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________________ तेजस्वी प्रशस्त भाल, निश्छल सौजन्य, करुणा आँखें, गुलाब के फल जैसा मुख- दःस में सदाखिला चेहरा, स्नेह-अमृत बरसाती दृष्टि, भारतीय संस्कृति और सभ्यता की पावन मर्यादाओं के प्रति अडिग आस्थावान् उज्वल शुद्ध खादी में साध्वी श्री के प्रथम दर्शन में ही दर्शक को परमशांति का अनुभव होता था। उनके पास जो एक बार आया, सदा के लिए नतमस्तक हो गया। उनमें ऐसी आत्मिक शक्ति थी, जो चुम्बक की तरह मानव को बरबस खींचती रहती थी। उनकी आकृति भव्य और आकर्षक थी। प्रवचन देते समय वे श्रोताओं के दिलों पर जादुई असर डालती थी। उनके व्यक्तित्व में कोमलता और सहानुभूति के साथ साहस और विवेक का सामंजस्य था। वे किसी के अन्याय को भारती देवी और झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की तरह प्रश्रय नहीं देती थीं। मनुष्य विचारवान् प्राणी है और उसकी सतत् प्रगति का कारण है, उसके विचारों को बांटने और अपनाने की क्षमता। साध्वी श्री ने विचारों की क्षमता से युग के नव निर्माण का बीड़ा उठाया: युवकों में उत्साह फूका महिला समाज को एक नई दिशा दी : मानव को सच्ची राह दिखाई और धर्म को क्रियाकांडों मन्दिरों तक ही सीमित न रखकर उसे व्यवहार में उतारा। उन्होंने अपनी वाणी के बल पर अनेकों संस्थाओं का निर्माण करवाया। इतना ही नहीं वे खुद एक बहुत बड़ी संस्था थीं देशोद्धार की संस्था, व्यक्ति के उद्धार की संस्था, धर्म, ज्ञान और विवेक की संस्था, संस्कृति और मनीषा की संस्था कंठ की मधुरता, वाणी की ओजस्विता, विनम्रता और स्निग्धता उनकी अपनी मौलिक विशेषताएं थी। साध्वी श्री शंकराचार्य जैसी तेजस्वी प्रखर वैराग्य विलक्षण प्रतिभा में गार्गी और मैत्रेयी जैसी गम्भीर ज्ञानगरिमा तथा सहजीबाई और मक्ताबाई जैसी गुरुभक्ति की सम्पदा थी। उनेक पास दौलत थी- सत्य की, आचरण की और पांच महावतों की, जिसे उन्होंने खुले हाथों दुनिया को बांटा, लटाया समाज से उन्होंने जो कुछ पाया, उनको सहस्त्रगुना कर वापिस कर दिया। गुरु आत्म का शीर्य, गुरुवल्लभ की दूरदृष्टि, गुरु समुद्र की गुरु भक्ति की त्रिवेणी संगम उनमें साकार था। अभूतपूर्व आत्मविश्वास और कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धयं सोए बिना स्वविवेक से निर्णय करने की क्षमता जैसे विलक्षण गुण उनके महत्तरा पद के अनुरूप ही थे। आज जबकि जीवन-मूल्य अनिश्चित हैं, व्यक्ति पर अहं प्रभावी है. युवावर्ग को कोई रचनात्मक दिशा प्राप्य नहीं है, कुप्रथाओं और कव्यसनों में मानव घरी तरह फंसता जा रहा है, पंचमकाल के विषम वातावरण में मानव बेहद अशान्त, परेशान हैं, ऐसे मानव के लिए आप अंधकार में संयोदय की भांति सिद्ध हुई। आपने एक सीधी स्पष्ट दिशा का निर्माण कर ऐसा मार्ग दिखाया, जिस पर महान लोगों के पदचिन्ह अंकित है। आप प्रत्येक मानव का आदर करते थे जो काम हाथ में लेते थे, उसे परा करके ही छोड़ते थे। "देह पातायामि कार्य वा साधयामि" का व्रत ताने-बाने की तरह उनके जीवन में बना हुआ था, इसलिए सफलताएं उनके चरण चमती थीं जो बोलते थे, उसे आचरण में कर दिखाते थे। साहित्यकारों, कलाकारों, विद्वानों का सदैव सम्मान करते थे। साधामिक बन्धुओं, विधवाओं निःसहायों, अनाथों, विद्यार्थियों की गुप्त सहायता करना उनका नित्यक्रम था। वे प्रान्त, लिंग, जाति एवं साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से ऊपर उठे हुए थे। आपने वल्लभ स्मारक के लिए जीवन अर्पित कर विजय वल्लभ स्मारक का निर्माण करवाया। आपकी यशोगाथा स्मारक के साथ हमेशा जुड़ी रहेगी। शत-शत अभिनंदन
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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