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अंग-पूजा विधिः
पूजा समय निम्नोक्त दोहा बोलें
8 हृदय पूजा
हृदय कमल उपशम बले, बाल्या राग ने रोष। जे दृष्टि प्रभुदर्शन करे, ते दृष्टि ने पण धन्य छे, जे जीभ जिनवरने स्तवे, ते जीभने पण धन्य छे, पीये मुदा वाणी सुधा, ते कर्णयगने नित धन्य छे,
तुज नाम मंत्र विशद धरे, ते हृदयने नित धन्य छे।।6।। सुण्या हशे पूज्या हशे, निरख्या हशे पण को क्षणे, हे! जगत् बंधु! चित्तमा, धार्या नहि भक्तिपणे;
जन्म्यो प्रभु ते कारणे, दुःख पात्र हूँ संसारमा, हा! भक्ति ते फलती नथी जे भाव शून्याचारमा।।7।।
हिम दहे वन खंड ने हृदय-तिलक संतोष।।
प्रभ जी को स्पर्श कर,की जाती हई पूजा अंग-पूजा कहलती
शीतल गुण जेहमा रहोल,शीतल प्रभु मुख अंग है। जल-चंदन-केसर-पुष्प तथा आभूषण आदि द्वारा प्रभुजी की
आत्म शीतल करवा भणी, पूजा अरिहा अंग।। अंग-पूजा की जाती है।
चन्दन-पूजा ब अंग-रचना के बाद प्रभुजी की केसर से
नवागी पूजा करें। नवागी पूजा करते समय निम्नोक्त दोहे बोलेंप्रभजी के मुख्य गभारे में प्रवेश पूर्व ही अष्टपटक वाला मखकोश । बांधना चाहिये। सर्वप्रथम प्रतिमाजी पर रहे पुष्पों को उतार कर
| चरणांगुष्ट पूजा।
जलभरी संपट पत्रमा, युगलिक नर-पूर्जत। मोर पिछी से यतनापूर्वक प्रभाजना करती चाहिये। उसके बाद
ऋषभ चरण अंगुठडे, दायक भव जल अंत।।। कार के स्वच्छ व छाने हुए जल से प्रभजी का अभिषेक करनी
2 जानु पूजाचाहिये। जलाभिषेक के बाद गत दिन की आंगी (बरक-केसरादि)
जान बले काउसग्ग रह्या, बिचर्या देश विदेश। को साफ करना चाहिये। प्रभुजी के किसी भाग में केमर आदि रह
खड़ा खड़ा केवल लघु, पूजो जान नरेश।। गया हो तो उसे बहुत ही कोमल हाथ से व धीरे धीरे से साफ करना
3 हस्तकांड पूजाचाहिये।
लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसी दान। सामन्यतः केसर आदि के साफ हो जाने पर दध आदि ।
कर-कांडे प्रभु-पूजना, पूजो भवि बहुमान।। पञ्चामृत से प्रभजी का हर्षोल्लास के साथ प्रक्षालन करना
4 स्कंध पूजाचाहिये। प्रक्षालन समय अपने शुभ-भावों को व्यक्त करने वाले
मान गयं दोय अंसथी, देखी वीर्य अनंत। निम्नोक्त दोहे भी बोले
भूजा बले भवजल तर्या, पूजो खंध महंत।। जल-पूजा जगते करों, मेल अनादि विनाश। 5 सिर-शिखर पूजाजल-पजा फल मज होजो. मागो एम प्रभ पास।।
सिद्धशिला गण उजली, लोकाते भगवंत। ज्ञान कलश भरी आतमा, समता रस भरपूर।
'बसिया' तेणे कारण भवि, शिर शिखा पूर्जत।। श्री जिनने नवरांवता कर्म थाये चकचर।।
6 भाल पूजा
तीर्थंकर पद पुण्यथी, त्रिभवन जल सेवंत। दुध आदि पञ्चामृत से प्रक्षालन के बाद पन: जल से त्रिभवन-तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत।। प्रक्षालन करें। इतना ख्याल में रक्खें किन्हवण का जल भमि पर 7 कंठ पूजाइधर-उधर बिखरे नहीं और पैर में आवे नहीं। इस हेतु बाल्टी सोल प्रहर प्रभु देशना, कठे विवर वरतुल। आदि की समुचित व्यवस्था पूर्व से ही कर दें।
मधुर ध्वनि सुरनर सुने, तिणे गले तिलक अमल।।
नाभि पूजा
रत्नत्रयी गुण उजली, सकल सुगुण विश्राम। नाभि कमलनी पूजना, करता अविचल धाम।।
इस प्रकार भक्तिरसपूर्ण हृदय से उपरोक्त अथवा पूर्वाचार्य कृत अन्य स्तुतियों द्वारा प्रभु की स्तवना करने के बाद प्रभ की छद्यस्थावस्था, केवली, अवस्था तथा सिद्धावस्था का भावन करना चाहिये।
मन्दिर में रहे समस्त जिन-बिम्बों की पूजा करने के बाद पुनः मूल-नायक अथवा अन्य जिन-बिम्ब के समक्ष अग्र-पूजा करनी चाहिये। (अग्र-पूजा समय मन्दिर में इस प्रकार बैठे कि जिससे दूसरों को आने-जाने में तकलीफ न हो और अपनी एकाग्रता में भी भंग न हो)
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