન, ભકિત અને કર્મયોગની ભમરની સમાન ગુંજન કરતો હૃદયકમળમાં વ્યંજનોની સાથે સાધનાઓના ફળ જેટલો જ લાભ સહજ રીતે પ્રાપ્ત થાય છે. મળીને કંઠમાર્ગમાં આવી નિશ્ચિત સ્વરૂપ આકૃતિને ગ્રહણ કરી એટલું જ નહીં પણ "બહ્મ' અર્થાત્ પરમાત્મપદનું સ્વરૂપ મુખ કમળથી ચૂલરૂપમાં પ્રવેશ કરે છે. નાદાશ્રિત રહેલું છે તેનો અનુભવ પણ બહુ કષ્ટ વગર થાય છે. * એ રીતે નાદ ચૈતન્ય નાભિમાં સુપ્તિ રૂપે કંઠપ્રદેશમાં બિંદુરૂપે સ્વપ્નવત અને મુખકમળમાં જાગ્રત થઇને પ્રાચીનો જેને ‘વાગ્યોગ’ કહે છેમધ્યકાલીન સંતગણ જેને શૌચ્ચારણ કરે છે. સુરત-શબ્દ-યોગ કહે છે, અર્વાચીન યોગીગણ જેને જગત-સર્જનના આરોહણનો ક્રમ પરામાંથી પશ્યત્તિ, ‘શબ્દ બહ્મ'ની ઉપાસના કહે છે, તે જપ-સાધના વર્તમાનકાળમાં પશ્યત્તિમાંથી મધ્યમામાં અને મધ્યમામાંથી વૈખરીમાં જવાનો અર્થકામની દુનિયામાં વ્યસ્ત રહેતા જીવને બહુજ ઓછા પ્રયાસે અનુભવના પ્રકાશમાં લઇ જવા સમર્થ છે. જે શબ્દબ્રહ્મમાં જપ-સાધના એ મને ઉલટાવીને વૈખરીમાંથી પરામાં નિષ્ણાત બને છે તે પરબ્રહ્મની ઉપાસના કરી શકે છે. શબ્દાતીત જવાની સાધના છે. પરા પછી શબ્દની ગતિ નથી. પરમપદના સાક્ષાતકાર માટે શબ્દનો જ આશ્રય લઈને વૈખરી વાણી એ વાસ્તવમાં જીવનો સ્વરૂપસકોચ, અણુભાવ શબ્દ રાજયનું ઉલ્લંઘન કરી શકાય. આખું વિશ્વ શબ્દમાં જ -સમાં પ બહિરાત્મભાવ છે. વૈખરી એ સંપૂર્ણપણે દેહાત્મભાવ છે. રત ઉધૂત છે અને શબ્દમાં જ વિધૂત છે. શબ્દ જગતસૃષ્ટિનું મૂળ છે. સૃષ્ટિ-શબ્દપૂર્વિકા છે. જગતુ શબ્દ પ્રભવ છે. આજનું વિજ્ઞાન જપના બે અંગ છે: તો આપણો દેહ એ ઘનીભૂત થયેલો ધ્વનિ Cystalised તHEસ્તર મવનમ્ / વ્યાહરણ તથા અનુસ્મરણ. મત્રાસરોમાં Sound-છે એમ કહે છે. અગાધ રહસ્ય છે. મંત્રના એ કેએક અક્ષરમાં જયારે જા-સાધના એકાંતભાવથી ચિત્ત અભિનિવિષ્ટ થાય છે ત્યારે શબ્દ, અર્થ આ શબ્દ એટલે નાદ-ધ્વનિ-અંદન. આખી સૃષ્ટિ અનંતશશિકાન્ત મહેતા અંનત સ્પંદનોની એક હારમાળા છે, પરંતુ આ વિશ્વ-કલરવની અને પ્રત્યય-ત્રણેનો સંગમ થાય છે. જપ-સાધના આધ્યાત્મિક વિજ્ઞાનમાં સુપરિચિત અને સર્વ- પાછળ એક મહાન છે તે મહામૌનમાં જપ-સાધના પ્રથમ આરંભ વૈખરી જપથી થાય છે. વાચિક, ઉપાશું અને માન્ય છે. પર્યાવસિત થાય ત્યારે ધ્યેયની પ્રાપ્તિ થઈ ગણાય. માનસિક જપ એ વૈખરી જપના અવાજોર ભેદ છે. વૈદિક, પૌરાણિક, સ્માર્ત, તાંત્રિક, બૌદ્ધ કે સૂફી અને ઈસાઈ જપની સંખ્યા વધવાથી કંઠ રોધ થાય છે, ત્યારે જપ માર્ગમાં જપનું મહત્વ અને જરૂરિયાત મુકત કંઠે કહેવામાં નાદ એ જીવની મૂળ પ્રાણશકિત છે અને તે નાભિમાં નિવાસ આપોઆપ અંદર ચાલે છે તેને સ્વ-ભાવમાં જપ થયો એમ આવ્યા છે. કરે છે. તે અવ્યકત ધ્વનિ છે. અવ્યકત નાદ અભિવ્યકત થવા યોગીઓ કહે છે. પહેલા જપ મૂલાધારમાં, બાદમાં નાભિમાં આપણે ત્યાં આગમોમાં નમસ્કારમહામંત્રને તો ૧૪ પૂર્વનો માંગે છે ત્યારે હૃદય સુધી આવે છે, ત્યાં બધા વિકલ્પોને પાર અને ત્યારબાદ ઉદયમાં જ૫ જયારે ચાલે છે ત્યારે સૌ પ્રથમ (સમગ્ર જ્ઞાનનો) સાર કહેવામાં આવ્યો છે. કરી, કંઠથી ઘોષરૂપ પ્રાપ્ત કરી, મુખથી વ્યકત થાય છે. કંઠ નાદમિશ્રિત જપ થાય છે અને છેવટે નાદાશ્ચિત જપ બની જાય મીન : Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 છે. હૃદયકમળમાં ઉચિત થતા અનેક સંકલ્પ-વિકલ્પોને ત્યાં આત્માની શિવ અને શકિત બનેનનું અવિભાજય યુગ્મ બિંદુની પ્રાપ્તિને તાંત્રિક ભાષામાં અર્ધમાત્રાની પ્રાપ્તિ કહે શમાવીને જયારે મંત્રજપના શબ્દો નાદમિશ્રિત થાય છે (અહીંયાં સિદ્ધ થાય છે. આગમિક ભાષામાં તેનો ઉપયોગ અને ઉપગ્રહની છે. ત્યારબાદ બિંદુનવકથી સહસ્ત્રારમાં રહેલા પરમચૈતન્યનું ભૂમિકા આપોઆપ આવે છે, ત્યારે મધ્યમાની મંત્રમયી સંપૂર્ણ શુદ્ધિ કહે છે. આપણે ત્યાં યુગલિકયુગ, યુગલીઓ- મિલન થાય છે. ભૂમિમાં પ્રવેશ થાય છે. યુગલભાવ-યામલભાર્ વગેરેની વાતો આવે છે, જેમાં માત્ર જયારે મંત્રાલરોના આલંબનથી ધ્યાનથી-ત્રિમાત્રરૂપી મનુષ્ય કંઠમાં ઉચિત થતી વાણી, માનસિક ચિન્તા અને ઇચ્છા કરવાથી જ ઈછત મળે છે તે મંત્રની આ પરાકાષ્ઠામાં બાહ્યભાવનો રેચક થાય છે અને અંતરાત્મભાવનો પૂરક થાય મનોગત ભાવથી જડાયેલી રહે છે. સ્મૃતિ-પરિશુદ્ધિથી આ તદન શકયછે, એ જ પ્રાય: સંદર્ભમાં યુગલિક યુગની વાત ધશે, છે ત્યારે મન એકમાત્રામાં કેન્દ્રિત છે, સામાન્ય રીતે મન વૈખરીના સાંકયેનો પરિહાર થાય છે અને અન્નમય-મનોમય આજે વિજ્ઞાને એ સિદ્ધ કરી બતાવ્યું છે કે એક વાર ચેતનાના એકમાત્રામાં રહેતું નથી. ચંચળતાના કારણે માત્રાનું બાહુલ્ય પ્રાણમય કોષોની અશુદ્ધિઓ દૂર થઇને મધ્યમોમાં મંત્ર અંદન૨હિત ક્ષેત્રમાં પ્રવેશ થાય તો ત્યાં સમગ્ર સર્જનનો સ્ત્રોત વારંવાર પામી જાય છે. પરંતુ બિંદુસ્થાન ઉપર એક વાર ચેતન્યનો ઉન્મેષ આંશિક અનુભવાય છે. 261 9. The third Law of Thermodynamics મન કેન્દ્રિત અલ્પ સમય માટે પણ જયારે થાય છે ત્યારે પૂર્વસંસ્કારોને કારણે વારંવાર મધ્યમામાંથી વૈખરીમાં has now proved that in a vacuum state સહસ્ત્રારમાં બિરાજમાન પરમચૈતન્યની કટ્ટા નીચે વહીને (બહિરાત્મભાવમાં) આવાગમન થયા કરે છે. પરંતુ જયારે there is perfect orderliness and creativity. બિંદુમાં સાધકને એટલી પરિપ્લાવિત કરી મૂકે છે કે તે મનને સંખ્યાથી, ભાવથી અને સૌષ્ઠવથી જપ ચાલુ રહે છે ત્યારે અંદનરહિત અવસ્થા એક વિશાળ શકિતનો સ્ત્રોત છે. વારંવાર કેન્દ્રમાં રહેવા પ્રેરિત કરે છે. મૃતિ-નાશ (કર્મનાશ એ સ્મૃતિનાશ જ છે) થવા માંડે છે અને પરમપદમાં પ્રવિષ્ટ થવા માટે જપ-યોગ એક અભ્યારોહ મંત્રરહસ્યના જે ત્રણ પાદ છે સંબોધન-વિશેષણ-દ્રવણ તેના મંત્રાક્ષરો અનાહત ધ્વનિમાં પર્યાવસિત થાય છે. એક તરફ છે. મંત્રાલરોના અગાધ રહસ્યને પામવા માટે તો જેમ સમુદ્રમાં બિંદુમાં પહોંચ્યા બાદ, સંબોધન-વિશેષણની કૃતિ પૂરી થાય અને ગુરુશકિત અને એક તરફ સ્વકીય પ્રયત્નથી સાધક અંતરાત્મ- ડૂબકી મારીને રત્નો-મોતીને મેળવી શકાય છે એમ વારંવાર આ દ્વિપાક્ષિક દ્રવણ શરૂ થઇ જાય છે. જેટલા અંશમાં સાધકની વૃતિ ભાવને પામે છે અને તેનું વીર્ય મૂલાધારમાંથી ઊર્ધ્વ ગતિને નિર્મળ ચેતનાના સાગરમાંથી નિત્યનૂતન નવા-નવાં મોતીઓ ભૂમધ્યમાં રહે છે તેટલો વખત સતત અમૃતધારા પામીને આરજ્ઞા અને સહસ્ત્રારમાં જવા પ્રયાસ કરે છે. મળતાં રહે છે. નમસ્કાર મંત્રના ૬૮ અક્ષરો, જેનું મૂલ્ય ને થાય સહસ્ત્રારમાંથી વહ્યા જ કરે છે. મધ્યમાનો અર્થ બે પ્રતિમાં મધ્યવર્તી સ્થાન સેતુ છે. પાશવ તેવા અમૂલ્ય અક્ષર છે, જેના આશ્રયથી અનંત જીવો અમૂલ્ય આગમો જેને નવપદની આરાધના (સિદ્ધચક્રની આરાધના) વૈખરી વાફ અને પર્યાન્તિ દિવ્ય વાહનો મધ્યમાં સેતુ છે. પદ (સિદ્ધિપદ)ને પામ્યા છે. કહે છે તેને મંત્રશાસ્ત્ર બિંદુનવકની સાધના કહે છે. બિંદુથી શરૂ મંત્રાલરોના વાના અનુગ્રહથી, વૈખરીમાંથી મધ્યમામાં હૃદયકમળ કે જે ચિદાકાશ કહેવાય છે તેમાં જયારે મંત્રનો થતા આરોહણની ભૂમિકા નીચે મુજબ છે. જેમ ઉત્થાન થયું. તેવી જ રીતે આમ્નાય અને વિમર્શ થઇને અનાહતનાદનું શ્રવણ થાય છે ત્યારે સાધકને બિંદુ, અર્ધચન્દ્ર, રોધિની, નાદ, નાદાત, શકિત, વ્યાપીની, વિશ્વાસબાહુલ્યના પ્રભાવથી પશ્યક્તિની દિવ્યવાનો પણ શું વિસ્મયપુલ ક અને પ્રમોદનો રૉમાંચ થાય છે. તેના બધા જ સમના, ઉન્મના, બિંદુમાત્રાથી અમાત્રમાં જવાનું દ્વાર છે, જયારે થાય જ છે. જયાં મંત્ર-દેવતા-આત્મા-અને પ્રાણની એકતા થતાં સંકલ્પ વિકલ્પના રૂપી ‘અરિનો હત' થાય છે અને અરિહંતમાં કપાળ પ્રદેશમાં ઉપર ચઢવાનું થાય છે ત્યારે જે સોમરસ કરે છે મંત્રમૈતન્યનો સાક્ષાત્ અનુભવ થાય છે. વ્યકિતત્વનું વિસર્જન પોતાના વિસ્મરાયેલા સ્વરૂપનું દર્શન થાય છે. તેને અર્ધચન્ટ કહે છે, રોધિનીમાદિક-કાલનું પાર્થકચ રહેતું નથી. અને અસ્તિત્વના બોધની ઝાંખી અહીં મલે છે. પશ્યક્તિ એ ઉપર જોયું તેમ જયારે જાગ્રત અને સ્વપ્ન અવસ્થાને પાર ત્યારબાદ અને નાદાંતની ભૂમિ કા એ બિંદુનું સંપૂર્ણ લય થવું તે આત્માની અમૃત કળા છે. કરી સુપ્તિ અવસ્થા મંત્રજાપથી પ્રાપ્ત થાય છે ત્યારબાદ તુરત છે. અહીં જીવોનો ઇદભાવ શેષ રહ્યો છે તે નષ્ટ થાય છે અને પશ્યત્તિમાં સ્વરૂપદર્શનથી અધિકારનિવૃતિ થાય છે. જ તુરીય અને તુરીયાતીત સ્થિતિમાં પ્રવેશ થાય છે. શકિતના સ્થાનમાં એક વિરાટે ચૈતન્યના અંશનો-અહેનો-અહંનો પશ્યત્તિથી પર જે પરાવાકુ છે તે અનિર્વચનીય પંરતુ - સુષુપ્તિ ભાવનાનું સ્થાન ભૂમધ્ય-સ્થિત બિંદુ છે, અનુભવ કરે છે. વ્યાપીની-સમના સુધી સૂક્ષ્મયોગ રહે છે. સ્વસંવેધ અનુભવ છે જયાં વ્યકિતગત જગત સમષ્ટિગત ઇન્દ્રિયો દ્વારા જાગતિક વ્યાપારને જાગ્રત અવસ્થા કહે છે, ત્યારબાદ ઉન્મનામાં યોગનિરોધ થાય છે, નાદના અંતમાં જગતમાં વિલીન થાય છે. અને સમષ્ટિ જગત પણ પરમેષ્ઠિ જયારે ચતુર્વિધ અંત:કરણ દ્વારા વ્યવહારને સ્વપ્નાવસ્થા, અને તત્વજ્ઞાનનો ઉદય થાય છે. સાક્ષર મટી સ્વાક્ષર બનાય છે. આ જગતમાં પર્યાવસિત થાય છે. આ અવસ્થામાં શબ્દની ગતિ અંત:કરણ-વૃત્તિના લયરૂપ ઉપશમ-રૂપ અવસ્થાને સુપ્તિ કહે રીતે બિંદુમાંથી સિંધુની સૃષ્ટિ થાય છે. મંત્રસાધના આ પ્રમાણે નથી. અંદનો-તરંગો સંપૂર્ણપણે વિલીન બને છે. એકમાત્ર અમૃત છે. (લૌકિક ભાષામાં જે સુતેલો એટલે કે દેહાધ્યાસમાં છે તેના સ્થૂલ ભૂમિકામાંથી અંતિમસ્થાન સુધીનું ઉત્થાન કરવા સમર્થ અને જયોતિ સ્વરૂપનો અનુભવ થાય છે. આ કાશનો ગુણ ધ્વનિ પાંચ જાગે છે: શબ્દ-રૂપ-રેસ-ગંધ-સ્પર્શ, એ જીવની બેભાન છે. યુકિત, શાસ્ત્ર, મહાજનવાકય અને આત્મપ્રત્યય આ અવસ્થા છે અને જે જાગેલો છે તેના પાંચ સૂતા છે જેનો અર્થ ચારેયથી પરસ્પર અવિરુદ્ધ એવું તેનું કાર્ય છે. યુકિતથી જયારે શબ્દ ધ્વનિમાં અને ધ્વનિ આકાશમાં લય પામે છે જે સુષુપ્તિમાં-સુષમ્યામાં છે તે દેહાધ્યાસથી પર બને છે તેમ અનુમોદનીય બનાય, શાસ્ત્રથી સંસ્કાર પડે, “મહાજનવાકરથી ત્યારે પરમ પ્રકાશ-પરમ વ્યોમમાં વિહાર થાય છે. સમજી શકાય. સમર્થન થાય અને આત્મપ્રત્યયથી પરોક્ષાનુભૂતિ પ્રત્યક્ષ થાય, છે. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સર્વ સંશયોનું નિરસન થાય. જપ સાધના આ ચારે ય દ્વારથી વર્ણમાળાને તેથી જ કેવળજ્ઞાનના ટુકડા કહ્યા છે. વર્ણમાળાનો ને સુઈ નમ: દિવાનપર, નાલંદ્રાના સિદ્ધ છે. ઉપસાધનામાં મંત્રાલરોને શબ્દબદ્ધની વ્યાખ્યા આપી પ્રત્યેક અક્ષરે તેનો વાય શુદ્ધાત્મ દ્રવ્ય છે, જેથી પ્રત્યેક અમુતરિશ્વસાય નમો નમ: તે કેટલી સાર્થક છે તે આ ઉપરથી સમજાશે. શબ્દબ્રહ્મનો અક્ષરના ધ્યાનથી અતિ શીધતાપૂર્વક આત્મપ્રત્યયનો લાભ થાય ૧. નપૂ - ચૈતન્યનું બહુમાન જેથી પુદ્ગલના રાગરૂપી નિષ્ણાત એટલે તિર્યફ સામાન્યથી સર્વ જીવરાશિમાં રહેલ છે. આ કાર્ય માટે તો રહસ્યવિદ-પ્રયોગકુશળ અને શ્રદ્ધાળુ આર્તધ્યાન ટળે છે. અનાહતરૂપી આત્મતત્વનો સ્વીકાર. તેનો સ્વીકારજીવરાશિ ઉપર સાધક જોઇએ. મંત્ર-જાપનાં આર્ટલાં રહસ્યોધાટન બાદ પણ ૨, હું – માયાબીજ છે જે વડે જીવો તરફના કષાયભાવ સમાનભાવ-અભેદભાવ-અહિંસકભાવ વિકસાવે છે. અહિંસક આપણે શરૂઆત સ્કૂલ દેહથી જ કરવાની છે, અને જાપમાં રૌદ્રધ્યાનનો ત્યાગ થાય છે, ભાવ જેને સિદ્ધ થયો છે તે જ પરબ્રહ્મની પ્રાપ્તિ કરી શકે છે. આવતી બાધાઓને શરૂઆતમાં હટાવ્યા વગર સાધના આગળ ૩. ટë - વિશુદ્ધ ચૈતન્ય છે જે વડે ધર્મધ્યાન થાય છે. શબ્દબ્રહ્મનું વાચ્ય પરબ્રહ્મ સ્વસંવેદ્ય આત્મતત્વ છે તે ઊર્ધ્વતા વધે નહીં. ૪ નમ: નમોભાવની પરાકાષ્ઠામાં શુકલધ્યાન થાય છે. સામાન્ય છે. આત્મતત્વનો સાક્ષાત્કાર અહિંસક ભાવ વરેલાને આપણે ત્યાં બધી જ આરાધના દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ અને ભાવ ૫. સચ્ચિદાનંદ ધન- નમોભાવની પરાકાષ્ઠાએ આત્માના જ થઇ શકે છે. જોઈને કરવાની વાતો ઠેકઠેકાણે થાય છે. અહિંસક આ ચારને જ બહ્મની ઉપમા આપી છે. સચિત્ આનંદ સ્વરૂપની પ્રાપ્તિ થાય છે. (Experience કાળ એટલે Time Factor: શુભવાસનાથી પ્રતિકૂળ આચારાંગના ૯ અધ્યયનને બ્રહ્માધ્યયન કહેવાય છે. બૌદ્ધ સમયને અનુકળ કરવો જોઇએ. ક્ષેત્ર એટલે space Fac of Truine) ૬. નાલંદુભી – જેનો અભ્યારોહ પ્રથમ નાદમાં, બાદમાં શાસ્ત્રોમાં મૈત્યાદિ ભાવોને બહ્મવિહાર, જૈનોમાં અહિંસક tor: જપ કરતી વખતે સ્થાન પણ એકાંત અને બહારના અહંના બિંદુમાં તથા ત્યારબાદ અમૃત ઝરતી કલામાં થાય છે. આચારને બહ્મવિહાર તે જ તંત્રશાસ્ત્રનું શબ્દબદ્ધ છે. તેમાં વિમુખ્ય વાતાવરણથી દૂર હોવું જોઇએ. (એક ઓરડામાં પણ નિષ્ણાત થયેલા પરબહ્મને પામે છે. પરબ્રહ્મ એટલે આવું વાતાવરણ સર્જી શકાય છે.) આ થયો શુભયોગ. ૭. સમૃતળ્યોતિ અમૃત અને જયોતિસ્વરૂપ શુદ્ધ ચૈતન્યનો અનુભવ થવો. ઊર્ધ્વતાસામાન્યથી આત્મદ્રવ્ય ઉપયોગ અને તિર્યફ સામાન્યથી ત્યારબાદ દ્રવ્ય એટલે Instrumental Factor જેમાં સ્વરૂપાય: તે આ મંત્ર-જય દરમ્યાન સાધનાના વિકાસક્રમઉપસહસંબંધ, નવકાર એ ઉપયોગ-ઉપગ્રહ બંનેની શુદ્ધિ કરતો ચિતુતિરતિને ધારણ કરતું બનાવે ત્યારે જ જપ સફળ બને છે. યથાર્થ રીતે બતાવે છે. તેનો ૧૨,૫OCની સંખ્યાનો જાપ શબ્દબ્રહ્મ. જપની સામર્થ્ય-સિદ્ધિ માટે ૩ અપેક્ષાઓ રહે છે. આ થયો શુભામહ (કાર્યોત્સર્ગમાં જતાં પહેલાં શ્રદ્ધાએ, મેધાએ, શીઘપ્રગતિમાં સહાયક બને છે. જીવનમાં કોઈપણ ક્ષેત્રમાં સિદ્ધિ વિઘા-શ્રદ્ધા-ઉપનિષદ ધીએ, ધારણાએ અણુપહાય વગેરે દ્વારા આપણે આ જ કરીએ માટે વિદ્યા-ક્રિયા ધ્યાન-ભાવ એ ચાર વગર ચાલતું નથી. વિદ્યા એટલે correct technique છીએ.) અને છેવટે ભાવ એટલે શુભ વાસના, શુભ યોગ અને સાધનાનું ધન વિનામૂલ્ય ખરીદી શકાય નહીં. જપ-સાધના પ્રત્યે શ્રદ્ધા એટલે working belief and interest પ્રબુદ્ધ જનો જો જાગ્રત બને તો બહુ જ ટૂંકા ગાળામાં સાધનામાં ઉપનિષદ એટલે રહસ્યજ્ઞાન-grasp of basic prin- શુભામહ બાદ શુભસંધિનું કાર્ય ભાવથી થાય છે, જેને તૃપ્તિ તથા ગતિ મળે. ciples Accordonce Factor કહે છે, અર્થાત્ જો સંપૂર્ણ શ્રદ્ધાથી વિઘા એટલે મંત્ર-મંત્ર-તંત્ર ત્રણેનું અકયતા પૂર્વકનું કાર્ય ન થાય તો ભાવ બને નહીં. અભિષ્ટ વસ્તુઓ સાથે સંધિ જો આપણે ફકત વિઘા જાણવાથી જ અટકીશું અને તેનો ક્રિયામાં, ધ્યાનમાં અને ભાવમાં નહીં લઈ જઈએ તો, જો અનુષ્ઠાન (પ્રયોગપદ્ધતિ). કરવામાં ભાવની પ્રધાનતા રહેવી જ જોઇએ. તપસ્યાથી વિમુખ રહીશું. પરિશ્રમમાં કાયર રહીશું તો એક શ્રદ્ધા એટલે કાર્યમાં હૃદયપૂર્વકનો સહયોગ સાધનામાં જપ અભ્યારોહનો ક્રમ આ રીતે ભવ્ય વારસાના વારસદાર હોવાનો આપણે હ ક ક ગુમાવી દઇશું. સાધ્ય પ્રાપ્તિની દર્દભરી જિજ્ઞાસા. પ્રથમ કૃતિજપ-બાદ રુચિજપ-બાદ રતિજપ ઉપનિષદ એટલે અતનિહિત તત્વનું જ્ઞાન છેવટે સ્મૃતિ-જપ રહે છે કે જયારે અજપાજપની સ્થિતિ ૧૯૮૫ની સાલ સંયુકત રાષ્ટ્ર સંધ (UNO) વિશ્વશાંતિ વર્ષ તરીકે ઉજવવા માંગે છે. આવતાં બે વર્ષમાં નમસ્કાર ઉપનિષદમાં શબ્દવિજ્ઞાન (Acoustcis) પ્રાપ્ત થતાં સદા-સર્વત્ર સર્વથા ઈષ્ટનું શરણ-સ્મરણ-સાતત્ય મહામંત્રની આરાધના આપણા સકળ સંધોમાં ઘનિષ્ઠ બને અને સુક્ષ્મધ્વનિ વિજ્ઞાન (Supersonics) યોગીઓ તત્વજ્ઞાનીઓ, સાધકોના સહયોગથી આ મહામંત્રમાં વિચિવિજ્ઞાન (Wave Mechanics) ની સમજણ હોવી પરમઈષ્ટની સાથે આ પ્રકારે, સૌ પ્રથમ રહેલ વિશ્વશાન્તિના અખૂટ ઝરાનો આ પૃથ્વીના પાટલે વિસ્ફોટ જરૂરી છે. તદારોપિત સંબંધ થાય એ જ અભ્યર્થના. કલિકાલસર્વજ્ઞ આચાર્ય ભગવત હેમચન્દ્રાચાર્યે આ માટે જ તત્યપન્ન સંબંધ [ આ લેખના વિચારો અમારા પૂજય ગુરુ ભગવંત સ્વ. માતૃકાઓના ધ્યાનનો સ્વતંત્ર યોગ નિર્દેશ કર્યો છે. તદેકાશિત સંબંધ પન્યાસજી શ્રી ભદ્ર કરવિજયજીની અનુ મહિત કૃપાથી જ વ્યકત માતૃકાઓના-વર્ણમાળાના-અ' થી 'હ' સુધીના અક્ષરોના તદ્દભાવભાવિત સંબંધ સિદ્ધિ થાય છે. થઇ શકયા છે. ક્ષતિઓ રહી હોય તો મારી છે, તે બદલ ક્ષમા ધ્યાનથી મંત્રોનું રહસ્ય ખૂબ ઝડપથી ખૂલી જાય છે. આ સમસ્ત પ્રક્રિયા નીચેના મંત્રમાં સમજી શકાય. કરશો. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આપણા કથાસાહિત્યની બીજી વિશિષ્ટતા એ છે કે એને અવસાન પામે છે, પણ સુંદરીને એ વાત નામંજૂર છે, એટલું સીમાબંધન નથી. જે એક પ્રજા માટે સત્ય છે, એટલું જ એ જ નહિ પણ દુનિયાદારીના ડાહ્યા માણસો એને દુશ્મનો લાગે બીજી પ્રજા માટે પણ હોવાનું જ. એટલે આપણા કથાસાહિત્યં છે. એટલે પ્રિયંકરના મૃત દેહને લઈ એ સ્મશાનમાં વસે છે. *વિદેશપ્રવાસ ખેડયો છે અને મૂળ કથામાંથી પરદેશના કરુણા અને દુ:ખની અવધિનો આડો આંક આવતાં શ્રેષ્ટિએ વાતાવરણને અનુરૂપ કથાનું રૂપાંતર-ઘડતર થયું છે, અને એ મદનરાજાને તોડ લાવવા વિનંતી કરી, રાજપુત્ર અનંગરાજ એ વાતો પરદેશના પ્રજાજીવનમાં સ્થાયી થઇ છે. તે એટલા માટે બીડું ઝડપે છે. કે લોકસાહિત્ય અને લોકકલામાં તે સમાજના ભાવવાહી સ્વરૂપવાન યુવતીનો મૃત દેહ લઇને એ પણ સ્મશાનમાં વસે જીવનનું અમુક પ્રમાણમાં સાચું પ્રતિબિંબ ઝિલાય છે, અને છે. પોતાની પત્ની માયાદેવીને મરી ગયેલી જાહેર કરનાર ડાહ્યા આવું સાહિત્ય અમુક દેશનું કે તે દેશના લોકોનું ન બની રહેતાં, લોકોથી ભાગીને એ સ્મશાનમાં આવ્યો છે એવું એ સંદરીને કહે આખા વિશ્વનું, સમસ્ત માનવસમાજનું સાહિત્ય બની જાય છે. છે. ધીમે ધીમે બંને વચ્ચે સુંદરી અને અનંગરાગ વચ્ચે હવે આપણે બુદ્ધિકૌશલ્યની વાતો જોઈએ. વિશ્વાસનું વાતાવરણ જામે છે. અંતે એક દિવસ લાગ જોઇ અનંગરાગે બંને મૃતદેહો કૂવામાંફેંકીને કહ્યું કે આપણી આશ્વાસન કથાઓ ગેરહાજરીમાં માયાદેવી અને પ્રિયંકર નાસી ગયા છે અને | પ્રિયજનના મૃત્યુથી શોકમગ્ન માનવીને, મૃત્યુ અનિવાર્ય છે સંદરીનો નશો ઊતરી ગયો છે. પ્રેમની દીવાલ વજથી પણ જૈન સાહિત્યમાં બદ્ધચાતુર્યના કથા ઘટકો એ વાત, સાંત્વન કે દિલાસો આપવાથી સીધી રીતે સમજાતી મજબત હોવા છતાં બેવફાઈની આશંકા સમી નાની કાકરી નથી, ત્યારે યુકિતપૂર્વક એને એ વાત સમજાવવી પડે છે. આવો પન્નાલાલ ૨. શાહ આગળ એ ટકી શકતી નથી. આ વાતને કેન્દ્રમાં રાખી | પ્રસંગ આપણાં સૌના જીવનનો પડઘો પાડે છે. જાતકકથામાં અનંગરાજે યુકિત રચી અને સુંદરીને શોકમુકત કરી ૨ કથાસાહિત્ય જીવનનો રસ છે. યુગેયુગની એમાં લાક્ષણિ- આવતી વાતો આપણે એમાંથી જોઈએ: કતા હોય છે. આપણા પ્રાચીનમધ્યકાલીન કથાસાહિત્યમાં પડકાર ઝીલતી કથાઓ કેટલાંક એવાં તત્વો છે, જે આજે પ્રેરક અને ઉપયોગી બને છે. પુત્રના અવસાનથી શોકમગ્ન કૃષ્ણ સાવ સૂનમૂન થઈ જાતાં, | સ્ત્રીનું અભિમાન-માની લીધેલું કે વાસ્તવિક-તોડવા માટે તેમજ તેમાં વાતરિસ અકબંધ જળવાયેલો છે. પણ માત્ર એ તેનો ભાઇ ધૂર્ત પડિત ગાંડપણનો ઢોંગ કરી ‘સસલુ-સસલું’ પતિ તરફથી સ્ત્રીને પોતાનું સામર્થ્ય પુરવાર કરવાનો પડકાર વિષયમાં રસ ધરાવતા વાચકવર્ગની જ ઊણપ છે. એ અંગે ડૉ. એમ પોકારતો ભમે છે. કૃષ્ણ એને એ બારામાં પૂછે છે એટલે ફેંકાય છે, ત્યારે સ્ત્રી એ પડકાર ઝીલી લઇ, પોતાની ચતુરાઇથી હરિવલ્લભ ભાયાણી નોધે છે તેમ, આપણે ત્યાં ભૂતકાળનાં પંડિત કહે છે કે, ‘મારે ચંદ્રમાં રહેલું સસલું જોઇએ છે.’ કૃષ્ણ અને દક્ષતાથી એ પ્રમાણે પુરવાર કરી આપે છે. ભાષા, સાહિત્ય અને સંસ્કૃતિના અભ્યાસ અને સંશોધનની એને સમજાવે છે કે, “ભાઈ તું તો સાવ અશકય વસ્તુની | બારમી શતાબ્દીમાં લક્ષ્મણગણિએ રચેલી ‘સુપાસનાહ અછત વધતી જતી લાગે છે એ જોતા બીક રહે છે કે એ. માંગણી કરે છે !' ચરિઅ'- માં, ‘પ૨દારામગમનવિરમણ વ્રત વિષયે અનંગક્રીડાવિષયનું ગમે તેવું લખાણ તદ્વિદનું લખાણ ગણાઈ જાયને ધૂર્ત પડિતે વળતો જવાબ આપ્યો: ‘મરેલા પુત્રની પાછળ અતિચારે ધન કથા'માં ઇ.સ. ૧૪૪૩માં (વિ.સં. ૧૪૯)માં, ૫. સાથે એનો વાચક શોધવો પડે-એવો સમય દૂર નથી.' 1 શોક ન છોડતો એવો તું તેને પાછો મેળવવાની આશા રાખે છે શ્રી શુભશીલગણિએ રચેલા ‘વિક્રમચરિત્રમાં, કવિ શામળકૃત | આપણું કથાસાહિત્ય એટલું વિશાળ છે કે જીવનનાં બધાં એ પણ એટલી જ અશકય વાત નથી શું ?” પ્રત્યુત્તરથી કૃષ્ણની ‘સિંહાસનબત્રીશી'ની ૨૯મી ‘સ્ત્રીચરિત્રની વાર્તામાં, સિંધની પાસાને તે આવરી લે છે, અને અનુભવથી નીતરતી બાનીમાં આખ ઊઘડી જાય છે. મધ્યકાલીન વાત ‘બિરસિંગ અને સુંદરબાઈની વાતમાં, વિ.સં. આપણને જીવનનાં મૂલ્યો પીરસી શકે એવી ઉચ્ચ કક્ષાએ બીજી એક કથામાં પુત્રના અવસાનથી વ્યથિત સ્ત્રીને ૧૭૪૭માં રચાયેલ અભયસોમ કૃત ‘માનતુંગ-માનવતી લખાયેલી છે. અકબર-બીરબલ ભોજરાજ કે વિક્રમાદિત્ય, તથાગત ‘જે ઘરમાં કોઇનુંય મૃત્યુ ન થયું હોય, એ ઘરમાંથી | ચઉપઇ”માં અને પશ્ચિમના સાહિત્યમાં બો કેશિયોના મંત્રી અભય ઇત્યાદિની અસાધારણ બુદ્ધિચાત્યની વાતો બાજુ રાઇની મૂઠી લાવવાનું’ કહે છે. શોકમગ્ન સ્ત્રી ઘેર ઘેર જાય ‘ડેકામેરોની ત્રીજા દિવસની નવમી વાતમાં ઉપર જણાવેલી - પર રાખીએ તો પણ સામાન્ય માણસના જીવનના પ્રસંગોમાંથી છે, પણ સહુને ઘેર મૃત્યુ તો થયું જ હોય છે, એટલે વાસ્તવિક કથાઢિ નજરે પડે છે. ૩ ‘માનતંગ-માનવતી ચઉપઈ' પરથી નવનીતરૂપે તારવીને, રસભંગ થવા દીધા વિના, આપણા પરિસ્થિતિ સમજાતાં શોક છોડી દે છે. આપણા શ્રી યોગેન્દ્ર દેસાઈએ ‘માન-અપમાન’ નૃત્યનાટિકા સાહિત્યસ્વામીઓએ કથા ગૂંથી છે, અને એમાં જીવનના કૂટ અને એથીય વધારે અસાધારણ બુદ્ધિપ્રતિભા, સાકેતનગરના ઉતારી છે. પ્રશ્નોનો બુદ્ધિ કૌશલ્ય દ્વારા-ઉકેલ સુચવી જીવન-ધડતરનો રાહ પ્રિયમિત્ર શ્રેષ્ઠિની પુત્રી સુંદરીની વાતમાં છે. તેના લગ્ન શામળની સિંહાસનબત્રીસીમાં આવતી કથા આ પ્રમાણે છે: ચીંધ્યો છે. વૈશ્રમણ શ્રેષ્ઠિના પુત્ર પ્રિયંકર સાથે થાય છે. દેવવશાત્ પ્રિયંકર એક વણિક કન્યા રાજા વિક્રમને એવો પડકાર ફેંકે છે કે HOPES F OR Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 વિક્રમચરિત્ર જ દુનિયામાં શ્રેષ્ઠ નથી. સ્ત્રીચરિત્રની તોલે નાયક-નાયિકાનું મિલન કરાવવા આપણી કથાઓમાં જયારે પુરુષવેશે પરદેશ જવાની વાત કહે છે, ત્યારે તેના સંકેતનો સારો ઉપયોગ થયો છે. સાંકેતિક ભાષા અગર સાંકેતિક સમર્થનમાં પોતાના પતિ સાથે પુરુષવેશે પરદેશ ગયેલી ૨. આખી વાત માટે જુઓ: શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય: સુવર્ણ ચેષ્ટાનું માધ્યમ બુદ્ધિકૌશલ્યનું ઉદાહરણ એ રીતે પુરી પાડે છે. ' રાજપૂતાણીની વાત કહે છે. ‘મદનમોહના'માં આ વાત મહોત્સવ સંધ છે. ભાગ-૩: ખડ બીજો: પુષ્ઠ ૧ ૧૩: વાત: સામદવના 'કથાસરિત્સાગરની ‘વેતાલ પંચવિશતિકા’ની અવાતરકથા-આડ કથા છકી છે. આ વાત પ્રચલિત લોક કથા સ્નેહસંતના તાણાવાણા’’, લેખક પૂ. મુનિશ્રી ધુરંધરવિજયજી, પહેલી કથામાં મંત્રીપુત્ર સાથે નીકળેલા રાજકમારે મનમાં પરથી લેવાઈ છે. | સિંધી લોક કથામાં રાજબાલાની વાત છે. ૬ જેમાં રાજબાલા ૩. આ અંગે શ્રી જનક દવેનો લેખ: ‘અશક્યને શક્ય કરી ૪. આ કથારૂઢિ-કથાવસ્તુ પર આધારિત શ્રી મોહનલાલ ૬. કીડેડ કૃત 'Tales of Sind.' બતાવવાનો પડકાર ઝીલતી પત્ની—એક મધ્યકાલીન કથારૂઢિ' ચુનીલાલ ધામીકૃત વાર્તા ‘સંઘર્ષ': જુઓ: ‘શ્રી મહાવીર જૈન ૭. આ દુહો આ પ્રમાણેઃ માટે જુઓ: ‘શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયઃ સુવર્ણ મહોત્સવ ગ્રંથ': વિઘાલય: સુવર્ણ મહોત્સવ ગ્રંથ ': ભાગ-રજો, ખંડ બીજો, પૃષ્ઠ | દેશ વીજા પીયુ પરદેશાં પીયુ બાંધવા રે વેશ. ભાગ ૧લો: ગુજરાતી વિભાગ, પૃષ્ઠ ૧૯૬, જે દી' જાશાં દેશમે તે દી’ બાંધવ પીયુ કરેશ. જગતમાં કાંઇ જ આવી શકતું નથી. સરોવરકાંઠે સખીઓ સાથે સ્નાન કરવા આવેલી એક સુંદરી એના પતિ અજિતસિંહ સાથે પુરુષવેશે •પરદેશ જાય છે અને વણિક કન્યાને પાઠ શીખવવાના ઇરાદાથી રાજા વિક્રમ જોઇ. પરસ્પર અનુરાગરમતના બહાને સંકેત કરતાં સુંદરીએ ઉદેપુરના રાણા જગતસિંહને ત્યાં બંને જણ ગુલાબસિંહ અને પોતાના પુત્ર વિક્રમચરિત્રના લગ્ન એની સાથે કરે છે. કર્ણ ઉપર ઉત્પલ મૂકવું. પછી દાંત સાફ કર્યા. મસ્તક પર પદ્મ અજિતસિંહના નામે (સાળા-બનેવી તરીકે) પ્રતિહારી તરીકે એકબીજાને મળવા દેતા નથી અને નગર બહાર એકદંડિયા રાખ્યું અને હાથ ઉદય પર, પછી ચાલી ગ નોકરી સ્વીકારે છે. મહેલમાં તેને રાખે છે, આ મહેલમાંથી બહાર નીકળી શકે નહીં મંત્રીપુત્રે સંકેત સમજાવતાં કહ્યું, ‘કર્ણ ઉપર ઉત્પલ મૂકવું - એવામાં એક શિયાળાની રાત્રે માવઠું થયું. વરસાદ અને એવી વ્યવસ્થા હતી. ‘નારીશકિત અજોડ અને અપુર્વ છે એ એટલે કણૉત્પલ , રાજાના નગરમાં રહે છે. દાંત સાફ કરી, વાવંટોળમાં અંધારી મેઘલી રાતે એકલવાયા, વિરહ પીડાતા પુરવાર કરવા તારે બાળક સહિત મને મળવાનું છે. એમ થશે હાથીદાંતના ઘાટો ઘડનાર મણિયારની પુત્રી છે એમ સૂચવ્યું. ગુલાબસિંહે એવી મતલબનો દુહો લલકાય કે મધ મૂશળધાર ત્યારે તારો છુટકારો થશે.' મસ્તક પર પમ રાખી પોતાનું નામ પદ્માવતી જણાવ્યું. હાથ હૃદય વરસે છે, નદીમાં પૂર ચડ્યાં છે, વીજળી ચમકે છે, ભીની ધરતી ત્યારબાદ વણિક કન્યા દાસી મારફત પોતાના પિતાને વિટી પર રાખી સ્નેહનો એકરાર કર્યો. | મહેકે છે, પણ મારું હૈયું જલી રહ્યું છે. અજિતસિહે પ્રત્યુત્તરમાં મોકલે છે. વીંટીમાં સંદેશો હોય છે. તદનુસાર ભોંયરું આ રીતે જુદા જુદા સંકેત દ્વારા મિલન થાય છે. અત્રે એ સામો દુહો લલકાર્યો કે ભગવાન દયાળુ છે, દુખિયાનો બેલી બનાવવામાં આવે છે. એ ભોંયરા વાટે બહાર નીકળી,. નોધવું રસપ્રદ ગણાશે કે સાંકેતિક ભાષા અગર સાંકેતિક છે, ધરતી ભલે સૂતી હોય, આભ સદાયે જાગતું જ છે, કોઈ સાબલિયણ બની વિક્રમચરિત્રને મોહાંધ કરી સંગ કરે છે અને ચેષ્ટાનો કથામાં ઉપયોગ થયો છે ત્યારે નાયક સંકેતો સમજતો આગલાં ભવનાં કયાં આ ભવે આપણને નડે છે અને આપણી નથી. જો આ રીતે થાય તો જ નાયક સંકેતનો અર્થ મિત્ર અગર પુત્ર મેળવે છે. આભૂષણવસ્ત્રો નિશાનીરૂપે મેળવે છે. બીજી વિજોગ પાડે છે. ૭. વખત જોગણી બની સંજીવનવિધાના લોભી વિક્રમચરિત્રને સ્વજનને પૂછે અને તેના ખુલાસા દ્વારા જ કથાકાર શ્રોતાઓને જગતસિંહની ચતુર રાણી આ દુહા સાંભળી પામી ગઇ કે ફસાવી સંગ કરે છે અને પુત્ર મેળવે છે, તેમજ ધનદોલત પડાવી એનું અથધટન સમજાવી શકે છે આ રીતે આ કથાનાં હોં. પ્રતિહારો પતિપત્ની છે, અને શયનગૃહની ચોકી કરનાર સ્ત્રી લે છે. હરિવલ્લભ ભાયાણી નોંધે છે તેમ, ‘મૂર્ખ નાયક અને ચતુર જ છે. તેણે રાજાને વાત કરી. રાજાએ કરેલી પૂછપરછમાં આ | પછી કશું જ ન જાણતી હોય એ રીતે મહેલમાં પાછી ફરે મિત્ર'ના વ્યાપક કથા. કારમાં સમાવેશ થાય છે. ૫ મોગલો વાત સાચી નીકળતા એ બંનેને લગ્નવ્યવહાર માટે જોઇતી રકમ છે અંતે વાતનો ઘટસ્ફોટ થતા વણિક કન્યાને આદર અપાય ભાષાની સિંહાસનબત્રીશી (આજિબોજિંખાન)માં પણ આવી આપી, લગ્ન કરાવી આપ્યાં. છે' સાંકેતિક ચેષ્ટાઓનો ઉપયોગ થયો છે. - આ જ કથા ‘સૌરાષ્ટ્રની રસધાર', ભાગ ૪, પૃષ્ઠ ‘વીરો વર કરીશ': પુરુષવેશે પરદેશ જતી નાયિકા સંકેત ૮૮-૯૮માં ‘દસ્તાવેજ' નામે આપણા રાષ્ટ્રીય શાયર સ્વ. મધ્યકાલીન સાહિત્યમાં પુરુષવેશે પતિની સાથે પરદેશ જતી ઝવેરચંદ મેઘાણીએ વિગતફેર નોંધી છે. તેમાં રાજપૂતાણી રાજ- 1 ‘વેતાલપચ્ચીશી'માં વેતાલ રાજાને સમસ્યાગર્ભ કથાઓ કહે નાયિકાનું કથાવસ્તુ ધ્યાન ખેંચે એવું છે. કવિ શામળ ભટ્ટની બાલાને બદલે રાજબાની ખાસ કસોટી યોજાય છે. બંને છે. કથાને અંતે પ્રશ્ન મૂકે છે. વિક્રમ એની અસાધારણ બુદ્ધિથી કથા, ‘મદન-મોહના' મોહના મદનની સાથે પુરુષવેશે જાય છે. રજપૂતોની નજરે ચડે તેમ ચૂલે ઊકળવા મૂકેલું દૂધ ઊભરાવા તેના પ્રત્યુત્તર આપે છે. અત્રે આપણે એના બુદ્ધિકૌશલ્યની વાત મોહના રાજપુત્રી છે, અને મંદને મંત્રીપુત્ર છે, એટલે બંને માંડે છે. રાજબા સ્ત્રીસહજ સ્વભાવથી બોલી ઊઠે છે: નથી કરવી. પણ સમસ્યાગર્ભ કથાનાં નાયક-નાયિકાના મિત્રની વચ્ચેના વિવાહ રાજા મંજૂર ન કરે એટલા માટે પતિ સાથે ‘એ..એ...દૂધ ઊભરાય !' અને આ કસોટી પરથી પુરુષવેશે બુદ્ધિપ્રતિભા આપણે જોવી છે. પુરુષવેશે નાસી જવાની તરકીબ ઉપયોગમાં લેવાઈ છે મોહના રહેલી રાજબા સ્ત્રી જ છે એમ નકકી થાય છે. આ કથામાં For Press e Only AN INITIATIVE : Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કસોટીનું તત્વ ઉમેરાયું છે. હતાં. વિગતમાં ઊતરતાં પ્રજ્ઞાવાદીને જાણવા મળ્યું કે ધનદતે અરીસામાં પ્રતિબિંબ દેખાડીને, નિકાલ આણ્યો. અહીં મધ્યકાલીન લોકકથાને, પુરુષવેશે પરદેશ ખેડતી નાયિકાની | નગરશ્રેષ્ઠિના પત્રે અસગણિકાને રાત્રે સેવામાં બોલાવી હતી, લુચ્ચાઈ ખરેખર ધી વેપારી કરે છે, અગ્રગણિકા નહીં. કલ્પના ઘણી જ આકર્ષક લાગી છે.વિમલસરિ રવિષેણ અને | પરંતુ તે રાત્રે તે રોકાયેલી હતી એટલે બીજા દિવસે આવવાનો જાપાની કથામાં ભઠિયારાની દુકાને તળાતી મચ્છીની વાસ સ્વયંભૂકૃત ‘પદ્મચરિત’ કે ‘પઉમચરિય'માં રાજપુત્રી વાયદો કર્યો. પરંતુ નગરશ્રેષ્ઠિના પુત્ર તે રાત્રે સ્વપ્નમાં માણનાર પાસે પૈસા માગતાં, ભઠિયારાને દૂરથી પૈસા દેખાડી કલ્યાણમાલા રાજપુત્ર કલ્યાણમલ તરીકે રાજય કરે છે. અગ્રગણિકા પાસેથી સેવા લીધી. એટલે બીજા દિવસે નગરવધૂને કિંમત ચૂકવવામાં આવે છે. ઇટાલીની કથામાં ભઠિયારાની ‘વસુદેવહિંડી'માં પંડાલંભકમાં અને 'કથાસરિત્સાગર'માં સેવામાં આવવાની ના કહી, પરંતુ અગણિકાએ કહ્યું, ‘એમ હાંડી ઉપર રોટલો ધરી રાખી તેને રંધાતી વાનીની વરાળથી દેવસ્મિતાની કથામાં, ‘હસાવતી-વિક્રમચરિત્ર-વિવાહ'માં સોડમવાળો કરનાર પાસે પૈસા માગતા ભઠિયારાને પૈસાના પુરુષવેશે પરદેશ ખેડતી હંસા પ્રયાગના પુત્ર રાજાથી દત્તક ખણખણાટ દ્વારા કિંમત ચૂકવવામાં આવે છે, કારણ કે ભઠિયારો લેવાઇને ગાદીપતિ બને છે, ‘કામાવતી'માં પણ નાયિકા પુરુષવેશે gaul: Ocean of Stories' 5, 132-133 Note: ખાવાની ચીજના પૈસા લે છે. પણ આ તો વરાળ વેચી છે એટલે અનેક સ્ત્રીઓ પરણે છે. ‘રઢિયાળી રાત', ભાગી ત્રીજો, પૂ. 9, 155- 56 Note. તેના બદલામાં પૈસાનો ખણખણાટ જ સંભળાવાય. ૨૪- ૨માં તેજમલના લોકગીતમાં, ઠાકોરની સાત પુત્રીમાંથી ૯ જુઓ: ‘શોધ અને સ્વાધ્યાય' પૂ. ૨ ૨ ૪-૨૩૪. | ‘કથાસરિત્સાગર'માં આ યુકિતનો જુદો જ પ્રયોગ મળે છે. તેજમલ, શત્રુની ફોજનો સામનો કરવા પુરુષવેશે શસ્ત્ર સજીને છે તો મારા વેતનના એક લાખ મને આપી દે' પણ શ્રેષ્ઠિપુત્ર તે એ અર્થમાં કે તેમાં છળ સામે પ્રતિસ્થળ નહીં પણ છળ કરવા નીકળે છે. અહીં સેનામાં રહેલા તેના સાથીઓ તેજમલ સ્ત્રી છે એમ શેનો માને ? આ ઝધડો પ્રજ્ઞાવાદીને સોંપાયો. તેણે કહ્યું. માટે જ તેનો ઉપયોગ થાય છે. એક શ્રીમંતનું એક સંગીતકારે કે પુરુષ તેની ચકાસણી કરવા ઘણો પ્રયત્ન કરે છે, પરંતુ તેજમલ ‘જો શ્રેષ્ઠિપુત્રે ગણિકાની સેવા લીધી હોય તો ગણિકાનો જે ભાવ વીણાવાદનથી મનોરંજન કર્યું. પરંતુ ખજાનચીએ રોકડી ના ચતુરાઈથી એવા બધા પ્રસંગોએ પુરુષસહેજ વર્તન દાખવી હોય તે તેણે આપી દેવો જોઇએ. ” પછી એક અરીસો મંગાવ્યો પરખાવી. એટલે વીણાવાદકે શ્રીમંતને ફરિયાદ કરી. એટલે કસોટીઓ પાર કરે છે અને પોતાની જાતિ સૈન્ય છુપાવી શકે ને એક લાખસુવર્ણમુદ્રા ભરેલી પેટલી મંગાવી. અરીસાને સામે શ્રીમંતે કહ્યું: ‘પૈસા કેવા ? વીણાવાદનથી તે મને ઘડીક શ્રુતિસુખ ધરી, ગણિકાને બોલાવી, કહ્યું: ‘અરીસામાં એક લાખ આપ્યું તેમ મેં ઇનામની વાત દ્વારા તને શ્રુતિસુખ આપ્યું. આ છળ સામે પ્રતિસ્થળ સુવર્ણમુદ્રાનું પ્રતિબિંબ પડે છે તે લઈ લે. જેવી શ્રેષ્ઠિપુત્રે તારી કથા ઘટ કને મળતી કવિ દલપતરામના કાવ્યની પંકિતઓ તુરત આ પ્રકારના કથાઘટકને પેન્જરે ‘કલ્પિત લેણાની કલ્પિત સ્વપ્નમાં સેવા લીધે, તેવું તને વેતન આપે છે કારણે કે સ્વપ્ન જ યાદ આવે છે: ચૂકવણી'૮ અને ડૉ. હરિવલ્લભ ભાયાણીએ ‘ઠગારુ માગણ અને પ્રતિબિંબ સમાન છે.” આમ, અગ્રગણિકાની તર્કજાળથી ‘પોલું છે તે બોલ્યું તેમાં નવાઇ તે શી કરી ? અને ઠગારી ચૂકવણી’૯ એવા. કથાયુકિતના ઉદાહરણ-લેખે ભરેલી ઠગારી માંગણીને, એ જ તર્કજાળનો ઉપયોગ કરીને સાંબેલું વગાડે તો હું જાણું કે તું શાણો છે'. નિર્દેશ કર્યો છે. એમાં તર્કજાળ અને શબ્દજાળના પ્રયોગ દ્વારા ઠગારી ચૂકવણી કરવામાં આવે છે. ઠગાઇનો પ્રયત્ન થાય છે. આ પ્રકારના ઘટકો આપણને | ચારિત્રરત્નમણિકૃત ‘દાનપ્રદીપ' (ઇ.સ. ૧૪૪૩)માં ધદતની છળ સામે પ્રતિષ્ણુળ: શબ્દજાળનો પ્રયોગ ઠગવાની યુકિતનો બીજા પ્રકાર તે શબ્દજાળ કે શબ્દછળ, બૌદ્ધગ્રંથ ‘મહાવસ્તુ'ની ‘પુણ્યવંત જાતક' કથામાં પંદરમી વિવેકબુદ્ધિનો પ્રસંગ આ પ્રમાણે છે: શતાબ્દીમાં ચારિત્રરત્નમણિકૃત ‘દાનપ્રદીપ’ના આઠમાં પ્રકાશમાં | એક વાર એક કપટી, સાર્થવાહ બનીને બાર કરોડ એમાં શબ્દનો ભળતો અર્થ કરી, તેનો લાભ લેવાનું. જૈન રત્નપાલરાજાની કથામાં તેના પૂર્વભવના વૃત્તાંતમાં સિદ્ધદત્ત સુવર્ણમુદ્રા ધરાવતી ગણિકા અનંગસેનાને ત્યાં ગયો. ગણિકાએ કથામંથ 'વસુદેવ હિડી'માં, સરસ ઉદાહરણ છે. અને ધનદત્તની વાતમાં. ભીમકૃત્ત ‘સદયવત્સવીર પ્રબંધ' (ઇ.સ. તેને ધનાઢય માની, યુકિપૂર્વક કહ્યું. ‘તમારી પાસેથી મને બાર અનાજનું ગાડું ભરીને નગરમાં વેચવા આવેલા કણબીને ૧૪૧૦ પહેલા), અને હર્ષવર્ધનકૃત સંસ્કૃત ગદ્યમય કરોડ સુવર્ણ મુદ્રા મળી છે એવું છેલ્લા પહોરે મને સ્વપ્ન આવ્યું ગાંધીના દીકરાઓએ પૂછ્યું: ‘ગાડાવાળ તેતર વેચવું છે ?” એટલે ‘સદયવત્સકથા' (ઇ.સ. ૧૪૫૪-૭૪)માં, ‘કથાસરિત્સાગર’માં, છે અને એ સાચું પડશે એમ મને લાગે છે.' ગાડાવાળાએ એક રૂપિયામાં તે વેચવા હા કહી. ગાંધીના પાંચમી શતાબ્દીના જૈન કથાગ્રંથ ‘વસુદેવહિંડી'માં, ' આ સાંભળી ધૂર્ત સાથેવાહે કહ્યું: ‘વાત સાચી છે. મને પણ દીકરાઓએ એક રૂપિયો આપીને તેતર તેમજ ગાડું ઉઠાવી ધમપદેશમાલા વિવરણ' (૯મી સદી), ‘જાતકકથા’, ‘પંચતંત્ર', સ્વપ્ન આવ્યું હતું. બાર વર્ષ તારે ત્યાં મારા રહેવાના વિચારમા લીધાં, કારણ કે સોદો ગાડાવાળા તેતરનો હતો. ન્યાયાલયમાં ‘શુકસપ્તતિ', વગેરેમાં મળે છે. પરિણામે મેં બાર કરોડ સુવર્ણમુદ્રા તારે ત્યાં થાપણ તરીકે મૂકી ગાડાવાળો હાય, પરંતુ એક ચતુર પરથે બદલો લેવાની યુકિત છે, પણ હમણાં એક સાપવાહ પરદેશ જાય છે અને વેપાર અર્થે શીખવી. એ પ્રમાણે ગાડાવાળો ગાંધીના ઘેર ગયો ને બોલ્યો: છળ સામે પ્રતિસ્થળ: તર્કજાળ મારે તેની સાથે જવું છે એટલે મારી અનામત પાછી આપ. ‘ભાઈઓ ! ગાડું તમને મળ્યું તો આ બળદને પણ તમે જ લઇ પુણ્યવત જાતકમાં પ્રજ્ઞાવાદી રાજમાર્ગ ઉપર લટાર મારતો પરદેશથી કમાઇને સીધો તારે ત્યાં જ આવીશ ’ વગેરે આ રીતે લો ને ! બદલામાં શણગાર સજેલી તમારા ઘરની વહુવારુના હાથે હતો. ત્યાં અગ્રગણિકા અને નગરશ્રેષ્ઠિનો પુત્ર ઝગડો' કરતાં અનંગસેના અને સાર્થવાહના ઝધડાનો ઉપર જણાવ્યા મુજબ, બે પાલી અનાજ લઈશ' બળદના લોભમાં ગાધીપત્રો સહમત CUST, TET, TATISTI For P e Pegal Line Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 થયા અને એટલે કણબી, સ્ત્રીનો પાલીવાળો હાથ પકડીને શૂળી પર ચડતાં, શુળીનું સિંહાસન બને છે અને સુદર્શન શ્રેષ્ઠિ ‘પંચતંત્ર' (દસમો સૈકો)માં આવતી દતિલ મેષ્ઠિ અને ગોરંભની ચાલવા લાગ્યો. ફસાયેલા કણબીને છોડાવવા ચતુર પુરુષે કરેલી કેવળજ્ઞાન પામે છે. ઘવાયેલો અહમ્ અને એ કારણે પ્રગટતી વાતમાં પણ આ પ્રકારના કથાઘટકનો ઉપયોગ થયો છે. શબ્દ જાળથી ગાડાવાળાને બળદ અને ધનથી ભરેલું ગાડું પાછા વેરવૃત્તિ કેવું પરિણામ લાવે છે એ કથાઘટક આજે પણ એટલું મળે છે. જ ઉપયોગી છે ! અદેખાઈથી પ્રેરિત આળ આવી જ શબ્દ જાળ 'Pied Piper of Hemelin' માં, - પશ્ચિમના લોકવાર્તા-સાહિત્યમાં આ વાતપિટક ‘પોર્ટિફેજ | ‘મહાઉમ્મગ્ગ’ જાતકના અસાધારણ બુદ્ધિચાતુર્ય ધરાવતા અને 'Merchant of Venice'માં પણ જોવા મળે છે. વાઈફ' તરીકે જાણીતું છે. પ્રાચીન મીસરી સાહિત્યમાં ‘બે | મહૌષધની અદેખાઈથી, બીજા પ્રધાનો મહૌષધ દેશદ્રોહી | ‘ધર્મોપદેશમાલા વિવરણ' (૯મી સદી)માં શબ્દછળની વાત બંધુઓ’ની વાત, ‘ઇલિયડે 'માની બેલેરોફોનની કથા, હોવાનો મગધરાજના મનમાં વહેમ ઊભો કરે છે, અને તેનો આ પ્રમાણે છે: બાઇબલમાનો જોસેફ અને પોર્ટિફેરનો પ્રસંગ વગેરે આ દેશવટો થાય છે. એ જ રીતે સોળમી સદીના અંતમાં રચાયેલા એક ગામડિયો મોટો સુંડલો ભરીને કાકડી વેચવા બેઠો કથાઘટકના આધારે રચાયેલી કથાઓ છે. આપણે ત્યાં બલ્લાલ કૃત 'ભોજપ્રબંધ'માં કાલિદાસને ભોજે બહુ માન્યો તેથી હતો. એક ધૂર્ત બધી જ કાકડી ખાઇ જવાની શરત લગાવી અને રામાયણની શુર્પણખાની વાતમાં, 'કથાસરિત્સાગર'ની કેટલીક અદેખાઇથી બળતા પંડિતોએ રાજાની દાસીને સાધી, તેના દ્વારા બદલામાં નગરના દરવાજામાંથી જઇ ન શકે એવો લાડુ કથાઓમાં, હંસાવલીની વાતમાં તેમજ અન્યત્ર આ પ્રકારના રાજાના મનમાં એવો વહેમ ઊભો કર્યો, કે કાલિદાસ અને રાણી કથાઘટક જોવા મળે છે. ગામડિયાએ ધૂર્તને આપવો એમ નકકી થયું. ધૂર્તે દરેક કાકડીને લીલાવતી એકબીજાના પ્રેમમાં છે. પરિણામે કાલિદાસને દેશવટો એકેક બટકું ભર્યું અને શરત મુજબ લાડુ માગ્યો. ત્યારે મળે છે. ગામડીયાએ કહ્યું, ‘આખે આખી કાકડી ખાઇ જા. તો શરત પૂરી શત્રુને વહેમનો ભોગ બનાવવો જૈન, બૌદ્ધ કે હિન્દુ ધર્મમાં કથાસાહિત્યનું પ્રમાણ પુષ્કળ થયેલી ગણાય.’ પ્રતિકૂળ વર્તન કરનારને પ્રપંચ વહેમમાં સંડોવી સીધો છે. તેનો મુખ્ય ઉદેશ ધર્મ, નીતિ, કર્મનું ફળ બતાવવાનો અને ધૂર્તે શરતપાલનની ખાતરી કરાવવા તૈયારી દેખાડી. જે જે કરવાની યુકિતવાળા કથાઘટકોમાં નિર્બળ, નાની કે હાથ નીચેની અંતે મોક્ષમાર્ગનો ઉપદેશ આપવાનો હોય એ સ્વાભાવિક છે. લોકો કાકડી લેવા આવતા હતા તે કાકડી જોઇને કહેતા: ‘અરે, વ્યકિત, સબળ કે મોટી વ્યકિતથી થયેલા અન્યાયને દૂર કરવા, પણ સિદ્ધ કરતા પહેલાં આપણા પૂર્વજોએ કથાસાહિત્યમાં આ કાકડી તો ખાધેલી કાકડી છે. આને શું કરે ?” આથી તેં શત્રુને વહેમનો ભોગ બનાવી સીધો કરે છે. કયારેક વશવર્તી સમગ્ર જીવનનું વાસ્તવિક જીવનનું પૂર્ણ દર્શન કરાવ્યું છે, અને શરતનો લાડવો માંગ્યો. ગામડિયો મૂંઝાયો. કોઈક ચતુર પર પે કરવા આ કથાઘટકનો ઉપયોગ થાય છે અને ધાર્યું પરિણામ તેમાં એક પણ ક્ષેત્ર બાકી રહ્યું નથી. સ્ત્રીચરિત્ર, વિક્રમચરિત્ર. રેસ્તો બતાવ્યા પ્રમાણે એક નાની લાડુડી બનાવીને નગરદ્વાર આવતો યુકિતપૂર્વક વહેમને દૂર કરવામાં આવે છે. પ્રેમ, વેર, ગણિકા, ધૂર્ત, મૂર્ખ, પંડિત વગેરેના જીવનપ્રવાહોને વચ્ચે મૂકી અને કહ્યું: ‘શરત મુજબ, દરવાજાની બહાર ન જતો | ‘પઉમસિરિચરિઉ'માં પોતાના બે ભાઇઓ સાથે રહેતી સ્પષ્ટ કરીને, સામાન્ય માનવીને આ બધા સંજોગોમાં સૂઝ પડે લાડુ આ રહ્યો. લઇ લ્યો. ' ધૂર્તનું મોટું પણ લાડુડી જેવડું થઈ ધન શ્રીનો દાનધર્મ તેની બંને ભાભીઓને આંખના કણાની એ રીતે માર્ગદર્શક બનવાનો પણ હેતુ સિદ્ધ કર્યો છે. એવા ગયું. માફક ખૂંચે છે. ‘નણદ તો અમારું ઘર લૂંટાવે છે” એવી સવાંગી જીવનદર્શનથી પર થઇને અંતે મોક્ષગામી થવાનું છે. તેતરની વાતમાં પાઠ શીખવવાની નેમ છે, જયારે અન્ય ભાભીઓએ કરેલી નિંદાથી ધનથી બંને ભાભીઓને સીધી કરવા પણ એ પહેલાં દર્શન અધૂરું હોય તો એથી પર થઈને વિતરાગ કથાઘટકમાં ફસામણીમાંથી છુટકારો મેળવવાની નેમ છે. કુટિલ યુકિત રચે છે. મોટી ભાભીને ગર્ભિત રીતે ચારિત્ર શિથિલ થવાનું શક્ય નથી. એટલે આપણા કથાસાહિત્યમાં સામાન્ય ન થવા દેવાના ભાઈની હાજરીમાં આપેલા ઉપદેશથી, ભાઈને માનવીને રસ પડે એ રીતે કથાચૂંટણી કરીને સવગી જીવનદર્શન લોકકથામાં આળ: બુદ્ધિનો દુરુપયોગ ભાભીના ચારિત્ર વિશે શંકા થતાં, તેનો ત્યાગ કરવા તૈયાર થાય કરાવ્યું છે અને એ રીતે અંતિમ ધ્યેય પ્રાપ્ત કરવાનું સૂચવ્યું છે. | કોઇ નિકટના પુરુષ પાસે સ્ત્રીએ કરેલી વ્યભિચારની છે, ત્યારે ધનથી વચ્ચે પડીને ભાઈને સમજાવતાં કહે છે: ‘મારે બુદ્ધિચાતુર્યના કથાઘટકો પરથી પણ આ બાબત સ્પષ્ટ થાય છે માગણી નકારનાર પુરુષ પર, ઘવાયેલા અહમને કારણે જન્મેલી સૂચન તો સામાન્ય ઉપદેશરૂપે હતું. ભાભી પર વહેમ લાવવાનું અને જીવનવ્યવહારમાં ઉપસ્થિત થતી સમસ્યાઓ અને વેરવૃત્તિથી તે પુરુષ પર સ્ત્રી બળાત્કારનો આરોપ મૂકે: આળના કારણ નથી', અને એ રીતે ભાઇને મનાવી લે છે. એ જ રીતે મુકેલીઓમાં કેવા કીમિયા દ્વારા રસ્તો કાઢવો એનું સ્પષ્ટ દર્શન આ પ્રકારનો ઉપયોગ દેશદેશની અને સમય-સમયની અનેક નાના ભાઇના મનમાં ભાભી વિશે ચોરી અંગે વહેમ ઊભો કરી. આપણને થાય છે, અને કથાસાહિત્યની આ જ તો ખરી લોક કથાઓમાં થયો છે. વાતને સિફતથી વાળી લે છે. અલબત્ત, આ કુટિલ યુકિતથી ઉપયોગિતા છે. સુદર્શન શ્રેષ્ઠિની કથામાં, રાણીએ કરેલી અયોગ્ય માગણીને ધનના પછીના ભવમાં તેના પર દુ:શીલતાનો અને ચોરીનો વર્તમાન સમયમાં અસાધારણ પ્રતિભા અને પ્રગતિ કરનારા સુદર્શન શ્રેષ્ઠિ સિફતથી ટાળે છે પણ પાછળથી રાણીને સુદર્શન આરોપ આવે છે. નટપુત્ર રોહકની વાતમાં બાળરોહકને દુ:ખ અગ્રણીઓના ચારિત્રખંડનનો અફવા દ્વારા થઇ રહેલો પ્રયોગ શ્રેષ્ઠિની સિફતનો ખ્યાલ આવતા, એમની પર બળાત્કારનું દેતી અપરમાને સીધી કરવા આવ્યો વ્યુહ રચાયો છે. પૂર્ણભદ્રના આ પ્રકારનો ગણી શકાય. સમાજજીવન અને રાજકારણમાં આળ ચડાવે છે અને રાજાએ કરેલી શૂળીની સજા ભોગવતાં, ‘પંચાખ્યાન' (૧ ૧૯૯) ૧-૩માં અને પશ્ચિમ ભારતીય આવું વિશેષ બને છે. • | ITI I F onty vall Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન સાહિત્યગત પ્રારંભિક નિષ્ઠા જૈન સાહિત્ય આપણને મળે છે એ નિર્વિવાદ છે. એટલે વૈદિક અને તેના ફળની ચર્ચા અત્યંત ગૌણ હતી. એથી જ સાહિત્યના પ્રભાવથી સર્વથા મુકત એવું જૈન સાહિત્ય શકય જ કમીસિદ્ધાંતની ચચર્મ ઉપનિષદ સુધી તો ગુહ્મવિધા હતી, જેની ! પં. દલસુખ માલવણિયા નથી. પણ વૈદિક ધર્મની જે નિષ્ઠા હોય, જે સિદ્ધાન્તો હોય ચર્ચા સૌ સમક્ષ નહીં પણ એકાંતમાં કરવી પડતી. યકર્મની તેમાંથી જૈન સાહિત્ય કયાં જ પડે છે, એ જ વિચારવાનું પ્રાપ્ત પ્રતિષ્ઠા કરવાનો પ્રયત્ન કરવામાં આવ્યો. પણ કમને નામે જૈન સાહિત્યને જયારે આપણે અન્ય સાહિત્યથી જુદુ પાડીએ થાય છે. પ્રારંભમાં એવું બન્યું છે કે વૈદિક વિચારને જ કેટલીક યજ્ઞ કર્મની પ્રતિષ્ઠાનું નિરાકરણ જૈન સાહિત્યમાં સ્પષ્ટ છે. છીએ ત્યારે તે હાથી ? આ પ્રશ્ન છે. આનો ઉત્તર એ છે કે બાબતમાં અપનાવવામાં આવ્યો. પણ કાળક્રમે તેમાં પરિવર્તન એટલું જ નહીં પણ કમવિચારણા આગવી રીતે જૈન સાહિત્યમાં આવ્યું. ઉદાહરણ તરીકે, એ રાંગમાં આત્માના પારમાર્થિક દેખાય છે. તેમાં પ્રથમ તો એ કે આત્માની વિશુદ્ધિ માટે કે ભારતીય સાહિત્યમાં વેદથી માંડીને જે સાહિત્ય રચાયું છે તેમાં જેને આપણે જૈન સાહિત્ય તરીકે ઓળખીએ છીએ તે અન્ય સ્વરૂપના નિરૂપણમાં વૈદિક વિચાર જ નહીં, તેની પરિભાષા પણ આત્મસાક્ષાત્કાર માટે માત્ર શાનનું જ મહત્વ નહીં પણ જ્ઞાન અપનાવવામાં આવી, પણ કાળક્રમે તેમાં પરિવર્તન કરવામાં વૈદિક સાહિત્યથી જુદું છે. તેનું મુખ્ય કારણ એ છે કે જયારે અને ક્રિયા બંનેનું સરંખું મહત્વ છે એમ સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું. અન્ય સાહિત્ય-વિશેષ ધાર્મિક સાહિત્ય-વેદમૂલક છે એટલે કે આવ્યું. જયારે એમ માલુમ પડયું કે જૈન સંમત સ્વતંત્ર વિચાર અહી ક્રિયા એટલે સત્કર્મ અથવા સદાચરણ સમજવાનું છે. વેદને પ્રમાણ માનીને રચાયું છે. જયારે જેને આપણે જૈન સાથે વેદસંમત આત્મસ્વરૂપનો સમગ્ર ભાવે મેળ નથી. ઉપનિષદોએ જ્ઞાનમાર્ગની પ્રતિષ્ઠા કરવા માટે પ્રયત્ન કર્યો, પણ આચારાંગમાં એક બાજુ એમ કહેવામાં આવ્યું કે આત્મા સદાચાર કે સદાચરણ શું તેનું જોઇએ તેવું સ્પષ્ટીકરણ તે સાહિત્ય કહીએ છીએ તેનો પ્રારંભ જ વેદના પ્રામાણ્યના વિરોધને કારણે થયો છે. સંસારમાં પરિભ્રમણ કરે છે. આ મૌલિક વિચારની સાથે સાહિત્યમાં દેખાતું નથી. આથી જ પરિગ્રહના વ્યાપ વિશે કે : આત્માની વૈદિક સંમત વ્યાપકતાનો મેળ સંભવિત જ નથી. હિંસાના પાપ વિશે ઉપનિષદો આપણાં માર્ગદર્શક બની શકે તેમ આ વિરોધ પ્રારંભમાં બે રીતે પ્રકટ થાય છે: એક તો ભાષાને આથી આત્માને દેહપરિમાણા રૂપે સ્વીકારીને તેની વેદસંમત નથી. જયાં બધું જ આત્મસ્વરૂપ હોય ત્યાં કોણ કોને મારે અને કારણે, અને બીજો પ્રતિપાધ વસ્તુને કારણે. વૈદિક સાહિત્યની ભાષા જે શિષ્ટ-માન્ય સંસ્કૃત હતી તેને વ્યાપકતાનો નિષેધ કર્યો. એને પરિણામે આચારાંગમાં જે એમ કોણ શું લે કે છોડે ? આવી વિચારણાને બહુ અવકાશ રહેતો બદલે જૈન સાહિત્યનો પ્રારંભ પ્રાકૃત, એટલે કે લોકભાષાથી કહેવામાં આવ્યું હતું કે આત્મા નથી દીધું કે હવ, તેને બદલે નથી, આથી સદાચારનાં જે ધોરણ જૈન સાહિત્યમાં સ્થાપવામાં થયો. વેદોએ અને તેની ભાષાએ ‘મન્ન' નું પદ પ્રાપ્ત કર્યું હતું. તેને હ્રસ્વ-દીર્ષ સ્વીકારવામાં આવ્યો અને તે સંસારી આત્મા આવ્યા તે વૈદિક સાહિત્યમાં જે ઉપનિષદો સુધી વિકસ્યું હતું તેથી તેના ઉચ્ચારણ આદિમાં કશો ભેદ થવો ન જોઇએ. અને પૂરતું જ મર્યાદિત ન રહ્યું પણ સિદ્ધ આત્મામાં પણ સ્વીક* તેમાં એ ધોરણોની કોઈ વિશેષ ચર્ચા જોવા મળતી નથી. જયારે તેના વિધિપૂર્વકના ઉચ્ચારમાત્રથી કાયસિદ્ધિ થવાની ધારણા લેવું પડયું. જૈન સાહિત્યમાં તો એ ધોરણોની જ મુખ્ય ચર્ચા તેના પ્રારંભિક વૈદિકોમાં બંધાઇ હતી. આના વિરોધમાં જૈન સાહિત્યે પોતાની વૈદિક વિચારમાં ઉપનિષદ સુધીમાં સમગ્ર વિશ્વને મળ સાહિત્યમાં જોવા મળે છે. અને જે ધોરણો તેમાં સ્થપાયાં તેની ભાષા પ્રાકૃત સ્વીકારી અને તીર્થકરો લોકોની ભાષા કોઈ એક તત્વ છે. આવી વિચારણાને પષ્ટ કરવામાં આવી છે. જે પુષ્ટિ અર્થે સમગ્ર જૈન ધાર્મિક સાહિત્ય પ્રયત્નશીલ રહ્યું છે. અ ર્ધમાધિમાં ઉપદેશ આપે છે તેવી માન્યતા સ્થિર થઈ. અથાત્ જે એકમાત્ર બહ્મ કે આત્મા જ વિશ્વપ્રપંચના મુળમાં અને તેની છાપ ઉપનિષદ પછીના વૈદિક વામયમાં પણ જોવા એટલે પ્રારંભિક જૈન સાહિત્યની રચના પ્રાકૃતમાં જ થઇ છે તે છે એવી વિચારણા વૈદિકોમાં દઢ થતી આવી અને ઉપનિષદોમાં મળે છે. ' છેક ઈસાની ચોથી સદી સુધી તો આપણે જોઈ શકીએ છીએ. તે વિચારને અંતિમ રૂપ અ. રવામાં આવ્યું. પણ જૈન આગમોમાં કર્મવિચારણામાં જૈન સાહિત્યની આગવી વિશેષતા એ છે. પણ જયારે ગુપ્ત કાળમાં સંસ્કૃત ભાષા અને વૈદિક ધર્મનું ચિત્ત અને અચિત્ત, અથવા ચિત્તમત, અથવા જીવ અને કે કર્મ કરનારને તેનું ફળ એ કર્મ જ આપે છે. વૈદિક મતે પુનરુત્થાન થવા લાગ્યું ત્યારે જૈનોએ પણ પોતાના સાહિત્ય માટે અજીવ આ બે તત્વો જ સ્વીકારવામાં આવ્યાં છે.. યજ્ઞકર્મમાં તેના ફળ માટે પ્રથમ દેવની અપેક્ષા હતી પણ પછી પ્રાકૃત ઉપરાંત સંસ્કૃત ભાષાને પણ અપનાવી. તે એટલે સુધી વળી આ વિશ્વની ઉત્પત્તિની વિચારણા વૈદિક સાહિત્યમાં તો એ દેવતાને મંત્રમયી સ્વીકારવામાં આવ્યાં અને તેથી કર્મનું કે મૂળ જૈન આગમોની ટીકાઓ ગૂધ કે પઘમાં પ્રાકૃતમાં થઇ હતી. અને ઈશ્વર જેવા અલૌકિક તત્વની પ્રતિષ્ઠા વૈદિકોએ ફળ વાસ્તવિક દેવતાને આધીન ન રહ્યું પણ મંત્રને આધીન રહ્યું. લખાતી હતી તેને બદલે ઇસાની આઠમી સદીના પ્રારંભથી તો કરી હતી. તેને સ્થાને આ વિશ્વ અનાદિ કાળથી વિદ્યમાન છે. આથી મંત્રના જ્ઞાતાનું મહત્વ વધ્યું અને તેઓ જ સંસ્કૃતમાં લખાવા લાગી અને પછી કદીયે ટીકાઓ પ્રાકૃતમાં અને અનાગતમાં રહેવાનું છે, એટલું જ નહીં પણ જયારે આમ સર્વશકિતસંપન્ન.