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जिन मन्दिर दर्शन तथा प्रवेश-विधि
श्रावक अपने घर से निकलने के बाद मार्ग में यतना पूर्वक ( जीव रक्षा, ईर्या समिति पालन) तथा शुभ भावों से भावित होता हुआ आगे बढ़े और ज्योंही दूर से जिन मन्दिर का शिखर दिखाई दे, त्योंही उल्लसित हृदय से मस्तक झुकाते हुए 'नमो जिणाणं' बोले। मंदिर के निकट आते आते तो सांसारिक विचारों का भी त्याग कर दे, और ज्योंही जिन मन्दिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करें, त्योंही उच्चारण पूर्वक निसीही' बोले। इन 'निसीही' के द्वारा व्यक्ति सांसारिक समस्त प्रवृत्तियों के त्याग का नियम करता है। इस 'निसीहि' बोलने के बाद मन्दिर में किसी भी प्रकार की बातचीत न करे और प्रभु भक्ति के अतिरिक्त संसार के विचार भी न करें।
प्रदक्षिणा व मुख्य द्वार प्रवेश
जिन मन्दिर में प्रवेश के बाद बायीं ओर से (मूल गंभारे के चारों ओर) रत्नत्रयी की प्राप्ति हेतु तीन प्रदक्षिणा दें। प्रदक्षिणा के अन्तर्गत यदि जिन मन्दिर सम्बन्धी पुजारी आदि को सूचना करनी हो तो सूचना करें और उसके बाद मुख्य गंभारे के द्वार पर पुनः 'निसीही' बोले। इस 'निमीही' द्वारा मन्दिर सम्बन्धी कार्यों का त्याग किया जाता है।
उसके बाद प्रभु के दर्शन होने के साथ ही मस्तक झुकाकर, 'हाथ जोड़कर शुभ भावपूर्वक, प्रभु के गुणों की तथा आत्मदोष को प्रकट करने वाली स्तुतियों द्वारा प्रभु की स्तावना करें।
तदुपरांत यदि मात्र दर्शनार्थ ही आये हो तो शुद्ध वस्त्रधारी श्रावक अष्टपटक मुखकोश बाँध प्रभुजी की वासक्षेप पूजा करे, उसके बाद अग्रपूजा कर चैत्यवंदन करना चाहिये। और यदि प्रभु प्रजा करे, उसके बाद अग्रपूजा कर चैत्यवंदन करना चाहिये। और यदि प्रभु-पूजा हेतु आये हो तो पूजा के योग्य सामग्री को तैयार करना चाहिये। प्रभु-पूजा के पूर्व अपने भाल पर तिलक करना चाहिये (तिलक हेतु प्रभु-पूजा से अतिरिक्त कैंसर का उपयोग करे) भाल पर तिलक कर पूजक प्रभु की आज्ञा को सिर
पर चढ़ाता है।
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प्रभ सन्मुख बोली जाने वाली कुछ स्तुतियां
दर्शनं देवदेवस्य दर्शनं पापनाशनम् । दर्शनं स्वर्गसोपानम्, दर्शनं मोक्षसाधनम् ।।१।। कमठे धरणेन्द्रे च स्वोचितं कर्म कुर्वति । प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः, पार्श्वनाथः श्रिये स्तुवः । । २ । । आदिमं पृथिवीनाथ - मादिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च ऋषभस्वामिनं स्तुमः ।। ३ ।। अर्हन्तो भगवन्त इन्द्र महिताः सिद्धाश्च सिद्धिस्थताः । आचार्या जिनशासनान्नतिकराः, पूज्या उपाध्ययकाः
श्री सिद्धान्तसुपाठका मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः पञ्चै ते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु वो मंगलम् । । ४ । । सरस शान्तिसुधारससागरम्।
'शुचितरं गुणरत्नमहागरम् । भविककबोधिचि
For Private & Personal Use Only प्रतिदिनं प्रणमामि जिनेश्वरम् ।। ५ ।।
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