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देने को तैयार नहीं होता। नतीजा यह होता है कि समाज निर्बल और कायर बन जाता है। कोई भी व्यक्ति उस समाज को दबा सकता है, हरा सकता है और उस पर हावी होकर उसे गुलाम बना सकता है। प्रगति की घुड़दौड़ में ऐसा कमजोर और दब्बू समाज पिछड़ जाता है। समाज में परस्पर सहयोग के अभाव में तुच्छस्वार्थी और प्राणमोही लोग कितना भारी नुकसान कर बैठते हैं, इसके लिए एक उदाहरण लीजिए
500 घरों की बस्ती वाला एक गाँव था। सभी कौम के लोग उसमें रहते थे। सभी अपनी-अपनी आजीविका के कामों में मशगूल रहते थे। गाँव की उन्नति, सुरक्षा या सुव्यवस्था की किसी को खास चिन्ता न थी। अपने-अपने तुच्छस्वार्थ में सब लीन रहा करते थे; खास मौके पर भी कोई किसी को मदद न देता था। चार डाकुओं के एक दल ने एक बार गाँव की जनता को चेतावनी दी कि "हम फलाँ दिन तुम्हारे गाँव पर हमला करेंगे और लूटेंगे।" यह खबर सुन कर गाँव के लोगों में खलबली तो मच गई, लेकिन झटपट कहीं एक जगह इकट्ठे होकर इसके उपाय का विचार न कर सके। जिन लोगों के पास ज्यादा धनमाल था, वे लोग सारे दिन प्रत्येक आदमी के पास घूम-घूम कर एक जगह इकट्ठे होने के लिए मिन्नतें करने लगे। तब जाकर कहीं थोड़े-से लोग इकट्ठे हुए निहितस्वार्थी लोगों ने जोशीले भाषण देकर गाँव के युवकों को डाकुओं का सामना करने के लिए तैयार कर लिया। उन्होंने सभी नौजवानों को हथियार भी दे दिए। किसी तरह कमर कस कर हथियारों से लैस हो कर गाँव के कोई 100 युवक शाम को गाँव की सीमा पर डेरा डाल कर नंबरवार बैठ गए। सबने सोचा- "डाकू आएँगे तो इसी रास्ते से! हम बारी-बारी से पहरा देते रहेंगे।" प्रति घंटे 8-8 युवकों की टुकड़ी ने पहरा देने का तय कर लिया। युवकों का पड़ाव गाँव से काफी दूर था। लेकिन जिस आगे वाली टुकड़ी का पहरा होता, वह यही सोचता-"यार, हम क्यों आगे रह कर व्यर्थ में अपने प्राण खोएँ! आगे रहेंगे तो सबसे पहले डाकुओं का हमला हम पर होगा।" अतः जो टुकड़ी सबसे आगे और सबसे पहले पहरे पर थी, वह एकदम सबसे पीछे और गाँव के किनारे पर आकर सो गई। उससे पीछे वाली टुकड़ी को भी ऐसा ही तुच्छस्वार्थी विचार आया। वह भी सबसे पीछे आकर लेट गई। यो क्रमशः आठों ही टुकड़ियों ने किया। सबेरा होते-होते तो वे सब युवक गाँव के अन्दर घुस आए। डाकुओं के दल ने मौका देख कर सबेरा होते-होते आकर हमला किया। सभी पहरेदार
खर्राटे भर रहे थे। डाकुओं ने सारे गाँव को अच्छी तरह लूटा और जिसने सामना किया उसे मारापीटा और जान से भी मार डाला। डाकू अपना काम करके भाग गये। जब वे जवान पहरेदार लोग उठे तो गाँव में कोहराम मचा हुआ था। युवकों की समझ में तो आ गया कि "हमारी लापरवाही और खुदगर्जी के कारण ही ऐसा हुआ है। नहीं तो, 4 डाकू हमारे गाँव को क्या लूट जाते"? पर अब क्या हो सकता था, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत!
