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________________ महत्तरा मृगावती जी और संन्यास की महिमा -वीरेन्द्र कुमार जैन जीवन की दो प्रमुख धाराएं हैं-संसार और संन्यास। संसार सम्मिश्रण था उनके व्यक्तित्व में। वे धारा-प्रवाह बोलती थीं। लेकिन गुरु भक्ति के पुराने-पुराने गीत जिन्हें लोग भूल चके थे का अर्थ हैं अनुरक्ति और संन्यास का अभिप्राय है विरक्ति। जिस विषय पर भी बोलती थीं ऐसा जान पड़ता था उसे उन्होंने उन्होंने पुनः समाज में उनको प्रचलित करवाया। संक्षेप में कहें तो अनुरक्ति जोड़ती है और विरक्ति तोड़ती है। सम्बन्ध नहीं आत्मसात् कर लिया है। इतनी तल्लीनता, गहन ज्ञान के बिना ऐसा कोई सामाजिक कार्य नहीं जो उनकी नेतृत्व प्रतिभा से विच्छेद करती है तो सही अर्थों में संसार को जान लेता है वह बद्ध संभव नहीं। समाज में तरह-तरह के लोग उनके सम्पर्क में आते लाभान्वित न हुआ हो। इतिहास के गर्भ में समाए हए कांगडा जैसे की तरह उससे विरक्त हुए बिना रह नहीं सकता और, जो विरक्त थे। सामान्य भक्त की श्रेणी में आने वाले दर्शनार्थी, धर्म-दर्शन पुराने जैन तीर्थ को उन्होंने पुनः स्थापित किया। बदली हई को समझ लेता है। वह मुक्त होगा ही। और मुक्ति ही आत्मा का ज्ञान के जिज्ञासु विद्वान, सिद्धहस्त कार्यकर्ता, कलाकार, कवि, जनसंख्या के कारण शहरों के फैलते हुए विस्तार के परिणाम लक्ष्य है। आत्म-मुक्ति की खोज ही वस्तुतः जैन धर्म का सार है। साहित्यकार, नेता, व्यापारी, कर्मचारी-सभी को समान रूप से स्वरूप नई-नई कालोनियों में जाकर बसने वाले जैन परिवारों के महत्तरा साध्वी मृगावती जी महाराज ने बहुत ही छोटी उम्र प्रभावित करने की क्षमता थी उनके निर्मल व्यक्तित्व में। लिए मंदिरों-उपाश्रयों के निर्माण की सफल प्रेरणा दी। जिस में संन्यास ले लिया था। इतनी छोटी उम्र में, जब बच्चों के खेलने प्रश्न होता है - यह दिव्य स्वरूप उन्होंने कहां से प्राप्त नगर, गाव या बस्तामवह गह, वहां के श्रीसंघ की वर्षों से उलझी के दिन होते हैं। संन्यास का गंभीर अर्थ समझने के नहीं। उनकी किया। सामान्यतः संन्यास धर्म में शिष्य के पास जो कुछ होता है। हुई समस्याओं को उन्होंने अपने जादुई प्रभाव से सुलझा दिया। माँ ने दीक्षा ली साथ ही उन्होंने भी ले ली। व्यक्ति के जीवन का जो वह गरु की देन होती है। इसमें संदेह नहीं कि अपनी माता गरु अपने प्रति धर्मानुरागियों के समर्पण-भाव का उन्हें आभास था, भविष्य होने वाला है घटनायें उसी के अनुरूप घटने लगती हैं। साध्वी शीलवती जी महाराज के सान्निधय में ही उन्होंने वैराग्य इसीलिए उन्होंने उनकी भक्ति को शुक्ति में बदल कर सामाजिक छोटी उम्र में दीक्षा लेने का एक लाभ तो हुआ कि उन्हें संसार को की अराधना की थी। लेकिन उनके व्यक्तित्व में आध्यात्मिक नवनिर्माण से जोड़ दिया। पुरातन स्थान-तीर्थ दर्शनीय और। की जरूरत ही नहीं पडी। भगवान महावीर ने कहा था जोकिन काजोपर मचा और जिसके बल पर समाज में पूज्यनीय हैं लेकिन नए धर्म स्थान और तीर्थ भी निर्मित होते रहने उसे पकड़ना ही क्यों। संसार में रखा ही क्या है, जिसे इतने महान् कार्यकर सकी-वह निःसंदेह गरु