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महत्तरा जी का महान जीवन
-दलसुख मालबणिया
आचार्य विजय वल्लभ सूरि ने समाज और उद्धार धर्म के वे सफल हुई। विद्यानिष्ठा पुनः मैंने जब वे आगम पढ़ने के लिए की नई दृष्टि दी। साधर्मिक वात्सलय की परंपरा को अहमदाबाद ई. सन् 1960 में आई तब देखी। व्याख्यानों में नया रूप दिया और युगद्रष्टा के रूप में प्रसिद्ध हुए। अत्यन्त कुशल होने पर भी केवल स्वाध्याय का ध्येय लेकर वे उन्हीं की शिष्या महत्तरा साध्वी श्री मृगावती जी ने,युगद्रष्टा ने अहमदाबाद में रहीं और अपना ध्येय सिद्ध किया। पुनः मैंने जो संदेश दिया था उसे विविध क्षेत्रों में कार्यान्वित करके युग बम्बई में ई. सन् 1968 में इसके दर्शन किए तो उनके व्याख्यानों निर्माता बन गई ऐसा कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। देश को जो धूम मची हुई थी उसका अनुभव किया। समाज और धर्म के नाना क्षेत्रों में महत्तरा मृगावती जी ने जो कार्य फिर तो हिन्दस्तान की चारों दिशाओं में उनकी बढती दर्ड किया है उसकी लम्बी सूची ही देखी जाए तो इस बात के तथ्य का प्रतिष्ठा देखी। दक्षिण भारत में बैंगलोर आदि स्थानों में उन्होंने पता चल जाएगा। इन सब लौकिक कार्य करने में अपने जो प्रतिष्ठा पाई उसे आज भी वहां के श्रावक याद करते हैं, यह आध्यात्मिक जीवन की साधना की परिपुष्टि ही उन्होंने देखी है यह मैंने स्वयं देखा। पूर्व में कलकत्ता की उनकी यात्रा को भुलाया नहीं उनकी जीवन साधना की विशेषता है। जीवन में ऐसा सुमेल जा सकता। बम्बई में स्थानकवासी द्वारा निर्मित अहिंसा भवन में केवल गांधी जी ने अपनी जीवन साधना में किया। वही सादगी, उनका चातुर्मास प्रवास उनकी असाम्प्रदायिक भावना का प्रतीक वही जीवन की सरलता और परहित में आत्महित की दृष्टि दोनों है। तो उत्तर के कांगड़ा में निवास आदि के अनेक कष्टों को के जीवन में देखी जा सकती है। जैन श्रवण संघ में ऐसा उदाहरण झेलकर उन्होंने कांगड़ा तीर्थ का जो उद्धार किया है दादा का दुलर्भ है। जैन समुदाय की साध्वी होते हुए भी कभी भी उनके मन दरबार सदा के लिए खुलवायाहै वह उनको अमर बनाने वाला है। में साम्प्रदायिकता ने प्रवेश नहीं किया। सब मानव के प्रति प्रेम ने उपेक्षित वह तीर्थ आज यात्रा धाम बन गया है। उनका प्रवेश सभी धर्मों के स्थानों में सहज बना दिया। यह घटना
__जब मृत्य निकट थी, तब उनमें देहाध्यास का सदंतर अभाव जैन समाज के लिए दुर्लभ है।
देखकर मै आश्चर्य चकित रह गया। भेद विज्ञान की बात तो मैंने . मृदुभाषी होने के कारण बालक से लेकर वृद्धों का हृदय कई लोगों से सनी है किंतु उसका साक्षात्कार तो मैंने महत्तरा जीतना उनके लिए आसान था यही कारण है कि उनके पास आने साध्वी श्री मगावती जी में जो देखा है, मैं भूल नहीं सकता है और में किसी को किसी प्रकार का क्षोभ नहीं होता था।
उनके प्रति, उनकी साधना के प्रति मेरा आदर दृढ़ हो गया है। मैंने सन् 1951 में उनका प्रथम दर्शन आगरा में किया तब आ० श्री वल्लभ सूरि स्मारक कार्य को जिस भाव से वह स्वच्छ खादी के वस्त्रों में जोसादाई देखी वह उनके प्रति आदर करती थी उसमें कभी भी उनका अहंभाव मैंने देखा नहीं,सब गुरु बड़ाने में निमित्त हुई। उस समय वे अपनी विद्या प्राप्ति में लगी महाराज की कृपा से ही हो रहा है। ऐसी निर्दभ बात वे हमेशा हुई थी। उनकी पूज्य माता साध्वी श्री शीलवती जी ने उनके करती थीं, यही उनके जीवन की विशेषता देखकर किसी का मन जीवन के निर्माण में जो योगदान दिया है वह भुलाया नहीं जा उनके प्रति आदरभाव से भर जाए तो इसमें कोई आश्चर्य की बात सकता। जिस प्रकार की तेजस्विता उनमें थी, उनसे भी अधिक नहीं है। आज वे नहीं हैं, किन्तु उनके किये सत्कार्यों ने उन्हें अमर तेजस्वी श्री मृगावती बने यह उनके मन की बात थी, और उसमें बना दिया है। F
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