મનાવા લાગ્યા. આ પરિસ્થિતિનો સામનો જૈન લખાઇ જ નહીં. અને એર્ક વાર પરંપરામાં સંસ્કૃત ભાષાનો છે ત્યારે અધિનાયક ઈશ્વર જેવા તત્વનો પણ અસ્વીકાર એ જૈન સાહિત્યમાં બે રીતે થયો: એક તો એ કે એ મંત્રોની શકિતનું પ્રવેશ થયો એટલે સાહિત્યના બધા પ્રકારોમાં પ્રાકૃતને બદલે તત્વજ્ઞાનની વિશેષતા છે, જે જૈન સાહિત્યમાં સારા પ્રમાણમાં નિરાકરણ, સંસ્કૃત ભાષાનું જ નિરાકરણ કરી કરવામાં આવ્યું મુખ્યપણે સંસ્કૃતને અપનાવવામાં આવી. આ તો ભાષાની વાત પ્રગટ થતી રહી છે. ' અને બીજું એ કે મંત્રમાં એવી કોઈ શકિતનો અસ્વીકાર જ કરી થઇ. હવે આપણે પ્રતિપાદ્ય વસ્તુ વિશે વિચારીએ. કર્મની પ્રતિષ્ઠા યજ્ઞકર્મરૂપે મુખ્યત્વે વૈદિકોમાં હતી. સારાંશ દેવામાં આવ્યો અને તેને સ્થાને કર્મમાં જ ફળદાયિની શકિતનો | વેદ, બાહ્મણ, આરણ્યક અને ઉપનિષદોના કાળ પછીનું જ કે યજ્ઞ કર્મનો સ્વીકાર વૈદિકોમાં હતો. પરંતુ સમગ્ર પ્રકારનાં કર્મ સ્વીકાર કરવામાં આવ્યો. આમ, કર્મ કરનારનું જ કર્મના ફળ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અંગે મહત્વ થયું એટલે જે જેવું કરે તેનું તેવું ફળ તે પામે. આ તપસ્વી બનવું પડે. આથી આપણે જોઈએ છીએ કે જૈન ધર્મમાં નહીં પણ તેમના દેખાડેલા માર્ગે ચાલીને જ કોઇ પોતાનું વાત સિદ્ધાંતરૂપે થઈ. તપસ્યાનું મહત્વ સ્થાપિત થયું. કલ્યાણ કરી શકે છે. આમ, ભકિત ખરી પણ તે એકપક્ષીય - આ રીતે કર્મનું ફળ દેવાની શકિત દેવતા કે ઈશ્વર કે મંત્રમાં વૈદિકોમાં ભિક્ષાજીવી માટે આવી કોઇ મર્યાદિત નથી. ભકિત જૈન સાહિત્યમાં પ્રતિષ્ઠિત થઇ. એ ભકિતમાં લેવડદેવડ નહીં પણ એ કમમાં જ છે, જેને લીધે ફળ છે આ સિદ્ધાંત સ્થિર બૌદ્ધોમાં પણ નથી, અને અન્ય શ્રમણ સંપ્રદાયમાં પણ નથી. નથી, માત્ર આદર્શની ઉપસ્થિતિ છે. આમ, જૈન દર્શનમાં થયો. એટલે સ્વયં મનુષ્ય જ શકિતસંપન્ન થયો. મનુષ્ય જ આથી જૈન સાહિત્યમાં અનશન આદિ તપસ્યાને વિશેષ મહત્વ ઈશ્વરની કે ભગવાનની સમગ્રભાવે નવી જ કલ્પના ઉપસ્થિત નહીં, પણ સંસારના સમગ્ર જીવો પોતાનાં કર્મને માટે સ્વતંત્ર અપડ્યાં છે તપસ્યા તો પૂર્વે પણ થતી. પરંતુ તે બીજા પ્રકારે થઇ અને એની પુષ્ટિ સમગ્ર જૈન સાહિત્યમાં જોવા મળે છે. થયા. આમ, જીવને તેના સ્વાતંત્ર્યની ઓળખાણ સર્વપ્રથમ જૈન એટલે કે એ તપસ્યામાં બીજા જીવોના દુ:ખનો વિચાર ન હતો, જૈનોએ વેદિકોની જેમ અનેક મંદિરો, પૂજા આદિ ભકિત સાહિત્યમાં જોવા મળે છે. જેમ કે પંચાગ્નિ તપસ્યાં. આમાં પોતાના શરીરને કષ્ટ છે એની નિમિત્તે ઊભા કર્યા પણ તેમાં બિરાજમાન ભગવાન વીતરાગી આ સિદ્ધાંતથી એ પણ ફલિત થયું કે સંસારમાં આ જીવ ના નહીં, પણ અન્ય કીટપતંગોને પણ કષ્ટ છે તેને જરા પણ છે એટલે એ ભકતની ભકિતથી પ્રસન્ન પણ નથી થતા અને તેનાં પોતાના જ કમને કારણે જમણ કરે છે અને દુ:ખી થાય ધ્યાન તેમાં અપાયું નથી. અગ્નિ આદિમાં જીવો છે તેનો તો અભકિતથી નારાજ પણ નથી થતાં છે. તેના પરમાર્થપણે અન્ય કોઇ વ્યકિત કારણ નથી. અને જો વિચાર સરખો પણ જૈન સાહિત્ય પૂર્વમાં થયો જ નથી. આથી આ પ્રકારની કેટલી ક મૌલિક વિશેષતાઓથી ‘આગમ' નામે આમ છે તો તેના શાશ્વત સુખ માટે તેણે પોતે જ પ્રયત્ન જ ‘આચારાંગ’માં સર્વપ્રથમ જીવનિકાયનું સ્વરૂપ બતાવવું, ઓળખાતું જૈન સાહિત્ય સમૃદ્ધ છે. એ સાહિત્યની જે ટીકાઓ કરવાનો છે. તેને બીજો કોઇ સુખ આપી દેવાનો નથી. તે તો જેથી જેને અહિંસક બનવું હોય, પરદુ:ખદાયક ન બનવું હોય રચાઇ તેમાં મૌલિક ધારણાઓ તો કાયમ જ રહી, પણ જે કઠોર તેણે પોતાના અંતરમાંથી જ મેળવવાનું છે અને તેનો ઉપાય તેણે એ તો જાણવું જ જોઇએ કે જીવો કયાં કેવા છે, એ જાણ્યા આચરણની અપેક્ષા મૂળમાં રાખવામાં આવી હતી તેનું પાલન છે–કર્મવિહીન થવું તે. | હોય તે પછી જ મનુષ્ય અહિંસક બની શકે. આમ તપસ્યાનું સહજ ન હતું અને વળી ધર્મ જયારે એક સમૂહનો ધર્મ બને જૈનોનું પ્રાચીનતમ પુસ્તક ‘આચારાંગ’ છે અને એમાં રૂપ જ બદપ્લાઈ ગયું જેનો પ્રારંભ જૈન સાહિત્યમાંથી જ મળી છે, તેના અનુયાયીઓનો એક વિશાળ સમાજ બને છે, ત્યારે કર્મવિહીન કેમ થવું જેથી સંસારનું પરિભ્રમણ ટળે અને રીકરી.. તેના મૌલિક કઠોર આચરણમાં દેશ, કાળ અને પરિસ્થિતિ પરમસુખની નિવણઅવસ્થા પ્રાપ્ત થાય તે સમજાવવામાં આવ્યું વળી તપસ્યાનો ઉદ્દેશ કોઈ શકિત પ્રાપ્ત કરી બીજાનું પ્રમાણે પરિવર્તન કરવું પણ અનિવાર્ય બને છે. અને તે માટેની છે. વૈદિકોના કર્મકાંડી યજ્ઞમાર્ગ અને ઉપનિષદોના જ્ઞાનમાર્ગથી ભલું- બૂર કરવું એ નથી, પણ એકમાત્ર આત્મવિશદ્ધિ જ તેનું સગવડ મૂળ આગમના ટીકાકારોએ કરી આપી છે. અહિંસા આ માર્ગ–એટલે કે કમવિહીન થવાનો આ માર્ગ–સાવ નિરાળો ધ્યેય છે. સંગ્રહ કરેલ કર્મનો ક્ષય કરવામાં જ તેનો ઉપયોગ આદિની જે મૌલિક વિચારણા હતી તેમાં બાંધછોડ પણ કરી છે, સામાયિક અથવા સમભાવનો સિદ્ધાંત કમવિહીન થવાનો છે, જેથી શીઘ કમીવિહીન થઇ શકાય. આપી છે. અહિંસા આદિની જે મૌલિક વિચારણા હતી તેમાં માર્ગ છે. તદનુસાર સર્વ જીવો સમાન છે– એટલે કે કોઈને દુ:ખ | ધાર્મિક સદાચારની એક વિશેષતા એ પણ છે કે ધાર્મિક | બાંધછોડ પણ કરી આપી છે. તે ત્યાં સુધી કે એ બાંધછોડ પણ ગમતું નથી, કોઇને મૃત્યુ ગમતું નથી, સૌને સુખ ગમે છે, જીવવું અનુષ્ઠાન એ વ્યકિતગત છે, સામૂહિક નથી. યશો જે થતાં તે કરી આપી છે. તે ત્યાં સુધી કે એ બાંધછોડ એવી બની ગઈ ગમે છે, માટે એવું કશું ન કરો જેથી બીજાને દુ:ખ થાય. આ પુરોહિતના આશ્રય કે સહાય વિના થતા નહીં, પણ જૈન ધર્મમાં કે ગીતાની અહિંસા અને જૈન આગમની ટીકાની અહિંસમાં છે સામાયિક અને તેનો સર્વપ્રથમ ઉપદેશ ભગવાન મહાવીરે ધાર્મિક કોઇ પણ અનુષ્ઠાન હોય તે વ્યકિતગત જ હોય, વિશેષ ભેદ રહ્યો નહીં. આમ, પરિસ્થિતિએ પલટો ખાધે તેમાં જ આપ્યો છે એમ ‘સુત્રકતાંગ’માં સ્પષ્ટી કરણ છે. આવા સામૂહિક ન હોય ભલે જીવો સમૂહમાં રહેતા હોય. એક ઠેકાણે પણ ભગવાન મહાવીરે યશ આદિમાં જે આત્યંતિક હિંસા હતી સામાયિક માટે સર્વસ્વનો ત્યાગ કરો તો જ બીજાનાં દુ:ખના એકત્ર થઇ ધાર્મિક અનુષ્ઠાન કરતાં હોય, પણ તે અનુષ્ઠાન તો તેના સ્થાને આત્યંતિક અહિંસાનું પ્રતિપાદન કર્યું હતું તે હવે ઢીલું તમે નિમિત્ત નહીં બનો, એટલે કે ઘરસંસારથી વિરકત થાવ અને વૈયકિતક જ રહેવું જોઇએ, આવી જૈન ધર્મની પ્રારંભિક માન્યતા પડ્યું. બે સંતનો અંત બહુ લાંબો કાળ ટકે નહીં એ હકીકત ભિક્ષાર્થી જીવન પાવન કરો એમ કહ્યું છે. ઘરસંસાર માંડ્યો હતો. જીવ પોતે જ પોતાનો માર્ગદર્શક છે અને માર્ગે ચાલનાર છે, એટલે છેવટે મધ્યમાર્ગીય અહિંસા પણ થઇ અને હિંસા પણ હોય તે અનેક પ્રકારનાં કર્મો કરવા પડે છે, જે બીજાને પણ છે. બીજો પ્રેરક હોય તેવું બને, પણ પ્રેરણા પ્રાપ્ત કરી મધ્યમમાર્ગે આવીને ઊભી રહી; ધમચિરણમાં યજ્ઞોના દુ:ખદાયક છે. આથી બીજાના દુ:ખનું નિમિત્ત ન બનવું હોય અનુષ્ઠાન તે વ્યકિતએ જ કરવાનું રહે છે. આથી એ પ્રેરક એ અનુષ્ઠાનમાંથી હિંસા લગભગ નિરસી થઇ, તેમ અહિંસાના તો સંસારથી વિરકત થવું એ જ સાચો માર્ગ છે. ભિક્ષાજીવી તીર્થકર થયા. ધમનુષ્ઠાનનો માર્ગ કરી આપનાર થયા, પણ અતિ કઠોર માર્ગમાંથી અહિંસાનું આચરણ પણ મધ્યમ માર્ગે થવાની પણ મયદા એ છે, કે જે કાંઇ પોતાને નિમિત્તે થયું હોય તેમના બતાવેલ માર્ગે જવાનું કામ તો સાધકન જ નિશ્ચિત થયું. આવીને ઊભું રહ્યું. ‘અતિ સર્વત્ર વર્જયેત’નો સિદ્ધાંત છેવટે તેનો સ્વીકાર ન જ કરવો, કારણ કે આથી પોતે હિંસા ભલે ન આથી ઈશ્વરનું સ્થાન જૈન સાહિત્યમાં તીર્થકરે લીધું, જે માત્ર સ્વીકાર્ય બને છે, તે આ આત્યંતિક હિંસ અને આત્યંતિક કરતો હોય પણ બીજા પાસે એ કરાવતો હોય છે. પરિણામે માર્ગદર્શક કે માર્ગકારક છે, પણ તેઓ બીજાનું કલ્યાણ કરવા અહિંસાના કૅન્દ્રમાં પણ જોવા મળે છે. આહાર આદિ આવશ્યકતાઓમાં મર્યાદા મૂકવી પડે અને કે તેને દંડ દેવા શકિતમાન નથી. તેમના આશીર્વાદથી કશું થાય પૂર્વવર્ણિત જૈન નિષ્ઠઓને આધાર બનાવી આગમેતર Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સાહિત્ય વિપુલ પ્રમાણમાં રચાયું છે. તેનું એકમાત્ર ધ્યેય અહિંસા, સત્ય, અસ્તેય, બ્રહ્મચર્ય અને અપરિગ્રહને પુષ્ટ કરવાનું છે. જૈન આચાર્યોએ લલિત વાડ્મયનું પણ જે ખેડાણ કર્યું અને તે નજીવું નથી તેમાં પણ આ મૌલિક ધ્યેયને તેઓ ભૂલ્યા નથી. શૃંગારપ્રધાન કૃતિ રચે પણ તેનું છેવટ તો સાધુનો આચાર સ્વીકારવામાં આવે અને તેન પરિણામે મોક્ષ જેવા પરમ ધ્યેયની પ્રાપ્તિમાં પર્યવસાન હોય, અને બીજે પક્ષે જો હિસા આદિ દુષણો હોય તો તેનું પરિણામ નરકયાતના દેખાડવામાં આવે. આમ, સદ્ગુણની પ્રતિષ્ઠા અને સદ્ગુણનું નિરાકરણ આ ધ્યેય સ્વીકારીને ભારતીય સાહિત્યમાં અજોડ એવું કથાસાહિત્ય જૈન આચાર્યોએ મધ્યકાળથી માંડીને આજ સુધી આપ્યું છે. એ સમગ્ર સાહિત્યના વિવરણનું આ સ્થાન નથી. માત્ર તેનો સૂર કર્યો છે એ જ જાણવું આપણે માટે બસ છે. જૈન આચારનો પાયો જો સામાયિક છે, તો જૈન વિચાર અથવા દર્શનનો પાયો નયવાદથી નિષ્પન્ન અનેકાન્તવાદ છે. જીવો પ્રત્યે સમભાવ એ જો આચારમાં સામાયિક હોય તો વિભન્ન વિચાર પ્રત્યે આદરની ભાવના કેળવવી હોય તે નયવાદ અનિવાર્ય છે. અર્થાત્ વિચારમાં સમભાવ એ જૈન દર્શનનો પણ પાર્યો માનીએ તો ઉચિત જ ગણાશે. આથી પ્રાચીનતમ નહીં એવા આગમમાં પછીના કાળે જે વ્યાર્થિક પયોયાર્થિક નો પ્રવેશ્યા તે વૈચારિક સમભાવની મહત્તા સમજાવવાની દૃષ્ટિથી જ પ્રવેશ્યા હશે તેમ માનવું રહ્યું. આમ શાથી માનવું તેની થોડી ચર્ચા જરૂરી છે એટલે અહીં કરું તો અસ્થાને નહીં લેખાય. કારણ ભારતીય દર્શનોમાં વિવાદ નહીં પણ સવાદ લાવવાનો જે મહાન પ્રયત્ન જૈન દર્શીનકોએ કર્યો છે તે અભૂતપૂર્વ છે એમાં સંદેહ નથી જૈન દર્શનનું કે દાનિક સાહિત્યનું વાસ્તવિક નિર્માણ કચારે થયું ? તો તેનો જવાબ છે કે આચાર્ય ઉમાસ્વાતિના ‘તત્વાર્થસૂત્ર'થી તે પૂર્વે અન્ય ભારતીય દર્શનોમાં વિચારની વ્યવસ્થા થઇ ચૂકી હતી. તેનું સમર્થન પણ થઈ રહ્યું હતું અને તે આજ લગી ચાલુ જ છે, તેના ઉચિત સમર્થન સાથે જયાં સુધી બે વિરોધી ઉપસ્થિતિ થાય નહીં, ત્યાં સુધી નયવાદને અવકાશ જ નથી. ‘તત્વાર્થસૂત્ર’-ગત જૈન તત્વોની વ્યવસ્થાનું સમર્થન કરવું જરૂરી હતું અને તેના સમર્થનમાંથી જ નયવાદનો ઉદય થયો. જેને પરિણામે જૈનોનો અનેકાન્તવાદ દાનિક ક્ષેત્રે પ્રચલિત બન્યો. આચાર્ય સિદ્ધિસેને ભારતીય વિવિધ દાર્શનક મંતવ્યોની ‘સંમતિતક'માં ફાળવણી વિવિધ નયોમાં કરીને Main Edutasin When અનેકાન્તવાદનો માર્ગ મોકળો કરી આપ્યો. એટલે તેના વિસ્તારરૂપે આચાર્ય મલ્લવાદીએ નયચક્રની રચના કરીને એ બતાવવા પ્રયત્ન કર્યો, કે ભારતીય દર્શનોમાં એક-અનેક આદિ, કે સત્કાર્ય આદિ, કે પુરુષ-નિયતિવાદ આદિ, કે ધ્રુવ-અધ્રુવ આદિ, કે વાચ્ય-અવાચ્ય આદિ, જે જે વિવિધ મંતવ્યો છે, તે એક જ વસ્તુને વિવિધ દષ્ટિએ જોવાના માર્ગો છે. તે સંપૂર્ણ સત્ય નથી પણ આશિક આપેશિક સત્ય છે. એ બધા પરસ્પરના વિરોધી વાદોમાં પોતાની દષ્ટિને જ સાચી માનવાથી અને વિરોધીઓની દષ્ટિને મિથ્યા માનવાથી વિરોધ દેખાય. પણ એ બધી દષ્ટિઓને, એ બધા વાર્તાને સ્વીકારવામાં આવે તો જ વસ્તુના સંપૂર્ણ સત્યદર્શન પ્રત્યે પ્રગતિ સધાય. આવું સિદ્ધ કરવા તેમણે તે તે પ્રત્યેક વાદની સ્થાપના અને અન્ય દ્વારા, ઉત્થાપના બતાવી. સૌને પ્રબળ અને નિર્બળ દેખાડવા પ્રયત્ન કર્યો છે અને તેથી જ તે તે વાદીએ પોતાની જ નહીં પણ અન્યની દષ્ટિને પણ સ્વીકારવી અનિવાર્ય છે એમ સિદ્ધ કરવા પ્રયત્ન કર્યો છે, અને એ પ્રકારે નયવાદોથી નિષ્પન્ન અનેકાન્તવાદ વસ્તુનું સમગ્રભાવે યથાર્થ દર્શન કરાવવા સમર્થ છે એમ સિદ્ધ કર્યું છે. મલ્લવાદીએ સ્થાપેલી આ જૈન દાર્શીનક નિષ્ઠાને આધારે સમગ્ર જૈન દાર્શીનક સાહિત્યનું ખેડાણ થયું છે, અને ભારતીય દાનિકોના સંવાદ સ્થાપી આપવા પ્રયત્ન થયો છે. ધાર્મિક અને દાર્શીનક ઉપરાંત વ્યાકરણ, અલંકાર, નાટક, સંગીત, નૃત્ય આદિ વિવિધ સાહિત્યની લૌકિક વિદ્યાઓમાં પણ જૈનોનું પ્રદાન નજીવું નથી તે જૈન સાહિત્ય એટલા જ માટે છે કે તે જૈનોએ રચ્યું છે, પણ વાસ્તવિક રીતે તેને જૈન ધર્મ કે નિષ્ઠા સાથે કશો સંબંધ નથી. એટલે તે સાહિત્ય, પણ એના વિષયો જૈન સંસ્કૃતિ પૂરતા જ સીમિત નથી. તે સાર્વજનિક છે, સર્વોપયોગી છે. માત્ર જૈનના વાડામાં તેને બાંધી શકાય નહીં. તે એટલા માટે કે જૈન સાહિત્યનું જે મુખ્ય લક્ષણ કે ધ્યેય છે તે આત્માને કર્મથી મુકત થવામાં સહાયક બને જ -આ લક્ષણ તે પ્રકારના લૌકિક સાહિત્યમાં મળતું નથી તેથી તેને જૈન સાહિત્યમાં અંતર્ગત કરવું આવશ્યક નથી. માત્ર વિદ્વાનોની તે તરફ ઉપેક્ષા છે તેના નિવારણ અર્થે તેનો પરિચય જૈન સાહિત્યમાં અપાય તો તે ઉચિત જ છે. પ્રસ્તુત લેખમાં જૈન સાહિત્યની જે નિષ્ઠા છે તેનો આછો પરિચય આપવા પ્રયત્ન છે. આ કાઇ આખરી શબ્દ નથી. વિચારકો વિશેષ ચર્ચા-વિચારણા કરે અને નિર્ણય ઉપર આવે એવી વિનંતી છે. For Privas Personal Use Only AL 63 www.jailbrary.org Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 ain Education international શ્રી વીરચંદ રાઘવજી ગાંધી ડૉ. કુમારપાળ દેસાઈ કાળનું સતત ફરતું ચક્ર પણ કેટલીક ઘટના અને વિભૂતિઓને લોપી શકતું નથી વર્ષોના કેટલાય વંટોળ પસાર થઈ જાય તેમ છતાં સમયની રેતી પર પડેલાં એ પગલાં ભુંસાઇ શકતાં નથી. આજથી બાણું વર્ષ પહેલા અમેરિકાના શિકાગો શહેરમાં ભરાયેલી વિશ્વધર્મ પરિષદમાં, પહેલી વાર અમેરિકાના નૂતન વિશ્વને, ભારતીય દર્શન અને ભારતીય સંસ્કૃતિનો દઢ અને તેજસ્વી ટંકાર અને રણકાર સંભળાયો. આ પરિષદમાં આવેલા ભારતના બે પ્રતિનિધિઓએ સ્વદેશન આધ્યાત્મિક વારસા પ્રત્યે જગતને જાગૃત કર્યું. આમાં એક હતા સ્વામી વિવેકાનંદ, કે જેમની શિકાગો વિશ્વધર્મ પરિષદન કામયાબી આજેય સહુના હોઠે રમે છે. પરંતુ એથીય અધિક સિદ્ધિ મેળવનારા જૈન ધર્મના પ્રતિનિધિ શ્રી વીરચંદભાઈ રાધવજી ગાંધી હતા. પરંતુ ઘરદીવડાઓને ભૂલી જનારો આપણો સમાજ વીરચંદભાઈના સિદ્ધિ અને સામર્થ્યને વીસરી ગયો છે. જે પ્રજા પોતાના ચેતનગ્રંથો જેવા સત્વશીલ પુરુષોને વીસરી જાય છે એ પ્રજાની ચેતનાકુંઠિત બની જતી હોય છે. પણ ખેર ! આજથી બા વર્ષ પહેલાની એ ઘટના પર પડેલો કાળનો પડદો હટાવીને નજર કરીએ. અમેરિકાના શિકાગો શહેરમાં મળેલી એ ધર્મ પરિષદમાં જુદા જુદા દેશના અને જુદા જુદા ધર્મના ત્રણ હજારથી વધુ પ્રતિનિધિઓ એકત્ર થયા હતા. એમાં એક હજારથી વધુ નિંબધોનું વાંચન થયું. દસેક હજાર શ્રોતાજનોએ ભાગ લીધો. ઇ.સ. ૧૮૯૩ની ૧૧મી સપ્ટેમ્બરે એનું ઉદ્દઘાટન થયું. વીરચંદ ગાંધી, સ્વામી વિવેકાનંદ, પી.સી. મજમુદાર જેવા વિદ્વાનો ભારતમાંથી ભાગ લેવા માટે આવ્યા હતા. આ ઐતિહાસિક ધર્મપરિષદનો હેતુ હતો જગતને જુ જુદા ધર્મોનો જ્ઞાન આપવાનો, સર્વધર્મના અનુયાયીઓ વચ્ચે ભાતૃભાવ પ્રગટાવવાનો અને એ રીતે એની નેમ હતી વેશ્વશતિ સ્થાપવાની. ઓગણત્રીસ વર્ષના યુવાન વીરચંદ ગાંધીની વિદ્વત્તા અને વાધારા સહુને સ્તબ્ધ કરી દીધા. માથે સોનેરી કિનારવાળી કાઠિયાવાડી પાઘડી, લાંબો ઝભ્ભો, ખભે ધોળી શાલ અને દેશી આંકડિયાળા જોડા. એમના પહેરવેશમાં ભારતીયતાની છાપ Personal Use Only હતી. આ યુવાનની વિદ્વત્તા, અભ્યાસશીલતા, તાટસ્થ્યવૃત્તિ અને વાક્યચાયથી વિશ્વધર્મ-પરિષદ મોહિત થઈ ગઈ. એક અમેરિકન અખબારે લખ્યું, 'પૂર્વના વિદ્વાનોમાં જે રોચકતા સાથે જૈન યુવકનું જૈનદર્શન અને ચારિત્ર સંબંધી વ્યાખ્યાન જેટલા રસથી શ્રોતાઓએ સાભળ્યું એટલા રસથી તેઓએ બીજા કોઇ પૌન્યિ વિદ્વાનનું સાભળ્યું ન હતું.’ વીરચંદભાઇએ જૈન ધર્મના સિદ્ધાંતોની એવી વિદ્વતાથી વાત કરી કે કેટલાક વર્તમાનપત્રોએ એમનું પ્રવચન અક્ષરશઃ પ્રગટ કર્યું. જૈન ધર્મની પરિભાષા સરળતાથી સમજાવવાની અનેરી ખૂબી એમની પાસે હતી. વાતને કે વિગતને તાર્કિક માડણીથી સ્પષ્ટ કરવાની એમનામાં અનોખી ક્ષમતા હતી. એક બાજુ પોતાની વાતને સમજાવતા જાય અને બીજી બાજુ એ વિશેનું પોતાનું આગવું અર્થઘટન આપતા જાય. ભારતીય દર્શન સમજવા માટે સંસ્કૃત અને પ્રાકૃતનો અભ્યાસ જ પૂરતો ન હતો. પરંતુ ભારતની ગતકાલીન સંસ્કૃતિના સંદર્ભને આત્મસાત્ કરવાની જરૂર હતી વીરચંદભાઇએ એ આત્મસાત્ કર્યું હતું. આથી જ કયાંક એજૈન લાગે છે, કચાક હિંદુઓની તરફદારી કરે છે, પણ બધે જ એ ભારતીય લાગે છે. એમની વાણીમાં પોથીપંડતનું શુષ્ક પાડિત્ય નહોતું, પરંતુ ઊંડા અભ્યાસની સાથે હૂંફાળી લાગણી અને ભાવન ઓનો સ્પર્શ હતો. વિવેકાનંદ અને વીરચંદ રાઘવજી ગાંધીની વિચારસરણીમાં અનેકાંતના ઉપાસકની વ્યાપકતા અને સર્વગ્રાહી દષ્ટિ જોવા મળે છે. અમેરિકામાં એમણે માત્ર જૈનદર્શન પર જ પ્રવચનો આપ્યા નથી, પરંતુ સાખ્યદર્શન, યોગદર્શન, ન્યાયદર્શન, વેદાતદર્શન, બૌદ્ધદર્શન વિશે પ્રવચનોમાં હિંદુ ધર્મ તરફ વિશેષ ઝોક જોવા મળે છે, અને બૌદ્ધ ધર્મની આકરી ટીકા પણ મળે છે. આમ છતાં આ બંને સમર્થ પુરુષોએ એકબીજાના પૂરક બનીને, વિદેશમાં ભારતીય દર્શનોની મહત્તા બતાવી છે. વીરચંદ રાઘવજી ગાંધીએ સદાય સત્યનો પક્ષ લીધો. એમની નિખાલસતા, પ્રામાણિકતા અને જીવનવ્યવહારની પવિત્રતા સહુને સ્પર્શી જતી હતી. આ ધર્મ પરિષદમાં રેવરન્ડ જયોર્જ એફપેન્ટેકોસ્ટ નામના લંડનના પ્રતિનિધિએ ભારતની દેવદાસીની પ્રથાની ટીકા કરીને હિંદુ ધર્મને ઉતારી પાડ્યો હતો. હિંદુ ધર્મની આ ટીકાનો બચાવ કરનાર એકમાત્ર વીરચંદ ગાંધી હતા. એમણે કહ્યું કે મારા ધર્મની ટીકા કરવાની હિંમત કોઇએ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કરી નથી તેથી હું આનંદ અનુભવું છું. પણ મારા સમાજની જે ટીકા થઈ તેનો મારે જવાબ આપવો જ રહ્યો. વીરચંદ ગાંધીએ પડકાર ફેંકતા કહ્યું, 'આ એ હિંદુ ધર્મ છે જેને માટે ગ્રીસના ઇતિહાસકારોએ નોંધ્યું છે કે કોઇ હિંદુ કચારેય અસત્ય બોલતો જાણ્યો નથી, અને કોઇ હિંદુ સ્ત્રીને કયારેય અપવિત્ર જાણી નથી.' આટલું કહ્યા બાદ વીરચંદ ગાંધી સભાને સામો પ્રશ્ન કરે છે. 'Even in the present day, where is the chaster woman or milder man than in India ?' નોંધપાત્ર બાબત એ છે કે વીરચંદ ગાંધીને અમેરિકા અને ઈંગ્લૅન્ડના અનેક ખ્રિસ્તી સજજનો સાથે ગાઢ મૈત્રી હતી, આમ છતાં એમણે ભારતમાં વટાળ પ્રવૃત્તિ કરતા ખ્રિસ્તી મિશનરીઓની નિર્ભિકતાથી ટીકા પણ કરી. India's Message to America' 'Impressions of America' જેવા લેખોમાં અમેરિકાના લોકો પ્રત્યે પોતાનો હૂંફાળો પ્રતિભાવ આપ્યો છે, પણ બીજી બાજુ 'Have Chiristian Missions to India been Suc cessful ?' જેવા લેખોમાં પાદરીઓની વટાળપ્રવૃત્તિની કડક આલોચના કરી છે એમણે કહ્યું હતું કે તમે તમારા મિશનરીઓ પાસેથી સાંભળ્યું હશે કે ભારતના લોકો કેટલા ગંદા, ચારિત્ર્યહીન અને લુચ્ચા છે પણ તમે ક્યારેય એ મિશનરીઓ પાસેથી, જેઓ માનવજાતને પ્રજાનો સંદેશો આપનારા કહેવાય છે એમની પાસેથી, ભારતમાં હિંદુઓ પર થતા જુલમની વાત સાંભળી છે ? ભારતમાં સારું બજાર મળી રહે તે માટે લિવરપુલ અને માંચેસ્ટરના માલ પર સરકારે કોઈ જકાત નાખી નથી, જયારે બીજી બાજુ ખર્ચાળ સરકાર ચલાવવા માટે મીઠા પર બસો ટકા વેરો નાખ્યો છે તે વાત તમારા મિશનરીઓએ તમને કહી છે ખરી ? એ પછશ્રી વીરચંદ ગાંધી આકરો પ્રહાર કરતા કહે છે; 'If they have not, whose messengers you will call these people who always şide with tyranny, who throw their cloak of hypocritical religion over murders and all sorts of criminals who happen to belong to their religion or to their country ?' શિકાગોની આ વિશ્વધર્મ પરિષદમાં વીરચંદભાઇએ જૈન ધર્મની સંક્ષિપ્ત પણ સચોટ રજૂઆત કરી. એમણે જૈન ધર્મને બે ભાગમાં સમજાવ્યોઃ એક જૈન તત્વજ્ઞાન અને બીજો ભાગ તે જૈન નીતિ, નવ તત્વ, છ પ્રકારના જીવો, વ્યાર્થિક અને પયિાર્થિક નય સંબંધી જૈનદર્શનની સૂક્ષ્મ વિચારસરણી, સ્યાદ્વાદ વગેરે તત્વજ્ઞાનની બાબતો રજૂ કરીને સહુને મુગ્ધ કર્યા, જૈનાચારની વિશેષતા સમજાવી જૈન નીતિની ચર્ચા કરી. વિશ્વના અસ્તિત્વને લગતા પ્રશ્નની તુલનાત્મક ચર્ચા કરતી વખતે એમણે બૌદ્ધ ધર્મ અને અન્ય ધર્મો સાથે તુલનાત્મક ગવૈષણા કરી, જૈન ધર્મ બૌદ્ધ ધર્મથી પ્રાચીન છે એ તથ્યનુ પ્રતિપાદન કર્યું. આ બધાને પરિણામે જૈન ધર્મ એ એક પ્રમાણયુકત અને બુદ્ધિવાદી ધર્મપ્રણાલી છે એવું સત્ય સહુને સ્વીકારવા જેવું લાગ્યું આ નવીન સમજ અંગેનો આનંદ પ્રગટ કરતાં એક અમેરિકને વીરચંદભાઇ વિશે એવો અભિપ્રાય આપ્યો કે “ધર્મોની લોકસભામાં અનેક તત્વચિંતકો, ધર્મોપદેશકો અને વિદ્વાનો હિંદુસ્તાનથી આવીને બોલી ગયા અને તે દરેકે કાઇ ને કાઇ નવી દષ્ટિ રજૂ કરી, ધર્મોના આ મિલનમાં નવું તત્વ ઉમેરતા ગયા, જેથી તે દરેકનો ધર્મ જગતના મોટા ધર્મોની હરોળમાંનો એક છે એવું લાગ્યા વગર રહે નહિ, ઉપરાંત એમની વાક્છટા અને એમનો ભકિતભાવ પણ વિશિષ્ટ પ્રકારના માલૂમ પડ્યા એમાંથી ભારોભાર પાહિત્ય અને ચિંતનમનન સાપડયા, તેમ છતાં એ બધામાંથી તરી આવતા જૈન ધર્મના એક યુવાન ગૃહસ્થને સાંભળવાથી નીતિ અને ફિલસૂફીની નવા પ્રકારની ભાળ લગી. આમ તો તેઓ માત્ર ગૃહસ્થ કુટુંબના સજજન છે, કોઇ સાધુ-મુનિ કે ધર્માચાર્ય નથી. છતાં આટલું સરસ પ્રતિપાદન કરી શકે છે ત્યારે એમના ગુરુઓ કેવા હશે ? એમની સાદી પણ સચોટ જીવનધર્મ-ફિલસૂફી જરૂર સમજવા-જાણવા જેવી છે. શ્રી વીરચંદ રાઘવજી ગાંધીના જૈન ધર્મવષયક પ્રવચનોની એક બીજી વિશેષતા એ છે કે એમણે પરધર્મની ટીકાનો આશરો લીધો નથી. જીવનમાં અહિંસા અને વિચારમાં અનેકાન્તની ભાવના ધરાવનાર સાચા જૈનને જેબ આપે તેવી, સાંપ્રદાયિક આગ્રહો અને પૂર્વગ્રહોથી મુકત એવી તટસ્થ એમની વિચારસરણી છે. શુદ્ધ અંગ્રેજી ભાષા, સ્વાભાવિક રજૂઆત અને તલસ્પર્શી અભ્યાસનો ત્રિવેણીસંગમ એમના પ્રવચનોમાંથી પ્રગટે છે એમનામાં ધર્મપ્રચારકની ધગશ છે આડંબર કે સપાટી પરની બની રહી નથી. ધર્મપ્રચારના ઉત્સાહની સાથે અભ્યાસશીલતાનું સમીકરણ થતાં એમનાં વકતવ્યો, સુશિક્ષિત અમેરિકન સમાજને સ્પર્શીગયા હતા. એમણે 'The Yoga Philosophy', 'The Jain Philosophy' જેવાં પુસ્તકો આપ્યાં છે, પરંતુ એમનું ઉત્તમ પ્રદાન તો ‘The Karma_Philosophy' ગણાશે, જેમાં જૈન ધર્મની કર્મ-ભાવનાની છણાવટ કરતી વખતે એમની ઊંડી અભ્યાસનિષ્ઠા અને જાગ્રત ધર્મભાવનાનો માર્મિક પરિચય મળે છે.. શ્રી વીરચંદ ગાંધી માત્ર તત્વચિંતક નહોતા બલ્કે દેશહિતની વિશે એવી માન્યતા હતી કે એ વાધ, સાપ અને રાજાઓનો દેશ ચિંતા પણ એમના હૈયે વસેલી હતી. અમેરિકામાં હિંદુસ્તાનને વિદેશમાં રજૂ કર્યું હતું. વીરચંદ ગાંધીએ ભારતની સાચી સમજ છે. ખ્રિસ્તી પ્રચારકોએ પણ હિંદુસ્તાનની પ્રજાનું હીશું. ચિત્ર વિદેશીઓમાં જાગે તે માટે વિવેકાનંદ જેટલો જ પ્રયાસ કર્યો હતો. એમણે ભારતીય સંસ્કૃતિનું મહત્વ બતાવતાં વિદેશીઓને કહ્યું, 'આશ્ચર્યની વાત તો એ છે કે ભારત ઉપર વિદેશીઓ સતત હુમલાઓ કરતા રહ્યા છે અને એ બધા આક્રમણોની આફતો આવ્યા છતાં ભારતનો આત્મા જીવંત રહ્યોછે. એના આચાર અને ધર્મ સાબૂત છે અને સારાયે વિશ્વને ભારત તરફ મીટ માંડીને જોવું પડે છે. સંસ્કૃતિનાં લક્ષણ ખેતી, કલાકારીગરી, સાહિત્ય, સદાચાર અને જ્ઞાનવિજ્ઞાનનાં સાધનો, આતિથ્યસત્કાર, નારીપૂજા, પ્રેમ અને આદર બધું જ ભારતમાં કોઈ જુદા જ સ્વરૂપે જોવા મળે છે. ખરીદી શકાય એવી એ સંસ્કૃતિ હોત તો ઈંગ્લૅન્ડ આ દેશમાંથી એને ખરીદી લઇ શકત, પોતાની બનાવી શકત, પણ એવું નથી બન્યું, નહિ બની શકે.' છેકે ઈ.સ. ૧૮૯૩માં વીરચંદ રાઘવજી ગાંધીએ દેશના આર્થિક અને રાજકીય સ્વાતંત્ર્યની વાત કરી હતી. એક વાર એમણે અમેરિકન લોકોને કહ્યું કે ભારત અત્યારે પરદેશી એડી નીચે કચડાયેલું છે. એ માત્ર ધાર્મિક ક્ષેત્રમાં સ્વાતંત્ર્ય ધરાવે છે, પણ ભારત સ્વતંત્ર થશે ત્યારે તે હિંસક માર્ગે કોઇ પણ દેશ પર આક્રમણ નહીં કરે. ૧૮૯૩માં ગાંધીજી માત્ર બેરિસ્ટર હતા, તે સમયે વીરચંદભાઇએ આ ભવિષ્યકથન કર્યું હતું. એમની એ કલ્પના કેટલી બધી વાસ્તવિક સાબિત થઈ ! 65 www.jainelibrary.om Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 પણ હું તો એથીય આગળ વધીને કહીશ કે આ ધર્મજ્ઞાતા ગયાં અને તેઓ જૈનોની જેમ વિધિસર સામાયિક પણ કરતાં વીરચંદભાઇએ આ પ્રશ્ન હાથમાં લીધો. એ વખતે રજવાડા અનોખા ક્રાંતાદ્રષ્ટા હતા. આ જગતની પેલે પારનું જોઈ શકે તે હતા. સામે માથું ઊંચકવું એ સામે ચાલીને મોતને બાથ ભીડવા જેવું ક્રાંતદ્રષ્ટા, વર્તમાનને વીંધીને ભવિષ્યને જાણી શકે તે ક્રાંતિદ્રષ્ટા. આ પછી શ્રી વીરચંદભાઈ ગાંધી ઈગ્લેંડ આવ્યા. અહીં ! હતું. પણ એમણે મહુવા અને પાલિતાણા વચ્ચે અવારનવાર જયારે ભારતના રાજકીય સ્વાતંત્ર્યની ઉષાનું પહેલું કિરણ પણ એમણે બેરિસ્ટર થવાની ઇચ્છા પૂરી કરી, પરંતુ આ શાનનો ધોડા પર મજલ કાપીને સમાધાનનું વાતાવરણ ઊભું કર્યું. હ્યું નહોતું ત્યારે વીરચંદભાઈએ એમ કહ્યું કે હિન્દુસ્તાન ઉપયોગ એમણે અર્થોપાર્જન માટે ભાગ્યે જ કર્યો. ઈગ્લેંન્ડમાં મુંબઇના ગવર્નર લોર્ડ રે અને પોલિટિકલ એજન્ટ કર્નલ આઝાદ થશે તો બધા દેશો સાથે શાંતિમય સહઅસ્તિત્વથી વોરસનને મળી સમર્થ રજૂઆત કરી મૂંડ કાવેરો નાબૂદ કરાવ્યો. જૈન ધર્મની જિજ્ઞાસા જોઇને એમણે શિક્ષણવર્ગ ખોલ્યો. આગળ જીવશે. દેશને આઝાદી મળી તે અગાઉ પાંચ-પાંચ દાયકા પૂર્વે જતાં લંડનમાં ‘જૈન લિટરેચર સોસાયટીની સ્થાપના કરી, એક | અંગ્રેજ બેડમસાહેબે સમેતશિખર પર ડુકકરોની ચરબી કાઢવાનું કારખાનું નાખ્યું હતું તે દૂર કરાવવા માટે વીરચંદભાઈ કલકત્તા | ધર્મજિજ્ઞાસુ હર્બર્ટ વોરને માંસાહારનો ત્યાગ કરીને જૈન ધર્મનો Philosophy’ વિશેના એમના પ્રવચનમાં કહે છે: ‘ou. ગયા. દસ્તાવેજોની જાણકારી માટે કલકત્તામાં છ માસ રહી સ્વીકાર કર્યો એમણે વીરચંદભાઈનાં ભાષણોની નોંધ રાખી, know, my brothers and sisters, that we are બંગાળી ભાષાનો અભ્યાસ કર્યો અને આખરે ‘સમેતશિખર | તેમજ અંગ્રેજીમાં જૈન ધર્મ વિશે એક પુસ્તક લખ્યું. આ ઉપરાંત not an independent nation; We are sub જૈનોનું તીર્થસ્થાન છે, બીજા કોઇને ત્યાં ડખલ કરવાનો અધિકાર વિશ્વધર્મ પરિષદના પ્રમુખ ચાર્લ્સ સી. બોની એમનાથી jects of Her Gracious Majsty Queen Vic- પ્રભાવિત થયા હતા. અને વીરચંદભાઈએ ભારતમાં નથી" એવો ચુકાદા મેળવીને તેમજ કારખાનું દૂર કરાવી ને જ toria the 'defender of the faith' but if we ૧૮૯૬-૯૭માં દુષ્કાળ પડયો ત્યારે અમેરિકામાં સ્થાપેલી જંચ્યા કાવીના દેરાસર અંગેના વિખવાદનો સુંદર ઉકેલ તેઓ were a nation in all that, name implies with લાવ્યા હત૮' માંતરરાષ્ટ્રીય વાણિજય પરિષદમાં સમગ્ર દુષ્કાળ રાહત સમિતિના પ્રમુખ સી. બોની હતા. આ સમિતિએ our own government and our own rulers, એશિયાના પ્રતિનિધિ તરીકે હાજરી આપી હતી. ૧૮૯૫માં તત્કાળ ચાલીસ હજાર રૂપિયા અને અનાજ ભરેલી સ્ટીમર with our laws and institutions controlled by પૂનામાં ભરાયેલી ઇન્ડિયન નેશનલ કોંગ્રેસમાં મુંબઇના ભારત મોકલ્યા હતા. શ્રી વીરચંદભાઇ ગાંધીએ આ પ્રવાસ us free and independent, I affirm that we પ્રતિનિધિ તરીકે હાજરી આપી હતી. તેઓ રાષ્ટ્રીય મહાસભાના દરમ્યાન ૫૩૫ જેટલાં વ્યાખ્યાનો આપ્યાં હતાં. તેઓ ગુજરાતી should seek to establish and for ever ચુસ્ત હિમાયતી હતા તેમજ મહાત્મા ગાંધી સાથે એમણે હિંદી, બંગાળી, અંગ્રેજી, સંસ્કૃત અને ફ્રેન્ચ જેવી ચૌદ ભાષાઓ maintain peaceful relations with all the na• પર પ્રભુત્વ ધરાવતા હતા. ખોરાકના અખતરા કર્યા હતા. તેઓ ગાંધીજીના સંપર્કમાં પણ tions of the world." સારી રીતે આવ્યા હોય તેમ લાગે છે. કારણ કે વીરચંદભાઈના આમ ઓગણત્રીસ વર્ષનો એક યુવક પરદેશગમનની પુત્ર ઉપર લખેલા એક પત્રમાં ગાંધીજી આશીર્વાદ સાથે પૂછે શ્રી વીરચંદભાઇનો એટલો બધો પ્રભાવ પડયો કે વિશ્વધર્મ ખફગી વહોરીને વિદેશમાં ધર્મપ્રચાર કરે અને એકવાર નહીં છે કે, 'પિતાજીના આદશોંમાંથી કંઈ જાળવી રાખ્યા છે ખરાં ?' પરિષદના આવાહકો અને વિદ્વાનોએ એમને રૌઢચંદ્ર ક બલકે ત્રણ-ત્રણ વખત વિદેશની સફર કરી માત્ર જૈન દર્શનનો આવા વીરચંદ રાઘવજી ગાંધીનું સાડત્રીસ વર્ષની વયે ઇ.સ. એનાયત કર્યો હતો. એ પછી ૧૮૯૪ની ૮મી ઑગષ્ટ જ નહીં બલકે ભારતીય દર્શનનો પ્રચાર કરે તે કેવી વિરલ ઘટના ૧૯૦૧માં મુંબઈમાં અવસાન થયું હતું. માત્ર સાડત્રીસ વર્ષની કાસોડોગા શહેરના નાગરિકોએ એમને સુવર્ણચંદ્રક આપ્યો કહેવાય ! આયુમાં કેવી અપૂર્વ સિદ્ધિ મેળવી છે વીરચંદભાઈ ગાંધીએ ! હતો. એમણે આ શહેરમાં 'Some mistake cor- | શ્રી વીરચંદ રાધવજી ગાંધીનું અલ્પ આયુષ્ય પણ અનેકવિધ આ સિદ્ધિને અંજલિ આપવા મારી પાસે કોઇ શબ્દો નથી. માત્ર rected' અંગે પ્રવચન આપ્યું હતું. અને એ પ્રવચન પૂરું થયા યશસ્વી સિદ્ધિઓથી ભરેલું છે. ૧૮૮૪માં એ બી.એ. થયા હતા. , રાષ્ટ્રશાયર ઇકબાલનો એક શેર છે: પછી ફરી ફરી પ્રવચન કરવાનું કહેવામાં આવ્યું. એમ ‘બફેલો જૈન સમાજમાં નર્સ સાથે બી.એ. થનારા એ પ્રથમ સ્નાતક કોરીયર' અખબાર નોંધે છે. અમેરિકામાં એમણે 'The હતા. ૧૮૯૦માં પિતાનું અવસાન થતાં રોવા-કૂટવા જેવી | ‘હજારો સાલ નરગીસ અપની બેનૂરીએ રોતી હૈ, Gandhi Philosophical Society' અને 'The કરઢિઓને એમણે એ જમાનામાં તિલાંજલી આપી હતી તે બડી મુકિલ સે હોતા હે ચમનમેં દીદાવર પૈદા.' School of Oriental Philosophy' નામની બે જેવીતેવી વાત ન કહેવાય. એકવીસ વર્ષની ઉમરે ‘શ્રી જૈન | સુંદર આંખને માટે નરગીસના ફૂલની ઉપમા આપવામાં સંસ્થાની સ્થાપના કરી. શિકાગોમાં 'Society for the એસોસિએશન ઓફ ઇન્ડિયા’ના મંત્રી તરીકે પાલિતાણા આવતા આવે છે. આ નરગીસનું પુષ્પ હજારો વર્ષથી પોતાની Education of women of India' નામની સંસ્થા યાત્રિકોનો મૂંડકાવેરો નાબૂદ કરવાનું કામ કરેલું મૂંડકાવેરો જયોતિહીનતા માટે-બેનૂરી માટે-રડતું રહે છે. ઘણા વર્ષો પછી સ્થાપી. આ સંસ્થાના મંત્રી શ્રીમતી હાવર્ડ હતા કે જેમણે અને બીજી રંજાડથી પરેશાન થઇને આણંદજી કલ્યાણજીની બાગમાં એને જોનારો (દીદાવર) પેદા થાય છે અને તે ખીલી વીરચંદભાઇની પ્રેરણાથી શુદ્ધ શાકાહાર અને ચુસ્ત જૈન ધર્મ પેઢીએ પાલિતાણાના ઠાકોર સામે કેસ કર્યો હતો. પરંતુ ઊઠે છે. અપનાવ્યા હતા. સ્વામી વિવેકાનંદના શિધ્યા ભગિની પાલિતાણાના ઠાકોર સુરસિંહજી પર પોલિટિકલ એજન્ટના ચાર વીરચંદ રાઘવજી ગાંધી આ ચમનમાં પેદા થયેલા આવા નિવેદિતાની જેમ શ્રીમતી હાવર્ડ વીરચંદભાઈના શિષ્યા બની હાથ હતા. પોલિટિકલ એજન્ટે શુદ્ધ ન્યાય ન આપ્યો. એક દીદાવર હતા ? For Private penale Only www.ainelor in Education Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સમતા પ્રા. તારાબહેન રમણલાલ શાહ ‘સમતા'નો સાદો અને સામાન્ય અર્થ છે: ધીરજ રાખવી, શાંતિ રાખવી. સમ એટલે સમાન અથવા સરખું. સમતાનો વિશેષ અર્થ છે સમત્વ, મનના સ્થિરતા, સ્વસ્થતા, તટસ્થતા, અહિંસકપણુ. સમતા એટલે અનુકુળ કે પ્રતિકુળ સંજોગોમાં સારા કે નરસા પ્રસંગે, સારી કે નરસી વ્યકિત માટે સ્વસ્થતાપૂર્વક સમભાવ ધારણ કરવો. આપણે જાણીએ છીએ કે જુદા જુદા કારણે ચિત્તમાં સમયે સમયે સુખદ કે દુ:ખદ અનુભવો થાય છે. સુખદ અનુભવ પ્રત્યે મોહ કે રાગ ઉત્પન્ન થાય છે. સુખદ અનુભવે જયારે દુ:ખમાં પલટાઈ જાય છે ત્યારે અધીરાઈ, ખેદ, દ્વેષ, ઇષ્ય ઈત્યાદિ અનુભવાય છે. માણસ સુખ ટકાવી રાખવા ઇચ્છે છે, પરંતુ તે ઝાઝું ટકતું નથી. માણસ દુ:ખને દૂર કરવા ઇચ્છે અને છતાં દુ:ખ દૂર થાય નહિ, આ બને દશામાં મન અશાંત, બેચેન અને વિષમ બને છે. બીજી બાજુએ સુખ અને દુ:ખ બંને પ્રત્યે માણસ સજાગ રહે, બંને on Education nations For P ony Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 પરિસ્થિતિમાં રાગ અને દ્વેષ ન અનુભવતા સમતોલ અને શાંત રહે એ સમતા કહેવાય. ભગવદ્ગીતામાં કહ્યું છે. સમતા એટલે નિર્બળતા નહિ, કે કાયરતા નહિ. સમતા એટલે જડતા કે ભાવશૂન્યતા નહિ. સમતા એટલે અંતરની ઉદારતા. સમતા એટલે હૃદયનો ક્ષમાભાવ. એનો અર્થ એવો નહિ કે કોઈ પણ ઘટનાને કે હકીકતને વગર-વિચાર્યે માની લેવી કે સમતાને નામે એને સંમતિ આપવી. એમ કરવાથી અવ્યવસ્થા સર્જાય. સમતા એટલે સમજણપૂર્વકની, વિચારપૂર્વકની સ્વસ્થતા; કસોટી કે કટોકટીની ક્ષણે પણ સ્વસ્થતા. શાંત ચિત્તની સ્વસ્થતામાંથી વિવેક જન્મે છે. વિવેકીવ્યકિત પ્રત્યેક બાબતમા જે સત્ય છે, શુભ છે, વાસ્તવિક અને યથાર્થ છે તેને જુએ છે, સમજે છે અને સ્વીકારે છે. જે અશુભ છે, હાનિકારક છે તેને પણ તે સમજે છે, પારખે છે, અને ત્યજે છે. વિવેક વ્યકિતને જાગ્રત રાખે છે. વિવેક માર્ગદર્શકનું કામ કરે છે. સમતા જયારે સિદ્ધ થાય ત્યારે આપણે હર-પળે વાણી, વિચાર, વર્તનને ઝીણવટપૂર્વક તપાસીએ છીએ. दुःखेषु अनुद्विग्नमनः सुखेषु विगत स्पृहः દુ:ખમાં ખેદ ન કરવો અને સ્પૃહા ન રાખવી તે સમતા. સાધુજીવનનો સાર સમતા છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર'માં એક સ્થળે કહ્યું છે: સમયા સમો હોફ | સમતા વડે સાધુ થવાય છે, શ્રમણ થવાય એ ‘શ્રમણ’ શબ્દનો એક અર્થ ‘સમતા' થાય છે. સાચી સમતા પરમ પુરુષાર્થ છે, વીરતા છે. ભગવાન મહાવીરે દીક્ષાસમયે પ્રતિજ્ઞા લીધી હતી: હુ જિંદગીભર સમતા ધારણ કરીશ. દેવો, માનવો, નારકી, તિર્યંચ દરેક પ્રત્યે સમભાવથી વર્તીશ. ગમે તેવા વિપરીત સંજોગોમાં પણ હું સમતા એ યોગ છે. આચાર્ય હરિભદ્રસૂરિએ યોગના પાંચ પ્રકાર બતાવ્યા છે: (૧) અધ્યાત્મ (૨) ભાવના, (૩) ધ્યાન, (૪) સમતા અને (૫) વૃત્તિ. યોગનો સાદો અર્થ છે ‘જોડવું’ સમતા સાથે ચિત્તને જોડવું અર્થાત્ સમતા સાથે એકરૂપી બની જવું, તે સમતાયોગ. વ્યાખ્યા પ્રજ્ઞપ્તિમાં કહ્યું છે, “આત્મા સમત્વરૂપ છે. આત્માનું ધ્યેય સમત્વ છે." કુંદકુંદાચાર્યે કહ્યું છે, “આત્મા એ જ સમય સાર છે." સમત્વ યસ્ય સાર તંત્ સમયસારમ્ । મોહ અને ક્ષોભથી રહિત આ માની અવસ્થા તે ભગવાન મહાવીરે ગૃહસ્થો માટે મર્યાદિત પરિગ્રહનો માર્ગ ચલાયમાન થઇશ નહિ.' સમતાની આવી કઠિન મહાવી સમત્વ છે. ભગવાન કૃષ્ણે ગીતામાં સમત્વનું ગૌરવ કરતાં કહ્યું જરૂરિયાતથી વધારે રાખવું અને બીજાને જરૂરિયાતથી ચિત પ્રબોધ્યો. આર્થિક વિષમતાનું મૂળ તૃષ્ણા છે, સંગ્રહવૃત્તિ છે. પોતે છે: સમત્વમ્ યોામુ અંતે । ભગવાને લીધી અને વીરતાપૂર્વક પાળી તેથી જ તેઓ મહાવી કહેવાયા. ભગવાન પાર્શ્વનાથને એક બાજુ કમઠે અતિશય ત્રાસ આપ્યો, તો બીજી બાજુ ધરણેન્દ્રદેવે એમની રક્ષા કરી. પરંતુ પ્રકટીકરણ ઉપર ભાર મૂકો છે. સમત્વથી મારાપણાનો, જૈન ધર્મ સાધનાના ક્ષેત્રે મમત્વના વિસર્જન અને સમત્વના ભગવાને કમઠ પ્રત્યે ક્રોધ કે દ્વેષનો ભાવ ન સેવ્યો અને ધરણેન્દ્ર પ્રત્યે મોહ કે રાગનો ભાવ ન સેવ્યો. બંને પ્રત્યે સમાન ભાવ સેવ્યો એટલે કે તુલ્ય મનોવૃત્તિ સેવી. રાખવા એ વૃત્તિ હિંસા-વિષમતા તરફ દોરે છે. આ દોષમાંથી બચવા, ભગવાને દાનનો બોધ પણ આપ્યો. દાન એટલે જરૂરિયાતવાળાને ઉપકારબુદ્ધિથી નહિ પરંતુ પોતાનું કર્તવ્ય કે આવશ્યકક્રિયા સમજીને આપવું. આ ક્રિયાને સમવિભાગ કે સમવિતરણની ક્રિયા કહી શકાય. એના મૂળમાં સમતા કે સમ અહમૂનો ભાવ દૂર થાય છે. સમત્વ આત્માનો સહજ સ્વભાવ છે. ભાવનો આદર્શ રહેલો છે, સમતા પમાય કેવી રીતે ? એ માટે જાગૃતપણે ખૂબ પુરુષાર્થ કરવો પડે. સહુ પ્રથમ હૃદયશુદ્ધિ કરવી જોઇએ. દુર્ગુણો અન દુર્વિસનાઓથી હૃદય મલીન થાય છે અરીસો ચોખ્ખો હોય તો પ્રતિબિંબ ચોખ્ખું દેખાય. ચિત્રકાર ચિત્ર કરતા પહેલાં ફલકને સાફ કરે છે તેવી રીતે હૈયામાં પેઠેલા દુર્ગુણો દૂર કરીએ તો જ હૃદયમાં સમતા જેવા ઉચ્ચતમ ગુણને અવકાશ મળે આનંદઘનજી લખે છે: વ્યકિતમાં સમતા આવે ત્યારે શુભ પ્રવૃતિનો ઉદય થાય છે; સ્વ અને પર-કલ્યાણ કરવાની ઇચ્છા થાય છે. સમતા એટલે પલાયન વૃત્તિ નહિ. સમતા વ્યકિતને જીવન પ્રત્યે અભિમુખ કરે છે. બહારનાગમે તેવા વિષમ સંયોગો વચ્ચે તેની સાચી સમતા ખડિત થતી નથી. સુખ-દુ:ખ, હાર-જીત, નિંદા-સ્તુતિ, માનઅપમાન, લાભ કે હાનિ વગેરે અનેક તો સમતા ધારણ કરનાર વ્યકિતના ચિત્તને વિચલિત કરી શકતાં નથી. Jain Education international સાચી સમતા સેવનાર વ્યકિત સદાચારી બને છે. જો તે દવાનો વેપારી હોય તો ભેળસેળવાળી દવા પોતાના સ્વજનને ન આપે, તેમ બીજાને પણ ન આપે. અનાજનો વેપારી પોતે સડેલું અનાજ ન વાપરે, તેમ બીજાને વેચે પણ નહિ, તેવી જ રીતે વ્યવહારના બધા ક્ષેત્રમાં વ્યકિત સમભાવને કારણે અહિતકા નહિ પરંતુ સર્વહતકારી વૃત્તિ ધરાવે. જૈન દર્શનનો સાર સમતા છે. શાસ્ત્રજ્ઞોએ સમ્યક્દર્શન, સમ્યજ્ઞાન અને સમ્યકચારિત્ર્યનો સમાવેશ સમભાવમાજ કર્યો છે. અહિંસા, અપરિગ્રહ અને અનેકાન્તવાદ-એ ત્રણે પરસ્પરપૂરક છે, અને એ ત્રણેનો આધાર સમતાના વિકાસ માટે, પોષણ માટે અને સમતાની સ્થિરતા માટે આ ત્રણે સિદ્ધાતો આવશ્યક છે. અહિંસા એટલે જીવમાત્ર પ્રત્યે સમભાવ. સમગ્ર ચેતનસૃષ્ટિ પ્રત્યે સમભાવ દ્વારા જ માનવી સમગ્ર વિશ્વચેતના સાથે એકત્વ અનુભવી શકે છે. જેટલું સમત્વ વધારે તેટલું અહિંસાનું પાલન સારી રીતે થઇ શકે. વિશ્વપ્રેમ અહિંસા છે, સકળ જીવસૃષ્ટિ પ્રત્યે આત્મસમ દષ્ટિ તે સમતા છે. સમભાવથી તપાસી, સમન્વય કરી, સચ પામવું તે સમતા. વિશ્વશાંતિ માટે અમોઘ સાધન તે સમતા છે. અનેકાન્તવાદ એટલે વિચાર કે વાણી દ્વારા સમતાનું આચરણ અનેકાન્તવાદ એટલે વૈચારિક સહિષ્ણુતા, વિવિધ વ્યકિતઓ, વાદો અને ધર્મોમાં વિચારના પેદ તો રહેવાના. તેને અનેકાન્તવાદ એટલે વૈચારિક અપરિગ્રહ, વૈચારિક પરિગ્રહ એટલે વિચારનું, મતનું મમત્વ, હું કહું તે જ સાચું આ વલણ તે વિચારનો પરિગ્રહ. બીજાના વિચાર કે મંતવ્યમા રહેલા સત્યનો સ્વીકાર કરવો તે વૈચારિક સમભાવ. મતાધતા કે આગ્રહીપણું ત્યજવું તે વૈચારિક અપરિગ્રહ, ધર્મ, રાજકારણ, કુટુંબ વગેરે દરેક ક્ષેત્રે મતભેદ દૂર કરવા માટે અનેકાન્તવાદ ઉત્તમ માર્ગ છે. સેવન કારણ પહેલી ભૂમિકા રે અભય, અદ્વેષ, અખેદ’ ભય અહમાંથી જન્મે છે. અહમ ઓગાળી નાખીએ તો અભય જન્મે. સત્તા, કીર્તિ, સંપત્તિની નિરર્થક હરીફાઇ છોડીએ તો અદ્વેષ પ્રગટે. અભય, અદ્વેષની વૃત્તિમાંથી અખંદ, સાત્વિક આનંદ જન્મે. આ ત્રણે દ્વારા હૃદયશુદ્ધિ થાય તો સમતાપ્રાપ્તિની ભૂમિકા તૈયાર થાય. સાધુપુરુષ કે ચારિત્ર્યશીલ વ્યકિતઓનો સત્સંગ કેળવવાથી, એમના જીવનવ્યવહારનો અભ્યાસ કરવાથી સમતાનો ભાવ પ્રગટે, વળી તત્વજ્ઞાનના અભ્યાસથી આત્મસ્વરૂપ સમજાય, આત્મા અને શરીરનો ભેદ સમજાય. શરીર નાશવંત છે. મૃત્યુ નિશ્ચિત છે. મૃત્યુનો વિચાર માણસને દુષ્કૃત્ય કરતાં અટકાવે www.jamatic Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69 અને પુણ્ય કાર્ય ઝડપથી કરવા પ્રેરે. પશ્વાદ્ભૂમાં સમતા હોય તે કરુણો, દુ:ખીનાં દુ:ખ ઓછાં કરવાથી કમની નિર્જરા થાય શકાય છે. બાહ્ય સંજોગો પરિવર્તનશીલ છે. તેના પર કદાચ તો જ પુણ્ય કાર્ય સાર્થક થાય, કહ્યું છે: છે; આપણી વૃત્તિ નિર્મળ થાય છે. ભગવાન મહાવીરે સંગમદેવ આપણો કાબૂ ન હોય, પરંતુ સમતાને કારણે આંતરવૃત્તિ પર, ‘સમતા વિણ જે આચરે પ્રાણી પુણ્યના કામ, પ્રત્યે અપાર કરુણા બતાવી, સમતાના ઉતકૃષ્ટ ભાવ વિના તે સં- કાબૂ મેળવી શકાય છે. પરિક્ષામે નિષ્કપટતા અને નિષ્ક પાયતા છાર ઉપર જિમ લીંપણું જવું ઝાંખર ચિત્રામ’ ભવે નહિ, હુંફ, હમદદ, લાગણી, સમભાવ ઇત્યાદિ દુ:ખી પ્રાપ્ત થાય છે. અધ્યાત્મયોગી આનંદધનજી કહે છે: ધર્મપાલન માટે જૈન ધર્મે જે છ આવશ્યક ક્રિયાઓ કહી માણસને ખરે ટાંકણે અમૃતછાંટણા સમાન બની જાય છે. ‘ચિત્ત પ્રસન્ન રે પૂજન કૂળ કહ્યું, પૂજા અખંડિત એહ.” છે તેમાંની એક ક્રિયા તે ‘સામાયિક’ છે. સામાયિક મધ્યસ્થ એટલે કરુણાપૂર્ણ ઉપેક્ષા. પર ફોલો પેHU ૩પેક્ષT / સમતાથી જન્મતી ચિત્તની પ્રસન્નતા એ જ સાચી ભકિત છે. સમુતાપ્રાપ્તિનો ઉત્તમ ઉપાય છે. સામાયિકનો સૂક્ષ્મ અર્થ છે અધમમાર્ગ ભૂલેલો, દોષિત પ્રત્યે ઉપેક્ષા સેવવી. માધ્યસ્થ | સમતાથી માનસિક સમતુલાની સાથે શારીરિક સમતુલા પણ સમતાભાવ ધારણ કરવો. સામાયિક એટલે ગુરુની આજ્ઞા લઈ એટલે ક્રોધ અને કતાનો ભાવ સેવ્યા વિના અલિપ્ત રહેવું મેળવી શકાય. રોગને સહને કરવાની તાકાતે આવે. સમતાનો બે ઘડી એક આસને બેસી સર્વ પાપજનક પ્રવૃત્તિ છોડી દેવી આ ઉદાસીનતા કે ઉપેક્ષા જડ નહિ પરંતુ કરુણાપૂર્ણ હોવી અભાવ હોય તો જીવનવ્યવહારમાં કેટલીક વાર માનસિક (સાઉ07 નો પદત્ત Gifમ) અને પોતાના નિધ કૃત્યો માટે જોઇએ. કરુણાનો ભાવ ન હોય તો આપણામાં જડતા કે રુક્ષતા તનાવ પેદા થાય છે. જાતજાતના ભય અકળાવે છે; જાતજાતની પશ્ચાત્તાપ કરવો. (જોfમ, રેહામ, ગUT વોસિરામિ), બે આધી જવાનો સંભવ રહે. ઉપાધ્યાય યશોવિજયજી સજઝાયમાં શંકા-કુશંકા સેવાય છે. કેટલીક ચિંતા ઉન્માદ સુધી પહોંચાડે છે. ઘડી માટે પ્રયત્નપૂર્વક જાગ્રત રહીને સમતાભાવ ધારણ કરવો. કહે છે: મોટા ભાગની બિમારી માનસિક તનાવના કારણે હોય છે. વારંવાર સામાયિક કરવાથી સમતા ધારણ કરવાની ટેવ પડે છે. ‘રાગ ધરીજે જીહાં ગુણ લહીએ, સમતા હોય તો તનાવ પર કાબૂ મેળવી શકાય છે. શાસ્ત્રકારોએ સામાયિકનો નિષ્કર્ષ એક શ્લોકમાં યથાર્થ રીતે નિર્ગુણ ઉપર સમચિત્ત રહીએ” સમતા મોક્ષનું સાધન છે. સમતા દ્વરા વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત થાય દશવ્યિો છે: આ ચારે ભાવનાથી વિશ્વમૈત્રી સધાય છે. આ ચારે ભાવના છે. વૈરાગ્યપ્રાપ્તિ માટે જે સાધના કરીને તેમાં પ્રથમ પગથિયું समता सर्वभूतेषु. संयमः शुभ भावना । ધર્મધ્યાનની ભાવના છે. તેનાથી આત્ત-રૌદ્ર ધ્યાનથી મુકત એટલે કે તળેટી સંમતા છે, અને ચરમ શિખર પર સમતા છે. जातरौद्र परित्याग, तद्धि सामायिक व्रतम् ।। | થવાય છે. અને સમતાયુકત ધર્મધ્યાન પ્રગટે છે. અનુકંપા, પ્રેમ, સાધનાનો પ્રારંભ પ્રેમ, કરુણા, અહિંસા ઉદારતા વગેરેથી થાય પ્રાણી નાત્ર પ્રત્યે પ્રેમ અને સમતાપૂર્ણ જીવનવ્યવહાર, ઉદારતા અને દાનના બીજ પ્રગટે છે અને પોષાય છે. ચિત્તવૃત્તિ છે. ક્રમશ: સાધના તીવ્ર બનતાં સાધ કે વીતરાગતા સુધી પહોચે પાંચેઇન્દ્રિયો ઉપર સંયમ, મૈત્રી, પ્રમોદ, કરુણા અને સ્થિર થાય છે. જેમ વૃત્તિ શુદ્ધ અને સ્થિર થાય તેમ છે મધ્યર્થ -એ શુભ ભાવનાઓ સેવવી અને આરૌદ્ર ધ્યાનનો અનિર્વચનીય આનંદ અનુભવાય છે. શાસ્ત્રકારોએ, જ્ઞાનીઓએ સમતાનું ઘણું ગૌરવ કર્યું છે. ત્યાગ કરવો. આ વ્રતને સામાયિક વ્રત કહી શકાય. સમતા અને ધ્યાન પરસ્પરપૂરક છે સમતા વિના, ચિત્તની जानन्ति कामान्निखिलीः ससंज्ञा, પરકલ્યાણની ચિંતા એટલે મૈત્રી. જ્ઞાનીઓ એને સ્થિરતા વિના, ધ્યાનું થતું નથી, ધ્યાનથી સમતા નિશ્ચલ થાય. अर्थ नराः केऽपि च केऽपि च धर्मम् । આધ્યાત્મિક પ્રવૃતિ કહે છે. મૈત્રીનું એક અંગ છે પ્રેમ અને બીજું जनं च केचिद् गुरुदेवशुद्धम् । છે ક્ષમા. સમતાભાવ હોય તો જ પ્રેમ અને ક્ષમા ટકે. કોઇનાં न साम्ये विना ध्यानम्, न ध्यानेन विना च यत् । केचित् शिवम् केऽपि च केऽपि साम्यम् ।। વિચારો, ક્ષતિઓ, દોષો, અપરાધો તરફ સમતાભાવ હોય તો જ જેમ જેમ ધ્યાનની ક્ષમતા વધતી જાય તેમ તેમ મનમાં સર્વસત્તાવાળા પ્રાણીઓ કામને જાણો છે. તેમાંથી કેટલાક ચિત્તની શાંતિ જળવાય. કહેવાયું છે, વિશેષ પ્રકારનું ચૈતન્ય જાગ્રત થાય છે. ચૈતન્ય એ સમત્વની અર્થને (ધનને જાણે છે. તેમાંથી કેટલાંક ધર્મને જાણે છે. ‘અપરાધીસું પણ ચિત્ત થકી, નવિ ચિંતવીએ પ્રતિ કુળ.” પ્રજ્ઞા છે. તેમાંથી થોડાક દેવગુરયુકત ધર્મને જાણે છે. તેમાંથી થોડાંક પર સુવું તુષ્ટિ સરિતા | પારકાના સદ્ગુણોને, સુખને જોઇને | સમતા એ જ્ઞાન છે. અથવા તો એમ કહી શકાય કે જ્ઞાનનો મોક્ષને અને તેમાંથી થોડાક સમતાને જાણે છે. આનંદ પામવો તે પ્રમોદ, સંતો, મુનિઓ, જ્ઞાનવાન, ગુણવાન, સોર સમતા છે. ધર્મની સાધનાનો પ્રથમ ઉદેશ સાચી દષ્ટિ અને (સમતા-'અધ્યાત્મ કલ્પતરુ') ચારિત્ર્યશીલ વ્યકિતઓને જોઇને આનંદ અનુભવવો જોઈએ. સાચું જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવું એ છે. જેમ જેમ રાગદ્વેષથી પર થઈએ | સમતાનું મૂલ્ય આટલું મોટું છે. જીવનવ્યવહારમાં દરેક ક્ષેત્રે ગુણનો પક્ષપાત કરવો જોઇએ. આમ કરવાથી આપણામાં જે તેમ તેમ આત્મા પરથી મોહ અને અજ્ઞાનનું આવરણ હતું જાય સમતાભાવ જેટલો વધારે તેટલી સુખશાંતિ વધારે. સમત્વની ગુણો અંશત: હોય તેનો વિકાસ થાય છે. વિરોધીઓના ગુણોની જેમના જીવનમાં સમતા આવે તેવી વ્યકિતઓને સામ્યયોગી t/ જેમના જીવનમાં સમતા આવે તેવી વ્યકિતઓને સામ્યયોગી સામૂહિક સાધના કરવામાં આવે તો સંધર્ષરહિત, શોષણરહિત પણ પ્રશંસા કરવાથી તેમને મિત્ર બનાવી શકાય. પ્રમોદભાવ અથવા તો જીરતા સમર્શન: કહેવામાં આવે છે. સહિષ્ણુસમાજ નિર્માણ થાય. સમતા જયારે દઢ બને, સહજ બને સમભાવને પુષ્ટ કરે છે. શરીર અને ચિત્ત બંનેને પ્રસન્ન, સ્વસ્થ વીતરાગપણાની સાધનાનો આધાર સમતા છે. ત્યારે શ્વાસે શ્વાસે વિશ્વકલ્યાણની ભાવનાનો સ્ત્રોત વહેવા રાખવામાં પ્રમોદભાવ સહાયભૂત બને છે. | સમતાના અનેક લાભ છે. સમતાથી ઉત્તમ ગુણોની રક્ષા માંડે, સમતા એ અમૂલ્ય સંપત્તિ છે. આનંદરૂપી અમૃત તેમાંથી કરુણાને :વિનાfશની કહેવામાં આવે છે. એટલે કે થાય છે. ચિત્તની શાંતિ પ્રગટે છે, ગમે તેવા વિપરીત સંજોગોમાં પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી જ જ્ઞાનીઓ કહે છે ‘સમતા એ પરમેશ્વર દુ:ખી જીવોના શારીરિક તેમજ માનસિક દુ:ખ દૂર કરવાનો ભાવ વિચલિત થયા વિના સાચા અને સારા ત્વરિત નિર્ણયો લઈ છે. ' Foo Private Senate only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atma Vallabh आत्मवल्लभ આત્મવલ્લભ वल्लभ स्मारक -नींव से शिखर तक वल्लभ स्मारक मंगलकारी, इसकी शरण में आयेंगे। समता, करुणा मैत्री से हम, जगती को स्वर्ग बनायेंगे। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ With best Compliments from: COSCO (INDIA) PVT. LTD. ENKAY (INDIA) RUBBER CO. PVT. LTD. 2/8, Roop Nagar, Delhi-110 007 World Class Sports and Rubber Goods Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-पुष्प -मुनि श्री नवीनचन्द्र विजय वल्लभ स्मारक मंगलकारी -प्रो. "राम" जैन यह निर्मित धरणी पर लाख लाख भावों का साकार रूप यह प्रज्वलित दीप शिखा है अखंड शाश्वत अनुप यह खड़ा नील गगन तर अविचल विमल महिमा-भरपूर यह शत-सहस्त्र कंठो का समह गीत सरस मधर यह उद्वेलित आस्था तंरगों का दृग सुखप्रद फेनिल स्वरूप यह पावन स्मृतियों का विमल मनभावन पुंज धनीभत बढ़कर यह सबसे स्मारक है विजय वल्लभ का श्रद्धा का पुष्प। वल्लभस्मारक मंगलकारी हम इसकी शरण में आयेंगे। ममता, करुणा, मैत्री से हम, जगती को स्वर्ग बनायेंगे।। सब धर्मो का है सार यही, सब जीवों का कल्याण करो। 'खद जीयो, जीने दो सबको", मानवता का उत्थान करो।। सब जग के प्राणी सखी रहें, हम यही भावना भायेंगे।। (2) सब गच्छ, पंथ, के भाव मिटा, जग-वत्सलता अपनाना है सहयोग, मैत्री, आजवता से आगे बढ़ते जाना है। सवि जीव कसै शासन रसिया निर्माण का साज सजायेंगे। है आज विश्व क्या मांग रहा, है आज राष्ट्र क्या मांग रहा। हमने मिलकर मोचा ही नहीं, सब व्यर्थ प्रदर्शन भाग रहा। - जो मध्यममार्गी भाई हैं, हम उनको गले लगाये।। विज्ञान पंग रह जायेगा, आध्यात्मिकता यदि साथ नहीं। हम इनका समन्वय यदि करलें तो इससे बड़ी सौगात नहीं। वल्लभ स्मारक के शिखरों से, शंख-ध्वनि यही गॅजायेंगे।। 