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________________ कोध और क्षमा the ह . 12 विचार उपनिषदों ने रखे हैं ठीक उनके विपरीत बौद्धों के सिद्धान्त pluralism कहते हैं। इस सिद्धान्त का आविष्कार इस संप्रदाय थे। बौद्ध यह कहते थे कि हरेक चीज प्रतिक्षण में बदलती रहती को प्राचीनतम उपनिषद् तथा बौद्धों से पृथक् करने के लिये ही है: 'प्रतिक्षणं परिणामिनों हि सर्व एव भावाः'। कोई भी ऐसी वस्तु हुआ है। किसी वस्तु में स्थिरता का दम भरना उसकी कुछ नहीं है जो किसी भी रूप में स्थिर रह सके। जब मनुष्य सुवर्णपिण्ड विभिन्न अवस्थाओं को लेकर होता है। सुवर्णपिण्ड एक दृष्टिकोण को देखता है उस समय उस सवर्ण के गुण के अलावे और कुछ भी से द्रव्य है और दूसरे दृष्टिकोण से कुछ दूसरी ही वस्तु। उसे हम नहीं देखता। इस के अतिरिक्त कोई गुण रहित चीज दृष्टिगोचर उसी हालत में द्रव्य कह सकते हैं जब उसे अनेक परमाणुओं का नहीं होती जिसे उपनिषद स्थिरता या अपरिवर्तनशील शब्द से संघात माना जाय। यदि उसे हम काल या दिक् के दृष्टिकोण से व्यवहत करते हैं। बौद्धों का कहना है कि किसी वस्तु की स्थिरता विचारें तो वह द्रव्य नहीं कहा जा सकता। इस लिये वह सत्य हैं। दूसरी ओर बौद्ध दर्शन सबों की अस्थिरता की विगुल सुवर्णपिण्ड एक ही काल में द्रव्य और द्रव्यमान भी कहा जा सकता फूंकता है। ऐसी परिस्थिति में एक ऐसे संप्रदाय की नितान्त है। यह परमाणु-निष्पन्न भी कहा जा सकता है और उससे भिन्न आवश्यकता थी जो इस असामज्जस्य को दूर करे। इसी विषम भी। यदि हम उसे पृथ्वी परमाणु से नहीं बना है इस लिये उससे परिस्थिति को संभालने के लिये बीच में जैन दर्शन खड़ा होता है भिन्न भी है। उस सुवर्णपिण्ड से जो कुण्डल तैयार किया गया वह जो दोनों की बातों का खंडन कर एक नये मार्गका जन्म देता है, जो भी अनेक स्वभाववालाहै। वह द्रवीभूत सुवर्ण से बने रहने पर भी भारतीय साहित्य में एक अपना स्थान रखता है। ठोस सुवर्ण से नहीं बना है। राल से बने रहने पर भी श्याम से नहीं यह हम पहले बता चुके हैं कि जैन संप्रदाय बौद्ध संप्रदाय का बनाया गया है। इस प्रकार वस्तुस्वरूप की परीक्षा करने पर यही क्रोध आग समकालीन था; इतना ही नहीं किन्तु कुछ उपनिषद् भी ऐसे थे सारांश निकलता है कि वस्तुओं का स्वरूप दृष्टिकोण पर निर्भर क्षमा पानी जिनका समकालिक जैन दर्शन था। उपनिषद् और बौद्धों के रहता है जिसे हम Conditional कहते हैं। परस्पर झगड़े का निपटारा करने के लिये जैन दर्शन यह कहता है इस अनेकान्तवाद की नींव पर जैनदर्शन का नयवाद तथा क्रो जलन है, कि यह कहना ठीक नहीं है कि केवल वस्तु का स्वरूप ही सत् हैन स्याद्वाद अबलम्बित हैं। किसी वस्तु के स्वभाव के सम्बन्ध में जब क्षमा ठंडक एकान्त प्रतिक्षण में परिणमनशील। अनुभव इसी सत्यता को हम कोई निर्णय देने को तैयार होते हैं उस समय दो बातें हमारे क्रोध रोग है, प्रकाशित करता है कि गुणों के कुछ समवाय ऐसे हैं जो सामने आती हैं। पहली बात तो यह है कि 'यह मनुष्य है। इस क्षमा उपचार अपरिवर्तनशील हैं, कुछ नये गुण पैदा हो जाते हैं और कुछ पुराने वाक्य का उच्चारण हम करते हैं उस समय हमारे ध्यान में उसके क्रोध अंधकार है, धर्म नष्ट हो जाते हैं। जैन दर्शन का कहना है कि बौद्धों का यह अनेक गुणों का चित्र खिंच जाता है लेकिन वे गुण सामूहिक रूप से सिद्धान्त कुछ अंशों में ठीक है कि प्रतिक्षण में वस्तुओं का परिणाम उस चीज में हमारे सामने आते हैं। उस वस्तु के गुणों को उस वस्तु क्षमा प्रकाश है! हुआ करता है। लेकिन यह कहना बिलकुल गलत है कि वस्तुओं से पृथक् हम नहीं देखते हैं उस समय उस के गणों को ही देखते हैं. क्रोध कमजोरी है। के सभी गुणों में परिवर्तन होता है। वस्तुस्थिति तो यह है कि कुछ वस्तु तो उस जगह केवल मायानगर की भांति असत् मात्र है। क्षमा ताकत है! धर्म परिवर्तित होते हैं और कछ नहीं। जब सुवर्णपिण्ड का कुण्डल इन्हीं दो प्रकार के दृष्टिकोणों को जैन दर्शन में द्रव्यनय तथा कोशका -कचरा बना दिया गया तो उनका पिण्डभाव नष्ट हो गया, एक पर्यायनय शब्दों में व्यवहृत करते हैं। जिस प्रकार इस क्षमा रत्नों का ढेर है! कुण्डलभाव पैदा हो गया और सुवर्णभाव ज्यों का त्यों बना हुआ अनेकान्तवाद के सिद्धान्तने नयवाद का जन्म दिया उसी प्रकार है। इस प्रकार वस्तुओं और उन के धर्मों का पृथक्ककरण यदि इसने स्याद्वाद को भी पैदा किया। यदि अनेकान्तवाद की सत्ता क्रोध में दुत्कार है, किया जाय तो यही सिद्ध होगा कि हरेक चीज अनेक स्वभावों को स्थिर न हो तो स्याद्वाद टिक ही नहीं सकता। इसलिये संक्षेप में यह क्षमा में पुचकार है! अपने अन्दर रखती है। वस्तुओं की अनेक स्वभावता की नींव पर कहा जा सकता है कि अनेकान्तबाद की सत्ता स्थिर न हो तो क्रोध काली स्याह रात है ही सारे जैन दर्शन की इमारत खड़ी की गयी है। वस्तु के इस स्याद्वाद टिक ही नहीं सकता। इस लिये संक्षेप में यह कहा जा क्षमा स्वर्णिम प्रभात है! स्वरूप को देखकर ही 'अनन्तधर्मकं वस्तु' यह कहा गया है। सकता है कि अनेकान्तवाद के सभी जैन दार्शनिक सिद्धान्तों का वस्तुओं के स्थिर तथा परिवर्तनीय रूप विरुद्ध धर्मों का सम्बन्ध मूल स्रोत है जिसने समय समय पर अनेका विषयों के द्वारा इस ही हमें अनेकान्तवाद का मार्ग दिखाता है जिसे हम Relative दर्शन की काया को पूर्ण किया है। है! Jain Education international ForPrivates.Permonaleonly,
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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