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इस गांव में भी दो प्रवचन हुए। प्रवचन के बाद एक श्रावक ने पूछा - "स्थूलिभद्र जी कोशा वेश्या के महल में चार महीने रुकते हैं फिर भी वे अखण्ड ब्रह्मचारी रहे। यह बात कैसे संभव हो सकती हैं?"
आचार्य विजय वल्लभ उत्तर दिया 'मन एवं मनुष्याणां कारण बन्धमोक्षयों:' मन ही मनुष्य के बन्धन और मुक्ति का कारण है। मन के साधे साध है, जिसने मन को जीत लिया वह साधु है। स्थलिभद्र जी ने अपने मन को साध लिया था। और जिन्होंने मन को साध लिया है ऐसे योगियों के लिए कोई नियम लागू नहीं होता। मैं तुम से ही पूछता हूं कि तुमने कभी उपवास किया है?"
श्रावकः "हां, किया है, और अनेक बार किया है।"
विजय वल्लभः "तो जिस दिन तुम उपवास करते हो उस दिन घर, परिवार, खाने-पीने की चीजें छोड़ कर किसी पहाड़ी गुफा में चले जाते हो? जहां न घर है न परिवार है न मिष्टान्न है। " श्रावकः "नहीं, मैं उस दिन कहीं नहीं जाता, अपने घर में ही रहता हूं?"
"विजय वल्लभः "उपवास कर के तुम अपने घर ही में रहते हो, खाने-पीने की चीजों के बीच रहते हो फिर भी तुम उपवासी बने रहे यह कैसे संभव है?"
श्रावकः "यह संभव है क्योंकि मैंने उन खाने-पीने की चीजों से मन हटा लिया है। जब मेरा मनोबल स्थिर है तो वे चीजें मेरा कुछ नहीं कर सकतीं। "
विजय वल्लभः "यही बात काम विजेता स्थूलिभद्रजी की है। ' उन्होंने अपने मन को जीत एवं स्थिर कर वहां चातुर्मास किया
था।
संत और श्रोता
पंजाब के एक प्रतिष्ठित नगर समाना में आचार्य विजय वल्लभ एक मास तक रुके थे। हर स्थान की भांति यहां भी उनकी वाणी का जादू फैला था। सिख, ईसाई, मुसलमान, हिन्दू आदि विविध धर्म, मत, पंथ, संप्रदाय के लोग एकत्र होते थे। एक
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मुसलमान प्रोफेसर मुंशी शहे हुसेन जो समन्वयवादी एवं सत्यानवेषी थे प्रतिदिन आते थे और प्रवचन के बाद नाना शंकाओं एवं जिज्ञासाओं का समाधान पाते थे विजय वल्लभ ने एक-दो पुस्तकें भी उन्हें पढ़ने को दी थीं। जब वे समाना से विहार कर होशियारपुर पधारे तब मुन्शी हुसेन ने पत्र लिखकर अपने मनोभावों का दिग्दर्शन कराया था। पत्रांश उद्धृत है, उन्हीं की भाषा में।
"पीरे तरीकत, राहे हिदायत श्रीमुनिवल्लभ विजय जी म! बाद अजाए अदब व तस्लिमात बजा लाकर अर्ज खिदमात आलीजाह हूं। बंदा खैरियत और खैरों आफियत हजूर अन्वर नेक मतलूब। हजूर की मुलाकात से जो, कुछ फायदा उठाया बयान से बेरुं। दोनों किताबें जेर मुताला हैं। जहां तक मेरे इन्साफ ने फैसला दिया है। मसलन दया और अहिंसा का जेर तालीम में फौकीयत रखता है।
दास की निहायत अदब से अरदास है, दयादृष्टि फर्माएं। बंदा बारह तेरह रोज बाद हाजिर खिदमत होकर कदमबोसी हासिल करेगा। बराए परवरिश एक किताब जिसमें जैन पुरुषार्थ का