15) म्याद्वाद अहिंसा, संथम ही, जीवननिर्माण के साधन हैं। अवसान युद्ध, हिसा का हो, ऐटम का शान्ति प्रयोजन हो। वल्लभगुरू का सन्देश यही, हम घर-घर जाके सुनायेंगे।। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातेश्वरी पद्मावती तेरे चरणों में शत शत नमन, माता जी पद्मावती। तेरे सिमरण से दुरित शमन, माता जी पद्मावती।। पार्श्व प्रभु जी की तुम, अधिष्ठायिका हो। मातृशक्ति की तुम, परिचायिका हो।। सब के मन में तेरा ही रटन, माता जी...।।१।। श्री संघ को तुम, सिद्धि दायिका हो। जन जन को तुम, मंगल कारिका हो।। तेरे दर्शन से भक्त प्रसन्न माता जी...।।२।। वल्लभ स्मारक की, मां! तम सहायिका हो। समकित धारी को तुम, आनन्द दायिका हो।। धाम तेरा हो सुख का सदन, माता जी...।।३।। माघव, शुक्ल एकादशी, तारिका हो। प्रतिष्ठा श्री संघ को, शभ कारिका हो।। "शील बाल को वल्लभ शरण। प्यारा लगता है, तेरा भवन ।। माता जी...।।४।। साध्वी मृगावती danEducation international Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STIONS वल्लभ स्मारक में विराजमान शासन प्रभाविका चमत्कारी माता श्री पद्मावती देवी सौजन्य - श्री नन्दलाल जैन, जैन ब्रदर्स चंडीगढ़ in Education International For Private &Personal use Only / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय-समय पर इस संसार में ऐसे महापरुषों का जन्म होता है, जो समाज और संसार को एक नई दिशा, नतन आलोक प्रदान करते हैं, जिससे समाज व संसार लाभान्वित होता है एवं उनके निर्देशित पथ की ओर गति प्रगति बन जाती है। जिन्होंने स्वहित के साथ परहित में समाज उत्थान में अपना महान योगदान दिया। उनकी गरिमा एवं महिमा अपार है। समाज कल्याण में ही उन्होंने अपना सारा जीवन खपा दिया। वे कहा करते थे - समाज उत्कर्ष के लिये एवं आत्मकल्याण के लिये ही हमारा साधु जीवन है। आत्म-साधना एवं समाजोत्थान के कार्य कितने भी हों, करना हमारा कर्तव्य है। यही कारण है कि आप साधनामय जीवन-यापन करते हए आजीवन समाज-उत्थान के कार्य में हर घड़ी हर पल उद्यत रहे। प० पंजाब देशोद्धारक श्री आत्मारामजी महाराज ने अपने जीवन की अन्तिम घड़ियों में शासन एवं पंजाब रक्षा का भार श्री विजय वल्लभ सूरीश्वर जी पर डालते हुए कहा - हे वल्लभ सरस्वती मन्दिरों की स्थापना तथा पंजाब की बीर भूमि में सत्य अहिंसा, एवं सदाचार का बीजारोपण कर इसकी सुरक्षा करना। क्योंकि इस प्रान्त में साधु-साध्वी के अभाव में धर्म भावना में शिथिलता आ चुकी है। इन शब्दों के साथ ही वे इस नश्वर दुनिया से चल बसे। वल्लभ के कर्ण में ये विचारों गूंजने लगे और वे दृढ़संकल्प के साथ अपने उत्तदायित्व को निभाने के लिए कार्यक्षेत्र में उतरे। देश एवं समाज का कोई व्यक्ति अशिक्षित एवं भूखा-नंगा न रहे।प्राणिमात्र अहिंसा और सत्य की राह का अनुगमन करे, जैन एवं जैनेतर समाज प्रेम और एकता के सूत्र में आबद्ध हों, इस हेत देश के कोने कोने में अपने प्रभावशाली प्रवचनों से एक नई जागृति का शंखनाद किया। उन्होंने सर्वप्रथम मध्यम वर्ग की ओर दृष्टिपात किया। क्योंकि मध्यम वर्ग समाज की रीढ़ है। उसके उत्थान के लिए आपने अनथक परिश्रम किया। इसके लिए प० श्री ने यह भीष्म प्रतिज्ञा की कि उनके उत्थान के लिए पांच लाख रुपये का फण्ड नहीं होगातोमैं दूध एवं दूध से बनी चीजें ग्रहण नहीं करूंगा की जादुई वाणी का अलौकिक प्रभाव पड़ा। बहनों ने आभूषणों एवं भाईयों ने रुपयों की वर्षा की। एक चौदह वर्षीय रमिला नामक बालिकाने प्रवचन-सभा में ही दो हजार रुपये एकत्रित किए। मध्यम वर्ग के लिए यह महान कार्य बम्बई में हुआ। www.jainelion गुरु वल्लभ की अमर स्मृति - आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि JanEducatrinternational Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्लभ और वल्लभ स्मारक पाकिस्तान के असहाय निराधार - स्थिति में आए जैन एवं शिक्षा की सेवा कर रहे हैं। अजैन भाइयों की सहायता के लिए आपने बीकानेर में बड़े अम्बाला कालेज, अम्बाला हायर सेकेंडरी स्कूल भावभरे शब्दों में कहा कि मैं भिक्षुक हूँ भगवान महावीर का, कन्याशाला जगड़ीआ गरूकल होशियारपुर हायर सेकेंडरी, एवं गुरुदेव का एवं शासन का बाहर से आए शरणार्थी जैन, हिन्दू व बड़ौदा आणंद (विद्यालय) भावनगर अहमदाबाद पूना अंधेरीसिख जो पाकिस्तान से दुःखी होकर आए हैं, वे सहयोग के पात्र हैं। बम्बई आदि में महावीर विद्यालय की शाखाएंआपकी ही अनुकंपा उन्हें अपना भाई-बहन समझें उनकी सेवा करें और उन्हें का फल है और है आपके शिक्षा-प्रेम के जीते-जागते उदाहरण। -मनि श्री अमरेन्द्र विजय आत्मनिर्भर बनावें। आपके प्रभाव से उनकी सेवा व व्यवस्था की गई। समाज में उन्हें उचित स्थान मिला। योग की ओर भी आपने समुचित ध्यान दिया। हे गर्जर-लाल छगन प्यारे, सात क्षेत्रों के सिंचन के लिए, उन्हें शक्तिमान बनाने के उन्हें विद्याध्ययन की प्रेरणा दी। इतना ही नहीं उन्होंने उदारता | - क्यों भूलेगा पंजाब तुझे। लिए गुरुदेव सदैव चितित रहते थे। प्रयत्नशील थे। साधु-साध्वी दिखाते हुए विदुषी साध्वियों को प्रवचन हेतु आज्ञा दी। श्रावक व श्राविका दो क्षेत्र महत्वपूर्ण हैं ये दो अन्य क्षेत्रों के आत्माराम ने दिया ज्ञान धन, सम्प्रदाय में रहते हुए भी आप संप्रदायातीत थे। आपके पूरक हैं। अन्य पांच क्षेत्रों के पोषक हैं। ये क्षेत्र बलवान होंगे तो पाकर अनुपम साज सजे।। विचारों से भी उदार थे। बम्बई की एक सभा में निकले थे उद्गार अन्य क्षेत्र स्वतः एवं सहज शक्तिशाली बन जाएंगें। इस बात के साक्षी हैं। मैं न जैन हं, न बौद्ध, न वैष्णव हं, न शैव,न आचार्य श्री ने गरीब-साधर्मिक बंधुओं की सहायता के लिए दिन कालए हिन्दू और न मुसलमान। मैं तो वीतराम देव के बताये हए पथ पर | मरुधर का अज्ञान – तिमिर हर, समाज का ध्यान आकर्षित किया। उन्हें प्रीतिभोज कराकर चलने वाला एक मानव हूं -एक यात्री हूं। ज्ञान-ज्योति को फैलाया। हजारों रुपये खर्च कर एवं लड्डू आदि खिला देना सच्चा साधर्मिक वात्सत्य नहीं है। उनके दःख दूर कर उन्हें पांव पर इन उदार वचनों को सुनकर बड़े नेता लोग भी प्रभावित हए वरकाना, फालना परों ने. खड़ा करना, आत्मनिर्भर बनाना ही सच्चा साधार्मिवात्सत्य है। गौरव अपना दिखलाया।। इनके उद्धार के लिए प० श्री ने ठोस कार्य किए। समय-समय पर समस्त जैन समाज की एकता के लिए वे निरंतर प्रयत्नशील तन, मन से पूर्णरूपेण सहयोग किया। थे। एक बार उन्होंने एकता के लिए अपनी मनोभावना इस रूप में ज्ञान-ज्योति तेरी पाकर के. शिक्षा के प्रति आप की अपूर्व रुचि थी। व्यावहारिक एवं प्रकट की थी यदि जैन समाज की एकता के लिए मुझे आचार्य माया-मोह विलीन हुए। आध्यात्मिक दोनों शिक्षाओं के लिए आपने जोर दिया। शिक्षा पदवी का भी त्याग करना पड़े तो मैं तैयार हूं। समाज के संगठन के विक पड़ता म तयार हू। समाज क संगठन के विजय वल्लभ की स्वयं प्रभा से. प्रचार की भावना आपमें कूट-कूट कर भरी थी। विद्वान व ज्ञानी लिए कितनी उत्कृष्ठ भावना एवं त्याग भावना थी। हिंसक सभी मलीन हुए।। ही ज्ञान की महत्ता समझ सकते हैं। आप सभी विषयों में पारंगत उनकी जादुई वाणी से श्री मोतीलाल नेहरू जैसे राष्ट्रीय नेता प्रकांड विद्वान थे। अतः शिक्षा के प्रचार-प्रसार में सहज ही ने आजीवन सिगरेट का परित्याग कर दिया। अनेक हिन्दुओं, आपकी रुचि थी। आपके अथक पुरुषार्थ से अनेक शिक्षा मुसलमानों ने मांसाहार का त्याग किया आप यगदष्टा यगवीर ह युगद्रष्टा! युग निमाता! संस्थाएं, निर्मित हुई। आचार्य थे। देश व समाज के लिए आपकी अनेकों महान् देन | भक्तों को तूने शरण दिया। देश के प्रायःसभी प्रांतों में आपने विद्यालय स्थापित किए। हैं। उनको सुख से भारत लाकर श्री महावीर विद्यालय शिक्षाक्षेत्र में आपकी अनुपम देन है। 84 वर्ष की दीर्घायु तक जीवन की अंतिम सांस तक आप उनका पावन उद्धार किया।। अनेक विरोधों के बवंडर में भी वह संस्था स्थापित हई.जो आज समाज व शासन के महान कार्य करते रहे। वह वल्लभ स्मारक अंकरित पणित एवं फलित है। जैन जगत् में आज वह मस्तक आपकी यशोगाथा का जीवंत प्रतीक है। यह अदभत तेरा स्मारक, ऊंचा किए खड़ी है। ज्ञानदान में अपना महान् योगदान दे रही है। यह श्री गरूदेव का एकमात्र महान स्मारक उनके महान गोडवाड़ की मरूभूमि के लिए आप सचमुच कलिकाल आदर्शों एवं संदेशों के लिए प्रचार-प्रसार में, सात क्षेत्रों की पुष्टि सबकी श्रद्धा का केन्द्र बने। कल्पतरू साबित हए। उस विकट भूमि में विचरण कर वरकाणा में अपना योगदान देकर उनकी भावनाओं को साकार करें उनके वह पावन तरागाथा का, एवं सादड़ी में आपने विद्यालय खोले, जो आज भी समुचित रूप से अपूर्ण कार्यों को पूर्ण करें इसी शभ मंगल कामना के साथ। अधिवक्ता शाश्वत बना रहे।। An Education, international Five S ale Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private Personal t Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीजांकुर से फल वृद्धि तक विजय वल्लभ स्मारक पंजाब में भ्रमण कर रही थीं। स्मारक निर्माण के कार्य के लिए 21.2.71 को कुमारी भारती ने बम्बई में भागवती दीक्षा इनके उन्होंने समाज के आगे वालों को एकत्रित कर उनका मार्गदर्शन पास ग्रहण की और उनका सुयशा श्री नामकरण हुआ। किया वयोवृद्ध सर्व श्री ज्ञानदास जी सी०सब जज, बाबू राम जी सन् 1972 में विजय वल्लभ सरि जी महाराज के पट्टालंकार लीडर, ला. राम जी तथा प्रो० पृथ्वी राज जी आदि से विचार शान्तमूर्ति जैनाचार्य विजय समुद्र सूरि जी महाराज का बड़ौदा में विमर्श कर दिल्ली में स्मारक के निर्माण की योजना बनाई। मात्र चातुर्मास था। वहां एक विशाल साध्वी सम्मेलन हुआ। साध्वी 2 लाख खर्च करने का निश्चय हुआ और महत्तरा जी ने रु० मृगावती जी भी उस सम्मेलन में सम्मलित हुए। चातुर्मास चालीस हजार एकत्र भी करवाए। थी आत्मानंद जैन महासभा से पश्चात् समुद्र सूरि जी ने साध्वी जी को दिल्ली की ओर विहार निर्माण का प्रस्ताव पास करवाया और उन्हें काम सौंप दिया। जब करने के लिए आदेश दिया और 19 वर्षों से रूके हये बल्लभ - राजकुमार जैन, सन् 1959 में अखिल भारतीय श्वेताम्बर जैन कान्फ्रेंस का स्मारक के निर्माण का उत्तरदायित्व पुनः उनके कन्धों पर डाल लुधियाना में आचार्य विजय समुद्र सूरि जी महाराज की पावन दिया। निश्रा एवं श्री बहादुर सिंह जी सिंधी कलकत्ता निवासी की भारत की राजधानी दिल्ली के भीतर पंजाब की ओर जाने ज्ञान के पंज और अदम्य साहस के धनी, साध्वी मृगावती जी वाले राष्ट्रीय मार्ग नं, । के 20 कि.मी. पर 20 एकड़ भूखण्ड के अध्यक्षता में अधिवेशन हुआ, तो उन्होंने भी स्मारक निर्माण की महाराज साध्वी सुज्येष्ठा श्री जी, सुव्रता श्री जी तथा सुयशा श्री पुष्टि का प्रस्ताव पारित कर अपनी मोहर लगा दी। साध्वी जी को साथ लेकर, उग्र बिहार कर दिल्ली पहुंचे। समाज को मध्य जिस भव्य और कलात्मक भवन का निर्माण हुआ है, उसे "विजय वल्लभ स्मारक" कहते हैं। कलिकाल कल्पतरु अज्ञान मगावती जी के सदपदेशों का जन मानस पर गहरा प्रभाव होता कंभकरणी निद्रा से जागृत करने के लिए उन्होंने कठिन अभिग्रह था। फलस्वरूप धर्म परायण सुश्रावक स्व. ला दीनानाथ जी की धारण किये। फलस्वरूप स्मारक योजना को आगे बढ़ाने के लिए तिमिर तरणि युगवीर पंजाब केसरी जैनाचार्य श्रीमद् विजय सुपत्री कान्ता बहन के मन में वैराग्य पैदा हो गया और समय श्री आत्म वल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि की स्थापना भगवान वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज के संघ और समाज पर अनन्त पाकर उन्होंने भागवती दीक्षा अंगीकार कर ली। उनका नाम महावीर के 2500वें निर्वाण वर्ष में दिनांक 12 जून 1974 को की उपकार हैं। उनकी यशोगाथा को अमर रखने के लिये ही इस सुव्रता श्री रखा गया। साध्वी मंडल ने लुधियाना से प्रस्थान कर गई। दिल्ली संघ के प्रधान ला. राम लाल जी ने इस ट्रस्ट की भव्य स्मारक का निर्माण हुआ है। आचार्य श्री जी तप, त्याग, दिया। मृगावती जी के सुदूर चले जाने पर श्री आत्मानंद जैन सभा स्थापना की। उनके अतिरिक्त सर्व श्री सुन्दर लाल जी (मोती साधना, आराधना के प्रति मूर्ति थे। उनका चरित्र अति निर्मल तनिक हतोत्साह सी हो गई। बयोवृद्ध नेता धीरे-धीरे क्रूर काल लाल बनारसी दास) तथा खैरायती लाल जी (एनके रबड और उत्कृष्ठ था। संगठन, शिक्षा और सेवा उनके जीवन का मंत्र की चपेट में आते गए। स्मारक कार्य आगे न बढ़ सका। था। नारी उत्थान और जन कल्याण के वे मसीहा बने। सादा, कम्पनी) इसके आजीवन ट्रस्टी नियुक्त हुए। ला. रत्नचंद जी निरहंकार और निर्लिप्त जीवन का आदर्श उन्होंने समाज के भारत के विभाजन के फलस्वरूप पंजाब की आर्थिक दशा (रत्नचंद रिखबदास जैन) तथा राज कुमार जैन निधि के क्रमशः समक्ष रखा। सरस्वती पुत्र के मुखारविन्द से ज्ञान की कविता और कमजोर थी अतः इच्छा होते हुए भी गुरु भक्त इस कार्य को आगे अध्यक्ष तथा मंत्री एवं सर्वश्री बलदेव कुमार तथा राजकुमार राय संगीतमयी अजस्र धारा बहती थी। लोकेषणा से वे कोसों दर थे। न बढ़ा पाये। साध्वी श्री शीलवती जी तथा मृगावती जी एवं साहब उपाध्यक्ष चुने गए और श्री धनराज जी कोषाध्यक्ष नियुक्त धार्मिक एवं व्यावहारिक शिक्षा के माध्यम से समाज का उन्होंने उनकी सुशिष्या सुज्येष्ठा श्री जी एवं नूतन साध्वी श्री सुव्रता श्री हुए तथा श्री विनोद लाल दलाल, निर्माण उपसमिति के अध्यक्ष उत्थान किया। ऐसी प्रतिभाशाली विभूति का जब 22 सितम्बर जी महाराज आगमों के अभ्यास के लिए पंजाब छोड़कर गजरात बनाये गए।.सवा छः एकड़ का भूखण्ड 15 जून 1974 को खरीदा सन् 1954 को बम्बई में देवलोक हुआ तो प० साध्वी महत्तरा थी की ओर चली गई। उन्होंने अहमदाबाद में आगम प्रभाकर मनि गया। इस प्रकार साध्वी जी महाराज का प्रथम संकल्प सम्पन्न मृगावती जी की प्रेरणा से जैन समाज ने उनके आदर्श जीवन । श्री पुण्य विजय जी के मार्ग दर्शन में पं० सुखलाल जी और पं० हुआ। मूल्यों को उजागर करने के लिए ही इस स्मारक के निर्माण का जो बेचरदास जी के पास आगमों की गहन पढ़ाई की। अध्ययन के जब आचार्य विजय समुद्र सरि जी महाराज भगवान महावीर निर्णय किया था वह आज साकार रूप ले चुका है। इसका प्रतिष्ठा पश्चात बम्बई पहुँची। कुछ ही समय बाद दिनांक 17.2.68 को के 2500 वे निर्वाण वर्ष के राष्ट्रीय महोत्सव को सान्निध्य प्रदान महोत्सव वसंत पंचमी दिनांक 10.2.1989 को मनाया जा रहा श्री शीलवती जी महाराज का बम्बई में देवलोक गमन हो गया। करने के लिए 30 जून 1974 को दिल्ली में, आचार्य विजयेन्द्र दिन्न है। इस हेतु ग्यारह दिवसीय महामहोत्सव 1.2.89 से मां और बेटी का नाता टूट गया और अब मृगावती जी के नेतृत्व में सूरि, आचार्य प्रकाशचंद्र मूरि, गणि जनक विजय आदि मनि 11.2.1989 तक रचा गया है। साध्वी मंडल दक्षिण भारत की ओर चला गया। बंगलौर, मैसूर मंडल एवम् साध्वी मंडल के साथ पधारे, तो उनका नगर प्रवेश जैनाचार्य विजय वल्लभ मरीश्वर जी महाराज के देवलोक आदि में चातुर्मास किये। बंगलौर में उनकी निश्रा में बड़े उत्साह भगवान महावीर 25 वीं निर्वाण शताब्दी समिति के तत्वावधान गमन के समय साध्वी मृगावती श्री जी अपनी गुरुवानी माता के साथ बल्लभ सूरि जी महाराज की जन्म शताब्दी मनाई गई। में भव्य रूप से कराया गया। विराट जन सभा हुई जिसमें उन्होंने शीलवती जी महाराज, शिष्या सज्येष्ठा श्री जी के साथ उस समय दक्षिण भारत का परिभ्रमण कर वे पुनः बम्बई पधारी। दि० पूज्य साध्वी मृगावती जी महाराज के कर्तृत्व पर अति प्रसन्नता For Prvate & Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 व्यक्त की एवं स्मारक कार्य को और आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपना आशीर्वाद साध्वी जी तथा श्री संघ को प्रदान किया। स्मारक निधि की स्थापना और भूमि क्रय के पश्चात निधि की कार्यकारिणी ने अपनी सब उपलब्धियां महासभा को अर्पण कर दीं और अपने उत्तरदायित्व को सम्पूर्ण कर सन्तोष प्राप्त किया। परन्तु महासभा के कार्यकर्ताओं ने लगभग एक वर्ष बाद विजय वल्लभ स्मारक की समस्त योजना और कार्यान्वयन की पूर्ण जिम्मेदारी पू. मृगावती जी की उपस्थिति में स्मारक निधि को ही वापिस सौंप दी। निधि ने दिल्ली रूप नगर में एक कार्यालय की स्थापन कर, कार्य को आगे बढ़ाने की योजना बनाई। सन् 1974 के दिसम्बर मास में आचार्य विजय समुद्र सूरि जी महाराज साहिब का 84वां जन्मदिन युवा चेतना दिवस में बड़ी धूमधाम के साथ दिल्ली में मनाया गया। सैकड़ों युवकों ने समाज सेवा और धर्म पारायण जीवन बिताने के प्रण लिये भारत सरकार के मंत्री श्री इन्द्र कुमार गुजराल मुख्य अतिथि के रूप में इस महोत्सव में पधारे। सकल श्री संघ ने बड़े भावपूर्ण ढंग से आचार्य महाराज को जिनशासनरत्न की उपाधि से अलंकृत किया। गुरुदेव जनवरी 1975 में हरियाणा पंजाब की ओर विहार करते हुए स्मारक भूमि पर पधारे और अपने वरदहस्त से उन्होंने परिक्रमा करते हुए इसकी नींव में वासक्षेप डाला एवं संतोष करते हुए आशीर्वाद प्रदान किया। सन् 1975 और सन् 1976 के चातुर्मास आचार्य महाराज के लुधियाना और होशियारपुर में हुए और इसके उपरान्त एक नव-निर्मित जिन मंदिर की प्रतिष्ठा करवाने के लिए वे मुरादाबाद की ओर विहार कर गये। मुरादाबाद का प्रतिष्ठा महोत्सव बड़े उल्लास के साथ सम्पन्न हुआ, परन्तु एक ही सप्ताह पश्चात् गुरुदेव अकस्मात देवलोक सिधार गये। सारा भारत इस क्षति पर विह्वल हो उठा। संघ और समाज के नेतृत्व का समस्त भार अब आचार्य विजयेन्द्र दिन्न सूरीश्वर जी के कन्धों पर आ पड़ा। वे मुनिमंडल को साथ लेकर गांव गांव में धर्म दर्शन देते हुए गुजरात की ओर चले गए। इधर पूज्य महत्तरा मृगावती जी महाराज के नेतृत्व और परामर्श से स्मारक निधि की कार्यकारिणी ने स्मारक के लिए एक बहुलक्षीय सुनियोजित रूप रेखा बनाई। जिसके अन्तर्गत निम्न कार्यक्रम चलाने का निर्णय किया गया: 1. भारतीय धर्म दर्शन पर शोध कार्य तथा अध्ययन एवं अध्यापन। • 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. संस्कृत और प्राकृत विद्यापीठ । पुस्तकालय तथा ग्रन्थागार । जैन एवं समकालीन कला का संग्रहालय | योग और ध्यान पर शोध कार्य । जन उपयोगी साहित्य रचना । पुरातन साहित्य का पुनः प्रकाशन । स्त्रियों के लिए कला और प्रशिक्षणशाला इत्यादि । उसी के अनुरूप भी आज सभी कार्यक्रम चल रहे हैं। सेठ कस्तूरभाई लालभाई इस निधि के सम्बल बने और उन्होंने कहा कि विजय वल्लभ सूरि जी महाराज की महान प्रतिभा के अनुरूप ही स्मारक निर्माण अति भव्य और विशाल होना चाहिए एवं इसका निर्माण पत्थर द्वारा करना चाहिए ताकि युग युगान्तर तक उनका यह कीर्ति चिन्ह अक्षुण्ण रह सके। सेठ आनन्दजी कल्याणजी पेढ़ी के मुख्य शिल्पी श्री अमृतलाल मूल शंकर त्रिवेदी द्वारा स्मारक भवन के प्लान बनवा कर उन्होंने निधि को दिये। निर्माण के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण से अनुमति की आवश्यकता थी, जिसे प्राप्त करने में बहुत समय लगा। बिना आज्ञा निर्माण कैसे हो, यह एक बहुत बड़ी जटिल समस्या थी। कर्मशील साध्वी मृगावती जी महाराज निष्कर्मण्य न रह सके। विलम्ब का आभास कर उन्होंने उत्तर प्रदेश और हरियाणा तथा पंजाब का परिभ्रमण करने का निश्चय किया और 3 वर्ष इसी प्रवास में बिताये। दुर्भाग्य से हमारे आद्य संरक्षक सेठ कस्तूर भाई जी का भी इसी अवधि में देहावसान हो गया। अतः निधि का मार्गदर्शक उठ गया। आवेदन देने पर भी प्राधिकरण सहमत नहीं हो रहा था। श्रीमती विद्यावहन शाह एवं श्री कान्ति लाल घिया ने काफी यत्न किये। श्रीमती निर्मला बहन मदान तथा चौ. प्रेम सिंह पार्षद योगेन्द्र जैन कौंसलर एवं अन्त में कई अन्य प्रभावशाली व्यक्ति भी जोर लगाते रहे। श्री कवर लाल जी गुप्ता सांसद के आग्रह पर तत्कालीन उप राज्यपाल कोहली जी अक्तूबर 1977 में स्मारक स्थल पधारे। वे योजना एवं प्रस्तावित भवन का मंडल देख कर प्रसन्न हुए और एकत्रित जैन समाज के समक्ष उन्होंने तत्काल 15000 वर्गफुट निर्माण की अनुमति प्रदान कर दी परन्तु लिखित आदेश तो 21.1.1978 को ही जारी हो सका। स्वीकति पाकर समाज गद्गद् हो गया। महत्तरा जी की प्रसन्नता का तो ठिकाना न था। परन्तु इसी बीच में निधि के एक मान्य आजीवन ट्रस्टी एवं विचारक ला. सुन्दर लाल जी का देहावसान हो जाने से कार्य के दिशा दर्शन में तनिक बाधा आई। सन् 1978 का चातुर्मास महत्तरा जी ने हिमाचल स्थित प्राचीन कांगड़ा तीर्थ के उद्धार के निमित्त वहां पहाड़ी क्षेत्र में किया और अपने तप और त्याग के बल पर भगवान आदिनाथ की प्राचीन प्रतिमा की सेवा पूजा के स्थायी अधिकार पुनः जैन समाज को पुरातत्व विभाग से वापिस दिलवाये। इतिहास के पन्नों में उनका यह कार्य स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा। वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य विजयेन्द्र दिन्न सूरि जी महाराज ने साध्वी. मृगावती जी महाराज की महान उपलब्धि पर प्रसन्न होकर उन्हें महत्तरा एवं कांगड़ातीथोंद्वरिका की उपाधियों से विभूषित किया। साथ ही वल्लभ स्मारक के कार्य को और अधिक आगे बढ़ाने के लिए महत्तरा जी को आशीर्वाद दिया। साध्वी जी महाराज पुनः जून 1979 में दिल्ली पधारे और उन्होंने स्मारक के कार्य में विशेष गति लाने के लिये संघ और समाज को प्रेरणा दी। अन्ततः 27 जुलाई 1979 को इस निधि के अध्यक्ष श्री रतनचन्द जी ने महत्तरा जी की निश्रा में भूमि पूजन तथा खनन किया। साध्वी मृगावती श्री जी म. के प्रभावशाली उपदेश से 16 लाख के बचन तुरन्त उसी सभा में प्राप्त हुये । तदुपरान्त 29 नवम्बर 1979 के शुभ दिन हजारों लोगों की उपस्थिति में मुख्य स्मारक भवन का शिलान्यास वयोवृद्ध सुश्रावक श्री खैरायतीलाल जी के कर कमलों द्वारा किया गया। इस हेतु त्रिदिवसीय विशाल महोत्सव रचा गया था। मंच को गुरु देव विजय वल्लभ सूरि जी महाराज के एक विशाल तैल चित्र से सजाया गया। शिलान्यास से कुछ ही क्षण पूर्व साध्वी जी महाराज का एक मार्मिक प्रवचन हुआ और फलस्वरूप लोगों ने 25 लाख रुपये के दान वचन लिखवा दिये तथा बहनों ने अपने आभूषण उतार कर भेंट कर दिये। बम्बई से एक स्पेशल ट्रेन द्वारा इस महोत्सव में भाग लेने के लिए 600 यात्री आये थे । शिलान्यास महोत्सव के मध्य अखिल भारतीय जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस का 24वां महा-अधिवेशन श्रध्येय दीप चंद गार्डी जी की अध्यक्षता में सफल सम्पन्न हुआ। सभी यात्रियों ने सहयोग देने का वचन दिया। कार्यकर्ताओं के साहस और मनोबल की विशेष पुष्टि मिली। स्मारक के सभी कार्यक्रम सोल्लास सम्पन्न हुए। मद्रास के कर्मठ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्यकर्ता श्री सायर चंद नाहर, बंबई के सुश्रावक मान्यवर पुस्तकालय था। विभाजन के समय उसको गुजरांवाला मंदिर के लिए उत्तर प्रदेश और पंजाब में कुछ चातुर्मास करने का पुनः जयन्ती लाल रत्नलाल शाह टैक्स विशेषज्ञ तथा श्री किदार नाथ तलधर में सुरक्षित रख दिया गया। और कुछ वर्षों के पश्चात सेठ निश्चय कर उधर विहार कर दिया। उनका मनोबल बहुत ऊंचा जी साहनी मुख्य कार्यकारी पार्षद दिल्ली ने विभिन्न अधिवेशनों में कस्तूरभाई तथा माननीय धर्मवीर राज्यपाल के उद्यम और था परन्तु शरीर जब पूरा साथ नहीं दे रहा था। अध्यक्ष अथवा मुख्य अतिथि के रूप में पधार कर मंच को सहयोग से यह ग्रन्थ भंडार भारत लाया गया। श्री आत्मानन्द जैन लधियाना के प्रवास में महत्तरा जी के साध्वी मंडल परिवार सुशोभित किया। महासभा ने यह ग्रन्थ भंडार भी 28.1.1980 के दिन भारत के में एक अभिवद्धि हई। एक विशाल आयोजन के मध्य एक ममक्ष उत्तर भारत के जैन समाज के पास गरू भक्ति तो बहत थी तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिह जी के कर कमलों द्वारा निधि बहन ने भगवती दीक्षा अंगीकार की। नतन साध्वी का नाम रखा परन्तु आर्थिक शक्ति समुचित न थी। इस विषमता को ध्यान में को विधिवत सौंप दिया। गया सप्रज्ञा श्री जी महाराज। रख कर महत्तराजी ने समाज से आर्थिक सहयोग लेने के लिए दिनांक 21.4.1980 को बम्बई निवासी सेठ प्रताप भोगीलाल लुधियाना में उन्होंने "उपाध्याय सोहन विजय उद्योग केन्द्र एक आसान योजना बनाई और प्रेरणा दी कि सभी गुरु भक्त जी ने महत्तरा श्री मृगावती जी की प्रेरणा एवं निश्रा में भगवान यथाशक्ति प्रति मास अपना आर्थिक योगदान सात साल के लिए वासुपूज्य मंदिर का शिलान्यास किया। दिनांक 1.4.1981 को तथा उपाध्याय सोहन विजय मुद्रणालय की स्थापना करवाई। महत्तरा जी ने विशाल मोहन देवी ओसवाल कैंसर हास्पिटल एवं देते रहने का संकल्प करें। किसी ने तो अपना निजी योगदान देने होस्टल ब्लाक का निर्माण प्रारम्भ हुआ। श्री संघ के आगे बानों का प्रण किया तो किसी ने धनराशि एकत्रित कर स्मारक निधि को एवं ट्रस्टियों ने रोड़ी और पत्थर अपने सिर पर उठाकर श्रमदान शोध संस्थान जिसकी लागत उस समय 7 करोड़ अनुमानित थी, भेंट करने का वचन दिया। इस तरह कार्य सुगम हो गया। और द्वारा श्री गणेश किया। मुख्य स्मारक भवन के निर्माण के लिए का शिलान्यास किया। श्री आत्मनंद जैन कालिज अम्बाला को विपुल आर्थिक सहयोग दिलवाकर उसे संकट मुक्त किया एवं आर्थिक सहयोग योजनाबद्ध मिलना शुरू हो गया। भूमि परीक्षण, जल परीक्षण एवं विभिन्न खानों के पत्थरों का चण्डीगढ़ में जिन मन्दिर एवं उपाश्रय निर्माण कार्य की नींव विजय वल्लभ स्मारक प्रांगण में एक जिन मंदिर अवश्य निरीक्षण एवं मूल्यांकन करवाया गया। भरतपुर क्षेत्र के बांसी डाली। सन् 1983 में स्मारक के कार्यकर्ताओं की विनती स्वीकार बनना चाहिये, यह विचार महत्तरा जी के मन में सदढ़ होने लगा। पहाड़पुर खानों के पत्थर पास हुए। वास्तुकला के मर्मज्ञों और कर वे साध्वी मंडल के साथ पुनः दिल्ली पधारे। अतः जब 15000 वर्ग फट निर्माण करने की डी.डी.ए. से अनुमति आधुनिक आचिंटैक्टस एवं ट्रस्टियों के एक शिष्टमंडल ने क मिली तब निर्माण काम के तीन विभाजन किये गये। अर्थात मुख्य राजस्थान और गुजरात के विशिष्ट मंदिरों-राणकपुर, जैसलमेर, शिल्पियों तथा महत्तरा जी के परामर्श से निधि ने निर्णय स्मारक भवन तथा भगवान का मंदिर एवं एक अतिथि कक्ष। देलवाड़ा तथा तारंगा का निरीक्षण कर निर्माण की भावी योजना किया कि मंदिर चतर्मख बनेगा। और उसमें मलनायक भगवान समचे बान्ध काम के नीचे एक विशाल तलधर बनाने की भी बनाई। मुख्य स्मारक भवन तथा भगवान के मंदिर के निर्माण का वासुपूज्य जी के अतिरिक्त भगवान ऋषभदेव, भगवान मनि योजना बनाई गई। महत्तरा जी महाराज ने स्मारक स्थल की इस काम प्राचीन जैन वास्तुकला के अनुरूप ही पत्थर द्वारा करने का सुव्रत स्वामी एवं भगवान पार्श्वनाथ विराजमान होंगे। यह भी पण्य भमि का नाम "श्री आत्म बल्लभ संस्कति मदिर" रख निर्णय किया गया और होस्टल ब्लाक के निर्माण का काम निर्णय हुआ कि भगवान महावीर के प्रथम गणधार अनन्तलब्धि दिया। कार्य की शीघ्र सिद्धि के लिये उन्होंने स्मारक स्थल पर ही आधुनिक ढंग से एक सुप्रसिद्ध शिल्पी श्री अमृतलाल मूल शंकर निधान गौतम स्वामी जी, आचार्य विजयानन्द रि जी, आचार्य स्थिरता कर अहर्निश अपनी साधना और आराधना शुरू कर त्रिवेदी और श्री चन्दुलाल त्रिवेदी को स्मारक भवन तथा मंदिर का विजय वल्लभ सूरि जी तथा आचार्य विजय समद सरि जी दी। मच्छरों का भारी उपद्रव तथा भख और प्यास एवं सर्दी-गर्मी निर्माण काम सौंपा गया और होस्टल ब्लाक के निर्माण का महाराज की प्रतिमायें मंदिर के रंग मंडप में विराजमान की जायें। की तनिक भी चिन्ता न कर उन्होंने स्मारक की निर्जन भूमि पर ही उत्तरदायित्व श्री सुरेश गोयल आचिंटैक्टस को दिया गया। तथा गुरुदेव विजय वल्लभ सूरि जी महाराज की भव्य 45 इंच कई मास बिताये। जिन मन्दिर निर्माण तथा संचालन के लिये एक पत्थर की उपलब्धि में विशेष कठिनाईयां आती रहीं, इसी कारण प्रमाण प्रतिमा (बैठी मुद्रा में) को मुख्य गुम्बद के नीचे एक सुन्दर पृथक ट्रस्ट "श्री वासुपूज्य जैन श्वेताम्बर मन्दिर ट्रस्ट" के नाम मुख्य स्मारक भवन का निर्माण कार्य मंद गति से चलता रहा। पट्ट स्थापित किया जाए। इसके निर्माण का काम सर्वश्री डी.एल, से स्थापित किया गया। सर्वश्री शांति लाल जी (एम.एल.बी.डी.) महत्तरा श्री मृगावती जी महाराज सन् 1978 से ही कछ माहा एवं कान्तिभाई पटेल मूर्तिकार अहमदाबाद को सौंप दिया बीर चंद जी (एनके) तथा ला, धर्म चंद जी इसके आजीवन ट्रस्टी अस्वस्थ रहने लगे थे। कारण कि शरीर में एक विचित्र सा रोग गया तथा भगवान की प्रतिमा बनाने का काम श्री बी.एल. नियुक्त हुए और सर्वश्री राम लाल जी तथा विनोद लाल दलाल उत्पन्न हो रहा था। मई 1980 में बम्बई और दिल्ली के सोमपुरा मूर्तिकार अहमदाबाद के कन्धों पर डाला गया। अन्य क्रमशः प्रधान और मन्त्री बनाये गए। श्री सुदर्शन लाल जी शल्य-चिकित्सकों ने मिलकर उनका आपरेशन कर उन्हें रोग से गुरु महाराजों की मूर्तियां जयपुर से ही बनवाने का निर्णय हुआ। (आर.सी.आर.डी.) ने कोषाध्यक्ष का भार संभाला। एक प्रकार मुक्त करा दिया। 4 महीने के शल्योपरान्त उपचार के स्मारक निर्माण कार्य सुचारू रूप से चलाने के लिये हमें श्री विजय वल्लभ सूरि जी महाराज द्वारा स्थापित श्री बाद वह पुनः पूर्ण-रूपेण वल्लभ स्मारक के काम में समर्पित हो घनश्याम जैसे कुशल सोमपुरा शिल्पी की सेवाएं भी स्थायी रूप आत्मानन्द जैन गुरुकुल गुजराँवाला (पाकिस्तान) में एक सुन्दर गये। स्मारक निर्माण के कार्य में सरकार की अनुमति प्राप्त करने में उपलब्ध हो गई। और विशाल हस्तलिखित एवं मुद्रित ग्रन्थों पर आधारित में विलम्ब के कारण उन्होंने अपने समय का सदुपयोग करने के विजय वल्लभ स्मारक एक राष्ट्रीय स्तर की संस्था बने, इस Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार से महत्तरा जी ने देश के सभी प्रमुख नगरों से ट्रस्टियों का मंदिर का भूमि पूजन हुआ और अगले दिन दिनांक 19 जनवरी का निरीक्षण कर उन्होंने कार्य की प्रशंसा की एवं श्रीसंघ को चयन किया। सर्वश्री जे.आर. शाह बम्बई, दीप चंद जी गाड़ी 1984 को श्री छोटे लाल जैन शाहदरा निवासी के कर कमलों से कार्य हेतु विशेष प्रेरणा दी और स्वयं भी बल्लभ स्मारक मिशन बम्बई, माणेकचंद जी बोताला मद्रास तथा श्रेणिक कस्तूरभाई जी माता जी के मंदिर की आधारशिला रखी गई। इसका निर्माण को आगे बढ़ाने का संकल्प किया। मकर सक्रांति के पश्चात वे साग्रह स्मारक के संरक्षक बनाये गये। शनैः शनैः इंगलैंण्ड काम तीव्र गति से दिन-रात चलने लगा। माता जी की एक सन्दर विहार कर गजरात की ओर चले गए। अमरीका तथा जापान से भी एक-एक ट्रस्टी की नियुक्ति की गई। प्रतिमा बनाने के लिए जयपुर के सुप्रसिद्ध मूर्तिकार गणेश देश और विदेश से आने वाले गवेषकों तथा दर्शनार्थियों के कर्मठ कार्यकर्ता श्री कान्ति लाल कोरा को विधि के कार्य हेतु दूसरा नारायण जी को आर्डर दे दिया गया। श्री शान्ति लाल जी खिलौने निवास और भोजनादि की समचित व्यवस्था करने हेतु भी चिन्तन मंत्री नियुक्त किया गया। वाले भी इस मैदान में कूद पड़े और निर्माण कार्य में तन मन से जुट होने लगा। इस कार्य के लिए होस्टल ब्लाक का प्रयोग ही उचित विजय वल्लभ स्मारक का निर्माण कार्य सुचारू रूप से चलाने गए। माना गया और उसके भीतर एक भोजनशाला चलाने का भी के लिये धन की आवश्यकता बढ़ने लगी। महत्तरा जी की प्रेरणा स्मारक निधि के तत्वावधान में प्रातन ग्रन्थ भंडार और निर्णय लिया गया। "श्री वल्लभ स्मारक भोजनालय ट्रस्ट" की से दिल्ली, पंजाब, बंबई, अहमदाबाद, मद्रास, बंगलौर आदि पुस्तकालय के सुचारू संरक्षण, पंजीकरण, तथा वर्गीकरण का स्थापना की गई और श्री कृष्णकमार जी (के.के. रब्बर कं०) स्थानों पर शिष्टमंडल ने जा कर आर्थिक योगदान विपुल मात्रा काम कुछ वर्षों से चल रहा था। महत्तरा जी महाराज के प्रयत्न इमक अध्यक्ष बने तथा नरेन्द्र कमार जी (डी.आर. कमार बादर्स में प्राप्तकिये।श्री जे.आर.शाह तथा श्री प्रताप भोगी लाल आदि और प्रेरणा से कई एक अन्य स्थानों से भी पस्तकें और ग्रन्थ प्राप्त को मन्त्री नियुक्त किया गया एवं राकेश कुमार कोषाध्यक्ष बने। श्रीमन्त वयोवृद्ध आगेवानों ने बम्बई में अथक प्रयास कर हमारी होने लगे। पुस्तकालय और शोध कार्य की भावी रूप-रेखा तैयार महत्तरा साध्वी श्री मृगावती जी महाराज का चिन्तन सदैव झोली भर दी। मद्रास में सुश्रावक श्री माणेक चंद जी बेताला तथा की गई। रूप नगर में स्थानाभाव के कारण यह निर्णय हुआ कि चलता रहा। उसी के फलस्वरूप कार्य में सदैव समचित गति बनी श्री सायर चंद जी नाहर ने दिन रात एक कर लाखों रुपये की धन निधि के कार्यालय तथा इस ग्रन्थ भंडार को स्मारक होस्टल रही। विशाल कार्य को ध्यान में रखकर धीरे-धीरे और जमीन राशि के बचन प्राप्त किये। अहमदाबाद में श्री आत्माराम जी ब्लाक निर्मित हो जाने पर उस के तलधर में स्थानांतरित कर खरीद ली गयी। अतः अब निधि के पास कुल 20 एकड़ भूमि है। सूतरिया ने विशेष सहायता की और बंगलौर में सर्वश्री जीवराज दिया जाये। भविष्य में शोध कार्य को चलाने के लिए श्री उसका मास्टर प्लान उनके आदेशानुसार शुभ मुहूर्त में दिनांक चौहान तथा कुन्दन मल जी संघवी ने गुरू के दीवानों की तरह भोगीलाल लेहरचन्द इंस्टीट्यूट ऑफ इंडोलोजी नाम की संस्था 10 मई 1984 के दिन थीं दीपचन्द एस. गाडी (बम्बई) ने होस्टल काम किया। सौभाग्य से बम्बई के श्री शैलेश भाई कोठारी के मन स्थापित करने का भी निर्णय लिया गया और श्री प्रताप भोगीलाल रानाक का विधिवत उद्घाटन किया और इसके तलधर (बेसमेंट) में गुरु वल्लभ के प्रति अनन्य श्रद्धा उत्पन्न हो गई। उन्होंने जी ने इस कार्य के लिए स्मारक निधि अथवा शोध संस्थान को 21 में भोगीलाल लेहरचन्द इस्टीट्यूट ऑफ इंडोलोजी का श्रीगणेश स्मारक के काम के लिये स्वयं को समर्पित कर दिया। अम्बाला के लाख रुपये देने का वचन देकर, एक भीषण मार्ग सुगम कर दिया। सेठ प्रताप भोगीलाल जी के कर कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ। श्री राज कुमार राय साहिब तथा लधियाना के ला० श्री पाल जी स्मारक निधि एवं भोगी लाल लेहरचंद फाउण्डेशन के सामूहिक भोजनशाला का उद्घाटन सर्वश्री शशिकान्त, रविकान्त तथा जैन ने विशेष रुचि लेकर दान संचय का कार्य किया। दिल्ली के सहयोग से "भोगी लाल लेहरचंद इन्स्टिट्यूट ऑफ इन्डोलोजी' नरेश कमार जैन परिवार ने सम्पन्न किया। इस दिन का सकल सर्व श्री रत्न चंद जी, राम लाल जी धनराज जी, विशम्बर की स्थापना की गई। भोगीलाल लेहरचंद संस्थान का एक विस्तृत समारोह सविख्यात वैज्ञानिक एवं कलपति जवाहरलाल नेहरू नाथ जी, विनोद लाल ‘दलाल, निर्मल कुमार जी और बीर चंद विधान बनाकर सोसायटी ऐक्ट के अन्तर्गत उसका पंजीकरण विश्वविद्यालय सथावक डा० दौलत सिंह जी कोठारी की जी सतत् यत्नशील रहे और उनसे मार्गदर्शन मिलता रहा। कराया गया। श्री विनोदलाल एन. दलाल इस संस्थान के प्रधान अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। श्री संघ की आज्ञा से साध्वी मंडल नये क्रमशः जब मनोहर लाल जी कोषाध्यक्ष बने तो उन्होंने भी नियुक्त किये गये और श्री प्रताप भोगीलाल जी को कार्यमंडल का स्मारक भवन में प्रवेश कर वहीं स्थिरता की। दिनांक।। मई अपनी भूमिका अच्छी प्रकार निभाई। अध्यक्ष बनाया गया। सर्व श्रीनिर्मल कुमार जैन तथा नरेन्द्र । सव श्रानिमल कुमार जैन तथा नरन्द्र 1984 के शुभ दिन माता पद्मावती जी के मंदिर का प्रतिष्ठा महत्तरा जी महाराज ने एक और महत्वपूर्ण निश्चय किया प्रकाश जैन उपाध्यक्ष नियुक्त हुए। कुछ समय बाद श्री महोत्सव महत्तरा श्री मगावती जी महाराज की निश्रा में सम्पन्न कि 23वें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ जी की अधिष्टायिका देवी महेन्द्रभाई शेठ को संस्थान का मानद मंत्री नियुक्त किया गया। हआ केवल चार मास के भीतर ही मन्दिर जी का निर्मित हो जाना, पद्मावती जी का एक सुन्दर वास्तुकला के अनुरूप मंदिर भी इस परम पूज्य आचार्य विजय वल्लभ रि जी महाराज के एक आश्चर्ययुक्त उपलब्धि थी। समारोह में भाग लेने वालों के भूमि पर स्थापित होना चाहिए। इस हेतु देवी पद्मावती अन्तेवासी गणि श्री जनक विजय जी महाराज (हाल में आचार्य मन में एक विशेष उत्साह था। ऐसा लगता था कि स्मारक भूमि चैरीटेबल ट्रस्ट की स्थापना की गई और उसके अध्यक्ष बने लाला विजय जनक चंद्र सरि) हरियाणा में सर्व धर्म समभाव एवं मद्य के अन्दर इस सकल आयोजन से एक नया जीवन मिला है। देखते रामलाल जी। मन्त्री का कार्यभार श्री मन मोहन जी ने संभाला निषेध आदि का प्रचार करते हए, दि० 9.1.1983 को विजय ही देखते दर्शकों और भक्तजनों का वहां तांता लगने लगा। माता और विशम्बरनाथ जी कोषाध्यक्ष बने। दिनांक 18 जनवरी वल्लभ स्मारक स्थल पर पधारे। उनके शिष्य गणि जयन्त पद्मावती देवी जी की मान्यता उत्तरोत्तर बढ़ती गई और अनेक 1984 की प्रातः श्री रामलाल जी के कर-कमलों द्वारा पद्मावती विजय भी उनके साथ थे। स्मारक निर्माण योजना एवं प्रवृत्तियों लोगों के मनोवांछित परे होने लगे। स्मारक भूमि पर प्रत्येक वदि. For Prvate & Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमी के दिन माता पद्मावती देवी के मंदिर में अर्चना और लाभ प्रदान करने के लिए एक चिकित्सालय चाल करने की स्थापना की गई है। जिसके मूल की आवक से धर्मार्थ काम किये आराधना हेतु प्रतिमास मेले लगने लगे। योजना बनाई गई। लाला धर्मचन्द जी (दिल्ली) ने इस कार्य को जाते हैं। महत्तरा जी के आदेश एवं परामर्श से स्मारक निधि के करने का उत्तरदायित्व लिया और श्रीआत्म वल्लभ जसवन्त दिनांक 15 जन 1986 के शुभ दिनस्मारक स्थल पर विजयानन्द मन्त्री श्री राज कमार जैन सपत्नी अपने निजी खर्च पर विश्व का धर्म मैडिकल फाउंडेशन की स्थापना की। ला. धर्मचंद जी के सरि जी महाराज की पुण्य तिथि ज्येष्ठ वदि अष्टमी मनाई गई भ्रमण करने | सितम्बर 1984 में गए। स्थान-स्थान पर उन्होंने वरद हस्त से चिकित्सालय का दि० 15.6.85 को विधिवत और साथ ही संक्रान्ति का कार्यक्रम भी सम्पन्न हुआ। उसी दिन सम्पर्क स्थापित किये जो स्मारक कार्य के लिये उपयोगी सिद्ध हो उद्घाटन किया गया। वे इस ट्रस्ट के अध्यक्ष बने। इसके अन्तर्गत श्री आत्मानन्द जैन महासभा उत्तर भारत का एक अधिवेशन रहे हैं। एक होम्योपैथिक चिकित्सालय सुचारू रूप से सतत् जन सेवा का भी पूज्य महत्तरा जी महाराज की निश्रा में सम्पन्न हुआ। दो वीर दिसम्बर 1984 में स्मारक निधि का कार्यालय एवं भोगीलाल काम कर रहा है। बालक और बालिका सर्वश्री सतीश कुमार जैन आगरा और लेहरचन्द संस्थान को रूप नगर से स्मारक भूमि के नये भवन में . पू० महत्तरा श्री जी की निश्रा में दिनांक 3, 4 और 5 अगस्त श्रीमति रेनु बाला जैन जालन्धर को उनके परम साहस के स्थानांतरित कर दिया गया। और सकल कार्य को सुचारू रूप से 1985 को भोगीलाल लेहरचन्द संस्थान के तत्वाधान में एक उपलक्ष्य में कालकाचार्य शौर्य पदक प्रदान किये गये। वयोवृद्ध चलाने के लिए एक नया उत्साह और उमंग पैदा हो गई। कार्यशाला का आयोजन हुआ जिसमें देश के गणमान्य शीघ्र सरश्री देवराज जैन गुजरांवालिया एवं कपूरचन्द जैन महत्तरा जी महाराज ने क्रांति का एक और पग पठाया। जैन स्नातक तथा विद्वान शामिल हुए और महत्वपूर्ण निर्णय लिये गुजरांवालिया तथा नाजर चन्द जैन चंडीगढ़ को उनकी समाज श्रमणी इतिहास में सर्वप्रथम अपनी आज्ञानुवर्ती साध्वियों सबता गये। शीघ्र कार्य के लिए दिशा निर्धारित तय हुई। सेवाओं के उपलक्ष्य में सम्मानित किया गया। दर्शकों और श्री जी एवं सुयशा श्री जी. महाराज को शोध एवं ग्रंथ सरंक्षण महत्तरा श्री मृगावती जी महाराज के अन्तःकरण में विद्वानों श्रोताओं ने उन महानुभावों का दिल खोलकर तालियों से कार्य में जोड़ दिया। पुरातन ग्रन्थों का आधुनिक ढंग से वर्गीकरण और श्रद्धेय पुर्वाचार्यों के प्रति बड़ा आदरभाव था। आचार्य हरि अभिनन्दन किया। आदि सम्बद्ध सभी कार्यभार उन्हें सौंप दिया। आज तक वे भद्र सूरि जी ने साध्वी याकिनी महत्तरा जी से प्रतिबोध पाकर महत्तरा श्री मृगावती जी का निजी स्वास्थ्य मास फरवरी 12000 ग्रन्थों का सुचारू सुन्दर और यथेष्ट वर्गीकरण कर चुके 1444 ग्रन्थों की रचना की थी। वे अपने नाम के साथ महत्तरा 1986 से ही कुछ बिगड़ने लग गया था। उनको एक असाध्य रोग हैं। इस भागीरथ कार्य में सा० सुयशा श्री जी विख्यात लिपि सूनू लिखते थे। अतः मृगावती श्री जी की यह प्रबल इच्छा थी कि ने घेर रखा था। 15 जून 1986 के कार्यक्रम में उन्होंने शारीरिक विशेषज्ञ पं० श्री लक्ष्मण भाई भोजक के मार्ग दर्शन में, अहर्निश तलघर के शोध पीठ हाल का नाम "आचार्य हरि भद्र सूरि हाल" पीड़ा होते हुए भी 5 घंटे तक कार्यक्रम को सान्निध्य प्रदान किया। जुटे हुए हैं। उन्होंने छोटी साध्वी सुप्रज्ञा श्री जी को अंग्रेजी भाषा में रखा जाए। उनकी यह भावना पूरी कर दी गई। उन्होंने यह भी लेकिन उनका शरीर अन्दर से जर्जरी भूत हो चुका था। बैठने एम.ए.पास करवाया ताकि वे युवा पीढ़ी का समुचित मार्ग दर्शन फरमाया था कि शान्त मूर्ति आचार्य समुद्र सूरि जी की श्रद्धांजली और चलने की ताकत दिन प्रतिदिन क्षीण होने लगी। बम्बई और कर सकें। रूप, मुख्य प्रासाद का तल घट समुद्र सूरि महाराज सा० को ही दिल्ली के विशेषज्ञ इलाज कर रहे थे परन्तु उनके स्वास्थ्य के बारे दिनांक 8, 9 और 10 फरवरी 1985 को नई दिल्ली में तृतीय समर्पित। में कोई पूरा विश्वास हमें नहीं दे पा रहा था। अन्तर्राष्ट्रीय जैन कान्फ्रेंस का अधिवेशन हुआ। देश-विदेश से महत्तरा जी महाराज की प्रमुख शिष्या साध्वी सुज्येष्ठा श्री अपने जीवन के अन्तिम 3-4 महीनों में उन्होंने कई नई आये प्रतिनिधियों के सम्मानार्थ स्मारक निधि एवं भोगीलाल जी अति सरल और सेवा भावी थीं। सकल साध्वी मंडल का वे योजनायें बनाईं। समाज के आगेवानों को प्रेरणा देकर अनेक लेहरचन्द संस्थान की ओर से एक स्वागत समारोह 10 फरवरी मातृवत पोषण करती थीं सेवा, साधना एवं समर्पण उनके जीवन निजी धर्मार्थ ट्रस्टों की स्थापना करवाई। और लोगों से वचन लिये को स्मारक स्थल पर रखा गया। जिसको मुनि सुशील कुमार जी के ज्वलन्त लक्ष्य थे। परन्तु दिनांक 9 नवम्बर 1985 को सायं कि इन ट्रस्टों की आधी आय सदैव स्मारक को मिलती रहेगी। 50 एवं अन्य मुनिराज तथा महत्तरा साध्वी श्री मृगावती जी महाराज 10.00 बजे उनका स्वास्थ्य एकदम बिगड़ा और देखते ही देखते लाख रुपये के ट्रस्ट बनाने के वचन उनको प्राप्त हुए। आदि साध्वी मंडल ने सान्निध्य प्रदान किया। समाज के प्रमुख बिना किसी डाक्टरी सहायता के हदय रोग के कारण वे देवलोक नेता श्री श्रेणिक कस्तूरभाई मुख्य अतिथि के रूप में मंच पर सिधार गये। समाज को बहुत धक्का लगा और महत्तरा जी भगवान वासुपूज्य मंदिर जी में प्रतिष्ठित होने वाली चार जिन पदासीन हुए और इस आयोजन की अध्यक्षता श्रीमति डा०मधुरी महाराज का दिल तो मानो टूट सा गया। परन्तु उस त्यागी आत्मा बिम्ब तथा 4 गुरुमूतियों की बोलियां करवा कर उन्होंने 15 जून बैन आर. शाह (अध्यक्षता यू.जी.