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अमृत कण
जाता है। क्या ऐसा पापकर्म, इतनी भयंकर हिसा किसी भी धर्म में डालता हैं। नतीजा यह होता है कि वह घर में भरपेट खाना नहीं को मानने वाला, आस्तिक पुरुष कर सकता है? परन्तु समाज में खा सकता, बालकों को परा पढ़ा-लिखा नहीं सकता, अपने व ऐसी कप्रथा को सरेआम प्रचलित होते देखकर भी सहन किया परिवार के लिए परे कपड़े नहीं बना सकता। चूंकि समाज में वह जाता है, बल्कि धनिक लोग अपनी लड़कियों को अपनी बराबरी रीतिरिवाज प्रचलित है, अभी तक बन्द नहीं किया गया है,
धार्मिक शिक्षा का महत्त्व के ठिकाने में देने के लिए बड़ी-बड़ी रकम वरपक्ष को देते हैं और इसलिए उसे समाज में अपनी आबरू सहीसलामत रखने के लिए इस कुप्रथा को चाल रखते हैं, इसलिए इस भयंकर पापी रिवाज खर्च की चक्की में पिसना पड़ता है। अतः शीघ्र ही ध्यान देकर
धामिक शिक्षा तो माता के दूध के समान है। जैसे माता का को भी पण्यवानी का मलम्मा चढ़ा कर चलाते रहते हैं। उस समाज में प्रचलित ऐसी कुप्रथाओं का अन्त कर देना चाहिए।
दव शरीर को पुष्ट करता है, वैसे ही धार्मिक शिक्षा मन बद्धि समाज का अधःपतन क्यों नहीं होगा, जहाँ लड़के-लड़की महमांगे मृत्युभोज की कप्रथा भी इतनी भयंकर है कि वह कहीं-कहीं तो
और आत्मा के प्रदेशों को एष्ट करती है। दामों में बेचे जाते हों? इस कप्रथा को तो जितना शीघ्र हो सके । समाज के प्रतिष्ठित लोगों द्वारा मतक के कम्बियों पर ताने समाज से धक्का देकर निकालना चाहिए। मार-मार कर, दबाव डाल कर जबरन पालन कराई जाती है।
विरोध नहीं सहयोग बालविवाह और बुद्धविवाह-ये दोनों अनिष्ट समाज के विकास में घातक हैं: समाज को निर्वीर्य और निर्बल बनाने वाले
कर्तव्यनिर्देश
कोई द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखकर समाज हित का मरे हैं। इनके दुष्परिणाम आप सब जानते ही हैं। बालविवाह से एक ओर ऐसी निरर्थक और खर्चीली कप्रथाओं में समाज के ।
नजर रखते हा नधार या परिवर्तन किया जाए तो उसे देखकर असमय में कच्चा वीर्य नष्ट होने से कई रोग लग जाते हैं, असमय
लाखों रुपये बर्बाद किये जाते हैं, दूसरी ओर हमारी सन्तान प्राचीनता के मोहवश अथवा ईष्यांवश विरोध करना उचित नहीं में ही बढ़ापा, पंस्त्वहीनता आदि आ जाते हैं। संतान भी निर्वीय अनपढ़, अज्ञानी और अशिक्षित रहती है। शिक्षा के मामले में | होता। जबकि उन्हीं महान भावा ने पगनी कई परम्परा, जा पैदा होती है और वृद्धविवाह तो कन्या के जीवन में जानबूझ कर
हमारी समाज दुसरी समाजों में बहुत ही पिछड़ी हुई है। जो समाज दसगे ने बदली थी अपानाई थी अपना । तब फिर हमार वाय आग लगाने जैसा है। इससे कन्या को वैधव्य, असहायता. शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पिछड़ी रहती है, वह उद्योगधंधा, नई परम्परा को चलते देखकर विराध करना बदता व्यापात पराधीनता आदि दःख घेर लेते हैं। कई माँ-बाप जानबूझ कर पैसे
