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कोलाहल कर रहा है।
तब हेमचंद्राचार्य महाराज महादेव की स्तुति करते हुए बोले की कहते है की एक पदार्थ को अनेक दृष्टि से देखना। आचार धर्म की शांतिप्रिय जैन समाज
"जो राग-द्वेष आदि अट्ठारह दूषणों से रहित ऐसे चाहे ब्रह्मा, सूक्ष्मता के कारण जैन धर्म की महानता है।
विष्ण, महेश्वर सबको मेरा नमस्कार हो" इस प्रकार महादेव की जैन समाज अत्यल्प समाज है, लेकिन वह शांतिप्रिय समाज स्तति करके सिद्धराज को जैन धर्म के तत्वों की झलक दिखाकर
राजकीय क्षेत्र में जैन है। जब कभी भारत विपत्ति बादलों से घिरा, तब उन बादलों को प्रभावित किया।
राजकीय क्षेत्र में भी जैनों का महान योगदान है. राजकीय दूर हटाने के लिये अनेक प्रकार के शांति कर्म करता रहता है।
क्षेत्र में प्रवेश करते हुए भी अपना आचार, अपना सिद्धांत में अति भगवान महावीर और गौतम बुद्ध दोनों समकालीन थे, वर्षों तक
निश्चल रहा। सम्राट चंद्रगुप्त, परमार्हत कुमार पाल, खारवेल, राजगृही में निवास करने पर भी धर्म के नाम पर कभी ।
जैनाचार
सेनापति चामुंडराज, मंत्री वस्तपाल-तेजपाल, विमल मंत्री, वाद-विवाद नहीं किया। हिन्दुओं के साथ रहने पर भी जैनों ने जैन
जैनों का आचार अहिंसा प्रधान है। अहिंसा अर्थात किसी पेठडशाह आदि महापुरुषों ने राजकीय क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य धर्म की मौलिकता को तिलांजलि नहीं दी। उनकी भाषा में, वेश में परिवर्तन हआ, लेकिन सिद्धातों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ यही
जीव विशेष की हिंसा मन, वचन, काया से न करना, दुसरे का किये थे। परमार्हत कुमारपाल महाराजा ने देश में अहिंसा का
दुःख देखकर हम स्वंय के जीवन में पीडा दुख को निमंत्रित करते पालन कराया। अहिंसा का पालन के विषय में कुलदेवी सच्ची मौलिकता है। जैन धर्म शांति का परम उपासक है।
है, जैसा बोते है वैसा ही फल पाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी शक्ति कंटकेश्वरी का अनेक प्रत्याघात सहन किया था। राजकरण के वीतराग के अनुयायी होने से शांति समता, और समाधि की जीवन में अति आवश्यकता है। जैनों का भगवान की मूर्ति में किसी प्रकार
अनुसार जीवन में साधना कर सकते है। जैनों की मुख्य संस्कृति में साथ अपना धर्म का विस्मरण कभी नहीं हुआ था। वस्तुपाल, -
चारित्र बलवान है, अहिंसा, संयम और तप इस त्रिवेणी संगम पर तेजपाल ने भारतीय संस्कृति को आबूजी का अद्भुत, अलौकिक का श्रृंगाररस की पूर्णतया प्रतीति होती है। लोक में कहावत है की "जैसा संग वैसा ही रंग" होता है। वीररस आदि रस की तनिक
निर्भर है, जिस संस्कृति में संस्कार की झांकी नहीं है, तप का स्थान मंदिर बनवाकर अमूल्य भेंट दी, उनका विद्वत्मंडल भी महान् था, भी प्रतीति नहीं होती है, किन्तु शांतरस
नहीं होता है, वह संस्कृति अमर नहीं बन सकती। पांचों इन्द्रियों साहित्य का भी अत्यंत शौक था। इसी तरह राजकीय कार्य के
का दमन किये बिना विकारों का शमन नहीं होता। इसी कारण से साथ-साथ धार्मिक कार्य में भी महान योगदान दिया। जैनसमाज का उत्कर्ष
तप की आवश्यकता है। ज्ञान के माध्यम से परमात्मा ने आहार, विश्व में प्रत्येक क्षेत्र में जैन समाज का महान योगदान है। निहार, विहार आदि अनेक विषयों पर प्रकाश डाला है। क्या पथ्य
जैनों की संपत्ति प्रत्येक समाज के साथ आदान-प्रदान की प्रक्रिया करने पर भी है? क्या अपथ्य है? कैसे चलना? कैसे बैठना? कैसे बोलना?