सी.) ने की। देश-विदेश से ने साहस कर अपने आपको संभाला और पुनः शासन सेवा में 1986 को इसके आदेश दे दिये। महत्तराजी अस्वस्थ तो रहते ही गवेषकों ने निर्माण कार्य और शोध कार्य को देखकर मुक्त कंठ से तल्लीन हो गये। सा. सुज्येष्ठा श्री जी का अग्नि संस्कार स्मारक थे और दर्शनाथीं दूर दूर से आते रहते थे। उनके दिन में प्रारम्भ से प्रशंसा की। भूमि पर ही किया गया तथा समाधिस्थल पर सुन्दर गुलाबी ही एक उच्च स्तर का स्कूल बनाने की बड़ी तीब्र अभिलाषा थी। साध्वी जी महा. की प्रेरणा से स्मारक स्थल पर काम करने पत्थर जड़ कर उसे सत्कार योग्य एवं वन्दनीय बना दिया गया एक दिन मन्त्री राजकुमार को कहने लगे "जिस दिन स्कूल बन वाले शिल्पियों तथा निकटवर्ती गांव निवासियों को चिकित्सा है। उनकी याद में "साध्वी सुज्येष्ठा श्री चैरिटेबल ट्रस्ट" की भी जायेगा मेरा संकल्प पूरा हो जायेगा" पुनः कई बार यह भी कहा Jain Education Interational For Prvate & Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते कि कभी घबराना नहीं। "स्मारक भूमि पर तो प्रभु कृपा सन्दर भवन बनाना चाहिये। श्री धर्मचन्द जी परिवार ने इसका मई 1987 में विजय वल्लभ सूरि जी महाराज की दीक्षा रहेगी, धन की इतनी वर्षा होती रहेगी कि धन सम्भालना उत्तरदायित्व लिया। उन्हीं की प्रेरणा द्वारा लाला लाभचन्द शताब्दी की पूर्व भूमिका बनाने के लिये, स्मारक स्थल पर पू० मुश्किल हो जायेगा"। इस प्रकार अन्य भी अनेक लोगों को राजकुमार फरीदाबाद परिवार ने एक सार्वजनिक कैंटीन बनवाने साध्वी सुव्रता श्री जी की निश्रा में एक विकलांग शिवर लगाया प्रोत्साहित कर उन्होंने स्मारक के लिए अनुदान प्राप्त किया। की जिम्मेदारी ली और लाला रत्नचन्द जी अध्यक्ष निधि एवं तीन गया। केन्द्रीय मन्त्री श्री जगदीश टाईटलर मुख्य अतिथि, एवं आखिर 17 जुलाई 1986 के दिन उनकी शारीरिक व्यवस्था आजीवन ट्रस्टी सर्वश्री सुन्दरलाल जी, खैरायतीलाल जी तथा कार्यकारी पार्षद श्री कुलानंद भारतीय तथा सांसद चौ० भरत अति क्षीण हो गई। परन्तु सायं लगभग 5.00 बजे उनके भीतर रामलाल जी परिवारों ने सामूहिक रूप से निधि के लिए एक सुन्दर सिंह अतिथि विशेष थे। विकलांगों को कृत्रिम पाव, ट्राई साइकल, छिपी हुई दैवी शक्ति ने उनको कुछ ऐसा बल प्रदान किया कि वे कार्यालय निर्माण कर कार्यभार संभाला। एवं भाई श्री अभय सिलाई मशीनें तथा रोजगार की सामग्री जुटाई गई। बिकलांगों ने उठकर बैठ गये। श्री विनोद लाल दलाल से क्षमापना की एवं कुमार सुपुत्र श्री विद्या सागर जी ओसवाल लुधियाना ने अतिथि श्रद्धा भाव से मांस मदिरा त्याग के नियम साध्वी जी से भरी सभा वचन लिया कि वे निर्माण कार्य को योजना बद्ध कर के ही विश्राम गृह निर्माण के लिये विपुल एवं सराहनीय आर्थिक योगदान देने का में लिये। करेगें। सर्व श्री राम लाल जी, रत्नचन्द जी,शान्ति लाल खिलौने वचन दिया। दि0 22.8.86 तथा 14.9.86 को इन्हीं परिवार महत्तरा साध्वी श्री मृगावती जी महाराज की एक प्रबल वाले तथा राजकुमार आदि से भी मिच्छामि टुक्कड़ कहा। प्रमुखों के कर कमलों द्वारा उपरोक्त तीनों भवन तथा दो उपाश्रय भावना थी कि जैनाचार्य विजय वल्लभ सूरि जी के दीक्षा शताब्दी तदुपरान्त अपनी साध्वियों तथा श्रावकों से नाता तोड़ विदाई भवनों के शिलान्यास कार्यक्रम साध्वी सुव्रता श्री जी म. की निश्रा वर्ष के उपलक्ष्य में एक विशेष समारोह स्मारक स्थल पर सन लेकर भगवान संखेश्वर पार्श्वनाथ जी की फोटो के समक्ष 5 घंटे में सम्पन्न हुए। परन्तु डी.डी.ए. की अनुमति के अभाव के कारण 1987 में गच्छाधिपति विजयेन्द्रदिन्न सरि जी महाराज की निश्रा तक स्माधिस्थ रहे। विस्मित दर्शनार्थियों का तांता लग गया। उनका निर्माण कार्य अभी आगे नहीं बढ़ सका है। महत्तरा जी के में सम्पन्न होना चाहिए। इस सन्दर्भ में उन्होंने आचार्य भगवान ____ 18 जुलाई 1986 को प्रातः उनके श्वास धीरे धीरे घटने शुरू देवलोक हो जाने के पश्चात साध्वी सुव्रता श्री जी समस्त कार्य को 5 वर्ष पूर्व ही लिखित प्रार्थना कर दी। आचार्य देव विजयेन्द्र हो गये और लगभग 8.00 बजे उनकी आत्मा ने नश्वर शरीर भार सुचारू रूप से संभाल रहे हैं। महत्तरा जी ने कुशल शिल्पी दिन सरि जी महाराज ने इसके लिए अपनी स्वीकृति भी प्रदान कर त्याग दिया। सारे भारत विशेषतया पंजाब और हरियाणा से की तरह इन्हें घड़कर निपुण बना दिया है। दी थी। इस भावी समारोह में भाग लेने के लिए विशाल रूप में अन्तिम दर्शनों के लिए आने वाले लोगों की भीड़ लग गई। रेडियों दि.27.28 और 29 सितम्बर 1986 को स्मारक भूमि पर श्रमण और श्रमणी मंडल को एकत्र करने का भी निर्णय किया और टेलीविजन ने उनके देवलोक के समाचार प्रसारित किये। भोगीलाल लेहरचन्द संस्थान के तत्वावधान में जैनाचार्य हरिभद्र गया। स्मारक स्थल पर श्रमण मंडल के आवास की समस्या निधि दिनांक 10 जलाई 1986 को एक विशाल आयोजन के बीच सार पर एकविशषात्रादवसीय गोष्ठीहई। इसमें मुख्य आताथ थ के कार्यकर्ताओं और महत्तरा जी के समक्ष थी। उपाय केवल एक महत्तरा जी को भारत के गणमान्य लोगों तथा संस्थाओं ने मूधन्य विद्वान डा० लाकश चन्द्र। पू० महत्तराधा जी म. का ही था कि श्रमण तथा धमणी मंडल के लिए भिन्न भिन्न उपाश्रय श्रद्धांजलियां अर्पण की और सैकडों दोशाले चढाए भारत के भावनानुसार, आचार्य हरि भद्र सूरि जी की साहित्य और दशनक स्मारक स्थल पर बनवाये जायें। महत्तरा जी महाराज ने इसके तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी ने भी निजी मिलिट्री प्रति अनन्य सेवा के उपलक्ष्य में, संस्थान के भवन का नामकरण ला पेरणा और सैक्रेटी भेजकर पष्पमाला द्वारा श्रद्धा समन अर्पित किये। चन्दन "आचार्य हरिभद्र सूरि हाल" किया गया। दि०21.22.23 और बीन मानाजी मार जित दन आचाय हारभद्र सार हाल किया गया। दि0 21, 22, 23 और बीच महत्तरा जी हमसे बिछड़ चुके थे। और यह कार्यभार उनकी को चिता बनाकर उनकी अन्तयेष्टी स्मारक स्थल पर ही की गई। 24 मार्च 1987 को भोगीलाल लेहरचंद संस्थान के अन्तर्गत प्रिया सुशिष्या परम विदूषी साध्वी श्री सुव्रता श्री जी को उठाना पड़ा। अन्तयेष्टी का लाभ लाल लघु शाह मोती राम परिवार "अर्हन पार्श्व" पर एक महत्वपूर्ण गोष्ठी हुई। इसकी मुख्य वार अहन पाश्व पर एक महत्वपूर्ण गाष्ठा हुई। इसका मुख्य उपाश्रय भवनों के लिए सुन्दर प्लान बनवाकर दिये गये। भरसक धा गजरांवालिया ने प्राप्त किया। इसी स्थान पर महत्तरा जी की आंतथि थी श्रीमति कापला वात्सायन। तत्पश्चात दिनाक 25. प्रयास के बाद दिल्ली प्राधिकरण के भवन निर्माण की अनुमति ली समाधि एक गुफा के रूप में बन कर तैयार हो गई है। जहां उनकी 26 और 27 सितम्बर को आचार्य हरिभद्र सूरि पर दूसरी गोष्ठी गई। यह अनुमति उपराज्यपाल श्री एच.एल, कपूर तथा केन्द्रीय मर्ति स्थापित की जाएगी। महत्तरा जी के प्रति विशाल जन समह का आयोजन हुआ। इसके मुख्य अतिथि थे ऐतिहासज्ञ डा० सचिव श्री सकथंकर महोग्य के सचिव श्री सुकथंकर महोदय के सहयोग द्वारा प्राप्त हुई। इसी ने अपनी सच्ची श्रद्धा व्यक्त करने के लिये एक स्थाई ट्रस्ट बनाने इरफान हबीब। योजना के फलस्वरूप दोनों उपाश्रय अब तैयार हो चुके हैं। का भी निर्णय उसी श्रद्धांजलि सभा में कर दिया। लाखों रुपये के विजय वल्लभ स्मारक के निर्माण कार्य के लिये आर्थिक संकट प्रत्येक उपाश्रय का बान्ध काम 2786 वर्ग फुट है। दोनों उपाश्रयों वचन तत्काल प्राप्त हो गए। ट्रस्ट का नाम रखा गया "महत्तरा सिर पर मंडराने लगा। एक शिष्टमंडल ने बम्बई जाकर श्री के नीचे उपासना गृह बनाये गये हैं। यह भी प्रत्येक 2786 वर्ग फुट साध्वी मृगावती जी फाउण्डेशन" जिसके माध्यम से अनेक दीपचंद भाई गाडी जी से योगदान हेतु प्रार्थना की।पहले उन्होंने का है। एक उपाधय भवन का नाम प्यारी तिलक चंद जैन लोक-कल्याण तथा शिक्षा प्रसार के कार्य किये जाते हैं। स्मारक को सात लाख का योगदान दिया था, जिसे बढ़ा कर उपाश्रय", दूसरे का नाम 'प्रकाशवती देवराज मुन्हानी उपाश्रय . महत्तरा श्री मृगावती जी महाराज ने अपने जीवन की उन्होंने अब 21 लाख कर दिया। अतः हमारी समस्या का एवं एक उपासना गृह का नाम "कमला बहन जयन्तीलाल एच. अन्तिम वेला में प्रेरणा दी कि चिकित्सालय के लिए एक स्वच्छ सामायिक उपाय मिल गया। श्री गार्डी जी के हम ऋणी हैं। शाह उपासना गृह तथा दूसरे उपासना गह का नाम "मवाना Jain Education Interational For Prvate & Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्रांसपोर्ट उपासना गृह" रखे गए। इनके उद्घाटन दि 1.2.1988 को सम्पन्न हो चुके हैं। आचार्य विजयेन्द्र दिन सूरि जी महाराज अकोला महाराष्ट्र से बम्बई, अहमदाबाद का उग्र विहार कर बड़ौदा होते हुए पावागढ़ पंहुचे। उन्होंने वहां के निर्माणाधीन जिन मंदिर की प्रतिष्ठा सम्पन्न करवा कर ही दिल्ली आने का निर्णय लियो । अतः आदेश दिया कि वल्लभ स्मारक के प्रतिष्ठा समारोह आदि कार्यक्रम एक वर्ष पश्चात अर्थात 10 फरवरी 1989 को ही रखे जायें। परन्तु गुरुदेव विजय वल्लभ सूरि जी महाराज की दीक्षा शताब्दी वर्ष को ध्यान में रखते हुए उन्होंने यह भी आदेश दिया कि एक फरवरी 1988 के शुभ दिन अत्र विराजमान साध्वी सुव्रता श्री जी महाराज की निश्रा में चारों भगवान और विजय वल्लभ सूरि महाराज की भव्य प्रतिमा आदि के द्वारा प्रवेश करवा दिये जायें। फलस्वरूप 31 जनवरी 1988 और 1 फरवरी 1988 को दो दिवसीय विशाल समारोह रखा गया। 31.1.1988 को नूतन प्रतिमाओं की शोभा यात्रा निकाली गई और पंच कल्याणक पूजा भी पढ़ाई गई। दिनांक 1.2.88 को शभु मुहुर्त में प्रातः 10.55 पर मूलनायक श्री वासुपूज्य जी का शुभ प्रवेश मंदिर जी में करवाया गया और साथ ही अन्य प्रतिमाओं का प्रवेश भी सम्पन्न हुआ। अहमदाबाद निवासी श्री जेठाभाई हेमचन्द विधिकारक इस कार्य हेतु स्मारक स्थल पर आमंत्रित किये गये थे। मूल नायक भगवान वासुपूज्य जी के मंदिर जी का प्रवेश लाला धर्मचन्द जी के परिवार ने करवाया और भगवान पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा का प्रवेश मोतीलाल बनारसीदास परिवार भगवान ऋषभदेव जी की प्रतिमा का प्रवेश लाला रामलाल इन्द्रलाल जी द्वारा तथा मुनि सुव्रत स्वामी भगवान की प्रतिमा का प्रवेश नरपतराय खैरायतीलाल परिवार ने क्रमशः करवाया। गुरू गौतम स्वामी की प्रतिमा के प्रवेश का लाभ भी मोतीलाल बनारसी दास ने प्राप्त किया। r आचार्य देव विजय सरि जी महाराज की भव्य प्रतिमा का द्वारा प्रवेश सुश्रावक श्री शैलेश हिम्मतलाल कोठारी बम्बई निवासी के कर कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ। श्रीमति रामप्यारी तिलकचन्द परिवार ने एक उपाश्रय का उद्घाटन तथा श्री देवराज मुन्हानी सिंगापुर निवासी ने दूसरे उपाश्रय का उद्घाटन सम्पन्न किया। उपासना गृहों के उदघाटन का लाभ श्री जयन्तीलाल एच शाह कोबे जापान तथा सवानी ट्रांसपोर्ट प्रा. लि. के मालिक श्री माणेकलाल वी सवानी एवं श्री रसिक लाल सवानी ने प्राप्त किया। जन मानस का उत्साह असीम था। हजारों रुपये न्योछावर में इक्ट्ठे हो गए। शेष अन्य गुरू विजयानन्द सूरि जी विजय वल्लभ सूरि जी एवं विजय समुद्र सूरि जी महाराज की प्रतिमाओं के प्रवेश प्रतिष्ठा महोत्सव के समय करवाये गए। इनके लाभ सर्वश्री राज कुमार राय साहिब चन्द्र प्रकाश कोमल कुमार एवं लाला रत्न चंद जी ने प्राप्त किए। महत्तरा साध्वी श्री मृगावती जी महाराज का समाधि भवन तैयार हो चुका है। इस भवन के ऊपर तथा चारों तरफ मिट्टी चढ़ा कर इसे पर्वतीय गुफा का रूप दिया गया है, क्योंकि महत्तरा जी को एकान्त वास अति पसन्द था। साध्वी जी महाराज की प्रतिमा इस समय निर्माणाधीन है। मूर्तिकार से प्राप्त होने के पश्चात इस प्रतिमा का प्रवेश भी समाधि स्थल पर करवा दिया जायेगा। समाधि भवन का शिलान्यास श्री अभय कुमार जी ओसवाल लुधियाना के कर कमलों द्वारा 16 जनवरी 1987 को सम्पन्न हुआ था। श्री आत्म बल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि तथा दिल्ली श्रीसंघ के शिष्टमंडल कई बार गच्छाधिपति आचार्य विजयेन्द्र दिन सूरि जी महाराज के पास हाजिर होता रहा तथा बम्बई, अकोला एवं बडोदरा में गुरुदेव को भाव भरी विनती की गई। अहमदाबाद के सुप्रसिद्ध ज्योतिषी श्री ब्रह्म कुमार जोशी ने दि० 10.2.88 का प्रतिष्ठा मुहूर्त निकाला। आचार्य भगवान से इसके अनुसार स्मारक की प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाने की विनती की गई परन्तु उन्होंने स्वीकृति नहीं दी कारण कि अकोला से वापसी पर गुरुदेव पावागढ तीर्थ पर नवनिर्मित मन्दिर जी का प्रतिष्ठा महोत्सव, उत्तर भारत एवं दिल्ली की ओर प्रस्थान से पूर्व ही करवाना कहते थे। पावागढ़ तथा राजस्थान में कुछ भगवती दीक्षाएं भी होनी थीं । सम्भवतः गुरुदेव ने यह सोचा होगा कि निर्माण कार्य काफी शेष है, उसे आगे बढ़ने दिया जाए। अतः गुरु देव ने बड़ोदरा पहुंचने पर ज्योतषियों को अपने पास बुलाकर पुनः मुहूर्त निकलवाए। गुरुदेव की आज्ञा से वसन्त पंचमी माघ शुक्ला 52045 तदानुसार दि० 10.2.89 को प्रतिष्ठा करवाने का शुभ मुहूर्त निश्चित हुआ। जिसकी तैयारियां होने लगी। आगरा तथा मुजफ्फरनगर में नव निर्मित जिन मन्दिरों एवं मुरादाबाद में गुरु समुद्र सूरि जी समाधि मन्दिर आदि के प्रतिष्ठा मुहूर्त निकलवाए गए। बीकानेर में दि० 12.2.88 को सक्रांति महोत्सव के सुअवसर पर गुरुदेव ने कहा कि वे दि० 13.3. 88 को दिल्ली वल्लभ स्मारक पहुंचने का विचार रखते हैं तथा वहां पर ही गुरुदेव विजय वल्लभ सूरि जी दीक्षा शताब्दी मनाएगें। तदुपरान्त वे एक पैदल यात्रा संघ को साथ लेकर श्री हस्तिनापुर जाना चाहते हैं। आचार्य भगवान, अकोला महाराष्ट्र से ही 30-35 कि०मी० का प्रतिदिन उग्र विहार करते बड़ोदरा पावागढ़, राणकपुर, सादड़ी, फल वृद्धि पार्श्वनाथ तथा बीकानेर होते हुए और धर्म देशना देते हुए एवं मुमुज्ञओं को भगवती दीक्षाएं देकर दिनांक 13.3.1988 को विजय वल्लभ स्मारक स्थल पर पधारे। उनका भव्य प्रवेश करवाया गया श्री आत्मानंद जैन महासभा, दिल्ली एवं अन्य श्रीसंघों की ओर से तोरण द्वार बनवाए गए। बैण्ड, बाजा, नफीरी, हाथी, घोड़ा, स्कूटर सवार, महेन्द्र ध्वजा, गुरु देवों के चित्र, कलशधारी सुसज्जित बहनें, बच्चे तथा अनेक भजन मण्डलियां साथ थीं। नाचते गाते श्रमण एवं श्रमणी मंडल की भावभरी आगवानी की गई। स्मारक के भूमि प्रवेश समय रु० 5000 ( की गोहली हुई। स्मारक भवन की सीढ़ी चढ़ते चढ़ते गुरु देव के प्रत्येक कदम पर रु0 51) वारणा हुआ। गुरू भक्तों ने अपना दिल ही उण्डेल कर रख दिया। भगवान की चारों प्रतिमाएं तथा आचार्य विजय वल्लभ सूरि जी की विशाल मुंह बोलती प्रतिमा देखकर, गुरुदेव मन्त्र मुग्ध हो गये। तत्पश्चात धर्म सभा हुई। सभी श्रीसंघों ने गुरुदेव को श्रद्धा सुमन अर्पित किये। एयर मार्शल पी. के. जैन अतिथि विशेष थे और भारत सरकार के केबिनेट मंत्री श्री एच. के. एल. भगत मुख्य अतिथि थे। उन्होंने भी गुरुदेव का भाव भरा स्वागत किया और स्मारक निर्माण तथा प्रवृतियों की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहा कि मेरी सेवाएं हाजिर हैं। गुरु देव ने अपने प्रवचन में, समस्त पंजाब हरियाणा आदि अनेक स्थानों से पधारे गुरु भक्तों को आशीर्वाद दिया। और यह भावना व्यक्त की कि सातों क्षेत्र के संचिन के लिये एक करोड़ रुपये का फण्ड बनाना चाहिये। गणि श्री नित्यानंद विजय जी का ओजस्वी प्रवचन भी हुआ। रात्रि को सांस्कृतिक कार्यक्रम था। दिनांक 14.3.88 की दीक्षा शताब्दी के उपलक्ष में एक बृहत धर्म सभा हुई। विजय वल्लभ सूरि जी महाराज के जीवन पर प्रकाश डाला गया। सभा में श्री अभय कुमार जी ओसवाल सु० 13 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विद्या सागरी जी ओसवाल, मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित श्री जी उग्र विहार कर वहीं पहुंचते रहे हैं। महाराष्ट्र, राजस्थान, महत्तरा श्री मृगावती जे महाराज ने स्मारक के प्रांगण में एक हुए। गुरू देव के यह कहने पर, कि उन्होंने पिछले दिन एक करोड़ गुजरात, कच्छ, उत्तर प्रदेश आदि चहु और उनका ध्यान विशाल धर्मशाला तथा एक आदर्श स्कूल तथा स्त्री प्रशिक्षण के फण्ड की भावना व्यक्त की थी, श्री ओसवाल ने तुरन्त यह आकृष्ट रहता है। उनकी कृपा से अनेक अलभ्य ग्रंथ एवं जीर्ण केन्द्र स्थापित करने की योजना बनाई थी। दानी महानुभाव तैयार उत्तरदायित्व स्वीकार कर लिया। अभय कुमार जी की इस मूर्तियां एवं अन्य उपयोगी वस्तु हमें प्राप्त हो चुकी हैं। स्मारक के भी हुए थे और कुछ धनराशि भी एकत्रित हुई थी। निर्माण के घोषणा से गुरु देव का जय जय कार हो उठा। सारे देश में धूम मच तलधर में एक संग्रहालय का प्राथमिक रूप से श्रीगणेश भी कर प्लान भी बनाए गये थे। पूर्ण विश्वास है कि निकट भविष्य में ये गई। बीस लाख रूपये तो स्मारक निर्माण कार्य हेतु दे भी दिये हैं। दिया जा चुका है। निकट भविष्य में इस दिशा में विशेष प्रगति निर्माण काम भी चालू कर दिये जाएंगे और चरित्र चूड़ामणि दि० 31.3.1988 को गुरुदेव की भावनानुसार एक छःरी होने की सम्भावना एवं आशा है। गच्छाधिपति आचार्य विजयेन्द्र दिन्न सूरि जी महाराज की कृपा से पालित पैदल यात्रा संघ श्री हस्तिनापर के लिये विजय बल्लभ पिछले 9 महीने से स्मारक निर्माण कार्य में विशेष गति आई सभी बाधाएं तथा आर्थिक संकट दूर हो जाएंगे। गुरुभक्त कृत स्मारक से आचार्य देव विजयेन्द्र दिन सरि जी की निश्रा में है। लगभग 250-300 शिल्पी दिन रात काम कर रहे थे। पत्थर संकल्प हैं अतः सफलता भी अवश्यम्भावी है। निकाला गया। तीन सौ यात्री, गरू महाराज तथा श्रमणी मंडल द्वारा स्मारक के अभूतपूर्व गुम्बद का निर्माण एक अति कठिन. विजय वल्लभ स्मारक के प्रागंण में नव निर्मित जिन मन्दिर साथ था। 12 दिन में विधिवत यात्रा निर्विधन सम्पन्न हुई। जटिल तथा जोखम का काम था। देव, गुरू तथा धर्म के प्रताप से , में चतुमुर्ख जिन बिम्बों का अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव दि० हस्तिनापुर पहुंचते-पहुंचते 2000 यात्री तथा 67 मुनिराज एवं एवं माता पद्मावती जी के आशीर्वाद से वह विविध रूप से सम्पन्न । 1.2.89 से दि०11.2.89 तक मनाया जा रहा है। मुख्य प्रासाद में साध्वी जी महाराज का दिल्ली मेडी पनि दिन हुआ है। इस गुम्बद की कला और निर्माण अद्वितीय तथा चकित विजय वन्लभ सरि जी की भव्य प्रतिमा भी स्थापित होने वाली है। बैण्ड, साथ-साथ पैदल चलता रहा। पंक्तिबद्ध चलना तथा कर देने वाले हैं। वस्तुकला के विद्यार्थियों, दर्शकों तथा गुरु भक्तों जिन मंदिरों के रंग मंडपों में गुरु गौतम स्वामी जी, पू० आचार्य अनुशासन सराहनीय था। हस्तिनापुर से मुरादाबाद होकर गणि अर्थात् सभी के लिये यह विशेष आकर्षण का केन्द्र बन गया है। आत्मा राम जी, पू० विजय वल्लभ सूरि जी तथा विजय समुद्र सूरि नित्यानंद विजय जी ने भंदर राजस्थान की ओर विहार कर दिया। भगवान की प्रतिमाएं भी उतनी ही मन मोहक एवं आकर्षक का जी की मूर्तियां भी विराजित होंगी। मुख्य आयोजन दि08.9 तथा तथा गणि श्री जगचन्द्र विजय जी पावागढ़ से विहार कर केन्द्र बन गया है। भगवान की प्रतिमाएं भी उतनी ही मन मोहक 10 फरवरी को होंगे। 9 फरवरी को अंजनशलाका तथा 10 हस्तिनापुर में आचार्य के पास पहुंच गए एवं वहां पर ही चातुर्मास एवं आकर्षक हैं। समस्त निर्माण कार्य में एक विशेष निखार आया तारीख को शुभ मुहूर्त में प्रतिष्ठा सम्पन्न होगी। दि011.2.89 को किया। है। जिन मन्दिर जी के गुम्बद का सामरण भी निर्मित हो चुका है। अन्य सभी सामरणों का काम अभी शेष है। विशाल क्रेन उपलब्ध द्वारोद्घाटन होगा। और दि0 12.2,89 को सक्रांति का कार्यक्रम अब गुरु देव, मुरादाबाद समाधि प्रतिष्ठा, मुजफ्फरनगर हो जाने पर, उसके प्रयोग से निर्माण कार्य में अवर्णनीय सुगमता है। अखिल भारतीय जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स का 25वां (रजत) तथा आगरा के नूतन जिन मन्दिरों की प्रतिष्ठा विधि सम्पन्न महाधिवेशन भी श्री दीपचंद जी गाडी.बार-एट-ला निवासी की और तीव्रता आई है। यदि क्रेन हमारे पास न होती, तो हमारा काम करवा कर अपने विशाल श्रमण-श्रमणी परिवार के साथ दिल्ली अभी अधुरा ही होता। निष्पात शिल्पियों की छैनी की झंकार से अध्यक्षता में सम्पन्न होने जा रहा है। जिस में समाज की वर्तमान पुनः पधार चुके हैं। मुनि श्री धर्म धरूधर जी उग्र विहार कर परिस्थिति तथा समाजोत्थान की भावी योजनाओं पर विचार वातावरण दिन रात गुजायमान रहता है। महत्तरा जी कहा करते पालीताना से सीधे वल्लभ स्मारक के दर्शनार्थ एवं प्रतिष्ठा में थे कि एक साथ कई पत्थर घड़ने की टिक टिक ध्वनि उन्हें बड़ी विमर्श होंगे। कुछ विद्वतजनों का बहुमान भी करने का आयोजन भाग लेने के लिए पधार गए हैं। वे पुनः शोध कार्य तथा आगम प्यारी लगती है। वे इसे मधुर संगीत कहते थे। श्री विनोद लाल है। युवा सम्मेलन तथा महिला सम्मेलन भी सम्पन्न होंगे। देश अध्ययन हेतु वापिस पाटन गजरात पधारने की भावना रखते हैं। दलाल जी का स्वास्थ्य अति कमजोर होते हुए भी जिस निष्ठा और विदेश से हजारों धर्मबन्ध एवं गुरुभक्त इस महा महोत्सव में गणिवर्य श्री नित्यानंद विजय जी अपने ज्येष्ठ भ्राता मुनि जयानन्द योजना बद्ध ढंग से वे परम कुशल अभियन्ता के रूप में काम कर भाग लेने के लिये पधार रहे हैं। विजय जी, सूर्योदय विजय एवं अन्य मनिमंडल के साथ दिल्ली रहे है अथवा उत्तरदायित्व निभा रहे हैं, उसके लिये संघ और पधार गए हैं। उन्होंने भंदर चातुर्मास कर वहां देव और गुरू विजय बल्लभ स्मारक जिसे महत्तरा मृगावती श्री जी समाज उनका आभार मानता है। वे एकमेल ऐसी विभूति हैं महाराज ने आत्म वल्लभ संस्कृति मन्दिर का नाम दिया था, अब भगवन्तों के नाम का खूब डंग बजाया। उपधान प्रतिष्ठा तथा जिनका सानी मिलना कठिन है। जिस प्रकार पू० महत्तरा दीक्षाएं सम्पन्न करवा के वे भी उग्र विहार कर यहां समय से पहुंचे उन्नति के पथ पर अग्रसर है। जैन दिवाकर, परमार मृगावती श्री जी ने स्मारक योजना बनाकर उसे कार्यान्वित करने क्षत्रियोद्धारक चरित्र चूड़ामणि, गच्छाधिपति आचार्य विजय इन्द्र हैं। हम उन सभी के आभारी हैं। के लिये अपने जीवन का सर्वस्व ही अर्पण कर दिया था, उसी दिन सरि जी महाराज की कृपा से यह संस्थान उत्तरोत्तर उन्नात ___ गत तीन वर्ष से गणि श्री नित्यानंद विजय जी बल्लभ स्मारक प्रकार उनकी शिकाएं भी उन्हीं की भांति तल्लीनता से स्मारक करेगा और गरुदेव विजय वल्लभ सरि जी के मिशन का आग के ग्रंथाकार के लिये प्राचीन ग्रंथ एवं संग्रहालय के लिये पुरातत्व के विभिन्न कार्यों में जुटे हुए हैं। कार्य में अनेक बाधाएं आती रहती बढाएगा एवं भगवान महावीर, की शास्वती वाणी के प्रचार आ की अमूल्य सामग्री इकट्ठी करवा रहे हैं। दूर अथवा नजदीक हैं। परन्त गुरू कृपा से उनका निवारण भी होता जाता है। आर्थिक प्रसार के लिये मेरू दण्ड सिद्ध होगा। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यह जहां कहीं से जरा सी भनक पड़ी कि यह सामग्री उपलब्ध है, गणि विषमता तथा कार्यकर्ताओं की कमी सदैव खलती रहती है। जैन समाज की श्रद्धा तथा प्रवृतियों का केन्द्र बनेगा। Jain Education Interational ___ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TIL For N o gal Use Only ainelibrary.org Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन स्थापत्य कला की उत्कृष्ट कलाकृति "वल्लभ-स्मारक" -विनोद लाल एन. दलाल अखिल भारतीय स्तर का यह स्मारक एक परम उपकारी अहमदाबाद की शेठ आणंदजी कल्याण जी की पेटी के मुख्य जर्जरित होने पर भी वीतराग प्रभु की यह वीर साध्वी हमेशा गुरु-देव के ऋणों से उऋण होने का एक विनम्र प्रयास है। शिल्पी श्री अमृतलाल भाई त्रिवेदी और उनके सहायक श्री शान्त और आत्मिक रूप से प्रतीत होती थी। रोग बढ़ता गया और चंदुभाई त्रिवेदी को निर्माण का कार्य सौंपा गया। श्री संघ की इस अत्यन्त अमूल्य धरोहर को बचाने के तमाम परम पूज्य आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि जी ने जिन मंदिर, शिक्षण संस्थायें तथा विद्यामंदिरों की स्थापना द्वारा मानव मात्र के वर्तमान गच्छाधिपति, जैन दिवाकर, परमार क्षत्रियोद्धारक, प्रयास निष्फल गये। समग्र जैन समाज को रोता-बिलखता छोड़, कल्याण एवम् उत्कर्ष के लिये अपना समस्त जीवन समर्पित कर चारित्र चूड़ामणि आचार्य श्री विजयइन्द्रदिन्न सूरिजी के जन-जन की प्रिय, वात्सल्यमयी, वल्लभ-स्मारक की स्वप्नदृष्टि और प्रणेता मृगावती 18 जुलाई 1986 की प्रातः 2.15 बजे । दिया था। मानव समाज के इस महान सेवक, आदर्श त्यागी आशीर्वाद तथा प. पूज्य साध्वी श्री मृगावती श्री जी के सानिध्य में । गरूदेव का वि.सं. 2011 में बंबई में देवलोक गमन हुआ। माता परम गुरुभक्त लाला रतनचदारख परम गुरुभक्त लाला रतनचंद रिखबदास जी के कर कमलों से देहत्याग कर महा-प्रयाण कर गई। साध्वी सज्येष्ठा श्री जी के गुरु साध्वी श्री शीलवती श्री जी महाराज तथा उनकी विदषी तारीख 29-1-1988 के शुभ दिन "भूमिपूजन' तथा जैन समाज वियोग का आघात अभी ताजा ही था कि यह भयंकर वज्रपात शिष्य रत्न कांगड़ा तीर्थोद्धारक महत्तरा साध्वी श्री मगावती श्री के अग्रगण्य कार्यकर्ताओं और दस हजार से भी अधिक मानव हुआ। वातावरण में शून्यता व्याप्त हो गई। कार्यकर्ताओं का जी की प्रेरणा से जैन श्री संघ ने आचार्य भगवंत की यशोगाथा मेदिनी की उपस्थिति में अनन्य गरुभक्त लाला खैरायती लाल जी उल्लास और उत्साह हट गया और निर्माण कार्य प्रायःरुक गया। अमर रखने हेत एक भव्य एवम विविधलक्षी स्मारक निर्माण के वरद हस्त से "शिलान्यास" विधिपूर्वक सम्पन्न हुआ और इस कठिन घड़ी में पूज्य मुगावती श्री जी की सयोग्य शिष्या करने का संकल्प किया और इस निमित्त एक कार्य समिति का शुभ घड़ी से निर्माण प्रारंभ हुआ। विदूषी साध्वी श्री सुव्रता श्री जी, श्री सुयशा जी और साध्वी श्री गठन भी किया। महत्तराजी की निश्रा एवम् मागदर्शन में निर्माण कार्य में तीव्र सप्रज्ञा श्री जी ने अत्यन्त धैर्य का परिचय दिया और अचानक आई। गति आ रही थी कि एक अत्यन्त दुखद घटना घट गयी। 9 हुई जिम्मेवारी को उठा लिया। कार्यकर्ताओं को धीरज रख संयोगवश 17-18 वर्ष तक इस दिशा में कोई प्रगति न हो निर्माण कार्य को गतिशील करने की प्रेरणा दी। उन्होंने समझाया । नवम्बर 1985 की शाम पूज्य साध्वी श्री सज्येष्ठा श्री जी सकी। आचार्य श्री जी के पट्टधर शांतमूर्ति विजय समुद्र कि पूज्य श्री के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि उनके द्वारा । प्रतिक्रमण, कल्याणमंदिर, माला जाप आदि क्रियाओं से निवृत्त सूरिश्वरजी महाराज ने अपनी सयोग्य साध्वी श्री मगावती जी को हए ही थे कि वे अस्वस्थ होने लगी। श्वास की गति तीव्र होने लगी शुरू किये हुए कार्य नियत समय में ही सम्पन्न हों। सबकी चेतना । इस कार्य को कार्यान्वित करने हेत वि. सं. 2029 का चार्तुमास फिर जागृत हुई और निर्माण कार्य में गति आने लगी। और कुछ ही क्षणों में किसी भी प्रकार का उपचार उपलब्ध होने से देहली में करने का आदेश दिया। साध्वी श्री जी ने अपने आप को पहले ही 18 मिनटों में उन्होंने समाधिपूर्वक देहत्याग किया। पूज्य मृगावती श्री जी के जीवन काल में ही साधु मंडल और धन्य समझा और गुरुदेव के आदेश को सहर्ष स्वीकार कर भीषण । सेवा. साधना और समर्पण की मर्ति की आत्मा अनंत में लीन हो साध्वी मंडल के लिये दो उपाश्रय, अल्पाहार ग्रह, डिसपेन्सरी गर्मी की परवाह न करते हुए देहली की ओर विहार कर दिया। और स्मारक-कार्यालय के भवनों के "शिल्यान्यास" की तिथियाँ देहली पहुँच कर यहां के कार्यकर्ताओं को एकत्रकर गुरुदेव के निश्चित की गई थीं। साध्वी श्री सव्रता श्री जी की प्रेरणा से यह आदेश को मूर्तरूप देने की प्रेरणा दी। परिणामस्वरूप एक ही वर्ष पूज्य सुज्येष्ठा श्री जी अपने गुरु मृगावती श्री जी की सेवा में सभी कार्य नियत समय में ही किये गये। के अल्प समय में रूप नगर जैन मंदिर से 13 किलोमीटर दूर ग्रांड हमेशा तत्पर रहती थी। उनकी प्रत्येक छोटी-बड़ी ट्रेक राजमार्ग पर जमीन खरीदी गई। आवश्यकताओं का अत्यन्त एकाग्रता से ख्याल रखती थी। वल्लभ स्मारक की योजना का बीज अत्यन्त शाश्वत था वस्तुतः महत्तराजी के लिए वे "माँ" समान थी। उनके अवसान और इसीलिये उपरोक्त अवरोधों के उपरान्त निर्माण कार्य विजय वल्लभ स्मारक योजना को संचारित करने के लिये की हदयविदारक घटना से भी पज्य मगावती जी जरा भी अबाध गति से चल रहा है और यह स्मारिका आपका "श्री आत्म वल्लभ जैन शिक्षण निधि" ट्रस्ट की स्थापना की विचलित न हई। और सतत प्रेरणा देकर स्मारक के निर्माण कार्य आने तक प्रतिष्ठा का कार्य 10.12.89 को सम्पन्न हो चुका गई। ट्रस्ट के पेट्रन, जैन समाज के अग्रणी नेता और प्रसिद्ध को गतिमान किया। परन्तु नियति कुछ और ही थी, अभी कठिन स्मारक भवन के स्थापत्य की माहिती संक्षेप में बन उद्योगपति शेठ श्री कस्तुरभाई लालभाई के मार्गदर्शन में परीक्षा बाकी थी। पूज्याश्री का शरीर असाध्य रोग से पीड़ित और प्रयास कर रहा हूँ। गयी। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S 00 1 000000 SCHOOL STAIT HOUSING PLAY GROUND PRIMARY AND SECONDARY SCHOOL PROPOSED EDUCATIONAL AT GT KARNAL ROAD TOILET SERVICE PERSONEL DELHI CENTRE NEOLOG 33340 LIS HOSIL 999U t BATH UPAYA COMPLEX FOR SH ATAM QUEST BLOCK VALLABH MEMORAL TEMPLE மடில் JAIN 000 SAMADI BLOCK SMARAK 0000 O DISPENSARY 4 SHIKSHAN < PARKING NIDHI LAYOUT PLAN dakniti CONSULTANTS Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .+ . +20. +m satta RR LVL, rod C - निर्माणाधीन भवन की रूपरेखा बल्लभ स्मारक के प्रांगण का कलात्मक प्रवेश द्वार जी.टी. करनाल राजमार्ग पर निर्मित होगा। यह द्वार 45-00 फुट चौड़ा 8-0" फुट गहरा और 40-0ऊँचा होगा। इसका निर्माण गुलाबी रंग के संदर पत्थर में जैन शिल्प कलानुसार जैन प्रतीकों सहित होगा। भवन के चारों तरफ का खुला भाग सुंदर मखमली घास और छोटे-छोटे सुंगधित फूलों वाले वृक्षों से सुशोभित होगा। बीच-बीच में पर्यटकों की सविधा के लिये बैठने का स्थान होगा और गुरु वल्लभ की शिक्षाप्रद वाणी के पद सुंदर पटों पर अंकित होंगे जो उनकी यशोगाथा को अमरत्व प्रदान करेंगे। मुख्य भवन का 9000 वर्गफुट में निर्माण प्राचीन जैन स्थापत्य कला का एक अद्वितीय प्रतीक होगा। रंगमंडप का 84.फुट ऊँचा शिखर गुरु वल्लभ की 84 वर्ष की आयु का द्योतक होगा। जैन शिल्प शास्त्र में लोहे को निकृष्ट धात माना गया है इसलिये इसका उपयोग वर्जित है। इस कारण समस्त निर्माण में इस धातु का उपयोग नहीं किया गया है। बंसी पहाड़पुर (आग्रा) की खानों में मिलने वाला संदर गलाबीरंग का पत्थर निर्माण में प्रयोग किया जाता है। इस पत्थर का एक खास गुण यह है कि सैंकड़ों वर्षों तक इस पर काई नहीं जमती और इस कारण इसपर की गई कारीगरी की सुंदरता बनी रही है। मुख्य भवन की नींव तथा तलधर (बेसमेन्ट) स्मारक भवन की नींव लगभग 8 फट गहरी है और हजारों टन पत्थर का वजन वहन करने की क्षमता के लिये नींव में 3-01 * 1-6" x 0-6" मोटी पत्थर की शिलायें बिछाई गई हैं। बेसमेन्ट की छत 14 फट ऊँची है और मुख्य डोम का वजन उठाने के लिये 2-6" व्यास के पत्थर के स्तभों का निर्माण 64 फुट व्यास की गोलाई में किया गया है। इन पिलरों को सदृढ़ करने के लिये 20" फुट व्यास के 16 और 3-0" x 2-6" साईज के 8 पिलरों का भी निर्माण किया गया है। बेसमेन्ट का कुल क्षेत्रफल मुख्य भवन के अनुसार ही 8938 वर्गफुट का है। बेसमेन्ट की 64 फुट व्यास की छत का निर्माण स्थापत्य कला का अनोखा उदाहरण है। 6" मोटी पत्थर की तीन पट्टीयों को पत्थर की ही रीगों से बांध कर टिकाया गया है और बीच में पद्मशिला (चाबी) लगाकर स्थिरता प्रदान की गई है। Jain Education international -CH . . . . FL.FINISH LVL. . For PrivatesPermanat the only. www.jainelibrary.orm Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोशनी और हवा के लिये 4-0" फुट मोटी पत्थरों की सीढी का निर्माण किया गया है जो भवन को भव्यता प्रदान करती पिलरों,बीमों और छत की कारीगरी दर्शकों को 1000 वर्ष पहले दिवाल में 22 खिड़कियाँ और 24 झरोखे रखे गये हैं। तलघर के है। प्रवेश मंडल में अत्यन्त आर्कषक कारीगरी के 12 पिलरों पर ही जैन शिल्प कला का दिगदर्शन कराती है। छतों की डिजाइनों चारों कोने में 20-00 x 20-0" के चार कक्षों का निर्माण किया 20-5" व्यास का जैन शिल्प की प्रसिद्धि "कोल-काचला" की में विविधता हैं जो अनायास ही चिन्न को आकर्षित करती है। गया है। फ्लोरिंग कोटा स्टोन से की गई है। डिजाइन वाले डोम का निर्माण किया गया है जो आबु के दिलवाड़ा उत्तर भारत में बेजोड़ इस भवन के मध्य में 64-0 फुट व्यास मंदिरों की याद दिलाता है। के भव्य रंगमंडप का निर्माण किया गया है जिसका शिखर 84-0 मुख्य भवन भवन में प्रवेश के लिये उत्तर और दक्षिण दिशाओं से भी दो फुट की ऊँचाई पर है। मुख्य डोम 2-0* व्यास के 26 पिलर और द्वारों का निर्माण किया गया है। जिसके लिये 13-67 चौड़ी 0-90 मोटी पत्थर की दीवाल पर निर्मित किया गया है। भवन बेसमेन्ट के ऊपर मुख्य भवन का निर्माण तीव्र गति से चल । सीढ़ियाँ बनाई गई है। इन दोनों मंडपों में 4 चोरस और 8 अष्ट तल के 19-0" फुट ऊँचाई पर 5-6° चौड़ी कलात्मक गैलरी का रहा है और प्रतिष्ठा से पहले ही डोम का निर्माण पूरा करने के लिये पहल वाले पिलरों पर और पत्थर की छत में भी आकर्षक और निर्माण किया गया है जिस पर प्रेक्षकों के बैठने की सुविधा होगी। प्रयत्नशील हैं। सुंदर कारीगरी की गई है। पूर्व, उत्तर और दक्षिण दिशा के प्रवेश गैलरी के ब्रेकेट, भेटासरा और भटनी की कारीगरी अत्यन्त भवन की प्लीन्थ 11-32 ऊँचाई पर है और पूर्व की तरफ मंडपों में तीन-तीन द्वार रखे गये हैं जिनकी शाखों पर सुंदर बेले चित्राकर्षक है। भवन में हवा तथा रोशनी के लिये प्रवेशद्वारों के मुख्य प्रवेशद्वार के लिय सुविधाजनक 25 फुट चौड़ी 29 स्टेपबाली खुदी हुई हैं। वस्तुतः मुख्य रंग मंडप में पहुँचने से पहले ही उपरान्त डोम में 45 खिड़कियां रखी गई हैं। JainEducation international For PrivatesPmonalitine Only www.jaitneliorary.om Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डोम का निर्माण जैन स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट जिवन्त मुंह बोलती प्रतिमा रंगमंडप की पश्चिम दिशा में जिन श्री वासुपूज्य प्रभु का चर्तुमुख जिन-प्रासाद उदाहरण है जो सबको आश्चर्यचकित करता है। इसके लिये मंदिर में विराजमान जगवल्लभ पार्श्वनाथ प्रभु प्रतिमा की आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरीश्वर जी शिक्षण संस्थाओं के पत्थरों की शिलाओं के गोलाई में 24 थर लगाये गये हैं जिनको छत्रछाया में एक भव्य पेडेस्टल पर सुंदर और कलात्मक मारबल निर्माण के साथ-साथ संस्कार बीज डालने के लिये जिन मंदिरों की पद्मशिला से स्थिर किया गया है प्रत्येक थर में 52 शिलायें हैं। के सिंहासन पर प्रतिष्ठित की जायेगी। यह प्रतिमा गुजरात के स्थापना भी आवश्यक मानते थे। उनके आदर्शों के अनुरूप सबसे पहले थर की प्रत्येक शिला 30x21" x 19" साईज की प्रसिद्ध मूर्ति शिल्पकार श्री कान्तिभाई पटेल द्वारा निर्मित की गई स्मारक भवन में ही पश्चिम भाग में (गुरु वल्लभ प्रतिमा पेडेस्टल है। जैसे-जैसे डोम की गोलाई उठती है वैसे-वैसे शिला की साईज है। । के पीछे) एक भव्य, कलात्मक तथा छोटा परंतु सुंदर चर्तुमुख छोटी होती जाती है। डोम के 12वें थर की ओर पद्मशिला की मंदिर का निर्माण किया गया हैं। मंदिर काक्षेत्रफल1515 व. फुट कारीगरी डोम का मुख्य आकर्षण है। पेडेस्टल के ऊपर डोल के साथ ही एक अत्यन्त आकर्षक बेसमेन्ट में चारों कोनों में जो चार कक्ष बने हैं उसी के ऊपर कमान का निर्माण किया गया है जो भव्यता प्रदान करती है। इस कमान पर सुंदर बेल की खुदाई की गई है। पेडेस्टल की फ्लोरिंग इस फ्लोर पर भी उसी साइज के चारों कक्षों का निर्माण किया इस जिनालय का शिलान्यास प.पूज्य साध्वी श्री मृगावती जी और उसके स्टेप्स गुलाबी रंग के संदर मकराना मारबल में । की शुभ निथा में ता. 21-4-1980 के दिन उदार दिल, परम गया है। निर्मित होगा। गरुभक्त और प्रसिद्ध उद्योगपति स्व. सेठ भोगीलाल लहेरचंद के इस भवन को फ्लोरिंग, तीनों तरफ की सीढ़ियों समेत परिवार के सदस्यों के वरद हस्तों से सम्पन्न हुआ था। मारबल की होगी। स्मारक भवन के मुख्य डोम, चार कक्षों के डोम और यह शिलान्यास स्मारक भवन के बेसमेन्ट के फ्लोर से 10 प्रवेशद्वार के कोल-काचला वाली डिजाइन के डोम के ऊपर फुट नीचे किया गया था। गर्भगृह के लिये शिलान्यास की सतह से गुरु वल्लभ प्रतिमा पेंडेस्टल जैन स्थापत्य कलानुसार सुंदर समारणों का निर्माण जो समस्त 42-5" की ऊँचाई तक ठोस ईंटों की चिनाई की गई है। यह जिस चरित्र नायक की याद में यह भव्य स्मारक का निर्माण निर्माण कार्य को भव्यता और सौम्यता प्रदान करेगें। सामरणों गर्भगृह का तल स्मारक के रंगमंडप के तल से 18-5" की ऊँचाई हो रहा है उस गुरु वल्लभ की 45" की सफेद बेदाग आरस की सहित भवन में दिखाया गया है। पर है। गर्भगृह के उत्तर और दक्षिण तरफ दो रंगमंडपों का निर्माण किया गया है। प्रत्येक की साईज 19-1" x 22-2" है। गर्भगृह 15-11" x 15-11" का है। प्रभु परिक्रमा के लिये दोनों रंगमंडपों को 3-0" चड़े सुंदर वरन्द्राओं से जोड़ा गया है। गर्भग्रह में जैनशिल्प शास्त्रानुसार आरस के पबासन पर 4 गदियाँ निर्मित की गई है जिन पर जैन विधिविधानुसार शासन देव-देवी आदि की मूतियाँ बनाई गई हैं। इन गद्दीयों पर 35" साईज की मुखमुद्रा वाली चार तीर्थंकरों की प्रतिमायें विराजमान की गई हैं। जिनका क्रम इस प्रकार हैं: दक्षिणाभिमुख - मुलनायक श्री वासुपूज्य प्रभु पूर्वाभिमुख - श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ प्रभु उत्तराभिमुख - श्री आदीश्वर प्रभु पश्चिमाभिमुख - मुनि श्री सवत स्वामी प्रभु चर्तमुख गर्भगृह में चारों प्रतिमाओं के सामने चार प्रवेश द्वार । बनाये गये हैं जिनकी कारीगरीदिलवाड़ा के मंदिरों की प्रतिरूप है। प्रतिमाओं के पीछे सुंदर भामंडल बनाये गये हैं जिन पर सुनहरी वर्क में अति आकर्षक खुदाई की गई है। प्रतिमाओं के ऊपर आरस के छत्र भी बनाये गये हैं। JainEducation international ForPrivateS.PermanelUCDnly. www Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारों प्रतिमाओं के बीच में आरस का सामरण भी बनाया 2. आचार्य श्री विजय समुद्र सूरीश्वर जी निर्माण कार्य का सुयोग्य निर्देशन शिल्पी श्री अमृतलाल भाई गया है जो पबासन को भव्यता प्रदान करता है। स्मारक भवन के बेसमेन्ट से जिनालय में जाने के लिये त्रिवेदी तथा श्री चंदु भाई त्रिवेदी निरंतर दे रहे हैं जिसको उनके स्मारक भवन के पूर्व तरफ के प्रवेश द्वार से ही जगवल्लभ रंगमंडपों तक दोनों तरफ सीढ़ियों का निर्माण किया गया है। सुपरवाईजर श्री विष्णु भाई सोमपुरा अत्यन्त लगन से कार्यान्वित पाश्वनाथ प्रभु के दर्शन होते हैं। भवन के रंगमंडप को भी इन्हीं सीढ़ियों से जोड़ा गया है। कर रहे हैं। स्मारक योजना में देहली स्थित आचींटेक्ट श्री सुरेश दोनों रंगमंडपों में चार सुंदर आले (गोखले) बनाये गये हैं गर्भगृह के शिखर पर जैन शिल्प शास्त्रानुसार सुंदर सामरण गोयल, श्री मनोहर लाल जैन तथा उनके सहयोगी श्री एस.एस. जिनमें 21 की गुरु प्रतिमायें विराजमान की जायेगी जिनका क्रम का भी निर्माण किया गया है। इसी पर कलश, ध्वज दंड और संधु का भी सराहनीय योगदान रहा है। इस प्रकार है: ध्वजा 10.2.89 के दिन प्रतिष्ठा के समय स्थापित किये जायेंगे। दक्षिण दिशा के रंगमंडप में : आचार्य भगवान श्री विजय इन्द्रदिन्न सूरि जी के आशीर्वाद यह विवरण अधुरा रह जायेगा यदि मैं श्री हर्षद चावड़ा तथा 1. अनन्तलाब्धि निधान गुरू गौतम स्वामी तथा महत्तरा जी की प्रेरणा एवम् आशीवाद का ही यह सुफल है श्री महेन्द्र सिंह ठेकेदारों और उनके कुशल कारीगरों का उल्लेख 2. आचार्य श्री विजयानंद सूरीश्वर जी कि समस्त निर्माण कार्य निविघ्न चल रहा है। प. पूज्य साध्वी श्री न करूं जिनके अनथक परिश्रम से यह महति कार्य समय पर पूरा उत्तर दिशा के रंगमंडप में : सुव्रता श्री जी, श्री सुयशा श्री जी तथा थी मप्रज्ञा श्री जी हो चुका है और 10.2.89 के शुभ दिन की प्रतीक्षा है जिस दिन 1. आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरीश्वर जी कार्यकर्ताओं को सतत् प्रेरणा देकर उत्साहित करती रही हैं। हमारे स्वप्न साकार होगें। anin Educatoo international FOPvate-spemonalise only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 चेतना के स्वर गणि नित्यानंद विजय वृक्ष कबहुँ नहि फल भरवै नदी न सञ्चै नीर। परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर साधु की सात्विक प्रवृत्ति का आधार उसकी हार्दिक भावकुता एवं निर्मलता होती है। दुखी जनों की दुखानुभूति का सम्प्रेषण सन्तपुरुष को सहज ही जाता है। उसमें कहीं कोई बाधा नहीं होती, मार्ग के समस्त बाधा नहीं होती, मार्ग समस्त बाधक तत्व सतोगुण के कारण नष्ट हो चुके होते हैं। ऐसे में सज्जन अपने करुणा, वात्सल्य और सहानुभूतिजन्य विचारों को विभिन्न विचारों को विभिन्न योजनाओं के माध्यम से कार्यरूप में परिणित करते हैं, तब वे हर क्षण मानव मात्र के कल्याणकी बात सोच पाते हैं, अन्यथा आज के इस मशीनी युग में मानव मशीनों की तरह इतना हृदयविहीन बन चुका है कि उसे दूसरों की कोई अनुभूति होती ही नहीं। यही कारण है कि जब भी किसी महापुरुष ने अपने असीम लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग को तैयार करने का प्रयत्न किया तो उस दौरान वह समाज के अधिकांश भाग द्वारा उपेक्षा, अपमान और अनादर सहता रहा। जीसस, मीरा, तुलसी, सुकरात आदि अनेकों इसके उदाहरण हैं। वस्तुतः होता यह है कि महात्माओं में दूसरों के कष्टों की अनुभूति के साथ-साथ एक ऐसी अनन्त दृढ़ता होती है कि वे अपने लक्ष्य से जरा भी नहीं डिगते Jain Education international चाहे उनके प्राण ही क्यों न चले जाएं, प्राणों की उन्हें कोई परवाह नहीं होती। वे शरीर की क्षणिकता और नश्वरता से परिचित होते हैं, इसलिए प्रत्येक पल को बहुमूल्य मानकर अहर्निश लक्ष्य साधन करते हैं। भारत भूमि सदैव से ही ऋषियों की, मुनियों की एवं महापुरुषों की धरती रही है। लोकोपकारी महात्माओं का जीवन परोपकार के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो हम पायेंगे कि प्रभु महावीर और गौतम इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। उन्होंने अन्य सिद्धांतों के साथ अहिंसा का सिद्धान्त समन्वित कर समाज सुधार के कार्यों में लगे जहाँ एक और तप, त्याग, संयम, क्षमा, दया और निःस्पृहता जैसे गुणों से स्वयं का जीवन उज्जवल, उच्च एवं प्राञ्जल रखा वहीं दूसरी ओर सामाजिक बुराईयों का अहिंसा के अमोघ अस्त्र से छेदन भी किया। परिणामतः समाज आन्दोलित हो उठा, एक क्रान्ति आ गई धर्म की, सामाजिक परिष्कार की धर्मग्रन्थ ही नहीं अपितु इतिहास साक्षी है कि प्राचीन काल से चली आ रही जैन संस्कृति में प्रभु महावीर का उदय एक ऐसे सहस्त्ररश्मि के रूप में हुआ कि जिसकी रश्मियों से आज भी हमारा पथ आलोकित है और उनके अनुयायी उनके बताए मार्गों पर चल रहें हैं। इन अनुगामियों में कई उद्भट विद्वान कई महातपस्वी कई विचारक, कई आगम-संशोधक तो कई महाज्ञानी हुए किन्तु इस तप, ज्ञान और विचारों की सीमा से भी आगे जाकर प्रभु महावीर ने जिस स्व के साथ पर कल्याण की, समाज सुधारक की बात की थी और तद्वत आचारण करने की बात कही थी, उन संयमी, समाजसुधारकों की परम्परा कोई बहुत लम्बी नहीं है। इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण, गुरुवल्लभ का जीवन और उनका आचरण है। गुरु वल्लभ एक साधु की समस्त मर्यादाओं का, नियमों का पालन कर आत्मा कल्याण करते रहे और साथ ही सामयिक चेतना का पाठ पढ़ाते रहे। उनके जीवन को लेकर विभिन्न विद्वानों, विचारकों, चितकों, मुनियों द्वारा लेख लिखे गए, शोध किए गए, पुस्तकें लिखी गई फिर भी ऐसा लगता है जैसे उनका आकलन अधूरा हो, अभी जैसे बहुत कुछ समझना शेष हो। उनका जीवन पढ़ने पर ऐसा विचार आता है कि क्या सचमुच कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य के प्रति इतना दृढ़ हो सकता है? क्या सचमुच मानव इतनी अगाध क्षमता और योग्यता वाला हो सकता है ? जिसके जीवन का एक-एक पल, जिसके आचार-विचारों का Poo Private & Personal Use Only एक-एक कण अनुकरणीय हो। मैं अपनी अल्पमति से विचार कर गुरु वल्लभ का एक स्वरूप बनाता हूँ जो शिक्षा प्रेमी का है, जो त्यागी का है, जो सच्चे वीतराग के उपासक का है, जो धर्म और जाति की सीमा से परे जाकर सबका कल्याण चाहने वाले का है किंतु, थोड़ी ही देर बाद उनके जीवन पर, उनके विचारों और सिद्धान्तों पर गहराई से विचार करता हूं तो लगता है कि गुरुदेव ने.. मानव मात्र की पीड़ा को पढ़ा था, दर्द को पहचाना था उसे अपने विचारों में समेटा था, चाहे समर्थक हो या विरोधी सबको एक ही पुस्तक से पाठ पढ़ाया था और वह पुस्तक थी अहिंसा की, प्रेम की, दया की, प्राणीमात्र के प्रति सद्भावना और समन्वय की। यही कारण है कि गुरुदेव जिस गांव या नगर में जाते लोगों के बीच, परिवारों के बीच, समुदायों के बीच फैले मनोमालिन्य और झगड़ों को दूर करने का प्रयास करते और सफल होते। वे जानते थे ये अज्ञान हैं, वे जानते थे ये सभी व्यर्थ ही ईश्वर प्रदत्त अद्भुत शक्तियों का अपव्यय कर रहे हैं, थोड़ी सी समझदारी में इस ऊर्जा का आत्मोत्थान में सदुपयोग किया जा सकता है। इसलिये गुरु बल्लभ जब तक जीवित रहे ज्ञान वृक्षों का रोपण करते रहे जिससे मानव के मन में प्रारंभ से ही सुंस्कारों के बीज अंकुरित हों, वह स्वयं को सुधारे धीरे-धीरे समाज में स्वयं सुधार होगा। आज गुरुदेव नहीं है किंतु उनके किये गए मानव कल्याण के कार्यों से चेतना के स्वर प्रस्फुटित हो रहे हैं और हम सभी को प्रेरित कर रहे हैं कि जो कार्य गुरुदेव ने किये उन्हें हम आगे बढ़ाएँ, जो समयाभाव या आयुष्यपूर्ण हो जाने के कारण अधूरे रह गए उन्हें पूरा करें। वल्लभ स्मारक अज्ञान तिमिर तरणि के ज्ञान गम्भीर व्यक्तित्व का उपयुक्त स्मृतिचिन्ह हैं। उनके विचारों की चेतना सदैव उनके भक्तों को सक्रिय बनाए रखेगी। आज स्वर्गस्थ, गुरुदेव की आत्मा प्रभु के मंदिर, भोगीलाल नेहरचंद शोधपीठ, साधु-साध्वी के उपासना