वल्लभ की देन है। चाहिए। समाज को उन्होंने इसका बोध काराया'बल्लभ स्मारक' छोड़ देने योग्य है उसे पकड़ा जाए। उसमें तो सब कुछ छोड़ देने गरु वल्लभ के प्रति अनूठी निष्ठा थी उनके मन में। मंच पर उन के मन में। मंच पर उनकी जीवन-साधना का अमृत स्मारक है। जैसा ही है। चाहे समझ के छोड़े या बिना समझे छोड़े। समझने की विराजमान होती थीं उन्हीं का नाम लेकर सम्बोधन करती थी. उन्होंने संन्यास को सच्चे अर्थों में अपने जीवन में प्रक्रिया में पड़ गए तो यात्रा लम्बी हो जाएगी। जीवन-मुक्ति की उन्हें ही स्मरण कर जो भी कार्य प्रारम्भ करती थीं गरु वल्लभ के रूपान्तरित किया। संन्यास उनके लिए वेश-भूषा का बदलाव यात्रा लम्बी है अतः जो सब जागे सफर के लिए तत्काल चल दे। नाम को हृदय में रखकर। अपने आराध्य गरुदेव के अमर नाम को नहीं था। संन्यास उनके लिए संसार का तिरस्कार भी नहीं था। छोटी उम्र में संन्यास की जो यात्रा महत्तरा जी ने प्रारम्भ की । उन्होंने जो गरिमा प्रदान की उसकी जितनी अनमोदना की जाए उन्होंने अपने जन्म के समय जिस संसार को देखा था, अपनी मत्य ओर उस में वैराग्य के जो फूल खिले उनसे सारा जैन समाज कम है। उनके विस्तृत जीवन पर विहंगम दृष्टिपात करते ही से पूर्व उसे कहीं अधिक सुन्दर बना कर छोड़ा। जीवन का ध्येय सवसित हो गया। सबसे पहले जो बात सर्वाधिक आकृष्ट करती है-वह है क्या कम है। संन्यास उनके लिए एक पार्थना व ध्येय थीं। गतिशीलता। वे शायद एक दिन भी निष्क्रिय नहीं रहीं। जीवन इसीलिए उन्हें समाधिकरण प्राप्त हो सका। हमारे जमाने में जैन-श्रमण संघ में साध्वियां प्रायः आत्म-कल्याण और भर समाजोत्थान के लिए प्रेरणा देती रहीं। वे जैन साध्वी थी, राजनीति के क्षेत्र में महात्मा गांधी क्रांति के क्षेत्र में शहीद भगत महिलाओं में धर्म प्रभावना को ही अपना कार्य क्षेत्र बनाती हैं। अतः उन्होंने स्वयं कुछ नहीं किया-लेकिन करवाया सब कुछ। वे सिंह, देशप्रेम के क्षेत्र में पड़ित जवाहर लाल नेहरू और जैन ऐसी साध्वियां बहुत कम है जिन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा से कोई शिल्पी नहीं थी लेकिन उन्होंने अनेकों मंदिर, उपाश्रय, संन्यास के क्षेत्र में महत्तरा साध्वी मृगावती जी महाराज अनुपम क्षेत्र, काल और भाव को प्रभावित किया हो। महत्तरा जी का नाम स्कल निर्माण की प्रेरणा दी। वे स्वयं लेखक, कवि या साहित्यकार उदाहरण हैं। इस संदर्भ में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है। उन्होंने वे कार्य किए नहीं थी लेकिन साहित्य निर्माण की प्रेरणा दी। वे स्वयं लेखक, शत शत नमन, शत शत वन्दन, शत शत प्रणाम। जो श्रमणोचित है। नेतृत्व की अदभुत क्षमता थी उनमें। कवि या साहित्यकार नहीं थी लेकिन साहित्य निर्माण और प्रगति हे संन्यास शिखर, उज्जवल, प्रखर जीवन अभिराम।। सूझ-बूझ, परख, विवेक और सुरुचि-संपन्नता का अनोखा में वे सदैव प्रयत्नशील रहीं। संगीत पर उनका अधिकार नहीं था शत शत प्रणाम...mhaliordiny.org JameCLARRIDIEOSouTE RIPTvateermouveniy
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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