लबेलबाबयानी रियाजत या तप ध्यान या मशरुबा ज्ञान या मारफत के असूल उर्दू में हों तो बेहतर हैं, नहीं तो फिर किसी भी भाषा में हों जरूर तलाश करके रख छोडें। हजूर की दया से बंदे को इस वक्त किसी किताब या ग्रन्थ की जरूरत नहीं। लेकिन धर्म के फूल सूंघने का निहायत शौक है। बाकी सब की खिदमत में सलाम कबूल हो ज्यादा आदाब फक्त
खादिमुल फकीर मुन्शी शहे हुसेन समानवी
नारी मुक्ति
अम्बाला में विहार कर आचार्य विजय वल्लभ देवबन्द पधारे। यहां श्वेतम्बरों का एक भी घर न था। दो सौ पचास घर दिगम्बरों के अवश्य थे। उस समय दिगम्बरों का कोई महोत्सव चल रहा था। जिस दिन आचार्य विजय वल्लभ पधारे उस दिन रथ यात्रा का जुलूस भव्य रूप से निकल रहा था। जुलूस की समाप्ति पर वहां के श्रावकों ने आचार्य श्री से प्रवचन करने की
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विनती की। हजारों लोगों की उपस्थिति में 'जैन धर्म की विशालता' विषय पर उनका प्रभावशाली प्रवचन हुआ। लोग अत्यन्त प्रभावित हुए। एक सप्ताह यहीं रुकने का अति आग्रह किया गया। इस आग्रह वश एक दिन और अधिक रुके। दूसरे दिन भी प्रवचन हुआ, विशाल धर्मशाला का प्रांगण छोटा पड़ने लगा।
संध्या के प्रतिक्रमण के बाद कुछ अध्यनशील श्रावक शास्त्र चर्चा हेतु आए। दो घण्टे तक शास्त्र चर्चा होती रही। उनका अगाध ज्ञान देखकर श्रावकगण अचरज में पड़ गये। अन्त में एक श्रावक ने प्रश्न किया-"महाराज श्री, क्या स्त्री की मुक्ति होती है? और केवल ज्ञानी भोजन कर सकता है ?"
आचार्य विजय वल्लभ ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया- 'देखो भाई! इस पंचमकाल, कलियुग में न तो मुक्ति है और न केवलज्ञानी का अस्तित्व। अगर इस समय मोक्ष होता और केवल ज्ञानी भी विद्यमान होते तो हम प्रत्यक्ष दिखा देते कि स्त्री की मुक्ति है और केवल ज्ञानी भोजन भी कर सकता है। अब जब वे प्रत्यक्ष नहीं हैं तो उनकी चर्चा कर विवाद के जाल में उलझना व्यर्थ है ।
शास्त्रों में तो स्त्री की मुक्ति और केवल ज्ञानी के भोजन की बात है ही, अब मानना न मानना अपनी इच्छा की बात है।'
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गरीबों के मसीहा
सूर्यास्त की तैयारी थी। दिन भर चला सूर्य श्रमित होकर विश्राम हेतु अस्ताचल पहुंचने के लिए शीघ्रता कर रहा था। गोधूलि उड़ रही थी। पक्षी अपने नीड़ों की ओर लौट रहे थे। आचार्य विजय वल्लभ बिनौली गावं से बाहर निकले। जहां एक कुआं था। बहुत सी महिलाएं पानी भर रही थीं। उसी कुएं के पास रास्ता से आचार्य श्री जी गुजरे। वहां दस ग्यारहवर हरिजनों के भी थे। कुआं पार कर जैसे ही वे हरिजन बस्ती से गुजरने लगे। बीस-पच्चीस हरिजन दौड़ते हुए आए और साष्टांग दण्डवत करने के बाद हाथ जोड़कर बोले- "महाराज, हमें सच्चा मार्ग
बताइए।"
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आचार्य श्री: "आप लोग क्या चाहते हैं?" हरिजनः 'हम मेघवाल हरिजन हैं। हम हिन्दू रहें या
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