गृह, औषधशाला, विद्यालय आदि से समृद्ध इस पूरे परिसर को देखकर अवश्य आह्लादित हो रही। होगी, और विचारती होगी कि ये मेरे भक्त यदि आज अपने सुप्रयासों से इस लक्ष्य तक पहुँचे हैं तो एकन एक दिन अवश्य उस पीड़ा का भी अनुभव करेंगे जो मैंने मध्यम और दीन परिवारों के उत्थान के लिए व्यक्त की थी, ये एक न एक दिन अवश्य मेरे जैन विश्वविद्यालय के स्वप्न को साकार करेंगे। www.jainalibrary Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्लभ स्मारक की प्रतिष्ठा की पावन घड़ी आ गई जिसकी एक भी बच्चा जब एक तक अज्ञानी या भूखा रहेगा तब तक यह चिरकाल से प्रतीक्षा हो रही थी। जिस गुरु की याद में यह स्मारक गोचरी आराम से कैसे गले उतर सकती है। उद्योग धन्धों के बिना बनाया गया है वे गुरू भी एक महान् हस्ती थे। आओ जरा उस गुरु बेकार बनी हुई जैन जनता की बेकारी दूर करूँगा उसको सुखी की जीवन ज्योति की कछ किरणों को लेकर अपने जीवन को बनाने का प्रयत्न करूँगा। लक्ष्मी नन्दनों का ध्यान सामान्य जनता प्रकाशित करें। के दुख दूर करने की तरफ आकर्षित करूँगा। गुरुदेव ने अपने बड़ौदा का छगन, माता के वचनों पर मग्न बन कर, आत्म जीवन की अन्तिम घड़ी तक अपने निर्णय को पूर्ण करने का प्रयास का वल्लभ बन कर जग का वल्लभ बन गया था। करने का प्रयत्न किया। आज सभी प्रयत्नों का मधुर फल खा रहे हैं। यह भारतवर्ष महापुरुषों का देश है। इस विषय में संसार का है। कोई भी देश या राष्ट्र भारत की तुलना नहीं कर सकता। यह आचार्य श्री जी का जीवन सूत्र था कि एक साथ मिलकर बैठो, अवतारों की जन्मभूमि है, सन्तों की पुण्यभूमि है, योगियों की योग विचार विनिमय करो, जो निर्णय हो उसे आचरण में लाओ। भूमि, वीरों की कर्मभूमि और विचारों की प्रचार भूमि है। यहाँ गुरुदेव समाज कल्याण हेतु अपने शरीर को कष्ट देते थे। संयम अनेकों नररत्न, समाजरत्न, धर्मरत्न, राष्ट्ररत्न तथा देशभक्त और क्रिया में सदैव सजग रहते थे, अभिमान तो उनको छ भी नहीं पैदा हुए हैं जिन्होंने मानव मन की सूखी धरती पर स्नेह की सर पाया था। महान पुरुषों का जीवन अनेकों विशेषताओं से अलकत सरिता प्रवाहित की, जन मन में संयम और तप की ज्योति जगाई, होता है। ऐसी ही करुणा की साकार मूर्ति, प्रेम, दया, क्षमा, समता की दिव्य फल का सौरभ फल के साथ ही रहता है, चन्द्रमा की प्रतिमा, श्रमण संस्कृति के ज्योर्तिमान नक्षत्र पंजाब केसरी आचार्य शीतलता उसके साथ ही रहती है सूर्य का प्रकाश और तेज उसके विजय वल्ल्भ सूरीश्वर जी म. थे। उनकी महानता और साथ ही बंधे रहते हैं परन्तु महापुरुषों की गुण सुगन्ध उनके साथ चमत्कारिक जीवन का कहां तक वर्णन किया जाए, मेरी जिह्वा तो रहती ही है कितु जब महापुरुष इस धरती से अपनी साधन में इतनी क्षमता कहाँ? जिस पर आपकी दृष्टि पड़ जाती थी उसकी और कर्तव्य का पालन करके चले जाते हैं तो उनके जीवन का आधि-व्याधि सब नष्ट हो जाती थी। आपकी वाणी में मधु का मौरभ युग-युगान्तरों तक संसार को सौरभान्वित करते रहते हैं। माधयं या, आँखों में आलोकिक तेज था, जीवन में संयम तथा ऐसा ही जीवन था गरु बल्लभ का। वे युगपुरुष और यगद्रष्टा थे साधना की चम्बकीय शक्ति का पूर्ण तथा निवास था, जो भी एक साथ ही यगवीर भी थे। उनकी वाणी में युग की वाणी बोलती थी, -साध्वी प्रगणा श्री बार आपके दर्शन कर लेता था वह सदा के लिए आपका हो जाता उनके चिन्तन में युग का चिन्तन चलता था। अपने कार्यों के द्वारा था। तभी तो किसी कवि ने कहा है कि: वे जन-जन के वल्ल्भ बन गए थे। तभी तो आज भारत की राजधानी दिल्ली में उनकी स्मृति में विशाल स्मारक बन कर कितना प्यारा नाम है वल्लभ, कितना सुन्दर बना है जो भी निकलता श्री मुख से वही पूर्ण हो जाता था, तैयार हो रहा है। वल्लभ स्मारक। ऐसी मधुर मनोहर वाणी जो सुनता वो हर्षाता था, वल्लभ के मिशन की पूर्ति करने वाला वल्ल्भ स्मारक, दिव्य तेज ही कुछ ऐसा था कि संसार झुक जाता था, हम सभी गुरु भक्त कहलाते हैं। तभी हम गुरुदेव के सच्चे जन-जन की श्रद्धा का केन्द्र है बल्लभ स्मारक, आपकी तेजोमय आभा के आगे रविमंडल भी शरमाता था। अनुयायी कहला सकेंगे जबकि हम उनके आदशों पर उनके बल्लभ के नाम को अमर करने वाला है वल्लभ स्मारक, गुरुदेव की भावनाः-सचमुच आचार्य श्री जी ने अपना सम्पूर्ण पर चरणचिन्हों पर चलंगे। गुरुदेव तो जैन शासन के कोहिनूर हीरे बल्लभ की याद दिलाने वाला है बल्लभ स्मारक, जीवन संघ और समाज के लिए समर्पित कर दिया था। गुरुदेव थे। यद्यपि मेरे इन नयनों ने गुरुदेव का दर्शन नहीं किया फिर भी ज्ञान ध्यान और मौन की साधना कराने वाला है वल्लभ स्मारक, कहा करते थे कि "मैं अपने प्राण देकर भी अज्ञान के अन्धकार को माधना की उस महान् विभूति के सम्बन्ध में जो कछ पढ़ा एवं जैन भारती मृगावती श्री जी म. के प्रयासों का सफल है । दूर करने के लिये कालेज, स्कूल, गुरुकुल, पाठशाला साला मना है उसी के आधार पर अपने कुछ श्रद्धा सुमन प्रस्तुत किए है। बल्लभ स्मारक, खुलवाऊँगा, विश्व विद्यालय की ज्योति जलाऊँगा, सम्प्रदायों में अन्त म...... विश्व की प्रसिद्ध वस्तुओं में विश्व विश्रुत बना है भेद डालने वाली दीवारों को भमिसात करूँगा, उपाश्रयों के बाहर चुप है लेकिन सदियों तक गूंजेगी सदा ए साज तेरी, वल्लभ स्मारक भी महावीर के सन्देश को पहँचाऊँगा, नवकार मन्त्र बोलने वाला दनियां को अन्धेरी रातों में ढाढ़स देगी आवाज तेरी। "गुरु वल्लभ और वल्लभ स्मारक" in Education International For Private & Personal use only / Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व विश्रुत वल्लभ स्मारक प्रियधर्मा श्री ATMA TIMErrrrr दिल्ली में निर्माणाधीन वल्लभ स्मारक से शायद ही कोई चतुर्थ-महत्तरा साध्वी श्री मृगावती श्री जी महाराज। जिन्हें अपरिचित होगा। दिल्ली और वल्लभ स्मारक मानों एक ही लड़ी बड़ौदा साधु साध्वी सम्मेलन में पूज्य समुद्र सरि जी म. सा. ने की कड़ी में पिरोये हुए हो। क्या कोई ऐसा जैन होगा जो दिल्ली अन्य की अपेक्षा अधिक योग्य और सक्षम जानकर दिल्ली जाकर जाये और वल्लभ स्मारक की भूमि का स्पर्श न करें? वल्लभ स्मारक बनवाने के लिए आदेश दिया। साध्वी मृगावती श्री जी ने कहा-"गुरुदेव! मेरे में ऐसी कोई भी योग्यता एवं भले ही गुजरात, राजस्थान, सौराष्ट्र महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, सामर्थ्य नहीं है फिर भी आप श्री जी कृपा दृष्टि प्रेरणा एवं पंजाब आदि अनेक स्थलों पर पूज्य वल्लभ सूरीश्वर जी म. सा. आशीर्वाद मेरे साथ होगा तो अवश्यमेव आप श्री जी की अन्तरंग की अनेक स्मृतियाँ हैं परन्तु यह विशाल भव्य अनुकूलतायुक्त भावना को पूर्ण करने का प्रयास करूंगी।" आचार्य भगवंत की रमणीय, कमनीय स्मारक विश्व भर में अद्वितीय है। इसलिए इसे आज्ञा शिरोधार्य कर साध्वी जी म. अनेकानेक कष्टों को समता विश्व विश्रुत कहा जाए तो कोई अव्युक्ति नहीं होगी। भाव से सहते हुए सब इस भव्य स्मारक के निर्माण में अपना वल्लभ स्मारक के साथ चार महान विभूतियों की स्मृतियाँ जीवन समर्पित कर दिया। भले ही आज वे हमारी दृष्टि से ओझल श्रृंखला रूप में जुड़ चुकी हैं। प्रथम, पंजाब केसरी कलिकाल हो चुके हैं किंतु काश! इस प्रतिष्ठा के सुअवसर पर हमारे बीच कल्पतरु आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म. सा. जिनका होते तो कितना अच्छा होता। किंतु भवितव्यता ही ऐसी थी। भव्य स्मारक बनाया जा रहा है। जिनके उपकारों से कोई भी जैन हमें कई बार वल्लभ स्मारक जाने के सुअवसर मिलते रहे। विशेषरूपेण पंजाबी भक्त कभी उऋण नहीं हो सकते। द्वितीय, सचमुच वहाँ का वातावरण अत्यधिक रमणीय, शान्त एवं राष्ट्रसन्त शान्ततपोमूर्ति पूज्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वर जी आह्लादकारक है। स्वाध्याय, ध्यान एवं आत्मिक शांति का म. सा.। जिनके हृदय में तीव्र तमन्ना थी कि भारत एवं विशाल केन्द्रस्थल है। जिन मन्दिर गुरुमन्दिर, पद्मावती माता का स्मारक बनना चाहिए। तृतीय-परमार क्षत्रियोद्वारक चरित्र मन्दिर समाधिस्थल उपाश्रय भोजनशाला पुस्तकालय आदि चड़ामणि, जैन दिवाकर, तपोनिधि, आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सरि अनेक स्थलों का निर्माण हो चुका है। अनेकानेक कार्यों का निर्माण जी म. सा.। गतवर्ष जिनके स्मारक प्रवेश के समय आधुनिक अभी चल रहा है। स्मारक की चर्चा करते हुए उसके कार्यकर्ता, भामाशाह थी अभयकुमार ओसवाल ने धर्म के सातों क्षेत्रों के बुद्धिशाली, सूझ-बूझ के धनी उदार गुरुभक्त भाई राजकुमार जी सिंचन के लिए सौ लाख का दान दिया और उन्हीं आचार्य श्री की को भुलाया नहीं जा सकता जो रात-दिन स्मारक निर्माण के कार्य निश्रा में अंजनशलाका प्रतिष्ठा हो रही है। में जुटे हुए हैं। mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm जगता का शिक्षक मेरे अन्तर्मन के तम को, अपनी आभा से दूर भगा। शशि किरणों सी शीतल वाणी, से ज्ञानामृत का पान करा।। मेरे विवेक बुद्धिबल को कर दे प्रेरित त पल भर में। मनसा-वाचा मैं पुण्य करूं, गण गाऊँ तेरा जग भर में।। तेरी निर्मल यशगाथाएँ, अभिलाषाएँ हैं मुखर यहाँ। संस्कृति सिखाता है जगती को, वल्लभ स्मारक है खड़ा नया।। हे विश्वशान्ति के सूत्रधार! हे ऐक्य नीति के सृजनहार! हे युगदृष्टा ! हे युगवल्लभ! है बार-बार तुझको प्रणाम।। आरआर S MRIKSHET For Private &Personal use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 विजयवल्लभस्मारक में "भोगीलाल लेहरचंद भारतीय संस्कृति संस्थान' - नरेन्द्र प्रकाश जैन यह संस्था भारतीय विद्याओं विशेषतः जैन विद्या के अध्ययन एवं शोध का अनुपम केन्द्र है। भारत की राजधानी दिल्ली में स्थित इस शोधपीठ का मुख्य लक्ष्य है। वैदिक, बौद्ध, जैनादि विभिन्न भारतीय परम्पराओं की संस्कृति का तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक अध्ययन करना है। इसी लक्ष्य की सिद्धि हेतु यहां अध्ययन अध्यापन और अनुसंधान की समुचित व्यवस्था की गई इस शोध पीठ की स्थापना सन् 1980 में पाटण (गुजरात) में श्रेष्ठिवयं श्री प्रताप भोगीलाल ने अपने पूज्य पिता स्व० श्री भोगीलाल लेहरचन्द जी की पुण्य स्मृति में करवाई थी। सेठ श्री भोगीलाल लेहरचन्द एक प्रसिद्ध उद्योगपति तथा बम्बई व्यावसायिक समाज के प्रमुख व्यक्ति थे। उनमें लोक-कल्याण की भावना थी ही, शिक्षा के प्रति भी विशेष लगाव था। यह शोध संस्था उन्हीं महान व्यक्ति के नाम से प्रारम्भ की गयी है। राजधानी में अब संरचनात्मक तथा विद्वानोचित सुविधाएं अपेक्षाकृत अधिक सरलता से प्राप्त हो सकती है इसलिए परमपूज्य साध्वी महात्तरा श्री मृगावती जी महाराज ने दिल्ली के बल्लभ स्मारक स्थल पर ऐसी ही एक शोध-संस्था बनवाने की इच्छा प्रकट की। उनकी इस भावना से प्रेरित होकर सेठ श्री प्रताप भोगीलाल ने पाटण में स्थित शोध-संस्था को दिल्ली में पुर्नस्थापित करा दिया तथा इसके in Education International For Private & Personal use only www.janelibrary.org Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचालन के लिए 21 लाख रुपये का सराहनीय अनुदान दिया। की है जिनमें श्री कौशिक भाई,बम्बई, श्री पृथ्वीराज जैन बम्बई, विद्वानों ने भाग लेकर अपने-अपने सुझाव दिए और वर्कशाप यहां वल्लभस्मारक में अतिथिगृह के भूतलघर में स्थित इस पं० बेचरदास दोशी, श्री शिखिर चन्द कोचर, बीकानेर, श्री (कार्यशाला) को सफल बनाया। संस्था का संचालन श्री आत्मवल्लभ स्मारक शिक्षण निधि तथा मनोहर लाल जैन, प्रीतमपुरा, दिल्ली, डॉ० रमण लाल सी शाह भोगीलाल लेहरचन्द फाउन्डेशन, बम्बई के संयुक्त तत्वाधान में बम्बई, श्री राजकुमार जैन दिल्ली बनारस श्री रमण लाल 2. संगोष्ठियाँ - किया जा रहा है प्रो० नीलरत्न बैनर्जी, मशरूबाला दिल्ली आदि प्रमख हैं। संगोष्ठियों का आयोजन करना नियमित गतिविधि है। अब किसी भी देश व समाज की सभ्यता और संस्कृति को जानने प्रकाशित पुस्तकों के विशाल संग्रह के साथ-साथ इस तक संस्था की ओर से तीन संगोष्ठियों का आयोजन किया जा चुका के लिए वहां के साहित्य और कलाओं के विकास का इतिहास संस्थान में धर्म, दर्शन, साहित्य, ज्योतिष, व्याकरण आदि जानना आवश्यक है। इस कार्य में पुस्तकालय और संग्रहालय विभिन्न विषयों से सम्बन्धित लगभग 12000 हस्तलिखित ग्रन्थ 1. आचार्य हरिभद्र सूरि (1)-27-28 सितम्बर, 1986 अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इसीलिए इस संस्थान में भी संग्रहित हैं। इस बहुमूल्य ग्रन्थ भंडार का अधिकांश भाग 2. अर्हन पार्श्व विद् धरणेन्द्र इन लिटरेचर, इन्सक्रियशेस एण्ड आर्ट-21-24 मार्च, 1987 प्राचीन हस्तलिखित एवं प्रकाशित पुस्तकों का संग्रह कर एक गुजरांवाला (पाकिस्तान) से मंगवाया गया है जोकि विभाजन के विशाल पुस्तकालय स्थापित किया गया है तथा एक लघु समय वही रह गया था। इसे वहां से मंगवाने के लिए स्वर्गीय सेठ 3. आचार्य हरिभद्र सूरि (2)-25-27 सितम्बर 1987 इनमें से संग्रहालय की स्थापना की गई है। कस्तूर भाई लाल भाई जी ने उच्चतम स्तर पर विशेष परिश्रम "आचार्य हरिभद्र सूरि पर जो संगोष्ठियाँ की गई हैं उनका __भोगीलाल लेहरचन्द भारतीय संस्कृति का मुख्य आकर्षण किया था।.. नेतृत्व दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रमुख विद्वान प्रो० प्रेमसिंह जी ने किया था। उनका उद्घाटन क्रमशः प्रो० लोकेश चन्द्र उसका विशाल पुस्तकालय ही है जिसमें धर्म, दर्शन, साहित्य, महत्तरा साध्वी श्री मृगावती की निश्रा में साध्वी सुव्रता श्री और प्रो० इरफान हबीब द्वारा किया गया। अर्हन् पार्श्व पर इतिहास और संस्कृति से सम्बन्धित संस्कृत, पालि, प्राकृत, जी महाराज सुयशा श्री जी महाराज तथा सुप्रज्ञा श्री जी महाराज आयोजित संगोष्ठी बनारस के प्रसिद्ध विद्वान प्रो० मधुसूदन अपभ्रंश, हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, उर्द, पंजाबी आदि विभिन्न ने संस्था में संग्रहीत हस्तलिखित ग्रन्थों के सूचीकरण का कार्य ढाकी के नेतृत्व में की गई और उसका उद्घाटन श्रीमती देशी भाषाओं तथा जर्मन, फ्रेंच, तिब्बती आदि विदेशी भाषाओं प्रारम्भ किया था। हस्तलिपि-विशेषज्ञ पं० लक्ष्मण भाई भोजक कपिला वात्सयायन ने किया। तीनों ही संगोष्ठियों में की लगभग 14000 प्रकाशित पुस्तकों का संग्रह है। यही नहीं यहां के मार्गदर्शन में यह महत्वपूर्ण कार्य सुचारू रूप से चल रहा है। देश-विदेश के अनेक विद्वानों ने भाग लिया। विभिन्न प्रकार के कोशों, विश्व कोशों तथा अनेक सुयशा श्री जी दिन रात इस कार्य में जुटी हुई हैं लगभग 12000 पत्र -पत्रिकाओं का संकलन भी किया गया है। यह पुस्तकालय ग्रन्थों को विषय के अनुरूप वर्गीकृत करके उनके काई बना दिए 3. व्याख्यान माला विद्वानों के लिए जितना उपयोगी है उतना ही सामान्य व्यक्ति के गए हैं। उनको सुरक्षित रखने के लिए उन्हें अल्यूमी नियम के संस्था के शैक्षणिक कार्यों में व्याख्यान मालाओं का आयोजन लिए भी लाभकारी सामग्री प्रस्तुत करता है। यहां जैन धर्म, डिब्बों में बन्द करके रखा जाएगा ताकि आने वाली पीढ़ियों को भी प्रारम्भ किया गया है जिनमें जैन विद्या से सम्बन्धित विषयों दर्शन, साहित्य और इतिहास का सामान्य ज्ञान कराने वाली सरल शोध कार्य में समुचित एवं महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हो सके। पर विशिष्ट विद्वानों द्वारा व्याख्यान दिए जाते हैं। इस व्याख्यान पुस्तकों तथा आध्यात्मिक ग्रन्थों का संग्रह भी किया गया है ताकि संस्थान की विभिन्न गतिविधियां माला का नाम भोगीलाल लेहरचन्द के नाम से रखा गया है ताकि सभी प्रकार के व्यक्ति लाभ उठा सकें। उनके द्वारा संस्था के प्रति दिए गए योगदान का सम्मान किया जा "तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक अध्ययन के लिए सके। "भोगीलाल लेहरचन्द मैमोरियल व्याख्यान माला" के संस्था के इस पुस्तकालय को समृद्ध बनाने में अनेक संस्थाओं कार्यशाला संगोष्ठियों एवं व्याख्यान मालाओं का आयोजन करना आयोजन का कार्य 24-25 सितम्बर, 1988 को प्रारम्भ किया ने अपने-अपने ग्रन्थ भंडारों की पुस्तके दान देकर महान कार्य संस्था की महत्वपर्ण गतिवधियां हैं। संस्थान की ओर से अब जो गया जिसमें प्रो० शान्ताराम बालचन्द्र देव (अवकाश प्राप्त एव किया है। यथा श्री आत्मवल्लभ स्मारक शिक्षण निधि, दिल्ली, आयोजन किए गए हैं उनका विवरण इस प्रकार है :- भूतपूर्व निर्देशक, डकैन कालेज, पोस्ट ग्रेजएट रिसर्च इन्स्टीट्यूट, श्री महावीर जैन पुस्तकालय, बम्बई, श्रीसंघ भंडार, पूना) ने साधु-साध्वियों द्वारा अंगीकृत जैन आधार विषय पर तीन मालेरकोटला, श्री जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक संघ, बडौत 1. कायशाला महत्वपूर्ण व्याख्यान दिए। श्री आत्मानंद जैन सभा, बम्बई, श्री प्रवचन पूजक सभा, श्री भारत में जैन विद्या का प्रचार-प्रसार कैसे हो? इस विषय में शांतिनाथ जैन देवालय, बम्बई, आचार्य श्री मनोरथराम विद्वानों के विचार जानने के लिए संस्था की ओर से 4-5 अगस्त, 4. छात्रवृत्तिया रामसनेही साहित्य शोध संस्थान, दिल्ली, श्रीसंघ बिनौली, तथा 1985 को एक कार्यशाला का आयोजन प.पू. साध्वी मृगावती श्री जैन विद्या से सम्बन्धित विषयों का अध्ययन करने तथा शोध दूतावास, जर्मन गणतंत्र संघ दिल्ली आदि। इनके अतिरिक्त जी म. के सानिध्य में किया गया, जिसका विषय था "डायेरक्शन्स कार्य करने वाले छात्रों को संस्थान द्वारा विभिन्न प्रकार के अनेक लोगों ने व्यक्तिगत रूप से भी कुछ पुस्तकें संस्था को भेंट फोर जैनालाजिकल स्टडीज इन इंडिया"। उसमें देश के विभिन्न छात्रवृत्तियां दी जाती हैं। उदाहरण के तौर पर बी.ए. (आन Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत में आकृत तथा जैन विद्या का अध्ययन करने के इच्छक (5) स्यादवाद रत्नाकर। छात्र-छात्राओं को 150 रु० प्रतिमाह छात्रवृत्ति देने की (6) जैन साहित्य का इतिहास। व्यवस्था है। एम.ए. में जो छात्र-छात्राएं जैन दर्शन और आकृत (7) वैदिक ग्रन्थ माला (30 भाग) लेकर अध्ययन करते हैं उन्हें 250 रु० प्रतिमाह छात्रवृत्ति दी जाती है। इसी प्रकार एम.फिल. तथा पी.एच.डी. की उपाधि हेतु 7.लिपिज्ञान प्रशिक्षण जैन विद्या पर शोध कार्य करने वाले छात्रों को क्रमशः 400/___हस्तलिखित ग्रन्थों पर शोध कार्य संपादन तथा अनुवाद कार्य माता-पिता से रु० व 600/- रु० प्रतिमाह छात्रवृत्ति दी जाती है। करने हेतु हस्तलिखित ग्रन्थों की लिपि का ज्ञान लेना आवश्यक है। इस उद्वेश्य से संस्था ने समय-समय पर पं. श्री लक्षमण भाई इन छात्रवृत्तियों के रूप में दी जाने वाली धनराशि जिस बालक का हृदय कोमल और निर्दोष होता है. उसमें भोजक जी की सहायता ली है। सन् 1983-84 में महत्तरा साध्वी सुसंस्कारों का सिंचन करोगे तो भविष्य में तुम्हें व्यक्ति या संस्था द्वारा दी जाती है उसका नाम संस्था के नाम के उसकी छाया शीतलता प्रदान करेगी। श्री मृगावती जी ने अपने साध्वी मंडल सहित इस लिपि का साथ जोड़कर दिया जाता है। प्रशिक्षण प्राप्त किया था। उसके पश्चात् साध्वी सुयशा श्री जी 5. 'शोध कार्य और सुप्रज्ञा श्री जी, शोध सहायिका डॉ. अरुणा आनन्द तथा सवाल नाक का संस्थान में शोध कार्य हेतु कार्य करने वाले विद्वानों को। पुस्तकालय सहायक श्री अभयानंद पाठक ने भी जन 1986 तथा लोग नाक रखने के लिए सब कुछ करते हैं। मैं पूछता शिक्षावृत्ति देने का प्रबन्ध भी किया गया है। डॉ०(क.) अरुणा मार्च 1988 में पं. श्री लक्षण भाई भोजक जी से लिपि ज्ञान का हूं कि हाथी से बड़ी नाक किसकी है? है कोई लाभ आनन्द ढाई वर्ष से नियमित रूप से शोध-सहायक के पद पर कार्य प्रशिक्षण प्राप्त किया। उससे? क्या आपने कभी गरीब-गुरबों का ख्याल कर रही है। अप्रैल, 1988 से बनारस के डॉ० उमेश चन्द्र सिंह भी 8. शोध कार्य किया है। शोध सहायक के रूप में संस्थान की ओर से शिक्षावृत्ति ग्रहण कर रहे हैं। संस्थान की ओर से इनके शोध प्रबन्धों को प्रकाशित आगमों एवं श्रेष्ठ जैन ग्रन्थों का संपादन, पाठनिर्धारण, करने की व्यवस्था की जायेगी। अंग्रेजी व हिन्दी भाषाओं में अनुवाद, पी.एच.डी. अथवा डी.लिट, धनवान की उपाधि हेत् पुस्तक शोध प्रबन्धों का प्रकाशन, तुलनात्मक धनवान धन को तिजोरी में रख कर लोहे का टुकड़ा 6. प्रकाशन अध्ययन, लिपिज्ञान प्रशिक्षण, शोध पत्रिका व पाठ्य पुस्तकों का संस्थान की ओर से अब तक सात ग्रन्थों का प्रकाशन किया प्रकाशन आदि संस्थान की विविध योजनाएं हैं। अपने पास रखता है। जा चुका है। भविष्य में अन्य अनेक ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना 9. साधु साध्वी प्रशिण केन्द मेरा दृष्टिकोण भी संस्था द्वारा बनाई गई है। अब तक प्रकाशित गन्थ की सूची इस प्रकार हैं:- पंचसूत्र, स्टडीज इन संस्कृत साहित्य शास्त्र, साधु-साध्वियों के अध्ययन के लिए उच्चस्तरीय अध्ययन मैं यह नहीं कहता कि जैन धर्म के सभी सम्प्रदायों का जैन भाषा दर्शन, रस थियोरी, गाहाकोश (हाला द्वारा रचित), प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किया गया है। विलीनीकरण हो जाये। ऐसा होना दुःशक्य है। जैन धात प्रतिमालेख संग्रह (पाटण) और प्राकृत बसिस इन 10. संग्रहालय किन्तु परस्पर समन्वयीकरण तो होना ही चाहिए। संस्कृत वर्क्स ऑन पोयटिक्स (भाग-2)। वास्तुकला, मूर्तिकला और चित्रकला किसी भी देश व समाज कम से कम विचार-आचार की सहिष्णुता रखकर इस वर्ष अनेक अन्य पुस्तकों के प्रकाश की योजना है जिनके । की सभ्यता और संस्कृति का अनिवार्य प्रतीक है इसलिए जैन एकीकरण तो अवश्य होनी चाहिए। यही वर्तमान नाम है: सभ्यता व संस्कृति के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए एक युग की मांग है। जैन एकता के पीछे मेरा यही (1) "आचार्य हरिभद्र" संगोष्ठियों में पठित लेख। ऐसा संग्रहालय तैयार करने की योजना बनाई गई है। जिसमें | दृष्टिकोण है। (2) अर्हन् पार्श्व संगोष्ठी में पठित लेख प्राचीन कलाओं, लिपियों और शिल्पों के विभिन्न नमूनों का संग्रह -विजय वल्लभ सूरि (3) मुनि न्यायविजय द्वारा लिखित (गुजराती) जैन दर्शन का . किया जाएगा। कुछ विशिष्ट हस्तलिखित गन्थों के नमूने भी रखें अंग्रेजी अनुवाद जायेंगे। यही नहीं माइक्रो फिल्म की व्यवस्था भी की जायेगी। (4) आचार्य श्री बल्लभ सूरीश्वर जी महाराज एवं महत्तरा अभी अनेक प्राचीन मूर्तियों तथा विशिष्ट हस्तलिखित प्रतियों को साध्वी जी मृगावती जी महाराज का व्यक्तित्व। संग्रह कर लघु संग्राहलय बनाया गया है। Jain Education Interational Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anmumpinissaniningnenuperNETRingroutinue channmegtandsons CUD2EROUNCle ISHEDIEShar RagisthigureignIS A REERSHISHIRTALE -दिवसकसमाविल्यामरमा याय मनिमविलाथापालाकानागमणकामका नाराममयमय नवराभिरामा मामायामा तथायिलर मारवायानामनिवासीसमवासिगावा नारसबमियादिहामवादिकाया स्वतमन्यागामायाकरिता -मिला। जायकमहासंमिशावमिती. सायम -fronunHAR चानपया विगतमा पगियाना उदयनियति मानविन सामानिमय जलाग्या Sineupatanarmusined... ராயன்னாலே AURA HEATRENA Times PIRENDRUPEESRECE Ame LungiDunjaliMHIREEThanapale i ECRUITMEtatioesesenterpr impoयामानावयासका यादवमायावावाचावनियाखकसमारो। समिक्षावमवमहाशिलासादारमान मवासिगण्यामिळायोग वनायकमायापावास रागसमागमायामित सालमा सदाहमियामायाननगारिमण्यममिया मिजायलाHिD मंगुनियामाटापावास जागाजामायाणा यसमामासाटनमा समाखमानिसमानियकायालयाशमानकापसामा s utirsana मामनिवार कालिदासामिाशिमा वजययल्ल l यशपालनामिणविमतिका नामसालिमा காபோ SITE यात ineypre सायिधामा S जैन ज्ञान भंडार वनविकासमानियाममाया वाक्षिणमामा -मायामिया जारापाय। httle यमिालमऊगपमिशि दिमागमायामा अयनवायारियंसाकामा नावमलपसागुममश्रणमा Linbicmessage PERALDIDILEESHEERI SecurasRBIEARNE नानारावासकामा लामाजियामामा शवासतिगायकांछना कादियायालयालारमामयदमन छापामासावितव्यामोमामीटगाने सायावर 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घावदमवसंवादालतमालामाल छारमारनामागसामकिंमयस्यमयंक मोकणवाय कियाफक्रिगनिविद्याकि बालदिमाणसाशकियानिय यवमादितादवमिहिमानिट गाभिरामदाससाखतानाशायपियशवक कामाग्रिडकमसमाजगालामाल पविंदावन -MESHEETIDADunteere हावित माना MacintresturinraejejanReaSane, RotainmeetiegnetSLIDERESTENDIRAIL 4. मयामवद्यालयामनातकी SHIOसयामापटियालायकाम नाजायमानमधासादिनम्ज। मारकालापारमारथाटामा पासकासबानागमवक्रीवागमारायनित गालावंचायतकामम: सवाशिमन्त्रिधाराका मालाबाकसंरक्षाकावरत नापतितकामगव्याणकायाकामवद्यमा सवालायमनकामागासवतावाला AMBER copemang (खामद किमयांत मिडतिमि सामादिशा मायामाला मिया NAanale समग्रमामागविध याणामदिवाणपिया कायद्यापीमायाकलापमनगागकावण्यासिटाणामतिमाता गाजतप्रियागादयायायमध्याकाम्नेयरमायामागक Paninidicaton international R omam गर्मलगनिकासमंगलगवेमक्षायोगसचाबाद श्वावादे निसलागारवरियाशीलकलासागशमार यमचा सरमाया फासासुगमवरकसमचनसय वरशकॉलममय कागरा नदीरमाणविज्ञानधार गावालहमतिलायमानिकास लामालानियारणामयानIRGE Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व इतिहासः - परमपूज्य 1008 श्री विजयानंद सूरीश्वर जी महा. सा० ने एक स्वप्न संजाया था कि पंजाब के जुदा-जुदा ग्रामों में रखे हुए हस्तलिखित पुस्तक भंड़ारों को एक स्थान में एकत्र किया जाए। उनकी इच्छानुसार पंजाब केसरी पं. आ. विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महा. ने बहुत से शहरों के ग्रन्थो गुजरांवाला में एकत्र किए थे। और ज्ञानमंदिर लाहौर में बनवाने की धारणा थी। भारत का विभाजन हुआ और गुजरांवाला पाकिस्तान में चला गया। जैनभाई विकट स्थिति में आ गए परन्तु गुजरांवाला के श्री संघ के भाईयों ने जिस कमरे में पुस्तकें थी उसके आगे पक्की दीवार बनवा दी। और गुजरवाला छोड़कर आ गए। इस दीवार के पीछे कोई कमरा है, किसी को खबर भी नहीं पड़ती थी। कितने वर्षो बाद शांति हुई। पाकिस्तान सरकार की परमिशन लेकर सेठ कस्तूरभाई लाल भाई तथा गवर्नर श्री धर्मवीर के सहयोग से गुजरांवाला में दीवार तोड़कर पुस्तकों की 56 पेटियां दिल्ली रूपनगर मंदिर में लायी गई। सन् 1954 में पू. आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि जी महा. बम्बई में कालधर्म को प्राप्त हुए। उस समय पू. सा. श्री शीलवती जी महा. सा., पू. सा. श्री भृगावती श्री जी महा. तथा सा. सुज्येष्ठा श्री जी महा. अंबाला में थे। उन्होंने गुरु महा के भव्य स्मारक बनवाने का श्री आत्मानन्द जैन महासभा में निर्णय करवाया और उन्होंने इस कार्य के लिए गांव गांव में भ्रमण करके सुन्दर वातावरण बनाया और लगभग 40,000 (चालीस हजार) रु. का फंड भी एकत्रित करवाया जो रूपनगर में लाई गई पुस्तकों के लिए अलमारियाँ तथा ग्रंथों की सूचि बनवाने में खर्च हो गया। पू. सा. शीलवती श्री जी महा. तथा पू. सा. मृगावती श्री जी महा. साहब पंजाब से विहार करके दिल्ली, गुजरात सौराष्ट्र महाराष्ट्र, बम्बई, पूना आदि में भ्रमण किया। बम्बई में पू. सा. शीलवती श्री महा. का कालधर्म हो गया। बाद में पूना, बंगलौर, मैसूर भ्रमण करके दिल्ली पधारे और वल्लभ स्मारक के लिए निरन्तर प्रेरणा देते रहे और आज हम स्मारक का उद्घाटन प्रसंग देख रहे हैं। सन् 1983 में साध्वी जी महा. दिल्ली पधारे और पं. श्री लक्ष्मण भाई जी की भेजी रिपॉट के अनुसार गुजरांवाला से आई हुई पुस्तकों की सुचारू ढंग से व्यवस्था करने का विचार किया। ग्रंथों की समान्य सूची पं. श्री हीरालाल जी दुग्गड़ ने की थी परन्तु पुस्तकों की सर्वमान्य पद्धति से ग्रन्थों की सूची एवं विशेष सुरक्षा के लिए अहदाबाद से ता. द. विद्यामन्दिर से पू. लक्ष्मण भाई भोजक जी को बुलाया और उनके मार्गदर्शन में पू. साध्वी श्री मृगावती जी महा. की शिष्याएं साध्वी सुज्येष्ठा श्री जी, सुव्रता जी सुयशा श्री जी एवं सुप्रज्ञा श्री जी महा. पुस्तक भंडार का कार्य करने के लिए उत्साहित हुए। पहले प्राचीन लिपि पढ़ना सीखे, फिर कैटलोग बनाने की पद्धति जानी। ग्रंथों में लगी हुई धूल को सावधानी से एक एक पन्ना करके साफ किया, उनके पत्र गिन कर रैपर करके, उनके ऊपर नाम लिखकर ग्रंथों के परिचय कार्ड लिखे, ग्रंथों को विषयवार करने के पश्चात उनके एक साईज बनाकर उनके क्रम से नम्बर करके रैपर ऊपर तथा कार्डों पर नम्बर लिखा । यह तमाम कार्य पं. श्री लक्ष्मण भाई भोजक के मार्गदर्शन में पूज्य साध्वी जी महा. ने बड़ी मेहनत से किया है। लगता है हस्तलिखित ग्रंथों के कैटेलोग का काम जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक समाज में पू. साध्वी जी महा. ने किया हो ऐसा यह प्रथम प्रसंग है। जिन शहरों से यह ज्ञान भंडार आए हैं उनके नाम निम्न अनुसार हैं: 1. गुजरांवाला 2. लुधियाना 3. जम्मू 4. नकोदर 5. शियारपुर 6. पट्टी 7. जंडियाला गुरु 8. जंडियाला गुरु 9. पं. हीरालाल दुग्गड़ 10. बन्नू पाकिस्तान पंजाब काश्मीर जालंधर पंजाब पंजाब पंजाब जैन संघ भंडार यतिका भंडार सपुत्र श्री दीनानाथ दुग्गड़ पाकिस्तान 11. फुटकर 12. पू. आ. श्री विजय समुद्र सूरि 13. श्री हंसराज नौलखा एम ए जीरा 14 ब्रहमचारी शंकर लाल अमृतसर फरीदाबाद 15. जीरा 16. देव श्री जी महा. का भंडार मालेरकोटला 17. समाना भंडार 18. सुनाम भंडार 19. बड़ौत भंड़ार पंजाब पंजाब 20. साध्वी चित्त श्री जी 21. फरीदकोट 22. अम्बाला जैन संघ 23. बिनौली जैन संघ इस भंडार में लगभग १२,००० हस्तलिखित ग्रंथ संग्रहित हैं। इसमें 1. मालेरकोटला से प्राप्त 4. 5. यू.पी. ताड़पत्रीय "वासुदेवहिड़ी" जैसा ग्रंथ अनु. 13वीं शताब्दि का है। 2. विक्रम स. 1400 में लिखा हुआ षडावश्यक बालावोध की कागज की प्रति भी इसमें है। 3. पू. उपा. श्री विनयविजय जी रचित "हेमलघु प्रतिक्रिया" की पोथी जिसका र.स. 1710 है वह पोथी स. 1710 में लिखी हुई इस संग्रह में है। उपदेशमाला, कर्ता: मलधारी हेमचन्द्र सूरि धातुतिलक शतक, कर्ताः प्रभादित्य व्यास 6. शब्दप्रभेद टीका ज्ञान विमल र. स. 1652 ले. सं. 1655 7. रसराज बोध प्रकाश (सुवर्ण सिद्धि) क. कविनंद इस संग्रह में आगम, प्रकरण, व्याकरण, न्याय, ज्योतिष, वैद्यक काव्य, अलंकार, कोष, रास, चौपाई, कथा, भक्ति साहित्य, स्तुति स्त्रोत्र, स्तवन, सज्झाय, पट्टावली, प्राचिक काम. शास्त्र, रत्नशास्त्र, सामुद्रिक, निमित, शकुन और बौद्ध दिगम्बर वेदान्त, वैशेषिक पुराण आदि ग्रंथ भी संगृहीत किए गए हैं। पू. महतरा सा. मृगावती श्री जी महा. की प्रेरणा से सेठ श्री प्रताप भाई द्वारा स्थापित " भोगीलाल लहरचन्द इन्स्टीट्यूट आफ इण्डोलोजी - दिल्ली इसकी व्यवस्था कररही है जो वल्लभ स्मारक का ही एक भाग है। पू. गणि श्री नित्यानंद विजय जी महा. एवं मुनि श्री धर्म धुरन्धर विजय जी म. की प्रेरणा से गुजरात में से कपड़वंज, जम्बूसर, जोधपुर तथा कच्छ माण्डवी से भी कुछ हस्तलिखित संग्रह एवं प्रिंटेड पुस्तकें यहां आई हैं। 12000 हस्तलिखित ग्रंथों के कैटेलोग का काम पूरा हो गया है। और पीछे से आए हुए भंडारों का काम चल रहा है। पुस्तकों के रक्षण के लिए एल्युमीनियम के डिब्बे "श्री मुलखराज जी ने महावीर मैटल वालों की ओर से बन रहे हैं। और गोदरेज की अलमारियां आ गई हैं। 29 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विजय वल्लभ जैन होम्योपैथिक औषधालय - बीरचन्द भाभू जैन संस्कृति के अनुपम तीर्थ थी आत्म-वल्लभ-स्मारक की होकर हंसते-हंसते जाते हैं। अल्प समय में ही औषधालय ने सहायता का प्रेरणास्पद कार्यक्रम भारत सरकार के मंत्री श्री स्थापना के पीछे महत्तरा श्री मृगावती महाराज की अनपम दृष्टि अपनी सुगंध चारों ओर फैलाई है। आज औषद्यालय में रोगी ही जगदीश टाइटलर, दिल्ली के कार्यकारी पार्षद् (शिक्षा) श्री रही। यह तीर्थ जैन संस्कृति और कला वस्तु की आत्मा मुखरित नहीं आते वरन् औषधालय स्वयं भी उनके द्वार पर जाता है। कुलानंद भारतीय, प्रसिद्ध न्यायविद डा० लक्ष्मीमल सिधवी, करे, इस उद्देश्य के साथ महत्तरा थी की यह भी निरन्तर प्रेरणा महत्तरा श्री को भावनानसार औषधालय संस्था ने एक विकलांग सेवा-प्रणेता, उच्च प्रशासनिक अधिकारी श्री डी.आर. रही कि सेवा, शिक्षा एवं साधना की त्रिवेणी इस तीर्थ से "चलते-फिरते औषधालय सेवा” का भी शुभारम्भ किया है। मेहता तथा सांसद चौ० भरत सिंह एवं श्री अनुपचंद शाह की प्रवाहित होनी चाहिए। 'स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ्य आत्मा का प्रत्येक सोमवार एवं गरुवार को क्रमश: खेडाकलां गांव एवं उपस्थिति में सम्पन्न हुआ। इन अपंग बहन-भाइयो का कृत्रिम निवास होता है। इस शाश्वत सत्य की प्रतीति महत्तरा श्री रूपनगर के गरीब जरूरतमंद लोगों में जाकर औषधालय रोगियों अंग-उपांग (हाथ-पैर) प्रदान किए गए ताकि ये आत्मनिर्भर हो महाराज को रही और इसी सन्दर्भ में रोगी सेवा का समाज को को चिकित्सा प्रदान करता है। सेवा की उपयोगिता एवं सके। उन्हें आर्थिक सहायता भी दी गई जिससे व खुद के राजगार निरन्तर उनका आह्वान रहा। लोकप्रियता को रेखांकित करने के लिए यह तथ्य काबिलेगौर है से बाइज्जत जिन्दगी जी सकें। इस मौके पर 170 महानभावों ने महत्तरा श्री महाराज की इस करुणामयी सदभावना से कि आसपास की जनता में इस औषधालय के प्रति अति उत्साह मरणोपरान्त अपने नेत्रदान के संकल्प-पत्र भी भरे। राष्ट्रपरुष प्रेरित होकर और उन्हीं की दिव्य कृपा का आशीर्वाद पाकर एवं विश्वास है। डा० साहब एवं उनके सहयोगियों के गांव पं० नेहरू ने अपनी आत्मकथा के समापन पर लिखा है श्रावक श्रेष्ठ, उदारमना, धर्मनिष्ठ स्व. लाला थी धर्मचन्द जैन ने पहुँचने के पूर्व वहाँ के निवासी अन्य सभी व्यवस्थाएं स्वयं कर देते The words are lovely Dark & Deep. रोगियों की सेवा के लिए श्री आत्म-वल्लभ जसवंतधर्म मैडिल हैं। आसपास की जनता के मन में स्मारक प्रति श्रद्धा, सहयोग एवं but I have many promises to keep. फाउंडेशन दिल्ली की स्थापना की। इसी सेवा फाउंडेशन के आत्मीय भाव जागृत करने में यह औषधालय मक सेवा कर रहा and miles to go before I sleep. अन्तर्गत स्मारक परिसर में श्री विजय वल्लभ जैन होम्योपैथिक है। इतने अल्प समय में औषधालय के प्रगति-सेवा-कार्य एवं औषधालय की स्थापना की गई। 15 जून 1985 को 21 सितम्बर 1985 में औषधालय के संस्थापक, लोकप्रियता इसके संचालकों के लिए उत्साह-प्रदायक है और संक्रान्ति-दिवस की पावन बेला पर सेवा के इस संस्थान का श्रावक-शिरोमणि ला० धर्मचन्द जी के देवलोक गमन हो जाने साथ-साथ अधिक उत्साह से कार्य करने के लिए यह प्रेरणास्पद उदघाटन लोकप्रिय सांसद श्री अनपचंद शाह के कर-कमलों द्वारा पर इस औषधालय के निबांध संचालन का दायित्व उनके पुत्र भी है। यह शभारम्भ की बेला है, विश्रामस्थली नहीं। सम्पन्न हुआ। रत्न एवं मेरे बड़े भाई श्री पदमचंद जैन एवम् मैने अन्य ट्रस्टियों औषधालय के विस्तार एवं उसके आधनिकता की अनेक स्थापना से आज तक यह औषधालय निरन्तर रोगी-सेवा में के साथ सम्भाल लिया। योजनाएँ प्रस्तावित हैं। एक्सरे-ई.सी.जी. तथा लैबोरेट्री की निःशुल्क निःस्वार्थ भाव से समर्पित रहा है। अनुभवी, सेवाभावी भाई श्री पदमचंद ने पूर्ण समर्पण एवं निष्ठा-भाव से इस सुविधा उपलब्ध कराने भी विचार है। इस औषधालय के विस्तार डा० तेजिन्द्र बुद्धिराजा आरम्भ से ही इस सेवा कार्य में समर्पण को न केवल निरन्तरता प्रदान की, अपितु सेवा के अनेक नए की योजना है। वर्ष भर में कुछ और स्वास्थ्य सम्बन्धी भाव से जुड़े हैं। लगभग 35 से 50 रोगी प्रतिदिन इस औषद्यालय आयाम भी खोले। फाउंडेशन की ओर से 17 मई 1987 को महान् परियोजनाएं आरम्भ करने का भी संकल्प है। औषधालय की से स्वास्थ्य-लाभ पाते हैं। अनेक प्राचीन एवं असाध्य बीमारियों युगपुरुष, क्रांतिकारी एवम् सामाजिक पुनर्जागरण के अग्रदूत ओर से अति शीघ्र ही कैंसर एवं मधुमेह से पीड़ित रोगियों के जैसे टी.वी., पुराना नजला, चर्म रोग, जोड़ों का दर्द, पथरी जैनाचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि जी महाराज की दीक्षा-शताब्दी स्वास्थ्य-जांच-शिविर लगाने का कार्यक्रम बनाया जा रहा है। इत्यादि का निदान यहाँ सफलतापूर्वक हो रहा है। कुछ दवा ने के उपलक्ष्य में जीवदया, विकलांग सहायता एवं नेत्रदान समारोह औषधालय के प्रबंधक इस अस्पताल को जन-आकांक्षाओं के काम किया कुछ पुण्यभूमि और इससे जुड़ी पुण्य आत्माओं की का आयोजन परम विदुषी साध्वीश्री सुव्रता श्री महाराज की निथा अनुरूप बनाने के लिए कृतसंकल्प हैं और इस सद्कार्य में आप दआ ने सहायता की, जिससे रोते-रोते रोगी आते हैं और ठीक में किया गया। इस अवसर पर लगभग 100 विकलांगों की सभी का सहायेग एवं आशीर्वाद प्रार्थित है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international वल्लभ स्मारक के लिए सर्वस्व समर्पित करने वाली महत्तरा साध्वी श्री मृगावती श्री जी महा. बहुत दूर की सोचते थे विजय वल्लभ स्मारक में आने वाले साधकों, आराधकों, स्नातकों एवं विद्वानों के लिए इस जंगल में भोजन की समुचित व्यवस्था करवाने के लिए उन्होंने भोजनशाला की योजना बनाई तथा श्री आत्म वल्लभ स्मारक भोजनालय ट्रस्ट के स्थापना करवाई। उनकी प्रेरणा एवं निश्रा में मई 1984 में अपने पूज्य माता पिता की स्मृति में सर्वश्री शशिकान्त, रविकान्त एवं नरेश कुमार ने सराहनीय सहयोग देकर श्री वल्लभ स्मारक भोजनालय का उद्घाटन किया। जैसे सभी तीर्थों में भोजनशाला चलती है वैसे ही पू. सध्वी जी महा. की प्रेरणा से भोजन की कायमी तिथियां पूर्ण हो चुकी हैं और नाश्ते की पूर्ण होने वाली हैं। आपकी ही प्रेरणा से सेठ 1" श्री ताराचंदजी भंसाली, कोचीन ने आयम्बिल खाते में भी काफी अच्छा अनुदान दिया है। श्री वल्लभ स्मारक हाईवे पर होने के कारण आने जाने वाले यात्रियों का यहां तांता लगा रहता है। चारों सम्प्रदाय स्थानकवासी, तेरापंथ, दिगम्बर श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, खरतरगच्छ, म. पू. आचार्य सागरानन्द सुरि महा. प.पू. आ. "वल्लभ स्मारक" भोजनशाला - कृष्ण कुमार Fox Private & Personal Use Only वैयावच्च भक्तिभाव से की जाती है। इस भोजनालय के अध्यक्ष रामचन्द्र सूरिजी महा. के तथा तीन हुई वाले सभी साधु सन्तों की श्री लाला कृष्ण कुमार जी (के. के. रब्बर वाले), श्री नरेन्द्र कुमार जी, शास्त्री नगर, विशेष कर सेवाभावी श्री शांति लालजी खिलौने वाले सबकी सेवा में सदा तत्पर रहते हैं। बी. एल इन्स्टीटयूट ऑफ इन्डोलोजी में जब भी विद्धानों के सैमिनार होते हैं, भोजनालय की ओर से "श्री आत्म वल्लभ जैन महिला मंडल रूप नगर" स्वयं भक्तिभाव से उनका आतिथ्य सत्कार करके अपने को गौरवान्वित अनुभव करता है। पंजाब से विजय वल्लभ दीक्षा शताब्दि स्पेशल ट्रेन मद्रास से जनवरी में श्री सम्मेत शिखर शत्रुज्य फलवृद्धि पार्श्वनाथ जैन यात्रा संघ आदि प्रतिवर्ष अनेक स्पैशल ट्रेनों का यहां पदापर्ण होता रहता है। पंजाब से पट्टी, जीरा, जण्डियाला, नकोदर, जालन्धर, अमृतसर, पटियाला, समाना, सुनाम, राजकोट, मालेरकोटला, होशियारपुर, लुधियाना, अम्बाला, चंडीगढ़, आदि से क्षमापनार्थ अनेकों यात्रा संघ इस भोजनालय को लाभान्वित करते रहते हैं। हर महीने माता पदमावती की पूजा अर्चना हेतु वदी दसमी, सक्रान्ति महोत्सव, कार्तिक पूनम तथा वार्षिक पोषदसमी के मेले की भोजन व्यस्था इसी भोजनालय द्वारा ही की जाती है। गुरु महा की जन्म जयंतियों के दिनों एवं पुण्यतिथियों तथा अन्य जनकल्याण के कार्यों में यह भोजनालय पूरा पूरा सहयोग देता है। सेवा, साधना और समपर्ण की साक्षात मूर्ति साध्वी श्री सृज्येष्ठा श्री महा की हमेशा यही शिक्षा रहती थी। सबकी सेवा हृदय से करो। उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए भोजनशाला के कर्मचारी भी सभी भक्तिभाव से सेवा करके पुण्य उपार्जन करते हैं। इस प्रकार वल्लभ स्मारक भोजनालय साधकों, अराधकों, स्नातकों, विद्वानों एवं श्री संघों की सेवा में सेवारत है। 31 www.jainelibrary.ord Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नींव की ईंट -अवधनारायणधर द्विवेदी "लड़े सिपाही नाम सरवार का" उक्ति जिस यथार्थवादी ने प्रारंभ की, उसकी सूझ-बूझ को दाद देनी चाहिए। जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में ऐसा होता है कि वास्तविक कार्यकर्ता दृष्टि से ओझल हो जाते हैं, श्रेय बड़ों को मिलता है। इसे कौन नहीं जानता आज शासन में बड़े-बड़े राजनेता महत्त्वपूर्ण पदों पर कंडली मार कर बैठे हैं, स्तुति-गान कराते हैं पर उन असंख्य कार्यकर्ताओं का कोई नाम तक नहीं लेता, जिन्होंने स्वतंत्रता-संघर्ष में आत्म-बलिदान किया है। श्री वल्लभ-स्मारक के संदर्भ में राष्ट्रसंत समुद्र सरि के पावन आदेश की चर्चा होती है, वर्तमान जैनाचार्य, जैन-दिवाकर आचार्य इन्द्रदिन्न सूरि का योगदान सराहनीय है। महत्तरा साध्वी मृगावती श्री के बलिदान के अनुरूप उनका समाधि-मंदिर उनकी यशोगाथा का प्रवक्ता है। यह सब ठीक है, सहज है। जिसका जितना योगदान हो उसका उतना गणगान होना ही चाहिए। इससे लोगों को सत्कार्य की प्रेरणा मिलती है। देश, समाज और । धर्म का हित होता है। किन्तु वल्लभ स्मारक के इतिहास में एक । व्यक्ति ऐसा है जिसका कार्य सभी देखते हैं। उसकी परेशानियां अनुभव करते हैं। सहानुभूति भी प्रकट करते हैं। परन्तु श्रेय प्राप्त-कर्ताओं की सूची में उसका नाम नहीं दिखाई पड़ता। वह । ऐसा चाहता भी नहीं, क्योंकि वह कर्म-पथ का पथिक है। जिस मिशन को हाथ में लिया है, वही लक्ष्य है, प्राप्य है। और किसी बात से उसे कुछ लेना-देना नहीं है। किन्तु समाज का कर्तव्य है । JainEducationRREmotional CERINDEEPersonalREOnly Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 कि वह उसकी सेवाओं की सराहना करे,उसे प्रोत्साहन दे।जब श्री समय वे कटिशूल से पीड़ित हैं, जिसमें उठना-बैठना, झुकना बम्बई के मानद मंत्री, भगवान् महावीर समिति, नई दिल्ली, श्री वल्लभ-स्मारक के निर्माताओं की गिनती की जाय तो अन्त में ही आदि कष्ट-प्रद होते हैं। फिर भी गुरुजनों के चरणों में अधिक हस्तिनापुर जैन श्वेताम्बर तीर्थ समिति, सेठ आनंद जी कल्याण सही उसका नाम कृतज्ञता-पूर्वक अवश्य गिना जाये। क्योंकि झककर वे इसलिए प्रणाम करते हैं कि पीठ पर हाथ रखकर जी ट्रस्ट, श्री आत्मानंद जैन महासभा, उत्तर भारत की कीर्ति का त्याग सबसे बड़ा त्याग है। जो व्यक्ति व्यवसाय, गुरुजन उन्हें आसानी से आशीर्वाद दे सकें। कार्यकारिणी के सदस्य हैं। व्यावसायिक संस्थाओं में केमिकल्स अपनी लाभ-हानि यहां तक कि स्वास्थ्य की भी परवाह न कर श्री राजकमार आजकल सभी कार्यों को एक ओर रख. एंड एलाइड प्रडिक्ट्स एक्सपाट प्रमोशन कासिल के अध्यक्ष, निष्काम भाव से स्मारक- निर्माण में रात-दिन जुटा हुआ हो, स्मारक- निर्माण में जी-जान से जटे हए हैं। इस मस्तैदी को नार्दन इंडिया रबर मैन्यूफैक्चर्स फेडरेशन के संस्थापक मत्री, उसकी सेवाएं ओझल नहीं की जा सकतीं। देखकर गणिवर्य श्री जगच्चन्द्र विजय कहते हैं कि सुश्रावक श्री हरियाणा सैफटी कौंसिल लेबर डिपार्टमेंट हरियाणा सरकार की श्री वल्लभ-स्मारक के प्रति पूर्णतः समर्पित ऐसे कार्यकर्ता हैं खैरायती लाल जी के छह पुत्र हैं, उनमें वय-क्रम के अनुसार कार्यकारिणी के सदस्य हैं। और वे सब जगह अपने उत्तरदायित्व "श्री राजकुमार जैन" जिनका जन्म एक धार्मिक परिवार में सन् राजकुमार दूसरे हैं, जिन्हें उन्होंने गुरुवल्लभ के चरणों में का सफलतापूर्वक निर्वाह करते हैं। 