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________________ कार्यक्रम रखा गया था, लोग आचार्य श्री की तपस्या का बखान निःसंदेह सभी गच्छों (सम्प्रदायों) का मार्ग-दर्शन करेगा। असंभव कार्य श्री ओसवाल की गुरुभक्ति का अनुकरणीय और कर रहे थे। किन्त आचार्यश्री ने इसके उत्तर में स्पष्ट कहा कि तपस्या और सेवा में बहत कम अन्तर है, सच पछा जाय तो । श्लाध्य नमूना है। मेरी तपस्या की वास्तविक अनुमोदना तप करना है। आप मेरी सेवा भी तपस्या है। आचार्य श्री इन्द्रदिन्न सरिजी ने सेवा का इस दृष्टि से आचार्य श्री स्वयं ऐसे प्रकाश-पुज हैं, जो प्रशंसा न कर, तप करें तो वह मेरे तप की सच्ची अनुमोदना आदर्श गुरुजनों से प्राप्त किया है। गुरुसेवा के पश्चात् साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका चतुर्विध संघ को अपने अपर्व होगी। कठिन तप न हो सके तो आयंबिल कीजिये, वह भी तप है। जनता-जनार्दन की सेवा सर्वोपरि है। अर्थात् जनता की सेवा प्रकाश से प्रकाशित कर रहे हैं। अतः हस्तिनापुर तीर्थ ने आपश्री हस्तिनापुर तीर्थ चातुर्मास के अवसर पर श्री रघुवीर जैन ने जनार्दन-भगवान की सेवा है। श्रमण जीवन के प्रथम प्रहर में को जैन-दिवाकर पदवी से अलंकृत किया तो इससे कौन असहमत उपधान के साथ इकतालीस उपवासों की तपस्या की थी, जो ऐसी आचार्य श्री ने परमार क्षत्रियों की, जो सेवा की वह जैन-इतिहास हो सकता है? तपस्या का कीर्तिमान है। श्री रघुवीर जैन प्रतिदिन यही कहा में स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है। कीचड़ में कमल के समान इन्हीं कारणों से जैन-समाज में कहीं भी कोई आवश्यकता करते थे कि मैं यह तपस्या गुरु महाराज की कृपा के बल और उत्पन्न होकर दर्गति के गर्त में गिरी परमार जाति को आचार्य श्री पड़ती है तो लोग आचार्य श्री की शरण में आकर गहार लगाते हैं। उनके आशीर्वादों के सम्बल पर कर रहा हूँ। ने ऊपर उठाया, उसे संस्कारी ही नहीं वरन् उसमें से कइयों को आचार्य श्री ऐसे औढर दानी हैं कि अपने पास एक कौड़ीन गुरु-शिष्य का यह भाव देखकर-महर्षि भरद्वाज और श्रीराम मुनि और गणि के गौरवास्पद पद पर प्रतिष्ठित भी किया। यही रखकर दूसरों को जब चाहें तब करोड़पति बना देने की क्षमता की स्थिति सामने आ जाती है: नहीं अब तो कुछ पुण्यवान् गणि पंन्यास के प्रतिष्ठित पद पर । रखते हैं। प्राणों की बातें सनी जाती हैं कि भगवान् शंकर स्वयं मनि रघुवीर परस्पर नवहीं बचन अगोचर सुख अनभव ही। विराजमान हो रहे हैं। परमार जाति में साधु-साध्वी तो हुए ही दिगम्बर हैं, भांग-धतूर भोजन मिल जाय तो बहुत है। पर भक्तों श्री रघुवीर के 41 दिनों का उपवास देख इस बात पर सहज श्रावक भी ऐसे हैं जो प्रतिक्रमण-उपधान आदि धार्मिक क्रियायें। के आठों सिद्धियाँ और नवों निधियाँ दे डालते हैं। देवताओं का ही विश्वास हो जाता है कि भगवान् आदिनाथ के 400 दिनों का सम्पन्न करते-कराते रहते हैं। यह सब आचार्य श्री विजय कोषाध्यक्ष कबेर उनका दास ही तो है। पर यहाँ प्रत्यक्ष देखा जा उपवास किया होगा। आज के युग में ऐसी तपस्या सामान्य नहीं है, इन्द्रदिन्न सरि की महत्ता का अमृतमय फल है। आप श्री ने सकता है कि आचार्य श्री स्वयं आयबिल-रूखा-सूखा भोजनकर जबकि समय पर चाय न मिलने से लोगों के प्राण संकट में पड़ जाते गाँव-गाँव, घर-घर, डगर-डगर चलकर परमार-भाई-बहनों भगवान् के गुण-गान में निमग्न रहते हैं। पर दूसरों को देने के हैं। अतः यह मानने में आगा-पीछा नहीं करना चाहिये कि यह को प्रतिबोधित किया। उनके बीच पावागढ़ तीर्थ का उद्धार कर लिए, धार्मिक कार्य सम्पन्न कराने के लिए, लाखों रुपयों को तपस्या