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________________ 'लेश्याएं छह प्रकार की हैं: कशलेश्या, नील लेश्या. दर्पण के सामने खड़े होकर तुम अपने को देखते हो, वह कापोत लेश्या, तेजो लेश्या (पीत लेश्या), पद्म लेश्या और तुम्हारा होना नहीं है; तुम्हारे देह की छाया है। न तुम्हें अपना पता शुल्क लेश्या।' चलता है, न दूसरों की आत्मा का कोई बोध होता है। 'कृष्ण, नील और कापोत, ये तीनों अधर्म या अशुभ कृष्ण लेश्या उठे, तो ही आत्मदर्शन हो सकते हैं। लेश्याएं हैं। इनके कारण जीव विभिन्न दर्गतियों में उत्पन्न होता ऐसी महावीर ने छह पर्दो की बात कहीं है: कृष्ण लेश्या, फिर नील लेश्या, फिर कापोत लेश्या। क्रमशःअंधेराकम होता 'पीत (तेज), पद्य और शुक्ल: ये तीनों धर्म या शभ लेश्याएं जाता है। हैं। इनके कारण जीव विविध संगतियों में उत्पन्न होता है।' कृष्ण के बाद नील। अंधेरा अब भी है, लेकिन नीलिमा जैसा 'छह पथिक थे। जंगल के बीच जाने पर वे भटक गए। भूख है। फिर कपोत-कबूतर जैसा है। आकाश के रंग जैसा है। जैसे-जैसे पर्दे उठते हैं. वैसे-वैसे भीतर की झलक स्पष्ट होने सताने लगी। कुछ देर बाद उन्हें फलों से लदा एक वृक्ष दिखाई दिया। उनकी फल खाने की इच्छा हुई। वे मन ही मन विचार लगती है। लेकिन एक बात ख्याल रखना। महावीर कहते हैं, शुभ करने लगे। एक ने सोचा कि पेड़ को जड़मूल से काटकर उसके लेश्या भी पर्दा है। वह अंतिम लेश्या है जब तक रंग है, तब तक फल खाए जाएं। दूसरे ने सोचा कि केवल स्कन्ध ही काटा जाए। पर्दा है। जब तक रंग हैं, तब तक राग है। तीसरे ने विचार किया कि शाखा को तोड़ना ठीक रहेगा। चौथा राग शब्द का अर्थ रंग होता है। सोचने लगा कि उपशाखा ही तोड़ी जाए। पांचवां चाहता था कि विराग शब्द का अर्थ, रंग के बाहर हो जाना होता है। वीतराग शब्द का अर्थ होता है, रंग का अतिक्रमण कर फल ही तोड़े जाएं। छठे ने सोचा कि वृक्ष से टपककर फल जब जाना। नीचे गिरें तभी चुनकर खाए जाएं।' 'इन छह पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म, क्रमशः छहों अब तुम पर कोई रंग न रहा। क्योंकि जब तक रंग है, तब | तक स्वभाव दबा रहेगा। तब तुम्हारे ऊपर कछ और पड़ा है। लेश्याओं के उदाहरण हैं।' लेश्या महावीर की विचार-पद्धति का पारिभाषिक शब्द चाहे सफेद ही क्यों न हो, शुभ ही क्यों न हो। है। उसका अर्थ होता है: मन, वचन, काया की काषायुक्त हम तो काली अंधेरी रात में दबे हैं। महावीर पूर्णिमा को भी वृत्तियां। कहते हैं, कि वह भी पूर्ण अनुभूति नहीं है। अमावस तो छोड़नी ही । मनुष्य की आत्मा बहुत-से पदों में छिपी है। ये छह लेश्याएं है, पूर्णिमा भी छोड़ देनी है। कृष्ण लेश्या तो जाए ही, शुक्ल छह पर्दे हैं। लेश्या भी जाए। कृष्ण पक्ष तो विदा हो ही, शुक्ल पक्ष भी विदा पहला पर्दा है: कृष्ण लेश्या। बड़ा अंधकार, काला, हो। तुम पर कोई पर्दा ही न रह जाए। तुम बेपर्दा हो जाओ। कीण्हा णीला काऊ, तेऊ पम्मा य सक्कलेस्सा य ।। अमावस की रात जैसा। जिस पर कृष्ण लेश्या पड़ी है, उसे अपनी इसलिए महाबीर नग्न रहे। व्रत नग्न सूचक हैं। ऐसी ही लेस्साणं णिहेसा, छच्चेव हबंति णियमेण ।। आत्मा का कोई पता नहीं चलता। इतने अंधेरे मेंदबेहैं, प्राण कि आत्मा भी भीतर नग्न हो, तभी उसका अहसास शुरू होता है। कीण्हा णीला काऊ, तिषिण बि एयाओ अहम्मलेसाओ। प्राण हो भी सकते हैं, इसका भरोसा नहीं आता। स्वयं ही पता नहीं अ प्राण हो भी सकते हैं, इसका भरोसा नहीं आता। स्वयं ही पता नहीं और जब अपनी आत्मा का पता चले तो औरों की आत्मा का पता एयाहि तिहि बि जीबो, दुग्गइं उबबज्जई बहुसो।। चलती आत्मा तो दूसरे को तो पता कैसे चलेगी? चलता है। जितना गहरा हम अपने भीतर देखते हैं, उतना ही हमारा युग कृष्ण लेश्या का युग है। लोग अमावस में जी रहे गहरा हम दसरे के भीतर देखते हैं। तेऊ पम्हा सुक्का, तिण्णि बि एयाओ धम्मलेसाओ। हैं। पूर्णिमा खो गई है। पूर्णिमा तो दूर, दूज का चांद भी कहीं हमें तो अभी मनुष्यों में भी आत्मा है, इसका भरोसा नहीं। एपाहि तिहि बि जीवो, सुग्गई उबवज्जई बहुसो।। दिखाई नहीं पड़ती। इसलिए आत्मा पर भरोसा नहीं आता। होता। ज्यादा से ज्यादा अनुमान...होनी चाहिए। है, ऐसा पहिया जे छ प्पुरिसा, परिभट्टराण्णमादेसम्हि । भरोसा आए भी कैसे? पर्दा इतना काला है कि भीतर प्रामाणिकता नहीं मालूम होती। अंदाजन करते हैं- होगी। फलभरियरूक्खमंग, पेक्खित्ता ते विचितंति।। प्रकाश का स्रोत छिपा है, इसकी प्रतीति कैसे हो? जब तुम दूसरे तर्कयुक्त मालूम पड़ती है कि होनी चाहिए। लेकिन वस्तुतः है णिम्मूलखंधमाहु-बसाहं छित्तं चिणित्तु पडिदाई। को भी देखते हो, तब भी देह ही दिखाई पड़ती है। स्वयं को देखते ऐसा कोई अस्तित्वगत हमारे पास प्रमाण नहीं है। अपने भीतर हा खाउँ फलाई इदि, जं मणेण बयणं हबे कम्भं ।। हो, तब भी देह ही दिखाई पड़ती है। प्रमाण नहीं मिलता, दूसरे के भीतर कैसे मिले? जैन दर्शन में छः लेश्याएँ For Only dain Education international
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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