1927 ई० में झेलम नदी पर बसे झेलम शहर (अब पाकिस्तान) समर्पित कर दिया है। इस कथन का समर्थन कुछ शब्द-परिवर्तन जैसा कि ऊपर लिखा गया है, इस समय श्री वल्लभ-स्मारक में हुआ। झेलम नदी का वैदिक नाम वितस्ता है। अतः के साथ अन्य लोगों ने भी किया। उनका कहना है कि व्यापार का के कार्यों को सम्पन्न करने में वे लगे हुए हैं, उसे अद्वितीय और बाल्यावस्था से लेकर किशोरावस्था पर्यंत वितस्ता की वीचियों कार्य श्री राजकुमार के भाई संभालते हैं, वे तो आजकल वल्लभ गौरवशाली बनाने की धुन में सब कुछ भूल गए हैं। इतना सब (लहरों) के बीच खेलने का उन्हें सौभाग्य प्राप्त हुआ। परन्त 20वें स्मारक का ही, काम देखते हैं। इस सम्बन्ध में श्री राजकुमार का करने के बावजूद उन्हें ऐसा नहीं लगता कि मैं कुछ कर रहा हूं। वर्ष में, युवावस्था की देहली पर पांव रखते ही भारत-विभाजन कहना है ऐसी बात तो नहीं,मैं जिस काम में हाथ लगाता हूं उसे कार्य का सारा श्रेय सहयोगियों को देते हैं। श्री वल्लभ-स्मारक के का दुर्भाग्य भी उन्हें देखना पड़ा। फलतः "जननी-जन्मभूमिश्च लगन और उत्तरदायित्व के साथ पूरा करता हूं।' विभिन्न विभागों और कार्यों को दिखाते हुए विनम्र भाव से कहते स्वर्गादीप गरीयसी" को छोड़ कर वे दिल्ली के निवासी बन गए। भारतीय समाज में संयक्त परिवार का बड़ा महत्व है। खेद हैं कि यदि विनोदभाई दलाल का सहयोग नहीं मिलता तो मैं कुछ __श्री राजकुमार के पिता श्री खैरायती लाल विनम्रता की मूर्ति है, अब यह व्यवस्था नागरी-संस्कृति के कारण छिन्न-भिन्न हो नहीं कर पाता। इससे बढ़कर निरभिमानता और सहयोगियों की हैं। अपने भारतीय उष्णीष (पगड़ी) के कारण लाखों की भीड़ में रही है। किन्तु श्री राजकुमार का परिवार संयक्त परिवार का महत्ता स्वीकारने की और कौन सी बात हो सकती है? आसानी से पहचाने जा सकते हैं। व्यावसायियों के लिए जैन आदर्श है। इस युग में, जहां दो भाइयों में कौन कहे पति-पत्नी में दिन भर श्री वल्लभ-स्मारक में व्यस्त रहने के बावजूद धर्मानुसार रात्रि-भोजन-त्याग बड़ा दुष्कर कार्य है। परन्तु श्री भी नहीं पटती, वहां राजकमार छह भाई होते हए भी परस्पर गणिवर्य जगच्चन्द्र विजय जी से विचार-विमर्श करने के लिए, खेरायती लाल कई दशकों से इस नियम का पालन कर रहे हैं। सदभावपर्वक सखमय जीवन बिताते हैं। बस्ततः मनष्य उनका आदेश प्राप्त करने के लिए नियमित रूप से सुबह-शाम अतः राजकमार जी को विनम्रता और धार्मिकता विरासत के रूप आत्म-केन्द्रित न हो. दसरों का भी ध्यान रखे तो वह स्वयं सखी प्रतिदिन आते रहते हैं, उसके बाद भी कार्यालय का कार्य घटा में मिली है। रह सकता है और दूसरों को भी सुखी कर सकता है। देखते रहते हैं। एक दिन तो वे मंदिर कार्यालय में 2 बजे रात तक ___ आजकल यात्रा-भीरुओं की संख्या अधिक है। शीतकाल में साहित्य में एक अलंकार विरोधाभास है, जिसका अर्थ है । व्यस्त रहे और प्रातः साढ़े सात बजे सहयोगी कलाकारों को श्री तो यात्रा और भी दुखद होती है। परन्तु राजकुमार जी एक सप्ताह वास्तविक विरोध न होते हुए विरोध का आभास। ऐसा ही एक वल्लभ-स्मारक ले जाने के लिए उपाश्रय में उपस्थित हो गए। में ही अहमदाबाद, पालिताना, बंबई, जयपुर आदि की यात्रा विरोधाभासात्मक वाक्य है, "काम वही कर सकता है जिसके था राजकुमार जिर अस्वस्थ होते हुए भी आसानी से कर लेते हैं। क्योंकि यात्रा उनकी पास समय नहीं है।" इसका तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति धामक कायकता ह उसा प्रकार व प्रखर वक्ता भाह, घण्टा हॉबी (शौक) जो है। पर विदेश-यात्रा में जैन होने के कारण उन्हें प्रमाद-रहित होकर अपना सारा समय परोपकारी कार्यों में बोलने के बाद भा उन न्हें प्रमाद-रहित होकर अपना सारा समय परोपकारी कार्यों में बोलने के बाद भी उनकी वाणी में तनिक भी शिथिलता नहीं खान-पान सम्बन्धी असह्य कठिनाइयां सहन करनी पड़ती हैं। लगाता है, उसे अन्य कार्यों के लिए, अपने लिए समय नहीं रहता। आती। हिन्द ती हैं। लगाता है उसे अन्य कार्यों के लिए अपने लिए समय नहीं रहता। आती। हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर उनका समान सदा समयाभाव बना रहता है। अतः ऐसे व्यस्त व्यक्ति ही कार्य अधिकार है। इंग्लैंड के जैनमंदिर में दो घंटों तक उनका अंग्रेजी में शाकाहारी भोजन को ग्रहण करना इनके जैन-मन ने अस्वीकार करने में सफल होते हैं। अकर्मण्यों को तो कभी समयाभाव होता धारा-प्रवाह भाषण हुआ था। उनके हिन्दी- भाषणों से कर दिया। अस्वीकार करना ही चाहिए, आकार-भ्रष्ट वस्तुओं ही नहीं। जब कोई काम ही नहीं करते तो उनका सारा समय बचा जन-जगत् पूणतः पारातहहा का। ही रहता है। श्री राजकुमार ऐसे ही कर्मठ व्यक्ति हैं। अनेक वस्तुतः ऐसे निस्पृह और कर्मठ कार्यकर्ताओं द्वारा ही लौकिक श्री राजकुमार के आन्तरिक व्यक्तित्व के समान ब्राह्य धार्मिक, व्यावसायिक संस्थानों से जुड़े हुए हैं, उत्तरदायित्व पूर्ण और आध्यात्मिक कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न होते हैं। फलतः व्यक्तित्व भी आकर्षक है। प्राचीन आर्यों की भांति दीर्घ पदों को संभाले हुए हैं जिससे अपने लिए उनके पास समय नहीं उनकी यशोगाथा उनके द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्यों के साथ देह-यष्टि, उसी अनुपात में अंगों का सौष्ठवं दर्शनीय है। इस रहता वेश्री वल्लभस्मारक के मंत्रीतो हैं ही जैन श्वेताम्बर कांफ्रेंस अपने आप जड़जाती है। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHRI RAJ KUMAR JAIN VA and other sporting balls as also synthetic Foot Ball panels for sports industry. He is Founder Chairman of this Company. Born at Jhelum in 1927, he had his schooling there, college education at Lahore and Delhi. He did B.A. (Com.) (Hons.) in 1949 from Delhi University. He has attended various technical, productivity management courses. In 1967 he organised local industries of Gurgaon and was elected FounderPresident there of for two years. He was also elected as Founder-Secretary of Northern India Rubber Manufacturers Federation. Shri Jain has been associated with Export Promotion since 1957 when he started making small exports. He visited Middle East and African countries in 1979 as a member of Two Men Delegation of Sports Goods Export Promotion Council. Later he went on SalesCum-Study tour of European and Middle East in 1963 and in 1972. He toured Middle East again in 1977 as leader of three Man A person with great zeal and push and renowned social figure, Shri Raj Kumar Jain Study Team to Explore markets. hails from a religious minded respectable Shri Raj Kumar has been Chairman of family of Jains of Jhelum (now in Pakistan). Chemicals and Allied Products Export His father Shri Khairati Lal Jain is a well Promotion Council. He is Hon. Secy. of Shri known rubber industrialist, philanthropist Atam Vallabh Jain Smarak Shiksha Nidhi, has and social figure of Delhi' and commands taken keen interest in establishment of respect among all Jains for his affectionate educational institution for research in Indoand simple behaviour. Shri Raj Kumar is Joint logy/Jainology with assistance of some other Managing Director of ENKAY (INDIA) social workers. He is playing a pivotal role in RUBBER CO. PVT. LTD. with Shri Khairati construction of magnificent building "Atam Lal Jain as Chairman. The company products Vallabh Sanskriti Mandir" at G.T. Karnal range include Hot Water Bottles, Automotive Road. Rubber parts, Moulded Car Mats, Football Married to Smt. Trishla Jain he has one Bladders, Rubber components for sports son and two daughters industry and other industrial components. Res. Bunglow No. 23/2, Shakti Nagar Delhi In 1976 another rubber unit COSSO PVT. 110007 LTD. was started at Gurgaon for production Phones : Res. 7129298 & 7114419 Office: of moulded rubber basket balls, foot-balls 2522676, 2529185, 2529269 31 PILLARS OF SMARAK AN INTRODUCTION on Education international For Private & Pemenal Use Only www.alib Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHRI VINOD LAL N. DALAL keen interest in the extra curricular activities. A Consultancy Firm "Dalal Engineering Services" was started in 1971 which has provided consultancy services to many large and medium sized industrial installations. Shri Dalal inherited the religious in stict from his mother Smt. Chanchalben who was a prominent figure in Jain Mahila Samaj of Delhi. In 1952 he joined the Managing Committee of Shree Hastinapur Jain Swetamber Tirtha. He was President of the Samiti from 1961 to 1972. Shri Dalal is looling after the entire construction work as President, Nirman Samiti. The credit for Jirnodhar of olden temples at Ambala, Malerkotla, Jagadhari, Muzaffarnagar and new temples at Chandigarh, Agra, Moradabad, which are either compieted or under construction, goes to him. The construction of Vijay Vallabh Smarak is being carried out under his supervision as ChairAn Engineer by profession Vinodbhai isan man, Nirman Samiti. He is also guiding the active worker in the socio-religious field. He construction of a new temple at the Jain is well-known for his keen interest in Kangra in Himachal Pradesh which was Jirnodhar of Jain Shrines and construction of discovered a couple of decades ago by Muni new temples, dharamshalas and the like Shree Jinvijayji. charitable institutions. He has flair for Vinodbhai is associated with many social educational activities as well. institutions in various capacities, the most Born at Ahmedabad on 29-10-1920 in the important being "Bhogilal Laher Chand religious Gujarati family of Shri Nandlal & Institute of Indology", Delhi, of which he is Chanchalben Dalal he had his schooling at the Founder President. He is also associated Delhi where the family shifted and settled in with Bhagwan Mahavir Memorial, Delhi, as a 1927. After his Inter Science he graduated in member of Construction Committee. Shri Engineering from Engineering College, Ben- Dalal has guided the destiny of Gujrati aras in 1943. He had a brilliant academic Swetamber Moorti Pujak Sangh for 6 years. career being rank holder throughout and Shri Atmanand Jain Sabha, Delhi and Shri earned merit scholarships right from his 8th Atmanand Jain College, Ambala have beneClass fitted a lot by his wise counsel. He started his career with Delhi Cloth & Unmindful of his failing health, Shri Dalal Genl. Mills Ltd, as an apprentice engineer, in continues to be active in socio-religious 1943 and rose to the position of Electrical arena of the society. Engineer, Chief Engineer and finally Adviser, Residence: 12, North Avenue, Punjabi Bagh, Engineering Services by dint of his push and New Delhi-110026 leadership qualities. While in service, he took Phone : 592439 Education in For Pre zonale Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मानन्द जैन सभा दिल्ली -सुदर्शनलाल जैन भारत के विभाजन के पश्चात् पाकिस्तान के भिन्न-भिन्न मंदिर जैन कला एवं स्थापत्य के आधार पर बनाया गया है। वहाँ कस्तूर भाई लाल भाई के करकमलों द्वारा हुआ था। स्थानों से आये हए व्यक्तियों ने अपने व्यवसाय दिल्ली में स्थापित पहुंचकर और भगवान श्री शांतिनाथ के दर्शन करके मन प्रसन्न श्री आत्मवल्लभ जैन भवन रूप नगर श्री आत्मानन्द जैन किए और जैसे-जैसे इसमें वृद्धि होती गई उन्होंने अपने आपको और कृत कृत्य हो जाता है। सभा दिल्ली के तत्वावधान में बना, जिसका शिलान्यास 27-1सामाजिक रूप में भी संगठित होने की आवश्यकता को महसूस मंदिर जी का भूमिपूजन स्व० श्री चन्दूलाल जी संखत्रा वालों 66 को स्व० श्री कुन्दन शाह जी के करकमलों द्वारा हुआ। निर्माण किया। इसी कारण लगभग 1950 में श्री आत्मानन्द जैन सभा ने किया तथा शिलान्यास श्रीमती माया देवी धर्म पत्नी स्व० श्री कार्य को शीघ्र पूर्ण किया और से उद्घाटन 19-5-67 को हुआ दिल्ली की स्थापना हुई। प्रारम्भ में इसके अन्तर्गत सभाएं, भजन, पन्ना लाल जी कसूर वाले मालिक फर्म पी०एलजे० एण्ड जिससे पूर्व श्री अर्हत् महापूजन एवं श्री सिद्ध चक्र महापूजन का कीर्तन समारोह होते रहे। कम्पनी द्वारा सम्पन्न हुआ। आयोजन बड़ी धूम-धाम से श्री जयन्ती लाल आत्माराम कुछ परिवारों ने रूप नगर तथा इसके आस-पास दिल्ली के _ पहले विचार किया गया था कि मंदिर जी तथा उपाश्रय एक अहमदाबाद वालों द्वारा करवाया गया और उसी दिन शुभ मुहूर्त उपनगरों में अपने निजी निवास स्थान बना लिये और वहाँ पर ही भवन में ऊपर नीचे बना लिया जाए परन्त निर्माणकार्य के में श्री श्री 1008 आचार्य श्री विजय सूरीश्वर जी महाराज का धर्म-चर्चा तथा समारोह आदि होने लगे। अपने तथा परिवारजनों मध्य रूपनगर क्षेत्र में मूर्ति पूजक जैन परिवारों की बढ़ती हई प्रवेश भी इस भवन में करवाया गया। में धर्मभावना विद्यमान रहे, इसके लिये श्री मंदिर जी का निकट संख्या को देखते हुए पुनः विचार किया गया कि उपाश्रय के लिए श्री आत्मानन्द जैन सभा दिल्ली का उत्तर भारत में अपना होना अति आवश्यक समझा जाने लगा। अतः मंदिर जी की अलग से भूमि खरीद ली जाये। 1960 में श्री आत्मानंद जैन सभा एक महत्वपूर्ण स्थान है जिसके कारण सभा के सदस्यों का आपसी स्थापना की भावना बढ़ती गई जिसके फलस्वरूप 1957 में के अन्तर्गत रूपनगर मंदिर जी के सामने भूमि खरीद ली गई। प्रेम तथा श्रद्धा है, वयोवृद्धों के प्रति आदर तथा मन की भावना है, रूपनगर में श्री आत्मानन्द जैन सभा के अन्तर्गत भूमि खरीदी निर्माण कार्य के साथ-साथ धार्मिक कार्यक्रम-संक्राति अपने गुरुजनों के प्रति पूर्ण विनयभाव है। गई। सम्मेलन, साध साध्वियों के चातुर्मास तथा पर्व पर्दूषणों के मनाने दिल्ली सभा के अन्तर्गत कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के तदनन्तर श्री आत्मानन्द श्री सभा की गतिविधियाँ बढ़ती के आयोजन चालू हो गये थे। श्रीसंघ की उत्कृष्ट भावना को ध्यान लिये नियम निश्चित होते रहते हैं और उनका पालन ठीक ढंग से गई। मंदिर जी के निर्माण हेत कई प्रकार के आयोजन चालू हो में रखते हुए अम्बाला शहर जैन मंदिर से श्री शांतिनाथ भगवान हो इसकी व्यवस्था भी की जाती है। सभा का वार्षिक उत्सव हर गये। बम्बई, अहमदाबाद आदि बड़े-बड़े नगरों में जाकर की धातु की प्रतिष्ठित मूर्ति लाकर दैनिक पूजा सेवा के लिये मंदिर वर्ष मनाया जाता है जिसका दिन काफी वर्षों से दो अक्तूबर सलाहमश्वरे किये गये। श्री आनन्द जी कल्याण जी पेढ़ी से भी जी की निचली मंजिल में जो बनकर तैयार थी, विराजमान कर दी निश्चित है। उसी दिन नई कार्यकारिणी का चनाव आम सभा में पत्र व्यवहार किया गया और नक्शे आदि बनवाये गये। सेठ गई। किया जाता है। बड़े हर्ष का विषय है कि चुनाव प्रायः सर्वसम्मति कस्तूर भाई लाल भाई तथा अन्य गण्य मान्य व्यक्तियों के साथ श्री मंदिर जी की प्रतिष्ठा तथा अंजनशलाका का कार्य 27-1- से ही सम्पन्न होते हैं। कभी मतदान करने का अवसर आया हो संपर्क किया गया जिसमें सभा के सभी सदस्यों ने अपनी-अपनी 1961 को विधिविधान पर्वक शांत मूर्ति जैनाचार्य श्री मद् विजयं ऐसी याद नहीं पड़ता। इसी प्रकार कार्यकारिणी के सदस्यों का क्षमता के अनुसार तन-मन-धन से सहयोग दिया। समुद्र सूरि जी महाराज के करकमलों से संपन्न हुआ। शिखर पर निर्वाचन भी एक मत से करने का प्रयत्न किया जाता है। हर रूप नगर मंदिर में मूलनायक के रूप में श्री शांति नाथ ध्वज दण्ड लाला रत्न चंद रिखब दास जी ने चढ़ाया और सुवर्ण प्रकार के उत्सव तथा समारोह उत्साहपूर्वक मनाये जाते हैं जिससे भगवान् की मूर्ति की स्थापना का निश्चय हुआ जिससे इस मंदिर कलश सेठ राम लाल नगीन दास (कपड़वंज निवासी) हाल बम्बई उल्लास की वृद्धि होती है। श्री आत्मानन्द जैन महासभा को भी का नाम श्री शांतिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर रखा गया। इसका ने चढ़ाया। लाला दीनानाथ देवराज परिवार दिल्ली ने भगवान् को दिल्ली सभा का हर प्रकार से पूर्ण सहयोग तथासमर्थनरहा है। श्री निर्माण महान शिल्पी श्री अमृत भाई जी की देख-रेख में हुआ। गादी पर विराजमान किया। मंदिर जी का द्वार उद्घाटन सेठ श्री आनन्द जी कल्याण जी पेढ़ी ने भी दिल्ली श्रीसंघ का एक in Education International For Prates Personal use only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज समाज उद्यान है, नर-नारी पुष्प-पौधे हैं। इस समाजोद्यान के बागवान हैं साधु-संत एवं समाज के अग्रणी। यदि इसे सुजल से नहीं सींचा गया और आवश्यकतानुसार पेड़-पौधों की कांट-छांट और देखभाल नहीं की गई तो उद्यान कुरूप होकर उजड़ जाएगा। चरित्र प्रतिनिधि लिया जाता है, स्व० लाला सुन्दर लाल जी बहुत वर्षों हीरों की कीमत उनकी चमक से होती है और मनष्य की कीमत उसके चरित्र से। तकप्रतिनिधित्वकरते रहे हैं और इस समयश्री राजकुमार जी इस महान् दायित्व को निभा रहे हैं। सभा के तत्वावधान में मानवता समय-समय पर विशाल और भव्य तीर्थ-यात्रा संघ की स्पैशल ट्रेन की व्यवस्था यहां से हुई। 1977 में श्री सम्मेद शिखर तीर्थ मानवता अखंड है, उसमें भेद भाव नहीं, ऊंच-नीच, धनवान, गरीब, तथा काले-गोरे का भेद यात्रा संघ का प्रबन्ध भी इस सभा ने किया। दोनों बार लगभग | दृष्टिकोण से होता है। 900-900 भाई-बहिनों ने तीर्थ यात्रा का लाभ लिया। हस्तिनापुर तीर्थ के लिए तो प्रतिवर्ष चार-पांच बार श्री संघ सामूहिक यात्रार्थ ज्ञान जाता है। इसके अतिरिक्त आचार्य भगवंत जहां भी विराजमान ज्ञान दीपक है, प्रेम उसका प्रकाश। ज्ञान और प्रेमयुक्त जीवन में जो ज्योति जलती है उसकी चमक होते हैं पyषणोपरांत श्री संघ क्षमापणा हेतु जाता है। सरलता है। श्री हस्तिनापुर तीर्थ दिल्ली के काफ़ी निकट होने के कारण श्री संघ की विशेष श्रद्धा इस तीर्थ के प्रति समर्पित है। तीर्थ के महावीर का संदेश लिए भाई-बहन यथाशक्ति द्रव्यदान देकर पुण्योपार्जन करते रहते हैं। भगवान महावीर ने अनेकान्तवाद का संदेश दिया था। उनका यह संदेश आज के खंडित, बिखरे हुए श्रमण भगवान महावीर स्वामी की 25वीं निर्वाण शताब्दी और दुःखी विश्व के लिए अमृतांजन है। धमधाम में राजधानी में मनाई गयी। श्रीसंघ ने इस अवसर पर विशिष्ट भूमिका निभाई। आचार्य विजय समुद्र सूरि जी महाराज हमें करना हैं का ऐतिहासिक नगरप्रवेश करवाया गया और शताब्दी संबंधी | हमें शोषणहीन समाज की रचना करनी है, जिसमें कोई भूखा प्यासा नहीं रहने पाये। तुम्हारी लक्ष्मी में कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया गया। सभा में सारे पंजाब और पाकिस्तान से प्राप्त ग्रंथभण्डारों का संकलन है और राष्ट्र उनका भी भाग है। सेवा के लिए श्रीसंघ ने सदैव तन-मन-धन से अपना सहयोग दिया है। विदेशी आक्रमण हो, अकाल हो या अन्य प्राकृतिक विपत्ति, 'शुद्धाचरण सभी समय श्री संघ ने मुक्त हस्त से दिल खोलकर दान दिया है। शुद्धाचरण द्वारा जीवन को मंदिर के समान पवित्र बनाओ। पवित्र मंदिर में ही भगवान बिराजमान श्री आत्मानन्द जैन महासभा ने जब वल्लभ स्मारक के निर्माण का कार्यभार दिल्ली श्रीसंघ को संभाला तब श्री | होंगे। आत्मानन्द जैन सभा दिल्ली ने आगे आकर इस कार्य को सम्पन्न -विजय वल्लभ सूरि करने का संकल्प किया। dan Education International For Private & Penggal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स -राजकुमार जैन, मानव की विचारशीलता एवं विवेक उसे सदैव विकास के कान्फ्रेन्स की स्थापना में सर्वाधिक योगदान स्वनामधन्य श्री साथ-साथ आत्म निरीक्षण के लिए भी प्रेरित करता है परिणामतः गुलाबचन्द्र जी ढढ्डा एम.ए. का था। कान्फ्रेन्स ने धार्मिक तथा व्यावहारिक शिक्षा के प्रसार में यथा मानव त्रुटियों को दूर करता, समस्याओं से जूझता उत्तरोत्तर संभव कार्य करते हुए जैन साहित्य, तत्वज्ञान और संस्कृति के उद्देश्य :- इस संस्था के उद्देश्य निम्नलिखित हैं:प्रगति करता है और यही प्रगति जब व्यक्ति से बढ़कर सामूहिक उच्च अध्ययन-संशोधन के लिए बनारस हिन्द विश्वविद्यालय में (1) समाज का उत्थान रूप धारण करती है तो समाज की उन्नति होती है। सहकार, जैन चेयर की स्थापना का अति महत्वपूर्ण कार्य किया था। (2) तीर्थ रक्षा यदव्यवहार, सहानभति, सेवा और समर्पण ये सामाजिक एकता (3) धार्मिक-व्यावहारिक शिक्षण साहित्य प्रकाशन के क्षेत्र में संस्था ने जैन डायरेक्टरी, जैन के मूल तत्व हैं जिस समाज में इन तत्वों का अवमूल्यन हो जाता है (4) जैन साहित्य का प्रचार ग्रन्थावली जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, जैन गुर्जर कवियों, उसकी उन्नति रुक जाती है और समाज में इन आधारभूत तत्वों (5) सामाजिक सुधार सन्मति तर्क का अंग्रेजी अनुवाद इत्यादि महत्वपूर्ण ग्रन्थों का पर निरन्तर विचार होता रहता है। यदि किसी प्रकार की समस्या (6) मध्यम व गरीब भाई-बहिनों का उत्कर्ष प्रकाशन कर साहित्य प्रचार किया। संस्था की ओर से "जैन आ रही हो तो सुझाब ढूंढ़े जाते है और साथ ही कैसे आगे बढ़ें कैसे कान्फ्रेन्स हरेल्ड व जैनयुग" नाम के मुख्य पत्र भी प्रकाशित हुए। (7) संगठन नए मार्ग खोजे जाएं इस पर एक साथ मिल बैठकरविचार विमर्श "जैन युग" ने जैन विद्या के संशोधन से संबंधित निबन्ध किया जाता है और किसी निष्कर्ष पर पहुंच कर उसे क्रियान्वित यह संस्था उपरोक्त उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए सतत प्रकाशित कर जैनेतर विद्वानों में भी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। किया जाता है तो वह समाज अवश्यमेव संगठित होकर सफलता उनकी पूर्ति के लिए प्रत्यनशील रही है। परम पूज्य युगवीर कुछ साल पूर्व की गई 'दी बर्द्धमान को-आपरेटिव बैंक की आचार्य विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज साहब की नवयुगीन प्राप्त करता है। देश में विभिन्न सामाजिक संस्थाओं की स्थापना क्रान्तिकारी विचारधारा कान्फ्रेन्स के लिए वरदान सिद्ध हुई थी। स्थापना मध्यम वर्ग की सहायता करने की दिशा में छोटा सा के पीछे यही कारण है। समाज की कई रुढ़ियों और गलत परम्पराओं को दूर करने एवं किन्तु रचनात्मक ठोस कदम हैं। स्थापना :- "श्री जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स" नामक मध्यम व गरीब भाई-बहिनों की उन्नति में श्रद्धेय गरुदेव के जीव हिंसा के विरुद्ध भी कान्फ्रेन्स की ओर से समय-समय सामाजिक संस्था की स्थापना भी जैन समाज के उत्कर्ष के लिए प्रेरक प्रवचन एवं आशीर्वाद अत्यन्त उपयोगी थे। वे मध्यम पर विरोध किया गया और सफलता भी मिली। चिकित्सा के क्षेत्र सबमें भ्रातृभाव एवं सहयोग बढ़ाने के लिए की गई थी। समाज के पथप्रदर्शक साधवृन्द एवं शुभचिन्तक अग्रणी गृहस्थों की जागृति भोजन तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे अपितु उनके प्रति ति भोजन तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे अपित उनके प्रति बड़ौदा में वर्तमान गच्छाधिपति परमारक्षत्रियोद्वारक आचार्य के कारण इस संस्था की स्थापना का कार्य सम्भव हो सका था एवं आन्तरिक करुणाभाव और परस्पर वात्सल्यपूर्ण व्यवहार से श्रीमद् विजय इन्द्र दिन्न सरि जी म.सा. की प्रेरणा से निर्मित -संस्था का प्रथम अधिवेशन राजस्थान के फलौदी तीर्थ में विक्रम जोड़ना चाहते थे। यही कारण है कि "सेवा और सहाय" को विजय वल्लभ हॉस्पिटल एवं श्री जे.आर. शाह के अथक प्रयास से सं. 1958 भाद्रपद कृष्णा अष्टमी तदनुसार दिनांक 25-9-1902 सर्वाधिक महत्वपर्ण उद्देश्य मानकर कान्फ्रेन्स ने उसे मोनोग्राम निर्मित सूरत स्थित "महावीर जनरल हॉस्पीटल जैन समाज के कोश्रीमान् बख्तावरमल जी मेहता की अध्यक्षता में हुआ था। में अंकित किया है। गौरव हैं। dan Education international For Pre & Personal Use Only www.jainelibrary.om Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39 गत 24 अधिवेशनों का विवरण वि.सं. 1958 1959 1961 1962 1963 1964 1965 1969 1971 1972 1974 1976 तीर्थरक्षा के क्षेत्र में भी कान्फ्रेन्स की उपलब्धि कम नहीं है। पूज्य गुरुदेव विजय वल्लभ सरि जी म.की भावना प्राचीन कांगड़ा तीर्थ के उद्धार थी तत्पश्चात् जिन शासनरत्न आचार्य विजय समद्र सरीश्वर जी म.सा. की अंतिम भावना थी कि कांगड़ा तीर्थ पंजाब का शवंजय तीर्थ बने अतः उन्होंने जैन भारती साध्वी श्री मगावती श्री जी म.को यह कार्य करने की प्रेरणा दी। पूज्या साध्वी श्री जी के प्रयासों से पुरातत्व विभाग के ऑफीसर श्री शीतलप्रसाद जी ने पूजा के लिए अनुमति दे दी। धिवेशन :- कान्फ्रेन्स की स्थापना से लेकर सन् 1979 तक 77 वर्ष की अवधि में भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न महानुभावों की अध्यक्षता में 24 अधिवेशन हो चुके हैं। इनमें अन्तिम 24वां अधिवेशन 1979 में श्रीमान् दीपचन्द भाई एस. गार्डी बार-एट-लॉ की अध्यक्षता में दिल्ली के "विजय बल्लभ स्मारक में शिलान्यास के अवसर पर सम्पन्न हुआ था। यह एक सुखद संयोग है कि कान्फ्रेन्स का 25वां रजत अधिवेशन पुनः बल्लभ स्मारक की मंगलकारिणी धरा पर आयोजित हो रहा है। कलिकाल कल्पतरू पूज्य गुरुदेव विजय वल्लभ सूरी जी म.सा. की पावन स्मृति में जिनशासनरत्न विजय समद्र सूरीश्वर जी म.सा. की सप्रेरणा एवं आदेश से तथा वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि जी म.सा. के आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन से जैन भारती महत्तरा साध्वी मृगावती श्री जी म.सा. के समाधिपर्यन्त सफल प्रयासों से निर्मित "विजय बल्लभ स्मारक' गत अधिवेशन से वर्तमान अधिवेशन के बीच एक अभिनव तीर्थ बन कर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रख्यात हो चका है। पूज्य आचार्य श्री जी की निश्रा में न केवल कान्फ्रेन्स का रजत अधिवेशन अपितु जिनप्रभु की अंजनशलाका एवं प्रतिष्ठा तथा पूज्य गुरुदेवों की मूर्ति स्थापना तथा प्रतिष्ठा का भव्य एकादशरन्हिका महोत्सव दिनांक 1.2.88 से 11.2.88 तक हो हा है। इस रजत अधिवेशन के मुख्य अतिथि श्री श्रेणिक भाई के लाल भाई (अध्यक्ष आनन्द जी कल्याण जी पेढ़ी) होंगे जो विजय वल्लभ स्मारक के संरक्षक भी हैं। समारोह के उद्घाटनकर्ता सुप्रसिद्ध उद्योगपति सर्व श्री अभयकमार ओसवाल एवं अध्यक्ष सर्व श्री दीपचन्द भाई एस. गार्डी बार-एट-लॉ बम्बई होंगे। यह अधिवेशन सामाजिक उत्कर्ष के कार्यों को प्रगति प्रदान करने में सफल हो यही शासनदेव से प्रार्थना है। 1981 अधिवेशन स्थल प्रमुख 1. प्लोदी (मारवाड़) सेठ बख्तावरमल मेहता 2. मुंबई रांय बद्रिदास बहादुर 3. बड़ोदरा (गुजरात) रायबहादर बद्धिसिंह जी दधेडीया 4. पाटण (गुजरात) सेठ वीरचंद दीपचंद, सी.आई.ई. 5. अहमदाबाद (गुजरात) रायबहादर सितापचंद जी नाहर 6. भावनगर (सौराष्ट्र) सेठ मनसुखभाई भगुभाई 7. पूना (महाराष्ट्र) सेठ नथमल गोलेच्छा 8. मुलतान (पंजाब) सेठ पन्नालाल जोहरी 9. सुजानगढ़ (राजपुताना) सेठ मोतीलाल मूलजी, जे.पी. 10. मुंबई डॉ. बालाभाई मगनलाल नाणावटी 11. कलकत्ता (बंगाल) सेठ खेतसी खीमसी, जे.पी. 12. सादड़ी (मारवाड़) लाला दौलतराम नाहर कन्वेन्शन सम्मेलन-मंबई खास अधिवेशन सेठ कस्तूरभाई लालभाई। (शत्रज्य समस्या) बाबू बहादुर सिंह जी सिंधी 13. जुन्नेर (महाराष्ट्र) रावसाहेब रवजी सोजपाल, जे.पी. 14. मुंबई बाब निर्मलकमार सिंह जी नवलखा 15. निंगाला सेठ छोटालाल त्रिकमलाल पारेख 16. मुंबई सेठ मेघजीभाई सोजपाल 17. फालना सेठ कांतिलाल ईश्वरलाल, जे.पी. 18. जूनागढ़ सेठ कांतिलाल ईश्वरलाल, जे.पी. 19. बम्बई (सवर्ण जयंती) सेठ अमृतलाल कालीदास जोशी, बी.ए. (बाद में श्री पोपटलाल रामंचद्र शाह) 20. बम्बई सेठ मोहनलाल लल्लुचंद शाह 21. धियाना श्री नरेन्द्रसिंह सिंधी 22. पालीताणा श्री अभयराज बलदौटा (बाद में श्रीहीरालाल एल. शाह) 23. पालीताणा श्री दीपचन्द्र एस. गार्डी 24. दिल्ली (वल्लभ स्मारक) श्री दीपचन्द्र एस. गाडी 1982 1986 19907 1997 2001 2006 2007 2008 2013 2016 2022 2029 2036 Snelibrary.orge Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजस्वी प्रशस्त भाल, निश्छल सौजन्य, करुणा आँखें, गुलाब के फल जैसा मुख- दःस में सदाखिला चेहरा, स्नेह-अमृत बरसाती दृष्टि, भारतीय संस्कृति और सभ्यता की पावन मर्यादाओं के प्रति अडिग आस्थावान् उज्वल शुद्ध खादी में साध्वी श्री के प्रथम दर्शन में ही दर्शक को परमशांति का अनुभव होता था। उनके पास जो एक बार आया, सदा के लिए नतमस्तक हो गया। उनमें ऐसी आत्मिक शक्ति थी, जो चुम्बक की तरह मानव को बरबस खींचती रहती थी। उनकी आकृति भव्य और आकर्षक थी। प्रवचन देते समय वे श्रोताओं के दिलों पर जादुई असर डालती थी। उनके व्यक्तित्व में कोमलता और सहानुभूति के साथ साहस और विवेक का सामंजस्य था। वे किसी के अन्याय को भारती देवी और झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की तरह प्रश्रय नहीं देती थीं। मनुष्य विचारवान् प्राणी है और उसकी सतत् प्रगति का कारण है, उसके विचारों को बांटने और अपनाने की क्षमता। साध्वी श्री ने विचारों की क्षमता से युग के नव निर्माण का बीड़ा उठाया: युवकों में उत्साह फूका महिला समाज को एक नई दिशा दी : मानव को सच्ची राह दिखाई और धर्म को क्रियाकांडों मन्दिरों तक ही सीमित न रखकर उसे व्यवहार में उतारा। उन्होंने अपनी वाणी के बल पर अनेकों संस्थाओं का निर्माण करवाया। इतना ही नहीं वे खुद एक बहुत बड़ी संस्था थीं देशोद्धार की संस्था, व्यक्ति के उद्धार की संस्था, धर्म, ज्ञान और विवेक की संस्था, संस्कृति और मनीषा की संस्था कंठ की मधुरता, वाणी की ओजस्विता, विनम्रता और स्निग्धता उनकी अपनी मौलिक विशेषताएं थी। साध्वी श्री शंकराचार्य जैसी तेजस्वी प्रखर वैराग्य विलक्षण प्रतिभा में गार्गी और मैत्रेयी जैसी गम्भीर ज्ञानगरिमा तथा सहजीबाई और मक्ताबाई जैसी गुरुभक्ति की सम्पदा थी। उनेक पास दौलत थी- सत्य की, आचरण की और पांच महावतों की, जिसे उन्होंने खुले हाथों दुनिया को बांटा, लटाया समाज से उन्होंने जो कुछ पाया, उनको सहस्त्रगुना कर वापिस कर दिया। गुरु आत्म का शीर्य, गुरुवल्लभ की दूरदृष्टि, गुरु समुद्र की गुरु भक्ति की त्रिवेणी संगम उनमें साकार था। अभूतपूर्व आत्मविश्वास और कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धयं सोए बिना स्वविवेक से निर्णय करने की क्षमता जैसे विलक्षण गुण उनके महत्तरा पद के अनुरूप ही थे। आज जबकि जीवन-मूल्य अनिश्चित हैं, व्यक्ति पर अहं प्रभावी है. युवावर्ग को कोई रचनात्मक दिशा प्राप्य नहीं है, कुप्रथाओं और कव्यसनों में मानव घरी तरह फंसता जा रहा है, पंचमकाल के विषम वातावरण में मानव बेहद अशान्त, परेशान हैं, ऐसे मानव के लिए आप अंधकार में संयोदय की भांति सिद्ध हुई। आपने एक सीधी स्पष्ट दिशा का निर्माण कर ऐसा मार्ग दिखाया, जिस पर महान लोगों के पदचिन्ह अंकित है। आप प्रत्येक मानव का आदर करते थे जो काम हाथ में लेते थे, उसे परा करके ही छोड़ते थे। "देह पातायामि कार्य वा साधयामि" का व्रत ताने-बाने की तरह उनके जीवन में बना हुआ था, इसलिए सफलताएं उनके चरण चमती थीं जो बोलते थे, उसे आचरण में कर दिखाते थे। साहित्यकारों, कलाकारों, विद्वानों का सदैव सम्मान करते थे। साधामिक बन्धुओं, विधवाओं निःसहायों, अनाथों, विद्यार्थियों की गुप्त सहायता करना उनका नित्यक्रम था। वे प्रान्त, लिंग, जाति एवं साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से ऊपर उठे हुए थे। आपने वल्लभ स्मारक के लिए जीवन अर्पित कर विजय वल्लभ स्मारक का निर्माण करवाया। आपकी यशोगाथा स्मारक के साथ हमेशा जुड़ी रहेगी। शत-शत अभिनंदन Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्लभ स्मारक के प्रति समर्पित कांगड़ा तीर्थोडारक, महत्तरा साध्वी श्री मृगावती श्री जी महाराज सौजन्य-मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली For Prve & Penal Use Only Jain Education international Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्तरा जी की छाया - सुशील रिन्द सेवा साधना गुरू भक्ति का जहां भी चर्चा आयेगा, बड़े प्रेम से सुज्येष्ठा श्री जी का नाम पुकारा जायेगा। बालापन में घर को छोड़ा प्रभु से प्रीत लगाई, महातपस्वी शीलवतीजी से धर्म की दीक्षा पाई, मृगावतीजी की साया बनकर सारी उमर बिताई, मीरा जैसा सच्ची पुजारिन इस युग की कहलाई, ऐसी नम्रता ऐसा समर्पण जब भी ढूंढा जायेगा..... बड़े प्रेम से...... मृगावतीजी की योजना थी गुरुयादगार रह जाये, गुरू के अर्पण सेवा का जो अमर गीत कहलाये, गुरुओं के गुण और गरिमा का कोई अमर संदेश सुनाये, ऐसा सुंदर वल्लभ स्मारक धरती पर बना जाये, देव विमान से प्यारा नक्शा दुनियाँ को जो लुभाये, ऐसी प्रेरणा देने वाला युगों में कभी ही आयेगा...... बड़े प्रेम से.. महासती चन्दनबाला सी दया धर्म की मूरत, तप और त्याग का नूर या उनमें रुहानी थी सूरत, प्रेमभाव हर एक से रखना इन की थी यह फिदरत, मृगावती को माँ से भी ममता दी और खिदमत जरी जरी इस धरती का इन्हीं के नगमे गायेगा..... बड़े प्रेम से.. चेहरे पर मुस्कान थी हरदम दिल में प्यार था माँ का, भोली भाली सूरत उनकी गम था सारे जहाँ का, भगवा जैसी समता थी इनमें जिस्म मिला इन्सों का, याद रहेगा दुनियाँ भर में किस्सा यह बलिदां का, सच्ची शिष्या अपने गुरु की "रिन्द" तो भूल न पायेगा..... बड़े प्रेम से.. Jain Education international महत्तराजी एक राष्ट्रीय मूल्यांकन सदियों की गुलामी से अपने को मुक्त करवाने के लिए इस देश ने जो अहिसात्मक ढंग से लड़ाई लड़ी, दुनियां के इतिहास में उसकी मिसाल नहीं आजादी हासिल कर लेने के बाद एक दूसरी लड़ाई शुरू हुई, वह थी विघटनकारी तत्वों के खिलाफ देश में जनतान्त्रिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की। इन दोनों लड़ाइयों में जिन राजनीतिज्ञों, समाज सुधारकों, क्रान्तिकारियों, बुद्धिजीवियों कलाकारों और साधु-सन्तों ने जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, देश उनके उपकारों से कभी उॠण नहीं हो सकता। इन महान आत्माओं का पुण्यस्मरण आजादी के बाद जन्मी आज की युवा पीढ़ी को न सिर्फ बल प्रदान करेगा बल्कि भारतीय अस्मिता के प्रति उन्हें जागरूक भी बनायेगा। सुप्रज्ञा श्री समाज सुधारक, शिक्षा प्रचारक, राष्ट्रसन्त श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज की पावन छत्र-छाया मिली। जिससे उनकी स्वदेशी भावना पुष्पित एवं पल्लवित हुई। साध्वी मृगावती जी ने अल्प समय में ही अपनी प्रखर प्रतिभा के बल से वैदिक, बौद्ध एवं जैन परम्परा के वाङ्मय का तुलनात्मक अध्ययन राष्ट्रीय पुरुस्कार से अलंकृत पंडित सुखलाल जी एवं पं. बेचरदास जी से कर लिया। उनके दोनों विद्या गुरु बापू के निकट रहने वालों में से थे। हाथ से कती हुई शुद्ध खादी पहनते थे। देश की आजादी के लिये अनेकों बार जेल काटी थी सोने में सुगन्ध मिली। साध्वी मृगावती श्री जी के स्वदेशी विचारों में अधिक परिपक्वता आई । साध्वी मृगावती श्री जी महाराज का पुनः शुरू हो गया जन जागृति अभियान का सफर उनका कार्यक्षेत्र मात्र जैन धर्मानुयायिओं तक ही सीमित नहीं था। उन्होंने अपना जीवन संपूर्ण भारतीय समाज के लिए अर्पित कर दिया। साध्वी जी महाराज ने विचारों की क्षमता से युग के नव निर्माण का बीड़ा उठाया, युवकों में उत्साह भरा, महिला समाज को नई दिशा दी, और मानव को सच्ची राह दिखाई। धर्म को क्रियाकांडों, मंदिरों तथा धर्मस्थानकों तक ही सीमित न रखकर उसे व्यवहार में उतारने की प्रेरणा दी। देश में फैली हुई सामाजिक कुरीतियाँ दहेज प्रथा, मृत्योपरान्त छाती पीटने की प्रथा, मैला कुचैला पहनने की प्रथा, रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, मध-मांस, अंडा, सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू आदि व्यसनों के विरुद्ध, उन्होंने जन-आन्दोलन छेड़ा और सफलता पाई। समाज से अशिक्षा दूर करने के लिए स्कूलों, कालिजों, नारी शिक्षा केन्द्रों की स्थापना करवाई। देश में श्रम की प्रतिष्ठा को बढ़ावा देने के लिए ग्रामानुग्राम पैदल चलकर लोगों को स्वावलम्बी बनने का उपदेश दिया बेरोजगारों को रोजी रोटी मिले उसके लिए हस्त उद्योग और लघु उद्योग केन्द्रों की स्थापना करवाई। समाज को निरर्थक खचों और आडम्बरों से दूर रखा। देश के अनेक अन्ध विद्यालयों को आर्थिक सहायता दिलवाई। वे जीवन भर हाथों से कते हुए शुद्ध खादी वस्त्र ही पहनती रहीं। वे भिक्षुणी थीं। खादी की भिक्षा) उसी व्यक्ति से स्वीकार करती थीं जो स्वयं खादी पहनता हो। मातृभाषा गुजराती थी। संस्कृत में तो वे धाराप्रवाह प्रवचन दिया। उंगलियों पर ही गिनी जाने वाली देश की नारी सन्तों में आधुनिक युग में जैन साध्वी महत्तरा मृगावती श्री जी का नाम अग्रगण्य है। उनका जन्म सन् 1926 में सौराष्ट्र में राजकोट से 16 किलोमीटर दूर सरधार के एक जैन सुखी परिवार में हुआ था। अभी भानुमति दो वर्ष की भी न हुई थी कि पिता डूंगरशी भाई स्वर्ग सिधार गए। कुछ ही वर्षों बाद दोनों प्रिय भ्राता अपनी पूज्य माता और प्यारी बहन को अहसाय छोड़ कर चले गये। जिससे माता के दिल को बड़ा धक्का लगा। इस असार संसार से वैराग्य उत्पन्न हुआ। उन्हीं दिनों में गांधी जी के स्वतन्त्रता आन्दोलनों की बड़ी धूम मची हुई थी। गांधी जी के आह्वान पर बच्चा, बूढा, जवान, भाई-बहन सभी देश की आजादी के लिए मर मिटने को तैयार थे। उस समय राजकोट, अंबा और सरधार बापू के आन्दोलनों का मुख्य कार्यक्षेत्र था। माता शिवकुंवर बहन और पुत्री भानुमति पर भी गांधी जी का बहुत प्रभाव पड़ा। वे धीरे-धीरे गांधी जी के सत्याचरणयुक्त व्यक्तित्व एवं उनकी विचारधारा में रंगते गये। 11 वर्ष की आयु में राजकोट के स्वतन्त्रता आन्दोलनों के जलूसों में सहयोग देने लगे। घर की सब सम्पत्ति स्वतन्त्रता सेनानियों को अर्पित कर 13 वर्ष की अल्पायु में मां पुत्री दोनों ने सन्यास धारण कर लिया। माता का नाम साध्वी शीलवती श्री जी और पुत्री का नाम साध्वी मृगावती श्री जी रखा ● गया। सौभाग्य से साध्वी जी महाराज को दीक्षा के पश्चात पंजाब केसरी, अज्ञान तिमिर तरणि, कलिकाल कल्पतरू, युगद्रष्टा, www.jainelion Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते थे। प्राकृत प्राकृतक अर्ध-मागधी, पाली, उर्द, बंगाली, भयवर्जन, सर्वधर्म समानत्व, स्वेदेशी स्पर्शभावना का 8. दो उपाश्रय। मारवाड़ी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के जानकार होते हुए भी उन्होंने प्रांत-प्रांत, ग्राम ग्राम में उपदेश दिया और राष्ट्र में गांधी जी के 9, भगवान वासुपज्य मन्दिर। अपने प्रवचनों का माध्यम हिन्दी राष्ट्रभाषा को बनाया। उन्होंने स्वप्न 'रामराज्य' को फैलाने में विनोबा जी की भांति आजीवन 10. मुख्य स्मारक भुवन - विजय वल्लभ गरु समाधि मन्दिर। जम्मू (कश्मीर) से लेकर दक्षिण में मैसूर, बंगलौर तथा पूर्व में प्रयत्न किया। आचरण हो उतना ही बोलना, सर्वधर्म समभाव की 11. अतिथि गृह। कलकत्ता तक सारे भारत का 60,000 (साठ हजार) मील पैदल भावना, अन्याय के विरोध का साहस, किसी भी वस्तु का । भ्रमण किया और जैन समाज के हृदय को जीतकर उन्हें राष्ट्रीय दुरुपयोग न होने देना, समय की पाबन्दी, सतत् सत्कार्यों में लगे 12. स्थाया निःशुल्क विजय वल्लभ स्मार एकता, देश बन्धुत्व, धर्म सहिष्णुता, न्यायनीति से चलना, रहना, एक क्षण भी प्रमाद में नहीं गुजारना, अपनी गलती को 13. एक कला संग्रहालय। परोपकार करना, सत्य बोलना, प्राणियों पर दया, अनुकम्पा तत्काल स्वीकार करना, दूसरों के लिए उपयोगी बनना, शद 14. आसपास की ग्रामीण जनता के लाभार्थ - होम्योपैथी रखना, विश्वासघात नहीं करना, सन्तोष से सादगी पूर्ण जिदगी जीवन जीना, दसरों को ऐसी प्रेरणा देना और देशभक्ति ये थीं औषधालय। गुजारना, नयी नयी मद्विद्याओं का अभ्यास करना और उनकी स्वभावगत विशेषताएं। कंठ की मधुरता, भाषा की सानी लिन सत्यनिष्ठा, शुद्धाचरण तथा आपस में मिल जलकर रहने का पाठ ओजस्विता, विनम्रता और स्निग्धता ये थीं उनकी वाणी की पढ़ाया। अपनी मौलिक विशेषताएं जिसके कारण सफलताएं इनके चरण पब्लिक स्कल, छात्रावास, महिला प्रशिक्षण तथा उद्योग स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश पर जब जब संकट गहराया, चमती थीं पदों से उन्हें व्यामोह नहीं था फिर भी उनकी ज्ञान केन्द्र, कार्यालय, जलपान गह निर्माण का भी प्रावधान है। उन्होंने साध्वी मृगावती श्री जी महाराज ने समाज को राष्ट्र सेवा के लिए गरिमा एवं कार्यशक्ति से प्रभावित होकर उनके गुरुदेवों ने उन्हें विजय वल्लभ स्मारक की भावी सुव्यवस्था एवं निवाह के लिए तैयार किया। पावापुरी बिहार में श्री गलजारी लाल नन्दा की जैन भारती, कांगड़ा तीर्थोद्वारिका, एवं महत्तरा आदि पद अनेकों ट्रस्टों की स्थापना करवाई है। अध्यक्षता में भारत सेवक समाज के अधिवेशन में 80000 जन स्वीकृति में विवश कर दिया। इस पावन थी आत्मवल्लभ संस्कृति मन्दिर प्रसिद्ध नाम समदाय की उपस्थिति में उन्होंने सक्रिय भाग लेकर भारत की विजय वल्लभ स्मारक से आधुनिक युग को मिलेग भारतीय नारी-सन्त का गौरव बढ़ाया। भारत का विशाल जनसमूह उनके भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का प्रतीक विराट एवं भव्य संस्कृति का नवनीत-मंगलमैत्री की भावना, प्रेम स्नेह, सौहार्द, उपदेशों पर कुछ भी करने को सदैव तत्पर रहता था। चीन द्वारा विजय वल्लभ स्मारक: सेवा, भाईचारे की भावना, सखशान्ति, आनन्द और भगवान आक्रमण समय, भारत के तत्कालिक प्रधानमंत्री श्री लाल बहादर अपने जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने उपदेश देकर जैनाचार्य महावीर का सार्वकालिक सार्वभौम उपदेश "जीओ और जीने शास्त्री के आह्वान पर उन्होंने स्वयं सोमवार एक समय के श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज की स्मृति में करोड़ों दो"। भारतीय नागरिक इस संस्कृति मन्दिर में आकर जीवन भोजन का त्याग किया और जनता को इसके लिये प्रेरणा दी। की लागत से जो स्वतन्त्र भारत की राजधानी दिल्ली जी.टी. जीने की कला सीखेंगे और संसार को जीना सिखायगे। पाकिस्तानी आक्रमण के समय उन्होंने समाज को राष्ट्र के प्रति करनाल रोड नं. 1 से 20 किलोमीटर स्थित भखंड पर उभर रहे उनकी तमाम सत्प्रवृत्तियों का मूल शक्ति म्रात था - का स्मरण करवाया। अपगा का सहायता कालयाशावर भारतीय सभ्यता, साहित्य, कला, धम् एव सस्कृति के प्रतीक वीतराग प्रभ के प्रति अनठी श्रद्धा, अनुपम आराधना। सम्यग लगवाये, दुष्काल पीड़ित प्रदेशों में घास चारे के वैगन भिजवाये। "आत्म बल्लभ संस्कृति मंदिर" प्रसिद्ध नाम विजय वल्लभ दर्शन, ज्ञान, चरित्र की रोम-रोम में रमी साधना का ही यह बाढ पीडित क्षत्रों को आथिक सहायता दिलवाई। रोगियों की स्मारक का निमाण करवाया, वह तामहत्तरासाध्या मृगावताथा परिणाम था कि शरीर से अशक्त अवस्था भी की सहायता एवं चिकित्सा के लिये औषधालयों के निर्माण की प्रेरणा जी के जीवन का अन्तिम कीर्तिकलश है। जिसमें उनकी सद्प्रेरणा अपिटमा अर्धपद्मासन समाधि लगाकर उन्होंने देह का परित्याग किया। दी। कैंसर रोग से पीड़ित मानव जाति की राहत के लिये उत्तर से स्थापित हुई हैं: इस देहातीत अवस्था का हजारों नर-नारियों ने दर्शन अनभव भारत में आधुनिक साधनों से युक्त 300 बैड वाले विशाल एवं 1. श्री आत्म वल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि की स्थापना। किया। आत्मकल्याण के लिये तो उन्होंने संन्यास का मार्ग चना ही भव्य "मोहनदेवी ओसवाल कैंसर एवं रिसर्च सैन्टर" की सन् 2. भारतीय प्राच्य विद्या शोधपीठ। था, उन्होंने जगत का भी कल्याण किया। उनके कार्य वास्तव में 1981 में लुधियाना में स्थापना करवाई। जातपात, लिंग, उनके जीवन की कविता हैं, जिसे जमाना युगों-युगों तक सम्प्रदाय तथा वादों से परे रहकर उन्होंने हमेशा भारत की सच्ची 3. छात्रावास - शीलसौरभ विद्या विहार। दोहरायेगा। भारतीय इतिहास में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा सुपुत्री बनकर भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का प्रचार किया। 4. संस्कृत, प्राकृत अध्ययन - अध्यापन केन्द्र। जायेगा। सन् 1986, 18 जलाई को उन्होंने अपने जीवन को भी गांधी जी के जीवन से मगावती श्री जी अत्यन्त प्रभावित थीं। 5. विशाल पुस्तकालय। वल्लभ स्मारक की इस तपोभूमि के लिए होम दिया। उनके एवं उनमें श्रद्धा भाव रखती थीं। गांधी जी के || व्रत अहिंसा, 6. प्राचीन हस्तलिखित शास्त्र भंडार। असामयिक निधन से केवल जैन-जगत को ही नहीं बरण सम्पर्ण सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह, शरीरथम, अस्वाद, सर्वत्र 7.