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________________ मानवता के प्रेरक बल्लभ को हम सभी जानते हैं। जिन्होंने जनता के हित के लिए बड़ी सुंदर और सरल तथा मधुर वाणी से प्रभु महावीर की वाणी को जन-जन तक पहुंचाया। कई जीवों को संशय रहित किया, -खरतरगच्छीय मुनिश्री जयानन्द प्राणिमात्र के प्रति ऐसा वात्सल्य बरसाया कि जो व्यक्ति एक बार सन्त हृदय नवनीत समाना, कहा कबिन पै कहा न जाना। भला यदि कोई आदमी आकृति से मनुष्य है मगर उसके कर्म उन्हें देख लेता था वह उन्हीं का बन जाता था।अपनी नजरों में ही निज संताप दवै नवनीता, पर दुःख द्रवहि सुसन्त पुनीता।। पश से भी हीन हैं तो उसे मानव कौन कहेगा? वह तो एक तरह का नहीं, दिल में बसा लेता था। उनकी वाणी का जाद तो हर किसी को उनका दीवाना बना देता था। संसार के ताप से संतृप्त हुआ महापुरुष यह नहीं कहते हैं कि ऐसे चलो, इस प्रकार कर्त्तव्य दानव है, असम्ब और असंस्कृत है। जब तक हमारे भीतर, मानव व्यक्ति उनकी गंभीर मखमुद्रा देखकर शान्त हो जाता था। और पालन करो बल्कि, स्वयं कर्तव्य पालन कर आर्दश प्रस्तुत करते आकृति में सदाचार की प्रकृति प्रगट नहीं होगी, तब तक हमारा शान्ति का अनुभव करता था। हैं, जिसका अवलोकन कर समाज उस ओर अपने कदमों को जन्म सार्थक नहीं होगा। मनुष्य जन्म यदि सार्थक करना है तो प्रत्येक आत्मा के साथ आत्मीयतापूर्वक व्यवहार करना बढ़ाने लग जाता है। ऐसे वीर पुरुष आचार्य श्री विजय वल्लभ हमारे भीतर मनुष्यत्व का भी होना जरूरी है। इस प्रकार आचार्य सूरि थे। जिन्होंने अपने आचरण और उपदेशों से समाज का श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी. म. सा. ने मानव जाति को उनका असाधारण गुण था। नीचे गिरते को ऊपर उठाना किसी मार्गदर्शन किया। मार्ग बताया। विरले का ही काम है। जब ऊपर उठते हुए को नीचे गिराने में हर आचार्या श्री जी ने जन-जन में प्रेम एकता तथा सदाचार का कोई साथ देता है। उन्होंने अपने जीवन में सबसे अधिक महत्व आशा का दीपक कभी बुझने न दें अन्यथा जीवन भटक दिया था साधर्मिक भक्ति को। साधर्मिक सुखी होगा तो देव और जाएगा यदि इच्छा आशा निरंतर मन में दुहराये जायें, उन्हें दढ खूब प्रचार किया। अपने जीवन में साधर्मी भाइयों के उत्कर्ष के गुरु की भक्ति प्रेम से कर सकेगा। क्योंकि मानव को सुख में ही बलवती और पृष्ट बनाने की प्रतिक्रिया जारी रहे तो मनुष्य के लिए अथक प्रयत्न किया। जगह-जगह विद्यालय एवं धार्मिक प्रभु भजन करने का आनंद आता है और चित्त की एकाग्रता सुख व्यक्तित्व को उसकी कार्य करने की शक्ति,बल मिलेगा, अपना पाठशालाएँ खुलवाकर शिक्षा का बहुत प्रचार किया। के समय में ही होती है। दुःख में प्रभ का स्मरण होना स्वाभाविक है उद्देश्य प्राप्त करने में सफलता मिलेगी। मन में कभी श्री "वल्लभ स्मारक' आपकी भावना के अनुसार आपका लेकिन चित्त