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श्रावक धर्म -गणि जगच्चन्द्र विजय
आंखों में अगर मुस्कान है
तो इंसान तुमसे दूर नहीं पाँवों में अगर उड़ान है
तो आसमान तुमसे दूर नहीं शिखर पर बैठकर विहग ने यही गीत गाया
श्रद्धा में अगर जान है तो भगवान तुमसे दूर नहीं
जैन धर्म ने दो प्रकार के धर्म बताए हैं साधु धर्म और गृहस्थ दुखी होता है। शास्त्रकारों ने यम-नियम का विधान इसलिए धर्म। दोनों रास्ते अलग-अलग हैं; परंतु लक्ष्य दोनों का एक ही है। किया है कि मनुष्य अपने कर्तव्य-पथ पर चलता रहे और लक्ष्य को और यह भी सत्य है कि साधु हो या गृहस्थ बिना धर्म के आचरण प्राप्त करे। गृहस्थों के लिए बारह व्रतों का विधान इसलिए है कि के किसी का कल्याण नहीं होता। साधु सांसारिक प्रपंचों को छोड़ उनकी लोभवृत्ति कुछ कम हो, आधि-व्याधि-उपाधि के बीच देता है इसलिए न तो उसे द्रव्य की आवश्यकता है न घर-परिवार भी वह सुखी जीवन बिता सके। इन व्रतों का यही लक्ष्य है। की अतः उसके लिए हिसा, झूठ, चोरी, मैथन, परिग्रह आदि
बारह व्रतों के नाम इस प्रकार हैं:सर्वथा त्याज्य होते हैं।यह जब कि गृहस्थ के लिए सर्वथा त्याज्य
1. स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत। नहीं है। इसीलिए जैन धर्म ने दो प्रकार के धर्म बताए हैं।
2. स्थूल मूषावाद विरमण व्रत। जो लोग जैन धर्म का पालन करते हैं उन्हें जैन परिभाषा में 3. स्थल अदत्तादान विरमण व्रत। "श्रावक" और "श्राविका" कहा जाता है। इसका अर्थ यह नहीं
4. स्थूल मैथुन विरमण व्रत। कि जैन धर्म का पालन केवल बनिये ही कर सकते हैं। इसका 5. स्थूल परिग्रह विरमण व्रत। पालन किसी भी जाति का या वर्ग का व्यक्ति कर सकता है चाहे 6. दिगव्रत। वह ब्राहमण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शुद्र हो। वे भी "श्रावक" 7. भोगोपभोग विरमण व्रत।
और "श्राविका" कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं। भगवान 8. अनर्थदंड विरमण व्रत। महावीर स्वामी के मुख्य दस श्रावक थे उनमें कुछ कंभकार थे 9. सामायिक व्रत। कछ कणबी थे। श्रावक का अर्थ है श्रवण करना, हितकर वचन 10. देशावकासिक व्रत। सनना अर्थात कल्याण के मार्ग पर चलने के लिए जो तत्पर रहता 11. पौषध ब्रत। है वह श्रावक है। और वह कोई भी हो सकता है।
12. अतिथि संविभाग व्रत। साधुओं के लिए जैसे पांच महाव्रत हैं वैसे ही श्रावकों के लिए इन बारह व्रतों में प्रारंभ के पांच व्रतों को "अणवत" कहा बारह व्रत हैं। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि संसार आधि जाता है। "अण' का अर्थ है छोटा। गृहस्थों की अपेक्षा से साधुओं (मानसिक कष्ट) व्याधि (शारीरिक कष्ट) और उपाधि के महाव्रत छोटे और अल्प होते हैं। छह से आठ तक के व्रतों को (सांसारिक कष्ट) से भरा हुआ है। उसमें फंस कर मनुष्य दुख गुणवत" कहा जाता है क्योंकि वे पांच अणुव्रतों के सहायक होते झेलता है और दुख भूलों का परिणाम है। मनुष्य जब अपने कर्तव्य हैं। और अन्तिम चारको शिक्षाव्रत कहा जाता है क्योंकिवे प्रतिदिन से पतित हो जाता है तब पाप या भूल करता है और इसीलिए वह अभ्यास करने योग्य होते हैं। For Private &Personal use only
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