सज्जनों! प्राणमोही स्वार्थी लोगों के स्वार्थीपन से सारे ग्राम (समाज) ने नुकसान उठाया। इसलिए सहयोग समाजोत्थान के लिए आवश्यक तत्त्व है। सहयोगी रूपी खंभों के बिना समाजरूपी महल टिक नहीं सकता। हमारे शरीर के सभी अवयवों में परस्पर कितना सहयोग है? अगर पैर में काँटा चुभ जाय तो आँख उसे देखने के लिए आतुर होगी, अधिक पीड़ा होने पर आँसू बहाएगी। हाथ उस काँटे को निकालने का प्रयत्न करेंगे। जीभ दूसरे व्यक्ति से काँटा निकालने के लिए मदद करने को कहेगी मस्तिष्क में यह विचार करने में लगेगा कि कैसे इस काँटे को जल्दी से जल्दी निकाला जाय; कान काँटे की आवाज को सुनकर उसके निकालने का उपाय दूसरों से सुनने में जुट पड़ेंगे। यानी सभी अवयव अपनी-अपनी योग्यतानुसार काँटा निकालने में सहयोग देने को जुट पडेंगे। इसी प्रकार समाज में विविध प्रकार की शक्ति वाले लोगों को परस्पर सहयोग के लिए और समाज पर कोई आफत या मुसीबत आए तो एकमत होकर दूर करने के लिए जुट पड़ना चाहिए। तभी सामाजोत्थान के काम में चार चाँद लगेंगे।
(4) योग्य को योग्य काम में लगाना-समाज में योग्य पदों, योग्य व्यवस्थाओं और कार्यों में उनके योग्य व्यक्तियों को नियुक्त करने पर ही सामाजिक सुख-शान्ति व व्यवस्था बनी रह सकती है। अयोग्य व्यक्तियों को योग्य पदों, कार्यों या व्यवस्थाओं पर नियुक्त कर देने पर सारी व्यवस्था व सुख-शान्ति चौपट हो जाती है। अयोग्य व्यक्ति ठीक ढंग से विधिपूर्वक काम करना नहीं जानता, इसलिए लोगों में सामाजिक कामों से असन्तोष पैदा होता है और असन्तोष का परिणाम कभी बगावत में भी आ जाया करता है। इसलिए 'योग्यं योग्येन योजयेत्' यह मंत्र समाजोत्थान के लिए बहुत जरूरी है। संस्कृत भाषा में एक कहावत है
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नहि वारणपर्याणं वोढुं शक्तो वनायुजः । 'हाथी का पलान गधा कभी सहन नहीं कर सकता।'
जो काम जिसके योग्य ही, वही काम उसे सौंपा जाना चाहिए। भारतीय समाज की प्राचीन चातुर्वर्ण्यव्यस्था में यही भावना थी। इससे समाज की सुव्यवस्था दीर्घकाल तक टिकी रही। आज वर्णव्यवस्था की गड़बड़ी के कारण भारतवर्ष की बड़ी हानि और अव्यवस्था हो रही है। शरीर में भी प्रत्येक अवयव अपने उचित स्थान पर ही शोभा देता है। हाथ की जगह पैर हों और पैर की जगह हाथ हों तो न हाथ का काम होगा, न पैर का ही। इसी प्रकार भुजाओं का काम सिर से और सिर का काम भुजाओं से लेना चाहें तो असम्भव होगा। सभी अंगों को अपनी जगह होने में ही शोभा और शरीर-सुन्दरता है। सभी अंग अपना-अपना काम न करें तो वे स्वयं निकम्मे हो जायेंगे।
इसी प्रकार समाज - शरीर में भी विभिन्न वर्गों या योग्यताओं वाले व्यक्तियों को उनके योग्य काम सौंपा जाना चाहिए और उन्हें भी अपने जिम्मे काम करना चाहिए। अन्यथा, समग्र समाज की व्यवस्था चौपट हो जायेगी। इस विषय में एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए
बाबर बड़ा मेहनती था। एक बार चढ़ाई करके भी वह हिन्दुस्तान को न जीत सका पर उसके दिल में हिन्दुस्तान को जीतने की महत्त्वाकांक्षा थी। इसी इच्छा से प्रेरित होकर उसने ईरान के बादशाह को दूत भेज कर सन्देश कहलाया- "बाबर हिन्दुस्तान को जीतना चाहते हैं, उन्हें आपकी सहायता की जरूरत है। " ईरान के बादशाह ने कहा- "मैं सहायता देने को तैयार हूँ, लेकिन पहले यह बताओ कि बाबर पहले हारे क्यों?" दूत बड़ा होशियार था। उसने जवाब दिया- "योग्य पदों पर योग्य व्यक्तियों को नियुक्त न करने से उन्हें हार खानी पड़ी। जो पद अक्लमंदों के लायक था, उस पर मूखों को और जो पद मामूली आदमियों के लायक था, उस पर अक्लमंदों को नियुक्त कर दिया गया। कामों को मूर्ख नहीं कर सकते थे और साधारण कामों में बुद्धिमानों का जी नहीं है, इस बार ऐसा नहीं होगा।” फलतः ईरान के बादशाह ने बाबर की मदद के लिए अपनी सेना भेजी। बाबर ने फिर भारत पर चढ़ाई की और इस बार अपनी जीत का डंका बजा दिया।
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निष्कर्ष यह है कि समाज में जो व्यक्ति जिस योग्य हो उसे वैसा ही काम सौंपा जाने पर सुव्यवस्था रहने से समाजोत्थान का काम आसानी से हो सकेगा। समाज में नारी का स्थान काफी ऊँचा
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