गुरु-सान्निध्य का परम पुनीत फल है। उनके लिए भजन-पूजन का स्वर्ण अवसर प्रस्तुत किया है। लोष्टवत् समझते हैं। जिससे जो कह दिया,दे दिया निहाल हो गया। भगवान महावीर स्वामी को भली भाँति ज्ञात था कि मेरा यह अतः यदि जैन-जगत ने आप श्री को परमार-क्षत्रियोद्वारक अन्तिम भव (जन्म) है, वीतराग तीर्थकर का मैं जीव हूँ। फिर भी कह कर अपने को धन्य बनाया तो वह सर्वथा उचित है। गुरुदेव राष्ट्रसन्त आचार्य समद्र सरि भारत पर चीनियों के बारह वर्षों तक "काउसग्ग" मुद्रा में उनके घोर तप का क्या अर्थ आक्रमण से जिस प्रकार विक्षुब्ध हो उठे थे, घायल भारतीय है? यही कि पूर्व जन्मों के कर्मबंध तपों से ही छुटते हैं, किसी का आचार्य श्री विजय इन्द्रदिन्न सूरि ने साध-साध्वी-समाज का । सैनिकों को रक्त दान करने के लिए प्रस्तुत हो गए थे, उसी प्रकार व्यक्तित्व भले ईश्वरीय हो उसके लिए भी तप अनिवार्य है। स्तर ही ऊँचा नहीं उठाया वरन् श्रावक-श्राविकाओं की आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि प्यारे पंजाब के निरपराधियों की इसीलिए महावीर स्वामी के क्रमिक पट्टधर आचार्य श्री सुख-सुविधा का भी वे पर्याप्त ध्यान रखते हैं। आपके आशीर्वादों हत्या देखकर विचलित हो क्षत्रियोचित शौर्य को ललकार रहे हैं। जगच्चन्द्र सूरि ने उग्र तप किया, फलस्वरूप वे "तपागच्छ" के से कितने श्रावक लखपति ही नहीं, करोड़पति और अबखर्बपति वे आचार्य हेमचन्द्र सूरि के कथनानुसार स्पष्ट घोषणा करते हैं कि संस्थापक और प्रवर्तक हुए। यह घटना इस ओर भी संकेत करती बन गए हैं। मध्यम वर्गीय सार्मिकों के लिए देश के विभिन्न निरपराध लोगों की हत्या करने वाले आततायी वध के योग्य हैं। है कि "तप" सभी श्रमणों के लिए अत्यावश्यक है, विशेषकर नगरों में आवास-योजनाएँ कार्यान्वित हो रही हैं। बम्बई में, जहाँ यह हिसा नहीं, अहिंसा-व्रत का पालन है। "तपागच्छ" के लिए तो आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। आवास की सबसे बड़ी समस्या है, कई आवास-कालोनियां बन इस प्रकार आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि सर्वगुण सम्पन्न । क्योंकि उसका नाम "तपागच्छ" जो है। अत: चरम तीर्थंकर गई हैं। जैनाचार्य हैं जो आज जैन-जैनेतर सभी भारतीयों के श्रद्धा केन्द्र भगवान् के क्रमिक पट्टधर और 13 वीं शती में तपागच्छ के आचार्य श्री के श्री वल्लभ स्मारक-प्रवेश के समय धर्म के प्रवर्तक आचार्य जगच्चन्द्र सूरि महाराज के क्रमिक गच्छाधिपति सातों क्षेत्रों के सिंचनार्थ श्री अभय कुमार ओसवाल ने सौ लाख का आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि का आदर्श सम्मुख रखकर, आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि का मन सदैव तप में रमा रहता है तो दान किया, यह आचार्य श्री की तपः पूत-प्रेरणा का परिणाम है। उनके क्रमिक पट्टधर आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि के सान्निध्य में यह स्वाभाविक और परंपरागत प्रधान कर्तव्य है। इसीलिए श्री ओसवाल जी ने लुधियाना में करोड़ों की लागत से सम्पन्न होने श्री विजय वल्लभ स्मारक की अंजनशलाका-प्रतिष्ठा हो रही है, आपश्री सुयोग्य तपागच्छाधिपति हैं-और "तप" पर विशेष बल वाली विजय-इन्द्रनगर आवास-योजना की घोषणा कर बह जैन-समाज के लिए अत्यन्त गौरव और गर्व की दिया करते हैं। ऐसे तपोनिधि का सान्निध्य प्राप्त कर तपागच्छ जैन-जगत् ही नहीं सारे देश को आश्चर्य चकित कर दिया है। यह अविस्मरणीय घटना है।. aninEdunite www.dainelibrain
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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