दो उपासना गृह। विश्व के समस्त शान्ति प्रिय समाजों को भी भारी क्षति हुई है। Jain Education international For Pinteremenal Use Only www.jainelibrary,om Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्रस्तुत उद्गार महत्तरा साध्वी श्री मृगावती श्री जी म. के स्वर्गारोहण के पश्चात् आयोजित गुणानुवाद सभा में परमगुरुभक्त राजकुमार जी जैन, महामंत्री श्री आत्म वल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि दिल्ली, ने व्यक्त किए थे। साध्वी मृगावती जी महाराज हम सब को बिलखता हुआ छोड़कर चली गयी हैं। उत्तर-भारत नहीं, सारा भारतवर्ष का नहीं, अपितु विदेशों का कौन सा प्राणी ऐसा होगा जिसके दिल को इस बात को सुनकर ठेस न लगी हो? उन्होंने कितने महान कार्य किये, जीवन को किस प्रकार से अर्पण कर दिया, अपना दिल निष्काम कार्यों में लगा दिया, भगवान महावीर के शासन तथा मिशन के प्रचार और प्रसार के लिए अपने आप को उन्होंने बलिदान कर दिया। ____ भाइयों और बहिनों, मैं ज्यादा लम्बी कहानी नहीं कहता। आप सब के समक्ष है कि जीवन पर्यन्त उत्तर-भारत से लेकर दक्षिण भारत तक कितना भ्रमण किया और उसके पश्चात् अपने जीवन की अन्तिम वेला में विजय समुद्र सूरि जी महाराज की आज्ञा लेकर उन्होंने श्री वल्लभ स्मारक के निमार्ण का कार्य चालू किया। वल्लभ स्मारक एक ऐसी विविध लक्षी योजना है जिसकी मिसाल नहीं मिलती। जो अपने आप में अद्वितीय है। समाज के सर्वांगीण विकास के लिए उन्होंने योजना बनायी और अपने आप को इसमें होम कर चली गयीं। जैन समाज ने संकल्प किया है कि महाराज साहब ने जो काम शुरू किया है वह अधूरा नहीं रहेगा, हम उसको वेग गति से पूरा करेंगे। महाराज साहब के कार्यों की जितनी भी प्रशंसा की जाए,कम है। आज सबका हृदयरोरहा है। सब जानते हैं कि महाराज साहब ने कितने भाव से संघ और शासन की सेवा की है जीवन पर्यन्त कभी अपने नाम की लालसा नहीं की। समाज की जो नेशनल धारा थी, उसके साथ वह बराबर चलीं, जीवन पर्यन्त खादी पहनीं। उन्होंने सेवा के माध्यम से समाज और निम्न वर्ग का उत्थान करने का जीवन भर प्रयास किया और उसमें वह सफल रहीं। मैं समझता हूँ उन्होंने एक ऐसा आदर्श मार्ग हमारे लिए प्रशस्त किया है जिस का हम अनुसरण करते रहें तो समाज निश्चय ही आगे बढ़ सकता है। पिछले 4-5 महीनों से उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। लेकिन उन्होंने कभी इसकी चिन्ता नहीं की। सच पूछा जाए तो सन् 1977 में ही उनको रोग चालू हो गया था लेकिन अपने शरीर पर कष्ट सहना उन्होंने सीखा था और इसका उन्होंने डेढ़ साल तक किसी को पता भी नहीं श्री मृगावती महाराज की दिव्य अलौकिक शक्ति Juin Education in For Private sRemonetune Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलने दिया। अन्तिम घड़ियों में भी उन्होंने कहा मेरे ऊपर जो उनको पीड़ा हो रही है, उनको ड्राउजीनैस है), उठकर चैतन्य का, पूरे धाम का नाम लिखा था। जितना परिपेक्ष्य है, वह सब कष्ट हैं, मैं इसी शरीर के माध्यम से उसको छोड़ कर जाना होकर बैठ गये। समाधि लगा ली। सामने शंखेश्वर दादा की उसमें बताया हुआ था, और कहा अनन्त काम करने वाली है, चाहती है, साथ नहीं ले जाना चाहती है। इसीलिए उन्होंने बताया फोटो लगी हुई थी, उनके सामने बैठ गए और कहा कि मेरे शरीर अनन्त उपाकार करने वाली है, जिसको आशीर्वाद देती हैं, उसका नहीं। लेकिन जब समाज को पता चला तो उनका इलाज किया को मत छूना। चारों आहार का परित्याग कर दिया और दवा दारू दुःख हर करके उसकी पीड़ा अपने ऊपर ले लेती हैं। (मैंने गया और पांच वर्ष तक वह निरन्तर ठीक रहे और उसके पश्चात् नहीं ली। कहा, मुझे कोई सहारे की जरूरत नहीं है। इस तरह से महाराज साहब से जब इतनी बात सुनी तो साध्वी महाराज को रोग किसी और रूप में आगे बढ़ा। उसका भी हमें एक साल भर बैठे मानो बिल्कुल स्वस्थ होते हैं। शरीर में दुर्बलता थी, कभी वह जो टेप हमने भृगुसंहिता सुन कर भरी थी, वह तीनों महाराज पता नहीं चला। मार्च के महीने में जब यह देखा कि गुरु महाराज शरीर ऐसे झूमता था, कभी ऐसे झूमता था, लेकिन उन्होंने कहा साहब को सुनायी)। बड़ी विचित्र बात थी। बीच में मुझे मौका को दो महीने से ज्वर आता है और ज्वर का कुछ नियन्त्रण नहीं हो शरीर को छूना नहीं। उनके मस्तिष्क में इतनी बातें थीं, सभी को मिला तो मैंने महाराज साहब को एक दिन पहले सुनाई। अर्ध रहा है तो सच पूछो 15 फीसदी हम पहले समझे ही नहीं थे, उन्होंने याद किया। समाज के सब आगेवानों को याद किया, निन्द्रा में थे वे जब यह बात सुनी तो (जिस व्यक्ति को जो यह उन्होंने बताया ही नहीं, पीड़ा थी, ज्वर था लेकिन कभी चेहरे पर जिनको याद किया वे उनके सामने आये हाथ जोड़ कर। उस आशीर्वाद देती है उसको अपने शरीर को काई रोग नहीं है, उस आने ही नहीं दिया, कि मुझे क्या तकलीफ है, कभी जिक्र तक नहीं स्थिति में उन्होंने मिच्छामि दुक्कड़ किया। उन्होंने कहा आप ने की पीड़ा अपने ऊपर ले लेती है यही दुःख इन को तंग कर रहा है) किया, बहुत बर्दाशत करते थे, छोटे-मोटी बात तो वह कहते ही मेरी बहुत सेवा की है और मेरे से कोई गलती हो गयी हो तो उसे मुझे कहने लगे, कहना भी नहीं चाहती लेकिन कहे बिना रहा भी नहीं थे लेकिन जिस समय यह समझ में आया और इलाज शुरु क्षमा करना। लाला राम लाल जी को याद किया, ला. रतन चन्द नहीं जाता, भाई यह बिल्कुल सत्य है। ऐसा हुआ है जीवन में। किया तो पता चला वही रोग दोबारा फिर अन्दर चालू हो गया है। जी को याद किया, मुझे भी बुलाया। भाई शांति लाल जी खिलौने फिर मैंने कहा आप का तो स्यालकोट में जन्म हुआ था भाई मैं तो उन्होंने कहा मझे कोई चिन्ता नहीं है। मेरे शरीर को रोग वाले को आप जानते हैं, कितनी सेवा करते हैं, अगर वह सेवा नहीं कहती हूं कि मैं पंजाबी हं। इस तरह की अनेक बातें कहीं। किसी होगा, मेरी आत्मा को कोई रोग नहीं है। निरन्तर बह आदीश्वर करते तो यहाँ दो-तीन वर्ष महाराज साहब का चातुर्मास असम्भव भव में अष्टापद पर्वत की इन्होंने परिक्रमा की थी। भगवान प्रभु का और शंखेश्वर पार्श्वनाथ का जाप करते रहे। बहुत था। हम सब मिल कर भी जितनी सेवा करते हैं उससे कहीं पाश्र्वनाथ की उन्होंने आराधना की थी, अनेक बातें उसमें ऐसी इलाज किया, बम्बई के डाक्टर आये, दिल्ली के डाक्टर भी आये, अधिक वह अकेले व्यक्ति सेवा करते हैं। उसको बुलाया, 'शाति थीं। एक बात और लिखी थी, आप लोग सिरिज से उनके पेट का आयुर्वेद आचार्य आये, होम्पोपैथ भी आये, कसर कोई नहीं लाल भाई से एक बार नहीं सात बार खिमाया। राज कुमार जी पानी निकालेंगे, चिकित्सा करने की कोशिश करेंगे तो लाभ होने छोड़ी। बहुत बड़ा संतोष था उनमें। उन्होंने कभी अपने हृदय की अम्बाला अम्बाला वाले आए उनसे कहा अम्बाला श्रीसंघ से मैं मन, वचन वाला नहीं है। इनको लाभ होने वाला है तो केवल नवकार मन्त्र के वेदना व्यक्त नहीं की। हां, सहना सीखा था, उन्होंने कहना नहीं और काया से मिच्छामि दुक्कड़ करती हूँ। करोड़ों मंत्रों के जाप से होने वाला है। वैसे तो जाप बहत हुए। सीखा था। ऐसी महान आत्मा हमारे बीच से चली गयीं। अभी 18 ये सारी बातें होती रहीं, जो लोग आये उन से। मैंने अपने लेकिन दुर्भाग्य है कि ऐसी जीवात्मा जिसने अपने लिये जीवन में तारीख को कल सुबह सवा आठ बजे उनका देवलोक गमन हुआ। हृदय की बात कही महाराज साहब! आपका तो इतना बड़ा कुछ नहीं किया एक पतली और हल्की खादी पहनी और बिल्कुल लेकिन 16 तारीख से ही, कुछ ज्यादा स्वास्थ्य बिगड़ा था, 17 मनोबल है, आप चाहें तो जी सकते हैं। भृगुसंहिता की एक कंडली अल्पाहार किया, इतना थोड़ा खाते थे जिस से वह जीवन भर तारीख को शाम को 6 बजे सोचा कि कई दिनों से इनके अन्दर जो उन्होंने रविवार को देखी। उसमें एक बात लिखी थी कि यह केवल जी सकें, और वही आदत हमारे बाकी साध्वी महाराज में कुछ खुराक नहीं गयी, ताकत शरीर में कैसे आयेगी, एक छूट प्राणी महान है। अनेक वर्षों से यह मोक्ष जाने की खोज में है और भी है। परिग्रह बिल्कुल नहीं था और अन्त समय क्या हुआ? जब पानी नहीं गया, एक दाना अन्न का नहीं गया, यह शरीर कैसे कई बार जैन साधु साध्वी बन चुका है। एक बात और कहीं। पौने पांच घंटे की (5-45 बजे से लेकर 10-30 बजे तक) समाधि चलेगा? उन्होंने कहा मुझे कुछ जरूरत नहीं है। बहुत कोशिश जलालुद्दीन अकबर बादशाह भारत का सम्राट था इन्होंने उसको ली तो हम हैरान हो गये, दिल्ली का सकल संघ भागा-भागा यहाँ र्ध निद्रा में भी थे लेकिन उन्होंने उपचार करने की हमें प्रतिबोध दिया। उस समय यह आत्मा पदमा नाम की जैन साधी पहुंचा। ऐसी अद्भुत घटना थी, ऐसी दशा को देख-देख कर लोग आज्ञा नहीं दी। शाम को सोचा कि इनको कोई इंजेक्शन दे दिया थी। इनके बारे में कई कुछ लिखा है बड़ी विदुषी थी। यह साध्वी हैरान होते थे, नत-मस्तक होते थे, दर्शन करते थे। उन्होंने हमें जाए ताकि थोड़ी सी नींद आ जाये और हम ग्लूकोज का डिप लगा फिर दक्षिण भारत में चली गयीं। यह भी लिखा था कि इनका कुछ अनेक बातें कहीं। लेकिन उसके बाद 11-00 बजे करीब उनको दें। लेकिन सुबह ड्रिप लगाने की कोशिश की तो उतरवा दिया। लिखा हुआ, कहीं इनका कुछ छुपा हुआ अभी अप्रकाशित पड़ा बहुत मिन्नत करके सुलाया गया, रात ठीक निकली, लेकिन सुबह शाम को ड्रिप लगाने की हमने तैयारी की कि इंजेक्शन दे दें, है। फिर उसमें यह भी था कि इस आत्मा ने उसके बाद चन्द्रभागा हमारे लिए अच्छी नहीं आयी। धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य उखड़ने डाक्टर ने 5-30 बजे इंजेक्शन दे दिया, तबीयत अच्छी नहीं थी और रावी नदी के बीच में जो सियाल नाम का नगर है जिसे लगा। इस क्रम में उनका देवलोक गमन हुआ। वे हमें बिलखता लेकिन 5-45 बजे न जाने क्या हुआ (महाराज साहब अपने पाट सियालकोट कहते हैं, वहां जन्म लिया वहां अल्पायु में ही देवलोक हुआ छोड़ कर चले गये। पर लेटे हुए थे हमें महसूस होता था उनकी तबीयत अच्छी नहीं है, हो गयीं। यही आत्मा इस समय मुगावती के नाम से है। पूरे नाम ऐसी महान आत्मा जिन्होंने जीवन में अपना यह लक्ष्य बनाया Jain Education international For-Private- Personal use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था कि हमें समाज का उत्थान करना है। एक-एक व्यक्ति अपने इतनी महान आत्मा जिसको संसार पूजता है, जिनके उपकारों का संस्कार उन्होंने चेंज किये। अपने नजदीक लाकर, प्यार देकर। हृदय को टटोल कर देख सकता है कि उस पर उनकी कितनी कृपा बदला हम चुका नहीं सकते। मैं समझता हूं कि विजय वल्लभ सूरि उन्होंने कभी नहीं कहा दरवाजे के अन्दर घुसते ही कि भाई आलू रही है। कौन ऐसा व्यक्ति है-बाल, वृद्ध, जवान, स्त्री, पुरुष जो जी महाराज की डायरेक्ट-सीधी याद किसी के ऊपर हाथ है तो खाते हो? नियम लो। मंदिर नहीं जाते हो? नियम लो, कभी नहीं उनकी कृपा से लाभान्वित न हुआ हो जो वंचित रहा हो। ऐसी वह है हमारे साध्वी मृगावती जी महाराज। ऐसी महान आत्मा के कहा। व्यक्ति को नजदीक लाये, बालक भी नजदीक आये, बहनें महान आत्मा हमारे अन्दर से चली गयी हैं। हम सोचते हैं कि लिए हम कुछ तो सोचें। कोई ऐसा स्थान हो, इस स्मारक भूमि में भी नजदीक आयीं, पढ़े-लिखे नजदीक आये, अशिक्षित नजदीक उनकी याद में कोई चीज बनाये लेकिन एक बात है महाराज दाखिल होते ही उस जगह के दर्शन हो सकें। आप पद्यावती के आये। फिर क्या हुआ जब श्रद्धाभाव पैदा हुआ तो एक-एक साहब ने जीवन में अपना एक लक्ष्य रखा था कि मुझे सादगी मंदिर पर जाएं तो आपको दर्शन हो जाएं। आप गेट के अंदर आयें व्यक्ति अपने हृदय को, अपनी सर्व सम्पत्ति को समर्पित करने के पसन्द है, मुझे आडम्बर पसन्द नहीं है तो उसी के अनुरूप कोई तो आपको दर्शन हो जाएं, आप भव्य स्मारक में से बाहिर निकलें, लिए तैयार हो गया। उसी का यह एक नमूना है कि आज इतना बात हम सोचेंगे। वह कहा करते थे कि अरण्य हो, कोई छोटा बन अन्दर आयें तो आपको दर्शन हो जायें। इस महान विभूति की बड़ा स्मारक बन रहा है ऐसी महान विभूति हमारे बीच से चली हो, झाड़ हो, छुपी हुई कोई जगह हो, उस में निहित बैठ कर, कोई जगह ऐसी होनी चाहिए। इसीलिए संघ ने निर्णय किया कि उनकी गयीं। उनकी याद में हम कुछ न कुछ जरूर बनायेंगे। सुन्दर छुप कर आराधना कर सके, साधना कर सके और ऐसा वन का अन्त्येष्टि यहां पर पास में जो चबूतरा बनाया गया है वहां पर की बनायेंगे। जो उनको रुचिकर लगता था वह बनायेंगे। ऐसी कोई दृश्य हो मुझे तो ऐसी जगह अच्छी लगती है। हो सकता है जायेगी। योजना बनेगी। इस में कुछ चाल होने वाला है। श्रद्धांजलियों के उनकी भावना के अनुरूप हम परामर्श करेंगे, श्री सव्रता श्री भाइयो और बहिनों! हमारा दुर्भाग्य था, घटना चक्र कुछ बीच में उसकी रूपरेखा मैं आपके सामने रखंगा। अभी महाराज जी से कि उनकी क्या-क्या भावनाएं थीं, उनके अनुसार अजीब हो गया है, हम उनके उपकारों को भूल नहीं सकते. श्रद्धांजलियों का कार्यक्रम होगा। इससे पहले मैं अर्ज करूंगा श्री उनके लिए कोई छोटी सी सुन्दर रम्य, सरम्य चीज जहाँ पर एक-एक बात में हम उनसे परामर्श किया करते थे। वह जैन नरेन्द्र प्रकाश मोती लाल, बनारसी दास से। वह सेवा में बहत लगे हमारी आने वाली पीढ़ियाँ, आप सब लोग आकर अपनी आत्मा साध्वी क्या थी? वह तो मानो किसी बड़े-बड़े समाट् और रहे, कभी अपने आफिस में, दुकान में बैठ करके एक मिनट किसी को सन्तोष दे सकें। उनको कोई बड़े भवन से या बड़ी समाधि से बड़े-बड़े आचार्य से ज्यादा बद्धि रखने वाली एक महान विभूति तरफ देखा नहीं। महीनों से, सुबह-शाम और आज कल तो दिन कोई प्यार नहीं था। उनको प्यार था आत्मा के उत्थान से। उसके थी। उनको पता था कि शासन कैसे चलया जाता है। एक-एक में चार बार और अन्तिम दिनों में रात्रि को यहां सोना, यह उन्होंने लिये वह स्थान चाहते थे। आप जानते हैं श्री सृज्येष्ठा श्री जी भाई-बहिन के हृदय को उन्होंने जीता हुआ था। अभी चार-पांच नियम बना रखा था और उनके घर से अनुराधा बहन, उनकी महाराज इन की बहुत सेवा किया करते थे। जब उनका देवलोक महीने पहले मैं बम्बई गया श्वेताम्बर जैन कॉफ्रेंस में उनकी माता चाई जी, जो उन्होंने सेवा की उसकी मिशाल नहीं मिल हुआ तो उनके लिए उन्होंने कहा एक छोटी सी जगह कोई ऐसी स्टेडिंग कमेटी का अधिवेशन था। आचार्य भगवान श्री इन्द्र सूरि सकती। एक हमारे भाई मनमोहन जी जो लाला अभय शाह जी बनाओ जहां पर उनकी ऐसी याद रह जाए, उनके जीवन का जी महाराज वहाँ मौजूद थे, बहुत सी बातें हुई। मैंने एक बात कही के लड़के हैं उन्हें कितना दौड़ा लीजिए, काम में कभी कसर नहीं मिशन था, सेवा, साधना और समर्पण, यही वहां लिख देना, वह कि साध्वी मृगावती श्री जी महाराज का काम करने का ढंग छोड़ते। जो चीज नहीं मिल सकती, उसको ढूंढ कर लाते हैं। ऐसे यही कहा करते थे। ऐसे ही उनके अपने भाव थे। कई बार ऐसा बिल्कुल अद्भुत है। पैसा उन्होंने कभी मांगा नहीं। उन्होंने ही कुछ लोगों की हिम्मत के कारण ही, उनकी सेवा हो सकी और कहा कि भाई ऐसा करना मेरे को तो श्री सुज्येष्ठा श्री जी महाराज एक-एक व्यक्ति के हृदय को जीता है। जो बालक आज का पढ़ा इस काम का निर्माण हो रहा है। के आसपास कहीं लिटा देना और कुछ मत करना। हमने सोचा हआ है, पाश्चात्य शिक्षा का जिस प्रकार प्रभाव है. उसके भी राजकुमार जैन युग को देखें किसी भी नई बात को देखकर घबडाएं नहीं। शांति से परस्पर बैठकर ठंडे दिल-दिमाग से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और परिस्थिति एवं समाज के हिताहित का विचार करें और साथ ही देखें यग के प्रवाह को। इससे सत्यता अपने आप सामने आ जाएगी। -विजय वल्लभ सरि Jain.Educe Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्तरा मृगावती जी और संन्यास की महिमा -वीरेन्द्र कुमार जैन जीवन की दो प्रमुख धाराएं हैं-संसार और संन्यास। संसार सम्मिश्रण था उनके व्यक्तित्व में। वे धारा-प्रवाह बोलती थीं। लेकिन गुरु भक्ति के पुराने-पुराने गीत जिन्हें लोग भूल चके थे का अर्थ हैं अनुरक्ति और संन्यास का अभिप्राय है विरक्ति। जिस विषय पर भी बोलती थीं ऐसा जान पड़ता था उसे उन्होंने उन्होंने पुनः समाज में उनको प्रचलित करवाया। संक्षेप में कहें तो अनुरक्ति जोड़ती है और विरक्ति तोड़ती है। सम्बन्ध नहीं आत्मसात् कर लिया है। इतनी तल्लीनता, गहन ज्ञान के बिना ऐसा कोई सामाजिक कार्य नहीं जो उनकी नेतृत्व प्रतिभा से विच्छेद करती है तो सही अर्थों में संसार को जान लेता है वह बद्ध संभव नहीं। समाज में तरह-तरह के लोग उनके सम्पर्क में आते लाभान्वित न हुआ हो। इतिहास के गर्भ में समाए हए कांगडा जैसे की तरह उससे विरक्त हुए बिना रह नहीं सकता और, जो विरक्त थे। सामान्य भक्त की श्रेणी में आने वाले दर्शनार्थी, धर्म-दर्शन पुराने जैन तीर्थ को उन्होंने पुनः स्थापित किया। बदली हई को समझ लेता है। वह मुक्त होगा ही। और मुक्ति ही आत्मा का ज्ञान के जिज्ञासु विद्वान, सिद्धहस्त कार्यकर्ता, कलाकार, कवि, जनसंख्या के कारण शहरों के फैलते हुए विस्तार के परिणाम लक्ष्य है। आत्म-मुक्ति की खोज ही वस्तुतः जैन धर्म का सार है। साहित्यकार, नेता, व्यापारी, कर्मचारी-सभी को समान रूप से स्वरूप नई-नई कालोनियों में जाकर बसने वाले जैन परिवारों के महत्तरा साध्वी मृगावती जी महाराज ने बहुत ही छोटी उम्र प्रभावित करने की क्षमता थी उनके निर्मल व्यक्तित्व में। लिए मंदिरों-उपाश्रयों के निर्माण की सफल प्रेरणा दी। जिस में संन्यास ले लिया था। इतनी छोटी उम्र में, जब बच्चों के खेलने प्रश्न होता है - यह दिव्य स्वरूप उन्होंने कहां से प्राप्त नगर, गाव या बस्तामवह गह, वहां के श्रीसंघ की वर्षों से उलझी के दिन होते हैं। संन्यास का गंभीर अर्थ समझने के नहीं। उनकी किया। सामान्यतः संन्यास धर्म में शिष्य के पास जो कुछ होता है। हुई समस्याओं को उन्होंने अपने जादुई प्रभाव से सुलझा दिया। माँ ने दीक्षा ली साथ ही उन्होंने भी ले ली। व्यक्ति के जीवन का जो वह गरु की देन होती है। इसमें संदेह नहीं कि अपनी माता गरु अपने प्रति धर्मानुरागियों के समर्पण-भाव का उन्हें आभास था, भविष्य होने वाला है घटनायें उसी के अनुरूप घटने लगती हैं। साध्वी शीलवती जी महाराज के सान्निधय में ही उन्होंने वैराग्य इसीलिए उन्होंने उनकी भक्ति को शुक्ति में बदल कर सामाजिक छोटी उम्र में दीक्षा लेने का एक लाभ तो हुआ कि उन्हें संसार को की अराधना की थी। लेकिन उनके व्यक्तित्व में आध्यात्मिक नवनिर्माण से जोड़ दिया। पुरातन स्थान-तीर्थ दर्शनीय और। की जरूरत ही नहीं पडी। भगवान महावीर ने कहा था जोकिन काजोपर मचा और जिसके बल पर समाज में पूज्यनीय हैं लेकिन नए धर्म स्थान और तीर्थ भी निर्मित होते रहने उसे पकड़ना ही क्यों। संसार में रखा ही क्या है, जिसे इतने महान् कार्यकर सकी-वह निःसंदेह गरु वल्लभ की देन है। चाहिए। समाज को उन्होंने इसका बोध काराया'बल्लभ स्मारक' छोड़ देने योग्य है उसे पकड़ा जाए। उसमें तो सब कुछ छोड़ देने गरु वल्लभ के प्रति अनूठी निष्ठा थी उनके मन में। मंच पर उन के मन में। मंच पर उनकी जीवन-साधना का अमृत स्मारक है। जैसा ही है। चाहे समझ के छोड़े या बिना समझे छोड़े। समझने की विराजमान होती थीं उन्हीं का नाम लेकर सम्बोधन करती थी. उन्होंने संन्यास को सच्चे अर्थों में अपने जीवन में प्रक्रिया में पड़ गए तो यात्रा लम्बी हो जाएगी। जीवन-मुक्ति की उन्हें ही स्मरण कर जो भी कार्य प्रारम्भ करती थीं गरु वल्लभ के रूपान्तरित किया। संन्यास उनके लिए वेश-भूषा का बदलाव यात्रा लम्बी है अतः जो सब जागे सफर के लिए तत्काल चल दे। नाम को हृदय में रखकर। अपने आराध्य गरुदेव के अमर नाम को नहीं था। संन्यास उनके लिए संसार का तिरस्कार भी नहीं था। छोटी उम्र में संन्यास की जो यात्रा महत्तरा जी ने प्रारम्भ की । उन्होंने जो गरिमा प्रदान की उसकी जितनी अनमोदना की जाए उन्होंने अपने जन्म के समय जिस संसार को देखा था, अपनी मत्य ओर उस में वैराग्य के जो फूल खिले उनसे सारा जैन समाज कम है। उनके विस्तृत जीवन पर विहंगम दृष्टिपात करते ही से पूर्व उसे कहीं अधिक सुन्दर बना कर छोड़ा। जीवन का ध्येय सवसित हो गया। सबसे पहले जो बात सर्वाधिक आकृष्ट करती है-वह है क्या कम है। संन्यास उनके लिए एक पार्थना व ध्येय थीं। गतिशीलता। वे शायद एक दिन भी निष्क्रिय नहीं रहीं। जीवन इसीलिए उन्हें समाधिकरण प्राप्त हो सका। हमारे जमाने में जैन-श्रमण संघ में साध्वियां प्रायः आत्म-कल्याण और भर समाजोत्थान के लिए प्रेरणा देती रहीं। वे जैन साध्वी थी, राजनीति के क्षेत्र में महात्मा गांधी क्रांति के क्षेत्र में शहीद भगत महिलाओं में धर्म प्रभावना को ही अपना कार्य क्षेत्र बनाती हैं। अतः उन्होंने स्वयं कुछ नहीं किया-लेकिन करवाया सब कुछ। वे सिंह, देशप्रेम के क्षेत्र में पड़ित जवाहर लाल नेहरू और जैन ऐसी साध्वियां बहुत कम है जिन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा से कोई शिल्पी नहीं थी लेकिन उन्होंने अनेकों मंदिर, उपाश्रय, संन्यास के क्षेत्र में महत्तरा साध्वी मृगावती जी महाराज अनुपम क्षेत्र, काल और भाव को प्रभावित किया हो। महत्तरा जी का नाम स्कल निर्माण की प्रेरणा दी। वे स्वयं लेखक, कवि या साहित्यकार उदाहरण हैं। इस संदर्भ में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है। उन्होंने वे कार्य किए नहीं थी लेकिन साहित्य निर्माण की प्रेरणा दी। वे स्वयं लेखक, शत शत नमन, शत शत वन्दन, शत शत प्रणाम। जो श्रमणोचित है। नेतृत्व की अदभुत क्षमता थी उनमें। कवि या साहित्यकार नहीं थी लेकिन साहित्य निर्माण और प्रगति हे संन्यास शिखर, उज्जवल, प्रखर जीवन अभिराम।। सूझ-बूझ, परख, विवेक और सुरुचि-संपन्नता का अनोखा में वे सदैव प्रयत्नशील रहीं। संगीत पर उनका अधिकार नहीं था शत शत प्रणाम...mhaliordiny.org JameCLARRIDIEOSouTE RIPTvateermouveniy Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्तरा जी का महान जीवन -दलसुख मालबणिया आचार्य विजय वल्लभ सूरि ने समाज और उद्धार धर्म के वे सफल हुई। विद्यानिष्ठा पुनः मैंने जब वे आगम पढ़ने के लिए की नई दृष्टि दी। साधर्मिक वात्सलय की परंपरा को अहमदाबाद ई. सन् 1960 में आई तब देखी। व्याख्यानों में नया रूप दिया और युगद्रष्टा के रूप में प्रसिद्ध हुए। अत्यन्त कुशल होने पर भी केवल स्वाध्याय का ध्येय लेकर वे उन्हीं की शिष्या महत्तरा साध्वी श्री मृगावती जी ने,युगद्रष्टा ने अहमदाबाद में रहीं और अपना ध्येय सिद्ध किया। पुनः मैंने जो संदेश दिया था उसे विविध क्षेत्रों में कार्यान्वित करके युग बम्बई में ई. सन् 1968 में इसके दर्शन किए तो उनके व्याख्यानों निर्माता बन गई ऐसा कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। देश को जो धूम मची हुई थी उसका अनुभव किया। समाज और धर्म के नाना क्षेत्रों में महत्तरा मृगावती जी ने जो कार्य फिर तो हिन्दस्तान की चारों दिशाओं में उनकी बढती दर्ड किया है उसकी लम्बी सूची ही देखी जाए तो इस बात के तथ्य का प्रतिष्ठा देखी। दक्षिण भारत में बैंगलोर आदि स्थानों में उन्होंने पता चल जाएगा। इन सब लौकिक कार्य करने में अपने जो प्रतिष्ठा पाई उसे आज भी वहां के श्रावक याद करते हैं, यह आध्यात्मिक जीवन की साधना की परिपुष्टि ही उन्होंने देखी है यह मैंने स्वयं देखा। पूर्व में कलकत्ता की उनकी यात्रा को भुलाया नहीं उनकी जीवन साधना की विशेषता है। जीवन में ऐसा सुमेल जा सकता। बम्बई में स्थानकवासी द्वारा निर्मित अहिंसा भवन में केवल गांधी जी ने अपनी जीवन साधना में किया। वही सादगी, उनका चातुर्मास प्रवास उनकी असाम्प्रदायिक भावना का प्रतीक वही जीवन की सरलता और परहित में आत्महित की दृष्टि दोनों है। तो उत्तर के कांगड़ा में निवास आदि के अनेक कष्टों को के जीवन में देखी जा सकती है। जैन श्रवण संघ में ऐसा उदाहरण झेलकर उन्होंने कांगड़ा तीर्थ का जो उद्धार किया है दादा का दुलर्भ है। जैन समुदाय की साध्वी होते हुए भी कभी भी उनके मन दरबार सदा के लिए खुलवायाहै वह उनको अमर बनाने वाला है। में साम्प्रदायिकता ने प्रवेश नहीं किया। सब मानव के प्रति प्रेम ने उपेक्षित वह तीर्थ आज यात्रा धाम बन गया है। उनका प्रवेश सभी धर्मों के स्थानों में सहज बना दिया। यह घटना __जब मृत्य निकट थी, तब उनमें देहाध्यास का सदंतर अभाव जैन समाज के लिए दुर्लभ है। देखकर मै आश्चर्य चकित रह गया। भेद विज्ञान की बात तो मैंने . मृदुभाषी होने के कारण बालक से लेकर वृद्धों का हृदय कई लोगों से सनी है किंतु उसका साक्षात्कार तो मैंने महत्तरा जीतना उनके लिए आसान था यही कारण है कि उनके पास आने साध्वी श्री मगावती जी में जो देखा है, मैं भूल नहीं सकता है और में किसी को किसी प्रकार का क्षोभ नहीं होता था। उनके प्रति, उनकी साधना के प्रति मेरा आदर दृढ़ हो गया है। मैंने सन् 1951 में उनका प्रथम दर्शन आगरा में किया तब आ० श्री वल्लभ सूरि स्मारक कार्य को जिस भाव से वह स्वच्छ खादी के वस्त्रों में जोसादाई देखी वह उनके प्रति आदर करती थी उसमें कभी भी उनका अहंभाव मैंने देखा नहीं,सब गुरु बड़ाने में निमित्त हुई। उस समय वे अपनी विद्या प्राप्ति में लगी महाराज की कृपा से ही हो रहा है। ऐसी निर्दभ बात वे हमेशा हुई थी। उनकी पूज्य माता साध्वी श्री शीलवती जी ने उनके करती थीं, यही उनके जीवन की विशेषता देखकर किसी का मन जीवन के निर्माण में जो योगदान दिया है वह भुलाया नहीं जा उनके प्रति आदरभाव से भर जाए तो इसमें कोई आश्चर्य की बात सकता। जिस प्रकार की तेजस्विता उनमें थी, उनसे भी अधिक नहीं है। आज वे नहीं हैं, किन्तु उनके किये सत्कार्यों ने उन्हें अमर तेजस्वी श्री मृगावती बने यह उनके मन की बात थी, और उसमें बना दिया है। F oment Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educat अध्यात्म जगत की ज्योति विद्या बहन शाह इस जगत में अनेकों जीव अवतार धारण करके वियोग को प्राप्त हुए हैं परन्तु उसी भव्य जीव को धन्य है जो जगत में अपनी अमर कीर्ति छोड़ जाते हैं। ऐसी ही अध्यात्म जगत की जगमगाती ज्योति कर्मयोगिनी जिन्होंने स्वयं अपना आत्म स्वरूप प्रगट कर विश्व में विश्व / वात्सल्य के पवित्र परमाणु फैलाए हैं, ऐसी दिव्य विभूति पूज्य मृगावती जी महाराज के देह विलय से केवल जैन-जगत को ही नहीं अपितु समस्त विश्व के शांति प्रिय समाजों को न पूरी की जा सके ऐसी असह्य क्षति हुई है। पू. साध्वी जी महाराज समस्त जैन जगत में एक अनमोल, निग्रंथ साध्वी रत्न थीं। उन्होंने जैनागमों का गहन अभ्यास करके उनके सिद्धान्तों के रहस्यों को हृदय में उतार कर प्रचार एवं प्रसार किया। पू. साध्वी जी महाराज के बहुमुखी आध्यात्मिक आरोहण (विकास) में क्षमा भाव, सरलता, ऋजुता, आचार निष्ठा और शासन के प्रति समर्पण भाव के आश्चर्यजनक मात्रा में दर्शन होते थे। सहजात्मानंदी पू. महासती जी श्रमण संस्कृति के संरक्षक और संवर्धक थे। उनकी वाणी में मधुरता, आंखों में प्यार और जीवन में करुणा भरी हुई थी। आपके विचारों में विश्वमंगल की भावना लहराती थी। आपका चिंतन मनन अपने लिए ही नहीं परन्तु सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय था। अपने निवृति योग की गहराई से धर्मक्रन्ति के कदम कदम पर प्रवृत्ति योग की क्रान्ति पैदा करने में आप चेतनवत प्रणेता थे। आप में प्रस्फुरित ज्ञान प्रकाश जगत और शासन को ज्योतिमान करता था। आपके विचार संकीर्ण अथवा साम्प्रदायिक नहीं थे। आप में पूर्वाग्रह, अहं, मिथ्याभिमान या स्वख्याति की आकांक्षा नहीं थी। महान आत्मा होने के कारण आप में सब धर्मों के प्रति समभाव, सम्मान और मैत्रीभाव के अलौकिक योग का मंगल मिलन था। पूज्य तारक साध्वी जी महाराज जीवन के अन्तिम क्षण तक देह दर्द से जूझते होने पर भी उनकी आत्मा आत्मभाव को नहीं भूलती थी। देह दर्द को सहन करता था और उनका हृदय पंचपरमेष्ठी को वंदन करता था। इस प्रकार मृत्यु को ललकारते हुए संसार को ज्ञान तेज से ज्योतिर्मय करके सौराष्ट्र की संतप्रसूता भूमि पर जन्मी कर्मयोगिनी पू. महासती जी मृत्यु को महोत्सव' बना कर सदा सदा के लिए अनन्त में विलीन हो गए हैं। वास्तव में इस महान आत्मा ने जितना जीवन से समझाया है उससे भी अधिक मृत्यु से समझा दिया है। ऐसा एक विश्व शांति का वटवृक्ष और शासन की धुवतारिका ने अपने कुल 63 वर्ष की आयु में 48 वर्ष को उज्जवल, अति उज्जवल और समुज्जवल दीक्षा प्रर्याय की साधना साधी पू. गुरुणी जी महाराज जिन पर सरस्वती माता यानि जिनवाणी प्रसन्न थी ऐसी ज्ञान शक्ति और स्मरणशक्ति की साक्षात् मूर्ति अपने स्वस्वरूप में लीन हो गई है, ऐसी मंगल मूर्ति को मेरा शत-शतः कोटि-कोटि वंदन । योगिनी के महान प्रयासों से निर्मित वल्लभ स्मारक की सर्वजन मेरी परम कृपालु परमात्मा से नम्र प्रार्थना है कि आध्यात्मिक हिताय प्रवृत्तियां अविरल प्रगति करती रहें, और पू. साध्वी जी महाराज द्वारा साकार किए स्वप्नों को सफलतापूर्वक विश्व समक्ष पेश करके उनकी स्मृति के सच्चे हकदार बनने में और उनके निष्ठानवान कर्तव्यपरायण और निस्वार्थ संचालकों कार्यकर्ताओं को तथा मुझे अपूर्व बल प्राप्त हो ऐसी मंगल भावना के साथ। www.jainelibrary.com Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्तराजी - नियमावली और विशेषताएँ आर्या सुव्रता श्री नियामावली 1. आजीवन खादी धारण करना, जो खादी पहने उसी से बहरना ( स्वीकार करना) । 2. गृहस्थ के घर में, सारा दिन गोचरी एक बार जाना। 3. जहां चौमासा करें वहां से जरूरियात की चीजें लेना, लेना पड़े तो अल्प परिमित ही लेना । 4. प्रतिक्रमण में छः आवश्यक तक मौन रखना। 5. रात को प्रतिक्रमण के पश्चात भाइयों को नहीं मिलना। 6. प्रात: नवकारसी तक, दोपहर को 12 से 3 बजे तक मौन में रहना। दिन में दो प्रहर छः घन्टे मौन करना। 7. रात को व्याख्यान नहीं करना व किसी उत्सव में शामिल नहीं होना। 8. अपने समाचार न खुद लिखने और न अपनी छोटी साध्वियों से लिखवाना, न श्रावक-श्राविकाओं से लिखवाना । 9. दान के लिये कसी को जबरदस्ती व आग्रह नहीं करना। 10. पत्र व्यवहार अति अल्प रखना। 11. 50 वर्ष की उम्र तक अकेले फोटो नहीं खिचवाने का नियम । 50 वर्ष की उम्र तक किसी भी शहर गांव में प्रवेशमय बैंड बाजा बंद का नियम (सन् 1952 प्रवेश समय लुधियाना श्री संघ द्वारा बैंड बाजा को देखकर जब छोटे गांव वाले भी बैंड बाजा बजाने लगे तब उस फिजूल खर्ची को बंद करने के लिये यह नियम लिया)। - सोना। प्रात: चाहे विहार हो सब करके ही विहार करना। 17. चार बजे उठना, 10 बजे सोना। 18. गर्मी के दो महीने छोड़ कर दिन में नहीं सोना। 19. जब भी कोई नया पाठ लेना हो गुरु महाराज की फोटो के सामने लघु शिष्य बनकर विनयपूर्वक पाठ लेना जैसे गुरु से शिष्य पाठ लेता है। 20. व्रत पच्चखान, नियमों के लिए भी कोई जबरदस्ती नहीं, प्रेमपूर्वक उसे समझाना क्योंकि दिल से दिया दान और दिल से किया पच्चखान ही स्थायी रहता है। धर्म थोपा नहीं जा सकता, सहज उत्पन्न किया जा सकता है। 21. विहार में श्रीसंघ का कोई खर्चा नहीं करवाना। बिहार में श्रीसंघ की अंधाधुंध फिजूलखर्ची बंद करने के लिये यह नियम लिया। 22. 18 साल की उम्र में उन्होंने पच्चखान लिया था मुझे दो ही शिष्याएं बनानी हैं चाहते तो उनकी 40 शिष्याएं एम.ए., पी. एच. डी. शिक्षित बहनें दीक्षा लेने को तत्पर थीं परन्तु उनको दूसरे गुरु महाराज का नाम देकर कहते अमुक-अमुक महाराज के पास दीक्षा ले लो। जिसे भी दीक्षा दी पांच वर्ष अपने साथ रखा और पच्चखान दिया कि बिल्कुल साधु वृत्ति में ही रहना है। रुपये-पैसे को हाथ नहीं लगाना किसी भी गृहस्थ के घर जीमने जाये वह श्रावक हाथ में रुपये दे या कोई भी चीजें दें, उसे न ले। उससे उस दीक्षार्थी और गुरु का तेज बढ़ता है। 12. प्रतिदिन १०० गाथा का स्वाध्याय अवश्य करना । 13. सांय प्रतिक्रमण इकट्ठे करना। 23. नयी दीक्षित साध्वी को 10 वर्ष पर्यन्त गोचरी नहीं जाने देना, ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय, मौन, विनय विवेक सिखाना । 14. हमेशा गोचरी इकट्ठे करना • कभी भी उन्होंने गोचरी 24. अपने नाम से कोई लेटर पेड़, अन्तर्देशीय, कार्ड, पत्र वगैरह अकेले नही की। नहीं छपवाना। क्षमापना दीपावली आदि किसी भी उत्सव के कार्ड छपवाना नहीं। फिजूलखर्ची बंद करना। 15. पार्सल करवाना नहीं और न ही पार्सल मंगवाना। 16. सब कार्य, साधना, आराधना समय पर करना, प्रातः का माला जाप प्रातः, शाम का माला जाप शाम को करके ही 25. भगवान महावीर 25सौवीं निर्वाण शताब्दी की यादगार के उपलक्ष्य में बाजार की चीजों का जीवन पर्यन्त त्याग । स्वभावगत विशेषताएँ 1. विद्वानों, कलाकारों, शिक्षितों, संस्कृतज्ञों का सन्मान, बहुमान करना, विद्यार्थियों को पढ़ाना, मदद करना। दीन दुःखी, रोगी, बेसहारों की मदद करना । दवाइयों की अपेक्षा प्रभु प्रार्थना, जनता की दुआ, शुभ भावना पर अटूट विश्वास । 2. 3. 4. 5. 6. किसी की भी एकदम प्रशंसा नहीं न एकदम निन्दा । हमेशा प्रसन्न रहना व सत्प्रवृत्तियों में लगे रहना। अन्धविश्वास, वहम, कुरूढ़ियों से दूर रहना, संघ और समाज को फिजूल खर्चों से दूर रखना। 7. हर कार्य को पूरे दिल से करना। हाथ में लिया काम सम्पन्न करके ही चैन लेना। 8. इतना ज्ञान, सफलताएं, कीर्ति होने पर भी निरभिमान वृत्ति, सरलता, समता और स्वाभाविकता के ताने बाने से बुना हुआ जीवन । 9. व्यक्ति की पारदर्शक परख, तुरन्त निर्णयशक्ति, दृढ़ संकल्प शक्ति, जिन्दादिली, आशावादी दृष्टिकोण। 10. दूसरों के विचारों, तर्कों, बातों को सुनने की धीरज और उसका योग्य समाधान। 11. गलत, असत्य, अन्याय का प्रतिकार उसके लिए पुण्य प्रकोप भी करना पड़े तो करना चाहिए। अहिंसक, प्रतिकार, गांधी जी का प्रभाव। 12. तेजपूर्वक जीना, तेज नहीं खोना, प्राण देकर भी प्रण रखना। 13. किसी भी देश, प्रांत, जाति, लिंग, उम्र, स्वभाव व्यसन का व्यक्ति सामने आए गुण के दरवाजे से उसके हृदय गुफा में प्रवेश पा जाना और उसे अपना बना लेना। दूसरों के लिए सहिष्णु बनना और उसे प्रेम, सहृदयता, आत्मीयता देना। 14. कृत्रिमता, बनावट, दिखावा, आडम्बर औपचारिकता से लाखों खर्च ने पर भी उनको कोई स्वार्थपरक भावना से अभिमान से पाना चाहे, मन चाहा मोड़ना चाहे, अपने जैसा बनाना चाहे यह असम्भव था। उनको आत्मीयता, निश्छल प्रेम, निर्मल श्रद्धा, शुद्ध हृदय सर्वात्मना समर्पण के अजन प्रवाह में सहज में ही पाया जा सकता था। www.jainlibrary.or Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी संघ...एक विनती साध्वी मृगावती श्री भगवान महावीर स्वामी का साध्वी संघ अतीत में व पू० पंजाब केसरी युगवीर आचार्य विजय वल्लभ सूरि जी श्री भोगीलाल लहेरचंद के नाम से एक शोधपीठ चल रही है। वर्तमान में विशाल रहा है, तथा विशाल है। आज तो इस साध्वी महाराज प्रायः कहा करते थे कि "आज तक धर्म की रक्षा बहिनों इसमें उच्चाभ्यासी बंधु संशोधन व संपादन का कार्य कर सकेंगे। संघ में छोटी-छोटी उमर की साध्वियों के त्याग को देखकर ने ही की है, तथा वे ही करेंगी"। और महात्मागांधी जी ने भी कहा बाकी छोटी-छोटी साध्वी तथा दीक्षार्थी बहिनों के लिए संस्कृत, जन-मानस श्रद्धा से झुक जाता है। छोटी उमर में, युवावस्था में है कि इस जीवन में जो-जो कुछ पवित्र व धार्मिक है, उसका प्राकृत, व्याकरण, काव्य कोश साहित्य, न्याय आदि धार्मिक और फिर, आज के भौतिक युग में "त्याग" करना कोई बहिनों ने विशेष संरक्षण किया है। इन उपरोक्त बातों पर विचार अभ्यास की पूरी व्यवस्था व अनुकूलता वहां की जाएगी। छोटी-मोटी बात नहीं है। त्याग करने व साधमार्ग अपनाने का करते हुए सहज ही ख्याल आता है कि त्याग की मूर्तियाँदीक्षार्थी बहिनों को कम से कम तीन वर्ष तथा विशेष मुख्य उद्देश्य तो आत्म-कल्याण ही है। सती-साध्वियों द्वारा कितना बड़ा कार्य किया जा सकता है। पूरा उच्चाभ्यास के लिए पांच वर्ष का अभ्यास क्रम नियत किया जाना आत्म-कल्याण करने के लिए समता, संयम, सरलता, साध्वी वर्ग यदि विद्या व ज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ेतथा इन्हें चरित्र चाहिए। आगमों के अभ्यास में श्री दशवकालिक सूत्र, नंदीसूत्र, नम्रता, विवेक, अंकिचनता तथा आचार-विचार आदि गणों की बल में ज्ञान-विद्या का बल भी मिल जाए तो इनमें कितना तेज अनयोगद्वार सूत्र, श्री उत्तराध्ययन सूत्र तथा इसके साथ जरूरत है। यही गुण आत्मार्थी साधुता की कसौटी है। विद्वता या * प्रकट होगा? साध्वी जी महाराज में अभ्यास बढ़ेगा तो ज्ञान आचारांग सूत्र व सूयगडांग सूत्र आदि पढ़ाने, दर्शन, योग; काव्य वक्तृत्व आदि गण आत्मार्थी साधता के मार्ग में गौण हैं। यह सच । बढ़ेगा। सच्चा ज्ञान व समझ बढ़ेंगे तो लोकोपकार के कार्य तथा साहित्य, व्याकरण प्राकृत आदि विषयों में निष्णात पंडितजुटाकर है कि ऐसी आत्मार्थी साधुता में स्वकल्याण के ऐसे इच्छकों के संघ व समाज की उन्नति के अनेकों कार्य साध्वी कर सकेगी। अभ्यास की व्यवस्था की जाए तो लक्षित व सुंदर परिणाम अवश्य हाथों से संघ, समाज, देश व राष्ट्र का कल्याण होता है। परन्तु यह समाज के मखिया व संघ के आगेवान इस दिशा में गंभीरता से प्राप्त होंगे। साध्वी जी महाराज के अभ्यास की प्रगति की वर्ग शिक्षित हो तो यह कार्य बहुत आसानी से हो सकते हैं। विचार करें। उन्हें बहुत कुछ कर सकते हैं। देख-रेख के लिए विद्वान श्रावकों की एक कमेटी हो। तथा सुज्ञ आज समय ऐसा आ गया है कि लोगों में व्यावहारिक शिक्षा पूज्य आचार्य भगवंतों के चरणों में नम्र विनती है कि वे श्रावकों की एक अन्य कमेटी भी बनाई जाए जो यह जरूरी बढ़ रही है। शैक्षणिक क्षेत्र तथा ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में दनिया उदारतापूर्वक इस विषय में अपनी आज्ञा दें। पूज्य साध्वी गुरुणी व्यवस्था करे कि साध्वी जी महाराज अपनी संयम यात्रा के साथ खूब आगे बढ़ रही है। दूसरी ओर आज के विलासी बातावरण में जी महाराज स्वयं अपनी शिष्या प्रशिष्या साध्वी जी को आगे स्वस्थतापूर्वक ज्ञान अभ्यास कर सकें। लोगों की आध्यात्मिक भूख भी जांगी है। शिक्षित भाई-बहिनों में बढ़ाने व अभ्यासी बनाने का निश्चय करें। तेजस्वी साध्वी जी भी अपनी समाज में पैसे की कमी नहीं। उत्सवों तथा अन्य काफी आस्तिकता अभी रही हुई है। धार्मिक भावना भी देखने में स्वकल्याणार्थ पूज्य गुरुदेवों और गुरुणी जी के चरणों में नम्र भाव कार्यों में उदारता से खर्च किया जाता है। धर्म-कार्य भी योग्य आती है। से इस संबंध में निवेदन करें। इस तरह साध्वी संघ स्वयमेव समय व योग्य क्षेत्र के अनुसार चलते रहें। परन्तु यह कार्य भी. स्वोन्नति के शिखर पर पहुंचने की हिम्मत व भावना करें। "झुकाने वाला कोई हो तो झुकने वाली दुनिया है"....इस अति महत्वपूर्ण है। इस दिशा में स्थानकवासी श्रीसंघ ने बंबईकथनानुसार, धर्ममार्ग में जन साधारण की रुचि पैदा करने, हमारे साध्वी संघ में तेजस्वी और विदुषी साध्वियां सैकड़ों घाटकोपर में श्रमणी विद्यापीठ की स्थापना का बहुत सुन्दर कार्य व्यसनों से मुक्त करके आचार-विचार व खानपान की शद्धि की का सख्या म तयार हा सकता ह। जरूरतासफ इस दिशा में समझ किया है जो सराहनीय व अभिनंदनीय है। ओर अग्रसर करने, सादगी व श्रम की प्रतिष्ठा समझाने, आदर्श पूर्वक प्रयत्न करने की है। अमुक साध्वी जी महाराज में अभ्यास, विद्या प्राप्ति की । गृहस्थाश्रम की रचना की प्रेरणा देने, समाज को कमजोर बनाने आजकल गृहस्थ अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए बोर्डिंग, पाठशाला, कालेजों तथा विदेशों तक भेजते हैं। पूज्य साध्वी जी वाली कुप्रथाओं व बाह्याडम्बरों की हानिकारिकता, एवं संघ, लगन और शास्त्राभ्यास की तीव्र इच्छा तो देखने में आती है, महाराज भी अपनी शिष्याओं को विदषी बनाने के लिए २०-२५ समाज व देश की उन्नति में इनके द्वारा हुए अहित के प्रति परन्तु उन्हें तदहेत अनकलता नहीं मिलती. इसके लिए श्रीसंघ या ५०-१०० मील क्यों न भेजें? जरूर भेजें, ताकि उनका जीवन भावनाएं जगाने, त्याग को अपनाकर आध्यात्मिक उन्नति की को खास व्यवस्था व विशेष अनुकूलता जुटाने की तुरंत महान बने। संघ का हित हो तथा देश में धर्म प्रचार के उपकार का ओर बढ़ने की प्रेरणा देने, साम्प्रदायिक संकुचितता का त्याग आवश्यकता है। लाभ मिले। करके व्यापक विशाल उदार भावनाएं अपनाने का महत्व भारत की राजधानी दिल्ली में शहर से दूर प्रशांत समझाने तथा इस प्रकार प्रभु के शासन की सच्ची सेवा हेतु प्रेम बातावरण में खेतों की हरियाली के मध्य प्रकृति के सान्निध्य में अभ्यासार्थी साध्वी-संघ के गुरु, गुरुणीजी महाराजों से यह पूर्वक समझा सकने से व्यक्ति और समाज-दोनों को बहुत लाभ पूज्य यगद्रष्टा, अज्ञान तिमिरतरणी आचार्य श्री विजय वल्लभ मेरी विनम्र विनती है। होगा। यह कार्य मातृ शकित द्वारा सरलतापूर्वक किया जा सकता सूरीश्वर जी महाराज का महापावन स्मारक बन रहा है। इसमें (पूज्य साध्वी मृगावती श्री जी की नोट बुक से) amin Education international FORPrivate Spersonal use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 જોઇએ. સાદાઈથી જીવનમાં સુસંસકાર અને સત્સંગ મળે છે. નથી. કોઇ ધનવાન પોતાના ઘરના આંગણામાં હજારો રૂપિયાની ધર્મધ્યાન ફરવાની ભાવના જાગૃત થાય છે. જૈન શાસનમાં જિન થેલી કે નોટો ટીંગાડી રાખે છે. એવું કદિ તમે જોયું છે ? બિમ્બ અને જિનાગમ ધર્મના આધાર છે. આપણા શાસ્ત્રોમાં શૃંગારનું જે વર્ણન છે એનો સાર શું છે આજે આપણે પૂજા ઇત્યાદિ કાયોંમાં પણ આડંબર બહુ એ કોઇએ વાંચ્યું છે ? સ્ત્રીનો શૃંગાર શા માટે છે ! પતિ માટે વધારી દીધો છે. એને લીધે સ્થાનકવાસી અને તેરાપંથી કે દુનિયાને દેખાડવા માટે ? બાહ્ય દેખાવથી સુખ નથી મળતું. સમાજના જૈનો, જિનપૂજાથી વેગળા થતા જાય છે. વાસ્તવમાં જો ઉચ્ચ આચાર-વિચાર, સાદું જીવન અને સંસ્કાર હશે તો તો તેમના મહાન આચાર્યો, જિનમૂર્તિ આરાધનાને માટે આપણી પ્રગતિ થશે. ભોગનું આકર્ષણ ઓછું કરીને બાહ્ય ભોગ પ્રાથમિક આલંબન છે એની કબૂલાત રાખે છે. બંધ કરવા જોઇએ. એમાં સ્ત્રીનું સાચું સુખ છે. શ્રી ભગવતી સૂત્રમાં, પ્રભુ મહાવીર જયારે ધ્યાન પ્રારંભ આપણા સમાજના ભાઈઓ ભૂખ્યા તરસ્યાં હોય, રહેઠાણ કરતા હતા ત્યારે તેઓએ એક પુદ્ગલ ઉપર દૃષ્ટિ સ્થિર કરવા વગર જયાં ત્યાં ભટકતા હોય ત્યારે લગ્ન કે બીજા ઉત્સવોમાં સાથે ધ્યાન કરીને પછી નિરાકારનું ધ્યાન ધરતા હતા. આડંબર કે ખોટા ખરચા બંધ કરીને સાધર્મિક સેવા કરવી જીવનમાં સાદાઈનું મહત્ત્વ આપણા ઘરમાં સાદાઇ, શુદ્ધતા, સાત્વિક વિચારો અને શુદ્ધ ખાનપાન જેવું વાતાવરણ હોવું જોઇએ. તો જ તે બાળકોનાં પરંતુ આજનો માનવી ભોગ, ધન અને લાલસામાં જ રચ્યો પુ. મહત્તરાશ્રી મૂગાવતીશ્રીજી જીવનમાં ઉતરે. બાળકોના લોહીમાં જયાં સુધી સંસ્કાર ન રેડાય પચ્યો રહે છે. જયાં જુઓ ત્યાં એ જ આડંબર ! ધનની જ આજે ત્યાં સુધી બધું વ્યર્થ છે. અને આવા સંસ્કાર લોહીમાં રેડવા માટે સાચું સુખ ભોગમાં નથી, ત્યાગમાં છે એ આપણે મહાપુરુમાતામાં સાત્ત્વિકતા, સદાચાર અને સંસ્કાર જોઇએ. માતા જ આજના જગતમાં કોઇ યુગમાં નથી બન્યું એવું બન્યું છે. ષોના જીવનમાંથી શીખવું જોઇએ. આધ્યાત્મયોગી આનંદધનજી બાળકને શિક્ષણ આપી શકે છે. સ્વાધ્યાય, ઉપદેશ કે ધર્મ કરતાં ધન, વૈભવ અને ભોગનું અને મહારાજ તથા ઉપાધ્યાય યશોવિજયજી મહારાજ ત્યાગી હતા. | સૌ પ્રથમ સંસ્કાર કેળવવા માતાએ લાયક બનવું જોઇએ. વિલાસનું પ્રભુત્વ વધ્યું છે. બાહ્ય સુખની આશા તો બકરાની દાઢીમાંથી દૂધ દોહવા જેવી આજની માતા આભૂષણ-ફેશનમાં એટલી બધી ઓતપ્રોત થઇ | મારું તો નમ સૂચન છે કે, ફિઝુલ ખર્ચ અને આડંબર બંધ મિથ્યા આશા છે. યશોવિજયજી મહારાજે કહ્યું છે કે, ‘બાહ્ય ગઈ છે કે, એ એની જાતનું જ ભાન ભૂલી બેઠી છે. પરંતુ એ કરીને, વધુ નહિ તો થોડી સાદગી લાવો. જીવનમાં સાદાઇ સુખ ભોગવવાથી જે હૃષ્ટ પુષ્ટતા આવે છે એ હકીકતમાં સાચો શણગાર નથી. સ્ત્રીનાં સાચા આભુષણ તો છે શીલ, આવશે તો સારા વિચારો આવશે. સ્વાધ્યાય વધશે. ધ્યાન-યોગ તંદુરસ્તી નથી, એ શરીરે ચડેલાં સોજા છે.’ સદાચાર, સેવા અને સંસ્કાર, જે સ્ત્રીમાં આ ચારેય આભુષણો વધશે. આધ્યાત્મિક વાચન વધશે. બાહ્ય સુખનો મોહ તજી સ્વામી વિવેકાનંદે કહ્યું છે કે, “એક અંશ બાહ્ય સુખ, વીસ હોય તે જ સ્ત્રી લોહીના સંસ્કાર રેડી શકે. આંતર સુખ, આત્માનું સુખ પ્રાપ્ત થશે. ટન દુ:ખ લાવે છે.' ઉપદેશપ્રાસાદમાં ફરમાવ્યું છે કે, બાહ્ય | પૂજય વિનોબાજીએ લખ્યું છે કે, “પહેલાના જમાનામાં (તા. ૨૦-૮-૧૯૬૬ના રોજ આપેલા પ્રવચનમાંથી) સુખનો આનંદ મેળવનારા અને માનનારા ગંદા નાળાનાં પુરુષોએ સ્ત્રીઓને વશ કરવા જ નાક વિંધાવી એને શણગાર્યું, વાસવાળા પાણીમાંથી પ્યાસ બુઝાવવાનો મિથ્યા પ્રયાસ કરનારા કાન વિંધાવ્યા, હાથ અને પગ આભૂષણોથી લાદી દીધા. એ છે. એના થકી પ્યાસ બુઝાતી નથી, સુખ સાંપડતું નથી.' ઝવેરાતના આભૂષણોથી એવી લાદી દીધી કે એ લથબથ બની | રાજા પંડરિકે ગૃહસ્થાશ્રમમાં રહેવા છતાં ત્યાગમાં જ સાચું , ગઈ. ' સુખ છે એની અનુમોદના કરતાં કરતાં આખરે દીક્ષા લઈને, અકબર ઇલાહાબાદી નામના શાયરે લખ્યું છે કે, મૃત્યુ બાદ સર્વથા સિદ્ધિ વિમાનમાં દેવપણે જન્મ લીધો, અને ‘દસ્તુર થા કે હોતા થા, પહેલે કે જમાને મે તેત્રીસ સાગરોપમનું આયુષ્ય ભોગવ્યું. આ જ પુંડરિક રાજાના મુલ્લાકા, મઝહબકા, ખુદાકા ડર'.. ભાઇ, જેઓ પહેલાં મહાન ત્યાગી સાધુ હતા. પરંતુ મનની, આજે મુલ્લાનો, ધર્મનો કે ભગવાનનો ડર નથી રહ્યો. આજે બાહ્ય સુખની લાલસાને વશ થઇ ભાઇ પાસેથી રાજગાદી લઇ તો ફેશન પરસ્ત સ્ત્રી અને સી.આઈ.ડી.