आधुनिक यंत्रों आदि के ज्ञान-विज्ञान में प्रगति नहीं कर सकती। सी बात है। के लोभ में आकर, अथवा अपनी लड़की को बहत जेवर व
समाज का यह पिछड़ापन नई पीढ़ी के विकास को रोक देता है। सखसामग्री मिलेगी, इस प्रलोभन में आकर बढ़े के गले मढ़ देते
विद्यादान में दिया गया पैसा व्यर्थ नहीं जाता। 'महावीर विद्यालय' । | सत्य का पुजारी हैं। इसे भी समाज के सधारकों को शीघ्र ही रोकना चाहिए।
का उदाहरण आपके सामने मौजूद है। शुरूआत में लोग लकीर के दहेजप्रथा-दहेजप्रथा भी समाज के लिए बड़ी घातक है।
फकीर बनकर विद्यादान का कितना विरोध करते थे? इतने जोर जो लोग बिराध बढ़ जाने के डर से या अपने सम्प्रदाय की
का अन्धड़ समाज में आया कि वह महावीर विद्यालय को उड़ा देने पकही हई बात को, चाहे वह आज अहितकर हो. छोड़ने में कन्या वाला अपनी लड़की को अपनी इच्छा से चाहे जो कछ दे, पर उसका दिखावा न करे और न वरपक्ष वाले उस पर दबाव डालें कि
को तत्पर था। लेकिन समाज के भाग्य प्रबल थे। समाज के प्रतिष्ठा जाने का खतरा महसुस करके शरमाने है या देख-देखी
अगओं ने मेरी बात पर ध्यान देकर इस विद्यालय को पनपाने की परानी घातक परम्पराओ के बदलने में स्वयं संकोच करत है। इतना दहेज तो देना ही पड़ेगा। नहीं तो हम तुम्हारी लड़की नहीं
ओर ध्यान दिया। आज उसका मधुर फल आप चख रहे हैं। | अथवा दसरा कोई हितेची किसी परम्परा को बदलता है तो उने लेंगे। दहेज दानव ने भी लाखों लड़कियों का खून पिया है, जीवन
महावीर विद्यालय के निमित्त से हजारों युवक विद्या प्राप्त करके | ठीक समझते हा भी सच्ची बात कहने में हिचकिचाते हैं वे सत्य का सत्यानाश कर दिया है। अतः इस पाप को भी जितना जल्दी हो
आज अपना जीवन सुखपूर्वक व धर्मयुक्त बिता रहे हैं। 'बूंद-बंद के पुजारी नहीं, कड़ियों के पुजारी है। सके, विदा करो।
से सरोवर भर जाता है इस कहावत पर ध्यान देकर आप समाज खर्चीले रीति-रिवाज-आजकल महंगाई के जमाने में से उत्कर्ष के कार्यों में यथाशक्ति अपनी सम्पत्ति और साधन लगा
अन्याय का धन विवाह, जन्ममरण के प्रसंग, उत्सव या किसी खास अवसर पर कर मानव-जीवन सार्थक करें।
अन्याय-अनीति या हिसा आदि से जो भी वस्त-से सत्ता कई खर्चीले रीति रिवाज चाल हैं। मध्यमवर्ग की कमर खर्च के सज्जनों! समाजोद्धार के इन मलमंत्रों के कार्यों में आप अपनाया और कह चीज प्राप्त की जाती है. आसीनि पक्क साचत का बोझ से इतनी टूट चुकी है कि अब वह और बर्दाश्त नहीं कर तन-मन-धन लगायेंगे तो आपके पुण्य में वृद्धि तो होगी ही, साथ जाती है वह उस व्यक्ति का ही नहीं बल्कि जिस व्यक्ति कपास सकता। बेचारा कर्ज करके, मकान, गहने आदि गिरवी रख कर ही समाज में भी धर्म की वृद्धि होगी, सर्वांगीण विकास का द्वार | वह चीज जाती है, उसकी भी यदि बिगद डालता हा लाचारीवश समाज में अपनी इज्जत बरकरार रखने के लिए ऐसे खुलेगा, जो समाज को मोक्षमार्ग पर ले जायेगा, इसमें कोई सन्देह अवसरों पर रीति-रिवाजों के खप्पर में हजारों रुपये खर्च के रूप नहीं।
-श्री वल्लभ सरी For Pavanes Purnorsat the only