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________________ जैन दर्शन और विश्वशान्ति • आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि आधुनिक युग में विज्ञान ने जहां अनेक भौतिक जैनदर्शन का अपरिग्रह-सिद्धान्त-धन-सम्पत्ति के प्रति सुख-सुविधाएं प्रदान की हैं, वहाँ परमाणु आयुधों की निरन्तर आसक्ति (मूर्छा) नहीं रखना है। मनुष्य अपने भौतिक अभिवृद्धि के कारण जगत् विनाश के कगार पर खड़ा है। विश्व के सुख-साधन जुटाने में दिन-रात एक कर रहा है, छल-कपट राष्ट्र पारस्परिक भय के कारण अपनी सुरक्षा हेतु विनाशकारी करता है। दूसरों को दुःख पहुँचाता है। यदि अपरिग्रह-सिद्धांत को शस्त्रास्त्र पर खरबों रुपये खर्च कर रहे हैं। साथ ही विश्वशान्ति अपनालें तो वह धन-सम्पत्ति को नीति-न्याय से अर्जित करेगा, की बात भी कर रहे हैं। ऐसे भयाक्रान्त विश्व को शान्ति की जितनी आवश्यकता होगी, उतनी ही सामग्री संचित करेगा, 'शेष अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि इसके बिना अभावग्रस्त, सम्पत्ति को दानादि परोपकार में व्यय करेगा। धन-सम्पत्ति क्षुधापीड़ित करोड़ों मनुष्य दरिद्रता की चक्की में पिसे जा रहे हैं। समाज की है-इसका स्वामित्व केवल धन-स्वामी का ही नहीं है, विश्वशान्ति की स्थापना के लिए जैनदर्शन के अहिंसा. क्योंकि इसकी प्राप्ति में दूसरों का भी सहयोग है-'परस्परोपग्रहो अनेकान्त और अपरिग्रह सिद्धान्त महत्वपूर्ण हैं। अहिंसा से जीवानाम् (श्रीतत्त्वार्थसूत्र-5,21)। अपरिग्रह सिद्धान्त के विश्व-मैत्री का विकास होता है, इससे समस्त संसार प्रेम के अपनाने से जमाखोरी मिटेगी, काले धन की समाप्ति होगी स्वर्णसूत्र में बंध जाता है। अहिंसा से प्राणिमात्र के लिए स्नेह और नाति-न्याय की स्थापना होगी। फलस्वरूप पारस्परिक वैमनस्य, सम्मान की भावना आती है, जिससे सम्प्रदाय, जाति, धर्म आदि परिस्पद्धा और स्वार्थ के मिटने से संतोष फैलेगा। इससे का भद-भाव नहीं रहता, अखण्ड मानवता का बोध होता है। यही विश्वशान्ति की स्थापना होगी। सूत्र विश्व-समाज की रचना करता है। अहिंसा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की आधारशिला है। अहिंसा का पालन अनेकान्तदर्शन से ही सम्भव है। जैनदर्शन का दूसरा नाम अनेकान्तदर्शन है। किसी के प्रति कोई दुराग्रह नहीं, कोई हठ नहीं। सत्य के अनेक पक्ष हैं-समग्र दृष्टिकोणों से सत्य को परखने से सही स्वरूप प्रकट होता है. यही अनेकान्त दर्शन की खूबी है। इस विश्व में अनेक मत-मतान्तर हैं, अनेक धर्म हैं, सम्प्रदाय और जातियाँ हैं, सबके प्रति सद्भाव रखना अनेकान्त दर्शन का वैशिष्ट्य है। अनेकान्त दर्शन दराग्रह को दर कर शाश्वत सत्य को उजागर करता है। यदि जगत के लोग एकान्तवाद (हठवाद) को छोड़कर अनेकान्तवाद अपनावें तो विश्वशान्ति निश्चित है| vate & Personal One Only on Education intamaton www.jainelibrary.org
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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