નો જ ડર રહ્યો છે. ' પોતે રાજા બન્યા અને વિષયોમાં ફસાઇને પોતાનું જીવન તેમ - સ્ત્રીનું જીવન ઘરમાં સ્વચ્છતા, પતિભકિત અને બાળકોમાં જ પૂર્વેના સંયમનો નાશ કરી, મરણ પામી સાતમી નરકમાં સંસ્કાર માટે છે, અહીં તહીં ભટકવા માટે નહિ. કપડાં કે તેત્રીસ સાગરોપમનું આયુષ્ય પામ્યા. ઝવેરાતનો મોહ બંધ કરો. રૂપ અને રૂપિયા દેખાડવાની ચીજ unin Focationem PO PRETO e any Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મહાત્તરાજીનું મહાપ્રયાણ U રાજકુમાર જૈન આ દુનિયામાં મૃત્યુ એ કાંઈ પહેલી વારની ઘટના નથી. રાતથી જ પંજાબના અનેક શહેરોમાંથી ભકતોની બસો પુષ્પાંજલિ અર્પિત કરી. મગાવતીજીની સ્મૃતિને ચિરસ્થાયી પરંતુ અમુક વ્યકિતઓનું જીવન એવું માન હોય છે કે તેમના ભરાઈ ભરાઈને આવવા લાગી. સવાર સુધીમાં તો હજારો લોકો બનાવવા એક ટ્રસ્ટ સ્થાપવાની યોજના રજૂ કરવામાં આવી. જવાથી માનવતાને સદીઓ સુધી પ્રતીક્ષા કરવી પડે છે. એકઠા થઈ ગયા. ભાગ્યેજ એવી કોઇ વ્યકિત હશે જેણો તરત જ લાખો રૂપિયા ટ્રસ્ટ માટે ભેગા થઇ ગયા. સાધ્વી જીવનમાં મૃગાવતીજીના એક વખત દર્શન કર્યા હોય અને આજે સુન્નતાશ્રીજીએ હૃદયસ્પર્શી માર્મિક પ્રવચન આપ્યું. સૌ રડી બે દિવસ પહેલાજ મૃગાવતીજીની તબિયત ચિંતાજનક હતી. પડયો. હજાર ન હોય. લુધિયાણાથી ૧૪ બસ ભરાઇને આવી. અંબાલા, વલ્લભ સ્મારકમાં દર્શનાર્થીઓની ભીડ જામી હતી. બહાર સમાના, રોપડ, માલેરકોટલા, જાલંધર, જડિયાલા, - પટ્ટી, | અંતે પાલખી ઉંચકવાનો સમય આવી પહોંચ્યો. હજારો પ્રાંગણમાં અખંડ જાપ ચાલુ હતા. ભાઈ-બહેનો શાંતચિત્તે ચંડીગઢ, મદ્રાસ, મુંબઈ, સૌરાષ્ટ્ર, મેરઠ, આગરા, શિવપુરી, કંઠમાંથી અવાજ ઉઠયો, ‘જય જય નંદા, જય જય દ્ધા' સાંજે શંખેશ્વર પાર્શ્વનાથની છબી સામે શાંતમુદ્રાથી નવકાર પાંચ વાગે અંતિમ સંસ્કારના સ્થળે સૌ આવી પહોંચ્યા. છેલ્લે મુરાદાબાદ, હોશિયારપુર, જમ્મુ અમદાવાદ વગેરે સ્થળોથી મહામંત્રનો જાપ કરી રહ્યા હતા. આખી રાત લોકો સૂતા નહિ.. હજારો ભકતો વલ્લભ સ્મારકમાં એકઠા થયા. ઉત્તર ભારતમાં મૃગાવતીજીના પાર્થિવ શરીરનો અગ્નિદાહ કરવામાં આવ્યો. અસાધ્ય બીમારી છતાં મૃગાવતીજી મનોયોગપૂર્વક ઉઠી પાંચ ભાગ્યે જ કોઇ સ્થળે આટલી મોટી સંખ્યામાં જૈન ધર્મીઓ એક ધૈર્યના બંધ તૂટી પડયા. સૌ ૨ડી પડયા. ‘મહત્તરાજી અમર રહે, કલાક સુધી સમાધિમાં બેસી રહ્યા. સાથે ભેગા થયા હશે. વલ્લભ સ્મારકમાં સર્વત્ર માનવ સાધ્વી મૃગાવતીજી અમર રહે’ નો નાદ ગુંજવા લાગ્યો. . મહેરામણ લહેરાતોં હતો. બધાના હોઠ પરે મહત્તરાજીના દિવ્ય સૌ અસહાય મુદ્રામાં દિમૂઢ થઇને એ દિવ્ય શરીરને એમના દેહાવસાનના સમાચર સાંભળી જગ્યાએ આંખોથી અદ્રશ્ય થતું જોઇ રહ્યા. જીવનના પુનિત સ્મરણો હતાં. જગ્યાએથી લોકો ઉમટી પડયા. બપોરે મૃગાવતીજીના પાર્થિવ | બપોરના ૧૧ વાગે ધર્મસભા શરૂ થઈ જે ૪ વાગ્યા સુધી સૂર્ય અસ્તાચળે પહોંચી ગયો હતો. આ કાશમાં લાલીમાં શરીરને દર્શનાર્થે સમાધિમુદ્રામાં , જયાં તેઓ પ્રવચન આપતા છવાઈ ગઈ હતી. કોલાહલ શાંત થઇ ગયો હતો. ધીરે ધીરે રાત હતા એ સ્થળે મૂકવામાં આવ્યું. ખૂબ જ માર્મિક દૃશ્ય હતું ! ચાલી. એક તરફ હનરાજીના પાર્થિવ શરીરને દર્શનાર્થે ઉતરી આવી હતી.. બહેનો ચોધાર આંસુએ રડી રહી હતી. નકકી કરવામાં આવ્યું મૂકવામાં આવેલ હતું. વચ્ચે મંચ પર સાધ્વી સમુદાય નિશ્ચિત છે કે, ફરીથી સવાર પડશે. ફરીથી સૂર્ય ઉગશે અને કે, શનિવાર ૧૯ જુલાઈના સાંજના પાંચ વાગ્યે વલ્લભ બિરાજમાન હતો. સમસ્ત ભારતના જૈન ધર્મના ચારે સંપ્રદાયની જીવનરંથ ધર્મમાર્ગ ઉપર આગળ વધશે. ફરીથી આપણને સ્મારકમાં માતા પદ્માવતીના મંદિરની પાસે એમનો અંતિમ પ્રમુખ વ્યકિતઓએ મૃગાવતીજીને શ્રદ્ધાંજલિ અર્પિત કરી. મુatવતી શ્રીજી જેવો ભવ્ય આત્માનો ભેટો થશે. તેઓ કહેતા સંસ્કાર વિધિ કરવામાં આવશે. ભારતના માનનીય રાષ્ટ્રપતિના ત૨ફના એમના સૈન્યસચિવે ' હતા, ‘જીવન ઉત્સવ છે અને મૃત્ય મહોત્સવ છે. राष्ट्र उत्थान हमारे राष्ट्र का उत्थान सादे जीवन और उच्च विचार से हुआ था, लेकिन अब अनेक व्यसनों में फंसा जाने के कारण विलासिता, आलस्य, दरिद्रता, फैशन और चरित्र हीनता आदि बुराइयों के जड़ जमाने से पतन हो रहा है। जब तक ये बुराइयाँ दूर नहीं होती तब तक राष्ट्र का उत्थान भी नहीं होगा। -विजय वल्लभ सूरि in Educati on Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंगल में मंगलकर पत्थरों में समाहित कर सम्यग्र प्राण गुरु की वाणी को किया साकार गढ़ा स्वप्न नव। दिया हमें तीर्थ सम अवदान ओ ! महत्तरा, ओ ! महान् फिर भी तुम रही निर्लिप्त तुम रही निराकार पद्म के पावं पत्रांक पर पड़ी स्वाती बँद शबनम अनबिधों मोती मन क्या ममत्व, क्या अधिकार ओ ! महत्तरा, ओ ! महान् शासन हित स्व का किया अर्पण कितनों को दिखाया दर्पण चल रहे हम उसी राह प्रभु की महिला बढ़ी गस की गरिमा लड़ी ज्ञान की गंगा बन बही वत्सलता पसरी निखरी भक्ति का सागर अथाह ओ ! महत्तरा, ओ! महान् दीपशिखा सी तम प्रोज्वल, प्रकाशित किया अन्तरमन भाव-भक्ति-विभोर हम नत हुए तव चरणों पर पूर्ण हो रही थी - चाह कि, मध्यमार्ग तम्हें लगी काल की दारुण दाह हतप्रभ सब करमाणे करें चत्ल माणे चलें का बीच मन्त्र श्रवण करवाया तत्पर सुव्रतों का सुयश ही बना सम्बल नेत्रों में अविरल अश्रुधार ओ ! महत्तरा ओ! महान् आर्य प्रवर के आभी बचन इन्द्रदिन्न के गुरू गम्भीर स्वर जगत चन्द्र नित्यानन्द उत्साह की नयी लहर बल्लभ है सबको आत्मन् वासुपूज्य चहरिभ दुग्धधवल अधनिमिलित राजीव नयन भान्ति विमल चन्द्रमणी की ज्योति प्रखर कमल का वरदहस्थ सब पर घेरे दिल्ली को परा परिसर दे रहा बरदान ओ ! महत्तरा, ओ ! महान् यमना के तट बन्ध तोड़ उमड़ रहा श्रावकों का समह शान्त विनयावत नहीं कहीं कोई हह वल्लभ का स्मारक बना शतदल खिला कमल अमर यह अवदान ओ ! महत्तरा, ओ! महान् -पन्नालाल नाहटा 'शासन हित स्व का किया अर्पण For Prvate & Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational For Prvate & Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्म वल्लभ संस्कृति मंदिर 20वां कि.मी. जी.टी. करनाल रोड, पोस्ट : अलीपुर, दिल्ली 110036 दूरभाष : 7202225 तार : 'शोधपीठ lain Education international FOC P S Faroost Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्म वल्लभ संस्कृति मंदिर संचालक संस्थाएँ श्री आत्म वल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी न्ट्रेस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी ट्रस्टी १. श्री श्रेणिक के.लालभाई 2. श्री जे.आर, शाह 3. श्री दीपचंद एस.गार्डी 4. श्री ए.माणिक चंद बेताला 5. श्री खैरायती लाल जैन 6. श्री रामलाल जैन 7. श्री रत्नचंद जैन 8. श्री प्रताप भोगीलाल 9. श्री राजकुमार जैन 10. श्रीकान्तीलाल डी कोरा 11. श्री श्री राज कुमार जैन 12. श्री मनोहर लाल जैन 13. श्री एच. सायरचंद नाहर 14. श्री वसनजी लखमशी 15. श्री पी. जीवराज चौहान 16. श्री कुन्दनमल पारिख 17. श्री लाल चंद मनोत 18. श्री अरविदभाई पन्नालाल 19. श्री जयंती लाल बी. शाह 20. श्री आत्माराम बी. सुतरिया 21. श्री हीरालाल जोहारमल 22. श्री जांवतराम रांका 23. श्री जयंती लाल एच. शाह 24. श्री महेन्द्रसिंह जी डागा 25. श्री उमेदमल जैन -अहमदाबाद -संरक्षक -बम्बई -संरक्षक -बम्बई -संरक्षक -मद्रास -संरक्षक -दिल्ली -आजीवन ट्रस्टी -दिल्ली -आजीवन ट्रस्टी -दिल्ली -प्रधान -बम्बई -उप प्रधान -अम्बाला सिटी -उप प्रधान -बम्बई -मानद मंत्री -दिल्ली -मानद मंत्री -दिल्ली -कोषाध्यक्ष -मद्रास -ट्रस्टी -बम्बई -बंगलौर -बंगलौर -ट्रस्टी -मद्रास -अहमदाबाद -अहमदाबाद -ट्रस्टी -अहमदाबाद -बम्बई -ट्रस्टी -बम्बई -ट्रस्टी -जापान -अमेरिका -बम्बई 26. श्री जे.पी.जैन -दिल्ली 27. श्री विनोद लाल एन.दलाल -दिल्ली 28. श्री शांतिलाल जैन (एम.एल.बी.डी.) -दिल्ली 29. श्री मानेकलाल वी.सवानी -बम्बई 30. श्री शैलेश एच. कोठारी -बम्बई 31. श्री निर्मल कुमार जैन -दिल्ली 32. श्री सिकन्दरलाल जैन -लुधियाना 33. श्री नटवर लाल के शाह -इंगलैंड 34. श्री पारस दास जैन -लुधियाना 35. श्री बिशम्बर नाथ जैन -दिल्ली 36. श्री धीरज लाल एम.शाह -बम्बई 37. श्री केवल कृष्ण जैन -जालंधर 38. श्री श्रीपाल जैन -लुधियाना 39. श्री सूरज प्रकाश जैन -आगरा 40. श्री धनराज जैन -दिल्ली 41. श्री इन्द्र प्रकाश जैन -लुधियाना 42. श्री सुदर्शन लाल जैन -दिल्ली 43. श्री जे.एस.झवेरी. -नई दिल्ली 44. श्री बलदेव कुमार जैन -दिल्ली 45. श्री राज कुमार जैन -फरीदाबाद 46. श्री सत्यपाल जैन -जीरा 47. श्री वीरचंद जैन भाभ -नई दिल्ली 48. श्री मनमोहन जैन -दिल्ली 49. श्री नगराज के ओसवाल -पूना -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी -ट्रस्टी min Education Interational For te & Personal use only www.jain Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर मंदिर ट्रस्ट 1. श्री राम लाल जैन दिल्ली 2. श्री शांति लाल जैन (एम.एल.बी.डी.) दिल्ली 3. श्री नानक चंद जसवंता दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली 4. श्री बीर चंद जैन 5. श्री विनोदलाल एन. दलाल वासुपूज्य 6. श्री सुदर्शन लाल जैन 7. श्री धनराज जैन 8. श्री दामजी कुंवरजी छेडा 9. श्री राज कुमार जैन 10. श्री वीर चन्द जैन भाभू 1. श्री प्रताप भोगीलाल 2. श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन 3. श्री निर्मल कुमार जैन 4. श्री जे. पी. जैन 5. श्री एम. पी. सेठ 6. पं. डी. डी. मलवानिया 7. डा. धनेश जैन 8. श्रीमती निर्मला आर मदान 9. डा. विमला एस लालभाई 10. श्री राम लाल जैन 11. श्री वीर चन्द जैन भाभू 12. श्री राज कुमार जैन 13. डा. प्रेम सिंह भोगीलाल लेहरचंद इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी बम्बई दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली 1. श्री राम लाल जैन 2. श्री विनोदलाल एन. दलाल Jam Education International बम्बई दिल्ली दिल्ली 3. श्री राज कुमार जैन अहमदाबाद दिल्ली दिल्ली वलसाड दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली अध्यक्ष / आजीवन ट्रस्टी आजीवन ट्रस्टी आजीवन ट्रस्टी आजीवन ट्रस्टी मानद मंत्री कोषाध्यक्ष देवी पदमावती चैरिटेबल ट्रस्ट सदस्यगण दिल्ली दिल्ली दिल्ली ट्रस्टी ट्रस्टी ट्रस्टी ट्रस्टी प्रधान उप प्रधान उप प्रधान कोषाध्यक्ष मंत्री सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य आजीवन ट्रस्टी एवं प्रधान - आजीवन ट्रस्टी - आजीवन ट्रस्टी 4. श्री मनमोहन जैन 5. 6. 8. 9. श्री विशम्बर नाथ जैन श्री राज कुमार जैन, श्री नानक चंद जसवंता श्री शांति लाल जैन श्री देवेन्द्र कुमार जैन 1. श्री पदम चंद जैन भामू 2. श्री वीर चंद जैन भामू 3. श्री राजीव जैन भाम् 4. श्री राज कुमार जैन 5. श्री राम लाल जैन 6. श्री निर्मल कुमार जैन 7. डा. राकेश जैन 1. श्री कृष्ण कुमार जैन 2. श्री नरेन्द्र कुमार जैन श्री आत्म वल्लभ जसवन्त धर्म मेडिकल फाउण्डेशन ( डी. आर. कुमार ब्रदर्स) 3. श्री नरेन्द्र कुमार जैन, शास्त्री नगर ४. श्री मनोहर लाल जैन ५. श्री शांति लाल जैन ६. श्री राम लाल जैन ७. श्री राज कुमार जैन ८. श्री बिशम्बर नाथ जैन दिल्ली दिल्ली ९. श्री मनसुख भाई पी मेहता १०. श्री शशीकान्त जैन ११. श्री राजीव कुमार जैन १२. श्री रमेश चंद जैन अम्बाला दिल्ली दिल्ली लुधियाना श्री वल्लभ स्मारक भोजनालय ट्रस्ट दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली - मानद मंत्री - कोषाध्यक्ष - ट्रस्टी - ट्रस्टी - ट्रस्टी - ट्रस्टी - ट्रस्टी - ट्रस्टी - ट्रस्टी - ट्रस्टी - ट्रस्टी - ट्रस्टी - ट्रस्टचे प्रधान मानद मंत्री कोषाध्यक्ष ट्रस्टी ट्रस्टी ट्रस्टी ट्रस्टी ट्रस्टी ट्रस्टी ट्रस्टी ट्रस्टी विशेष आमंत्रित 59 www.jainjelibrary.or Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 महत्तरा साध्वी मृगावती फाउंडेशन ट्रस्टी ट्रस्टी 1. श्री राम लाल जैन दिल्ली प्रधान 2. श्री राज कमार जैन दिल्ली प्रबन्ध ट्रस्टी 3. श्री शैलेशभाई एच. कोठारी बंबई प्रबन्ध ट्रस्टी 4. श्री जे.पी. जैन दिल्ली ट्रस्टी 5. श्री दीप चन्द एस. गार्डी बंबई 6. श्री जे.आर. शाह बंबई ट्रस्टी 7. श्री प्रताप भोगीलाल बंबई 8. श्री अभय कुमार ओसवाल लुधियाना ट्रस्टी 9. श्री विनोद एन. दलाल दिल्ली ट्रस्टी 10. श्री निर्मल कुमार जैन दिल्ली 11. श्री वीर चंद जैन भाभू दिल्ली 12. श्री राज कुमार जैन फरीदाबाद ट्रस्टी 13. श्री शति लाल जैन दिल्ली (एम.एल.बी.डी.) 14. श्री जयन्तिभाई एम.बदानी बंबई ट्रस्टी 15. श्री देवेन्द्र कमार जैन लधियाना ट्रस्टी 16. श्री शुशील कुमार जैन अंबाला ट्रस्टी 17. श्री श्रीपाल जैन लुधियाना ट्रस्टी 18. श्री शांति लाल जैन दिल्ली ट्रस्टी (खिलौने वाला) ट्रस्टी ट्रस्टी विजय वल्लभ स्मारक अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव 1 से 12-2-89 ट्रस्टी VIJAY VALLABH SMARAK PRATISHTHA MAHOTSAV SWAGAT SAMITI साध्वी सुज्येष्ठा श्री चैरिटेबल ट्रस्ट 1. श्री राम लाल जैन 2. श्री एम.पी.सेठ 3. श्री शांति लाल जैन 4. श्री राज कुमार जैन 5. श्री शादी लाल जैन 6. श्री हीरा लाल जैन 7. श्री निर्मल कुमार जैन Sain Education international नई दिल्ली प्रधान दिल्ली मंत्री दिल्ली कोषाध्यक्ष दिल्ली चंडीगढ़ ट्रस्टी लुधियाना ट्रस्टी दिल्ली ट्रस्टी ट्रस्टी 1. Shri Shrenik Kastrubhai Lalbhai - Lalbhai Group - Ahmedabad 2. Shri Dip Chand S. Gardi -Bar-at-law - Bombay 3. Shri J.R. Shah - Tax Consultant - Bombay 4. Shri Manickchand Bethala - Manickchand Gotam Chand Bethala - Madras 5. Shri Abhey Kumar Oswal - Oswal Agro Mills - Ludhiana 6. Shri Sahu Ashok Kumar Jain - Times of India Group - New Delhi 7. Shri Nrip Raj Jain - Lion Pencils Group -Bombay 8. Shri Pratap Bhai Bhogi Lal - Botliboi & Co. LTD. -Bombay 9. Shri Om Prakash Jain - Om Prakash Qimti Lal Jain - Ahmedabad For Private Persoal Use Only www.algelib Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय वल्लभ स्मारक अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव I À 12-2-89 10. Shri U.N. Mehta - Torrent Laboratories - Ahmedabad 11. Shri Raj Kumar Jain - Ganesh Das Payare Lal Jain -Ambala 12. Shri Dev Raj Ranka - Dev Raj Agencies - Bangalore 13. Shri Jeevraj Chauhar - Hindustan Drug House - Bangalore 14. Shri Kiran Kumar Keshari - Kesharimal Gadia & - Bangalore Mal Gadia Sons (Jariwala) 15. Shri Sanghvi Kundal Mal - Sanghvi Kundan Mal Babu Lal - Bangalore 16. Shri Kapur Chand - S. Kapur, Chand & Co., - Bangalore 17. Shri Chheda Jewellery Mart - Dhanji Street - Bombay 18. Shri Dhan Raj Dhadda - 121, Gulawadi - Bombay 19. Shri Dhirajlal Mohanlal Shah - Dhiraj Lal & Co. - Bombay 20. Shri Hira Lal Juhar Mal - Saxonia Watch Co. -- Bombay 21. Shri Jayanti Lal Shah - Sevanti Lal Kanti Lal - Bombay 22. Shri Manek Lal V. Savani - Savani Transport Pvt. Ltd - Bombay 23. Shri Raghuvir Chand Jain - Golden Beach, Juhu - Bombay 24. Shri Rati Lal P. Chandaria - Chandaria Group of Industries-Bombay/Landon 25. Shri Shailesh Bhai H. Kothari - R. Kanti Lal & Co.Samiti - Bombay 26. Smt. Shantaben Popatlal - Popatlal Bhikachand & Co. - Bombay 27. Shri Vasanji Lakhamsi - Lakhamsi Ghellabhai & Co. - Bombay 28. Shri Padam Kumar Jain - Punjab Fibres Ltd. - Chandigarh 29. Shri Rajinder Kumar Jain - Oswal Scientific Stores - Chandigarh 30. Shri Bhupendra Nath Jain - Harjas Rai Jain Charitable - Faridabad Trust 31. Shri Labh Chand Jain - Oswal Electricals - Faridabad 32. Shri Umed Mal Jain - Atul Prints - Faridabad 33. Shri Shri Pal Jain - Jai Ganesh Metal Industries - Jagadhari 34. Shri Mahinder Singh Daga - Allied Gem Corporation - Jaipur 35. Shri Komal Kumar Jain - Chander Prakash Komal Kumar- Jandialaguru 36. Shri Kewal Krishan Jain - Embassy Films - Jalandhar 37. Shri Shadi Lal Jain - Labhu Ram Jain & Sons - Jalandhar 38. Shri Surinder Pal Jain --- Kohinoor Rubber Mills - Jalandhar 39. Shri Tilak Chand Jain - Basant Metal Works -Jalandhar 40. Shri D.K. Oswal - Adinath Textiles Ltd. - Ludhiana 41. Shri Inder Prakash Jain - Jainson Hosiery Industries - Ludhiana 42. Shri Kashmiri Lal Jain - Vallabh Yarns - Ludhiana 43. Shri Raj Kumar Jain - Raj Jain Hosiery - Ludhiana 44. Shri Rattan Chand Oswal - Vardhman Spg. & General Mills Ltd. - Ludhiana 45. Shri Roshan Lal - Dhanpat Rai Charan Das – Ludhiana 46. Shri Shri Pal Jain - Behare Shah Shri Pal Jain - Ludhiana 47. Shri Shri Pal Jain - Deluxe Fabrics Pvt. Ltd. - Ludhiana For Private Penal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय वल्लभ स्मारक अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव 1 # 12-2-89 48. Shri Rattan Chand Nahar - Hira Chand Rattan Chand Nahar-Madras 49. Shri Shanti Mal Nahar - Monohar Mal Shanti Mal Nahar - Madras 50. Shri Sare Mal - Bombay Steel House - Madras 51. Shri Vimal Chand Jain - Deep Chand Vimal Chand Jain-Meerut 52. Shri Kimti Lal Jain - Madan Lal Kimti Lal Jain - Zira (pb) 53. Shri Avinash Chander Jain - Nahar Silk Mills Pvt. Ltd. - Delhi 54. Shri Bharat Shantilal Choudhry - C.M.I. Ltd. - New Delhi 55. Shri Chaman Lal Jain (Lahorewale) - A. Jain & Co. - Delhi 56. Shri Chambalal Jain - Driplex Water Engg. Co. Ltd. - New Delhi 57. Shri Chhotte Lal Jain - Rubbrolls & Plastic Enterprises-Delhi 58. Shri Dhan Raj Jain - Dr. Kumar Brothers - Delhi 59. Shri D.K. Jain - Luxor Pen Co. - Delhi 60. Shri Gajendra Singh Singhvi - Chartered Accountant - Delhi 61. Shri Gulshan Rai Naulakha - G.S. Plastic Industries -- Delhi 62. Shri Harakh Chand Nahata - Nahata Ltd. - Delhi 63. Shri Hukmi Chand - Hukmi Chand Samrath Mal - Delhi (Mandarawale) 64. Shri J.S. Jhaveri - Crown T.V. - Delhi 65. Shri Kharaitilal Jain - Narpatrai Kharaitilal Jain (Enkay) - Delhi 66. Shri Kirtibhai Gandhi - Gujrat Apartment - Delhi 67. Shri Krishan Kumar Jain - K.K. Rubber Co (India) Pvt. Ltd. - Delhi 68. Shri kumar Pal Jain - B.S.T Sales (India) - Delhi 69. Shri Mahinder Kumar Jain - Beni Prashad Mahinder Kumar-Delhi 70. Shri Mayur Jayantilal Chheda - Sanjay Agency - Delhi 71. Shri Milap Chand Jain - Plastic Sales Agency - Delhi 72. Shri Nanak Chand Jaswanta - Jainico Hosiery Mills - Delhi 73. Shri Padam Chand Jain - Seer India Group - Delhi 74. Shri Parveen Kumar Jain – J.K. Knitwear, Shahdra - Delhi 75. Shri Ram Lal Jain - Ram Lal Inder Lal Jain Delhi 76. Shri Rattan Chand Jain - Rattan Chand Rikhab Das Jain - Delhi 77. Shri Rikhab Chand Jain - T.T. Industries - Delhi 78. Shri Satish Kumar Oswal - Kunj & Co. Pvt. Ltd. - Delhi 79. Shri Shanti Lal Jain - Moti Lal Banarasi Dass - Delhi 80. Shri Shanti Lal Jain - United Toys - Delhi 81. Shri Shashi Kant Jain - Shagoon Wears - Delhi 82. Shri Sudhir Kumar Jain – 73, Sukhdev Vihar - Delhi 83. Shri Sukhdev Raj Jain - Jain Die Casters - Delhi 84. Shri Surinder Kumar Jain - H.S. Jain Wool Industries - Delhi 85. Shri Tribhuvan Kumar Jain - M.P. Electric Company - Delhi 86. Shri Vinod Jain - P.S. Jariwala - Delhi For Private & Personal use only in Education Internatione www.ainelibrary Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Abhey Kumar Oswal Shri Avinash Chand Jain Ludhiana Delhi Swagat Samiti Swagat Samiti/Trustee Shri Baldev Kumar Jain Shri Bhanwar Lal Kochar Bombay Past Trustee Delhi Trustee Shri Devaraj Ranka Bangalore Swagat Samiti Shri Dhan Raj Jain Delhi Swagat Samiti/Trustee Shri A. Manick Chand Bethala Madras Swagat Samiti/Patron Shri Chamba Lal Jain Delhi Swagat Samiti Shri G.S. Singhvi Delhi Swagat Samiti Shri Atmaram Bhogilal Sutaria Ahmedabad Trustee For Pilvate & Personal Use Only Shri Devendar Kumar Jain Ludhiana Swagat Samiti/Trustee Shri Arvind Pannalal Ahmedabad Trustee Shri D.K. Jain (Luxor) Delhi Swagat Samiti Shri Gulshan Rai Naulakha Shri Harakh Chand Nahata Delhi Swagat Samiti Delhi Swagat Samiti 63 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri H. Ratanchand Nahar Shri H. Sayarchand Nahar Bangalore Madras Swagat Samiti Trustee Shri Inder Prakash Jain Delhi Swagat Samiti/Trustee Shri Jeevraj P. Chouhan Bangalore Swagat Samiti/Trustee Shri J.S. Jhaveri(Crown T.V.) Delhi Swagat Samiti/Trustee Shri J.P. Jain Delhi Trustee Shri Komal Kumar Jain Jandiala Swagat Samiti Shri Krishan Kumar Jain (K.K) Delhi Swagat Samiti/Trustee Shri Kantilal D. Kora Bombay Trustee Shri Kewal Krishan Jain Jalandhar Swagat Samiti/Trustee Shri Kirtibhai Gandhi Gujrati Aptt Swagat Samiti Shri Kasturi Lal Jain Advocate Jalandhar Past Trustee Shri Kumar Pal Jain Delhi Swagat Samiti For Prve & Personal Use Only Shri Kashmiri Lal Jain Ludhiana Swagat Samiti Lala Labh Chand Ji Jain Faridabad Swagat Samiti www.jainelibrary. amin Education International Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Late Lala Sunder Lal Jain Shri Milap Chand Jain Delhi Delhi Life Trustee Swagat Samiti/Past Trustee Shri Mayur Jayantilal Chheda Delhi Swagat Samiti Shri M. Shantimull Nahar Madras Swagat Samiti Shri Maneklal V. Savani Bombay Swagat Samiti/Trustee Shri Manmohan Jain Delhi Trustee Shri M. Lalchand Munoth Madras Trustee Shri Narinder Kumar Jain (L.R.) Delhi Trustee Shri Om Prakash Jain Ahmedabad Swagat Samiti Shri Padam Chand Jain Delhi Swagat Samiti/Trustee Shri Praveen Kumar Jain Shahdara Swagat Samiti Shri Pratap Bhogilal Bombay Swagat Samiti/Trustee Dr. Pyarelal Jain U.S.A. Trustee Shri Raghuvir Chand Jain Shri Rajinder Kumar Jain Bombay Chandigarh Swagat Samiti Swagat Samiti Jan Education International For Private Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Ram Lal Jain Delhi Swagat Samiti/Trustee Shri Raj Kumar Jain (Raj Jain Hosiery) Ludhiana Swagat Samiti Shri Rasiklal B. Jhaveri Bombay Past Trustee Shri Roshan Lal Jain (Dhanpatrai Charandas) Ludhiana Swagat Samiti Shri Raj Kumar Jain Delhi Trustee Shri Raj Kumar (Rai Sahib) Shri Rattan Chand Jain Ambala (RCRD) Delhi Swagat Samiti/Trustee Swagat Samiti/Trustee Shri Raj Kumar Jain Faridabad Trustee Shri Surendar Pal Jain Jalandhar Swagat Samiti Shri Shashi Kant Jain (Shagoon) Delhi Swagat Samiti/Trustee Shri S. Kapoor Chand Bangalore Swagat Samiti Shri Shadi Lal Jain Jalandhar Swagat Samiti Shri Shailesh H. Kothari Bombay Swagat Samiti/Trustee Shri Sanghvi Kundanmal Shri Surinder Kumar Jain Bangalore (Woolwale) Delhi Swagat Samiti Swagat Samiti/Trustee Education international For Private Penal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Sanghvi Kesharimal Gadia Bangalore Swagat Samiti Shri Satish K. Oswal Delhi Swagat Samiti Shri Suraj Parkash Jain Agra Trustee Shri Satya Pal Jain Zira Trustee Shri Sudarshan Lal Jain (RCRD) Delhi Trustee Shri Sikander Lal Jain Advocate Ludhiana Trustee Shri Shadi Lal Jain Chandigarh Trustee Shri Sushil Kumar Jain Ambala Trustee Shri Shantilal Jain (U. Toys) Delhi Swagat Samiti/Trustee Shri Saremal B. Jain Madras Swagat Samiti Shri Shree Paul Jain Bihareshah Ludhiana Swagat Samiti/Trustee Shri Tilak Chand Jain Jalandhar Swagat Samiti Shri Tribhuwan Kumar Jain Shri U.N. Mehta (Torrent Delhi Lab) Ahmedabad Swagat Samiti Swagat Samiti Shri Vimal Chand Jain Meerut Swagat Samiti an Education international FOC P a sal Use Only neben Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 Shri Vir Chand Jain Bhabhu Delhi Trustee Shri Kharati Lal Jain Delhi Swagat Samiti/ Life Trustee Dr. Smt. Vimla S. Lalbhai Shri Narinder Jain (DRK) Late Kasturbhai Lalbhai Ahmedabad Delhi Ahmedabad Trustee Trustee Founder Patron Jain Education international Shri Vinodlal N. Dalal Delhi Trustee Shri Nirmal Kumar Jain Delhi Trustee Shri Amritlal M. Trivedi Shri Chandurlal P. Trivedi Shri Rattan Chand Oswal Ahmedabad Shilp Shastri Ahmedabad Shilpi (architect) Ludhiana Swagat Samiti Shri J.R. Shah Bombay Patron Shri Sukhdev Raj Jain Delhi Swagat Samiti Shri Shrenik K. Lalbhai Ahmedabad Swagat Samiti/Patron Shri Jayant M. Shah Bombay Jain Swetamber Conference Shri Shri Pal Jain Delux Fabrics Ludhiana Swagat Samiti Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Shanti Lal Jain (MLBD) Delhi Swagat Samiti/Trustee Shri Manohar Lal Jain Delhi Trustee Shri Bir Chand Jain Delhi Trustee Shri Mansukhbhai P. Mehta Delhi Trustee Shri Hukmi Chand Mandarwale Delhi Swagat Samiti Late Shri Dharam Chand Shri Dip Chand S. Gandhi Jain Delhi Bombay Past Trustee Patron/Swagat Samiti Shri Kasturi Lal Jain (K.K. Rubber) Delhi Trustee For Private & Penggal Use Only Sm. Nirmalaben R. Madan Shri Ghanshyam Dass Jain Delhi Delhi Trustee Past Trustee Bain Education International www.ainelibrary. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 VIJAY VALLABH SMARAK PRATISHTHA MAHOTSAV SAMITI 1. Shri Shrenik K. Lalbhai 2. Shri Dip Chand Gardi 3. Shri J.R. Shah 4. Shri Manekchand Bethala 5. Shri Abhey Kumar Oswal 6. Shri Ram Lal Jain 7. Shri Rattan Chand Jain 8. Shri Kharaiti Lal Jain 9. Shri Pratap Bhogilal 10. Shri Anoop Bhai Shah M.P. 11. Shri Abhilash Kumar Jain 12. Smt. Anuradha Jain (MLBD) 13. Shri Amrat K. Shah 14. Shri Anil Kumar Nahar 15. Shri Arvindbhai Pannalal 16. Shri Atmaram B. Sutaria 17. Shri Akshay Kumar Jain 18. Shri Bharat Vijay Kumar 19. Shri Bhupinder Nath Jain 20. Shri Bishamber Nath Jain 21. Shri Baldev Kumar Jain 22. Smt. Bhagwatiben 23. Shri Bir Chand Jain (Enkay) 24. Shri Bhanwar Lal Kochar 25. Chotte Lal Jain 26. Shri Chaman Lal Jain (Lahorewale) 27. Shri Devendra Kumar Jain 28. Shri Dev Raj Munhani 29. Shri Daulat Singh Jain 30. Shri D.B. Roy Jain 31. Shri Des Raj Jodhanwale 32. Shri Dhan Raj Dhadda 33. Shri Dhirajlal M. Shah Jan Educat34. Shri Dhan Raj Jain Ahmedabad 35. Shri Damji Kunverji Chheda Bombay 36. Shri D.D. Malvania Bombay 37. Dr. Dhanesh Jain Madras 38. Shri Dharmpal Oswal Ludhiana 39. Shri Gian Chand Moga Delhi 40. Shri Ghanshyam Dass Jain Delhi 41. Shri Hira Lal Jain (Atam Nagar) Delhi 42. Shri Harakh Chand Natha Bombay 43. Shri H. Sayarchand Nahar Bombay 44. Shri Hiralal Juharmal (Bijova) Hoshiarpur 45. Shri Hiralal Jain (B.M. Oswal) Delhi 46. Shri Inder Chand Bhansali Delhi 47. Shri Inder Parkash Jain Delhi 48. Shri Jayant M. Shah Ahmedabad 49. Smt. June L. Fog (Janaki) Ahmedabad 50. Shri Jayantilal H. Shah Delhi 51. Smt. Jyotibhen Bombay 52. Shri J.S. Jhaveri (Crown T.V.) Faridabad 53. Shri Jayantilal B. Shah Delhi 54. Shri Jawantraj Ranka Delhi 55. Shri Joti Pershad Jain (Rai Sahib) Bombay 56. Shri J.P. Jain Delhi 57. Shri Jayantibhai M. Badani Bombay 58. Shri Kantilal Kora Shahdara 59. Shri Komal Kumar Jain Delhi 60. Shri Kherati Lal Jain Ludhiana 61. Shri Kapoor Chand Jain England 62. Shri Kasturilal Jain Delhi 63. Shri Kumar Pal V. Shah Jaipur 64. Shri Kishore Kochar Ludhiana 65. Shri Kewal Krishan Jain Bombay 66. Shri Kundanmal Parekh Bombay 67. Shri Krishan Kumar Jain Delhi For Private Person 68. Shri Kasturi Lal Jain (K.K) Bombay Ahmedabad Delhi Ludhiana Ghaziabad Delhi Ludhiana Delhi Madras Bombay Ludhiana Delhi Ludhiana Bombay U.S.A. Japan Bombay Delhi Ahmedabad Bombay Delhi Delhi Bombay Bombay Jandiala Guru Ghaziabad Jalandhar Ambala Bombay Delhi Jullundur Bangalore Delhi Delhi Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jallandar Ahmedabad Faridabad Ahmedabad Madras Bombay Delhi U.S.A Delhi Delhi Delhi Delhi Delhi 69. Shri Kasturi Lal Jain 70. Shri Kalyan Bhai P. Phadia 71. Shri Labh Chand Jain 72. Shri Lalitbhai K. Kolsawala 73. Shri Lal Chand Munoth 74. Shri Maneklal V. Savani 75. Shri Manohar Lal Jain 76. Shri Mahinder Singh Daga 77. Shri Mangi Lal Sethia 78. Shri Mehtab Chand Jain 79. Shri Mulkh Raj Jain 80. Shri Mukand Lal Jain 81. Shri Mahinder Kumar Bhansali 82. Shri Milap Chand Jain 83. Shri Manmohan Jain 84. Shri Mansukhbhai P. Mehta 85. Dr. Natubhai Shah 86. Smt. Nirmala R. Madan 87. Smt. Neelam Rani Jain 88. Shri Neeraj Jain 89. Shri Nirmal Kumar Jain 90. Shri Nanakchand Jaswanta 91. Shri Narendra Jain (Dr. Kumar) 92. Shri Narendra Kumar Jain (L.R.) 93. Shri Narendra Prakash Jain (MLBD) 94. Shri Nagraj K. Oswal 95. Shri Om Parkash Jain (Ropar) 96. Shri Padam Chand Jain Bhabhu 97. Dr. Pearey Lal Jain 98. Shri Prem Chand Jain (Jayana watch) 99. Shri Paras Pukhraj 100. Shri Poonam Chand Bofna 101. Shri Poonambhai 102. Shri Panna Lal Nahta 103. Shri Raghuvir Kumar Jain 104. Shri Rajinder Pal Jain 105. Shri Raj Kumar Jain Rai Sahib 106. Shri Ratan Lal Gangwal 107. Shri Ramesh Kumar Jain 108. Shri Ramesh C. Jain (P.S. Jain) 109. Shri Rikhab Chand Jain (T.T. Ind.) 110. Prof Rattan Jain 111. Shri Rasikbhai Parikh 112. Shri Rattanlal Jain Ex. M.P. ennen Delhi Delhi Delhi England Delhi Ludhiana Delhi Delhi Delhi Delhi Delhi Delhi Pune Ludhiana Delhi U.S.A Delhi Bombay Dahanu Akola Delhi Jalandhar Ludhiana Ambala Delhi Ludhiana Delhi Delhi Delhi Gujrat Vihar Delhi 113. Shri Rattan Chand Kothari 114. Shri Roop Chand Jain 115. Shri Raj Kumar Jain 116. Shri Raj Kumar Jain 117. Shri Rakesh Jain (RCRD) 118. Shri Ramesh Chand Jain 119. Shri Ratilal P. Chandaria 120. Shri Rasiklal B. Jhaveri 121. Shri Shripal Jain (Bihare Shah) 122. Shri Sikander Lal Jain Advocate 123. Shri Sudarshan Lal (RCRD) 124. Shri Shailesh H. Kothari 125. Shri Shantilal Jain (MLBD) 126. Shri Sumati Parkash Jain (Lion Pencils) 127. Shri Satish Kumar Jain (Ahinsa Int) 128. Shri Swadesh Bhushan Jain 129. Shri Shadi Lal Jain (Veer Nagar) 130. Shri Sirhindi Lal Jain 131. Shri Sital Das Rakyan 132. Shri Shantibhai Bhagubhai Jhaveri 133. Shri Shreyans Kumar Jain 134. Shri Suraj Parkash Jain 135. Shri Satya Pal Jain 136. Shri Shantilal Jain (U.Toys) 137. Shri Shashi Kant Jain (Shagoon) 138. Shri Shadilal Jain Jeweller 139. Shri Susheel Kumar Jain 140. Shri T.A. Bhansali 141. Shri U.N. Mehta 142. Shri Umedmal Jain 143. Shri Vinodlal N. Dalal 144. Shri Vijay Kumar Jain Motiwale 145. Shri Vishan Das Jain 146. Shri Vimal Ranka 147. Shri Virender Kumar Jain 148. Shri Vinesh Jain 149. Shri Vasanji Lakhamsi 150. Shri Vir Chand Jain Bhabhu 151. Dr. Smt. Vimla S. Lalbhai 152. President Shree Sangh 153. President Shree Sangh 154. President Shree Sangh 155. President Shree Sangh 156. President Shree Sangh 157. President Shree Sangh Indore Delhi Ahinsa Vihar Faridabad Delhi Delhi London Bombay Ludhiana Ludhiana Delhi Bombay Delhi Delhi Delhi Delhi Delhi Mukerian Delhi Baroda Vallabh Vihar Agra Zira Delhi Delhi Chandigarh Ambala Bombay Ahmedabad Bombay Delhi Delhi Ghaziabad Bombay Delhi Delhi Bombay Delhi Valsad Ambala Ahmedabad Ahmodgarh Akola Amritsar Batala Juin For www.ainelibrary.org Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158. President Shree Sangh 159. President Shree Sangh 160. President Shree Sangh 161. President Shree Sangh 162. President Shree Sangh 163. President Shree Sangh 164. President Shree Sangh 165. President Shree Sangh 166. President Shree Sangh 167. President Shree Sangh 168. President Shree Sangh 169. President Shree Sangh 170. President Shree Sangh 171. President Shree Sangh 172. President Shree Sangh 173. President Shree Sangh 174. President Shree Sangh 175. President Shree Sangh 176. President Shree Sangh 177. President Shree Sangh 178. President Shree Sangh 179. President Shree Sangh 180. President Shree Sangh 181. President Shree Sangh 182. President Shree Sangh 183. President Shree Sangh 184. President Shree Sangh 185. President Shree Sangh 186. President Shree Sangh 187. President Shree Sangh 188. President Shree Sangh 189. President Shree Sangh 190. President Shree Sangh 191. President Shree Sangh 192. President Shree Sangh 193. President Shree Sangh 194. President Shree Sangh 195. President Shree Sangh 196. President Shree Sangh 197. President Shree Sangh 198. President Shree Sangh 199. President Shree Sangh 200. President Shree Sangh 201. President Shree Sangh Inn Educa202. Shri Raj Kumar Jain (Enkay) Barut Baroda Bhav Nagar Bijova Bhander Bhera Bikaner Bhathinda Chandigarh Faridkot Fazilka Faridabad Gardiwala Gurgaon Ghaziabad Hoshiarpur Jaipur विजय वल्लभ स्मारक Jagadhari अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव Jalandhar 1 12-2-89 Jammu Jandiala Guru Jodhpur Kapurthala Mukherian Malerkotla Moradabad Meerut Muzzaffar Nagar Nakodar Steering Committee Nabha Pune 1. Shri Ram Lal Jain, Delhi - Chairman Patiala 2. Shri Pratapbhai Bhogilal, Bombay — Patti Vice-Chairman Pali 3. Shri Pal Jain, Ludhiana Palanpur 4. Shri Sikander Lal Jain, Ludhiana Rishikesh 5. Shri Sailesh H. Kothari, Bombay Ropar 6. Shri J.M. Shah, Bombay Sardhana 7. Shri Bir Chand Jain, Delhi Sunam 8. Shri Vinod Bhai Dalal, Delhi Shivpuri 9. Shri Veer Chand Jain Bhabu, Delhi Samana 10. Shri Dhan Raj Jain, Delhi Sadri 11. Shri Raj Kumar Jain, Faridabad Thane 12. Shri Shanti Lal Jain (U. Toys), Delhi Zira 13. Shri Anil Nahar, Delhi Delhi Forvate Personal 14. Shri Nirmal Kumar Jain, Delhi www.jainelibrary.com 15. Shri Raj Kumar Jain, Delhi Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIJAY VALLABH SMARAK PRATISHTHA MAHOTSAV SAMITI विजय वल्लभ स्मारक अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव List of Sub-Committees 1 12-2-89 Nomenclature 1. Finance Committee 2. Champa Nagri Erection 3. Accommodation 4. Bhojanshala Co-Convenors Shri Bir Chand Jain Enkay Shri Dhan Raj Shri Anil Nahar 5. Religious Ceremonies 6. Cultural Programme 7. Procession 8. Souvenir Convenors Shri Ram Lal Jain Shri Anil Nahar Shri Vir Chand Bhabhu Shri Prem Chand Jain Shri Krishan Kumar Jain Shir Vinod Lal N. Dalal Shri Ghansham Das Jain Shri Dhan Raj Jain Shri Narendra Prakash Shri S.K. Jain Shri Bishamber Nath Jain Shri Vir Chand Jain Bhabhu Shri Raj Kumar, Faridabad 9. Reception & Information 10. Publicity Shri Inder Parkash Jain Shri D.K. Jain Shri Narinder Jain 11. Shraman Mandal Seva Satkar 12 Hospitality 13. Security 14. Transport 15. Medical Aid 16. Upkaran Centre 17. Recreation Centre 18. Photography 19. Donation Centre Shri Raghuvir Kumar Jain Shri Satish Oswal Shri Gulshan Kumar Jain Shri Mansukhbhai Mehta Shri D.K. Jain Shri Kirtibhai Gandhi Shri Bir Chand Jain Enkay Shri Kanti Ranka Shri Sudarshan Lal (RCRD) www.albany For Prve & Personal Use Only on Education intention Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Finance Sub-Committee 1. Shri Ram Lal Jain, Delhi - Convenor 2. Shri Pratap Bhogilal, Bombay 3. Shri Bir Chand Jain, Delhi - Treasurer 4. Shri Raj Kumar Jain, Ambala 5. Shri Shri Pal Jain, Ludhiana 6. Shri Sailesh H. Kothari, Bombay 7. Shri Sayar Chand Nahar, Madras 8. Shri J.S. Javeri, Delhi 9. Shri Vir Chand Jain Bhahbu, Delhi Champa Nagri Erection Sub-Committee 9. Shri Chand Prakash Jain, Delhi 10. Shri Ashok Jain, Delhi Bhojan Shala Sub-Committee 1. Shri Prem Chand Jain, Ludhiana 2. Shri Krishan Kumar Jain, Delhi -- Convenors 3. Shri Sikander Lal Jain, Ludhiana - Co-Convenor Breakfast 4. Shri Rajiv Jain, Seer India, Delhi - Co-Convenor Servicing 5. Shri Narinder K.Jain (L.R.) Delhi - Co-Convenor Supplies 6. Shri Parduman Kumar Jain, Shahdara 7. Shri Vivek Kumar Jain (LR) Delhi 8. Shri Vipinbhai Kobewala, Delhi 9. Shri Trilok Chand Jain, Moradabad 10. Shri Tribhuvan Kumar (Lali) Delhi 11. Shri Chander Shekhar (Kedar Bldg.) Delhi 12. Shri Tarsem Kumar Jain (K.K.) Delhi Dharmic Anushthan Sub-Committee विजय वल्लभ स्मारक अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव 1 # 12-2-89 1. Shri Vinod LalN. Dalal, Delhi -- Convenor 2. Shri Man Mohan Jain, Delhi 3. Shri Navneet Bhai Delhi 4. Shri Tribhuvan Kumar Jain, Ludhiana 5. Shri Milap Chand Jain, Delhi 1. Shri Anil Nahar, - Convenor 2. Shri Dhanraj Jain - Co-Convenor 3. Shri Mansukh Mehta, Delhi 4. Shri Bishamber Nath Jain, Delhi 5. Shri Shanti Lal Jain (U. Toys), Delhi 6. Shri Neeraj Jain, Delhi 7. Shri Gulshan Rai Jain, Delhi 8. Shri Vimal Kumar Jain (Enkay) Delhi Accommodation Sub-Committee Incharges 1. Shri Shreyans Kumar Jain, 2. Shri Tribhuvan Kumar, Ahinsa Vihar 3. Shri Manohar Mehta, Gujrat Apartment 4. Shri Yashwant Singh Jain, Vallabh Vihar 1. Shri V.C. Jain - Convenor 2. Shri Anil Nahar - Co.-Convenor Members 1. Shri Veer Sain Jain, Delhi 2. Mohanlal Jain, Delhi 3. Smt. Janak, Delhi 4. Shri Bhupinder Kumar Jain, Adarsh Nagar, Delhi 5. Shri Narinder Kumar Jain, Veer Nagar, Delhi 6. Shri Pravin Bhai, Gujrat Apartment, Delhi 7. Shri Narijan Parikh, Gujrat Apartment, Delhi 8. Shri Anil Nahata, Delhi For Private & Perasal Use Only Cultural Programme Sub-Committee 1. Shri Ghanshyam Das Jain, Delhi - Convenor 2. Shri Raj Kumar Jain, Faridabad - Convenor 3. Shri Milap Chand Jain, Delhi 4. Smt. Anuradha Jain, Delhi 5. Smt. Amita Jain Delhi 6. Smt. Kamal Jain (V.C.) Delhi 7. Smt. Sudha Behn, Delhi Processions Sub-Committee 1 Shri Dhanraj Jain, Delhi - Convenor 2. Shri Narinder Kumar (Enkay), Delhi 3. Shri Neeraj Jain, Delhi www.lainelibrary.com Sain Education international Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Smarika (Souvenir) Sub-Committee 1. Shri Narendra Prakash Jain, Delhi 2. Shri Sudarshan Kumar Jain, Delhi Convenors 3. Pt. Awadh Narain Dhar Dwivedi Editorial Assistance (Hindi) 4. Shri Raghav Pande - Editorial Assistance (Hindi) 5. Shri Virendra Kumar Jain Editorial Assistance (Hindi) 6. Dr. Prem Singh Editorial Assistance (English) 7. Dr. Raman Lal C. Shah Editorial Assistance (Gujrati) 8. Dr. Kumar Pal Desai Editorial Assistance (Gujrati) 9. Shri Inder Prakash Jain Editorial Assistance (Advertisements) 10. Shri Kanti Ranka Editorial Art & Layout Reception-Information Sub-Committee 1. Shri Bishamber Nath Jain, Delhi - Convenor 2. Shri Inder Prakash Jain, Delhi - Co-Convenor 3. Shri Abhay Kumar Jain, Delhi 4. Shri M.P. Seth, Delhi 5. Shri Sukhdev Raj Jain. Delhi 6. Shri Shiv Kumar Jain, Delhi Publicity Sub-Committee 1. Shri V.C. Jain, Delhi - Convenor 2. Shri D.K. Jain, Shahdara - Co-Convenor 3. Shri Narinder Kumar Jain (Enkay) Delhi Co-Convenor 4. Smt. Nirmala R. Madan, Delhi 5. Shri Kirti Prasad Jain, Ambala 6. Shri K.C. Kochar, Amritsar 7. Shri B.R. Manchanda, Delhi 8. Shri G.S. Singhvi, Delhi 9. Shri Sudhir Kumar Jain, Delhi 10. Prof. Rattan Jain, Delhi 11. Shri Raj Kumar Jain, Faridabad Shraman Mandal 'Seva Satkar' Sub-Committee 1. Shri Rahguvir Kumar Jain, Jalandhar Convenor 2. Shri Kumar Pal Jain, Delhi 3. Shri Shatranjay Kumar Jain, Delhi 4. Shri Ramesh Kumar Jain, Delhi 5. Shri Dinesh Bhai, Delhi 6. Smt. Mridula Dineshbhai, Delhi 7. Sh. Surinder Kumar Jain, Delhi Security Sub-Committee 1. Shri Gulshan Kumar Jain, Delhi Convenor 2. Shri Bhushan Jain, Delhi 3. Shri Vimal Kumar Jain (Enkay) Delhi 3. Shri Sanjiv Jain, Delhi Co-Convenor, Shahdara 4. Shri Vijay Vakani, Delhi Co-Convenor, Gujrat Apartment 5. Shri Sanjeev Jain, Delhi Co-Convenor, Roop Nagar 6. Shri Gagan Jain, Delhi Co-Convenor, Smarak Parking 7. Shri Lalit Jain, Delhi Co-Convenor, Ahinsa Vihar Transport Sub-Committee 1. Shri Mansukhbhai Mehta, Delhi Convenor 2. Shri Rajnibhai Shah, Delhi Co-Convenor, Gujrat Vihar Medical Aid 1. Shri Devinder Kumar Jain, Delhi Convenor 2. Dr. Rakesh Kumar Jain, Delhi 3. Dr. Kamal Kumar Jain, Delhi 4. Shri Anil Nahata, Delhi Hospitality Sub-Committee 1. Shri Satish Kumar Oswal - Convenor 2. Shri Inder Lal Jain, Delhi 3.. Shri Narinder Kumar Jain (Enkay) Delhi 4. Shri Jinender Prakash Jain, (MLBD) Delhi Recreation Centre Sub-Committee 5. Shri Sanjeev Jain, (Seer India) Delhi Upkaran Centre 1. Shri Kirtibhai Gandhi, Convenor 2. Smt. Sudha Seth 3. Shri Bir Chand Jain 1. Shri Bir Chand Jain, Delhi - Convenor 2. Shri Sudershan Kumar Jain, Delhi 3. Shri Anil Nahar, Delhi Photography Sub-Committee 1. Shri Kanti Ranka - Convenor 2. Shri Inder Lal Jain 3. Shri Narendra Jain 4. Shri Ravi Jain Donation Centre Sub-Committee 1. Shri Sudarshan Lal Jain, Delhi - Convenor 2. Shri Raj Kumar Jain, Ambala 3. Shri M.K. Jain (RBI), Delhi 75 www.janelibrary.org Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational For Prvate & Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनजति शासनम Wan Best Compliments OSWAL AGRO MILLS LTD. 25-B/6, NEW ROHTAK ROAD, NEW DELHI-110 005 Phone : 5717347, Telex : 031-77146, Cable : AGROBASE