की स्थिरता मुश्किल है। हीन-भावना नहीं आने पाए। मन कभी पतन की ओर न जाय, कार्य आगे बढ़ाने में दिनो-दिन उन्नति के शिखर पर पहुँच रहा है, उसे ऊँचे आदर्शों की ओर ले जाकर उदान्त भावनाओं से मुक्त जिससे जैन समाज को सही दिशा प्राप्त होगी। प्रत्येक जीव के प्रति उनकी उदारता, विशालता और प्रेम रखना चाहिए। मन में सदैव यह दढ़ निश्चय होना चाहिए कि मैं की भावना बड़ी सराहनीय हैं। लक्ष्य की ओर बढ़ता जा रहा हूँ निरन्तर उन्नति के पथ पर आज का मानव दुनिया की पदार्थों की ममता के कारण अग्रसर हो रहा हूँ। यदि अपना कार्य पूर्ण होता न दिखाई दे तो उसे अपने आप को भूलता चला जा रहा है और अल्पसुख में रचा-पचा छोड़ना नहीं चाहिए, देखना यह चाहिए कि कार्य साकार करने के जा रहा है। इसी कारण वह दःखी और अशांत होकर बरबाद हो प्रयत्न में क्या त्रुटि, क्या कमी रह गई है, उस ओर ध्यान देना रहा है। फिर भी अजान और मोह के वश होकर अपने अपराध चाहिए। उन त्रुटियों को दूर करते ही सफलता हमारे चरण और भूलों को भूलता चला जा रहा है।ऐसे मानवों को सुधारने के चूमेगी। - सा० प्रमोद श्री लिए अध्यात्म ज्ञान के जानकार अध्यात्म निष्ठ उत्तम साधु, आचार्य श्री विजय वल्लभ सरिम.सा. ने अपने साधक जीवन धर्म के पालक, आत्मज्ञान रूपी बगीचे में हमेशा रमण करने वाले को साधा एवं जन-जन में वीर वाणी की गूंज फैलाई। धर्मज्ञ : धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः। विजयवल्लभ एक ही थे। मनुष्य जीवन पाना दुर्लभ है। वह बड़े ही परिश्रम से प्राप्त सत्वे य: सर्वशास्त्रार्थेदेशको गुरुरुच्यते।। गुरु की अमरता के संदेशों का और उसके परमपावन पवित्र होता है। गुलाब का फल कितना संघर्ष करके कितनी निश्चिन्तता गुणों का वर्णन करना मेरे जैसे साधारण व्यक्ति का कार्य नहीं है। से खिलता है और पता नहीं किस समय वह मुरझा जाएगा। फूल जो धर्म को जानने वाला हो, धर्म करता हो, सदा धर्म में वे तो असाधारण पण्यात्मा थे। असाधारणता उसी की होती है जो खिला है तो मुरझायेगा ही, मगर मुरझाने से पहले हमें फल की तत्पर रहता हो और प्राणियों को सर्व शास्त्रों का उपदेश देता हो खुद जगत को जीना सिखाये। वल्लभ गरु ने जगत को जीना खुशबू तो लेनी चाहिए, फल का मधुपान तो कर लेना चाहिए। उसे गुरू कहा जाता है। सिखाया, निडर बन कर। अपने जीवन में उन्होंने कभी स्वयं के मनुष्यत्व और मनुष्य जन्म के लिए संघर्ष कर मानव को जीवन गुरु वल्लभ में इन सभी का समावेश था। उस हरी भरी नाम की ख्याति नहीं चाही किन्तु जहां-तहां स्वयं काम करवा कर सफल बनाना चाहिए। और धर्म से सुसज्जित गुजरात की धरती के लाडले गुरू विजय आतम गुरू का नाम रोशन किया। दुःखियों का मसीहा 0 For Private the Only www.jainelibrary.orm
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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