SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 50 जैन संत-कवि जैन समाज में कलिकाल-कल्पतरु, अज्ञान-तिमिर-तरणि, रचनाएँ पद्य में गीत, स्तवन, समायादि तथा गद्य में भवि जाग तू गई रात रे, भगवन्त सूरज चढ़ियो। युगवीर आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि जी का नाम बड़े आदर प्रवचन-संग्रहों के रूप में उपलब्ध हैं। यहाँ केवल उनके कर ख्याल सद्गुरु केरा, मोह जाल में क्यों पड़ियो।। और सम्मान के साथ लिया जाता है। वे बालब्रह्मचारी तथा सच्चे संत-भक्ति, कवि-रूप को ही प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया नगरी अज्ञान अंधेरी रे, जिसकी नहीं है आदि। अर्थों में कर्मठ जैनाचार्य थे। उन्होंने अपने युग की परिस्थिति तथा गया है। मिथ्यात्व महल सोहे, मोह रात भारी मोहे।। सामायिक परिवर्तन को समझ लिया था। वे वेश-भूषा से जैन परमाद जहां पलंग रे गति चार बाही अंग। साधु, मन से मुनि तथा वाणी से कवि थे। जैन संत श्री विजय वल्लभजी का काव्य मुक्तक काव्य की पावे कवाय चारों, अति वाण काम विकारो।। कोटि में रखा जा सकता है। छोटे-छोटे गुटकों के अतिरिक्त इनकी तृष्णा तुलाई बिछाई रे, महा गर्व है रजाई। गुजरात में जन्में इस जैन संत ने जैन धर्म को पंजाब के मुक्तक रचनाएँ स्तवन सज्झाय "श्री चरित पूजा," "पंचतीर्थ गति भंग गाल मसूरी शय्या कुमति भारी।। श्रावक-श्राविकाओं तक पहुंचाने का जो गुरुतम कार्य-भार अपने पूजा," "पंच परमेष्ठी पूजा." "वल्लभ काव्य-सुधा' आदि में रंग राग लालटेन रे, उल्लोच मद ऐन। कंधों पर लिया उसे गुरुभक्ति के फरमान से मनसा, वाचा, संकलित है। प्रायः इनके सभी पद गेय हैं। सत्य तो यह है कि मोहनी मदिरा पान, नहीं शुद्धि सुमति सान।। कर्मणा पूर्ण करने के लिए वे रात-दिन लगे रहे। बालक छगन अन्तस्तल से निकली भक्त की गुहार ही तो प्रभु को रिझाती है। संत-महात्मा भविष्य द्रष्टा होते हैं। उनके उपदेश-वचन (प्रथम नाम) के मन में विरक्ति-भावना प्रारम्भ से ही संजोई हुई अतः इसके द्वारा रचित भक्ति-गीतादि प्रायः आत्मसमर्पण, त्रिकाल-व्यापी एवं चिरसत्य होते हैं। उनकी दृष्टि अनुभूति का थी। न्यायांभोनिधि श्री विजयानंद सूरि महाराज (आत्माराम)जी प्रभस्मरण (जिन भगवान्) की प्रेरणा से प्रेरित विनय, जागरण, अजन लगा कर इतनी पैनी हो जाती है कि भावी समाज की से दीक्षित होने तथा उनके पट्टधर होने का सौभाग्य प्राप्त कर श्री अनुराग एवं उपदेश के सहज उद्गार ही हैं। भगवान के दरबार कल्पना कर वे आने-वाली पीढ़ियों के लिए अपने वचनामृत के । विजय वल्लभ का अन्तर्मन अग्नि में तपे स्वर्ण के समान स्वच्छ में तो "भाव अनूठे चाहिएँ भाषा कैसी होय"-बाली उक्ति ही रूप में जीवन को ऊँचा उठाने की ऐसी अनेक उक्तियां उपलब्ध हैं एवं पवित्र हो गया। वैसे तो श्री वल्लभ जी के स्वरचित अनेक चरितार्थ होती है। जो न केवल जैन समाज के लिए ही अपितु सर्वसाधारण के लिए पद्यों में गुरु-स्मरण उपलब्ध है कित निम्नलिखित दोहे में भी अनुकरणीय है। उदाहरणार्थ एक प्रस्तुत है:गुरु-महिमा-गान, श्री गुरु महाराज को ज्ञान और क्रिया (कर्म) कूड़ा तोला कूड़ा मापा, कूड़ा लेख न करिये। मोह की रात्रि में प्रगाढ़ निन्द्रा के वशीभूत होकर आज का रूपी वृषभों द्वारा खींचे जा रहे रथ का सारथी मानते हुए किया गया है: मानव सो रहा है। उसे अज्ञान की नगरी में अपने गगनचुंबी और खोटे जन सुंवयण न माणे, मूठ गवाही न भरिये।। सर्वसुख-सामग्री-सम्पन्न महलों में प्रसाद के पलंग पर भोग कैसी विडम्बना है कि आज के युग में प्राणी अकेला ही धन का विलास का जीवन व्यतीत करते हुए आभास ही नहीं हो रहा है कि संचय करता है किंतु इस अपवित्र कमाई से सुखी रहता है उसका ज्ञान क्रिया बलिव रथ, शील सहस्त्र अठार। सवेरा होने जा रहा है। तृष्णा की तुलाई बिछाए और गर्व की परिवार। परन्तु जब उस पाप कर्म का कुफल भुगतना पड़ता है तो सारथी कर गुरु आतमा, वल्लभ मोक्ष पहुँचार।। रजाई ओढ़े राग-रंग की रोशनी में वह स्वप्न देखता हुआ सा उस पापकर्मी का साथ कोई नहीं देता। ऐसे अनमोल उपदेश दीक्षित होने के उपरान्त तप और साधना की कसौटी पर अपने जन्म को व्यर्थ गंवा रहा है। परन्तु गुरुदेव वल्लभ की कितनी सरल एवं सहज भाषा में संत कवि वल्लभ जी ने दिये हैं कसकर श्री बल्लभ जी का तन प्रकाशपुंज के समान दैदीप्यमान इस मोह-निन्द्रा को भंग करते हुए कहते हैं-"जाग, देख ज्ञान इसकी एक वानगी:हो गया। उनकी कवि-गिरा जैन भक्तों को भाव विभोर एवं रूपी भगवन्त सूर्य उदित हो गये हैं। अब अवसर है कि तू गुरु धन संचय पाप से, भोगत स्वजन समाज। गद्-गद करने के लिए जिन भगवान की लीला गाने लगी। इनकी भगवान की वाणी का अनुसरण कर अपना जन्म सुधार ले।" पाप भागी बब एकला, नहीं किसी को तस लाज। jain Education interme
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy