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________________ बारह व्रत यहाँ बारह व्रतों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। 1. स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत। इसमें स्थूल प्राण अतिपात विरमण व्रत शब्द हैं। इसका अर्थ यह है कि स्थूल जीवों की हिंसा से दूर रहना। जीवों के दो भेद हैं (1) त्रस और (2) स्थावर पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय इन पांच एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से गृहस्थ बच नहीं सकता। इसलिए उसे स्थूल त्रस जीवों की हिंसा से बचना चाहिए। गृहस्थ को संकल्प पूर्वक कोई हिंसा नहीं करनी चाहिए। 2. स्थूलमृषावाद विरमण व्रत। न दी हुई चीज वस्तु को ग्रहण करना अदत्तादान है। व्यावहारिक भाषा में इसे "चोरी" कहा जाता है। सूक्ष्म चोरी का त्याग न करने वाले गृहस्थ को कम से कम स्थूल चोरी का त्याग करना चाहिए। रास्ते में पड़ी हुई चीज उठा लेना, जमीन में गड़े हुए धन को निकाला लेना, किसी की रखी हुई वस्तु को बिना पूछे प्रयोग करना, दान चोरी (कस्टम चोरी) कम लेना, अधिक देना, अधिक लेना कम देना ये सभी चोरी के स्थूल प्रकार हैं गृहस्थ को इससे बचना चाहिए। - 4. स्थूल मैथुन विरमण व्रत । गृहस्थ को स्वदारा संतोषी होना चाहिए और परस्त्री का Jain Education International सर्वथा त्याग करना चाहिए। अपनी विवाहिता स्त्री को छोड़कर, वेश्या, विधवा या किसी कुमारी से शारीरिक संबंध नहीं रखना चाहिए। इन्हें अपनी माता और बहन तथा पुत्री मानना चाहिए। इसी प्रकार श्राविकाओं को भी अपने पति को छोड़ कर किसी अन्य पुरुष से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। "स्वदारा संतोष" का अर्थ यह है कि अपनी स्त्री से भी मर्यादित ही सम्बन्ध रखना चाहिए। अपनी स्त्री के साथ भी मर्यादा का भंग होता है तो व्यभिचार गिना जाता है। इसलिए गृहस्थ को स्वदारा संतोषी और परस्त्री का त्याग होना चाहिए। होना तो यह चाहिए कि श्रावक को सूक्ष्म असत्य भी नहीं बोलना चाहिए परंतु व्यवहार जगत में यह संभव नहीं इसलिए गृहस्थ को स्थूल मृषावाद असत्य का त्याग करना चाहिए। क्रोध, लोभ, भय और हास्य के कारण व्यक्ति झूठ बोलता है और इन चारों को छोड़ना कठिन है। इसीलिए व्यक्ति को सदा जागृत 6. दिग्व्रत। रहना चाहिए। 3. अवत्तावान विरमण व्रत । 5. स्थूल परिग्रह विरमण व्रत। सांसारिक पदार्थों के प्रति जितना ममत्व अधिक होगा उतना ही असंतोष, अविश्वास और दुःख होगा। अत्यधिक ममत्व ही दुख का कारण है। इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है। इन असीम इच्छाओं को सीमित कर देना, मर्यादित करना ही अपरिग्रह है। गृहस्थ को चाहिए कि वह परिग्रह सीमित करें। इससे समाजवाद को बल मिलता है। जितना परिग्रह कम होगा उतना ही जीवन सुखी और संतोषी होगा। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि दिशाओं में जाने की मर्यादा रखना अर्थात् एक हजार, पांच हजार आदि मील से अधिक न जाना, दिग्व्रत है। यह व्रत लोभवृत्ति को भी अंकुश में रखता है और अनेक प्रकार की हिंसा से बचाता है। 7. भोगोपभोग परिमाण व्रत । आता है। इच्छाओं का निरोध होता है चित्त की चंचलता कम होती है। 8. अनर्थ दंड विरमण व्रत । बिना प्रयोजन के पाप लगने की क्रिया को अनर्थ दंड विरमण व्रत कहा जाता है। व्यर्थ ही दूषित विचार करना, दुर्ध्यान करना, पापोपदेश देना, अनीति, अन्याय असत्य की प्रवृत्ति करना, किसी हत्यारे को प्रोत्साहन देना, तमाशा देखना, मजाक उड़ाना ये सब अनर्थ दंड अर्थात् निरर्थक आचरण के कार्य हैं। गृहस्थ को इन से दूर रहना चाहिए। 9. सामायिक । सामायिक का अर्थ है किसी एकान्त स्थान में अड़तालीस मिनिट समतापूर्वक बैठना। इस सामायिक में बैठकर व्यक्ति को आत्मचिंतन करना चाहिए, स्वाध्याय और मनन करना चाहिए, मोह और ममत्व को दूर करना चाहिए, समभाव वृत्ति को धारण करना चाहिए। चाहे कितना ही उपद्रव हो पर उद्विग्न न होना चाहिए। संक्षेप में कहें तो मन, वचन और काया को अशुभ वृत्तियों से हटाकर शुभ ध्यान में लगाना चाहिए। 10. देशावकासिक व्रत। "दिग्व्रत" में दिशाओं का जो परिमाण किया गया है वह यावज्जीवन का है। उसमें क्षेत्र की विशालता रहती है। परंतु "देशावकासिक व्रत" में क्षेत्र की सीमितता रहती है। दस मील जाना या पांच मील जाना या दो मील जाना या पांच सात घंटे तक एक ही स्थान पर बैठकर ज्ञान-ध्यान करना। इस प्रकार की प्रतिज्ञा करना "देशावकासिक व्रत" कहा जाता है। * भोगोपभोग में दो शब्द हैं: भोग और उपभोग जो वस्तु केवल एक ही बार काम में आती है वह भोग्य वस्तु है और जो 11. पौष धव्रत। अनेक बार काम में आती है उसे उपभोग कहा जाता है, जैसे अन्न, - पानी, विलेपन आदि ये चीजें भोग हैं और दूसरी बार काम में नहीं आती। घर, वस्त्र गहने आदि उपभोग है क्योंकि ये बार-बार काम में आती हैं। इन चीजों का परिमाण निश्चित कर लेना चाहिए। इन चीजों का परिमाण हो जाने पर तृष्णा पर अंकुश For Private & Personal Use Only धर्म को जो पुष्ट करता है उसका नाम पौषध है। बारह, चोबीस, या जितनी इच्छा हो उतने घण्टे तक सांसारिक प्रवृत्तियों को छोड़कर धर्मस्थान में धर्म क्रिया करते हुए साधुवृत्ति में रहना पौषध माना जाता है। जितने समय का पौषध हो उतने समय तक www.jainelibrary.omg
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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