जैनों की संपत्ति विश्व में अमल्य है। रल, मणिक, सवर्ण किसी समाज, राष्ट्र के संघर्ष में नहीं हआ। साहित्य क्षेत्र में 20 आदि हरेक विषयों से परिपूर्ण जैन फिलोसफी है। रात्रि भोजन आदि ही मल्यवान प्रतिमा मन्दिर पत्याचा महात्मा गांs लाख से अधिक हस्तप्रतियां है, जिसको देखने से ही मन प्रफल्लित नहीं करना चाहिये, रात्रि भोजन करने से शरीर में अजीर्ण गैस ने देश के स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कहा था कि भारत देशा होता है, जैसलमेर,खंभात.पाटण आदि अनेक शहरों में बडे-बडे आदि रोगों की संभावना होती है। सूर्यास्त के बाद सूक्ष्म जीवाणुओं गरीब देश है। इस शब्द के ऊपर इंग्लैंड के एक प्रोफेसर ने कहा ज्ञान भंडार है। किसी भी विषय की पुस्तक ज्ञान भंडारों से प्राप्त की उत्पत्ति होती है, वह भोजन में मिश्रित होकर शरीर का की कौन कहता है कि भारत गरीब देश है? भारत देशगरीब नहीं होती है, यह हमारा सांस्कृतिक खजाना है। कला क्षेत्र में जैनों की आरोग्य नष्ट करते हैं।
है लेकिन अत्यंत समृद्धिशाली देश है। जैनों की अध्यात्मिक वास्तुकला बेजोड़ मानी जाती है। कला संस्कृति का मापदंड है।
आचार धर्म का दो विभाग है। श्रमणाचार और संपत्ति इतनी विशाल है कि उस संपत्ति को बांटकर इंग्लैंड की आबु, राणकपुर जैसे महान तीर्थों के दर्शन के साथ उनकी श्रावकाचार। श्रमण माने साध जो अहिंसा का परिपर्णपालनकर सपूर्ण जमीन को खरीद सकते हैं। इस कथन से ज्ञात होता है भारत वास्तुकला का भी दर्शन होता है, मंदिरों की स्वच्छता, सौम्यता ।
महाव्रतों को आत्मसात करना। श्रावक माने गृहस्थ जीवन अर्थात देश में धार्मिक सम्पत्ति कितनी महान है? और नैसर्गिक सुंदरता अतिरमणीय होती है।
अणुव्रतों का पालन करना। श्रावकाचार धर्मसाधक बनने की जैन साहित्य में प्रत्येक शास्त्र का जैसे कि भूगोल शास्त्र, प्राचीन और अर्वाचीन समय की मूर्ति में कोई भेद नहीं है। प्रेरणा देता है। साधुओं का आचार अति दुष्कर है, मन संयम, रसायनिक शास्त्र आदि सबका ज्ञान प्राप्त होता है। जैन साहित्य ऋषभदेव भगवान के पुत्र भरत महाराजा की अंगूठी से निर्मित वचन संयम, का संयम कर जीवन व्यतीत करते है। काया का में जो ऐतिहासिक साधन सामग्री अन्य साहित्य से नहीं प्राप्त माणिक्य स्वामीजी की मूर्ति तथा संप्रति महाराजा की आज्ञा से संयम अत्यंत महान है। जैन धर्म का समस्त आचार आत्मलक्षी होती। कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य महाराज ने कुमारपाल निर्मित मूर्तिओं में और अर्वाचीन मूर्तिओं में अद्वितीय समानता है। है, जब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी, तब तक मंदिर में जाना, के लिये अनेक ग्रंथों का निर्माण किया। पूज्य श्री का साहित्य प्रति प्रत्येक मुर्ति पदमासन, अर्धपद्मासन अथवा कार्योत्सर्ग मुद्रा में अन्य क्रिया द्वारा आत्मशुद्धि करना यह आचार धर्म की विशेषता अमूल्य योगदान है। जिससे 900 वर्ष व्यतीत होने पर उनके होती है, उसमें कोई अन्तर नहीं है। महाराजा सिद्धराज कलिकाल है। जैन धर्म का अंतिम वीतरागता के विज्ञान की प्राप्ति वह साहित्यों को भूल नहीं सकते। जैन साहित्य के अध्ययन से अनेक सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य महाराज को महादेव के मंदिर में ले गये अनेकांतदृष्टि बिना प्राप्त नहीं होती है। अनेकांतदृष्टि उनको भाषाओं का ज्ञान मिलता है।