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अनेकान्तवाद
पं गिरिजादत्त त्रिपाठी
इतने नरम मत बनो कि
लोग तुम्हें खा जाये! इतने गरम मत बनो कि
लोग तुम्हें छू भी न सके ! इतने सरल मत बनो कि
लोग तुम्हें मूर्ख बना दे! इतने जटिल भी मत बनो कि
लोगों में तुम मिल न सको ! इतने गंभीर मत बनो कि
लोग तुमसे ऊब जाय! इतने छिछले मत बनो कि
लोग तुम्हें छू भी न सके! इतने सस्ते भी मत बनो कि
लोग तुम्हें नचाते रहे!
स्मरणातीत काल से यह उलझन उपस्थित है कि क्या धर्म बहुत बड़ी गलत फहमी फैली हुई थी। कुछ पाश्चात्यविद्वान् यह (Religion) और दर्शन (Philosophy) परस्पर सहकारी हैं मानते थे कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से निकला हुआ है। यह मानने का या अहिनकुलवत् इनमें विरोध है? कुछ पात्रात्य विद्वानों ने इन कारण यही है कि इन दोनों में कुछ समानता दीख पड़ती है। कुछ दोनों को बिलकुल भिन्न भिन्न माना है। वे धर्म को एक सीमित भारतीय विद्वान् भी जैन धर्म सम्बन्धी ज्ञान न होने के कारण यही परिधि के अन्दर रखना चाहते हैं और दर्शन को इस से बाहर। मान बैठे थे कि यह कोई स्वतन्त्र धर्म नहीं हैं अपितु बौद्ध धर्म की एक धार्मिक व्यक्ति कुछ ऐसी रुढ़ियों के भार से दबा है कि उसे ही एक शाखा हैं। इन दोनों तरह के विद्वानों के मत सर्वथा निर्मूल उससे बाहर निकलने का अवकाश ही नहीं है। वह न तो कुछ सिद्ध हो गये हैं और आज के वर्तमान संसार में इस बात की पुष्टि स्वतन्त्रतापूर्वक शोच सकता है और स्वतन्त्रतापूर्वक आचरण ही हो गयी हैं कि यह जैनधर्म उतना ही पुराना है जितना बौद्धधर्म। कर सकता है। लेकिन एक दार्शनिक व्यक्ति यदि उस सीमित यह निर्विवाद सिद्ध है कि महावीर बुद्ध के समकालिक थे। इस के परिधि के अन्दर रहने के लिये बाध्य किया जाय तो उसकी सारी साथ ही साथ यह भी सर्वसिद्ध बात है कि महावीर न तो किसी धर्म कल्पना और विचारशक्ति विलीन हो जाय। इस लिये उन विद्वानों के जन्मदाता थे और न किसी सम्प्रदाय के। वे तो केवल एक साधु ने इन दोनों के लिये दो भिन्न-भिन्न क्षेत्र नियत किये हैं। लेकिन थे जिन्होंने जैनधर्म का आलिङ्गन कर उस सच्चे तत्त्व के द्रष्टा भारतीय विचारशील विद्वानों ने इन दोनों को भिन्न-भिन्न न हो गये थे जिसके लिये इस धर्म की प्रवृत्ति है। वे चौबीस तीर्थकरों मानकर दोनों को साथ-साथ चलाने का प्रयत्न किया। हां, यह में अन्तिम तीर्थंकर थे।सभी तीर्थकरों ने उपदेश द्वारा इस धर्म की ज़रूर है कि इन दोनों के उद्देश्य में कुछ अन्तर पड़ता है, परंतु इन बनियाद कायम रखने की भगीरथ चेष्टा की है और इसीलिये ईसा थोड़ी-सी विषमताओं के सिवा इन में पूर्ण एकता है। के कम से कम 800 वर्ष पहले से लेकर आजतक इस की हस्ति जब राजनैतिक और आर्थिक वातावरण के प्रलयकारी झंझावात कायम हैं। अब यहां पर इस थोड़े से ऐतिहासिक परिचय के बाद से मनुष्य की मनोनौका विषम परिस्थिति के अथाह सागर में जैन दर्शन की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ विचार किया जाता है। डांवाडोल होने लगती है और शान्तिदायक सच्चे मार्ग का पता इंढ इस में सन्देह की गुंजाइश नहीं है कि जैन दर्शन के बहुत पहले निकलना कठिन हो जाता है उस समय दर्शन ही वेलातट के उपनिषदों का ही एकमात्र साम्राज्य था। वस्तुओं के स्वभाव के में प्रकाश का काम करता है। इस प्रकार यह दर्शन भी अन्तःकरण उपनिषदों के विचार यह हैं कि किसी वस्तु में प्रतीयमान में उसी शान्ति का बीज बोता है जिसके लिये धर्म की प्रवृत्ति होती नामरुपादि सब मिथ्या है। सत्य केवल वही है जिस के आधार पर है। इसी विचार के फलस्वरुप भारतीय सभी दर्शन अपने मज़बूत नामरुपों की विविध कल्पना की जाती है। दृष्टान्त के लिये एक पैरों पर खड़े हुए। यह जैन दर्शन भी इस नियम का अपवाद नहीं सुवर्ण पिण्ड को लीजिये। एक ही सुवर्णपिण्ड से कभी कुण्डल रहा। यद्यपिबाह्यपर्यालोचन मात्र से इन दोनों के दृष्टिकोण में बनाया जाता है, कभी वलय बनाया जाता है तो कभी कोई दूसरा कुछ अन्तर की झलक दीख पड़ेगी लेकिन यदि इसका सूक्ष्म भूषण।एक ही सुर्वण की भिन्न-भिन्न अवस्थायें बदलती जाती हैं विवरण किया जाय तो यह स्पष्ट हो जायगा कि वास्तव में इनके लेकिन वह सुवर्ण ज्यों का त्यों अपने स्वभाव के साथ वर्तमान उद्देश्य में कोई भेद नहीं है। इसी भाव से प्रेरित हो कर मैं पाठकों रहता है। उसके रुप और अवस्थाओं का परिवर्तन सिर्फ के सामने जैन धर्म तथा दर्शन के सम्बन्ध की कुछ बातें उपस्थित प्रतीतिमात्र हैं वस्तुसत् नहीं। उस वस्तु की सत्ता के सिवा और करता हूँ।
किसी चीज की सत्ता नहीं है। जिन्हें हम स्थिरता, दृश्यत्व या और जैन धर्म के सम्बन्ध में पाश्चात्यतथा भारतीय विद्वानों में किसी नाम से पुकारते हैं उन की वास्तविक सत्ता नहीं है। जो